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141. इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्टमग्गम्मि।
जावत्तावत्तेहिं पिहियं पावासवच्छिदं।।
इंदियकसायसण्णा
णिग्गहिदा जेहिं सुहृमग्गम्मि जावत्तावत्तेहि
[(इंदिय)-(कसाय)- इन्द्रियाँ, कषायें और (सण्णा ) 1/2]
संज्ञाएँ (णिग्गहिदा) भूकृ 1/2 अनि वश में की गई (ज) 3/2 सवि जिनके द्वारा [(सुट्ठ) अ-(मग्ग) 7/1] मार्ग में भली प्रकार से [(जावत्तावत)+(तेहिं)] जावत्तावत (जावत्तावत) उसी समय तक 1/1 वि अनि तेहिं (त) 3/2 सवि उनके द्वारा (पिहिय) भूकृ 1/1 अनि बंद किये गये। [(पाव)-(आसव)- पाप-आस्रव के स्त्रोत (च्छिद्द) 1/1]
पिहियं पावासवच्छिदं
अन्वय- जेहिं सुट्टमग्गम्मि इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जावत्तावत्तेहिं पावासवच्छिदं पिहियं।
अर्थ- जिनके द्वारा (जब तक) (धर्म) मार्ग में भली प्रकार से इन्द्रियाँ, कषायें और संज्ञाएँ वश में की गई (हैं) उनके द्वारा उसी समय तक पाप-आस्रव के स्त्रोत बंद किये गये हैं)।
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पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार