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________________ 145. जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टपसाधगो हि अप्पाणं। मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि' कम्मरयं।। जुत्तो अप्पट्ट (ज) 1/1 सवि संवरेण (संवर) 3/1 (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि [(अप्प)-(अट्ठ)-(पसाधग) 1/1 वि] अव्यय अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 मुणिऊण (मुण) संकृ झादि (झा) व 3/1 सक णियदं अव्यय णाणं (णाण) 2/1 (त) 1/1 सवि संधुणोदि (संधुणेदि) (संधुण) व 3/1 सक कम्मरयं [(कम्म)-(स्य) 2/1] जो संवर से सहित आत्म पदार्थ को साधनेवाला निश्चय ही आत्मा को जानकर ध्याता है सदैव ज्ञान/आत्मा को वह नष्ट करता है कर्मरूपी धूल को अन्वय- जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो णियदं णाणं झादि सो अप्पाणं मुणिण हि कम्मरयं संधुणोदि। अर्थ- जो संवर सहित आत्म पदार्थ को साधनेवाला (है), (वह) सदैव ज्ञान/आत्मा को ध्याता है। (फलस्वरूप) वह आत्मा को जानकर निश्चय ही कर्मरूपी धूल को नष्ट करता है। 1. 2. 'संधुणोदि' के स्थान पर ‘संधुणेदि' पाठ होना चाहिये। तृतीया के साथ ‘सहित' अर्थ होता है। (48) पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार
SR No.002307
Book TitlePanchastikay Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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