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________________ 130. जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्वालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अनादिणिधणो सणिधणो वा।। जायदि (जाय) व 3/1 अक उत्पन्न होता है जीवस्सेवं [(जीवस्स)+(एवं)] जीवस्स (जीव) 6/1 जीव के एवं (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (भाव) 1/1 भाव संसारचक्वालम्मि [(संसार)-(चक्वाल) 7/1] संसार रूपी चक्रभ्रमण भावो जिणवरेहि भणिदो अनादिणिधणो सणिधणो अव्यय (जिणवर) 3/2 (भण) भूकृ 1/1 (अनादिणिधण) 1/1 वि (स-णिधण) 1/1 वि वाक्य की शोभा जिनेन्द्र देव द्वारा कहा गया अनादि-अनन्त अंत-सहित अथवा अव्यय अन्वय- एवं जीवस्स संसारचक्वालम्मि भावो जायदि जिणवरेहिं अनादिणिधणो वा सणिधणो इदि भणिदो। ... अर्थ- इस प्रकार (कर्मयुक्त) जीव के संसाररूपी चक्रभ्रमण में (रागद्वेषात्मक) भाव उत्पन्न होता है। (वह) (राग-द्वेष भाव) जिनेन्द्र देव द्वारा अनादि-अनन्त अथवा अन्त-सहित कहा गया (है)। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (33)
SR No.002307
Book TitlePanchastikay Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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