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135. रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो।
चित्ते णस्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्स आसवदि।।
राग
रागो जस्स
जिसके
पसत्थो
शुभ
अणुकंपासंसिदो
दया के आश्रित
और
(राग) 1/1 (ज) 6/1 (पसत्थ) 1/1 वि [(अणुकंपा)-(संसिद) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय (परिणाम) 1/1 (चित्त) 7/1.
अव्यय (कालुस्स-कलुस्स) 1/1 (पुण्ण) 1/1 (जीव) 6/177/1+2/1 (आसव) व 3/1 सक
परिणामो चित्ते णत्थि कलुस्सं
भाव
चित्त में नहीं है कलुषता/मलिनता
पुण्णं
पुण्य
जीवस्स आसवदि
जीव में/जीव को आता है
अन्वय- जस्स पसत्थो रागो अणुकंपासंसिदो परिणामो य चित्ते कलुस्सं णस्थि जीवस्स पुण्णं आसवदि।
अर्थ- जिस (जीव) के शुभ राग (है), दया के आश्रित भाव (है) और चित्त में कलुषता/मलिनता नहीं है (उस) जीव में/को पुण्य आता है।
2.
यहाँ छन्द पूर्ति हेतु ‘कालुस्सं' के स्थान पर ‘कलुस्सं' किया गया है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135)
(38)
पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार