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जापान में जैनविद्या का अध्ययन बौद्धधर्म के साथ चीनी एवं तिब्बतन स्रोतों के आधार पर हुआ। इसके प्रवर्तक थे प्रो. जे. सुजुकी जिन्होंने जैन सेक्रेड बुक्स के नाम से लगभग 250 पृष्ठ की पुस्तक लिखी। वह 1920 ई. में वर्ल्डस सेकेड बुक्स ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हुई । सुजुकी ने तत्वार्थधिगमसूत्र , योगशास्त्र एवं कल्पसूत्र का जापानी अनुवाद भी अपनी भूमिकाओं के साथ प्रकाशित किया । जैनविद्या पर कार्य करने वाले दूसरे जापानी विद्वान् तुहुकु विश्वविद्यालय में भारतीय विद्या के अध्यक्ष डॉ. ई कनकुरा हैं । इन्होंने सन् 1939 में प्रकाशित हिस्ट्री आफ स्प्रिचुअल सिविलाइजेनशन आफ एशियण्ट इंडिया के नवें अध्याय में जैनधर्म के सिद्धान्तों की विवेचना की है तथा आपकी द स्टडी आफ जैनिज्म कृति 1940 में प्रकाश में आयी। 1944 ई. में तत्वार्थधिगमसूत्र एवं न्यायावतार का जापानी अनुवाद भी आपने किया है।
बीसवीं शताब्दी के छठे एवं सातवें दशक में भी जैनविद्या पर महत्वपूर्ण कार्य जापान में हुआ है। तेशो विश्वविद्यालय के प्रो. एस. मत्सुनामी ने बौद्धधर्म और जैनधर्म का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। ए स्टडी आन ध्यान इन दिगम्बर सेक्ट 1961 , एथिक्स आफ जैनिज्म एण्ड बुद्धिज्म 1963 तथा इसिभासियाइ 1966 एवं दसवेयालियसुत्त 1968 का जापानी अनुवाद जैनविद्या पर आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं । सन् 1970 ई. में डॉ. एच. उइ. की पुस्तक स्टडी आफ इंडियन फिलासफी प्रकाश में आयी। उसके दूसरे एवं तीसरे भाग में उन्होंने जैनधर्म के सम्बन्ध में अध्ययन प्रस्तुत किया है। टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. डॉ. एच. नकमुरा तथा प्रो. युतक ओजिहारा वर्तमान में जैनविद्या के अध्ययन में अभिरुचि रखते हैं । उनके लेखों में जैनधर्म का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। श्री अत्सुशी उनो भी जैनविद्या के उत्साही विद्वान हैं । इन्होंने वीतरागस्तुति हेमचन्द्र , प्रवचनसार , पंचास्तिकायसार तथा सर्वदर्शनसंग्रह के तृतीय अध्याय का जापानी अनुवाद प्रस्तुत किया है। कुछ जैनधर्म सम्बन्धी लेख भी लिखे हैं। सन् 1961 में कर्म डॉक्टाइन इन जैनिज्म नामक पुस्तक भी आपने लिखी हैं।
डॉ. फाईलिस ग्रानोफ ( कनाडा ) ने प्राकृत कथा साहित्य पर कार्य करने वाले विदेशी विद्वानों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। डॉ. नलिनी बलवीर ने 1986 में पेरिस विश्वविद्यालय में आवश्यक चूर्णी की कथाओं पर शोधप्रबन्ध प्रस्तुत किया है। उन्हीं के शिष्य क्रिस्ताइन चोनाकी ने 1992 में जिनभद्रसूरी के विविध तीर्थकल्प का आलोचनात्मक संस्करण तैयार किया है फ्रेंच अनुवाद के साथ । बेल्जियम से क्रिसवान लाअर ने पुरातनप्रबन्धसंग्रह पर
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प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन
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