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________________ 134. मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि। जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।। मुत्तो फासदि मुत्तो मूर्त से मुत्तेण बंधमणुहवदि (मुत्त) 1/1 वि (फास) व 3/1 सक स्पर्श करता है (मुत्त) 2/1 वि मूर्त को (मुत्त) 1/1 वि मूर्त (मुत्त) 3/1 वि [(बंध)+(अणुहवदि)] बंधं (बंध) 2/1 बंध को अणुहवदि(अणुहव)व 3/1 सक प्राप्त करता है (जीव) 1/1. जीव [(मुत्ति)-(विरहिद) भूकृ 1/1 अनि मूर्त भाव से वियुक्त (गाह) व 3/1 सक प्राप्त करता है (त) 2/2 सवि उनको (त) 3/2 सवि उनके साथ (उग्गह) व 3/1 सक ग्रहण करता है जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि तेहिं उग्गहदि अन्वय- मुत्तो मुत्तं फासदि मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि मुत्तिविरहिदो जीवो तेहिं गाहदि ते उग्गहदि। ___ अर्थ- (संसारी जीव में) मूर्त (कर्म) मूर्त (कर्म) को स्पर्श करता है। मूर्त (कर्म) मूर्त से बंध को प्राप्त करता है। मूर्त भाव से वियुक्त (अमूर्त) जीव उन (कर्मों) के साथ (अनादिकालीन कर्म संयोग के कारण बंध अवस्था को) प्राप्त करता है (और) (इसी कारण) (कर्म) (भी) उन (जीवों) को ग्रहण करता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार
SR No.002307
Book TitlePanchastikay Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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