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संवर-निर्जरा-मोक्षः ___ आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि धर्ममार्ग पर चलने से पापास्रव के स्रोत बंद किये जा सकते हैं। यह समझना चाहिये कि पाप-आस्रव समाज हित में नहीं होता है। पुण्य कर्मों से समाज का विकास होता है। गृहस्थ जीवन में पाप-आस्रव को रोकना अपेक्षित है। पुण्य कार्यों में लगना धर्म मार्ग पर चलने से ही संभव है, किन्तु जब व्यक्ति शुद्धोपयोग की ओर मुड़ता है तो पुण्य कर्म भी उसे अपने आत्मोत्थान में बाधक प्रतीत होने लगते हैं। पाप कार्यों से तो वह हट ही चुका है, अब वह पुण्य कार्यों से भी धीरे-धीरे हटना चाहता है। आचार्य का मत है कि गृहस्थ जीवन में यह संभव नहीं होता है। अतः वह श्रमण अवस्था की ओर झुकता है और सुख-दुख में समान स्थिति होने पर पुण्य-पाप कर्मों का आस्रव रुक जाता है। यही संवर है। आचार्य कहते हैं “जिस समय संयमी (श्रमण) के मन-वचन-काय योग में शुभ-अशुभ परिणाम नहीं होते, उस समय उसके पुण्यपाप से निर्मित कर्म का संवर होता है।"
शुद्धोपयोग की ओर मुड़ा हुआ श्रमण जब संवरात्मक योगों से अनेक प्रकार के तप करता है तो वह अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है। इस तरह जो संवर से संबंधित होकर आत्मा को साधनेवाला है, वह आत्मा को ध्याता है। उसके पुण्य-पाप को जलानेवाली ध्यान अग्नि उत्पन्न हो जाती है और वह कर्मों से छूट जाता है।
कर्मों का अभाव होने पर, वह सबको जाननेवाला और समस्त लोक को देखनेवाला हो जाता है और वह इन्द्रिय-रहित, बाधा-रहित, अनन्त सुख को पाता है। यही मोक्ष है।
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पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार