Book Title: Panchastikay Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित पंचास्तिकाय (खण्ड-2) (नवपदार्थ-अधिकार) (मूलपाठ-डॉ. ए.एन.उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन আত্মজীৱী ভান্ধী जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी। राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी पाणु जोजोबा जैन विद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322220 ( राजस्थान ) दूरभाष- 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष- 0141-2385247 प्रथम संस्करण : अक्टूबर, 2014 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य - 250 रुपये ISBN 978-81-926468-4-8 पृष्ठ संयोजन फ्रैण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. विषय 1. 2. 3. 4. 5. प्रकाशकीय सम्पादक की कलम से सूची नवपदार्थ-अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट- 1 अनुक्रमणिका (i) संज्ञा - कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त कोश (iv) विशेषण - कोश (v) सर्वनाम - कोश (vi) अव्यय - कोश परिशिष्ट-2 छंद परिशिष्ट- 3 सहायक पुस्तकें एवं कोश पृष्ठ संख्या V 1 5 9 59 3235 63 72 75 4161010420126 77 81 82 85 888 Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार्य कुन्दकुन्द-रचित 'पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ अधिकार' हिन्दी-अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती आचार्य कुन्दकुन्द-रचित उपर्युक्त कृतियों में से ‘पंचास्तिकाय' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित एक रचना है। इसके दूसरे नव पदार्थ-अधिकार में आचार्य द्वारा रचित 105 से 153 तक की गाथाएँ ही अनुवाद में सम्मिलित की गई है। दूसरे अधिकार में जीव-अजीव पदार्थ, पुण्यपाप आस्रव-बंध, संवर-निर्जरा-मोक्ष आदि नव पदार्थ का निरूपण है। ‘पंचास्तिकाय' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'पंचास्तिकाय' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत कृति के दो अधिकारों में से 'नवपदार्थ - अधिकार' प्रकाशित किया जा रहा है। जैन दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृतअपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में पंचास्तिकाय का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम. फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। पुस्तक- प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने 'पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2 ) नवपदार्थ-अधिकार' का हिन्दी अनुवाद करके जैन दर्शन व शौरसेनी प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रैण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादार्ह है। न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी मंत्री अध्यक्ष प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी वीर निर्वाण संवत् - 2541 23.10.2014 डॉ. कमलचन्द सोगाणी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति जयपुर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार संपादक की कलम से आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित नव-पदार्थ इस प्रकार हैं: (1) जीव, (2) अजीव, (3) पुण्य, (4) पाप, (5) आस्रव, (6) बंध, (7) संवर,(8) निर्जरा और(9) मोक्षा जीव का लक्षण चेतना है। चेतनारहित अजीव है। वह अजीव पाँच प्रकार का हैः पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जीव और पुद्गल का संबंध सात प्रकार से वर्णित है। जीव के शुभ परिणाम से पुद्गल का कर्मरूप परिवर्तन पुण्य है। जीव के अशुभ परिणाम से पुद्गल का कर्मरूप परिवर्तन पाप है। मन-वचन-काय के योग द्वारा पुद्गल कर्मों का आगमन आस्रव है। उन कर्मों का जीव से संबंध हो जाना बंध है। कर्मों के आगमन का निरोध संवर है। कर्मों का एकदेश क्षय निर्जरा है। कर्मों का पूर्ण क्षय होना मोक्ष है। जीव-अजीव पदार्थः ___जीव दो प्रकार के कहे गये हैंः संसारी और मुक्त। संसारी जीवों के पाँच भेद हैः (1) एक इन्द्रिय जीव (स्पर्शन इन्द्रिय-युक्त), (2) दो इन्द्रिय जीव (स्पर्शन और रसना इन्द्रिय-युक्त), (3) तीन इन्द्रिय जीव (स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय-युक्त),(4) चार इन्द्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन्द्रिय-युक्त) और (5) पाँच इन्द्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत (कर्ण) इन्द्रिय-युक्त)। इस तरह से जीव स्पर्शन से स्पर्श को, रसना से रस को, घ्राण से गंध को, चक्षुसे रूप (वर्ण) को और श्रोत (कर्ण) से शब्द को जानते हैं। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक इन्द्रिय जीव:पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक। ये जीव स्पर्श को जानते हैं। दो इन्द्रिय जीव:घोंघा, शंख, सीप, पाँव-रहित (लट) आदि। ये जीव स्पर्श और रस को जानते हैं। तीन इन्द्रिय जीवःनँ, खटमल, चींटी, बिच्छु आदि। ये जीव स्पर्श, रस और गंध को जानते हैं। चार इन्द्रिय जीव:मच्छर, डांस, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा, टिड्डियाँ आदि। ये जीव स्पर्श, रस, गंध और वर्ण (रूप) को जानते हैं। पाँच इन्द्रिय जीवःदेव, मनुष्य, नारकी और तिर्यंच। ये जीव जल में रहनेवाले, भूमि पर चलनेवाले और आकाश में विचरण करनेवाले होते ये जीव स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द को जानते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द जीव का अचेतन द्रव्यों से भेद करते हुए कहते हैं: “जीव सबको जानता है, देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुख से डरता है, उचित क्रिया अथवा अनुचित क्रिया करता है और उन उचित-अनुचित क्रियाओं के फल को भोगता है।'' फिर कहते हैं कि अजीव द्रव्य में सुख-दुख का अनुभव नहीं होता अथवा उचित क्रियाओं में प्रवृत्ति तथा अनुचित क्रियाओं से भय नहीं होता। जीव को तर्क से नहीं जाना जा सकता है, इसका तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है। भिन्न-भिन्न आकारवाले अनन्त शरीरों में रहनेवाले जीवों का कोई एक निश्चित आकार इंगित नहीं किया जा सकता है। ( 2 ) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-पुद्गलः यहाँ यह ध्यातव्य है कि जो जीव आवागमनात्मक संसार में स्थित है, उसके जीवन में राग-द्वेष के उत्पन्न होने से पुद्गलमयी द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है और उसके कारण विभिन्न गतियों में गमन होता है। विभिन्न गतियों में विभिन्न प्रकार के शरीर व इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण और उनसे राग-द्वेष की उत्पत्ति होने के कारण पुद्गल द्रव्य कर्म की उत्पत्ति से संसार चक्र चालू हो जाता है। कहा गया है कि यह संसार भ्रमण जीवों की योग्यता के अनुसार अनादि-अनन्त अथवा अंत-सहित होता है। आम्रव-बंधः जीव के शुभ परिणाम से पुद्गल का कर्मरूप परिवर्तन पुण्य है और अशुभ परिणाम से पुद्गल का कर्मरूप परिवर्तन पाप है। जब जीव के मन में शुभराग, दया-भाव तथा कलुषता का अभाव होता है तो पुण्य कर्म का आस्रव-बंध होता है। शुभ राग के अन्तर्गत हैः अरहंत, सिद्ध, साधु में भक्ति, धर्म-मार्ग पर चलने का प्रयत्न, गुरुओं के मार्ग का अनुसरण। दया-भाव उस समय कहा जाता है जब कोई जीव प्यासे को, भूखे को तथा किसी दुखीको देखकर करुणा भाव से उनके दुख का निवारण करने का प्रयत्न करता है। कलुषता का अभाव तब होता है जब मन में क्रोध, मान, माया और लोभ विद्यमान नहीं होता और मन व्याकुलता-रहित होता है। । जीव के अशुभ परिणमन से पाप का आस्रव-बंध होता है। असावधानी से व्याप्त चर्या, मन में मलिनता, इन्द्रिय विषयों में लोलुपता, अन्य मनुष्यों को कष्ट पहुँचाना, उनकी निन्दा करना, आर्त और रौद्र ध्यान, ज्ञान की दुरुपयोगिता, आत्मविस्मृति आदि से पाप का आस्रव-बंध होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर-निर्जरा-मोक्षः ___ आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि धर्ममार्ग पर चलने से पापास्रव के स्रोत बंद किये जा सकते हैं। यह समझना चाहिये कि पाप-आस्रव समाज हित में नहीं होता है। पुण्य कर्मों से समाज का विकास होता है। गृहस्थ जीवन में पाप-आस्रव को रोकना अपेक्षित है। पुण्य कार्यों में लगना धर्म मार्ग पर चलने से ही संभव है, किन्तु जब व्यक्ति शुद्धोपयोग की ओर मुड़ता है तो पुण्य कर्म भी उसे अपने आत्मोत्थान में बाधक प्रतीत होने लगते हैं। पाप कार्यों से तो वह हट ही चुका है, अब वह पुण्य कार्यों से भी धीरे-धीरे हटना चाहता है। आचार्य का मत है कि गृहस्थ जीवन में यह संभव नहीं होता है। अतः वह श्रमण अवस्था की ओर झुकता है और सुख-दुख में समान स्थिति होने पर पुण्य-पाप कर्मों का आस्रव रुक जाता है। यही संवर है। आचार्य कहते हैं “जिस समय संयमी (श्रमण) के मन-वचन-काय योग में शुभ-अशुभ परिणाम नहीं होते, उस समय उसके पुण्यपाप से निर्मित कर्म का संवर होता है।" शुद्धोपयोग की ओर मुड़ा हुआ श्रमण जब संवरात्मक योगों से अनेक प्रकार के तप करता है तो वह अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है। इस तरह जो संवर से संबंधित होकर आत्मा को साधनेवाला है, वह आत्मा को ध्याता है। उसके पुण्य-पाप को जलानेवाली ध्यान अग्नि उत्पन्न हो जाती है और वह कर्मों से छूट जाता है। कर्मों का अभाव होने पर, वह सबको जाननेवाला और समस्त लोक को देखनेवाला हो जाता है और वह इन्द्रिय-रहित, बाधा-रहित, अनन्त सुख को पाता है। यही मोक्ष है। ( 4 ) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसे-संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अनुवाद समझा जा सकेगा। संकेत-सूची अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया कर्म - कर्मवाच्य अनि - अनियमित नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भवि - भविष्यत्काल भूकृ - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वक - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+().....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। •[()-()-().....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक है। • {[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। ‘जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। 'जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर ‘अनि' भी लिखा गया है। क्रिया-रूप निम्नप्रकार लिखा गया है 1/1 अक या सक - उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक - अन्य पुरुष/बहुवचन ( 6 ) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्नप्रकार लिखी गई हैं 1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय (पंचत्थिकायो) (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105. अभिवंदिऊण सिरसा अपुणब्भवकारणं महावीरं । तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ।। अभिवंदिऊण सिरसा अपुणब्भवकारणं महावीरं तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि (अभिवंद) संकृ (सिरसा) 3 / 1 अनि 1. प्रणाम करके सिर से [(अपुणब्भव) - (कारण) 2/1] मोक्ष के कारण को (महावीर) 2 / 1 महावीर को (त) 6 / 2 - 3 / 2 सवि [ ( पयत्थ) - (भंग) 2 / 1] ( मग्ग) 2 / 1 (मोक्ख ) 6/1 (वोच्छ) भवि 1 / 1 सक पयत्थभंगं मोक्खस्स मग्गं वोच्छामि । अन्वय- महावीरं सिरसा अभिवंदिऊण तेसिं अपुणब्भवकारणं उनके द्वारा पदार्थों के भेद को मार्ग को मोक्ष कहूँगा अर्थ - (यह ) ( मैं ) ( कुन्दकुन्दाचार्य) (तीर्थंकर) महावीर को सिर से प्रणाम करके उनके द्वारा ( प्रतिपादित) मोक्ष के कारण को, पदार्थों के भेद को (और) मोक्ष मार्ग को कहूँगा। - कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार (9) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106. सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं। मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं।। सम्मत्तणाणजुत्तं सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान युक्त चारित्र राग-द्वेष रहित चारित्तं रागदोसपरिहीणं [(सम्मत्त)-(णाण)(जुत्त) भूकृ 1/1 अनि] (चारित्त) 1/1 [(राग)-(दोस) (परिहीण) भूकृ 1/1 अनि] (मोक्ख) 6/1 (हव) व 3/1 अक (मग्ग) 1/1 (भव्व) 4/2 वि (लद्धबुद्धि) 4/2 वि मोक्ष मोक्खस्स हवदि मग्गो मार्ग भव्वाणं लद्धबुद्धीणं भव्यों के लिए प्राप्त बुद्धिवाले अन्वय- सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं मोक्खस्स मग्गो लद्धबुद्धीणं भव्वाणं हवदि। अर्थ- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान युक्त चारित्र (जो) राग-द्वेष रहित (है) (वह) मोक्ष-मार्ग है। (और) (वह) (मोक्षमार्ग) (भेदज्ञान) प्राप्त बुद्धिवाले भव्यों के लिए (होता है)। (10) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । चारितं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ।। सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं' सिमधिगमो णणं चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ' ( सम्मत्त) 1 / 1 (सद्दहण) 1 / 1 (भाव) 6/27/2 [(तेसिं) + (अधिगमो)] तेसिं (त) 6/2 सवि अधिगमो (अधिगम) 1/1 ( णाण) 1 / 1 ( चारित) 1 / 1 (समभाव) 1/1 ( विसय ) 7/2 [(विरूढ) वि ( मग्ग) 6 / 2-7 / 2] 1. सम्यग्दर्शन श्रद्धा पदार्थों में उनका ठीक-ठीक बोध सम्यग्ज्ञान चारित्र अन्वय- भावाणं सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं विसयेसु समभावो चारितं विरूढमग्गाणं । समभाव विषयों में परिज्ञात (मोक्ष) मार्गों में अर्थ- पदार्थों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन ( है ), उन ( पदार्थों) का ठीक-ठीक बोध सम्यग्ज्ञान ( है ) (और) (इष्ट-अनिष्ट) विषयों में समभाव (सम्यक् ) चारित्र (है)। परिज्ञात (मोक्ष) मार्गों में (यह मार्ग ) ( प्रमाणित है ) । पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) (11) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108. जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।। जीवाजीवा [(जीव) + (अजीवा)] [(जीव) - (अजीव) 1/2] (भाव) 1 / 2 ( पुण्ण) 1/1 (पाव) 1 / 1 अव्यय ( आसव ) 1 / 1 आस्रव (त) 6/2 सवि उनके [ ( संवर) - ( णिज्जरा - णिज्जर ) ' - संवर, निर्जरा और ( बंध) 1 / 1 बंध (मोक्ख) 1 / 1 मोक्ष अव्यय और (हव) व 3 / 2 अक होते हैं (त) 1/2 सवि वे (अट्ठ) 1/2 पदार्थ भावा पुण पावं च आसवं तेसिं संवर णिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति अझ 1. ] (12) जीव- अजीव पदार्थ अन्वय- जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च तेसिं आसवं संवरणिज्जरबंधो य मोक्खो ते अट्ठा हवंति । अर्थ- जीव-अजीव पदार्थ ( हैं ) । पुण्य-पाप ( पदार्थ हैं) और उन (पुण्य और पाप दोनों) के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - ( इस प्रकार ) वे (नौ) पदार्थ होते हैं। पुण्य पाप और यहाँ छन्द पूर्ति हेतु 'णिज्जरा' का 'णिज्जर' किया गया है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109. जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा। उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ।। जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पा M ओगलक्खणा व य देहादेहप्पवीचारा' (जीव ) 1/2 (संसारत्थ) 1/2 वि (णिव्वाद) भूकृ 1/2 अनि ( चेदणप्पग ) 1/2 वि [(3) fa-(fax) 1/2] [(उवओग)( लक्खण) 1 / 2 वि] अव्यय अव्यय - [(देह)+(अदेहप्पवीचारा)] {[(देह)-(अदेह) ( प्पविचार ) 1 / 2 ] वि} जीव संसार में स्थित निष्पन्न चेतना स्वभाववाले दो प्रकार उपयोग लक्षणवाले भी तथा देह और अदेहरूप में विवेचनवाले अन्वय- जीवा दुविहा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा उवओगलक्खणा य वि देहादेहप्पवीचारा । अर्थ - जीव दो प्रकार के हैं: 1. (जो) संसार में स्थित अर्थात् संसारी 2. (जो ) निष्पन्न ( हो चुके हैं) अर्थात् सिद्ध / मुक्त। (वे जीव ) चेतना स्वभाववाले (और) उपयोग लक्षणवाले (हैं) तथा देह और अदेहरूप में भी विवेचनवाले ( हैं ) अर्थात जो देह- सहित है वे संसारी और जो देह - रहित है वे सिद्ध / मुक्त जीव कहलाते हैं। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'प्पविचार' का 'प्पवीचार' किया गया है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2 ) नवपदार्थ - अधिकार (13) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110. पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा काया । देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं । । पुढवी य उदगमगण संसिदा काया देंति [(उदगं) + (अगणी)] उदगं (उदग) 1/1 अगणी (अगणि) 1/1 अग्नि वाउवणप्फदिजीव- [(वाउ) - (वणप्फदि) - (जीव) - वायु, वनस्पति जीव (संसिद) भूक 1/2 अनि ] आश्रित (काय) 1 / 2 शरीर (दे) व 3/2 सक उत्पन्न करते हैं निश्चय ही खलु मोहबहुलं फासं बहुगा dotc वि तेसिं (पुढवी) 1/1 अव्यय 1. (14) पृथ्वी और (फास) 2/1 (बहुग) 1/2 वि 'ग' स्वार्थिक अव्यय [ ( मोह) - (बहुल) 2 / 1 वि ] मोह से व्याप्त अव्यय (त) 1/2 सवि (त) 6 / 2-7 / 2 सवि जल स्पर्शन इन्द्रिय को अनेक tic to उनमें अन्वय काया खलु वि ते तेसिं मोहबहुलं फासं देंति । अर्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति - (ये) अनेक शरीर जीव आश्रित हैं। निश्चय ही वे (शरीर) उनमें मोह से व्याप्त स्पर्शन इन्द्रिय को ही उत्पन्न करते हैं। पुढवी उदगमगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा य बहुगा कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ -अधिकार Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112. एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया । मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ।। ए जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया [ ( पुढविकाइय) वि (आदिय) 1/2 ] 'य' स्वार्थिक (एद) 1/2 सवि [(जीव) - (णिकाय) 1/2] [ (पंच) वि - (विह) 1/2] मणपरिणामविरहिदा [(मण) - (परिणाम) - जीवा एगें दिया भणिया नोट: ये जीव- समूह पाँच प्रकार पृथ्वीकायिक आदि मन-स्वभाव से (विरहिद) भूक 1/2 अनि ] वियुक्त / रहित (जीव) 1 / 2 जीव [ ( एग) वि - (इंदिय) 1 / 2] (भण) भूक 1/2 अन्वय- एदे पंचविहा पुढविकाइयादीया जीवणिकाया मणपरिणामविरहिदा एगेंदिया जीवा भणिया । अर्थ- ये पाँच प्रकार के पृथ्वीकायिक आदि जीव-समूह मन-स्वभाव से वियुक्त / रहित एकेन्द्रिय जीव कहे गये ( हैं )। एकेन्द्रिय कहे गये पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार 111 नम्बर की गाथा का अनुवाद नहीं किया गया है। यह गाथा आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित नहीं मानी गई है। (15) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113. अंडेसु पवटुंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।। अंडेसु पवढंता गब्भत्था माणुसा (अंड) 7/2 (पवढ) वकृ 1/2 (गब्भत्थ) 1/2 वि (माणुस) 1/2 अव्यय [(मुच्छ)-(गय) भूकृ 1/2 अनि] (जारिसय) 1/2 वि 'य' स्वार्थिक (तारिसय) 1/2 वि 'य' स्वार्थिक (जीव) 1/2 [(एग) वि-(इंदिय) 1/2] (णेय) विधिक 1/2 अनि अंडों में बढ़ते हुए गर्भ में स्थित . मनुष्य तथा अचेतन अवस्था को प्राप्त हुए जिस प्रकार मुच्छगया जारिसया तारिसया उसी प्रकार जीवा एगेंदिया जीव एकेन्द्रिय जानने योग्य णेया अन्वय- जारिसया अंडेसु पवटुंता य गब्भत्था मुच्छगया माणुसा तारिसया एगेंदिया जीवा णेया। अर्थ- जिस प्रकार (पक्षियों के) अंडों में बढ़ते हुए (जीव) तथा गर्भ में स्थित अचेतन अवस्था को प्राप्त हुए मनुष्य (होते हैं) उसी प्रकार एकेन्द्रिय जीव जानने योग्य (हैं)। (16) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114. संबुझ्मादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी। जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा।। संबुक्मादेवाह संखा सिप्पी घोंघा, कीट-विशेष शंख सीप पाँव-रहित अपादगा य . और किमी कीड़े [(संबुक्क)-(मादुवाह) 1/2] (संख) 1/2 (सिप्पि) 1/2 (अपादग) 1/2 वि 'ग' स्वार्थिक अव्यय (किमी) 1/2 (जाण) व 3/2 सक (रस) 2/1 (फास) 2/1 (ज) 1/2 सवि (त) 1/2 सवि [(बे) वि-(इंदिय) 1/2] (जीव) 1/2 जाणंति जानते हैं फासं स्पर्श जे बेइंदिया जीवा दो इन्द्रिय जीव अन्वय- संबुङमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी जे फासं रसं जाणंति ते बेइंदिया जीवा। अर्थ- घोंघा,कीट-विशेष, शंख, सीप, पाँव-रहित (लट) और कीड़े (आदि) जो (जीव) (हैं) (वे) स्पर्श (और) रस को जानते हैं। (इस कारण) वे दो इन्द्रिय जीव (हैं)। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (17) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115. जूगागुंभीमक्कुणपिपीलिया विच्छियादिया कीडा। जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा। जूगागुंभीमक्कुण- [(जूगा)-(गुंभी)-(मक्कुण)- नँ, कनखजूरा, पिपीलिया (पिपीलिया) 1/2] खटमल, चींटी . विच्छियादिया [(विच्छिय)-(आदिय) 1/2] बिच्छु आदि 'य' स्वार्थिक कीडा (कीड) 1/2 कीड़े जाणंति (जाण) व 3/2 सक जानते हैं फासं स्पर्श गंधं (रस) 2/1 (फास) 2/1 (गंध) 2/1 [(ते) वि-(इंदिय) 1/2] (जीव) 1/2 गंध तीन इन्द्रिय तेइंदिय जीवा जीव अन्वय- जूगागुंभीमक्कुणपिपीलिया विच्छियादिया कीडा फासं रसं गंधं जाणंति जीवा तेइंदिया। अर्थ- नँ, कनखजूरा, खटमल, चींटी, बिच्छु आदि कीड़े स्पर्श, रस (और) गंध को जानते हैं। (इसलिए) (वे) जीव तीन इन्द्रिय (कहे गये हैं)। (18) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116. उसमसयमक्खियमधुकरभमरा पतंगमादीया । रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति ।। उसमसयमक्खिय- [ ( उद्दस ) - (मसय) - मधुकरभमरा पतंगमादीया (मधुकर) - (भमर) 1 / 2] [(पतंगमा) + (आदिया)] पतंगमा (पतंगम) 1 / 2 आदिया (आदि ) 1/2 'य' स्वार्थिक (रूव) 2/1 (रस) 2/1 अव्यय (गंध) 2/1 ( फास) 2 / 1 अव्यय (त) 1/2 सवि (विजाण) व 3/2 सक अन्वय उद्दसमसयमक्खियमधुकरभमरा पतंगमादीया ते फासं रसं गंधं च रूवं विजाणंति । अर्थ- मच्छर, डांस, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा, टिड्डियाँ आदि (जो) (जीव ) ( हैं ) वे स्पर्श, रस, गंध और रूप को जानते हैं। (इसलिए वे जीव चार इन्द्रिय जानने चाहिये) । 2:43. 3. रूवं रसं च गंध फासं पुण 化 (मक्खिया - मक्खिय) - 1_ विजाणंति मच्छर, डांस, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा टिड्डियाँ आदि रूप रस पादपूरक गंध स्पर्श और वे जानते हैं 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'मक्खिया' का 'मक्खिय' किया गया है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार (19) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117. सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू। जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा। सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फास गंधसद्दण्हू जलचरथलचर [(सुर)-(णर)-(णारय)- देव, मनुष्य, नारकी (तिरिय) 1/2] और तिर्यंच [(वण्ण)-(रस)-(प्फास)- वर्ण, रस, स्पर्श, . (गंध)-(सद्दण्हू) 1/2 वि] गंध और शब्द को जाननेवाले [(जलचर)-(थलचर)- जल में रहनेवाले, (खचरा) 1/2 वि भूमि पर चलनेवाले, आकाश में विचरण करनेवाले (बलिय) 1/2 वि बलवान [(पंच) वि-(इंदिय) 1/2] पाँच इन्द्रिय (जीव) 1/2 जीव खचरा बलिया पंचेंदिया जीवा अन्वय- सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू जीवा पंचेंदिया जलचरथलचरखचरा बलिया। अर्थ- देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यंच स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द को जाननेवाले (हैं)। (इसलिए) (वे) जीव पंचेन्द्रिय (हैं)।(वे) जल में रहनेवाले, भूमि पर चलनेवाले और आकाश में विचरण करनेवाले (होते हैं) (तथा) (इनमें) बलवान (जीव) (भी) (होते हैं)। (20) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118. देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कम्मभोगभूमीया । तिरिया बहुप्पयारा णेरड्या पुढविभेयगदा देवा चणिकाया मणुया पुण कम्मभोगभूमीया तिरिया बहुप्यारा णेरइया पुढविभेयगदा (देव) 1/2 देव [ ( उ ) - (ण्णिकाय) 1 / 2 वि] चार श्रेणीवाले ( मणुय) 1/2 मनुष्य अव्यय और [(कम्म) - (भोगभूमि) कर्मभूमि और भोगभूमि (य) 1/2 वि] में उत्पन्न ( तिरिय) 1/2 तिर्यंच [ ( बहु) वि - ( प्यार) 1 / 2] अनेक प्रकार नारकी (णेरइय) 1/2 [(पुढवि)-(भेय) ( गद) भूक 1/2 अनि ] अन्वय- देवा चउण्णिकाया पुण मणुया कम्मभोगभूमीया तिरिया पृथ्वी के समान भेदों को प्राप्त हुए बहुप्पयारा णेरड्या पुढविभेयगदा । अर्थ- देव चार श्रेणीवाले (होते हैं) और मनुष्य कर्मभूमि और भोगभूमि में उत्पन्न (होते हैं)। तिर्यंच अनेक प्रकार के (होते हैं)। नारकी (जीव) पृथ्वी के समान भेदों को प्राप्त हुए (हैं)। 1. समास के अन्त में 'में उत्पन्न' अर्थ होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार (21) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119. खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे य ते वि खलु। पापुण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेसवसा।। खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे य और खलु (खीण) 7/1 वि क्षीण हो जाने पर [(पुव्व) वि पूर्वकाल में बाँधा हुआ (णिबद्ध) भूक 7/1 अनि] (गदिणाम) 7/1 गतिनाम कर्म (आउस) 7/1 आयु कर्म अव्यय (त) 1/2 सवि वे अव्यय अव्यय निश्चय से (पापुण्णंति) व 3/2 सक अनि प्राप्त करते हैं अव्यय (अण्ण) 2/1 वि [(गदि)+(आउस्स)] गदि (गदि) 2/1 गति को आउस्सं (आउस्स) 2/1 आयु को [(स) वि-(सा-लेस)1- अपनी लेश्या के (वस) 5/1 वि] अधीन होने के कारण पापुण्णंति य और अण्णं गदिमाउस्सं अन्य सलेसवसा अन्वय- पुव्वणिबद्धे गदिणामे य आउसे खीणे खलु ते वि सलेसवसा अण्णं गदि य आउस्सं पापुण्णंति। अर्थ- पूर्वकाल में बाँधा हुआ गतिनाम कर्म और आयु कर्म के क्षीण हो जाने पर निश्चय से वे ही (जीव) अपनी लेश्या के अधीन होने के कारण अन्य गति को और आयु को प्राप्त करते हैं। 1. यहाँ छन्द पूर्ति हेतु 'लेसा' का लेस' किया गया है। (22) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120. एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा। देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य॥ क (एद) 1/2 सवि जीवणिकाया [(जीव)-(णिकाय) 1/2] जीव समूह देहप्पविचारमस्सिदा [(देहप्पविचारं)+ (आस्सिदा)] [(देह)-(प्पविचार) देह विवेचन पर 2/1-7/1] आस्सिदा (आस्सिद)भूकृ 1/2 अनि आश्रित भणिदा (भण) भूक 1/2 कहे गये देहविहूणा [(देह)-(विहूण) 1/2 वि] देह-रहित सिद्धा (सिद्ध) 1/2 भव्वा (भव्व) 1/2 वि मुक्ति के योग्य संसारिणो (संसारि) 1/2 वि संसारी अभव्वा (अभव्व) 1/2 वि मुक्ति के अयोग्य अव्यय और सिद्ध - अन्वय- एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा सिद्धा देहविहूणा भणिदा संसारिणो भव्वा य अभव्या। - अर्थ-ये जीव समूह देह विवेचन पर आश्रित (होते हैं)। सिद्ध देह-रहित कहे गये (है)। संसारी (जीव) मुक्ति के योग्य और मुक्ति के अयोग्य (कहे गये हैं)। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (23) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121. ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता । जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति ।। 9 हिं इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता जं 9. हवदि सु णणं जीवोत्त य तं परूवेंति * अव्यय अव्यय ( इंदिय) 1/2 (जीव) 1 / 2 (काय) 1/2 (24) अव्यय [(छ) वि- ( प्यार ) * 1 / 2] (पण्णत्त) भूक 1/2 अनि (ज) 1/1 सवि ( हव) व 3 / 1 अक (त) 7 / 2 सवि ( णाण) 1 / 1 [(जीवो) + (इति)] जीवो (जीव) 1 / 1 इति (अ) = ही अव्यय (त) 1 / 1 सवि (परूव) व 3 / 2 सक नहीं है निश्चय ही इन्द्रियाँ जीव काय किन्तु छ प्रकार कहे गये होता है उनमें चैतन्य जीव ही और वह कहते हैं अन्वय पुण तेसु जं णाणं तं जीवो त्ति परूवेंति । अर्थ- इन्द्रियाँ और छ प्रकार के (जो) काय कहे गये ( हैं ) ( वे) निश्चय ही जीव (द्रव्य) नहीं है, किन्तु उन (इन्द्रियों और कायों) में जो चैतन्य है वह (चैतन्य) ही जीव है। (आचार्य) ( इस अभिप्राय को) कहते हैं। इंदियाणि य छप्पयार काया पण्णत्ता हि जीवा ण हवदि प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517 ) पंचास्तिकाय (खण्ड-2 ) नवपदार्थ - अधिकार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122. जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं॥ जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो कुव्वदि हिदमहिद जानता है देखता है सबको इच्छा करता है सुख डरता है दुख से करता है (जाण) व 3/1 सक (पस्स) व 3/1 सक (सव्व) 2/1 सवि (इच्छ) व 3/1 सक (सुक्ख) 2/1 (बिभ) व 3/1 अक (दुक्ख) 5/1 (कुव्व) व 3/1 सक [(हिदं)+ (अहिद)] हिंदं (हिद) 2/1 वि अहिदं (अहिद) 2/1 वि अव्यय (भुंज) व 3/1 सक (जीव) 1/1 (फल) 2/1 . (त) 6/2 सवि उचित को अनुचित को अथवा भोगता है जीव भुंजदि जीवो फल उनके तेसिं · अन्वय- सव्वं जाणदि पस्सदि सुक्खं इच्छदि दुक्खादो बिभेदि हिदमहिदं वा कुव्वदि तेसिं फलं भुजदि जीवो। अर्थ- (जो) सबको जानता है, देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुख से डरता है, उचित (क्रिया) अथवा अनुचित (क्रिया) करता है (और) उन (उचित-अनुचित क्रियाओं) के फल को भोगता है (वह) जीव (है)। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (25) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123. एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहुगेहिं। अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहि।। एवमभिगम्म -/ जीवं अण्णेहिं अन्य पज्जएहिं बहुगेहिं [(एवं)+(अभिगम्म)] एवं (अ) = इस प्रकार इस प्रकार अभिगम्म (अभिगम्म) संकृ अनिजानकर (जीव) 2/1 जीव को (अण्ण) 3/2 वि अव्यय भी (पज्जय) 3/2 प्रकार से (बहुग) 3/2 वि 'ग' स्वार्थिक (अभिगच्छ) विधि 3/1 सक जानो (अज्जीव) 2/1 अजीव को [(णाण)-(अंतरिद) 3/2 वि] चैतन्य से भिन्न (लिंग) 3/2 चिह्नों से अनेक अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहि अन्वय- एवं अण्णेहिं वि बहुगेहिं पज्जएहिं जीवं अभिगम्म णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं अज्जीवं अभिगच्छदु। अर्थ- इस प्रकार अन्य भी अनेक प्रकार से जीव (द्रव्य) को जानकर चैतन्य से भिन्न चिह्नों (लक्षणों) से अजीव (द्रव्य) को जानो। (26) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124. आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा। तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा।। आगासकालपुग्गल- [(आगास)-(काल)-(पुग्गल)- आकाश, काल, पुद्गल, धम्माधम्मेसु (धम्म)-(अधम्म) 7/2] धर्म और अधर्म द्रव्यों नहीं है जीव के गुण णत्थि जीवगुणा तेसिं अचेदणतं उनमें अव्यय [(जीव)-(गुण) 1/2] (त) 6/2-7/2 सवि (अचेदणत्त) 1/1 (भण) भूकृ 1/1 (जीव) 6/1-7/1 (चेदणदा) 1/1 भणिदं अचेतनता कही गयी जीव में चेतनता जीवस्स चेदणदा अन्वय- आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु जीवगुणा णत्थि तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा। अर्थ- आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों में जीव के गुण (चैतन्य भाव) नहीं है। उन (पाँचों द्रव्यों) में अचेतनता कही गयी है। जीव (द्रव्य) में चेतनता (है)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। __ (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (27) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125. सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं। जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा बेंति अज्जीवं।। सुहदुक्खजाणणा वजाणणा वा हिदपरियम्म और अहिदभीरत्तं जस्स [(सुह)-(दुक्ख)- सुख और दुख का (जाणणा) 1/1] अनुभव करना अव्यय अथवा [(हिद) वि-(परियम्म) 1/1] उचित का निष्पादन अव्यय [(अहिद)-(भीरुत्त) 1/1] अनुचित (क्रियाओं) से भय (ज) 6/1-7/1 सवि जिसमें अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक होता है अव्यय सदैव (त) 2/1 सवि (समण) 1/2 श्रमण (बू-बे) व 3/2 सक कहते हैं (अज्जीव) 2/1 अजीव नहीं विज्जदि णिचं उसको समणा बेंति अज्जीवं अन्वय- जस्स सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं ण विज्जदि समणा णिच्चं तं अज्जीवं बेंति। अर्थ- जिस (द्रव्य) में सुख और दुख का अनुभव करना (नहीं होता) अथवा उचित का निष्पादन (नहीं होता) और अनुचित (क्रियाओं) से भय (भी) नहीं होता है, श्रमण सदैव उस (द्रव्य) को अजीव कहते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (28) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126. संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसद्दा य। पोग्गलदव्वप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू।। संठाणा (संठाण) 1/2 संघादा (संघाद) 1/2 वण्णरसप्फासगंधसद्दा [(वण्ण)-(रस)-(प्फास) (गंध)-(सद्द) 1/2] अव्यय पोग्गलदव्वप्पभवा [(पोग्गल)-(दव्व) (प्पभव)' 1/2] (हो) व 3/2 अक (गुण) 1/2 (पज्जाय-पज्जय) 1/2 आकार संहनन वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्द और पुद्गल द्रव्य से उत्पन्न होनेवाले होती हैं गुण पर्यायें गुणा पज्जया अव्यय और (बहु) 1/2 वि अनेक अन्वय- पोग्गलदव्वप्पभवा संठाणा संघादा य वण्णरसप्फासगंधसद्दा य बहू गुणा पज्जया होति। अर्थ- पुद्गल द्रव्य से उत्पन्न होनेवाले हैः (विभिन्न) आकार, (कई प्रकार के) संहनन (शरीर) और (भाँति-भाँति के) वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्द (तथा) (पुद्गल द्रव्य से) अनेक गुण और पर्यायें (भी उत्पन्न) होती हैं। 1. समास के अन्त में अर्थ है- 'उत्पन्न होनेवाला'। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (29) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127. अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। अरसमरूवमगंध मव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं जाण अलिंगग्गहणं [(अरसं) + (अरूवं) + (अगंधं) + (अव्वत्तं)] अरसं (अरस) 2/1 वि अरूवं (अरूव) 2/1 वि अगंध (अगंध) 2 / 1 वि अव्वत्तं (अव्वत्त) 2/1 वि [(चेदणागुणं) + (असद्दं)] रस-रहित -रहित गंध-रहित अप्रकट (जाण) विधि 2 / 1 सक (अलिंगगहण ) 2 / 1 वि रूप {[(चेदणा)-(गुण) 2/1}वि] चेतना गुणवाला असद्दं (अ-सद्द) 2/1 वि शब्द-रहि जानो तर्क से ग्रहण न होनेवाला जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं [(जीवं) + (अणिद्दिट्ठसंठाणं)] जीवं (जीव ) 2 / 1 जीव को अणिद्दिसंठाणं (अणिदिट्ठसंठाण) न कहे हुए 2/1 fa आकारवाला अन्वय- जीवं अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं अलिंगग्गहणं अणिद्दिट्ठसंठाणं जाण । अर्थ- जीव को रस-रहित, रूप-रहित, गंध-रहित, (स्पर्श से ) अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्द-रहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला और न कहे हुए आकरावाला जानो। (30) पंचास्तिकाय (खण्ड- 2) नवपदार्थ - अधिकार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।। जो खलु 3. ॐ ॐ निश्चय ही संसार में स्थित संसारत्थो जीवो तत्तो जीव होदि (ज) 1/1 सवि अव्यय (संसारत्थ) 1/1 वि (जीव) 1/1 (त) 5/1 सवि अव्यय (हो) व 3/1 अक (परिणाम) 1/1 (परिणाम) 5/1 (कम्म) 1/1 (कम्म) 5/1 (हो) व 3/1 अक (गदि) 7/2 (गदि) 1/1 परिणामो परिणामादो उस कारण से पादपूरक होता है रूपान्तरण रूपान्तरण से कर्म कर्म से होता है गतियों में कम्मादो होदि * * * गदिसु गमन अन्वय- जो संसारत्थो जीवो तत्तो दु खलु परिणामो होदि परिणामादो कम्मं कम्मादो गदिसु गदी होदि। ____ अर्थ- जो (आवागमनात्मक) संसार में स्थित जीव (है) उस कारण से (उसमें) निश्चय ही (राग-द्वेषात्मक) रूपान्तरण होता है। (उस) रूपान्तरण से (द्रव्य/पुद्गलमयी) कर्म (उत्पन्न होता है)। (द्रव्य-भाव/पुद्गलमयी) कर्म से गतियों में गमन होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (31) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129. गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।। गदिमधिगदस्स शरीर देहादो इंदियाणि जायते इन्द्रियाँ तेहिं [(गर्दि) + (अधिगदस्स)] गदिं (गदि) 2/1 गति को अधिगदस्स (अधिगद) 6/1 वि प्राप्त (जीव) के (देह) 1/1 (देह) 5/1 शरीर से (इंदिय) 1/2 (जाय) व 3/2 अक उत्पन्न होती हैं (त) 3/2 सवि उनसे अव्यय और [(विसय)-(गहण) 1/1] विषयों का ग्रहण (त) 5/2 सवि उनसे (राग) 1/1 अव्यय (दोस) 1/1 विसयग्गहणं तत्तो रागो BE अव्यय अन्वय- गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते दु ते विसयग्गहणं वा तत्तो रागो व दोसो। - अर्थ- गति को प्राप्त (जीव) के शरीर (होता है), शरीर से इन्द्रिय उत्पन्न होती हैं और उन (इन्द्रियों) से विषयों का ग्रहण (होता है) और उ. (विषयों) से राग तथा द्वेष (हो जाता है)। (32) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130. जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्वालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अनादिणिधणो सणिधणो वा।। जायदि (जाय) व 3/1 अक उत्पन्न होता है जीवस्सेवं [(जीवस्स)+(एवं)] जीवस्स (जीव) 6/1 जीव के एवं (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (भाव) 1/1 भाव संसारचक्वालम्मि [(संसार)-(चक्वाल) 7/1] संसार रूपी चक्रभ्रमण भावो जिणवरेहि भणिदो अनादिणिधणो सणिधणो अव्यय (जिणवर) 3/2 (भण) भूकृ 1/1 (अनादिणिधण) 1/1 वि (स-णिधण) 1/1 वि वाक्य की शोभा जिनेन्द्र देव द्वारा कहा गया अनादि-अनन्त अंत-सहित अथवा अव्यय अन्वय- एवं जीवस्स संसारचक्वालम्मि भावो जायदि जिणवरेहिं अनादिणिधणो वा सणिधणो इदि भणिदो। ... अर्थ- इस प्रकार (कर्मयुक्त) जीव के संसाररूपी चक्रभ्रमण में (रागद्वेषात्मक) भाव उत्पन्न होता है। (वह) (राग-द्वेष भाव) जिनेन्द्र देव द्वारा अनादि-अनन्त अथवा अन्त-सहित कहा गया (है)। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (33) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131. मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो।। मोहो दोसो चित्तपसादो चित्त की प्रसन्नता अथवा जस्स भावम्मि विज्जदि (मोह) 1/1 (राग) 1/1 (दोस) 1/1 [(चित्त)-(पसाद) 1/1] अव्यय (ज) 6/1 सवि (भाव) 7/1 (विज्ज) व 3/1 अक (त) 6/1 सवि (सुह) 1/1 वि अव्यय (असुह) 1/1 वि अव्यय (हो) व 3/1 अक (परिणाम) 1/1 जिसके भाव में होती है उसके तस्स सुहो अथवा असुहो वा अशुभ पादपूरक होता है परिणाम होदि परिणामो अन्वय- जस्स भावम्मि मोहो रागो दोसो य चित्तपसादो विज्जदि तस्स असुहो वा सुहो वा परिणामो होदि। ____ अर्थ- जिसके भावों में मोह (आत्मविस्मृति), राग (आसक्ति), द्वेष (शत्रुता) अथवा चित्त की प्रसन्नता (अनासक्त अवस्था) होती है उसके अशुभ अथवा शुभ परिणाम होता है। (34) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132. सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो।। सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति पुण्य [(सुह) वि-(परिणाम) 1/1] शुभ परिणाम (पुण्ण) 1/1 (असुह) 1/1 वि अशुभ [(पावं)+ (इति)] पावं (पाव) 1/1 पाप इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (हव) व 3/1 अक (जीव) 6/1 जीव के (दो) 6/2+3/2 वि दोनों के कारण [(पोग्गल)-(मेत्त) 1/1 वि] पुद्गल मात्र (भाव) 1/1 परिणमन (कम्मत्तण) 2/1 कर्मत्व को (पत्त) भूकृ 1/1 अनि प्राप्त हुआ हवदि जीवस्स दोण्हं . पोग्गलमेत्तो भावो । कम्मत्तणं होता है पत्तो अन्वय- जीवस्स सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो। अर्थ- जीव का शुभ परिणाम पुण्य (और) अशुभ (परिणाम) पाप होता है। (इन) दोनों (शुभ और अशुभ परिणामों) के कारण पुद्गलमात्र (पुद्गलरूप) परिणमन कर्मत्व (द्रव्यकर्म) को प्राप्त हुआ (है)। 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (35) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133. जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं। जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि॥ जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं अव्यय (कम्म) 6/1 (फल) 1/1 (विसय) 1/1 (फास) 3/2 चूँकि कर्म का फल इन्द्रिय-विषय स्पर्शन आदि इन्द्रियों भुंजदे णियदं जीवेण भोगा जाता है सदैव जीव द्वारा सुख (भुंजदे) व कर्म 3/1 अनि अव्यय (जीव) 3/1 (सुह) 1/1 वि (दुक्ख) 1/1 वि अव्यय (कम्म) 1/2 (मुत्त) 1/2 वि दुक्खं इस कारण तम्हा कम्माणि मुत्ताणि अन्वय- जम्हा कम्मस्स सुहं दुक्खं फलं विसयं णियदं फासेहिं जीवेण भुंजदे तम्हा कम्माणि मुत्ताणि। ____ अर्थ- चूँकि कर्म का सुखदुखरूप फल इन्द्रिय-विषय है (वह) सदैव स्पर्शन आदि इन्द्रियों से जीव द्वारा भोगा जाता है। इस कारण (द्रव्य) कर्म मूर्त (36) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134. मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि। जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।। मुत्तो फासदि मुत्तो मूर्त से मुत्तेण बंधमणुहवदि (मुत्त) 1/1 वि (फास) व 3/1 सक स्पर्श करता है (मुत्त) 2/1 वि मूर्त को (मुत्त) 1/1 वि मूर्त (मुत्त) 3/1 वि [(बंध)+(अणुहवदि)] बंधं (बंध) 2/1 बंध को अणुहवदि(अणुहव)व 3/1 सक प्राप्त करता है (जीव) 1/1. जीव [(मुत्ति)-(विरहिद) भूकृ 1/1 अनि मूर्त भाव से वियुक्त (गाह) व 3/1 सक प्राप्त करता है (त) 2/2 सवि उनको (त) 3/2 सवि उनके साथ (उग्गह) व 3/1 सक ग्रहण करता है जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि तेहिं उग्गहदि अन्वय- मुत्तो मुत्तं फासदि मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि मुत्तिविरहिदो जीवो तेहिं गाहदि ते उग्गहदि। ___ अर्थ- (संसारी जीव में) मूर्त (कर्म) मूर्त (कर्म) को स्पर्श करता है। मूर्त (कर्म) मूर्त से बंध को प्राप्त करता है। मूर्त भाव से वियुक्त (अमूर्त) जीव उन (कर्मों) के साथ (अनादिकालीन कर्म संयोग के कारण बंध अवस्था को) प्राप्त करता है (और) (इसी कारण) (कर्म) (भी) उन (जीवों) को ग्रहण करता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135. रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्ते णस्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्स आसवदि।। राग रागो जस्स जिसके पसत्थो शुभ अणुकंपासंसिदो दया के आश्रित और (राग) 1/1 (ज) 6/1 (पसत्थ) 1/1 वि [(अणुकंपा)-(संसिद) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय (परिणाम) 1/1 (चित्त) 7/1. अव्यय (कालुस्स-कलुस्स) 1/1 (पुण्ण) 1/1 (जीव) 6/177/1+2/1 (आसव) व 3/1 सक परिणामो चित्ते णत्थि कलुस्सं भाव चित्त में नहीं है कलुषता/मलिनता पुण्णं पुण्य जीवस्स आसवदि जीव में/जीव को आता है अन्वय- जस्स पसत्थो रागो अणुकंपासंसिदो परिणामो य चित्ते कलुस्सं णस्थि जीवस्स पुण्णं आसवदि। अर्थ- जिस (जीव) के शुभ राग (है), दया के आश्रित भाव (है) और चित्त में कलुषता/मलिनता नहीं है (उस) जीव में/को पुण्य आता है। 2. यहाँ छन्द पूर्ति हेतु ‘कालुस्सं' के स्थान पर ‘कलुस्सं' किया गया है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) (38) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136. अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा या खलु चेट्टा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चंति।। अरहंतसिद्धसाहुसु अरहंत, सिद्ध और साधुओं में भत्ती [(अरहत)-(सिद्ध)(साहु) 7/2] (भत्ति) 1/1 (धम्म) 7/1 अव्यय भक्ति धम्मम्मि अव्यय धर्म पालन में जब तक जब तक निश्चय ही प्रयत्न अनुसरण पादपूरक गुरुओं का अणुगमणं अव्यय (चेट्ठा) 1/1 (अणुगमण) 1/1 अव्यय (गुरु) 6/2 [(पसत्थरागो)+ (इति)] [(पसत्थ) वि-(राग) 1/1] इति (अ) = (वुच्चंति) व कर्म 3/2 अनि गुरूणं पसत्थरागो त्ति शुभ राग वाक्य की शोभा कहे जाते हैं वुच्चंति अन्वय- जा अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती या धम्मम्मि खलु चेट्टा गुरूणं पि अणुगमणं पसत्थरागो त्ति वुच्चंति।। ___अर्थ- जब तक अरहंत, सिद्ध और साधुओं में भक्ति (होती है), जब तक धर्म पालन में निश्चय ही प्रयत्न (होता है) (और) गुरुओं (आचार्य व उपाध्याय) के (मार्ग का) अनुसरण (होता है) (तब तक) (ये सभी) शुभ राग कहे जाते हैं। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (39) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137. तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्टण जो दु दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा। तिसिदं प्यासे को बुभुक्खिदं भूखे को तथा दुहिदं दुखी को । देखकर जो दुहिदमणो (तिसिद) 2/1 वि (बुभुक्खिद) 2/1 वि अव्यय (दुहिद) 2/1 वि संकृ अनि (ज) 1/1 सवि अव्यय (दुहिदमण) 1/1 वि (पडिवज्ज) व 3/1 सक (त) 2/1 सवि (किवया) 3/1 अनि [(तस्स)+(एसा)] तस्स (त) 6/1 सवि एसा (एता) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक (अणुकंपा) 1/1 पडिवज्जदि पादपूरक दुखी मनवाला स्वीकार करता है उसको करुणा से किवया तस्सेसा उसके यह होदि अणुकंपा होती है दया अन्वय- जो तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दह्ण दु दुहिदमणो किवया तं पडिवज्जदि तस्सेसा अणुकंपा होदि। अर्थ- जो (कोई) (जीव) प्यासे को, भूखे को तथा (किसी) दुखी को देखकर दुखी मनवाला (होता हुआ) करुणा (भाव) से (दुख दूर करने के लिए) उसको स्वीकार करता है, उस (जीव) के यह दया होती है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (40) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जदा माणो 138. कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज। जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा बेंति।। कोधो (कोध) 1/1 क्रोध अव्यय अथवा अव्यय जब (माण) 1/1 मान माया (माया) 1/1 माया लोभो (लोभ) 1/1 लोभ अव्यय अथवा चित्तमासेज्ज [(चित्तं)+(आसेज्ज)] चित्तं (चित्त) 2/1-7/1 मन में आसेज्ज (आस) व 3/1 अक विद्यमान होता है जीवस्स- (जीव) 6/1-7/1 जीव में कुणदि (कुण) व 3/1 सक करता है खोहं (खोह) 2/1 व्याकुलता कलुसो त्ति [(कलुसो)+ (इति)] कलुसो (कलुस) 1/1 वि मलिन इति (अ) = वाक्यार्थद्योतक अव्यय और (त) 2/1 सवि उस (बात) को (बुध) 1/2 वि ज्ञानी (बू-बे) व 3/2 सक कहते हैं . * अन्वय- कलुसो त्ति जदा कोधो व माणो व माया लोभो चित्तमासेज्ज य जीवस्स खोहं कुणदितं बुधा बेंति। __ अर्थ- (वह) (मन) (तब) मलिन (कहा जाता है) जब क्रोध अथवा मान (अथवा) माया अथवा लोभ मन में विद्यमान होता है और जीव में व्याकुलता (उत्पन्न) करता है। ज्ञानी उस (बात) को कहते हैं। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) नोटः संपादक द्वारा अनूदित पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (41) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139. चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु। परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि।। चर्या चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा और विसयेसु परपरितावपवादो (चरिया) 1/1 [(पमाद)-(बहुल) 1/1 वि] असावधानी से व्याप्त (कालुस्स) 1/1 कलुषता/मलिनता (लोलदा) 1/1 लोलुपता । अव्यय (विसय) 7/2 विषयों में [(परपरिताव)+ (अपवादो)] [(पर) वि-(परिताव)* 1/1] अन्य मनुष्यों को संताप अपवादो (अपवाद) 1/1 निंदा (पाव) 6/1 और (आसव) 2/1 आस्रव (कुण) व 3/1 करती है पावस्स पाप अव्यय आसवं कुणदि अन्वय- पमादबहुला चरिया कालुस्सं य विसयेसु लोलदा परपरितावपवादो य पावस्स आसवं कुणदि। ___ अर्थ- असावधानी से व्याप्त चर्या, (मन में) कलुषता/मलिनता और (इन्द्रिय) विषयों में लोलुपता, अन्य मनुष्यों को संताप (देना) और (उनकी) निन्दा (करना) (ये सब) (जीव में) पाप आस्रव करती हैं। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) (42) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140. सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अमृद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति।। सण्णाओ तिलेस्सा इंदियवसदा अट्टरुद्दाणि (सण्णा ) 1/2 अव्यय [(ति) वि-(लेस्सा) 1/2] [(इंदिय)-(वसदा) 1/1] अव्यय [(अट्ट) वि-(रुद्द) 1/2] (णाण) 1/1 अव्यय (दुप्पउत्त) भूक 1/1 अनि (मोह) 1/1 (पावप्पद) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक संज्ञाएँ और तीन लेश्याएँ इन्द्रियों की अधीनता तथा आर्त और रौद्र ध्यान ज्ञान और दुरुपयोग किया हुआ आत्मविस्मृति पाप-देनेवाले होते हैं णाणं दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति अन्वय- सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टहाणि दुप्पउत्तं णाणं च मोहो पावप्पदा होति। अर्थ- संज्ञाएँ और तीन लेश्याएँ, इन्द्रियों की अधीनता तथा आर्त और रौद्र ध्यान, दुरुपयोग किया हुआ ज्ञान और आत्मविस्मृति- (ये सभी) पापदेनेवाले होते हैं। 1. संज्ञाः आहार, भय, मैथुन, परिग्रह 2. लेश्याः कृष्ण, नील, कापोत इन्द्रियः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण 3. पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (43) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141. इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्टमग्गम्मि। जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासवच्छिदं।। इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुहृमग्गम्मि जावत्तावत्तेहि [(इंदिय)-(कसाय)- इन्द्रियाँ, कषायें और (सण्णा ) 1/2] संज्ञाएँ (णिग्गहिदा) भूकृ 1/2 अनि वश में की गई (ज) 3/2 सवि जिनके द्वारा [(सुट्ठ) अ-(मग्ग) 7/1] मार्ग में भली प्रकार से [(जावत्तावत)+(तेहिं)] जावत्तावत (जावत्तावत) उसी समय तक 1/1 वि अनि तेहिं (त) 3/2 सवि उनके द्वारा (पिहिय) भूकृ 1/1 अनि बंद किये गये। [(पाव)-(आसव)- पाप-आस्रव के स्त्रोत (च्छिद्द) 1/1] पिहियं पावासवच्छिदं अन्वय- जेहिं सुट्टमग्गम्मि इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जावत्तावत्तेहिं पावासवच्छिदं पिहियं। अर्थ- जिनके द्वारा (जब तक) (धर्म) मार्ग में भली प्रकार से इन्द्रियाँ, कषायें और संज्ञाएँ वश में की गई (हैं) उनके द्वारा उसी समय तक पाप-आस्रव के स्त्रोत बंद किये गये हैं)। (44) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142. जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु। णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स। जस्स नहीं ण विज्जदि रागो दोसो मोहो मोह सव्वदव्वेसु णासवदि (ज) 6/1+7/1 सवि जिसमें अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक होता है (राग) 1/1 राग (दोस) 1/1 द्वेष (मोह) 1/1 अव्यय तथा [(सव्व) सवि-(दव्व) 7/2] सभी द्रव्यों में [(ण)+(आसवदि)] ण (अ) = नहीं नहीं आसवदि(आसव) व 3/1 सक आता है (सुह) 1/1 वि पुण्य (असुह) 1/1 वि पाप [(सम)-(सुहदुक्ख) सुख-दुख में समान 6/1-7/12/1 वि (भिक्खु) 6/1-7/1+2/1 श्रमण में/को असुह समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स अन्वय- जस्स मोहो व सव्वदव्वेसु रागो दोसो ण विज्जदि समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स सुहं असुहं णासवदि। अर्थ- जिस (जीव) में मोह (आत्मविस्मृति) तथा सभी (पर) द्रव्यों में राग (आसक्ति), द्वेष (शत्रुता) नहीं है (उस) सुख-दुख में समान श्रमण में/को पुण्य-पाप (कर्म) नहीं आते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (45) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143. जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स । संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स ।। जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स (ज) 6/1 सवि अव्यय (46) अव्यय (your) 1/1 (जोग) 7/1 (पाव) 1 / 1 अव्यय अव्यय (विरद) 6/1 वि ( संवरण) 1 / 1 (त) 6/1 सवि अव्यय [(सुह) + (असुहकदस्स) ] [(सुह) - (असुह) - (कद) भूक 6/1 अनि ] (कम्म) 6/1 जिसके जिस समय वाक्यालंकार शुभ परिणाम योग में अशुभ परिणाम और नहीं है संयमी के निरोध उसके उस समय पुण्य-पाप से निर्मित कर्म का अन्वय- जदा जस्स विरदस्स जोगे खलु पुण्णं च पावं णत्थि तदा तस् सुहासुहकदस्स कम्मस्स संवरणं । अर्थ - जिस समय जिस संयमी (श्रमण) के योग ( मन, वचन, काय ) में शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम नहीं होता है उस समय उसके निर्मित कर्म का (संवर) निरोध ( होता है ) । - पाप से नोटः संपादक द्वारा अनूदित पुण्य-प पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144. संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं । । संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं चिट्टदे बहुविहेहिं कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुदि सो यिदं [ ( संवर) - (जोग) 3 / 2 ] (जुद) भूकृ 1/1 अनि (तव) 3/2 (ज) 1 / 1 सवि (चिट्ठ) व 3 / 1 अक (बहुविह) 3 / 2 वि (कम्म) 6/2 (FUGGRUIT) 2/1 ( बहुग) 6 / 2 'ग' स्वार्थिक (कुण) व 3 / 1 सक (त) 1 / 1 सवि अव्यय संवरात्मक योगों सहित तपों द्वारा जो प्रयत्न करता है अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा अनेक प्रकार के करता है वह निश्चयात्मक रूप से अन्वय- जो संवरजोगेहिं जुदो बहुविहेहिं तवेहिं चिट्ठदे सो यिदं बहुगाणं कम्माणं णिज्जरणं कुणदि । अर्थ- जो संवरात्मक योगों सहित अनेक प्रकार के ( बचे हुए कर्मों को समाप्त करने के लिए) तपों द्वारा प्रयत्न करता है, वह निश्चयात्मक रूप से अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है। 1. तृतीया के साथ ' सहित ' अर्थ होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार (47) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145. जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टपसाधगो हि अप्पाणं। मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि' कम्मरयं।। जुत्तो अप्पट्ट (ज) 1/1 सवि संवरेण (संवर) 3/1 (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि [(अप्प)-(अट्ठ)-(पसाधग) 1/1 वि] अव्यय अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 मुणिऊण (मुण) संकृ झादि (झा) व 3/1 सक णियदं अव्यय णाणं (णाण) 2/1 (त) 1/1 सवि संधुणोदि (संधुणेदि) (संधुण) व 3/1 सक कम्मरयं [(कम्म)-(स्य) 2/1] जो संवर से सहित आत्म पदार्थ को साधनेवाला निश्चय ही आत्मा को जानकर ध्याता है सदैव ज्ञान/आत्मा को वह नष्ट करता है कर्मरूपी धूल को अन्वय- जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो णियदं णाणं झादि सो अप्पाणं मुणिण हि कम्मरयं संधुणोदि। अर्थ- जो संवर सहित आत्म पदार्थ को साधनेवाला (है), (वह) सदैव ज्ञान/आत्मा को ध्याता है। (फलस्वरूप) वह आत्मा को जानकर निश्चय ही कर्मरूपी धूल को नष्ट करता है। 1. 2. 'संधुणोदि' के स्थान पर ‘संधुणेदि' पाठ होना चाहिये। तृतीया के साथ ‘सहित' अर्थ होता है। (48) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146. जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी।। जस्स जिसके नहीं होता है विज्जदि राग दोसो तथा (ज) 6/1 सवि अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक (राग) 1/1 (दोस) 1/1 (मोह) 1/1 अव्यय [(जोग)-(परिकम्म) 1/1] (त) 6/1-7/1 सवि [(सुह)-(असुह)(डहण) 1/1 वि] (झाणमअ) 1/1 वि (जाय) व 3/1 अक (अगणि) 1/1 जोगपरिकम्मो तस्स सुहासुहडहणो योगों का परिणमन उसके/उसमें पुण्य-पाप कर्मों को जलानेवाली ध्यानमय उत्पन्न होती है झाणमओ जायए अगणी अग्नि अन्वय- जस्स रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो ण विज्जदि तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ अगणी जायए। अर्थ- जिस (जीव) के राग (आसक्ति), द्वेष (शत्रुता), मोह (आत्मविस्मृति) तथा योगों (मन, वचन, काय) का परिणमन नहीं है उस (जीव) के/में पुण्य-पाप कर्मों को जलानेवाली ध्यानमय अग्नि उत्पन्न होती है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (49) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147. जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा। सो तेण हवदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण।। सुहमसुहमुदिण्णं भावं करेदि अव्यय तो [(सुहं)+ (असुहं)+ (उदिण्णं)] सुहं (सुह) 2/1 शुभ असुहं (असुह) 2/1 अशुभ उदिण्णं (उदिण्ण) उत्पन्न हुए भूक 2/1 अनि (भाव) 2/1 भाव को (रत्त) भूकृ 1/1 अनि रागयुक्त हुआ (कर) व 3/1 सक करता है अव्यय (अप्प) 1/1 आत्मा (त) 1/1 सवि (त) 3/1 सवि उससे (हव) व 3/1 अक होता है (बद्ध) भूकृ 1/1 अनि बंधा हुआ [(पोग्गल)-(कम्म) 3/1] पुद्गल कर्म से (विविह) 3/1 वि अनेक प्रकार के अप्पा वह तेण हवदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण अन्वय- रत्तो जदि अप्पा सुहमसुहमुदिण्णं भावं करेदि जं सो तेण विविहेण पोग्गलकम्मेण बद्धो हवदि। अर्थ- रागयुक्त हुआ जो आत्मा उत्पन्न हुए शुभ-अशुभ भाव को करता है, तो वह उस (भाव) से अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म से बंधा हुआ होता है। (50) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148. जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।। योग जोगणिमित्तं (जोग)-(णिमित्त) 1/1] योग के कारण गहणं (गहण) 1/1 ग्रहण जोगो (जोग) 1/1 मणवयणकायसंभूदो [(मण)-(वयण)-(काय)- मन, वचन और काय (संभूदो) भूकृ 1/1 अनि] सहित भावणिमित्तो [(भाव)-(णिमित्त) 1/1] भाव के कारण (बंध) 1/1 बंध भावो (भाव) 1/1 भाव रदिरागदोसमोहजुदो [(रदि)-(राग)-(दोस)- रति, राग, द्वेष और (मोह)-(जुद) भूकृ 1/1 अनि] मोह से युक्त बंधो अन्वय- जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो। अर्थ- योग के कारण (कर्मों का) ग्रहण (होता है)। योग मन, वचन और काय-सहित (होता है)। भाव के कारण बंध (होता है)। भाव रति' (नौ कषाय), राग, द्वेष और मोह से युक्त (होता है)। 1. हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (51) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149. हेदू चदुब्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बझंति।। चदुब्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं तेर्सि (हेदु) 1/1 कारण [(चदु) वि-(व्वियप्प) 1/1] चार प्रकार [(अट्ठ) वि-(वियप्प) 6/1] आठ प्रकार के (कारण) 1/1 निमित्त (भण) भूकृ 1/1 कहा गया (त) 6/2 उनके अव्यय भी अव्यय और [(राग)-(आदि) 1/1] [(तेसिं)+ (अभावे)] तेसिं (त) 6/2 अभावे (अभाव) 7/1 अभाव होने पर । अव्यय नहीं (बझंति) व कर्म 3/2 अनि बाँधे जाते . रागादि रागादी तेसिमभावे उनके बज्झंति अन्वय- चदुवियप्पो हेदू अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं य तेसिं पि रागादी तेसिमभावे ण बझंति। अर्थ- चार प्रकार का (मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग) कारण आठ प्रकार के (कर्मों का) निमित्त कहा गया (है) और उन (चार प्रकार) के (कारण) भी रागादि (भाव) (हैं)। उन (रागादि भावों) का अभाव होने पर (कर्म) नहीं बाँधे जाते। (52) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150. हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोधो।। हेदुमभावे मनाव कारण अभाव होने पर अनिवार्यतः णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो आसवभावेण विणा जायदि [(हेर्नु)+(अभावे)] हेतुं (हेदु) 2/1 अभावे (अभाव) 7/1 अव्यय 'पंचमी अर्थक' (जाय) व 3/1 अक (णाणि) 6/1 वि [(आसव)-(णिरोध) 1/1] [(आसव)-(भाव) 3/1] अव्यय (जाय) व 3/1 अक (कम्म) 6/1 अव्यय (णिरोध) 1/1 होता है ज्ञानी के आस्रव का निरोध आस्रव भाव के बिना होता है कम्मस्स कर्म का णिरोधो निरोध अन्वय- हेदुमभावे णियमा णाणिस्स आसवणिरोधो जायदि दु आसवभावेण विणा कम्मस्स णिरोधो जायदि।। - अर्थ- (रागादि) कारण का अभाव होने पर अनिवार्यतः ज्ञानी के आस्रव का निरोध होता है और आस्रव भाव के बिना (कर्मों का आगमन न होने से) कर्म (ज्ञानावरणादि) का निरोध होता है। 1. विणा' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (53) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151. कम्मस्साभावेण य सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य। पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सुहमणतं।। कम्मस्साभावेण सव्वण्हू सव्वलोगदरसी [(कम्मस्स)+ (अभावेण)] कम्मस्स (कम्म) 6/1 अभावेण' (अभाव) 3/1 अव्यय (सव्वण्हु) 1/1 वि [(सव्व) सवि-(लोग)(दरसी) 1/1 वि अनि] अव्यय (पाव) व 3/1 सक [(इंदिय)-(रहिद) भूकृ 2/1 अनि] (अव्वाबाह) 2/1 वि [(सुहं)+(अणंत)] सुहं (सुह) 2/1 अणंतं (अणंत) 2/1 वि कर्म का अभाव होने के कारण और . . सबको जाननेवाला समस्त लोक को देखनेवाला और पाता है इन्द्रिय-मुक्त य पावदि इंदियरहिद बाधा-रहित अव्वाबाहं सुहमणंतं सुख को अनन्त अन्वय- कम्मस्साभावेण सव्वण्हू य सव्वलोगदरसी इंदियरहिदं अव्वाबाहं य सुहमणंतं पावदि। अर्थ- ...(ज्ञानावरणादि) कर्म का अभाव होने के कारण (वह ज्ञानी) सबको जाननेवाला और समस्त लोक को देखनेवाला (होता है)। (तदनन्तर वह) इन्द्रिय-मुक्त, बाधा-रहित और अनन्त सुख पाता है। 1. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 36) (54) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152. दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स।। दसणणाणसमग्गं झाणं अण्णदव्वसंजुत्तं [(दंसण)-(णाण)- दर्शन और ज्ञान से (समग्ग) 1/1 वि] पूर्ण (झाण) 1/1 ध्यान अव्यय नहीं [(अण्ण)-(दव्व)- अन्य पदार्थों से (संजुत्त) भूकृ 1/1 अनि] जुड़ा हुआ (जाय) व 3/1 अक होता है [(णिज्जरा-णिज्जर)- निर्जरा का कारण (हेदु) 1/1] [(सभाव)-(सहिद) 6/1 वि] स्वभाव-युक्त (साहु) 6/1 साधु के जायदि . णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स अन्वय- दंसणणाणसमग्गं झाणं णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स अण्णदव्वसंजुत्तं णो जायदि। अर्थ- दर्शन और ज्ञान से पूर्ण ध्यान निर्जरा का कारण (होता है) (और) (वह) (ध्यान) (आत्म) स्वभाव-युक्त (स्वभाव में लीन) साधु के (होता है)। (अतः) (वह) (ध्यान) (आत्मा के अतिरिक्त) अन्य पदार्थों से जुड़ा हुआ नहीं होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153. जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि। ववगदवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो। जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि ववगदवेदाउस्सो (ज) 1/1 सवि (संवर) 3/1 संवर से (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि युक्त [(णिज्जरमाणो)-(अध)] णिज्जरमाणो (णिज्जर) वकृ 1/1 निर्जरा करता हुआ अध (अ) = और और [(सव्व) सवि-(कम्म) 2/2] समस्त कर्मों को [(ववगद) भूक अनि- नष्ट कर दिये गए (वेद)-(आउस्स) 1/1] वेदनीय और आयु कर्म (मुय) व 3/1 सक छोड़ता है (भव) 2/1 संसार को अव्यय इसलिए (त) 1/1 सवि (मोक्ख) 1/1 मोक्ष मुयदि भवं तेण वह मोक्खो अन्वय-जो संवरेण जुत्तो सव्वकम्माणि णिज्जरमाणोध ववगदवेदाउस्सो सो भवं मुयदि तेण मोक्खो। अर्थ- जो (जीव) संवर से युक्त (है), समस्त (घातियाः ज्ञाणावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय चार प्रकार के) कर्मों की निर्जरा करता हुआ (प्रवर्तित है) और (जिसके द्वारा) वेदनीय, आयु (नाम, गोत्र) कर्म नष्ट कर दिये गए हैं) वह (आवागमनात्मक) संसार को छोड़ देता है। इसलिए (यह स्थिति) मोक्ष (कही गयी है)। (56) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 105. अभिवंदिऊण सिरसा अपुणब्भवकारणं महावीरं। तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि।। 106. सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं। मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं।। 107. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं। चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं।। 108. जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा।। 109. जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा। उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।। 110. पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा काया। देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।। 112. एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया। मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया।। 113. अंडेसु पवटुंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (57) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114. संबुझ्मादवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी। जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा।। 115. जूगागुंभीमक्कुणपिपीलिया विच्छियादिया कीडा। जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा।। 116. उबंसमसयमक्खियमधुकरभमरा पतंगमादीया। रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति।। 117. सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू। जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा।। 118. देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कम्मभोगभूमीया। तिरिया बहुप्पयारा जेरइया पुढविभेयगदा।। 119. खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणाम आउसे य ते वि खलु। पापुण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेसवसा॥ 120. एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा। देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य।। 121. ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता। जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति।। 122. जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं॥ (58) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहगेहिं । अभिगच्छद् अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं । । 124. आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा । तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा || 125. सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं । जस्स ण विज्जदि णिच्वं तं समणा बेंति अज्जीवं ।। 126. संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसहा य पोग्गलदव्वप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू ।। 127. अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। 128. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ।। 129. गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।। 130. जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्वालम्मि | . इदि जिणवरेहिं भणिदो अनादिणिधणो सणिधणो वा ।। 131. मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि । विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो । । • पंचास्तिकाय (खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार (59) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132. सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो। 133. जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं। जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि।। 134. मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि। . • जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।। 135. रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्ते णत्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्स आसवदि।। 136. अरहंतसिद्धसाहसु भत्ती धम्मम्मि जा या खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चंति।। 137. तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्टण जो दु दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा।। 138. कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज। जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा बेंति।। 139. चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु। परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि।। 140. सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अमृद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति।। (60) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141. इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्टमग्गम्मि। जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासवच्छिदं।। 142. जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु। णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।। 143. जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स।। 144. संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं। कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं।। 145. जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टपसाधगो हि अप्पाणं। मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं ।। 146. जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी।। 147. जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा। सो तेण हवदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण।। 148. जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।। 149. हेदू चदुब्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बझंति।। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (61) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150. हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो । आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोधो । 151. कम्मस्साभावेण य सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य । पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सुहमणंतं । । 152. दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं । जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स ।। 153. जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि । ववगदवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो ।। (62) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-1 संज्ञा-कोश अंडा पदार्थ दया 124 107 संज्ञा शब्द अर्थ लिंग गा.सं. अंड अकारान्त नपुं. 113 अगणि अग्नि इकारान्त पु. 110, 146 अचेदणत्त अचेतनता अकारान्त नपु. 124 अजीव अजीव अकारान्त पु. 108 अज्जीव अजीव अकारान्त पु. 123, 125 अट्ठ अकारान्त पुं., नपुं. 108, 145 अणुकंपा आकारान्त स्त्री. 135, 137 अणुगमण अनुसरण अकारान्त पु. 136 अधम्म अधर्म अकारान्त पु. अधिगम ठीक-ठीक बोध अकारान्त पु. अपवाद अकारान्त पु. 139 अपुणब्भव अकारान्त पु. अप्प आत्म-स्वभाव अकारान्त पु. 145 आत्मा अकारान्त पु. 147 अप्पाण आत्मा अकारान्त पु. 145 अभाव अभाव अकारान्त पु. 149, 150, 151 अरहंत अरहंत अकारान्त पु. 136 असुह अकारान्त नपुं. ____143, 146 अशुभ 147 आउस अकारान्त नपुं. 119 आउस्स अकारान्त नपुं. 119, 153 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार निंदा मोक्ष 105 पाप आयु आयु Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगास आदि आकाश आदि आसव आस्रव इंदिय इन्द्रिय जल मच्छर उदग उदंस उवओग कम्म . अकारान्त पु., नपुं. 124 इकारान्त पु. 112, 115, 116, 149 अकारान्त पु. 108, 139, 141, 150 अकारान्त पु., नपुं. 112, 113, 114, 115, 117, 121, 129, 140, 141, 151 अकारान्त पु., नपुं. 110 अकारान्त पुं. 116 अकारान्त पु. 109 अकारान्त पु., नपुं. 118, 128, 133, 143, 144, 145, 147, 150, 151, 153 अकारान्त नपुं. 132 अकारान्त पु. 141 अकारान्त पु. 110 121, 148 अकारान्त नपुं. 105 उपयोग कर्म कम्मत्तण कर्मत्व कसाय काय कषाय शरीर काय कारण निमित्त कारण 149 काल 124 कालुस्स किमी काल अकारान्त पु. कलुषता/मलिनता अकारान्त न. ईकारान्त पु. 135, 139 114 कीड़ा (64) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीड़ा क्रोध व्याकुलता गदिणाम गहण गति गमन गतिनाम ग्रहण कनखजूरा अकारान्त पु. 115 अकारान्त पु. 138 अकारान्त पु. ____138 अकारान्त पु. 115, 116, 117, 126 इकारान्त स्त्री. 119, 128, 129 128 अकारान्त पु., नपुं. 119 अकारान्त नपुं. 148 ईकारान्त स्त्री. 115 अकारान्त पु., नपुं. 124, 126, 127 उकारान्त पु. 136 अकारान्त नपुं. 129 अकारान्त नपुं. 130 आकारान्त स्त्री. 139 अकारान्त नपुं. 106, 107 अकारान्त नपुं. 131, 138 गुंभी गुण गुरु ग्रहण चक्रभ्रमण ग्गहण चक्क्वाल चरिया चारित्त चित्त चर्या चारित्र मन चित्त 135 चेटा प्रयत्न चेतन चेतनता 124 चेदण चेदणदा चेदणा च्छिद्द आकारान्त स्त्री. 136 अकारान्त पु. 109 आकारान्त स्त्री. आकारान्त स्त्री. अकारान्त नपुं. 141 आकारान्त स्त्री. 125 चेतना ____127 स्रोत जाणणा अनुभव करना पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (65) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवर जिनेन्द्र देव जीव जीव जूगा जोग झाण णर णाण णारय णिकाय णिज्जरणा णिज्जरा निर्जरा णिमित्त णिरोध णिकाय इय तव तिरिय (66) जूँ योग ध्यान मनुष्य सम्यग्ज्ञान चैतन्य ज्ञान ज्ञान / आत्मा नारकी समूह निर्जरा कारण निरोध श्रेणी नारकी तप तिर्यंच अकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं. 130 अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 108,109,110, 112, 113,114,115, 117, 120,121, 122, 123, 124,127, 128, 130, 132,133, 134, 135, 138 115 आकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं. 152 117 106, 107 121, 123 140, 152 145 अकारान्त पु. 117 अकारान्त पु. 112, 120 आकारान्त स्त्री. 144 आकारान्त स्त्री. 108, 152 अकारान्त नपुं. 148 अकारान्त पु. 150 अकारान्त पु. 118 अकारान्त पु. 118 अकारान्त पु., नपुं. 144 अकारान्त पु. 117, 118 पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार 143,144,146,148 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसण दव्व दर्शन द्रव्य पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 152 अकारान्त पु., नपुं 126, 142 152 दुक्ख HERS अकारान्त पु., नपुं 122,125,133,142 अकारान्त पु., नपुं. 118 अकारान्त पु., नपुं. 109, 120 129 अकारान्त पु. 106, 129, 131, 142, 146, 148 अकारान्त पु., नपुं. 124, 136 अकारान्त पु. 123 धम्म धर्म पज्जय प्रकार पर्याय 126 टिड्डी 116 39 पतंगम पमाद पयत्थ परिकम्म परिणाम 105 146 असावधानी पदार्थ परिणमन स्वभाव रूपान्तरण परिणाम भाव संताप निष्पादन प्रसन्नता पाप अशुभ परिणाम अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 112 128 131, 132 135 अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 125 अकारान्त पु. 131 अकारान्त पु., नपुं. 108,132,139,141 _139 परिताव परियम्म पसाद पाव 143 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (67) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिपीलिया चींटी पुद्गल पृथ्वी पुग्गल पुढवी पुण्ण पुण्य शुभ परिणाम पुद्गल उत्पन्न पोग्गल प्पभव प्पयार प्पविचार प्फास फल प्रकार विवेचन स्पर्श फल स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श स्प र्शन फास HILLENDritt#####11: !! आकारान्त स्त्री. 115 अकारान्त पु., नपुं. 124 ईकारान्त स्त्री. 110, 118 अकारान्त पु., नपुं. 108, 132, 135 143 अकारान्त पु., नपुं. 126, 132, 147 अकारान्त पु. 126 अकारान्त पु. 118, 121 अकारान्त पु. 109, 120 अकारान्त पु., नपुं. 117, 126 अकारान्त पु., नपुं. 122, 133 अकारान्त पु., नपुं. 110 114, 115, 116 133 अकारान्त पु. 108, 134, 148. इकारान्त स्त्री. 106 अकारान्त पु. 105 इकारान्त स्त्री. 136 अकारान्त पु. 116 अकारान्त पु. 153 अकारान्त पु. 107, 108 अकारान्त पु. 130, 131, 147, 148, 150 अकारान्त पु. 132 उकारान्त पु. 142 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार बंध भमर भव भँवरा संसार पदार्थ भाव भाव परिणमन श्रमण भिक्खु (68) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्ग मार्ग मन 116 116 105 माण मान भीरुत्त भय अकारान्त नपुं. 125 भेय अकारान्त पु., नपुं. 118 भोगभूमि भोगभूमी इकारान्त स्त्री. 118 मक्कुण खटमल अकारान्त पु. 115 मक्खिया मक्खी आकारान्त स्त्री. 116 अकारान्त पु. 105,106,107, 141 मण अकारान्त पु. 112, 137, 148 मणुय मनुष्य अकारान्त पु. 118 मसय डांस अकारान्त पु. मधुकर मधुमक्खी अकारान्त पु. महावीर महावीर अकारान्त पु. अकारान्त पु. 138 माणुस मनुष्य अकारान्त पु., नपुं. 113 मादुवाह कीट-विशेष अकारान्त पु. 114 माया आकारान्त स्त्री. 138 मुत्ति इकारान्त स्त्री. 134 मोक्ख मोक्ष अकारान्त पु. 105,106,108,153 मोह अकारान्त पु. 110, 131, 142, 146, 148 आत्मविस्मृति अकारान्त पु. 140 इकारान्त स्त्री. 148 अकारान्त पु., नपुं. 145 अकारान्त पु., नपुं. 114, 115, 116, 117, 126 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (69) माया मोह Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग राग रुद्द रूप लक्खण लक्षण चिह्न लिंग लेश्या आक अकारा लेसा लेस्सा लोग लोभ लोलदा वणप्फदि लेश्या लोक लोक लोलुपता वनस्पति अकारान्त पु. 106, 129, 131, 135, 136, 142, 146, 148, 149 अकारान्त नपुं. 140 अकारान्त पु., नपुं. 116 अकारान्त पु., नपुं. 109 अकारान्त नपुं. 123 आकारान्त स्त्री. 119 आकारान्त स्त्री. 140 अकारान्त पु. 151 अकारान्त पु. 138 आकारान्त स्त्री. 139 इकारान्त पु. 110 अकारान्त पु. 117, 126 अकारान्त पु., नपुं. 148 आकारान्त स्त्री. 140 उकारान्त पु. 110 अकारान्त पु. 115 अकारान्त पु. 107,129,133,139 अकारान्त पु. 109, 112 अकारान्त पु. 153 अकारान्त पु. 149 अकारान्त पु. 149 अकारान्त पु., नपुं. 114 अकारान्त पु. 126 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार वण्ण वर्ण वयण वचन अधीनता वायु वसदा वाउ विच्छिय विसय बिच्छु विह विषय प्रकार वेदनीय कर्म वेद वियप्प वियप्प प्रकार प्रकार शंख संख संघाद सहनन (70) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकार घोंघा संठाण संबुक्क संवर संवरण संसार संवर निरोध संसार सण्णा संज्ञा सद्द शब्द श्रद्धा सद्दहण सभाव स्वभाव समण श्रमण अकारान्त नपुं. 126, 127 अकारान्त पु. 114 अकारान्त पु. 108,144,145,153 अकारान्त पु. 143 अकारान्त पु. 130 आकारान्त स्त्री. 140, 141 अकारान्त पु., नपुं. 126 अकारान्त पु., नपुं. 107 अकारान्त पु. 152 अकारान्त पु. 125 अकारान्त नपुं. 106, 107 उकारान्त पु. 136, 152 अकारान्त पु. 120, 136 इकारान्त स्त्री. 114 अकारान्त नपुं. 122 अकारान्त पु. 117 अकारान्त नपुं. ___125,133,142,151 143, 146 147 अकारान्त पु. 149, 150, 152 सम्मत्त सम्यग्दर्शन साधु साहु सिद्ध सिद्ध सिप्पि पुण्य शुभ कारण किवया 3/1 करुणा से सिरसा 3/1 सिर से अनियमित संज्ञा 137 105 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (71) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया आस चिट्ठ जाय विज्ज बिभ हव हव हो (72) अर्थ विद्यमान होना प्रयत्न करना उत्पन्न होना होना होना डरना Ac क्रिया - कोश अकर्मक होना होना गा.सं. 138 144 129, 130, 146 150, 152 125, 131, 142, 146 122 106 108, 121, 132, 147 126, 128, 131, 137, 140 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश सकर्मक . गा.सं. अर्थ प्राप्त करना जानना 134 आना 123 135, 142 122 क्रिया अणुहव अभिगच्छ आसव इच्छ उग्गह कर कुण कुव्व गाह इच्छा करना ग्रहण करना 134 करना 147 करना 138, 139, 144 करना 122 प्राप्त करना 134 जाण जानना 114, 115, 122, 127 झा 145 ध्यान करना उत्पन्न करना स्वीकार करना 110 पडिवज्ज 137 परूव कहना 121 पस्स 122 पाव 151 134 फास बू-बे . भुंज देखना पाना स्पर्श करना कहना भोगना छोड़ना 125, 138 122 153 मुय विजाण जानना 116 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (73) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोच्छ संधुण पा बज्झति भुंजदे वुच्चंति (74) कहना नष्ट करना प्राप्त करना 105 145 अनियमित क्रिया बाँधे जाते हैं भोगा जाता है कहे जाते हैं 119 अनियमित कर्मवाच्य 149 133 136 पंचास्तिकाय (खण्ड - 2) नवपदार्थ अधिकार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त-कोश संबंधक कृदन्त गा.सं. कृदन्त शब्द अर्थ अभिगम्म जानकर अभिवंदिऊण प्रणाम करके कृदन्त संकृ अनि 123 105 दट्टण देखकर संकृ अनि संकृ 137 145 मुणिऊण जानकर आस्सिद उदिण्ण भूतकालिक कृदन्त आश्रित भूकृ अनि उत्पन्न हुआ भूक अनि निर्मित भूक अनि प्राप्त हुआ भूकृ अनि प्राप्त हुआ युक्त भूकृ अनि भूकृ अनि 120 147 143 118 113 106.152 145 144 संबंध सहित 148 141 119 णिग्गहिद णिबद्ध णिव्वाद दुप्पउत्त युक्त भूक अनि वश में किया गया बाँधा हुआ निष्पन्न भूक दुरुपयोग किया भूकृ अनि हुआ कहा गया भूकृ अनि 109 140 पण्णत्त 121 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (75) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त परिहीण पिहिय बद्ध भणिद भणिय रक्त रहिद लद्ध ववगद विरहिद संजुत्त संभूद संसिद णेय णिज्जरमाण पवता (76) प्राप्त हुआ रहित बंद किया गया बँधा हुआ कहा गया कहा गया रागयुक्त हुआ मुक्त प्राप्त नष्ट कर दिया गया वियुक्त / रहित वियुक्त जुड़ा हुआ सहित आश्रित जानने योग्य भूकृ अनि भूक अनि निर्जरा करता हुआ बढ़ता हुआ भूक भूक अनि भूक भूकृ भूकृ अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि विधि कृदन्त विधिक अनि वर्तमान कृदन्त वकृ वकृ 132 106 141 147 120,124,130, 149 112 147 151 106 153 112 134 152 148 110, 135 113 153 113 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अर्थ 127 123 129 विशेषण-कोश गा.सं. अगंध गंध-रहित अंतरिद भिन्न अट्ट आर्त ध्यान 140 अणंत अनन्त 151 अण्ण अन्य 119, 123, 152 अदेह अदेह 109 अधिगद प्राप्त अनादिणिधण अनादि-अनन्त 130 अपादग पाँव-रहित 114 अप्पग स्वभाववाला 109 अभव्व मुक्ति के अयोग्य 120 अरस रस-रहित 127 रूप-रहित 127 अलिंगग्गहण तर्क से ग्रहण न 127 होनेवाला अव्वत्त अप्रकट 127 अव्वाबाह बाधा-रहित असद्द शब्द-रहित 127 असुह 131, 132 पाप 142 अहिद अनुचित 122, 125 अरूव 151 अशुभ पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (77) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलुस खचर डहण णाणि 150 मलिन 138 आकाश में विचरण 117 करनेवाले खीण क्षीण 119 गब्भत्थ गर्भ में स्थित 113 जलचर जल में विचरण करनेवाले 117 जारिस जिस प्रकार 113 जावत्तावत उसी समय तक 141 झाणमअ ध्यानमय 146 जलानेवाला 146 ज्ञानी तारिस उसी प्रकार तिसिद प्यासा 137 थलचर भूमि पर चलनेवाले 113 दुहिद दुखी दुहिदमण दुखी मनवाला 137 पर अन्य 139 पसत्थ शुभ 135, 136 पसाधग साधनेवाला 145 पावप्पद पाप देनेवाला 140 पुढविकाइय पृथ्वीकायिक 112 पूर्वकाल 119 मात्र 132 113 137 पुव्व मेत्त (78) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिय 117 बहु बहुग बहुल बहुविह 118, 123, 126 110, 144 110, 139 बलवान अनेक अनेक व्याप्त अनेक प्रकार ज्ञानी भूखा भव्य मुक्ति के अयोग्य 144 बुध 138 बुभुक्खिद 137 भव्व 106 120 मूर्त 133, 134 118 य वस 119 विरद 143 107 147 विरूढ विविह विहूण संसारि संसारत्थ 120 उत्पन्न अधीन संयमी परिज्ञात (मोक्ष) अनेक प्रकार रहित संसारी संसार में स्थित अपना अंत-सहित शब्द को जाननेवाला समान 120 109, 128 119 130 स-णिधण' सद्दण्हु सम 117 142 समग्ग पूर्ण 152 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (79) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्हु 151 FEE सुनको जाननेवाला सबको जाननेवाला युक्त सहिद 152 131, 132 सुह शुभ 142 हिद पुण्य उचित 122, 125 अनियमित विशेषण दरसि 1/1 देखनेवाला 151 संख्यावाची विशेषण 112, 113 एक आठ 149 E. MP4 चार 118 149 121 140 F.... to # # FD E E F 115 109 132 3G Bछ 112, 117 114 G (80) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम-कोश सर्वनाम शब्द गा.सं. 112, 120 अर्थ लिंग यह पु., नपुं यह स्त्री. जो पु., नपुं. 137 वह पु., नपुं. 114, 121, 125, 128, 131, 135, 137, 141, 142, 143, 144, 145, 146, 153, 105, 107, 108, 110, 114, 116, 119, 121, 122, 124, 125, 128, 129, 131, 134, 137, 138, 141, 143, 144, 145, 146, 147, 149, 153 122, 142, 153 सब पु., नपुं. समस्त 151 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (81) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय अध इति इदि एवं खलु जं *15 जदा जदि जम्हा जा 55 ण (82) अर्थ और ही इस प्रकार वाक्य की शोभा ऐसा (वाक्यार्थ द्योतक) वाक्य की शोभा इस प्रकार निश्चय ही निश्चय से वाक्यालंकार और पादपूरक तो अव्यय - कोश जब जिस समय यदि चूँकि जब तक नहीं है नहीं गा. सं. 153 121 132 136 138 130 123, 130 110, 128, 136 119 143 108, 125, 140, 143 116 147 138 143 147 133 136 121 125, 142, 146, 149 पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ - अधिकार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णत्थि णिच्चं णियदं णो तदा तम्हा तेण दु لم यमा पि पुण 쇠 या नहीं है सदैव सदैव निश्चयात्मक रूप से अनिवार्यतः नहीं उस समय इस कारण इसलिए पादपूरक और पादपूरक भी और फिर किन्तु और तथा अथवा जब तक पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार 124, 135, 143 125 133, 145 144 150 152 143 133 153 128, 137 129, 150 136 149 116 118 121 108, 110, 114, 119, 120, 121, 126, 135, 138, 139, 140, 149, 151 109, 113, 140 131 136 (83) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा 138 और 129 तथा तथा अथवा पादपूरक 142, 146 129 122, 125, 130, 131 131 109, 123 110, 119 150 विणा बिना भली प्रकार निश्चय ही 141 121, 145 (84) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद के दो भेद माने गए है - 1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद परिशिष्ट - 2 छंद' 1. मात्रिक छंद - मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को 'मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं- ह्रस्व और दीर्घ ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (5) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्णों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/ गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2) जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/ गुरु माना जायेगा । जैसे- रामे । यहाँ शब्द में 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है। (3) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/ गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (S) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/ गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)। पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार (85) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वर्णिक छंद - जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्णों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है यगण । ऽ ऽ मगण 555 तगण ऽ ऽ । रगण ऽ । ऽ जगण । ऽ। भगण ऽ । ऽ नगण I│L सगण ।। ऽ लक्षण - - (86) - - पंचास्तिकाय में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गाहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिये जा रहे हैं। - गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण SSS SIIS सम्मत्तं सद्दहणं ऽऽऽ ।। 55 चारित्तं समभावो 5 55 5।।।। ऽ ऽऽ भावाणं तेसिमधिगमो णाणं। ।।। ।। 555 विसयेसु विरूढमग्गाणं। 555 S SS जीवाजीवा भावा SIIS ll SS संवरणिज्जरबंधो SS SS IS 1555 पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। SS ISI SSS मोक्खो य हवंति ते अट्ठा।। ss 5555 555 SU 155 115 जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा। ॥ ऽ। ऽ।ऽ ।। ऽ ऽ ऽ।ऽ ऽऽ उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।। SS 51155 5115 || 1 SISSS एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया। ।।।। । । ।।। ऽ ऽ ऽऽ ।ऽ ।। 5 मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया। . पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (87) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश 1. पंचास्तिकाय : हिन्दी अनुवादक-पन्नालाल बाकलीवाल (श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, चतुर्थ आवृत्ति, 1985) : Edited and Translated by Prof. A. Chakravarti Nayanar 2. Pañcāstikāya-Sāra and 3. 4. 5. A.N. Upadhye (Bharatiya Jnanpith, New Delhi,2001) पाइय-सद्द-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी,1986 ) कुन्दकुन्द-शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (श्री दिगम्बर जैन साहित्य-संस्कृति संरक्षण समिति, दिल्ली, 1989) प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (न्यु भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली, 2005) संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) 6. (88) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण 11. 8. प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) 9. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003) 10. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004) प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी भाग-1 (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 1999) 12. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2012, 2013) 14. प्राकृत-व्याकरण : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (संधि- समास- कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) ___2008) 15. सवार्थसिद्धि : सम्पादन-अनुवाद सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली) 13. पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (89) Page #97 --------------------------------------------------------------------------  Page #98 -------------------------------------------------------------------------- _