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________________ 107. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । चारितं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ।। सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं' सिमधिगमो णणं चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ' ( सम्मत्त) 1 / 1 (सद्दहण) 1 / 1 (भाव) 6/27/2 [(तेसिं) + (अधिगमो)] तेसिं (त) 6/2 सवि अधिगमो (अधिगम) 1/1 ( णाण) 1 / 1 ( चारित) 1 / 1 (समभाव) 1/1 ( विसय ) 7/2 [(विरूढ) वि ( मग्ग) 6 / 2-7 / 2] 1. सम्यग्दर्शन श्रद्धा पदार्थों में उनका ठीक-ठीक बोध सम्यग्ज्ञान चारित्र अन्वय- भावाणं सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं विसयेसु समभावो चारितं विरूढमग्गाणं । समभाव विषयों में परिज्ञात (मोक्ष) मार्गों में अर्थ- पदार्थों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन ( है ), उन ( पदार्थों) का ठीक-ठीक बोध सम्यग्ज्ञान ( है ) (और) (इष्ट-अनिष्ट) विषयों में समभाव (सम्यक् ) चारित्र (है)। परिज्ञात (मोक्ष) मार्गों में (यह मार्ग ) ( प्रमाणित है ) । पंचास्तिकाय ( खण्ड - 2) नवपदार्थ - अधिकार कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) (11)
SR No.002307
Book TitlePanchastikay Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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