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जैन साहित्य सशोधक समिति
पेट्रन. श्रीयुत हीरालाल अमृतलाल शाह. बी. ए. मुंबई.
वाईस पेट्रन श्रीयुत केशवलाल प्रेमचंद मोदी. बी. ए. एल् एल्. बी. वकील अमदाबाद. शेठ चिरंजी लालजी वडजात्या वर्धा.
सहायक. शेठ परमानंददास रतनजी, मुंबई. श्रीयुत मनसुखलाल रवजीमाई मेहता, मुंबई. शेठ कांतिलाल गगलभाई हाथीभाई, पूना. शेठ केशवलाल मणीलाल शाह, पूना. . शेठ बाबूलाल नानचंद भगवानदास झवेरी, पूना.
लाईफमेंबर. श्रीयुत बाबू राजकुमार सिंहजी बद्रीदासजी, कलकत्ता. श्रीयुत बाबू पूरणचंदजी नाहार. एम्. ए. एल्. एल् बी. कलकत्ता. शेठ लालभाई कल्याणमाई झवेरी, वडोदरा ( मुंबई ). शेठ नरोत्तमदास भाणजी, मुंबई. शेठ दामोदरदास, त्रिभुवनदास भाणजी, मुंबई. शेठ त्रिभुवनदास भाणजी जैन कन्याशाला, मावनगर. शेठ केशवजीभाई माणेकचंद, मुंबई. शेठ देवकरणमाई मूळजीभाई, मुंबई. शेठ गुलाबचंद देवचंद, मुंबई. श्रीयुत मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया बी. ए. एल् एल्. बी. सालीसीटर, मुंबई. श्रीयुत केशरी चंदजी भंडारी इंदौर. शाह अमृतलाल एण्ड भगवानदास कुं० मुंबई. शाह चंदुलाल वीरचंद कृष्णाजी, पूना. -शाह धनजीभाई वखतचंद सागंदवाळा, हाल पूना. शाह बाळुभाई शामचंद, तळेगाम ( ढमढेरे). शाह चुनिलास झवेरचंद, मुंबई. शाह भोगीलाल चुनिलाल, सोलापुरबजार, पूना केंप.
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RANENERMANENENEVENERNMENENKANKINE NEEMES
जैन साहित्य संशोधकना द्वितीय खण्डमां । केवा केवा विषयो आवशे ते जाणवू होय,
तो आ नीचेनी नोंध ध्यानपूर्वक वांचो
बीजा खण्डमां, जैन धर्मना प्राचीन गौरव उपर अपूर्व प्रकाश पाडनारा अनेक प्राचीन * शिलालेखो अने ताम्रपत्रो प्रकट थशे.
बीजा खण्डमां, जैन संघना संरक्षक जुदा जुदा गच्छोनी पट्टावलियो प्रसिद्ध थशे.
बीजा खण्डमां, जैन साहित्यना आभूषणभूत ग्रन्थोना परिचयो अने तेनी प्रशस्तिओ - प्रसिद्ध थशे.
बीजा खण्डमां, जैन अने बौद्ध साहित्यनी तुलना करनारा प्रौढ अने गंभीर लेखो * आवशे.
बीजा खण्डमां, भगवान महावीर देवना निर्वाण समय संबंधी जुदा जुदा विद्वानोए लखेला स लेखोनां भाषान्तरो तथा स्वतंत्र लेख आवशे.
बीजा खण्डमां, पो० बेवरनी लखेली जैन आगमो वेबरनी विस्तृत समालोचना आपवामां आवशे
बीजा खण्डमां, जैन साहित्यमा उल्लिखित प्राचीन स्थळोनां वर्णनो आवशे.
बीजा खण्डमां, बौद्ध साहित्यमां जैन धर्मविषये शा शा विचारो लखाएला छे तेना विचित्र उल्लेखो आवशे.
बीजा खण्डमां, जैन संघमां आज पर्यंत थई गएला बधा प्रसिद्ध पुरुषोनो टुंक परिचय आपवामां आवशे. __आ सिवाय बीजा पण अनेक नाना मोटा अपूर्व अपूर्व लेखो प्रकट करवामां आवशे अने 6 साथे तेवा ज सुन्दर, मनहर, दर्शनीय अने संग्रहणीय अनेक चित्रो पण यथायोग्य आपवामां
आवशे.
KAMKANENEINKANENENEMIKALNEYLEYLANILEAKAIRAKASAMKALANK
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॥ अर्ह म्॥ . ला णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।।
जै न सा हि त्य सं शोध क
जैन इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदि विषयक
सचित्र त्रैमासिक पत्र ।
666666888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888866
प्रथम खण्ड
Vaddaddodddddddddddddddddddddddddd666666666666666666666666666666666666666రందికి
संपादक मुनिराज श्रीजिनविजयजी
प्रकाशक जैन साहित्य संशोधक कार्यालय भारत जैन विद्यालय, पूना सिटी
*
*
वीरनिर्वाण संवत् २४४७-विक्रम संवत् १९७७
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प्रकाशक
शा. केशवलाल माणेकचंद भारत जैन विद्यालय. पूना सिटी
मुद्रक
लक्ष्मण भाऊ कोकाटे हनुमान प्रेस, सदाशिव पेठ
पुणे - सिटि.
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( हिन्दी लेख विभाग )
१ मंगल
२ निर्ग्रन्थ प्रवचन
प्रथमखण्ड - विषयसूचि.
३ उद्बोधन
४ सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र
५ हरिभद्रसूरिका समय निर्णय
६ हरिषेणकृत कथाकोष
( ले. पं. नाथूरामजी प्रेमी ) ७ जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी ( ले. पं. नाथूरामजी प्रेमी )
८ मन्धहस्ती महाभाष्यकी खोज
( ले. बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार )
९ तीर्थयात्रा के लिये निकलनेवाले संघोका वर्णन
१० जेसलमेर के पटवोंके संघका वर्णन
११ शोकसमाचार
१२ चित्र परिचय
१३ बालन्याय (ले० श्रीयुत चंपतरायजी जैन
बॅरिष्टर-एट-लॉ)
१४ दक्षिण भारतमें ९ वीं १० वीं शताब्दिका
...
जैनधर्म (ले० स्व० कुमार देवेन्द्र प्रसादजी जैन )
१५ जंबुद्दीवपण्णत्ति (ले० पं. नाथूरामजी प्रेमी ) ..
( गुजराती लेख विभाग )
१ डॉ० हर्मन जेकोबीनी कल्पसूत्रनी प्रस्तावना २ जैन धर्मनुं अध्ययन (ले० प्रो० सी. वी. राजवाडे एम्. ए. बीएस् . सी ...
१
२
६
२१
५९
६३
८८
९६
१०७
११३
११८
१२४
१२९
१४४
१
२९
३ जैन आगम साहित्यनी मूळ भाषा कई ( ले० पं. बेचरदास जीवराज, न्यायव्याकरणतीर्थ )
४ 'हरिभद्रसूरिनो समयनिर्णय' (ले० श्रीयुत
हीरालाल अमृतलाल शाह, बी. ए. )
५ संपादकीय विचार
६ सोमप्रभाचार्य विरचित कुमारपाल
प्रतिबोध
...
"
७ डॉ० हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना ( प्रथम भाग )
( द्वितीय भाग ) ...
...
१३ बे नवा क्षेत्रादेश पट्टक
१४ बृहट्टिप्पनिका नामक प्राचीन जैन
...
८
९ साहित्यसमालोचन
१० क्षेत्रादेश पट्टक
११ सदयवत्स सावलिंगानी जैन कथा (ले० स्व० सी. डी. दलाल एम्. ए. )
१२ सप्तभंगी ( ले० अध्यापक रसिकलाल
छोटालाल परीख बी. ए. ) ...
...
...
ग्रंथ सूचि
१५ एक ऐतिहासिक पत्र
१६ एक श्रीमाळी जैन कुटुंबनी जुनी
वंशावली
१७ अहिंसा अने वनस्पति आहार - लाख करीने बौद्ध धर्ममां..
१८ डॉ० होर्नलना जैनधर्म विषेना विचारो
( ले० श्रीयुत नानालाल नाथाभाई शाह, बी. ए. ) १९ महावीर निर्वाणनो समय विचार
...
३१
३८
४३
६९,१४०
१६७
९७
१०५
५५
१३५
१४५
१५३
१५७
१५८
१५१
१८६
१९४ २०४
the:
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(२) २. आगरानो संपनी कच-सरिक पत्र ... २१२
[ परिशिष्ट ] २१ महावीर तीर्थकरनी जन्मभूमि ... २१८ १ बृहट्टिप्पनिका नाम प्राचीन जैनग्रंथ सूचि
- (द्वितीय अंक) पृष्ठ ... ... १-१६ [इंग्रेजी लेख.]
-२ वीर वंशावली अथवा तपागच्छवृद्ध पट्टावाल.. .. 1 The Undercurrents of Jainism,
(तृतीय अंक ) पृष्ठ ... .... १-१४ By Dr. S. K. Belvalkar, . A. Ph. D. ... ... ... .... 1
- चित्रसचि. 2 The Immediate task before us, १ श्रीमहावीर निर्वाणभूमि, पावापुरी (रंगीन).
By Prof Benarasi Dass Jain, २-३ अति प्राचीन जैन कीर्तिस्तंभ, चितोड गढ. ___M. A. ... ... ... ... ... 3 ४ पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, करहेडा. 3 A Comparative Study of उत्तरा. ५ डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषण, महोपाध्याय, ध्ययनसूत्र with Pali Canonical
६ स्वगीय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक. ___Books. By Prof. P. V. Bapat M.A T ७ चतुर्मुख जैनमन्दिर, कापरडा. 4 Ratnakar Panchavimshatika
८ जैन मंदिर मानस्तंभ, देवगढ, (झांसी). ____By K P. Modi, B.A. LL.B. ... 15 ९ गिरनार पर्वत-पांचमी टुंक. 5 Logic for the Masses. By C. R. १० गिरनार पर्वत-नेमिनाथनी टुंक. Jain, Bar-at-Law (हिन्दी विभाग)११९ ११ विजयसेन सूरिने आगराना संघे मोकलेलो सचित्र
सांवत्सरिक पत्र.
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जैन साहित्य संशोधक
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०००००००००००००००००००००००
เGal๖) ม.112
जैनमंदिर मानस्तंभ, देवगढ ( झांसी )
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॥ अहम् ॥ ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥ जै न सा हि त्य सं शोध क
'पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्साणाए उवहिए मेहावी मारं तरइ ।' 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे सत्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' 'दिलं, सुयं, मयं, विण्णावं जं एत्थ परिकहिजइ ।'
-निर्ग्रन्थप्रवचन-आचारांगसूत्र ।
खंड १]
हिन्दी लेख विभाग
[अंक ४
LOGIC FOR THE MASSES.
By C. R. JAINA, Bar-at-Low.
This little article owes its existence to my growing conviction that the real cause of India's downfall has been the disappearance of what might be termed the scientific or logical turn of mind from her people. How to restore this logical tendency to the Indian mind speedily and in a simple manner naturally flowed from such a conviction. The solution of this troublesome problem has at last been found in the Jaina nyaya upon which this inonogram is grounded. May it fulfil its great purpose, will, I doubt not, be the heartfelt wish of every true patriot.
C. R. JAIN.]
FOREWORD.
Reader,
Has it ever occurred to you to find out why a simple rustic who knows nothing of the three Rs and who is most certainly innocent of all pretensions to logic immediately infers the presence of fire at the sight of smoke? How do
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१२०
जैन साहित्य संशोधक. mapa
ARASAAN you account for the unerring accuracy of his inference in this matter? Is it not that there is inherent in the human mind a natural capacity for valid deduction independently of a school or collegiate education ?
Well, this is what may be termed natural logic which, as you see, is a very simple thing. Compared with this the modern system of logic which forms part of the higher education that is imparted only to advanced students, is but a bundle of artificial forms and formulae. It is cumbersome and too much loaded with technicalities, definitions and diagrams which only go to confuse the mind and confound the sense. Besides, it is meant only for a certain class of college students, is learnt with difficulty and is productive of no practical good outside. Natural logic, on the other hand, is a practical function of life, and, therefore, natural to every man, woman and child. It only requires the drawing of attention to a few principles which can be understood and mastered by any one in a short time. There is certainly nothing in the nature of an impossibility in its principles to place it beyond the reach of the moderately intelligent man in the street. How quickly one masters this branch of practical learning, depends on the way it is imparted to men. Certainly, their failure, if any, is to be laid at the door of their instructor.
It would be out of place to compare in detail the method advocated here with what is taught as logic in our colleges, but it is well-known that the highest achievement of artificial logic is the possession of a set of rigid diagrams and forms which it applies to each and every proposition to test its formal validity quite irrespective of the question whether the statement of fact or facts involved in its premises be, in reality, true or not. The least advantage to be derived from natural logic, on the contrary, is the acquisition of what may be termed the logical turn of mind that seeks to discover and establish actual relations among things and the true principles of causation of events in nature. The highest gain from this system of natural deduction must, consequently, imply a complete mastery over the empire of nature for our individual and racial good.
It only remains to be said that logic is the one science which is the crown of glory of Intellectualism. It is highly practical, useful in every department of learning and the sweetener of life. It was logic which was truly the source of undying fame to the ancient rishis and philosophers of our land; and it is logic whose neglect has reduced us to the lowest level of existence to day. It is, therefore, the duty of every true well-wisher of India and Indians, as well as of the entire human race, to spread the knowledge of this most important science amongst men, and most certainly it should be taught to our boys and girls in their child-hood to impart to them that logical attitude which is the source of all auspiciousness and good.
Hardoi, 22nd August 1920.
CHAMPAT RAI JAIN,
Bar-at-law.
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tot ATEST. annnnnnnnnnnn LOGIC FOR THE MASSES, particular person should always get
boys and never a girl..
It is thus evident that a long course LESSON I.
of practice or even an uninterrupted Logic is the method of valid deduc- series of natural events does not justify tion. A valid deduction is only pos- an inference which can only be drawn sible where there is a fixed rule to lead from certain fixed natural or quasithe mind to a particular conclusion natural rules. from a given mark or fact.
LESSON III. Illustration.
There is a fixed logical rule to guide 1. There is fire in this room, because the mind from :-- it is full of smoke. [Here smoke is the mark of fire.
(1) Cause to effect.
Illustration. The sight of smoke immediately leads
Moist fuel if set burning produces one to the conclusion that there is fire
smoke. in the room, because smoke is not pro
(2) Effect to cause. duced except by fire. )
Illustration. 2. It will be Monday to-morrow, because it is Sunday to day.
Where there is smoke there is fire. .
(3) Antecedent to consequent. Where there is no fixed rule there can be no valid deduction there, e. g.,
Illustration.
i Monday following Sunday; you cannot tell the number of keys in
ii Youth following childhood; my pocket, because there is no fixed rule that I should always have a parti
iii Old age following youth. lar number of keys into my pocket and
(4) Consequent to Antecedent.
Illustration. never more or less.
i Saturday preceding Sunday. LESSON II.
ii Youth preceding old age. A fixed logical rule means something
iii Childhood preceding youth. more than a mere long course of (5) Concomitance. practice, or a series of disconnected
Illustration. events. Suppose a man has hitherto al- i Age and experience. ways carried 5 keys in his pocket and ii Childhood and inexperience. never any more or less : does it entitle any iii Marks of ripeness and deliciousone to say that he will have only five keys ness of taste in fruit. in his pocket to-morrow also? No, be- (6) Container and contained, i. e., the cause we have hele only a long course whole includes the part, or, what comes of practice which might be discontinued to the same thing, the attributes of the any moment. Suppose further that I have whole are to be found in the part. a friend who is the father of one dozen
Illustraion. boys and who has never had a girl born T here is no fruit tree in this to him, and suppose that his wife ex- garden; pects to become a mother again: can Therefore there is no mango tree any one say what will be the sex of the in this garden, next child of my friend ? No, because there is no fixed rule in nature that a The instructor should illustrate these
taste in frui contained it comes
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six kinds of fixed rules by many illustrations.
जन साहित्य संशोधक.
Thus from the relationship between fire and smoke we can infer
LESSON IV.
drawn
The hetu (reason) in the first of these illustrations is called contradictory benature of fire the presence of absence cause it (water) is opposed to the of which is the subject of inference; the pitcher being full of water which is Hence when you see smoke you immi-hostile to and destructive of fire there can be no fire in it. The second illustration is a simple case of non-contradictory hetu (reason).
A conclusion may be from an affirmative logical relationship, e. g, wherever there is smoke there is fire. This is called the anvaya form
diately say that there must be fire present at its source. But the sight of fire does not entitle you to conclude that smoke must be there too; for while smoke is always caused by fire, every kind of fire does not produce smoke, e. g., red hot charcoal fire. But you may sefely infer from the relationship of fire and smoke that where there is no fire there is no smoke. This is technically known as vyatireka.
1. the existence of fire wherever there is smoke, and
2. the non-existence of smoke where there is no fire.
But we cannot infer
1. the existence of smoke from fire,
nor
2. the non-existence of fire where there is no smoke.
[ खंड १
2. There is fire on this hill; because there is smoke on it.
Anvaya and vyatireka taken together establish the validity of a logical relationship.
LESSON V.
The argument or reason is either of a contradictory type or of a non-contradictory one. The former of these
implies the existence of a fact which is incompatible with the existence of the fact expressed in the conclusion. The other type is the non-contradictory
one.
AAAAAAA
Further illustrations
Non-contradictory affirmative reason: 1. Sound is subject to modification, because it is a product.
(Explanation: All products are liable to modification; sound is a product; therefore, sound is subject to modification).
This is an instance of the rule that part is included in the whole, s. e.. the attributes of a class are to be found in the individual.
2. There is fire on this hill because there is smoke on it.
(Effect to cause.)
3. It must be raining yonder, because potent rain-bearing clouds are gathered
there.
[(Active) Cause to effect. ]
4. It will be Sunday to-morrow because it is Saturday to-day.
[Antecedent to consequent. ] 5. Yesterday was a Sunday, because it is Monday to-day.
[Consequent to antecedent] because it is ripe yellow in colour. 6. This mango has a delicious taste,
[Concomitance. ] Contradictory negative reason:
Illustration.
7. The atmosphere inside a steam boiler when fire is burning in it is not
1. There is no fire in this pitcher, cold, because heated bodies are not because it is full of water.
cold.
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Sifers sic et arefter.
अंक ४]
[This is an instance of the whole and part tpye. Its amplified form would be:--
All heated bodies are not cold. A steam boiler is a heated body when a fire is burning in it..
Therefore, a steam boiler when a fire because there is no fire here. is burning in it is not cold.] [Cause of effect. ]
8. This woman is not barren, because she has a grandchild (which is the effect of the antithesis of female barrenness).
[Effect to cause, antithetical.] 9. This man is not happy, because he has present in him the causes of misery (the opposite of happiness).
[Cause to effect, antithetical].
[ Whole and part ]
14. There are no potent rain-bearing clouds here, because it is not raining here.
१२३
[Effect to cause. ]
15. There is no smoke in this place,
16. It will not be Sundy to-morrow, because it is not Saturday to-day. Antecedent to consequent. ] 17. It was not Monday yesterday, because to-day is not Tuesday.
[Consequent to antecedent.] 18. The right hand pan of this pair of scales is not touching the beam, because the other one is on the same level with it.
10. Tomorrow will not be a Sunday, because it is Friday to-day. [Antecedent to consequent, antithetical.] 11. Yesterday was not a Friday, because it is Tuesday to-day. (Consequent to antecedent, antithetical] 12. This wall is not devoid of an outside, because it has an inside.
[Concomitance, antithetical.] Non-contradictory negative:
13. There is no oak in this village, from her lover. because there is no tree in it.
[ Concomitance. ] Contradictory affirmation:
19. This animal is suffering from some disease, because it has not got the appearance of health. [Effect to cause. ]
20. This woman is feeling unhappy. because she has been forcibly separated
[Cause to effect, antithetical. ]
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জল কাহিনী
,
बा ल न्या य
[ लेखकः-श्रीयुत चंपत रायजी जैन, बारिष्टर-ऍट-लॉ. ].
(प्रथम वक्तव्य )
अध्यापकजी!
यह लेख जो आपके सम्मुख उपस्थित है। बालकों अर्थात् छठी, सातवीं और आठवी कक्षाके छात्रोंको न्यायमें प्रवेश करानेके लिये लिखा गया है । "युरुपीय-न्याय" तो कालिजहीमें अध्ययन कराया जाता है। किन्तु यह प्रकट है कि जो मनुष्य प्राकृतिक न्यायको जानता है, वह बिना कालिज तक पढे भी उचित नतीजा निकाल सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राकृतिक न्याय अत्यन्त सरल और सुबोध है । मेरा विचार है कि छठी, सातवी और आठवी कक्षाके बालकोंको भले प्रकार “ न्याय" की शिक्षा दी जा सकती है।
इसमें योग्यता केवल अध्यापकमें होनी चाहिये, जो कि प्रत्येक पाठ तथा दृष्टान्त भलाभांति विद्यार्थीको समझा दे । इस शिक्षामें स्मरण शक्तिपर बलात् बल डालनेकी कोई आवश्यकता नहीं-यदि छात्रको समझा दिया जाय | और न इसमें कोई बात ऐसी ही है, कि उपरोक्त छात्र भलीभांति न समझ सकें । इससे स्वयं छात्रकी नैतिक शक्तियां न्यायका प्रतिबिम्ब हो जायंगी, और उसका मन स्वयं न्यायमें प्रवृत्त होने लगेगा। आशय यह है, कि यदि बालकों की समझमें न्याय न आय तो अध्यापक महाशयकी त्रुटि है और किसीकी नहीं।
"न्याय" के गुणोंके बारे में भी इतना कहना उचित प्रतीत होता है कि बिना इसके जाने हुये बुद्धि तीक्षण नहीं होती, और जो इसको जानता है उसीका जीवन सफल समझना चाहिये । न्याय ही की बदौलत भारत बर्षके प्राचीन कालमें ऋषि, मुनि और विद्वान पंडितगण सारे संसारमें प्रख्यात हो गये । और न्यायके जाते रहने हीका यह फल है कि वर्तमान कालमें भारतमें चारों ओर अविद्या और अज्ञान फैला हुआ है । अतः जो मनुष्य देश और जातिके शुभचिंतक हैं, उनका कर्तव्य है कि वे यथासंभव शैशवकालहीमें अपनी सन्तान और छात्रोंके मनको “न्याय" में प्रवृत्त करावें ।
इसप्रकार "न्याय" में प्रवेश करनेके अर्थ उचित है कि छठी-सातवीं कक्षा तक तो येही पाठ-जो आप लोगों के सन्मुख उपस्थित हैं-पढाये जायं । तत्पश्चात् आठवीं श्रेणीमें “ न्याय दोपिका" "परीक्षा मुख" अथवा इसी प्रकारकी किसी अन्य पुस्तका अध्ययन कराया जाय । इस प्रकार छात्रोंमें न्यायकी योग्यता स्वयं बढती जायगी ।
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अंक ४] बालन्याय.
१२५ प्रथम पाठ
नियम नहीं है वहां कोई ठीक नतीजा नहीं निकाला (क)
जा सकता । आज हम दो उदाहरणोंपर और विचार प्रश्न-बच्चो! आज रविवार है। तुम बतला करेंगे, कि “नियम" से क्या प्रयोजन है।
सकते हो कि कल कौन दिन होगा? १-कल्पना करो कि एक ग्वाला सूर्य निकलनेसे उत्तर--सोमवार।
पूर्व शहरमें दूध बेचनेके लिये मेरे मकानके सामनेसे प्र०--क्या तुम बता सकते हो कि कल मंगल, जाया करता है । और यह भी कल्पना कर लो कि
बुध, या बृहस्पति वार क्यों नहीं होगा? यह मनुष्य ५० बर्षसे लगातार योंही मेरे मकानसे उ०—क्यों कि रविवारके बाद सदैव सोमवार ही जाता है और कोई नागा कभी इससे नहीं हुई। तो
होता है, कभी दूसरा दिन नहीं होता। क्या तुम बता सकते हो, कि प्रातःकाल भी वह प्र०-इस लिये यदि हम यह कहें, कि कल बध मेरे मकान के सामने से गुजरेगा, या नहीं?
होगा तो क्या हमारा कहना ठीक होगा? २-कल्पना करो मेरा एक मित्र रामदत्त है जो १२ उनी माता आपकसा करताना लडकोंका पिता है। और जिसके आज तक कभी . भ्रमात्मक होगा।
लडकी पैदा नहीं हुई। इस रामदत्तकी पत्नी गर्भवती (ख)
है । क्या तुम बता सकते हो कि उसका गर्भस्थ-बालक प्र०--बच्चो ! हमारी जेबमें चाबियोंका एक पुत्र होगा या पुत्री ?
गुच्छा है, क्या तुम बतला सकते हो कि इन दोनों प्रश्नोंके उत्तर "नहीं" में है । क्यों कि उसमें कितनी कुंजिये हैं ?
. पहिले प्रश्नमें दूध बेचनेवालेका बीमार हो जाना अउ०—नहीं साहब!
थवा किसी अन्य आवश्यककार्य या लाभकारी व्याप्र०—क्यों ?
पारमें लग जाना, या दूधही का अभाव हो जाना संभउ०—इस लिये कि कोई ऐसा नियम नियत व है । दूसरे उदाहरणमें प्रकृतिका कोई ऐसा नियम
नहीं है कि जिससे किसी गुच्छेकी कांज- नहीं है, कि अमुक मनुष्यके घर सदैव लडके ही होंयोंकी संख्या निर्धारित हो सके। लडकी कभी न हो।
बस हम देखते हैं कि “न्याय" के नियमका उपरोक्त प्रश्नोत्तर-रीतिसे यह प्रकट है कि न्याय- प्रयाजन एसा घटनाआस नहा है, जो किसी मुख्य के अनुसार नतीजा वहीं निकाला जा सकता है कि, बातमें अब तक प्रचलित रही हों; किन्तु उस नियत १-जहां कोई निर्धारित नियम हो, और नियमसे है-जो अबतक सत्य पाया गया है-और
२-- वहां कोई न्यायका नतीजा नहीं निकल भविष्यमें भी कभी असत्य नहीं हो सकता । जैसे सकता जहां कोई निश्चित नियम नहीं है।
बालक-पनका युवावस्थासे पहले होना ।
दूसरा पाठ बच्चो! कल तुमको यह बताया गया था कि जहां कोई नोट-अध्यापकका कर्तव्य है कि बालकों के मन पर नाना उदाहरणों द्वारा यह सिद्धान्त अंकित कर दे।
तृतीय पाठ उपरोक्त निर्धारित नियम ६ प्रकारके हो सकते हैं,
अधिक नहीं। १-कारणके ज्ञात होनेसे कार्यका अनुमान |
जैसे सुलगते हुये गीले ईधनसे धुंवाका ज्ञान |
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.१२६
जैन साहित्य संशोधक.
[खंड १
२-कार्यसे कारणका ज्ञान ।
इस लिये जब कभी तुम धुंवा देखो तो मनमें उदाहरण-धुंवेसे अग्निका बोध । तुरन्त नतीजा निकाल सकते हो कि वहां अग्नि ३-पूर्व पक्षसे उत्तर पक्षका बोध ।
अवश्य होगी; किन्तु अग्निको देख कर तुम यह नहीं उदाहरणः-१-रविवारके पश्चात सोमवारका होना। कह सकते कि धुंवा भी वहां है । क्यों कि धुंवा तो
२-शैशव कालके पश्चात् युवावस्था । बिना आगके हो नहीं सकता; किन्तु आग बिना
३-युवावस्थाके पश्चात् वृद्धावस्था । धुंवाके भी हो सकती है । जैसे सुलगते हुये अंगारे ४-उत्तरपक्षसे पूर्वपक्षका ज्ञान ।
की आग | और आग तथा धुंवेके पारस्परिक संबउदाहरण-१रविवारके पूर्व शनिवारका बोध। धसे तुम यह भी नतीजा निकाल सकते हो कि जहां
-२बुढापेसे पूर्व युवावस्था । जहां आग नहीं होती वहां वहां धुंवा भी नहीं होता । ५-एक साथ होनेवाली बातोंका ज्ञान ।
क्यों कि धुंवा बिना आगसे नहीं होता | यह 'ऋणरूप' उदाहरण-१ जैसे वय और अनुभव । है और इसको 'व्यतिरेक' कहते हैं।
-२ बालकापन और अबोधता। बस यह प्रकट है कि आग और धुंवेके संबंधसे -३ फलमें उसके पकनेके चिन्ह ४ नतीजे निकलते हैं।
और उसका स्वाद विशेष । १-अग्निका ज्ञान धुंवेके ज्ञानसे । ६-व्याप्य-व्यापक अर्थात् कुलमें जुज (अंश) २–धुवेके अभावका ज्ञान अग्निके अभावके ज्ञानसे।
शामिल है; या यों कहो कि जातिके गुण ३-धुंवेका ज्ञान अग्निके ज्ञानसे | व्यक्तिमें पाये जाते हैं।
४-अग्निके अभावका ज्ञान धुंवेंके अभावके ज्ञानसे। उदाहरण-१ इस फुलवाडीमें कोई फलदार इनमेंसे पहिले दो तो नियमानुसार हैं और इस
वृक्ष नहीं है। अतः इसमें आ- कारणसे ठीक हैं । और पिछले दो नियमके प्रतिकूल म भी नहीं है।
हैं अतः ठीक नहीं । जहां अन्वय और व्यतिरेककी
तुलना होती है, वहां नियम सिद्ध समझा जाता अध्यापकका कर्तव्य होगा कि इन ६ प्रकारके निय- है । यथामोंको भली भांति बालकोंको समझा दे और नाना १-जहां जहां धुंवा होता है वहां वहां अग्नि होती प्रश्नों द्वारा इस बातका भी निश्चय करा दे कि केवल
है । ( अन्वय ) ६ ही प्रकार के नियम प्रकृति में हैं-न्यूनाधिक नहीं। २-जहां जहां अग्नि नहीं होती वहां वहां धुंवा भी
नही होतां । ( व्यतिरेक) चतुर्थ पाठ बच्चो!
पञ्चम पाठ न्यायका सिद्धान्त “धनरूप" नियमसे निकाला बच्चो ! जा सकता है, जिसको “अन्वय" कहते हैं। इस उदाहरणमें कि " इस पहाडपर आग्ने है, क्यों ___ उदाहरण-जहां कहीं धुंवां है; वहां आग्नि कि इसपर धुंवा है" अग्निको साध्य कहते हैं और धुंअवश्य है।
वेको हेतु । नोट-सप्ताह दो सप्ताहमें जब यह बात छात्रगण समझ जावें,
___ साध्य वह कहा लाता है जो सिद्ध किया तो फिर आगे बढ़ें।
जाय ।
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अंक ४ ]
हेतु वह है जिसके द्वारा साध्यकी सिद्धी हो । यह हेतु साध्यका चिन्ह या संबंधी हुआ करता है; जैसे अग्निका चिन्ह धुंवा । क्यों कि धुंवा किसी और बस्तुका चिन्ह नहीं है । कारण यह कि धुंवा अग्नि हीसे पैदा होता है; और अग्निके अभाव में नहीं पैदा हो सकता । अतः वह अग्नि हीका चिन्ह है और इसी कारण से तुरन्त अग्निका बोध करा देता है ।
हेतु दो प्रकार का हता है, विरुद्ध व अविरुद्ध | विरुद्ध - वह है जो साध्यके विरोधी का चिन्ह हो
और जिससे साध्यके प्रतिकूल नतीजा नि कले । जैसे इस घडेमें आग नहीं है; क्यों कि यह पानीसे भरा हुआ है । यहां पानी अनिका विरोधी है । अतः अग्निके अस्तित्वका निषेध करता है ।
बालन्याय ।
अविरुद्ध हेतु वह है जो सरलता पूर्वक साध्यके अस्तित्वको सिद्ध करता है । जैसे इस पहाड की चोटीपर आग है, क्यों कि वहां से ऊठ रहा है ।
( विभिन्न उदाहरण ) (क) अविरुद्ध विधि-साधक अर्थात् जिनसे अस्तित्व सिद्ध हो | जैसे-
१ - शब्द परिणामी होता है; क्योंकि वह क्रिया से उत्पन्न होता है ।
यह उदाहरण व्याप्य व्यापकके संबध में है; जिसका पूरा रूप इस प्रकार बैठता है । शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह कार्यसे उत्पन्न होता है । जो जो किये हुये होते हैं वे वे पदार्थ परिणामी होते हैं। जैसे घट | उसी प्रकार शब्द भी किया जाता है, अतएव वह भी परिणामी होता है । अथवा जो पदार्थ परि
मी नहीं होते वे किये भी नहीं जाते । जैसे वन्ध्या स्त्रीका पुत्र । बस उसी प्रकार शब्द कृतक होता है। इसी कारण परिणामी भी होता है ।
२ - इस प्राणीमें बुद्धि है, क्यों कि बुद्धिके कार्य बचन आदि इसमें पाये जाते हैं। यहां बुद्धि साध्य है और बचनादि हेतु । कार्यसे कारण - का ज्ञान होता है ।
२
१२७
३ – यहां छाया है; क्योंकि छत्र मौजूद है । यहां समर्थ कारण से कार्यका बोध हुआ ।
४ – कल इतवार होगा; क्यों कि आज शनिवार है। यहां पूर्व-पक्ष से उत्तर- पक्षका ज्ञान हुआ ।
५ -- कल इतवार था; क्यों कि आज सोमवार है । यहां उत्तर - पक्षसे पूर्व-पक्ष का ज्ञान हुआ । पका हुआ पीके उदाहरण है ।
६ — इस आममें रस है; क्यों कि यह रंगका है । यह सहचरका
(ख) विरुद्ध - निषेध - साधक ।
७ – यहां शीत स्पर्श नहीं है; क्यों कि अग्नि- ताप
मौजूद है । यहां अग्नि, शीत से विरुद्ध है और ताप, अग्नि का व्याप्य है । अतः वह अग्नि का ज्ञान कराता है ।
८ – यह मनुष्य अस्वस्थ है; क्यों कि शय्याग्रस्त है । यह उदाहरण कार्यसे कारणके निषेधाका ज्ञान विरुद्ध रूप से कराता है। क्यों कि स्वास्थ्य के निषेवका बोध होता है—उसके विरोधी बीमारी के कार्य अर्थात् शय्या ग्रस्त होने से
९ - इस जीवको सुख नहीं है; क्यों कि उसके हृदयमें व्यग्रता मौजूद है । यहां दुखका कारण हृदयकी व्यग्रता है । अतः वह दुखको जनावेगी और दुखके अस्तित्वमें - जो सुखका विरोधी है - सुख का होना असम्भव है ही । १०- कल इतवार नहीं होगा; क्यों कि आज शुक्र
है । यह उदाहरण पूर्व-पक्ष उत्तर-पक्षका है । शुक्रवार यहां शनिवारका विरोधी माना गया है ।
११ – कल शुक्रवार नहीं था, क्यौं कि आज मंगल
है । यहां मंगलको बृहस्पतिका विरोधी मानकर उत्तर पक्षसे पूर्व पक्षका अनुमान किया है ।
१२ – इस भीतमें उस ओरके भागका अभाव नहीं है; क्योंकि इस ओरका भाग मौजूद है । यह सहचरका दृष्टान्त हुआ ।
( ग ) अविरुद्ध - निषेध - साधक ।
१३ – इस नगर में शीसम नहीं है; क्यौं कि यहां
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१२८
जैन साहित्य संशोधक।
[खंड .
(घ) विरुद्ध-विधि-साथ
वृक्षका अभाव है । यह उदाहरण व्याप्य- कि विना न्यायशास्त्रका अध्ययन किये मनुष्य सत्याव्यापकके संबंध है।
सत्यका भी निर्णय नहीं कर सकता और पदार्थके १४-यहां बरसाऊ बादल नहीं है। क्यों कि यहां कार्य-कारणका भी ज्ञान नहीं कर सकता । न्यायतत्त्वके
बर्षा नहीं हो रही । यह उदाहरण कार्य- जाने बिना मनुष्यकी बुद्धिशक्ति कुंठित हो रहती है कारणके संबंधका है।
और विचारशक्ति अन्धी बनी रहती है। अतः इस १५–यहां धुंवा नहीं है। क्यों कि यहां अग्नि नहीं कथनमें कोई भी अत्युक्ति नहीं है कि न्याय शास्त्रके
है। यहां कार्यसे कारणकी ओर ध्यान अध्ययन विनाका मनुष्य बिलकुल “ बाल" ही है। गया ।
भारतके प्राचीन विद्वानोंने न्यायशास्त्रका कितना १६-कल रविवार नहीं होगा क्यों कि आज शनि- सूक्ष्म और विस्तृत परिशीलन किया है इसकी साधारण वार नहीं है।
जनोंको तो कल्पना भी आनी कठिन है। उन्होंने एक १७–कल सोमवार नहीं था, क्यौं कि आज मंगल एक विषयपर तो क्या परंतु एक एक मामूली विचार पर नहीं है।
भी सेंकडों ग्रंथ और हजारों श्लोक लिख डाले हैं ! १८-इस तराजूका दाहिना पलडा डंडीको नहीं उनके इन गहन तोंको देख कर आज कलके विद्वान्
छू रहा है; क्यों कि दूसरा पलडा उसके मनुष्यका मस्तिष्क भी चकराने लगता है तो फिर बराबर है। यह सहचरका उदाहरण है। औरोंकी तो बात ही क्या । एक तो यों ही यह विषय
कठिन है और फिर उसपर इनकी भाषा संस्कृत होकर १९-इस प्राणीमें रोग है; क्यों कि इसकी चेष्टा उसकी शैली उससे भी कठिनतर है । इस लिये विना निरोग नहीं पाई जाती ।
संस्कृतका अच्छा अभ्यास किये न्यायतत्त्वका ज्ञान होना २०-इस स्त्रीके हृदयमें पीडा है; क्यों कि यह आज प्रायः हमारे देशवासियोंके लिये दुर्लभ्य हो रहा है। अपने पतिसे हठात् पृथक् कर दी गई है। इस दुर्लभताको कुछ सुलम बनानेके लिये और सर्व
साधारणको सहज ही में इस विषयका परिचय प्राप्त अध्यापक महाशय को उचित है कि नाना उदा- करा देनेके लिये श्रीयुत जैनीजीने यह प्रशंसनीय प्रयत्न हरणों द्वारा इन चारों किसमके अनुमानोंका ज्ञान किया है । आप इस बारेमें लिखते हैं कि-" मेरा बालकोको करा दे ।। इति ।
दृढ विश्वास है कि मनुष्य यदि प्राकृतिक नियमोंका विधिपूर्वक अनुशीलन कर ले तो न्यायशास्त्रका दुरुहपथ
उसके लिये भलीभांति प्रशस्त हो सकता है। इसी सम्पादकीय टिप्पणी-ऊपरके दोनों लेख (इंग्रेजी
विचारको भविष्यमें कार्य रूप प्रदान करनेके निमित्त और हिन्दी) लेखक महाशयने, खास करके बालकोंको
यह लेख प्रकाशित कराया जाता है । ताकि इस शास्त्रके न्यायशास्त्रका सरल रीतिसे बोध करा देनेके हेतुसे लिखे
वरंधर विद्वानों द्वारा इसकी उचित समालोचना हो हैं । मनुष्यमे रही हुई बुद्धि-शक्तिको विकसित करने बुर
जाय । अगर इन नियमोंमें यदि किसी महानुभावको और सत्यासत्यके विचारकी जिज्ञासाको तृप्त करने में
संशोधन करनेकी आवश्यकता प्रतीत हो तो पूरी छानएकमात्र साधन न्यायशास्त्र ही है। न्यायवेत्ताओंकी
बीनके बाद कर दी जाय । इस लेख द्वारा इस शैलीकी दृष्टिमें जिस मनुष्यने न्यायशास्त्रका अध्ययन नहीं किया
उपयोगिता सिद्ध हो जाने पर इस विषयको पुस्तकाकार वह, चाहे, फिर अन्य सभी विषयोंमें पारंगत क्यों न
प्रकाशित करनेका उद्योग किया जायगा जिससे मातृहो, परंतु " बाल" ही कहलाता है । “अधीतव्याक
भाषा भाषी छात्र न्यायमें प्रवेश करके सत्यासत्यका रणकाव्यकोशोऽनधीतन्यायशास्त्रः बालः ।"
र स्वयं निर्णय कर सकें।" (जिसने व्याकरण, काव्य, कोश आदिका अध्ययन तो कर लिया है परंतु न्यायशास्त्रका अध्ययन नहीं किया वह आशा है कि विद्वान्वर्ग जैनी महाशयके इस उच्च 'बाल' ही है) यह नैयायिकोंके "बाल" का लक्षण आशयको लक्ष्य में लेकर इस बारेमें अपनी योग्य सम्मति है। इस लक्षणमें सत्यता अवश्य रही हुई है। क्यों प्रकाशित करेंगे ।
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अंक ४]
दक्षिण भारत मे ९ - २० वीं शताब्दीका जैन धर्म |
दक्षिण भारत में ९ वीं - १० वीं शताब्दिका जैन धर्म ।
[ लेखक : – स्वर्गस्थ कुमार देवेन्द्र प्रसादजी जैन ]
गंग वंश ।
भारतवर्षके प्राचीन राजवंशों में पश्चिमके गंगवंशीय राजा जैनधर्मके कट्टर अनुयायी थे । यह बात परम्परासे चली आई है कि नंदीगण सम्प्रदायके सिंहनन्दी नामक एक जैनधर्मके आचार्यने, गंगवंशके प्रथम राजा शिवमारको राज्यसिंहासन प्राप्त करनेमें सहायता दी थी । एक शिलालेखमें इस बातका बर्णन है कि शिवमार कोणी बम सिंहनन्दीको शिष्य था, और दूसरे में यह कि सिंहनन्दी मुनिकी सहायता से गंगवंश वैभवसंपन्न हुआ । एतदर्थ इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जैनग्रन्थों में इस भावके श्लोक पाए जायं कि गंगवंशीय राजा
१ देखो Repertoire d'epigraphie Jaina (A. A, Guerinot शिलालेख नं. २१३ और २१४; तथा चन्द्रगिरि पहाडी पर स्थित पार्श्वनाथवस्तीके शिलालेखका निम्न
लिखित पद्य -
“ योऽसौ घातिमलाद्विषद्बलशिला-स्तम्भावली - खण्डनध्यानासिः पतुरर्हतो भगवतः सोऽस्य प्रसादीकृतः । छात्रस्यापि स सिंहनन्दिमुनिना नो चेत् कथं वा शिलास्तम्भो राज्यरमागमाच्व परिघस्तेनासिखण्डो घनः " ॥ ( श्रवण बेलगोल शिलालेख, नं. ५४, पृष्ठ ४२ )
२ सलेम जिलाकी Manual - Reva. T. F.Foulkes द्वितीय भाग, पृ० ३६८ का निम्न लिखित पद्य देखिए-" यस्याभवत् प्रवरकाश्यपवंशजोऽये कण्वो महामुनिरनल्पतपः प्रभावः ।
यः सिंहनन्दिमुनिपपतिलब्धवृद्धि - गंगान्बयो विजयतां जयतां वरः सः ॥"
लुईस राईस पाठानुसार ' महिप' की जगह 'मुनिप ' पाठ दिया है, जो ठीक संगत मालूम देता है ।
१२९
सिंहनन्दीकी चरणवन्दना करते हैं । अथवा जसि राजवंशका जन्म एक जैन धर्माचार्यकी कृपासे हुआ हो उसके राजाओंका कट्टर जैनधर्मावलम्बी होना भी कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । ऐसे लेख विद्यमान हैं जो इस बातको निस्संदेह सिद्ध कर देते हैं कि गंगवंशीय राजा जैनधर्मके उन्नायक और रक्षक थे । ईस्राकी चौथीसे बारहवीं शताब्दी तक के अनेक शिलालेखोंसे इस बातका प्रमाण मिलता है कि गंगवंशके शासकोंने जैन मन्दिरोंका निर्माण किया, जैन प्रतिमाओंकी स्थापना की, जैनतपस्वियोंके निमित्त चट्टानोंसे काट काटकर गुफाएं तैयार कराई और जैनाचार्योंको दान दिया । मारसिंह द्वितीय ।
,
सत्यवाक्य
इस वंशके एक राजाका नाम मारसिंह द्वितीय था, जिसका शिलालेखों में धर्ममहाराजाधिराज ( कोंगुणीवर्मा - परमानडी मारसिंह नाम मिलता है । इस राजाका शासन काल चेर, चोल, और पाण्ड्य वंशों पर पूर्ण विजयप्राप्तिके लिये प्रसिद्ध है । मारसिंह द्वितीयने अपने शत्रु बज्जलदेवके साथ सर्वोत्कृष्ट विजय प्राप्त किया और गोनूर और उच्छंगी में उसने बहुत घनघोर युद्ध लडे । जैन सिद्धान्तोंका सच्चा अनुयायी होनेके कारण इस महान् नृपने अत्यन्त ऐश्वर्यसे राज्य करके राजपद त्याग दिया और धारवार प्रांतके बांकापुर नाम स्थान में अपने प्रसिद्ध धर्म-गुरु अजितसेनके सन्मुख
३ “श्रीदेशीयगणाब्धिपूर्णमृगभृच्छ्रीसिंहनन्दिवति— श्रीपादाम्बुजयुग्ममत्तमधुपः सम्यक्त्वचूडामणिः ।। श्रीमज्जैनमताब्धिवर्द्धनसुधासूतिर्मही मण्डले रेजे श्रीगुणभूषणो बुधनुतः श्रीराजमल्लो नृपः ।। " ( बाहुबली चरित्र, श्लोक ८ )
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जैन साहित्य संशोधक ।
१३०
तीन दिनोंके व्रतसे शरीर त्याग दिया । मारसिंह द्वितीयकी समाधिका लेख कूगे ब्रह्मदेव खंभ नामक स्तम्भके निम्न भागमें चारों ओरके शिलालेखों में विद्यमान है । वह स्तम्भ श्रवणबेलगोल (माइसार) की चन्द्रगिरी पहाडियों पर स्थित मन्दिरोंके द्वारपर है । यद्यपि इस लेख में कोई तिथि नहीं लिखी है, तथापि मारसिंह द्वितीयके मृत्युकी तिथि एक दूसरे शिलालेखके आधारपर सन ९७५ ई० निश्चय की गई है "
1
चामुण्डराय ।
चामुण्डराय या चामुण्डराज इस महान् नृपतिका सुयोग्य मंत्री था । इस मन्त्रीके शौर्यही के कारण मारसिंह द्वितीय वज्जलसे तथा गोनूर और उच्छंगीके रणक्षेत्रोंमें विजय प्राप्ति कर सका । श्रवणबेलगोलके एक शिलालेखमें चामुण्डराय की इस प्रकार प्रशंसा की हुई है - " जो सूर्यकी भांति ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी उदयाचलके शिरको मणिकी नाई भूषित करता है; जो चंद्रमाकी भांति अपने यशरूपी किरणोंसे ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी समुद्रकी वृद्धि करता है, जो ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी खानियुक्त - पर्वतसे उत्पन्न मालाका मणि स्वरूप है और जो ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी अग्निको प्रचण्ड करनेके हेतु प्रबल पवन के समान है; ऐसा चामुण्डराय है ।
""
'कल्पान्त क्षुभित समुद्र के समान भीषणबलवाले और पातालम के अनुज वज्जलदेवको जीतनेके हेतु इन्द्र नृपतिकी आज्ञानुसार, जब उसने भुजा उठाई; तब उसके स्वामी नृपति जगदेकवीरके विजयी हाथीके सन्मुख शत्रुकी सेना इस प्रकार भाग गई जैसे दौडते हुए हाथी के सन्मुख मृगोंका दल ।
४ देखो, लुईसराईस रचित ' श्रवणबेलगोल के शिलालेख ' नं ३८ |
५ देखो, मेलागानिका शिलालेख जिसको लुईस राईसने अपने " श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंकी भूमिकाकी पाद टीकामें उद्धृत किया है । पुनः देखो, एपिग्राफिया इन्डिका, भाग ५, शिलालेख नं. १८ ।
६ इन्द्र चतुर्थ, तृतीय कृष्णका पौत्र - देखा 'एपिग्राफिया इन्डिका' भाग ५, लेख नं० १८ ।
[ खंड १
" जिसकी उसके स्वामीने नोलम्बराजसे युद्ध के समय इस प्रकार प्रशंसा की थी " जो वज्ररूप दांतोंसे शत्रुके हाथियों के मस्तकको विदीर्ण करता है और जो शत्रुरूपी हिंस्र जीवोंके लिये अंकुशके समान है । ऐसे हाथीवत् आप जब वीर वीर योद्धाओंके सन्मुख विराजमान हैं तो ऐसा कौन नृप है जो हमारे कृष्णबाणोंका ग्रास न बने " । जो नृप रणसिंह से लडते हुए इस प्रकार गर्ज कर बोला, " हे नृपति जगदेकवीर ! तुम्हारे तेजसे मैं एक क्षणमें शत्रु को जीत सकता हूं, चाहे वह रावण क्यों न हो, उसकी पुरी लंका क्यों न हो, उसका गढ त्रिकूट क्यों न हो, और उसकी खाई क्षारसमुद्र क्यों न हो । "
66
66
" जिसको स्वर्गीगनाओने यह आशीर्वाद दिया था 'हम लोग इस वीरके बहुतसे युद्धों में उसको कण्ठालिंगनसे उत्कंठित हुई थीं, परन्तु अब उसकी खड्गकी धारके पानी से हमलोग तृप्त हुई हैं । हे रणरंगसिंहके विजेता ! तुम कल्पांत तक चिरंजीव रहो । जिसने चलदंकगंग नृपतिकी अभिलाषाओंको व्यर्थ कर दिया, जो अपने भुजविक्रमसे गंगाधिराज्यके वैभवको हरण करना चाहता था, और जिसने वीरोंके कपालरत्नोंके प्याले बना कर और उनको वीरशत्रुओंके शोणितसे भरकर खूनके प्यासे राक्षसों की अभिलाषाको पूर्ण कियाँ । ” उपरोक्त शिलालेख स्वयं चामुण्डराजका लिखा हुआ अपना वर्णन है । परन्तु ऐसा जान पडता है इस शिलालेखका अधिक भाग अप्राप्य है । ऐसा मालूम देता है कि हेगडे कन्नने, अपने लिए केवल अढाई पंक्तिओंका लेख लिखनेके लिए, चामुण्डरायके मूल-लेखको तीन ओर अच्छा तरहसे घिसा दिया; और केवल एकही ओके लेखको
७-८ “ब्रह्मक्षत्रकुलोदयाचल शिरोभूषामणिर्भानुमान् ब्रह्मक्षत्रकुलाब्धिवर्द्धनयशोरोचिः सुधादीधितिः । ब्रह्मक्षत्रकुलाकराचलभव श्रीहारवल्लमिणिः
ब्रह्मक्षत्रकुलाग्निचण्डपवनश्चामुण्डराजोऽजनि ॥ कल्पान्तक्षुभिताब्धि भीषणबलं पातालमल्लानुजम् जेतुम् वज्जलदेवमुद्यतभुजस्येन्द्र क्षितीन्द्राज्ञया ।
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अंक ४]
दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वी शताब्दीका जैन धर्म ।
रख छोडा, जिसका अनुवाद ऊपर दिया है । " चामु- तथा कृतयुगमें वह षण्मुख था, त्रेतामें राम, द्वापरमें पडरायने एक ग्रन्थकी रचना की जिसका नाम चामुण्ड- गाण्डीवि और कलियुगमें वीर मार्तण्ड था । फिर उसकी राय पुराण है और जिसमें २४ तीर्थंकरोंका संक्षिप्त अनेक उपाधियोंके प्राप्त होनेके कारण लिखे हैं । खडग इतिहास है और उसके अन्तमें ईश्वर नाम शक संवत्सर युद्धमें विज्जलदेवको परास्त करनेसे उसको समरधुरन्धर९०० (९७८ ईस्वी) उसकी तिथि दी हुई है"। की उपाधि मिली । नोलम्बयुद्धमें गोनूर नदीकी तीर, उपरोक्त शिलालेखके श्लोकोंमें दिया हुआ वर्णन चामु- उसकी वीरतापर 'वीरमार्तण्ड' की उपाधि, उच्छंगी पडरायपुराणके वर्णनसे मिलता जुलता है। उस पुराणके गढके युद्ध के कारण रणरंगसिंह'की उपाधि,बागलूरके किलेप्रारंभके अध्यायमें यह लिखा है कि उसका स्वामी गंग- मे त्रिभुवन-वीर ' और अन्य योद्धाओंका वध करने कुल चूडामीण जगदेकार नोलम्बकुलान्तक-देव था; और गोविन्दको उस किले में प्रवेश कराने के उपलक्ष्यमें और वह ब्रह्मक्षत्रवंशमें उत्पन्न हुआ था । अन्तके अध्या- 'वैरीकुलकालदण्ड' की उपाधि; काम नामक यमें यह लिखा है कि वह अजितसेनका शिष्य था । नृपति के गढमें राजा तथा अन्य लोगोंको हरानेसे 'भुजपत्युः श्रीजगदेकवीरनृपतेज्जैत्रद्विपस्याग्रतो
विक्रम ' की उपाधि, अपने कनिष्ठ भ्राता नागवर्मा को
उसके द्वेषके कारण मारडालने के निमित्त ' चलदंकगंग' धावद्दन्तिनि यत्र भग्नमहतानीकं मृगानीकवत् ।।
की उपाधि; गंगभट मुदु राचय्यके वधसे 'समर-परशुअस्मिन् दन्तिनि दन्तवज्रदलितद्वित्कुम्भिकुम्भापले
राम' और ' प्रतिपक्ष-राक्षस ' की उपाधियां; सुभटवीरोत्तंसपुराोनषादिनि रिपुव्यालाङ्कुशे च त्वयि । स्यात् को नाम न गोचरः प्रतिनृपो मदबाण कृष्णोरग- वीर के गढका नाश करनेके कारण ' भटमारि' की
उपाधि, अपनी और दूसरोंके वीरगुणोंकी रक्षाके कारण ग्रासस्यति नोलम्बराजसमरे यः श्लाघितः स्वामिना ।।
'गुणवं काव' की उपाधि; उसकी उदारता एवं सद्गुण खातः क्षारपयोधिरस्तु परिधिश्चास्तु त्रिकूट: पुरी
आदिके कारण ' सम्यक्त्व रत्नाकर' की उपाधि दूसलङ्कास्तु प्रतिनायकोस्तु च सुरारातिस्तथापि क्षमे । तं जेतुं जगदकवीरनृपते त्वत्तेजसीतिक्षणान्
रोके धन दारा हरण की इच्छा न करनेसे 'शौचाभरण'
की उपाधि; हास्यमें भी कभी असत्य न बोलनेसे 'सत्य नियंढे रणसिंहपार्थिवरणे येनोजितं गजितम् ॥
युधिष्ठिर ' की उपाधि; अत्यन्त वीर योद्धाओंके शिवीरस्यास्य रणेषु भूरिषु वयं कण्ठग्रहोत्कण्ठया
रोमणि होनेके कारण 'सुभटचूडामणि' की उपाधि तृप्ताः सम्प्रति लब्धनिर्वृतिरसास्तत्-खड्गधाराम्भसा ।
मिली । अन्तमें अपने ग्रन्थमें वह अपनेको 'कविजनकल्पान्तं रणरङ्गसिंहविजयि जीवेति नाकाङ्गना
शेखर' भी कहता है । गीर्वाणाकृतराजगन्धकरिणे यस्मै वितीर्णाशिषः ।।
इन उपरोक्त उल्लेखोंमेंसे बहुतोंका और कहीं वर्णन आकृष्टं भुजविक्रमादभिलषन् गङ्गाधिराज्यश्रियं
नहीं है । परन्तु यह बात ध्यान देने योग्य है कि इतने येनादौ चलदंकगङ्गनपतिर्व्यर्थाभिलाषी कृतः ।
प्रसिद्ध और गौरवान्वित कार्योंके साथ उसके एक भी कृत्वा वीरकपालरत्नचषके वीरद्विषः शोणित
धार्मिक कार्यका वर्णन नहीं है । प्रत्युत अादिसे अन्त तपातुं कौतुकिनश्च कोणपगणाः पूर्णाभिलाषीकृताः ।। (त्यागड ब्रह्मदेवखम्भका शिलालेख, ई. स. ९८३: देखो. न क युद्ध और रक्तपातकी ही कथा वर्णित है। १० रा. श्रवणबेलगोल. पृष्ठ ८५)
परन्तु इस बातको सिद्ध करने के लिए सन्देह रहित ९ लुईस राईस 'श्रवणबेलगोलके शिलालेख' भूमिका पृ. २२, प्रमाण उपस्थित है कि वृद्धावस्था प्राप्त होनेपर चामुण्डतथा कर्नल मेक का कलेक्शन (एच्. एच्. विल्सनद्वारा संपादित, भाग १, पृ. १४६; जहां यह लिखा है कि चामुण्डराय पुरा- १० देखो, लुईस राईस, 'श्रवण बेलगोलके शिलालेख, 'मणमें जैन धर्मके ६३ प्रसिद्ध पुरुषोंका वर्णन ह ।
भिका, पृ. ३४.
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जैन साहित्य संशोधक।
[खंड
राय अधिकतर अपने गुरु अजितसेनकी सेवामें, धार्मिक एक हस्तलिखित पुस्तकमें लिखा है कि " चामुण्डराय विचारोंमेही, अपना समय व्यतीत करता था और श्रवण जो 'रणरङ्गमल्ल ' 'असहाय-पराक्रम' 'गुणरत्नभूषण' बेलगोल ( माइसोर ) के विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि पर 'सम्यक्त्व-रत्न-निलय' आदि उपाधिधारी है, जो सिंह गोमटेश्वर और नेमिनाथकी विशाल मूर्तियोंकी स्थापना नन्दी महामुनिद्वारा अभिनन्दित गंगवंशीय नपति राजकरने और अपनी सम्पत्तिके अधिक भागका इन मल्लदेवका महामात्य ( प्रधानमन्त्री ) है "१५ । मूर्तियोंकी पूजाम व्यय करने के कारण उसका नाम _ चामुण्डराय द्वारा स्थापित मूर्तियों और मन्दिरों का जैनमतके - महान् उन्नायकों में अमर हो गया । वर्णन करनेके पूर्व यह उत्तम होगा कि हम उन स्था
राचमल्ल या राजमल्ल द्वितीय । नोंका संक्षेप वर्णन करें जिनमें उक्त धार्मिक स्मारक स्थिगंगवंशीय मारसिंह द्वितीयके मरणोपरान्त पाञ्चालदेव, त हैं और जो आजकल जैनयात्रियोंके लिये अत्यन्त जिसका पूरा नाम धर्ममहाराजाधिराज सत्यवाक्य कोगुणी पवित्र ताथ है। वर्मा पाञ्चलदेव था, सिंहासनारूढ हुआ । उसके अन
श्रवण बेलगोल | न्तर राचमल्ल या राजमल्ल द्वितीय' राजा हुआ जिसका श्रमण बेलगोल अथात् श्रमण या जानयाँका बलगाल पूर्ण नाम धर्म-महाराजाधिराज सत्यवाक्य कोगुणीवर्मा माइसोरमें हसन जिलेके चन्नरयपत्न तालुकेमें एक ग्राम है। राचमल्ल था । चामुण्डराज राचमल्ल अथवा राजमल्ल हेल बेलगोल और कोडी बेलगोल नामक दो बेलगोलोंसे द्वितीयका भी मन्त्री था | एक शिलालेखमें लिखा है,
पृथक करनेके लिये यहां बेलगोलके पूर्व श्रवण शब्दका " राय ( अर्थात् चामुण्डराय ) नृपति राचमल्ल का श्रेष्ठ प्रयोग हुआ है । कानडी भाषामें बेलगोलका अर्थ है मन्त्री ,५२ , और दूसरे में “ चामुण्डराय जो वैभवमें "श्वेतसरोवर" और बहुतसे शिलालेखोंमे " धवल सरोनृपति राचमल्ल का द्वितीय है "" बाहबली-चरित्र ना- वर" "धवल सरस" और " श्वेतसरोवर" का उल्लेख मक एक जैनग्रन्थमें यह लिखा है कि राजमल्ल नामक
है, और उस स्थान पर स्थित मनोहर सरोवर ही के एक नपति था, जो सिंहनन्दी मुनिका चरणोपासक था। कारण उसका यह नाम पडा होगा | वहां दो पहाडियां चामुण्डभप ( अथवा राज ) उसका मन्त्री था । १४ हैं । एक उसके उत्तरमें और एक दक्षिणमें । उनके
११ डॉ० फ्लीटक मतमें राचमल्ल नाम शुद्ध है ( देखो, एपिग्राफिया इन्डिका, भाग ५, लेख नं.१८) और कुछ शिलालेखोंमें भी यह नाम मिलता है, पर जिन जैनलखोंको हमन भूमिकामें उध्दृत किया है वे राजमल्ल नाम हाका उपयोग करते हैं। और देखो, एपिग्राफिया करणाटिका, भाग ३, लेख नं. १०७. १२'राचमल्ल भूवरवर मैत्री-रायने ।'
(भांडारी वस्ती शिलालेख, लु. रा. श्रवण बेलगोल, लेख पृ०१०३)
१३ “ राचमल्लं जगन् नुतन् आभूमिपण द्वितीयविभवं चामुः । ण्डरायम्" (द्वारपालक दरवाजे के बाई ओरका शिलालेख, देखो, लु. रा. श्रवण० पृ०६७
१४ "श्रीदेशीयगणाब्धिपूर्णमृगभृच्छ्रीसिंहनन्दिवतिश्रीपादाम्बुजयुग्ममत्तमधुपः सम्यक्त्वचूढामणिः । श्रीमज्जैनमताब्धिवर्धनसुधासूतिर्महामण्डले रेजे श्रीगुणभूषणो बुधनुतः श्रीराजमल्लो नृपः ।।...
तस्यामात्यशिखामणिः सकलवित् सम्यक्त्वचूडामणिभव्याम्भोजवियन्माणिः सुजनवन्दि वातचूडामाणः । ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशक्तिसुमणिः कीत्यौवमुक्तामाणिः पादन्यस्तमहीशमस्तकमणिश्चामुण्डभूपोऽग्रणीः ।।"
(बाहुबलीचरित्र, श्लोक ६-११) १५ सिंहनन्दिमुनीन्द्राभिनन्दितगङ्गवंशललाम...... श्रीमद्राजमल्लदेव-महीवल्लभमहामात्यपदावराजमान-रणरङ्गमल्ला-सहायपराक्रम-गुणरत्नभूषणसम्यक्त्वरत्ननिलयादिविविधगुणग्रामनामसमासादितकीर्ति...श्रीमच्चामुण्डराय-भवत्पुण्डरीकद्रव्यानुयोगप्रश्नानुरूपं......" ( अभयचन्द्र विद्यचक्रवतीरचित गोमटसार टीका ) १६ श्रवण शिलालेख नंबर १०८ तथा ५४.
ले
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अंक
1
दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वीं शताब्दीका जैन धर्म।
१३३
नाम क्रमश: चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि हैं, जिनपर जै- में गोम्मटेश्वरकी उसी प्रकारकी एक और मूर्ति बननियों के मन्दिर और प्रतिमाएं हैं; और शिलालेख भी वाई । १८ हैं जिनसे जिनमतके प्राचीन इतिहासपर बहुत प्रकाश ये "विशाल एक ही पत्थरमें बनी हुई नग्न जैन-मूर्तियां पडता है । एक परम्परागत किन्वदन्तीके अनुसार चन्द्र- संसारके आश्चर्योंमेंस हैं " १५ ये "निस्संदेह जैन-प्रतिगिरि नाम चन्द्रगुप्तके कारण पडा है, जो अपने गुरु माओंमें सर्वोत्कृष्ट और समस्त एशियाकी पृथक्-स्थित भद्रबाहु और उसके १२००० शिष्यों के साथ एक भयं- प्रतिमाओमे सबसे बडी हैं । ऊंचाई पर स्थित होनेके कर दुर्भिक्ष के निकट आनेपर पाटलिपुत्र छोडकर दक्षि- कारण, कोसोंतक दृष्टि गोचर होती हैं । और एक विशेणकी ओर चला गया था । चन्द्र गिरि ही पर भद्रबाहुने ष सम्प्रदायकी होने पर भी, उनका विशाल गुरुत्व और अपने नश्वर शरीरका त्याग किया और अन्तकालमें उस- दिव्य शान्ति-प्रकाशक स्वरूपके कारण हमें उन्हें प्रतिष्ठा के निकट केवळ एक ही शिष्य उपस्थित था और वह यक्त ध्यानसे देखना पडता है । श्रवण बेलगोल वाली उपरोक्त चन्द्रगुप्त था । यदि हम जैन-किम्वदन्तीको सबसे बडी मूर्तिकी उंचाई लगभग ५६३ फीट है और स्वीकार करले तो परिणाम वही निकलता है कि उप- कटिके निम्नभागमें उसकी चौडाई १३ फीट है । वह रक्त चन्द्र गुप्त जो भद्र बाहु मुनिका शिष्य था, प्रसिद्ध 'नीस ( Gneiss)' पत्थरके एक बडे टुकडेसे काटकर मौर्य-सम्राट ही है।
बनाई गई है; और ऐसा जान पडता है कि जिस जगनन्द्रगिरि ही पर चामुण्डरायन एक भव्य मंदिर नि- ह पर वह आज स्थित है वहीं पर वह बनी थी। कर्कलवाली र्माण करा था जिसमें उसन २२ वें जैन तीर्थकर नेमि- मूर्ति जो उसी पत्थर की है,परन्तु जिसकी लम्बाई १५ फीट नाथ की मूर्ति स्थापित करवाई । तदनन्तर चामुण्डराय- कम है, अनुमानसे ८० टन तौलमें होगी। इन भीमकायमूके पुत्रने उसका दूसरा खण्ड भी बनवा दिया और उसमें तिओंमें सबसे छोटी येनूरवाली मूर्ति है जो ३५फीट लम्बी तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी मूर्ति स्थापित की गई। है । ये तीनों मूर्तियां लगभग एकसी हैं, परन्तु येनूरवाली यह दोनों खण्ड ईसाकी दसवी शताब्दी में निर्मित हुए मूर्तिके कपोलोंमें गड्ढे हैं और उससे गंभीर मुसकुराहट
और उनसे उस समयकी गृह निर्माण कलाका उत्तम कासा भाव प्रकट होता है, जिसके कारण लोगोंका यह बोध होता है।
कहना है, कि उसके प्रभावोत्पादक--भावमें न्यनता गोम्मटेश्वर ।
आ गई है । जैन कलाकी अति एकनियमबद्धताका यह विन्ध्यगिरिपर चामण्डरायने बाह बली अथवा भुज- उत्तम प्रमाण है कि यद्यपि येनरवाली मूर्तिकी मुसकराहबलीकी, जिनका अधिक लोकप्रसिद्ध नाम गोम्मट- टको छोडकर वस्तुतः तीनों विशाल मूर्तियां एक हीसी स्वामी अथवा गोम्मटेश्वर है, एक विशाल प्रतिमाका है, तथापि उनके निर्माण कालोंमें बडा अन्तर है।" निर्माण किया । कालान्तरमें चामुण्डरायका अनुकरण
१८ श्रवण बलगोलकी मूर्तियों के लिये देखो-'इन्डियन एन्टी. करके वीर-पाण्ड्यक मुख्याधिकारीने कर्कल ( दक्षिणी र
क्षणा क्वेरी 'भाग २, पृ. १२८ एपिग्राफिया इन्डि का,' भा.७ पृ. कनारा ) में सन् १४३२ ई. में गोम्मटेश्वर की दूसरी १०८, लुईस राईसका 'माईसोर ओर कुर्ग' पृ. ४७ । कलकी मूर्ति बनवाई । और कुछ काल उपरान्त प्रधान तिम्म- मूतियाक लि
मूर्तियों के लिये देखा-'इन्डियन एन्टी क्वेरी' भाग २, पृ. ३५३.
‘एपिग्राफिया इन्डिका' भा. ७, पृ. ११२ । -येनूरकी मूर्तियों के राज न येनूर ( दक्षिणी कनारा ) में सन् १६०४ ई.
विषयमें देखो-'इन्डि. एन्टी.' भा. ५, पृ. ३७, एपि. इन्डि. भा. १७ इस विषय पर विशेष देखने के लिये देखो-रपिग्राफिया ७, पृ. ११२ । कनाटका, भाग २, भूमिका पृ. १-१४। भार भी देखो मिसेज १९ देखो-इम्पीरियल गेझेटियर आव इन्डिया' पृ. १२१. सिनकपर स्टिवन्सन रचित "दि हाई आव जैनीजम" २० देखा-विन्सेण्ट स्मीथ रचित 'ए हिस्टरी आब फाईन
आर्ट इन इन्डिया एन्ड सिलोन' पृ. २६८ ।
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१३४
जैन साहित्य संशोधक ।
चामुण्डराय - निर्मित मूर्ति " केवल तीनोंमें अधिक प्राचीन अथवा लम्बी ही नहीं है, किन्तु बडी ढालू पहाstar चोटी पर स्थित होने और एतदर्थ उसके निर्माण में बड़ी कठिनाइयों का सामना करनेके कारण उसका वृत्तान्त सबसे अधिक रोचक है । यह मूर्ति दिगम्बर है और उत्तराभिमुख सीधी खडी . जंघों के ऊपर वह बिना सहारेके है । उरुस्थल तक वह वल्मीकसे आच्छादित बनी हुई है, जिसमेंसे सर्प निकल रहे हैं । उसके दोनों पदों और बाहुओंके चारों और एक वेलि लिपटी हुई है जो बाहुके ऊपरी भाग में फलोंके गुच्छोमें समाप्त होती है । एक विकसित कमलपर उसके पैर स्थित हैं ।"
श्रवणबेलगोलकी गोमटेश्वर की मूर्त्तिके निम्न भागका शिलालेख ।
श्रवणबेलगोलकी गोम्मटेश्वर की मूर्तिके दाहिने और बाएं पैरोंके समीप छोटासा लेख है । दाहिने लेख यह है:
पैरका
-
श्री चामुण्डराजं माडिसिदं;
श्रीचामुण्डराजन [शे] य्व [व] इत्तां; श्रीगंगराज सुत्तालयवं माडिसिद;
अर्थात्
श्रीचामुण्डराजने निर्माण कराया,
श्रीचामुण्डराजने निर्माण कराया, श्रीगंगराजने चैत्यालय निर्माण कराया ।
" प्रथम और तृतीय पंक्तिकी लिपि और भाषा कानडी है । द्वितीय पंक्ति प्रथम पंक्तिका तामिल अनुवाद है, और उसमें दो शब्द है जिनमें पहला 'ग्रन्थ' और दूसरा 'वहेतु' लिपिमें है । पहिली दो पंक्तियों में
इन मूर्तियों की शिल्पकलाका विशेष वर्णन जाननेके लियेस्लरक ( Slurrock ) रचित 'मेन्युअल भाव साउथ कनारा, पृ. ८५, फर्गुसन साहेबकी 'हिस्टरी आव इन्डियन आर्चिटेक्चर, पृ. २६७, * फ्रेनर्स मेगजीन' के मई १८७५ के अंक में प्रकाशित मि. वालहाउस का लेख, इत्यादि देखने चाहिए ।
२१ देखो, एपिग्राफिया कर्नाटिका, भाग २, भूमिका पृ. २८.
[ खंड १
यह लिखा है कि चामुण्डराजने मूर्ति बनवाई और तीसरी पंक्तिमें लिखा है कि गंगराजने मूर्त्तिके आसपासका भवन बनवाया ।
११२२
बाई और पत्थर में यह लेख हैश्रीचामुण्डराजे करविपलें श्रीगंगराजे सुत्ताले करविपले ।
अर्थात्
श्रीचामुण्डराजने निर्माण कराया । श्रीगंगराजने चैत्यालय निर्माण कराया ।
" इसकी लिपि नागरी है और भाषा मराठी है... शायद महाराष्ट्र देशके जैनयात्रियोंके लाभार्थ मराठी भाषाका प्रयोग किया गया है । ११२३
चित्र ई ६ में हमने उपरोक्त शिलालेखोंकी प्रतिलिपि दी है । पहिले बाई औरका लेख है । दोनों पंक्तियों में एकही प्रकारके अक्षर होनेके कारण बाई और के लेखका गंगराजके समय में खुदा जाना माना जाता है, जब उसने चामुण्डराज स्थापित गोमटेश्वर मूर्तिके चारों ओर भवन निर्माण कराया । यह देखते हुए भी यह बात सम्भव जान पडती है कि बाई ओरका लेख दाहिनी और वालेका केवल दूसरी भाषा में रूपान्तर है ।
गंगराज ।
गंगाराज होयशाल - वंशीय नृपति विष्णुवर्धनका म न्त्री था, जिसने ईसाकी १२ वीं शताब्दीमें शासन किया | लगभग सन् ११६० ई० के एक शिलालेख में गंगराज, चामुण्डराय और हुल्लकी प्रशंसा इस प्रकार पाई जाती है ।
" यदि यह पूछा जाय कि प्रारम्भ में ( श्रवण वेलगोलमें ) जैन-मतके कौन २ उन्नायक थे- तो कहना होगा कि (वे थें) राचमल्ल नृपति का मन्त्री राय, उसके
२२-२३ देखो, एपिग्राफिया इन्डिका, भाग ७, पृ. १०८-९ । + इस लेख के साथ लेखकने कई चित्र देने चाहे थे परंतु उन का अकाल स्वर्गवास हो जानेके कारण वे चित्र हमें न मिल सके। संपादक ।
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अंक ४]
अनन्तर, नृपति विष्णुका मन्त्री गंग; और उसके पश्चात् नृसिंहदेव नृपतिका मन्त्री हुल्ल । यदि और भी इसके योग्य हैं, तो क्या उनके नाम न लिये जायेंगे ? ११२४
मूर्तिके नीचे के शिलालेखके अतिरिक्त ११८० ई० के लगभग एक और शिलालेखमें इस प्रकार इसका वर्णन है—
दक्षिण भारतमे ९ वीं -१० वीं शताब्दीका जैन धर्म ।
" जिसमें बुद्धिमत्ता, धर्मिष्ठता, वैभव, उत्तमाचरण, और शौर्यका समावेश है, ऐसा राचमल्ल गंगवंशका चन्द्र था, उसका यज्ञ मूमंडल व्यापी था । नृपतिसे वैभव द्वितीय [ उसका मन्त्री चामुण्डराय ], मनुके समान, क्या उसीने अपने प्रयत्नसे यह गोम्मट नहीं बनवाया ? २५
: भुजबलीका वृत्तान्त, किम्बदन्तियोंके आधार पर । तीनों मूर्त्तियां बाहुबली, या भुजबलीको व्यक्त करती हैं, जिनको गोम्मटेश्वर भी कहते हैं और जो जैनियोंके प्रथम तीर्थंकर आदिजिन ऋषभनाथ के पुत्र थे । लोककथाके अनुसार ऋषभनाथ एक राजा थे और उनके दो स्त्रियां थीं, जिनके नाम थे नन्दा ( या कुछ लोगों के मतमें सुमंगला ) और सुनन्दा | नन्दा या सुमंगलाने दो जुडवे उत्पन्न किए, जिनमें एक लडका था और एक लडकी थी और जिनके नाम थे क्रमशः भरत और ब्राह्मी | जब ऋषभदेवने अनन्त ज्ञानकी खोजमें वनवास स्वीकार किया; तब उन्होंने अपने राज्यका भार भरतको सोंपा | बाहुबली और उनकी बहिन सुन्दरी सुनन्दाकी सन्तान थे, और जब उनके पिताने अपने पुत्रोंको राज बांट दिया तो बाहुबली तक्षशिलाके सिंहासनपर सुशो - भित हुए । भरतके पास एक अद्भुत चक्र था जिसका सामना कोई भी योद्धा रणमें न कर सकता था । इस चक्रकी सहायतासे पृथ्वी, विजय करके भरत अपनी
२४ देखो, एपिग्राफिमा करनाटिका, भाग २, भूमिका पृ. ३४. हुल्ल होयशालवंशीय नृपति नरसिंह प्रथमका मंत्री था । वह १२ वीं शताब्दी में विद्यमान था ।
२५ देखो. एपि कर्ना. मा. २, पृ. १५४. मूर्तिके निर्माणके संबंध में यह पंक्ति है - " चामुण्डरायं मनुप्रतिमं गोम्मटं अल्ते माडिदिन् इन्ती देवनं यत्नदिम् "
३
१३५
राजधानीको लौट आया । परन्तु चक्र राजधानी में ( अथवा दूसरों के मतसे - अस्त्रालय में ) प्रविष्ट नहीं होता था । भरतने इसका अर्थ यह समझा कि पृथ्वीमें कोई ऐसा राज्य शेष है जिसको उसने नहीं जीता है; और विचार करनेपर यह फल निकला कि केवल तक्षशिलाका राज्य शेष था, जहां उसका भाई भुजबली राज्य करता था । तब भरतने अपने भाई मुजवली पर युद्ध ठान दिया परंतु उस घोर युद्ध में विजयलक्ष्मी मुजवलीको प्राप्त हुई । भरतके चक्रसे भी मुजवलीको कोई हानि नहीं पहुंची। परन्तु विजयी होनेपर भी इस संसारको असार जानकर मुजबली क्षणभर में समाधिस्थ हो गए । भरतने मुजबलीको वंदना की और फिर अपने स्थानको लौट आए। फिर भुजबली कैलाश पर्वतके शिखरों में चले गए और वहां ( अथवा दूसरे वर्णन के अनुसार — युद्धभूमिमें ) वर्षभर मूर्त्तिकी भांति खडे रहे " तटस्थ वृक्षोंमें लपटी हुई लताएं उनके गलेमें लिपट गईं। उन्होंने अपने वितानसे उनके शिरपर छत्र सा बना दिया और उनके पैरो के बीच में कुश उग आए और देखनेमेंमे वे मानों वल्मीक प्रतीत होने लगे । अन्तमें मुजबलीको केवली ज्ञानकी प्राप्ति हुई और वे
अनन्त
हो गए ।
परन्तु एक शिलालेख में यह लिखा है कि मुजबली या बाहुवली और भरत के पिता पुरु थे" । और उसके आगे यह लिखा है कि, – “पुरुदेव के पुत्र भरतने, जिसके चारों ओर उसके पराजित राजा बास करते हैं, प्रसन्न - तासे विजयी बाहुवली केवली की मूर्ति निर्माण कराई जो पौदनपुर के समीप है और ५२५ चाप लम्बी है । बहु समयके अनन्तर अनेक लोक भयकारी कुक्कुट सर्प
२६ देखो, जिनसेन रचित हरिवंश पुराण, अध्याय १९ । कुछ भिन्न वर्णनके लिए देखो, कथाकोश ( ट्वेनी द्वारा इंग्रेजीमें अनुवादित ) पृ. १९२ - ९५.
२७ देखो, कथाकोश, पृ. १९२-९५.
२८ " पुरुसु बाहुबलि वोल् ” एषि. कर्ना. मा. २ शिलालेख नं. ८५, पृ. ६७.
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जैन साहित्य संशोधक।
[खंड
जैनकी मूर्ति के आसपास उत्पन्न होगए और इसी का- ण्डराय था । एक दिन जब राजा अपनी सभा मन्त्रीरण मूर्तिका नाम कुक्कुटेश्वर पड़ गया " २०. योंके सहित विराजमान था, एक पथिक व्यापारी आया
इन लोकप्रसिद्ध कथाओंके द्वारा हम समझ सकते हैं कि और उनसे कहा कि उत्तरमें पौदनपुरी नामक एक नगर उन वल्मीकमयी मूर्तियों का क्या भाव है जिनसे सर्प है जहां भरत द्वारा स्थापित बाहुवली अथवा गोम्मटकी निकल रहे हैं, तथा श्रवण बेलगोल कर्कल और येनूर एक मूर्ति है । यह सुनकर भक्त चामुण्डरायने उस पविगोम्मटेश्वरकी मूर्तियों में लिपटी हुई लताओंका क्या ता-- त्र मूर्तिके दर्शन करनेका विचार किया और घर जाकर त्पर्य है ? " तीनों मूर्तियों में ये सब बातें एक समान हैं अपनी माता कालिकादेवीसे यह वृत्तान्त कहा, जिसपर
और उनसे यह भाव प्रकट होता है कि, वे तपस्या में उसने भी वहां जानेकी इच्छा प्रकट की | चामुण्डराय ऐसे पूर्ण लीन होगए हैं कि उनके पैरों पर वल्मीक लग तब अपने गुरु अजितसेनके पास गया, जो सिंहनन्दिका जाने; और शरीरमें लताओंके चिपट जाने पर भी सां- उपासक था । उसने सिंहनन्दिके सन्मुख यह प्रतिज्ञा की सारिक विषयोंपर उनका ध्यानभंग नहीं होता । " ३० कि जब तक मैं बाहुबली मूर्त्तिके दर्शन न कर लूंगा तब
चामुण्डरायकी मूर्त्तिके स्थापनका वृत्तान्त । तक मैं दूध न ग्रहण करूंगा | नेमिचन्द्र अपनी माता बाहुबली चरित्र नामक एक संस्कृत काव्य में चामु- और अनेक सैनिकों एवं सेवकोंके सहित चामुण्डराजने ण्डराय-द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वरकी मूर्तिकी स्थापना- यात्रा प्रारंभकी और विन्ध्यगिरि (श्रवण बेलगोल) में की कथा इस प्रकार वर्णित है ।
जा पहुंचा । रात्रिमें जैनदैवी कुष्माण्डी (बाईसवें तीर्थबाहुबली चरित्रकी कथा ।
कर नेमिनाथकी यक्षिणी दासी) ने चामुण्डराज नेमिद्रविड देशकी मधुरा नगरी ( वर्तमान मदुरा ) में चन्द्र और कालिकाको स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा राजमल्ल नामक एक राजा था, जिसने जैन सिद्धान्तों के कि पौदनपुरीको जाना अत्यन्त कठिन है, परन्तु प्रचारका उद्योग किया और जो देशीय-गण" के इसी पहाडीपर पहिले पहिल रावण द्वारा स्थापित बाहुसिंहनन्दिका उपासक था । उसके मन्त्रीका नाम चामु- बलीकी एक मूर्ति है । और उसके दर्शन तभी हो
२९ “ घृत-जयवाहु-बाहुबलिकेवलि-रूपसमान- सकते हैं, यदि एक सुवर्ण-बाणसे इस पहाडीको फाड पञ्चविंशति-समुपेत-पञ्चशतचापसमुन्नतियुक्तम् अप्प दिया
दिया जाय । स्वप्नके अनुसार, दूसरे दिन चामुण्डरायने तत्-प्रतिकृतियं मनोमुददे माडिसिदं भरतं जिताखिल- दक्षिणाभिमुख पहाडीपर खडे होकर अपने घनुषसे एक क्षितिपतिचकि पौदनपुरान्तिकदोल् पुरुदेव-नन्दनम् । सुवण
। सुवर्ण-बाण छोडा । तत्क्षण पहाडके दो टुकडे होगए चिरकालं सले तज्जिनांतिक-धरित्री-देशादोल लोकभी- और बाहुबलीकी एक मूर्त्तिके दर्शन हुए । चामुण्डरायने करणं कुक्कुटसर्पसंकुलं असंख्यं पुट्टि दल् कुक्कुटेश्वरना- तब उस मूर्तिकी स्थापना और प्रतिष्ठा की तथा उसके मन्......" ( देखो, एपि. कर्ना. मा. २, पृ. ६७.) पूजार्थ कुछ भूमि लगा दी । जब नृपति राजमल्लने यह ३० लु. रा. का, श्रवण बेलगोल, भूमिका पृ. ३३.
वृत्तान्त सुना तो उसने चामुण्डराजको 'राय'की उपाधि ३१ जब नन्दी संघके जैन आचार्य सारे देशमें फैल गये, तब प्रदान की और उस मूर्तिकी नियमित पूजाके लिए उनके संघका नाम 'देशीयसंघ' हो गया।
और भी भूमि प्रदान की । देखो बाहुबली चरित्रका निम्न श्लोक" पूर्व जैनमतागमाब्धिविधुवच्छ्रीनन्दिसंघेऽभवन्
राजावली कथेके अनुसार कथा । सुज्ञानर्द्धितपोधनाः कुवलयानन्दा मयखा इव ।
देवचन्द्र-द्वारा रचित कानडी भाषाकी एक नवीन सत्सङ्गे मुवि देशदेशनिकरे श्रीसुप्रसिद्ध सति पुस्तकमें भी यही कथा वर्णित है, परंतु कहीं कहीं कुछ श्रीदेशीयगणो द्वितीयविलसन्नाम्ना मिथः कप्यते ॥" बातोंमें अन्तर है। उसमें लिखा है कि चामुण्डराय राजा
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दक्षिण भारतमे ९ वीं - १० वीं शताब्दीका जैन धर्म ।
अंक ४]
राजमल्लका एक अधीन शासक था । उसकी माताने पद्म पुराणका पाठ सुनते समय यह सुना कि पौदनपुर में बाहुबलीकी एक मूर्त्ति है । इस लिए अपने पुत्रसमेत वह उस मूर्त्तिके दर्शनको चली, परन्तु मार्गमें एक पहाडीपर, जहां भद्रबाहु स्वामीका देहान्त हुआ था उसने स्वप्न देखा जिसमें पद्मावती देवीने उसे दर्शन देकर कहा कि उसी पहाडीपर बाहुबलीकी एक मूर्ति है जो पत्थरोंसे आच्छादित है, और जिसकी पूर्व समयमे राम, रावण, और मन्दोदरीने पूजा की थी । फिर दूसरे दिन एक बाण मारनेसे बाहुबलीकी मूर्ति दृष्टिगोचर हुई ।
इस प्रकार जैनियोंकी किम्बदन्तियोंके अनुसार यह पता लगता है कि चामुण्डरायने उस मूर्त्तिको नयी निर्माण नहीं कराया, किन्तु उस पहाडीपर एक मूर्ति विद्यमान थी जिसकी उसने सविधि स्थापना और प्रतिष्ठा कराई । इन लोक-कथाओं के अनुसार श्रवण बेलगोलके प्रधान पुरोहितने भी यह कहा था, कि प्राचीन कालमें इस स्थानपर एक मूर्ति थी, जो पृथ्वीसे स्वतः निर्मित हुई थी, और जो गोम्मटेश्वर स्वामीके स्वरूपकी थी । उसकी राक्षसराज रावण सुखप्राप्तिके हेतु उपासना करता था | चामुण्डरायको यह विदित होनेपर उसने कारीगरों द्वारा उस मूर्त्तिके सब अंगोको उचित रूपसे सुडौल बनवाया । उसके सब अंग मोक्षकी इच्छासे ध्याना - वस्थित गोम्मटेश्वर स्वामीके असली स्वरूपके समान थे । उसने उनके चारों ओर बहुतसे मन्दिर और भवन बनवाए | उनके बनजानेपर उसने बडे उत्सव एवं भक्ति पूर्वक मूर्त्तिकी उपासनाका क्रम प्रारंभ किया. स्थल-पुराणस्रे उद्धृत एक अवतरणमें यह लिखा है जो उपरोक्त कथासे मिलता-जुलता है ।
३२
स्थल- पुराण में वर्णित कथा |
" चामुण्डराजने सपरिवार, पदनपुरस्थित देव गोम्मटेश्वर एवं उसके आसपास स्थित १२५४ अन्य देवता
३२ वेली पागलका ऐतिहासिक और किम्बदन्तियोंके आधार पर वर्णन. ( एशियाटिक रिसर्च, भाग ९, पृ. २५३.)
१३७
ओके दर्शनार्थं यात्रा प्रारंभ की । देव गोम्मटेश्वर के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुनकर, वह मार्ग में श्रवण बेलगोल क्षेत्रमें जा पहुंचा । वहां उसने गिरे पडे मन्दिरोंका जिर्णोद्धार किया और अन्य विधानोंके साथ पंचामृतस्नान की भी प्रक्रिया कि । दैनिक, मासिक, वार्षिक एवं अन्य उत्सवोंके संचालनके, लिए उसने सिद्धान्ताचार्यको मठका गुरु नियत किया । मठमें उसने एक ' सत्र ' स्थापित किया जहां यात्रियोंके लिए भोजन औषध और शिक्षाका प्रबन्ध था । उसने अपनी जातिवालोंको इस लिए नियत किया, कि वे तीनों वर्णोंके यात्रियोंकी, जो दिल्ली, कनकाद्रि, स्वित्पुर, सुधापुर, पापापुरी, चम्पापुरी, सम्मिदगिरि, उज्जयन्तगिरि, जयनगर आदिस्थानोंसे आवें, आदरपूर्वक सेवासुश्रूषा करें । इस कार्यके लिए मन्दिर में कई ग्राम लगादिए गए । उसने चारों दिशाओं में शिला - शासन लगवा दिए | १०९ वर्षों तक उसके पुत्रपौत्रोंने इस दानको नियमित रक्खा
1933
अब हमें इस बातका निर्णय करना उचित है कि यह बात कहांतक ठीक है कि चामुण्डराय श्रवण बेलगोळकी गोम्मटेश्वरकी मूर्त्तिका केवल अनुसन्धानकर्त्ता था । भुजबली चरित्र अथवा बाहुबली चरित्र नामक ग्रन्थ संस्कृत छन्दोंमें है, और उसमें केवल जनश्रुतियोंका समुच्चय है, और कई मुखोंतक पहुंचने के कारण उनमें विचित्रता आगई है । इस ग्रन्थका रचनाकाल ठीक ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता । परन्तु इसकी लेखशैलीसे यह अनुमान किया जा सकता है कि यह गोम्मटेश्वरकी मूर्त्तिके स्थापनाके बहुत काल पश्चात् बना होगा । राजावली कथे जैन इतिहास, किम्बदन्ती, आदिका बृहत् संग्रह है जिसको वर्तमान शताब्दीके पूर्वमागमें माईसोर राजवंशकी एक महिला देवी रम्मके निमित्त मलेपूरकी जैनसंस्थाके देवचन्द्र ने रचा था । ४
३३ " स्थल पुराण " से लिया हुआ केप्टेन भाई. एस. एफ. मेकेंजीका अवतरण ( इन्डियन एन्टीक्वेरी, भाग २, पृ० १३० ).
३४ देखो, लु. रा. का श्रवण बेलगोल, भूमिका पृ. ३, ( १८८९ ).
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जैन साहित्य संशोधक।
एतदर्थ यह ग्रन्थ भी प्रस्तुत प्रश्नके निर्णयके हेतु रायने निज उद्योगसे इस मूर्तिको बनवाया । इन प्रमाणकोटिमें नहीं परिगणित किया जा सकता । राजा- लेखोंका समर्थन एक पुस्तकसे होता है, जिसका नाम वली-कथे और स्थलपुराणमें, ग्रन्थकर्ताओंने ऐतिहासिक है गोम्मटसार और जिसको आचार्य नेमिचन्दने, जो घटनाओंकी यथार्थताके लिए कोई प्रयत्न नहीं किया चामुण्डरायके समकालीन थे, रचा है । उसमें निम्नहै, क्योंकि उनका विषय दन्तकथाओं एवं जनश्रुतियोंका लिखित वर्णन है। संग्रह था । यह सत्य है कि इन कथाओंमें कहीं कहीं “गोम्मटसंग्रहसूत्रकी जय हो, जिसमें गोम्मटगिरि ऐतिहासिक सामग्री विद्यमान है, परन्तु उनको तबतक स्थित गोम्मटजिन और गोम्मटराज-निर्मित दक्षिणबिना जांचे ऐतिहासिक घटनाएं न मान लेना चाहिए, कुक्कुट-जिनका वर्णन है।" जबतक अन्य अधिक विश्वस्तसूत्रोंके आधारपर उनकी “उस गोम्मटकी जय हो, जिसके द्वारा मूर्तिका यथार्थता सिद्ध न हो जाय । स्थलपुराणकी निर्मूल मुख निर्मित हुआ, जिसको सब सिद्ध और देवताओंने बातोंके उदाहरण स्वरूप यह पंक्ति लिखी जा सकती देखा । "३६ है-" चामुण्डराज, दक्षिण मदूराका राजा, और गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके कारण जिस गिरिपर यह स्थित जैन-क्षत्रिय-पाण्डु-वंशोत्पन्न था | "" इससे इस बातका थी उसका नाम गोम्मटगिरि होगया और इस बारेमें पता लगेगा कि किस प्रकार किम्बदन्तियोंमें मन्त्री नेमिचन्द्र यह शब्द प्रयुक्त करते हैं । " चामुण्डराय द्वारा चामुण्डरायको मदूराका राजा वर्णन किया गया है। निर्मित (विणिम्मिय )" । हम कह चुके हैं कि पौदन__ यदि यह सिद्ध करनेके लिए, कि, इस मूर्तिको पुरमें भरत द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वरकी मूर्तिका नाम किसने निर्माण कराया, कोई विश्वस्त अथवा समकालीन कुक्कुटेश्वर हो गया, जब उसके चारों ओर सर्प निकल लेख न होता तो इन किम्बदन्तियोंके आधारपर यह आए । चामुण्डराय द्वारा स्थापित मूर्तिका नाम दक्षिण बात संदिग्ध रहती कि चामुण्डरायने स्वयं इस मूर्तिको कुक्कुट-जिन होगया, जिससे उत्तरीय मूर्तिसे वह भिन्न बनवाया । परन्तु हमारे लिए यह सौभाग्यकी बात है जानी जा सके । इस मूर्तिको बनवानेके कारण चामुण्ड, कि यह सिद्ध करनेके लिए लेख विद्यमान है कि, चामु- रायका नाम गोम्मटराय पडगया । ण्डराय हीने न कि और किसीने, गोम्मटेश्वरकी मूर्ति इन प्रमाणेसे इस बातमें कोई सन्देह नहीं रह जाता बनवाई।
कि चामुण्डराय ही ने इस मूर्तिको निर्माण कराया । इस सबसे प्रथम, उस मूर्तिके पैरोंवाला शिलालेख है- महान् कार्यके कारण वह स्वयं गोम्मटराय कहलाने जिसका वर्णन पहिले हो चुका है-जिसमें यह साफ लगा । परन्तु यदि उसने केवल मूर्तिका अनुसन्धान ही साफ लिखा है कि चामुण्डरायने इस मूर्तिको निर्मित किया होता तो कदापि यह बात न होती । चामुण्डकिया । द्वितीय, एक अन्य शिलालेखमें, जिसकी तिथि रायके गुरु नेमिचन्द्र मूर्तिस्थापनके समय अवश्य विद्य११८० ई० है, हम ऊपर देख चुके हैं कि चामण्ड- मान होंगे (क्योंकि बाहुबली चरित्रतकमें यह लिखा है
कि उस अवसरपर नेमिचन्द्र भी उपस्थित थे) अतएव ३५ केप्टेन मैकेजी द्वारा उद्धत 'स्थलपुराण' का अवतरण (इन्डि. एन्टी. माग २, पृ. १३०) यह कहना भी उचित होगा ३६ “गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य। कि सेनगणकी पट्टाबिलिमें भी ऐसा ही लिखा हुआ है-“द- गोम्मटरायविणिम्मियदक्षिणकुक्कुडाजिणो जयउ ।। क्षिण मधुरानगर निवासि-क्षत्रियवंश शिरोमणी-दक्षिण तैलंग कर्नाटक देशाधिपति चामुण्डराय प्रतिबोधक-बाहुबील प्रति
. जेण विणिम्मिय-पडिमा-वयणं सवहुसिद्धिदेवेहिं ।। बिम्ब गोमट प्रतिष्ठापकाचार्य-श्री अजितसेन भट्टारकाणाम् ।" सबपरमोहिजोगिहिं दिट्टं सो गोम्मटो जयउ ।। (देखो, जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग १, सं. १, पृ. ३८.) (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, श्लोक ९६८-६९)
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भक ४]
दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वीं शताब्दीका जैन धर्म ।
नोमचन्द्रके शब्दोंको, जिनका समर्थन शिलालेखसे होता विधि की, जिसमें पहिले उसने इतमी सामग्री व्यर्थ खो है, इस प्रश्नके सम्बन्ध प्रमाणित मानना चाहिए। दी थी, और पूर्ण रूपेण उसने मूर्तिके समस्त शरीरको
तो फिर इसका क्या कारण है कि बाहुबली चरित्र स्नान कराया । उस समयसे इस स्थानका नाम, उस राजावली कथे आदिग्रन्थों में चामुण्डरायको मूर्तिका केवल चान्दीके पात्रके कारण, जो पद्मावती हाथमें लिए थी, अन्वेषकही लिखा गया है? शायद कारण यह हो कि बेलियगोल पड गया । "30 इन ग्रन्थोंके लेखक मूर्तिको अधिक प्राचीन कहकर
__ मूर्ति निर्माणकी तिथि। अधिक पूज्य और पवित्र बनाना चाहते थे ।
____ अब हम अनुमानसे उस तिथिका निश्चय करेंगे - गोम्मटरायकी मूर्त्तिके सम्बन्धमें एक और किम्ब
। जिसमें चामुण्डरायने गोम्मटेश्वरकी मूर्ति निर्माण कराई । दन्ती है जिसमें इस बातका वर्णन है कि ऐसि मूर्तिको ।
" हम कह चुके हैं कि चामुण्डराय मारसिंह द्वितीय और स्थापन करनेके कारण चामुण्डरायके गर्वने किस प्रकार
- राचमल्ल या राजमल्ल द्वितीयका मन्त्री था । किम्बदन्तीके नीचा देखा | कथा इस प्रकार है:
अनुसार राजमल्लके समयमें मूर्ति स्थापित हुई । हम "इस मूर्तिको स्थापित करनेके अनन्तर चामुण्डराय देख चुके हैं कि मारसिंह द्वितीयके शासनकालमें चामुण्डयह सोचकर मारे गर्वके फूला न समाया कि मैंने अप- रायने अनुपम शौर्यकी ख्याति प्राप्त की थी और एक ने ही सामर्थ्यसे, इतने धन और परिश्रमसे इस देवताकी शिलालेखमें, जिसमें उसने अपना वृत्तान्त दिया है, स्थापना करा ली। तदनन्तर जब उसने देवताकी पंचा- वह केवल अपनी जीतोंका वर्णन करता है। उसके मृत स्नान-विधि की, तो इस पदार्थसे भरे अनेक पात्र द्वारा किए हुए किसी धार्मिक कार्यका उनमें वर्णन नहीं चुक गए, परन्तु देवताकी अलौकिक मायासे, पंचामृत है । यदि मारसिंह द्वितीयके समयमें उसने इस विशालतोंदीसे नीचे न जा सका, जिससे उपासकके व्यर्थाभि- मूर्तिका निर्माण कराया होता तो वह इस बातका मानका नाश हो । कारण न जानकर चामुण्डरायको यह अवश्य वर्णन करता । क्योंकि इससे उसका नाम सोचकर अत्यन्त शोक हुआ कि पंचामृतसे समस्त अमर हो गया है। मारसिंह द्वितीयकी मृत्यु सन ९७५ मूर्तिको स्नान करानेकी मेरी इच्छा पूर्ण न हुई । जब ई० में हुई । चामुण्डराय अपने ग्रन्थ चामुण्डराय पुरावह इस अवस्थामें था, देवताकी आज्ञानुसारं पत्रावती णमें अपनी वीरताका सविस्तर वर्णन करता है और नाम्नी अप्सरा एक वृद्धा निर्धन स्त्रीका रूप धारणकर अपनी समस्त उपाधियोंका वर्णन करके उनके प्राप्तिके प्रकट हुई, जिसके हाथमें एक बेलियगोलमें (छोटी कारण भी बताता है; परन्तु गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके निर्माचांदीकी कटोरी ) मूर्तिके स्नानके हेतु पंचामृत था । णका तनिकमी उल्लेख नहीं किया है । इस ग्रन्थके उसने चामुण्डरायसे मूर्तिको स्नान करानेका प्रस्ताव अन्तमें, उसका रचना काल शक ९०० (९७८ ईस्वी) प्रकट किया । परन्तु चामुण्डराय यह समझकर, उस दिया है। अतएव ९७८ ईस्वीके अनन्तर और राजअसंभव प्रस्तावपर हंस दिया, कि जिसको मैं नहीं कर मल या राचमल्ल द्वितीयके शासनके अन्तिम वर्षके पूर्व सका उसे यह करने चली है । परन्तु विनोदार्थ उसने गोम्मटेश्वरकी इस मूर्तिका निर्माण हुआ होगा । राज. उसे यह करनेकी आज्ञा देदी । तब दर्शकोंको यह मल्ल द्वितीयने ९८४ ईस्वीतक राज्य किया । इस लिए देखकर बडा आश्चर्य हुआ कि उसने उस चान्दीके छोटे पात्रहीसे समस्त मूर्तिको स्नान करा दिया । तब ३७ एशियाटिक रीसर्च, भाग ९, पृ. २६६ । उपरोक्त वर्णनमें
श्रवण बेलगोलके नाम पडनेका बिल्कुल दूसरा कारण बताया चामुण्डरायने अपने अपराध एवं गर्वके लिए शोक
गया है। अभी कुछ दिन हुए जैनोंने गोम्मटेश्वरका पंचामृत प्रकाशित करके, बड़े आदरसे, द्वितीय बार स्नानकी स्नान कराया था।
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जैन साहित्य संशोधक।
९७८ और ९८४ ईस्वीके अन्तर्गत कालमें इस ३९४ वर्ष ७ मास अनन्तर प्रारम्भ होता है । अर्थात् मूर्तिका निर्माण हुआ होगा।
वीरनिर्वाणके १००० वर्ष अनन्तर कल्कि संवत् आरम्भ बाहुबली चरित्रमें एक श्लोक है जो मूर्तिस्थापनका · होता है । अतएव, कल्कि संवत्का आरम्भ ४७२ ठीक ठीक समय बताता है । वह श्लोक इस प्रकार है- ईस्वीसे होता है । इसलिए कल्कि संवत् ६००
कल्क्यब्दे षट्शताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासि चैत्रे, ( ४७२+६०० ) १०७२ ईस्वी सन् होगा । परन्तु पञ्चम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे। यह बात इतिहासके विरुद्ध है, क्योंकि राचमल्ल द्वितीयका सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभमणे सुप्रशस्तां चकार शासन सन् ९८४ ईस्वीमें समाप्त होता है । इसके श्रीमच्चामुण्डराजो वेलुगुलनगरे गोमटेश-प्रतिष्ठाम् ।।" . अतिरिक्त ज्योतिष गणनासे भी यह ज्ञात होता है कि
अर्थात्-श्रीचामुण्डरावने बेलगुल नगरमें कुम्भलग्नमें, कल्कि संवत् ६०० में चैत्र शुक्ल पक्षकी पंचमी तिथि, रविवार शुक्ल पक्ष चैत्र शुक्ल पंचमीके दिन विभवनाम चैत्रके तेईसवें दिन शुक्रवारको पडती है, जो उपरोक्त कल्कि-संवत्सर ६०० के प्रशस्त मृगशिरा नक्षत्रमें, श्लोकसे विरुद्ध है क्योंकि उसके अनुसार उस साल चैत्र गोमटेशकी प्रतिष्ठा की।
शुक्ल पंचमीको रविवार था । यदि हम उपरोक्त तिथिको यथार्थ मान लें, क्योंकि अतएव कल्कि संवत् ६०० का अर्थ कल्कि संवत्की सम्भव है ऐसे उत्तम मुहूर्तमें ऐसा बडा कार्य किया छठी शताब्दी लेना चाहिए । विभव संवत्को ८ वां गया हो, तो हमें यह निकालना पडेगा कि ९७८ और मानना चाहिए जिससे इतिहासानुसार ठीक ठीक बैठे । ९८४ ईस्वीके अन्तर्गत किस दिन यह सब योग पडते इसलिए विभवनाम कल्कि संवत् ६०० के अर्थ लेना थे । हममे भलीभांति सावधानीसे ज्योतिषकी रीतियोंके चाहिए कल्कि संवत्की छठी शताब्दीका ८ वां वर्षअनुसार सर्व सम्भाव्य तिथियोंको जांचा है और उसका अर्थात् ५०८ कल्क्यब्द । यदि हम इस तिथिका परिणाम यह निकलता है कि रविवार ता. २ अप्रैल सन् स्वीकार कर ले तो ठीक ९८० ईस्वीको यह सम्वत् ९८० ई० को मृगशिरा नक्षत्र था और पूर्व दिवससे पडता है और श्लोकमें वर्णित सर्व ज्योतिषके योग भी ( चैत्रकी बीसवीं तिथि ) शुक्ल पक्षकी पंचमी लगगई मिल जाते हैं । थी, और रविवारको कुम्भ लग्न भी था । अतएव जिस . अतएव अब हमारे माननेके लिए दो मार्ग हैं । दिन चामुण्डरायने मूर्तिकी प्रतिष्ठा की उसकी हम यही प्रथम; कि हम बाहुबली चरित्रके श्लोकको इतिहासतिथि मान सकते हैं परन्तु उपरोक्त श्लोकमें एक बात विरुद्ध कहकर प्रमाणित न माने, या जैसा हमने किया है जो प्रथम बार देखनेसे इतिहासके विरुद्ध जान पडती है वैसा उसका अर्थ लगावें, जिससे वह शिलालेखकी है । इस श्लोक में यह कहा गया है कि कल्क्यब्द ६०० तिथिसे मिल जाय । और हमारी समझमें तो दूसरा विभवनाम संवत्सरमें गोम्मटेश्वरकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई। मार्ग ग्रहण करनाही सर्वोत्तम है । शक सम्वत् महावीरके निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती । पश्चात् प्रारम्भ होता है और कल्कि संवत् शक संवत्के अब हम द्रव्यसंग्रहके लेखकके सम्बन्धमें समस्त प्राप्य
सामग्री एकत्र करनेका प्रयत्न करेंगे । इस ग्रन्थके ३८ देखो, नेमिचंद्र रचित त्रिलोक सारका निम्न उल्लेख
अन्तिम श्लोकसे यह पता लगता है कि इसके रचयिता 'पण छ सबवस पण मासजुई
मुनि नेमिचन्द्र थे ।" बाहुबली चरित्रमें यह लिखा है गमिय वाणिवुइदो सगराजा॥' भर्थात् वीरनिर्वाणके अनन्तर ६०५ वर्ष और ५ मास व्यतीत ३९ देखो, द्रव्यसंग्रह (श्लोक ५८)होने पर शकराजा हुआ। (इन्डियन एन्यवरा, भाग १२, 'दव्वसंगाहमिणं मुणिणाहा दोससंच्यचदा सुदपुण्णा । पृ. २१.)
सोधयतु तणुसुचधरण णेमिचंदमुणिणा भणियं जं ॥'
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जैन भारत ९ वीं - १० वीं शताब्दीका जैन धर्म |
अंक ४ ]
कि देशीय गणके नेमिचन्द्र ं मुनि, चामुण्डराय और उसकी माताके साथ पौदनपुर गोम्मटेश्वर के दर्शनार्थ गये थे । और नेमिचन्द्रने स्वप्न देखा कि विन्ध्यगिरिपर गोम्मटेश्वरकी एक मूर्ति है, और चामुण्डरायने मूर्त्तिकी प्रतिष्ठा करानेके अनन्तर उसकी नित्य पूजा और त्यौंहारों के हेतु नेमिचन्द्रके चरनोंपर कुछ ग्राम प्रदान किए जिनकी आय ९६००० मुद्रा थी । ४
४०
माइसोरके शिमोगा जिलेके नगर तालुकेमें स्थित पद्मावती के मन्दिरके हातेमें खुदे हुए लगभग सन् १५३०
૪૨
गुरु थे जिसने गोम्मटेश्वरकी मूर्ति निर्माण कराई ।
अभयचन्द्र रचित गोम्मटसारके भाष्य में लिखा है कि यह ग्रन्थ चामुण्डरायकी इच्छानुसार रचा गया; जिसको जैनियोंके पवित्र ग्रन्थोंमें वर्णित द्रव्योंकी व्याख्याका अध्यन करनेकी अभिलाषा थी । नेमिचन्द्र - रचित त्रिलोकवारकी एक अति प्राचिन सचित्र हस्तलिखित पुस्तकमें एक चित्र है जिसमें चामुण्डराय अनेक सभासदों के साथ नेमिचन्द्र से जैन सिद्धांतोंकी व्याख्या सुन रहे हैं ।
नेमिचन्द्र ग्रन्थ |
ईस्वी के एक शिलालेख के निम्नलिखित लोकसे यह पता
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवतीने इन प्रथोंकी रचना की:लगता है कि चामुण्डराय नेमिचन्द्रके चरणकमलोकी ( १ ) द्रव्यसंग्रह ( २ ) गोम्मटसार ( ३ ) लब्धिसार
पूजा करता था ।:―
( ४ ) क्षपणसार, और ( ५ ) त्रिलोकसार । बाहुबली चरित्र लिखा है कि “ नेमिचन्द्र, गोम्मटसार, लब्धिसार, और त्रिलोकसारके रचयिता हैं "*" द्रव्य संग्रहके अन्तिम श्लोक में नेमिचन्द्र ने अपना नाम प्रकट किया है । इसी प्रकार गोम्मटसारके एक श्लोकसे यह ज्ञात
" त्रिलोकसार-प्रमुख...
• भुवि नेमिचन्द्र । विभाति सैद्धान्तिक सार्वभौमः चामुण्डराजार्श्वित-पादपद्मः || अर्थात् " त्रिलोकसार और अन्य ( ग्रन्थों ) के रचयिता. . नेमिचन्द्र सिद्धान्त सार्वभौम सुशोभित है, उसके चरणकमल चामुण्डराज द्वारा अर्चित हैं ४१ यद्यपि इस लोकका कुछ भाग मिट गया है, तथापि भाव सुस्पष्ट है । ' सिद्धान्त - सार्वभौम सिद्धान्तचक्रवर्ती नामक उपाधिका पर्याय बाची है जो बहुधा मेमिचन्द्रके साथ प्रयुक्त होता है ।
स्वयं नेमिचन्द्र ने अपने ग्रन्थ गोम्मटसारमें गोम्मटराय या केवल राय की प्रशंसा की है और ऐसा हम देख चुके हैं। कि यह चामुण्डरायका उपनाम है। उन प्रशंसात्मक श्लोकों में नेमिचन्द्र ने लिखा है कि अजितसेन उस चामुण्डराय के
t
४० “ मास्वद्देशीगणाग्रे सर रुचिरसिद्धान्तविन्नेमिचन्द्र - • श्रीपादाये सदा षण्णवतिदशशतद्रव्यभूग्रामवर्य्यान् । दवा श्रीगोमटेशोत्सवस्वननित्याच नावे मवाय श्रीमन्चामुण्डराजो निजपुरमथुरां संजगाम क्षितीशः । ( बाहुबलि चरित्र, श्लोक ६१.)
४१ एपि. कर्मा. भाग ८, लेख नं. ४६.
४२ “गोम्मट संगहसुंत्त गोम्मटासंहरुवरि मोम्मटजिणे य । गोम्मटरायविणिम्मियदक्खिणकुक्कुडजिणो जयउ ।। जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्टसिद्धिदेवहिं । सव्वपरमोहिजोगिहिं दिहं सो गोम्मटो जयउ ।। वजयणं जीणभवणं ईसिपमारं सुवण्णकलसं तु । तिहुवणपडिमाणिकं जेण कयं जयउ सो रायो || जेणुभियर्थमुवरि मजक्रव- किरीटग्गकिरणजलधोया । सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ ।। जहि गुणा विस्संता गणहरदेवादि - इढिपत्ताणं || सो अजियसेणणाहो जस्स गुरु जयउ सो राओ " ४३ सिद्धान्तामृतसागरं स्वमतिमन्थक्ष्माभृदालोड्य मध्ये
मेऽभीष्टफल प्रदानपि सदा देशीगणाग्रेसरः । श्रीमद्गोमटलब्धिसारविलसत् त्रैलोक्यसारामरक्ष्माजश्री सुरधेनु चिन्तितमणिन् श्रीमेमिचन्द्रो मुनिः || ( बाहुबलि चरित्र, श्लोक ६३ ) ४४ ' णेमिचंद मुणिणा भणियं जं '
( द्रव्यसंग्रह, श्लो० ५८ )
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जैन साहित्य संशोधक।
होता है कि नेमिचन्द्रने इसकी रचना की है ।" हम तर उन्नतिको ध्येय मानता है, और इसी लक्ष्यसे समझते हैं, इस स्थानपर नेमिचन्द्रके ग्रन्थोंका संक्षिप्त उसने गोम्मटसारमें जैन-आचार्योंके सिद्धान्तोंका सार वृत्तान्त दे देना उत्तम होगा ।
दिया है । साधारण रूपसे इस ग्रन्थमें जैन-दर्शन शास्त्रके गोम्मटसार ।
मुख्य मुख्य सिद्धान्तोंका समावेश है |.... इसका नाम गोम्मटसार पडनेका कारण यह है कि
गोम्मटसारके भाष्य । यह चामुण्डरायके पठनार्थ लिखा गया था, और हम स्वयं चामुण्डरायने कानडी भाषामें गोम्मटसारकी बतला चुके हैं कि चामुण्डरावका दूसरा नाम गोम्मटराय एक टीका रची थी । गोम्मटसारके अन्तिम श्लोक में था । इस ग्रन्थको पञ्चसंग्रह भी कहते हैं क्योंकि इस बातका उल्लेख है कि चामुण्डरायने सर्व साधारणकी इसमें इन पाँच बातोंका वर्णन दिया है (१) बन्ध भाषामें वीर-मार्तण्डी नाम्नी एक टीका रची। चामुण्ड(२) बध्यमान (३) बन्धस्वामी (४) बन्धहेतु रायकी एक उपाधि-वीर-मार्तण्ड थी, इस लिए उसने और (५) बन्ध-भेद ।
अपनी टीकाका नाम रक्खा 'वीर-मार्तण्डी' अर्थात् वीर___ यह ग्रन्थ प्राकृतमें है और इसमें १७०५ श्लोक हैं। मार्तण्डकी रची हुई । चामुण्डरायकी उक्त टीका अब अप्राप्य इसके दो भाग हैं जिनके नाम हैं जीवकाण्ड और है, अन्य एक दूसरी टीकामें अब केवल इसका उल्लेख कर्मकाण्ड । इनमें क्रमानुसार ७३३ और ९७२ श्लोक मात्र है, जिसका नाम है केशववीया वृत्ति, ( अर्थात् हैं । जीवकाण्डमें मार्गणा, गुणस्थान, जीव, पर्याप्ति, केशववणी रचित ) । उसके प्रथम श्लोकमें लिखा है प्राण, संज्ञा, और उपयोगका वर्णन है । कर्मकाण्डमें ९ “ मैं कर्नाटक-वृत्तिके आधारपर गोम्मटसारकी वृत्ति अध्याय हैं, जिनके नाम हैं-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धो- लिख रहा हुं । "" गोम्मटसारपर एक और टीका है दयसत्त्व, सत्त्वस्थानभंग, त्रिचूलिका, स्थानसमुत्कीर्तन, जिसका नाम है मन्द-प्रबोधिका, और जिसके टीकाकार प्रत्यय, भवचूलिका, त्रिकरणचूलिका, और कर्मस्थिति- हैं अभयचन्द्र ।" इन्हीं टीकाओंके आधारपर टोडररचना । आठ प्रकारके कर्म और कर्मबन्धका अपनी मल्लने हिन्दी भाषामें एक टीका लिखी है, जिसका अपनी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके साथ वर्तमान समयके जैन-पंडितोंमें बहुत प्रचार है। सविस्तर वर्णन भी दिया हुआ है । कर्मके सम्बन्धके
नेमिचन्द्रके गुरु । अन्य अनेक विषयोंका भी इसमें वर्णन है । संक्षेपसे गोम्मटसारमें अनेक मुनियोंके नाम दिये हैं जिनको गोम्मटसारके प्रथम भागमें जीवोंके स्वाभाविक गुण, नेमिचन्द्र आचार्य कहकर वन्दना करता है । वे नाम और उनकी उन्नतिके उपायों और उपकरणोंका वर्णन इस प्रकार हैं:-अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि, वीरनन्दि, है; और दूसरे मागमें उन कर्मबन्ध उत्पन्न करनेवाली
४७ गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण या कया देसी । अडचणोंका वर्णन है, जिनके निवारण करनेसे जीवोंको
सो राओ चिरं कालं णामेण य वीरमत्तण्डी ।। मुक्ति प्राप्त होती है । ग्रन्थकर्ता सर्वदा जीवकी उत्तरो
(गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९७२) ४५ सिद्धं तुदयतडुग्गयणिम्मलवरणमिचंद करकलिया ।
४८ नेमिचन्द्रं जिनं नत्वा सिद्धं श्रीज्ञानभूषणम् । गुणरयणभूसणं बुहिमइवेला मरउ मुवणयलं ।।
वृत्तिं गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ।। (गोम्मटसार, कर्मकांड, गाथा ९६७)
(केशववीयावृत्ति) ४६ 'श्रीमच्चामुण्डराय प्रश्नानुरूपं गोम्मटसारनामधेयं ४९ मुनि सिद्धं प्रणम्याहं नेमिचन्द्रं जिनेश्वरम् । पञ्चसंग्रहशास्त्रं प्रारंभमानः ।'
टीका गोम्मटसारस्य कुर्वे मन्दप्रबोधिकाम् ।। (अभयचन्द्ररचित गोम्मसारवृत्ति)
( अभयदेवकी वृत्ति) .
सा
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अंक ४]
दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वीं शताब्दीका जैन धर्म ।
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और कनकनन्दि । वीरनन्दि रचित एक 'चन्द्रप्रभ नन्दिके शिष्य थे । गोम्मटसारके उल्लेखानुसार कनकचरितं ' नामका ग्रन्थ है जिसके अंतमें लिखा है कि नन्दि इन्द्रनन्दिके शिष्य थे । इससे नेमिचन्द्रकी वे अभयनन्दिके शिष्य थे," और अभयनन्दि गुण- गुरुपरंपराका टेबल इस प्रकार होता है। ५० " णमिऊण अभयणंदिं सुदसायरपारगिंदणंदिगुरुं ।
गुणनन्दि वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ।।" तथा
अभयनन्दि " वरइंदणदिगुरुणो पासे साऊण सयलासिद्धत ।
इन्द्रनन्दि सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिटुं ।”
वीरनन्दि
कनकनन्दि (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड । ) ५१ "बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पतुर्मुनीनां गणमृत्समानः।
नेमिचन्द्र सदग्रणीर्देशिगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥
[यह लेख, आरासे जो द्रव्यसंग्रहकी इंग्रेजी आवृत्ति मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः
प्रकाशित हुई है, उसकी प्रस्तावनाका अविकल अनुवाद सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः ।
स्वरूप है, ऐसा पीछेसे उसके साथ मिलान करनेसे अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी
मालूम हुआ है । स्वमहिमजितसिन्धुर्भव्यलोकैकबन्धुः ।।
-संपादक जै. सा. सं.] भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमतेस्वित् समानत्विषः
५२ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं । शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् ।
सिरिकणयणन्दिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिढं ।। स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः सतां संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काकुशाः ॥"
( गोम्मटसार, कर्मसार, गा० ३८६) [चन्द्रप्रभचरितप्रशस्तिः । श्लोकः १, ३, ४,]
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[ख
जैन साहित्य संशोधक। जं बु ही व प ण्ण ति।
(ग्रंथ परिचय )
[ले. श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी ]
जैन साहित्यमें करणानुयोगके ग्रंथोंकी एक समय इसी प्रकारकी धारणा थी, जिस प्रकार कि जैन बहुत प्रधानता रही है। जिन ग्रंथोमें ऊर्ध्वलोक, धर्मके करणानुयोगमें पाई जाती है । पृथ्वी थालीके अधोलोक, और मध्यलोकका: चारों गतियोंका, और समान गोल और चपटी है, उसमें अनेक द्वीप और यूगोंके परिवर्तन आदिका वर्णन रहता है, वे सब ग्रन्थ समुद्र हैं, द्वीपके बाद समुद्र और समुद्र के बाद दीप, करणानुयोगके' अन्तर्गत समझे जाते हैं। आजक- इस प्रकार क्रम चला गया है। जम्बूद्वीपके बीच में लकी भाषामें हम जैन धर्मके करणनुयोगको एक तर- नाभीके तुल्य सुमेरु पर्वत है, इत्यादि । परन्तु पीछेसे हसे भगोल और खगोल शास्त्रकी समष्टि कह सकते विद्वान् लोगोंके अन्वेषण और निरीक्षणसे इस विषयका हैं । दिगंबर और श्वेतांबर दोनोंही संप्रदायमें इस विष- शान बढता गया, और आर्यभट्ट, मास्कराचार्य आदि यके सैकड़ों ग्रन्थ हैं. और उनमें अधिकांश बहुत प्राचीन महान् ज्योतिषिओमे तो पूर्वोक्त विचारोंको बिलकुलही हैं । इस विषयपर जैन लेखकोंने जितना अधिक लिख्खा बदल डाला । इसका फल यह हुआ कि इस विषयका है उतना शायदही संसारके किसी संप्रदायके लेखकोंने जो प्रारंभिक हिन्दु साहित्य था उसका बढना तो दूर लिखा हो । परंरापरासे यह विश्वास चला आता है रहा, मगर वह धीरे धीरे क्षीण होता गया और इधर कि इन सब परोक्ष और दूरवर्ती क्षेत्रों या पदार्थोंका चूंकि जैन विद्वानोंका विश्वास था कि यह साक्षात् सर्वज्ञ वर्णन साक्षात् सर्वज्ञ भगवानने अपनी दिव्य-ध्वनीमें प्रणीत है; अतएव वे इसे बढाते चले गये और नई किया था । जान पडता है कि इसी अटल श्रद्धाके खोजों तथा आविष्कारोंकी और ध्यान देनेकी कारण इस प्रकारके साहित्यकी इतनी अधिक वृद्धि उन्होंने आवश्यकताही नहीं समझी। हुई और हजारों वर्ष तक यह जैन धर्मके सर्वज्ञ प्रणीत
यह करणानुयोगका वर्णन केवल इस विषयके स्वतंत्र होनेका अकाटय प्रमाण समझा जाता रहा ।
ग्रन्थों में ही नहीं है, प्रथमानुयोग या कथानुयोगाहिंदुओंके पौराणिक मूवर्णनको पढनेसे ऐसा मालम दिके ग्रन्थों में भी इसने बहुत स्थान रोका है। दिगम्बर होता है कि दो ढाई हजार बरस पहले भारतके
तक संप्रदायके महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराणादि प्रधान
Perum प्रायः सभी संप्रदायवालोंका पृथ्वीके आकार-प्रकार २पराणोंमें तथा अन्य चरित्र ग्रन्थोंमेभी यह खब और द्वीप-समुद्र-पर्वतादिके सम्बन्धमें करीब करीब
विस्तारके साथ लिखा गया है । श्वेताम्बर संप्रदायके १ लोकालोकविभक्तेयुगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च ।
कथा ग्रन्थोंका भी यही हाल है । बल्कि इस आदर्शमिव यथामतिरवैति करणानुयोगं च ।। संप्रदायके तो आगम ग्रंथोंमें भी इसका दौरदौरा है ।
-रत्नकरण्ड श्रा० भगवती सूत्र (व्याख्यामज्ञप्ति ) आदि अंग और जम्बू
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जंबुद्दीव पण्णाति ।
अंक ४ ]
द्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि उपांग ग्रन्थ करणानुयोगकेही वर्णनसे लबालब भरे हुए हैं ।
दिगम्बर संप्रदाय में इस विषयका सबसे प्राचीन और विशाल ग्रन्थ त्रिलोकप्रज्ञप्ति है । इसका और लोकविभाग ग्रन्थका परिचय हम जैनहितैषी ( भाग १३ - अंक १२ ) में दे चुके हैं । त्रैलोक्यसार नामक ग्रन्थ मूल प्राकृत और संस्कृत टीका सहित माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामै प्रकाशित हो चुका है । आज इस लेख में हम जम्बुद्दीवपत्तिका परिचय देना चाहते हैं । इसी नामका और एक ग्रन्थ माथुरसंघान्वयी अमितगति आचार्यका भी हैं । अमितगतिने चन्द्रप्रज्ञप्ति और सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ भी इसी विषयपर लिखे हैं | परन्तु ये अभीतक हमारे देखनेमें नहीं आये । जम्बुद्दीवपणत्ति नामका एक ग्रन्थ श्वेताम्बर संप्रदाय - का भी है। इसका संकलन करनेवाले गणधर सुधर्मास्वामी कहे जाते हैं । यह छठ्ठा उपांग है और आगमग्रन्थोंकी शैलीसे लिखा हुआ है । इसकी श्लोक संख्या ४१४६ है | मुर्शिदाबाद के राय धनपतिसिंह बहादुरके द्वारा यह वाचनाचार्य रामचन्द्र गणिकृत संस्कृत टीका और ऋषि चंद्रभाणजीकृत भाषा टीका सहित छप चुका है।
दिगम्बरसम्प्रदायी जम्बुद्दीवपणत्तिकी दो प्रतियां हमने देखी हैं; एक स्वर्गीय दानवीर शेठ माणिकचन्द्रजी के चौपाटी के ग्रन्थभाण्डारमें है और दूसरी पूने के भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिटयूटमें । पहली प्रति सावन वदि १२ सं० १९६० की लिखी हुई है और इसे सेठजीने अजमेरसे लिखवाकर मँग वाई थी । दूसरी प्रतीपर उसके लिखे हुएका समय नहीं दिया है; परन्तु वह कुछ प्राचीन मालूम होती है !
यह ग्रन्थ प्राकृत भाषामें है और गाथाबद्ध है ।
१ इसके कर्ता श्रीयतिवृषभाचार्य हैं, और इसकी रचना लगभग १००० वीरनिर्वाणसंवत् में हुई है ।
२ इसके कर्ता मुनि सर्वनन्दि है और यह शक संवत् ३८० में लिखा गया है। इस ग्रन्थका संस्कृत अनुवाद उपलब्ध है ।
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इसमें १३ उद्देश या अध्याय, २४२७ गाथायें और भरत, ऐरावत, पूर्व विदेह, उत्तर विदेह, देवकुरु, उत्तरकुरु, लवणसमुद्र, ज्योतिषपटल आदिकावर्णन है । वर्णन त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अपेक्षा कुछ संक्षिप्त है ।
इसके कर्ताका नाम सिरिपउमणंदि या श्रीपद्मनान्द है । वेह अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाते हैंवीरनान्दे, बलनान्दे, और पद्मनान्द | अपने लिए उन्होंने गुणगणकलित, त्रिदण्डरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध, त्रिगारवरहित, सिद्धान्तपारगामी, तप-नियम-योग-युक्त, ज्ञानदर्शनचारित्र्योद्युक्त और आरम्भकरणरहित विशेषण दिये हैं । अपने गुरूओंकी भी उन्होंने ज्ञान और तप आदिके विषयमें प्रशंसा की है । उन्होनें ऋषिविजय गुरुके निकट जिनवचन - विनिर्गत सुपरिशुद्ध आगमको श्रवण करके, उनहीके कृपामाहात्म्यसे इस ग्रन्थकी रचना की है । विजयगुरुका विशेष परिचय वे नहीं देते, इससे उनकी गुरुपरम्परापर कोई प्रकाश नहीं पडता | मा नामके एक विख्यात आचार्य थे जो राग-द्वेष - मोहसे रहित, श्रुतसागरके पारगामी, प्रगल्भ मतिमान्, और तपः संयम - संपन्न थे । उनके शिष्य सकलचन्द्र गुरु हुये, जो नव नियमों और शीलका पालन करते थे, गुणी थे और सिद्धान्त महोदधिमें जिन्होंने अपने पापोंको घोडाला था । इनके शिष्य नेन्दिगुरुके लिए -जो सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्र्य सम्पन्न थे - यह ग्रन्थ बनाया गया है |
आचार्य पद्मनन्दि जिस उमय बारानगरमें थे, उस समय यह ग्रन्थ रचा गया है । इस नगर की प्रशंसा में लिखा है कि उसमें वापिकायें, तालाब, और भुवन बहुत थे, भिन्नभिन्न प्रकारके लोगोंसे वह भरा हुआ था, बहुतही रम्य था, धनधान्यसे परिपूर्ण था, सम्यग्दृष्टिजनोंसे, मुनियोंके समूहसे, और जैन मंदिरोंसे विभूषित था । यह नगर पारियत्त ( पारियात्र ) नामक देशके
१ पुराणसारके कर्ता श्रीचन्द्रमुनि - जो वि. सं. १०७० के करीब हुए हैं - अपने गुरूका नाम श्रीमान्दलिखते हैं । वे इनसे पृथक् व्यक्ति जान पडते हैं । वसुनन्दि आचार्यकी गुरुपरम्परामे भी एक श्रीनन्दि है ।
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जैन साहित्यसंशोधक
[खंड
अन्तर्गत था । बारानगरके प्रमु या राजाका नाम शक्ति या कुन्दकुन्दका जन्म स्थान बारा' बतलानेका प्रयत्न कर शान्ति था । वह सम्यग्दर्शनशुद्ध, व्रती, शीलसम्पन्न, बैठे हैं । पर इससे यह बात बहुत कुछ निश्चित हो जाती दानी, जिनशासनवत्सल, वीर, गुणी, कलाकुशल और है कि मालवेके या कोटा राज्यके इसी बारामें यह ग्रन्थ नरपतिसंपूजित था।
निर्मित हुआ है। आचार्य हेमचन्द्रके कोषमें लिखा है--" उत्तरो शान्ति या शक्तिराजा जान पडता है कि कोई विन्ध्यात्पारियात्रः" । अर्थात् विन्ध्याचलके उत्तरमें पारि- मामूली ठाकूर होगा । यद्यपि उसे नरपतिसंपूजित लिखा यात्र है । यह पारियात्र शब्द पर्वतवाची और प्रदेशवा- है, परन्तु साथ ही 'बारानगरस्य प्रभुः ' कहा है । यदि ची भी हैं। विन्ध्याचलकी पर्वतमालाका पश्चिम भाग कर
- माग कोई बडा राजा या मांडलिक आदि होता, तो वह जो नर्मदा तटसे शुरू होकर खंभाततक जाता है और सीसा
आर किसी प्रदेश या प्रान्तका राजा बतलाया जाता । राजाका
या पान्त उत्तर भाग जो अबलीकी पर्वतश्रेणीतक है पारियात्र वंश आदिभी नहीं बतलाया है. जिससे राजपतानेके कहलाता है। अतः पूर्वोक्त बारानगर इसी भूभागके हाल
इतिहासोंमे उसका पता लगाया जा सके और उससे अन्तर्गत होना चाहिए | राजपूतानेके कोटा राज्यमें एक ।
एक पद्मनन्दि आचार्यका निश्चित समय मालूम किया जा बारा नामक कसबा है, जान पडता है कि यही का बारानगर होगा । क्योंकि यह पारियात्र देशकी सीमाके भीतरही आता है । नन्दिसंघकी पट्टावलीके अनुसार
____ पद्मनन्दि नामके अनेक आचार्य और भट्टारक हो बारामें एक भट्टारकोंकी गद्दी रही है और उसमें वि. गये हैं। उनमें पद्मनन्दिपंचविंशतिकाके कर्ता बहुत सं. ( विक्रमराज्याभिषेक ) ११४४ से १२०६ तकके प्रसिद्ध हैं । वे अपने गुरूका नाम 'वीरनन्दि लिखते १२ आचार्योंके नाम दिये हैं । इससे भी जान पडता हैं और प्रज्ञप्तिके कर्ताके गुरु बलनन्दि हैं । इस लिये है कि सम्भवतः वे सब आचार्य पद्मनन्दि या माघनन्दि ये दोनों एक नहीं हो सकते । इसके सिवाय 'पचविंशकी ही शिष्यपरम्परामें हये होंगे और यही बारा-कोटा तिका ' अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थ है । हमारे अनुजम्बुद्वीप प्रशप्तिके निर्मित होनेका स्थान होगा। मानसे वह १३ वीं शताब्दीसे पहलेका नहीं हो सकता |
ज्ञानप्रबोध नामक भाषाग्रन्थमें (पद्यबद्ध ) कुन्दकुदा- उस समय दिगम्बर मुनि 'जिनमन्दिरोमें रहने लगे थे चार्यकी कथा दी है। उसमें कुन्दकुन्दको इसी बारापुर .
और यह उपदेश दिया जाने लगा था कि बिम्बाफलके
पत्तेके भी बराबर मन्दिर और जोके भी बराबर जिनप्रतिमा या बाराके धनी कुन्दश्रेष्ठी और कुन्दलताका पुत्र
बनवानेवालेके पुण्यका वर्णन नहीं किया जा सकता । बतलाया है । पाठकोंसे यह बात अज्ञात न होगी कि कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दि भी है । जान पडता है
१ सुना है कि बारामें पद्मनन्दिकी कोई निषिद्याभी है। कि जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिके कर्ता पद्मदन्दिकोही भ्रमवश कुन्द
२ यत्पादपङ्कजरोभिरपि प्रमागत्लग्गैः शिरस्यमलबोधककुन्दाचार्य समझकर ज्ञानप्रबोधके कर्ता, कर्नाटकदेशके लावतारः । भव्यात्मनां मवति तत्क्षणमेव मोक्षं स श्रीगुरुर्दिशतु
मे मुनिवीरनन्दी॥ १. पूनेकी प्रतीमें सन्ति (शान्ति ) और बम्बईकी प्रतीमें सचि
४ यह ग्रन्थ काशी में छप चुका है। इसमें अनेक विषयोंके २५ (शक्ति) पाठ है।
प्रकरण हैं। २. देखो जैनसिद्धान्तमास्कर किरण ४; और इन्डियन अॅन्टि- १. सम्प्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थितिः । क्वेरी २० वी जिल्द।
धर्मस्य दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम् ।। ३ कर्नाटक देशके कोण्डकुण्डनामक ग्रामके निवासी होनेके कारण इनका नाम कोण्डकुण्ड हुआ था । कुन्दकुन्द उसीका
उपासकाचार प्रकरण । श्रुतिमधुर संस्कृत रूप है।
२. बिम्बादलोन्नति यवोन्नतिमेव मक्त्या
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अंक ४
जंबुद्दीव पण्णत्ति।
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प्रज्ञप्तीके कर्ता पद्मनन्दि कब हुए हैं, यह बतानेके ......रिसिविजयगुरुत्ति विक्खाओ ।। १४४ ।। लिये अभीतक हमें कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ
सोऊण तस्स पासे जिणवयण विणिग्गयं अमदभूदं । है । परन्तु हमारा अनुमान है कि यह ग्रन्थ विक्रमकी रइदं किंचुद्देसे अस्थपदं तहव लसूणम् ।। १४५ ।।. दसवीं शताब्दीके बादका तो नहीं है, पहलेका भले ही यदि यह अनुमान ठीक हो कि दिगम्बर सम्प्रदायमें हो । क्यों कि
इस विषयका यह पहला ग्रन्थ है तो अवश्यही यह १) ग्रन्थकी रचनाशैली बिलकुल त्रिलोक प्रज्ञप्तिके पुराना है | और आश्चर्य नहीं जो त्रिलोकप्रज्ञप्तिके सदृश है और भाषा भी अपेक्षाकृत प्राचीन मालूम रचे जाने के 'समयमें अथवा उससे कुछ पीछे लिखा होती है।
गया हो | इस ग्रन्थमें ' उक्तं च' कह कर अन्य गाथायें २) नववीं दसवीं शताब्दीके बादके ग्रन्थकर्ता अपनी या श्लोकादि भी उध्दृत नहीं हैं । इससे भी इसे प्राचीन गुरुपरम्परा बतलाते समय संघ और गण गच्छादिका माननेकी इच्छा होती है। परिचय अवश्य देते हैं । पर इस ग्रन्थमें किसी संघ यह ग्रन्थ जिन नन्दिगुरुके लिये बनाया गया है, या गण गच्छादि का नाम नहीं है । मंगराजकविके उनके दादागुरुका नाम माघानन्दि था, और वे बहुतही शिलालेखके अनुसार अकलंकभट्टके बाद देव, नन्दि, विख्यात, श्रुतसागरपारगामी, तपःसंयमसम्पन्न, तथा सेन, और सिंह इन चार संघोंकी स्थापना हुई है। प्रगल्मबुद्धि थे । इन्द्रनन्दीने अपने श्रुतावतारमें लिखा अतः हमारी समझमें यह ग्रन्थ अकलङ्क देवसे पहलेका है कि वीरनीर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी होना चाहिए । अकलङ्क देवका समय विक्रमकी ८ वी प्रवृत्ति रही। उनके बाद अर्हदलि आचार्य हुए और शताब्दी है ।
उनके कुछ समय बाद ( तत्कालही नहीं) माघनन्दि ___३) ऐसा मालूम होता है कि इस ग्रन्थसे पहले इस आचार्य हुए । आश्चर्य नहीं जो नन्दिगुरुके दादागुरु यही विषयका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं था । पद्मनन्दि मुनिने माधनन्दि हों । उन्हें जो विशेषण दिये गये हैं उससेभी श्रीविजयगुरुके निकट आचार्य परम्परासे चला आया मालूम होता है कि वे कोई सामान्य आचार्य न हुआ यह विषय सुनकर लिखा है । किसी एक या होंगे । इन्द्रनन्दिके कथनक्रम माघनन्दीका समय अनेक ग्रथोंके आधार आदीसे नहीं । इस विषयमें नीचे वीरनिर्वाणसंवत् ८०० लगभग तक आसकता है | लिखी हुई गाथायें अच्छी तरह विचारने योग्य हैं । और इस हिसाबसे नन्दिगुरु और पद्मनन्दीका समय
ते वंदिऊण सिरसा वोच्छामि जहाकमेण जिणदिळं। वीरनिवाणकी ९ वीं शताब्दि माना जा सकता आयरियपरम्परया पण्णत्तिं दविजलधीणं ।। ६ ।। इस विषयमें अधिक जोर नहीं दिया जा सकता कि Xxxxx इन्द्रनन्दिकथित माघनन्दि और यह माघनन्दि एकही आयरियपरम्परया सायरदीवाण तह य पण्णत्ती। होंगे । संखेवेण समत्थं वोच्छामि जहाणु पुव्वीए ।। १८ ।। इस ग्रन्थमें भगवान् महावीरके बादकी आचार्यxx x xx परम्पराके विषयमें जो कुछ लिस्वा है उसका आशय इस
ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृतिं वा । प्रकार है । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता-
विपुलाचलके ऊंच शिखरपर विराजमान वर्धमान स्तोतुं परस्य किमु कारयितुईयस्य ।। २२ ।।
१ वीरनिर्वाण संवत १००० के लगभग । १. देखो श्रवण बेल्गोला इन्स्क्रिप्शनका १०८ वां
२ यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके तत्वानुशासनादि. शिलालेख और जैनसिद्धान्त भास्कर किरण ३ । संग्रह ' नामक १३ व अंकमें छप चुका है।
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जैन साहित्य संशोधक ।
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जिनेन्द्रने गौतममुनीको प्रमाणसंयुक्त अर्थ कहा 1 उन्होंने लोहार्यको, लोहार्यने- जिनका नाम सुधर्मा भी हैजम्बुस्वामीको कहा । ये तीनों गणधर, गुणसमग्र, और निर्मल चारज्ञानके धारी थे । ये केवल ज्ञानको प्राप्त करके मोक्षको प्राप्त हुए | इनको मैं नमस्कार करता हूं । इनके वाद नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पांच पुरुषश्रेष्ठ चौदह पूर्व और बारह अंगके धारक हुए । इनके बाद क्रमसे विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल क्षत्रिय, जय, नाम, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन, ये दस पूर्वधारी हुए । फिर नक्षत्र, यशः पाल, बाण्डु, ध्रुवसेन, और कंस ये पांच ग्यारह अंगके धारक हुए । इनके वाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और अन्तिम लोह ( लोहाचार्य ) ये आचारांग धारक हुए |
इस परम्परासे एक यह विशेष बात मालूम हुई कि सुधर्मास्वामीका दूसरा नाम लोहार्य भी था । लोहार्य नामके एक और भी आचार्य हुए हैं जो आचारांगधारी थे । उन्हें दूसरे लोहाचार्य समझना चाहिए | श्रवण वेल्गोलकी चन्द्रमुप्तवस्तीके 'शिलालेखके - ' महावीरसवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमर्षि - गौतम गणधर साक्षाच्छिष्य - लोहार्य - जम्बु - XX" आदि वाक्यमें जो लोहार्यको गौतमगणधारका साक्षात् शिष्य लिक्खा है, उसका भी इससे खुलासा हो जाता है । अभीतक इस बातका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिला था कि सुधर्मा - स्वामीका दूसरा नाम लोहार्य भी था ।
१ देखो, जैनसिद्धान्त भास्कर किरण १.
[ खंड १
इस परम्परामें और त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी परम्परा में कोई अन्तर नहीं है । आचार्य गुणभद्रकृत उत्तर - पुराण, ब्रह्म हेमचन्द्रकृत श्रुतस्कन्ध, और इन्द्रनन्द्रिकृत श्रुतावतारमें भी बिलकुल यही परम्परा न्दी हुई है । परन्तु हरिवंशपुराण, नैन्दिसंघ - बलात्कार गण - सरस्वती - गच्छकी प्राकृत पट्टावली, सेनगणकी पट्टावली और काष्टासंघकी पट्टावली में नन्दिकी जगह विष्णु नाम मिलता है। इसके सिवाय नन्दिसंघकी पूर्वोक्त पट्टावलीमें और काष्ठासंघकी पट्टावलीमें यशोब हुके स्थान में भद्रबाहु नाम है । जान पडता है नन्दीका नामान्तर विष्णु और यशोबाहुका भद्रबाहु भी होगा ।
लोहाचार्य तककी यह गुरुपरम्परा दिगम्बर संप्रदाय में एकसी मानी जाती है । इसमें कोई मतभेद नहीं है । परन्तु यह बडे आश्चर्यकी बात है कि श्वेताम्बर संप्रदाय में जम्बूस्वामी के बाद जो परम्परा मानी जाती है, वह इससे सर्वथा भिन्न है । यद्यपि ये दोनों संप्रदाय वि० सं० १३६ के लगभग पृथक् हुए कहे जाते हैं । यदि यह समय सही है तो आचारांगधारियों तककी परम्परा दोनों संप्रदायों में एकसी होनी चाहिए थी । या तो यह समय ही ठीक नहीं है - जम्बूस्वामीके बादही यह सम्प्रदाय भेद हो गया होगा, या फिर दोनोंमेंसे किसी एकने अथवा दोनोंने ही पीछेसे भूलभाल जानेपर इन्हें गढा होगा । इतिहासके विद्यार्थिओंके लिये यह विषय खास तोरसे विचार करने योग्य है ।
१. यह ग्रन्थभी तत्त्वानुशासनादि - संग्रहमें छपा है । २-३ -४ - देखो जेनसिद्धान्तभास्कर, किरण ४ ।
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क
जंबुद्दीव पण्णति।
]
परिशिष्टजंबुद्दीवपण्णत्तिका आदि और अंतका कुछ भाग नमूमेके तौर पर यहां पर दिया जाता है ।
देवासुरिंदमहिदे दसद्धरुवूण कम्मपरिहीणे | केवलणाणालोए सद्धम्मुवएसदे अरुहे ॥ १ ॥ अट्ठविहकम्मरहिए अगुणसमण्णिदे महाबीरे । लोयग्ग-तिलयभूदे सासयसुहसंट्ठिदे सिद्ध ।। २॥ पंचाचारसमग्गे पंचेंदियनिन्जिदे विगयमोहे । पंचमहव्वयानलए पंचमगाइनायगायरिए ।। ३ ।। परसमयतिमिरदलणे परमागमदेसए उवज्झाए । परमगुणरयणणिवहे परमागमभाविदे वीरे ।। ४ ।। णाणागुणतवणिरए ससमयसब्भावगहियपरमत्थे । बहुविहनोगज्जले जे लोए सव्वसाहुगणे ।। ५ ।। ते वंदिदूण सिरसा वोच्छामि जहा कमेण जिणदिटुं । आवरियपरंपरया पण्णत्तिं दीवजलधीण || ६ ॥ + + + + +
+ . . विउलगिरितुंगसिहरे जिणिंदईदेण वड्ढमामेणं । गोदममुणिस्स कहिदं पमाणणयसंजुदं अत्थं ।। ९ ।। तेणवि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण | गणवरसुधम्मणा खलु जंबूनामस्स णिहिट्ठ ।। १० ।। चदुरमलबुद्धिसहिदे तिन्नेदे गणधरे गुण समग्गे | केवलणाणषईवे सिद्धिपत्ते णमंसामि ।। ११ ।। णंदी य णंदीमित्तो अवजिदमुणिवरो महातेओ । गोवद्धणो महप्या महागुणो भद्दबाहू य ।। १२ ।। पंचेदे पुरिसवरा चउदसपुव्वी हवंति णायव्वा | बारसअंगधरा खलु वीराजिणिदस्स णायव्वा ।। १३ ।। तय विसाखायरिओ पोठिल्लो खत्तियओ य जयणामो । णागो सिद्धत्थो विय धिदिसेणो विजय णामोय ।।
बुद्धिल्ल-गंगदेवो धम्मसेणो य होइ पच्छिमओ | पारंपरेण एदे दसपुत्वधरा समक्खादा || १५ ॥ णक्खत्तो जसपालो पंडु-धुवसेण-कंस-आयरिओ । ऐयारस अंगधरा पंचजणा होंति णिबिठा ॥ १६ ॥ णामेण सुभद्दमुणी जसभद्दो तय होइ जसबाहु । आयारधरा णेया अपच्छिमो लोहणामो य ॥१७॥ आयरियपरंपरया सायरदीवाण तय पण्णत्तिं । संखेवण समत्यं वोच्छामि जहाणुमुवीए ।। १८ ।।
+ + + +
+ परमेठिमासिदत्थं उद्धाधोतिरियलोयसंबंधं | जंबूदीवणिबद्धं कुवावरदोसपारहीणं ।। १४ ॥ गणधरदेवेण पुणो अत्थं लदूण गंथिदं गंथं | अक्खरपदसंखेज्ज अणंतसत्थेहि संहुतं ।। १४१ ।। आयरियपरंपरेण य गंवत्थं चेव आगयं सम्मं । उपसंहरीय लिहियं समासदो हय णायव्वं ।। १४२ ।। णाणाणरवइमहिदो विगयममुसंगभंग-उम्मुक्को । सम्मइंसणसुद्धो संजय-तव-सील-संपुण्णो ।। १४३ ।। जिणवर-वयण-विणिग्गयपरमागमदेसओ महासत्तो।सिरिनिलओ गुणसहिओ रिसिविजय गुरु त्ति विक्खाओ। सोऊण तस्स पासे जिणवयणीवणिग्गयं अमदभूदं । रइदं किंचुद्देसे अत्थपदं नह व लणं ।। १४५ ।।
+ ... + + + + अहतिरिय उड्ढलोएसु तेसु जे होंति बहुवियप्पा दु । सिरिबिजयस्स महप्ता बे सव्वे वाचदा किंचि।१५३।
गयरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइ-पगब्मो।तवसंजमसंपण्णो विक्खाओ माघनंदिगुरू ॥ १५४ ।। तस्सेव य वरसिस्सो सिद्धतमहोदहिम्मि धुयकळुसो । णवणियमसीलकालदो गुणउत्तो सयलचंद गुरू १५५
१'एयारसगधारी' भी पाठ है. २'भउ' पाठ द्वितीय पुस्तक में है। ३ किंचिद्देस भी है।
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड १
तस्सेव य वरसिस्सो णिम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो । सम्मदंसणसुद्धो सिरिणंदिगुरु त्ति विक्खाओ || १५६ || तस्स णिमित्तं लिहियं जंबूदीवस्स तहय पण्णत्ती । जो पढइ सुणइ एदं सो गच्छइ उत्तमं ठाणं ॥ १५७ ॥ पंचमहव्वयसुध्दो दंसणसुद्धो य णाणसंजुतो । संजमतवगुणसहिदो रागादिविवज्जिदो धीरो || १५८ ॥ पंचाचारसमग्गो छज्जीवदयावरो विगदमोहो । हरिस विसाय- विहूणो णामेण य वीरणंदिति ॥१५९॥ तस्सेव य वरसिस्सो सुत्तत्थवियक्खणो मइप्पगब्भो । परपरिवादणियत्तो णिस्संगो सव्वसंगेसु ।। १६० ।। सम्मत्तअभिगदमणो णाणेण तह दंसणे चरिते या परतंतिणियत्तमणो- बलणंदि गुरु त्ति विक्खाओ । । १६१ ।। तस् य गुणगणकलिदो तिदंडरहियो तिसल्लपरिसुद्धो । तिष्णवि गारवरहियो सिस्सो सिद्धंतगयपारो । १६२ ।। तवणियम जोगजुत्तो उज्जुत्तो णाणदंसणचरिते | आरंभकरण रहियो णामणे य पउमणंदीत्ति ।। १६३ ।। सिरिगुरुविजयसयासे सोऊणं आगमं सुपरिसुद्धं । मुणि- पउमणंदिणा खलु लिहियं एयं समासेण ॥ १६४ || सम्मद्दसणसुद्धो कदवदकम्मो सुसीलसंपण्णो || अणवरयदानसीलो जिणसासणवच्छलो वीरो || १६५|| णाणागुणगणकलिओ णरवइ संपूजिओ कलाकुसलो || वाराणयरस्स पहू णरुत्तमो खत्तिभूपालो ।। १६६ ।। पोक्खराणि – वावि-पउरे बहुभवणविहूसिए पर मरम्मे । णाणाजण संकिण्णे धनवन्नसमाउले दिव्वे ।। १६६ ।। सम्मादिजिणोघे मुणिगणणिवहेहि मंडिए रम्भे । देसम्म पारियते जिणभवणविहूसिए दिव्वे ।। १६८ ।। जंबूदीवस्स तहा पण्णत्ती बहुपयत्थसंजुत्तं (त्ता ) । लिहियं संखेवेणं वाराए अच्छमाणेण || १६९ ।। छद्दमत्थेण विरइयं जं किंपि हवेज्ज षवयणविरुद्धं । सोद्धं तु सुगीदस्था तं पवयण वच्छलत्ताए ।। १७० ।।
X
X
X
X
X विउध-वइ-मउड-मणिगण-कर-सलिलसुधोयचारु पयकमलं । वरपडमणंदि णमियं वीर जिनिंदं णमंसामि ।। १७६ ।।
इय जंबूद्दीवपण्णत्तिसंगहे पमाणपरिच्छेदो णाम तेरमी उद्देसो सम्मत्तो ॥ १३ ॥
४' र ' पाठ पुनेकी प्रतिमें है 1
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गिरनार पर्वत - पंचमी टोंक.
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खंड १ ]
( ६ )
१ )
27
39
13
मूल
वस्तु
जैन दर्शन अथवा आर्हत दर्शनना तत्त्वज्ञाननो पायो सप्तभंगी उपर रचाएलो छे. सप्तभंगी एटले तत्त्वना स्वरूपनो संपूर्ण विचार प्रदर्शित करवा माटे योजेली सात प्रकारनी वाक्यरचना. ते आ प्रमाणे छे:( १ ) [ वस्तु ] कथंचित् छे.
( २ )
नथी.
( ३ )
( ४ )
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|| नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय |
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गुजराती लेख विभाग
सप्तमं गी
सत्-असत्-तत्त्वमूलक प्रमाण पद्धति [ ले० अध्यापक रसिकलाल छोटालाल परीख. बी. ए. ]
* संस्कृत वाक्यो आ प्रमाणे:
( १ ) स्यादस्ति
(२) स्यान्नास्ति
(३) स्यादस्ति नास्ति
छे अने नथी. अवाच्य छे.
छे अने अवाच्य छे.
अथवा
नथी अने अवाच्य छे.
छे, नथी, अने अवाच्य छे.
(४) स्यादवक्तव्यम्
(५) स्यादस्ति अवक्तव्यम् च (६) स्यान्नास्ति अवक्तव्यम् च
( ७ ) स्यादस्ति नास्ति वक्तव्यं च
[ अंक ४
आ प्रमाणे सप्तभंगीनी वाक्यरचना छे. सामान्य वाचकने बहु विचित्र, निरुपयोगी अने हास्यजनक लागे तेषु तेनु बाह्य स्वरूप देखाय छे. परंतु गंभीर विचारपूर्वक जो ते संबंधी ऊहापोह करवामां आवे तो तेमां रहेलां तत्त्वो सर्वसाधारण अने सर्वव्यापी छे एम स्पष्ट जणाई आवशे. ए विचार पद्धतिमां सत्-असत् अनेक धर्मवत्त्व, अने एक वाक्य एक समये एक धर्मनो निर्देश ज करी शके; ए तत्त्वोनो अन्तर्भाव थएलो छे. ए तत्त्वोए आ विशिष्ट स्वरूप क्यारे अने कई परिस्थितिमां धारण कर्य तेनो निर्णय करवो हजी सुलभ नथी. परंतु जैन न्यायशास्त्रना अध्ययन उपरथी तेनो विकास अने प्रयोजन तो आपणे चोक्कस जाणी शकीए तेम छीए.
जैनोना आ विशिष्ट सिद्धान्तना इतिहास विषे हालमां हूं आटलं जणावी शकुं छु : - उत्तराध्ययन सूत्रमां एनो निर्देश नथी. भद्रबाहुनी आवश्यक सूत्रनी नियुक्तिमां
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जैन साहित्य संशोधक
पण एनो उल्लेख दुर्लभ छेतत्त्वार्थाधिगम सूत्रमा पण सौ कोई सहेलाईथी समजी शके छ के वस्तु सत्स्वरूते उपलब्ध नथी. पण आना जेवी देखाती चर्चा झग- प छे. पण वस्तु असत्स्वरूप छे अने वळी एक साथे ते वती सूत्रमा मळी आवे छे. नयचक्रना कर्ता मल्लवादी सदसद्रूप छे, एम सांभाळीने तो घणा डाह्या माणसो " नय" ना सिद्धान्त माटे आगम प्रमाण आपती आश्चर्य पाम्या वगर रहे नहि. ज्यारे एलीयाना मुसाफरे वखते भगवती सूत्रना केटलांक वाक्यो टांके छे. गौतम थीएटेटसने कह्यं के “ अमुक अर्थमां" असत् छे, गणधर भगवान महावीरने पूछे छे 'भगवन् ! आत्मा अने “ सत् " नथी'" त्यारे तेना मननी स्थिति एवीज ज्ञान [ मय ] छे के नहि ? ' स्वामी समझावे छे थई हो. एने जो एम कहेवामां आव्युं होत के “ सद'गोतम ! नियमे करीने ज्ञान [मय ] छे. कारण के, सद्रूपं वस्त्वङ्गीकर्तव्यम् ” त्यारे पण तेना मनमा एवोज ज्ञाननी आत्मा विना वृत्ति देखाती नथी; पण आत्मा ज्ञान भाव थात. परंतु असत् अथवा अभाव शब्दनो अर्थ पण होय अने अज्ञान पण होय (आया पुण सिय जरा वधारे उंडाण साथे समजवामां आवे तो आ बाबत णाणे सिय अन्नाणे )"" अहिं आ 'सिय' शब्द ए समजवी सहेली थई पडे. प्लेटो ना सोफीस्ट नामना 'स्यात् ' नुं प्राकृत रूप छे, ते लक्षमा राखवा जेतुं छे. संवादमां एलीयानो मुसाफर कहे छ के-"ज्यारे आपणे आ उपरथी जणाय छे के, आ सिद्धांतना बीज जो के असत् विषे बोलीए छीए त्यारे, हुं धारु छ के, आपणे जुना आगमोमां मळी आवे ए शक्य छे, छतों आ सत्थी विरुद्ध एवी कोई वस्तु विषे बोलता नथी पण विशिष्ट स्वरूप तो तेना करतां अर्वाचीन छे. आ सिद्धांत आपणे फक्त अन्यना अर्थमां वापरीए छाएँ.” एना आ स्वरूपमां तो सौथी पहेलो कुंदकुंदाचार्यना न्यायदर्शनमा चार प्रकारना अभाव मानेला ठे-१) पंचास्तिकायमा अने प्रवचनसारमा मळी आवे छे. प्रागभाव, २) प्रध्वंसाभाव. ३) अत्यन्ताभाव अने दिगंबरो कुंदकुंदाचार्यने घणा प्राचीन गणे छ ४) इतरेतराभाव. आमा पहेला त्रण वस्तुना स्वरूपन तेमनी परंपरा प्रमाणे तेओ विक्रमनी पहेली शता- लगता छे ज्यारे इतरेतराभाव ए अन्य वस्तुनी अपेक्षाए ब्दीमां थएला छे. ते पछीना तो जैन न्यायना-श्वेतांबर तेनो अभाव छे. आ तत्त्व वस्तुओने तेमना विशिष्ट अने दिगंबर बनेना-प्रत्येक ग्रंथमा ए सिद्धान्तनी स्फुट स्वरूप अर्पे छे अने आ अर्थमां जैन आचार्यों कहे छे के चर्चा मळी आवे छे अने तेना विषयमा दरेकनो समान वस्तु सदसद्रूप छ, सत्-स्वभावनी अपेक्षाए; अने असत्मत छे.
अन्यवस्तुनी अपेक्षाए. आ सिद्धि करवा जैन आचार्यो ___ आ सिद्धान्तनी प्रमाणनी दृष्टिए चर्चा कर्या पहेलां जेवी रीते चर्चा . करे छे अने जे प्रमाणो आपे छे ते तेमां वस्तुस्वरूपना जे तत्त्वो रहेलां छे तेनी चर्चा कर्याथी जाणवा जेवा छे. तेथी तेनु संक्षिप्त स्वरूप हं अहिंया विषय समजवामां वधारे सरळता थशे.
- आपुं छं. १ सर्वनयानां जिनप्रवचनस्यैव निबन्धनत्वात् । किमस्य निबन्धनमिति चेत्-उच्यते-निबन्धनं चास्य 'आया भन्ते नाणे ३."....... In certain sense not-being is. अन्नाणे ' इति स्वामी गौतमस्वामिना पृष्टो व्याकरोति 'गोदमा and that being, on the other hand, is णा नियमा।' अतो ज्ञानं नियमादात्मनि । ज्ञानस्यान्यव्य- not." पा. ३७० वा.४ The Dialogues of तिरेकेण वृत्त्यदर्शनात् ।
Plato- (त्रिजी आवृत्ति.) - आया पुण सिय णाणे सिय अन्नाणे ।'
8" When we speak of not-being, -नयचक्र, द्रव्यार्थस्यादस्ति प्रकरणने अंते. मा उतारामाटे
we speak, I suppose not of something हुँ पूज्य मुनिश्रीजिनविजयजीनो आभारी छु. २पंचास्तिकाय, अधिकार १, गाथा ८, १४. प्रवचनसार,
opposed to being, but only different." स्कन्ध २, गाथा २२-२३.
पा. ३६१ वा. ४. Dialogues of Plato.
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अंक
सप्तभंगी
अष्टसहस्रीना कर्ता विद्यानन्दी कहे छे के " तेमां सत्त्व ' वस्तु धर्म छे; तेनो अस्वीकार करतां गधेडाना सांगडानी माफक वस्तु वस्तुत्व विनानी थई जाय छे ते प्रमाणे कथंचित् असत्व 'छे, कारण के स्वरूपा दिथी जेम सत्त्व अनिष्ट नथी तेम पर रूपादिधी पण अनिष्ट न होय तो प्रतिनियत स्वरूपना अभावथी वस्तु प्रतिनियमनो विरोध थाय तेथी" ( एम मानवुं जोईए के स्वरूपनी अपेक्षाए जेम सत् इष्ट छे तेम पररूपादिनी अपेक्षाए नथा.)
6
अनेकान्तजयपताकाना कर्ता हरिभद्र सूरि कहे छे के " ते ( वस्तु) स्वद्रव्य क्षेत्र -काल-भाव-रूपे सत् छ, अने-परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भावरूपे 'असत् ' छे. तेथी ते 'सत्अने' असत् छे. नहिं तो तेना अभावनो प्रसंग आवे (घटादिरूप वस्तुनो अभाव थाय) एटले के-जो ते जेम स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव रूपे ' सत् ' छे, तेम परद्रव्यादिरूपे पण होय, तो ते घट वस्तुज न थाय. कारणके ते परद्रव्यादिरूपे पण, तेनाथी अन्य पोताना स्वरूपनी मा फक, हयात छे. ते प्रमाणे जो जेम परद्रव्य क्षेत्र काल भावरूपे ते ' असत् ' छे तेम स्वद्रव्यादिरूपे पण ' असत् ' होय, तो एम पण गधेडाना सींगडानी माफक घट वस्तुज न चाय. आ प्रमाणे तेनो (वस्तुनो) अभाव थाय तेथी सदसद्रूप ज कबुल करवी जोईए.
से
११६
૧૯૭
ते कहे छे के जो आ तस्व स्वीकारवामां न आवे तो एक ज घटादि वस्तु सर्वत्र व्यापि अने तेथी एक वस्तु सर्व पदार्थ थवा नो दोष नीपजे, "
५ तत्र सत्वं वस्तुधर्मः, तदनुपगमे वस्तुनो वस्तुत्वायोगात्, खरविषाणादिवत् । तथा कथंचित्वं स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभि रपि वस्तुनो सानो प्रतिनियतस्यरूपाभावा वस्तुप्रति नियम विरोधात् । अष्टसहस्री पृ. १२६
६] यतस्तत् क्षेत्रकालभावरूपेण सद्यर्तते, परद्रव्यक्षेत्र कालभावरूपेण चासत् । ततश्च सच्चासच्च भवति । अन्यथा तदभाव - प्रसंगात् । ( घटादिरूपस्य वस्तुनोऽभावप्रसंगात् ) इत्यादि । अनेकान्तज्जयपताका, पृ० ३०
जोसेफ ' Introduction to Logic' नामना पोताना ग्रंथमां पण आज मुद्दानी वात करे छे. ते कहे छे के " निषेधात्मक वचनेने आपणे वस्तुओनो वास्तवि क व्यवच्छेद दशीवनार गणवं जोईए अमुक धर्मोनी अने अस्तित्वना अमुक प्रकारोनी परस्पर व्यवच्छेदकता ए निषेधमा रहे वास्तविक सत्य से जो एम न होय तो दरेक वस्तु दरेक अन्य वस्तु धई जाय एटले के अस्तित्वना आ विविधप्रकारना जेटली विध्यात्मक थई जाय. ११८
......
हरिभद्रसूरि या प्रमाणे वस्तुतत्त्वनी दृष्टिए ऊहापोह करी तेनी सदसदात्मकता सिद्ध करी ज्ञान तत्त्वनी दृष्टिए पण एज बाबत सिद्ध करे छे. 'स्वपररूपानुवृत्तव्यावृत्तरूपमेव तस्त्वनुभूयते । ' स्वरूपे अनुवृत्त अने पररूपे व्यावृत्त ज अमुक वस्तु अनुभवाय छे. टुंकामां एमना कारणो आ प्रमाणे छे. प्रथम तो संवेदन वस्तु छे. अने वस्तु उभय रूप छे, माटे ते पण उभय रूप छे.' आनो अर्थ आपणे एम ज करवो जोईए के अमुक संवेदन स्वरूपे सत् छे अने अन्य संवेदन दृष्टिए असत् छ. एटले आ पण वस्तु तस्य विचारमां ज समाई जाय छे. पण
6
66
तेज ग्रंथम अन्य स्थाने हरिभद्रसूरि जणावे छे के 'न हि स्वपरसत्ताभावाभावरूपतां विहाय वस्तुनो वि ७ तदा यथा स्वयपेक्षया सत्वं तथा परमव्यायपेक्षयापि शिष्टतैव सम्भवति । स्वसत्तानो भाव अने परसत्तानो सत्यं तथा सदेव घटादि वस्तु प्राप्नोति । ' ततश्च सर्वअभाव न होय तो वस्तुनी विशिष्टतानो ज सम्भव नथी" पदार्थापत्तिलक्षण दूषणमा पद्येत । प्रमेयरत्नकोष, ० पृ० <." Hence we प्रमेयरत्न कोषमा चन्द्रप्रभसूरि आ ज तत्त्व दर्शवे छे. must accept the negative Judgment as expressing the real limitation of things. The reci procal exclusivness of certain attributes and modes of being is the real truth underlying negation But for that every thing would be every thing else; that is as positive as these several modes of themselves. " पृष्ठ १७२-१७३.
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[खंड,
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बाह्य विषयनी दृष्टिए पण वस्तु-अनुरूप-संवेदन पण उपर जे अवतरणो आप्यां छे ते उपरथी जैनाचार्योउभय रूप ज छे. "आगल रहेलो घट पोताना भाव अने नो वस्तुस्वरूपविषयक ख्याल स्पष्ट थाय छे. प्लेटोना इतरना अभावना अध्यवसाय एटले के निर्णय रूपे ज शब्दोमां ते नीचे प्रमाणे मूकी काय "त्यारे अभाव गति
ओळखाय छे..........सदसद्रूप वस्तुनु केवल सदा- अने अन्य पदार्थ वर्गमा छे, कारण के अन्यत्व ते सर्वत्मक ज्ञान खरूं ज्ञान नथी. कारण के ते सम्पूर्ण अर्थर्नु मा व्यापी प्रत्येकने अस्तित्वथी अन्य करे छे. एटले के प्रतिभासन करतुं नथी. जेम नरसिंहना रूपनुं ज्ञान 'असत् ' करे छे. अने तेथी आ रीते आपणे ते बधा केवल सिंहना ज्ञानथी पूरूं थतुं नथी. अने आ प्रमाणे विषे आस्तिकताथी कही शकीए के ते बधा 'असत्' उभयनो प्रतिभास करतुं ज्ञान न थाय एम नथी, कारण छ अने वली तेओ अस्तित्व वाळा छे माटे एम कही के संवित्ति तदन्य-विविक्तताथी विशिष्ट छे (एटले के शकाय के ते सत् छे." अन्य पदार्थथी जे भिन्नता, तेनाथी विशिष्ट छे) अने तदन्य विविक्तता एटले अभावे."
आ प्रमाणे वस्तुना सदसदात्मक स्वभावनी समजणथी
सप्तमङ्गानुं एक तत्त्व सुगम थाय छे. तेमां बीजू जे ९.........सदसद्रूपस्य वस्तुनो व्यवस्थापितत्वात् । संवेदनस्या.
तत्त्व रहेलुं छे ते अनेकान्ततानुं छे. म्हारा समजबा प्रमाणे पि च वस्तुल्यात् । तथा युक्तिसिद्धश्च । तथाहि संवेदनं पुरोऽवस्थित
आ तत्त्व जैन तत्त्वज्ञानना इतिहासमा ‘सदसत् ' घटादा तदभावेतराभावाध्यव सायरूपमेवोपजायते ।......न च सदसद्रूपे वस्तुनि सन्मात्रप्रातभीस्वये तत्त्वतस्तत्प्रतिभास्येव, ना करतां वधारे प्राचीन हशे अने जैन मार्गनुं तेना संपूर्णाप्रतिभासनात्, नरसिंह-सिंहसंवेदनवत् । न चैतदुभयप्रति उत्पत्तिना समयमां विशिष्ट लक्षण हशे. विक्रम पूर्वनी भास न संपद्यते तदन्यविीवक्तताविशिष्टस्यैव संवित्तेः । तदन्यावेविक्ताचाभावः । अनेकांतजयपताका. पृ. ६३.
पांचमी अने छठी शताब्दिमां आर्यावर्तमां अनेक मतो आ साथे जहॉन केर्डना नीचना विचारो सरखावा जेवा छे:- अने सम्प्रदायो उत्पन्न थया हता; ते समए आ अनेक
Nor, again, can you reach this unity अने केटलीक वार विरुद्ध तत्त्वोने प्रत्येकनी दृष्टिए merely by predication or affirmation, by asserting, that is, of each part or
ence it at once is and is not; it is in member that it is and what it is. On the contrary, in order to apprehend it,
giving up or losing itself; its true being
is in ceasing to be. Its notion includes with your thought of what it is you must in seperably connect that also of what
negation as well as affirmation." An
Introduction to the Philosophi of Reit is not. You cannot determine the particular number or organ save by re
ligion, P. 219. ference to that which is its limit or 90. Then not-being necessarily exists negation. It does not exist in and by in the case of motion and of every class; itself, but in and through what is other for the nature of the other entering into than itself... ... It can exist only as it them all, makes each of them other than denies or gives up any seperate self- being and so non-existent; and there. identical being and life-only as it finds fore, of, all of them, in like manner, its life in the larger life and being of the we may truly say that they are not; and whole. You cannot apprehend its true again in as much as they partake of nature under the category of Being being, that they are and are existent alone, for at every moment of its exist- पा. ३९१. Dialogues of Plato. Vol. IV.
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AnnanoomranAAAAAAAAmmanm nanAmAnnanorammarmonormanoranAAAAAA
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भक ४]
सम्भग्री जोई तेनो समन्वय जैन दर्शने अनेकांतता द्वारा कर्यो ग्रीक फीलसुफ प्लेटोनी, वस्तुनी सदसदात्मकता होय एम मानवाने वांधो लागतो नथी.*
विषेनी मान्यता आपणे पहेलां जोई गया. अनेकान्तता आ तत्त्व समजबुं बहुज सहेलुं छे; अने जैन तत्त्वज्ञान विषे पण तेनी आने मलतीज मान्यता छे अने ते आ ते वडे व्याप्त थएलुं छे. प्रमितिनी दृष्टीए कहीए तो एक प्रमाणे छःवस्तुविषे अनेक धर्मोनो आरोप करवो शक्य छ, वस्तुनी " एलीयानो मुसाफर-अनेक वस्तु विषे आपणे दृष्टीए कहाए तो वस्तु अनेक गुणमय छे अने अनेक शी रीते अनेक धर्मोनो आरोप करीए छीए, ते बाबत पर्यायो धारण करे छे. वस्तु स्वभावना आ तत्त्वना आपणे विचार करीए. स्वीकारथी कोई पण प्रकारना सदैकान्तिक के अस- थीएटेटस-उदाहरण आपो. दैकान्तिक मतथी आ सिद्धान्त स्पष्ट रीते जुदो पडी मुसाफर-उदाहरण तरीके हूं एम कहेवा. मांगु छु जाय छे.
के एक माणस विषे आपणे अनेक नामो वडे व्यवहार आपणे जोई गया के जैनाचार्यो वस्तुनो स्वभाव करीए छीए-एटले के तेने विषे रंग, रूप, पारमाण, सदसदात्मक सिद्ध करे छे. आ सिद्धान्तमाथी सामान्य गुण अने दोषादिना आरोप करीए छीए. आमां अने । अने विशेषनो सिद्धान्त सहेलाई थी निपजावी शकाय बीजा सेकडो उदाहरणोमा आपणे तेने माणस कहीए छे. कारण के वस्तुना सामान्य गुणो 'सन्मूलक' अने छीए एटलुज नहीं पण तेने ते भलो छे' अने एवा विशेष गुणो 'असन्मूलक' छे. ( असत् शब्दनो अर्थ अनेक गुणवालो छ एम कहीए छीए. अने ए ज उपर जणाव्या प्रमाणेज लेवानो ) शाथी जे, वस्तु रीते हर कोई वस्तु जेने आपणे शरूआतमा एक धारता अमुक विशिष्ट वस्तु बीजी वस्तुओ नथी तेना वडे छे. होईए छाए तेने आपणे अनेक कहीए छीए अने अनेएटले के विशिष्टतानो आधार 'असत् ' उपर छे, क नामो वडे तेनो व्यवहार करीए छीए. अने तेथी जैनाचार्यो कहे छे के वस्तु सामान्य विशेष थीएटेटस-बराबर छे.१२ मय छे. 'सत्कार्य ' अने ' असत्कार्य ' नो सिद्धान्त - पण आमांथी ज निकली शके छे. अमुक वस्तु अथवा
93. Tel.-Dialogues of Plato-Vol. iv. कार्य पोताना कारणमां ऊर्ध्व सामान्य पुरतुं तो केज पा. ३८३ (आवृत्ति त्राजी.) अने पोताना विशेष वडे पोताना कारणमां नथी. तेथी Str. Let us enquire, then, how we कारणमा कार्य सत् अने असत् बन्ने छे. आवां अनेक come to predicate many names of the द्वन्द्वो जैनाचार्यों घटावे छे अने चन्द्रप्रभ सूरिना शब्दोमां
same thing.
Theart. Give an example. कहीए तो " वयं खलु जैनेन्द्राः एकं वस्तु सप्रति
Str. I mean that we speak of man. पक्षानेकधर्मरूपाधिकरणं ' इत्याचक्ष्महे । " अमे जैनेन्द्रो
FAST for example under many names-that we एक वस्तु प्रतिपक्ष युक्त अनेक धर्मोनुं अधिकरण छ एम -attribute to him colours and forms and मानीए छीए." ११
magnitudes and virtues and vices, in
all of which enstances and in ten thouप्रारंभना समयमा एम-झेय के न होय तो पण सिद्धसेन
sand others we not only speak of him दिवाकरना न्यायावतार उपर टीका करनार सिद्धर्षि आरीते अनेकान्तवाद ने समजावे छे. लेखक.
as a man, but also as good, and having ११ सरखावो- अनेकात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् ।
numberless other attributes; and in न्यायावतार.-वळी ' तंदेवमनेकधर्मपरीतार्थग्राहिका बुद्धिः
the same way anything else which we प्रमाणम् । न्या टीका.
originally supposed to be one is describ.
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अहिं एक बाबत विषे सावधान रहेवानी जरूर छे. अनेकान्तताने अनिर्धारणात्मकता के अनिश्चितस्वरूपता गणवानी भूल थई जवानो संभव छे. म्हारा समजवा प्रमाणे जैनाचार्यो कदी पण कहेता नथी के वस्तुनुं स्वरूप अनिश्चित के अनिर्धारणात्मक छे. शंकराचार्ये स्याद्वादना खंडनमां आज मूल करी है. डॉ. बेलवेल - कर जेवा विद्वाने पण आ भूलनुं अनुसरण कर्यु छे. जैनाचार्यो फक्त एटलुं ज कहे छे के वस्तु अनेक धर्मात्मक छे; अने एक वखते एक ज धर्मनो निर्देश थई शके. ते - थी एक वाक्यमां बस्तु स्वरूपनुं संपूर्ण कथन करवुं अशक्य छे. बस्तु स्वरूप निश्चित ज छे. पण साधारण माणस अने सर्बशमां ए अन्तर छे के सर्वज्ञ सर्व पदार्थो ने संपूर्ण रीते एना विविध स्वरूपमां एक साथे जाणे छे न्यारे साधारण माणक्ष एक वस्तुने पण पूर्ण रीते
जाणी शकतो नथी. पण वस्तुनुं आ स्वरूप ध्यानमां रहे तेथी तेओए बाक्य रचना एवी करी छे के उपर उपरथी जोमारने एम लागे के आ बधां वाक्यो संशयमूलक छे. पण वस्तुस्थिति एम नथी ए अकलंकदेवना तत्त्वार्थ सूत्र उपरना राजवार्तिकना नीचेना वार्त्तिको थी स्पष्ट थाय छे.
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संशयहेतुरिति चेन्न विशेषलक्षणोपलब्धेः ( सू. ६ वा. ५ )
तेना उबर टीका आ प्रमाणे छे. इह प्रत्यक्षाद् विशेषाप्रत्यवाद् विशेषस्मृबेश्च संशयः । .मच तद्वदने कान्ववादे विशेषानुपलब्धिर्मतः स्वपरायादेभवशीकृता विशेषा उक्ता । व्यक्ताः प्रत्यर्थ मुपलभ्यन्ते |
'जो कोई एम कहे के सप्तभंगी संशयनो हेतु छे तो तेम नथी. - शाथी जे विशेष लक्षणनुं ज्ञान थाय छे "
यां [ अमुक ] प्रत्यक्ष थवाथी [ जेना बडे बस्तु निश्चय थाय ते ] विशेष न देखावाथी अने विशेषोनी
ed as many, and under many names. Theart. That is true.
१३ प्रवचनसार, १-५२
[ खंड ४ स्मृति थवाथी संशय थाय छे.. . ते प्रमाणे अनेकान्तबादमां विशेषनी उपलब्धि थति नथी एम नथी; शाथी जे स्वादेश अमे परादेश ने वशेकरी विशेषो प्रत्येक अर्थमां कहेला अथवा सूचवेला ( व्यक्त ? ) जणाई आवे छे. आगल कहे छे.
" विरोधाभावात् संशयाभाव: " । सू. ६, वा. ५ [ विशेषोमां ] विरोध न होवाथी संशयनो अ
भाब छे "
“ अर्पणाभेदादविरोधः पितापुत्रादिसंबंधवत् । सू. ६ बा. १०
" अर्पणाना भेदथी ( एटले के दृष्टिबिन्दुना भेदथी ) विरोध रहेतो नथी. एक ज माणसने विषे पिता पुत्र विगेरेना संबंधनी माफक ( जैम एकज माणसने जुदा जुदा संबंधनी जुदी जुदी दृष्टि अथवा अर्पणा वडे पिता पुत्र भाई इत्यादि कहेवामां विरोध नथी ते स्व अने परना दृष्टि बिन्दुथी सत् अने असत् कहेवामां विरोध नथी. )
आ प्रमाणे आपणे सप्तभङ्गीना सिद्धान्तना आधार रूप में तत्त्वो जोबा. आ तत्त्व विचारमाथी बे बाबत स्पष्ट थई आवे छे: - एक तो सप्तभंगीनी वाक्यरचनामां 6 सत् ' अने ' अस्मत् ' नो शो अर्थ छे ते, अने बीजी स्यात् ' शब्द प्रत्येक वाक्यना प्रारंभमां केम मुकवमां आवे छे ते.
"
स्यात् ए सर्वथात्वनो निषेधक अने अनेकान्तता द्योतक कश्वित् अर्थमां वपरातुं अव्यय छे. जे तस्वज्ञो वस्तुने अनेक धर्मात्मक मानता होय अने एम मानता होय के तेना निरूपणमां वपरातां वाक्योमां एक साथ एक ज बाबतनुं निरूपण थई शके; तेओ अनेकान्तता सूचक आवो कोई शब्द मुंके ए स्वाभाविक छे. जो के एम कर्याथी ते वाक्यो संशयात्मक देखाय छे अने वांचनारने भ्रमणामां नाखे छे. परंतु एम
१४ अत्र सर्वधात्वनिषेधको ऽनैकान्तिकताद्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छन्दो निपातः । पंचास्तिकायटीका पृ० ३०.
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सप्तभंगी
अंक ४]
शके.
कर्यानोमोटो फायदो ए छे के माणस कदाग्रही न थई करबा प्रयास कर्यो होत तो ते वधारे योग्य कहेवात. तेमजे करेल खंडन तो भूलु अने भ्रमणा उपर राम छे. हवे सप्तमंगीनो प्रमाण पद्धतिमी दृष्टिष्ट विचार करीए अने आ विश्वारो आ विशिष्ट रूपमां का प्रयोजनथी मुकाया ते पण जोईए.
सप्तभङ्गीनुं बधारे पृथक्करण कर्यो पहेला शंकराचायें तेनुं जे खंडन कर्यु छे तेनो टुंकामां उल्लेख करी जईए. सौथी प्रथम तो जणावद ए छे के तेमणे पूर्व पक्ष नुं कथन पूरेपूरू कयूँ नथी. सप्तभङ्गीनुं स्वादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादिथी वर्णन करती वखते तेमणे ' स्वरूपेण
अने ' पररूपेण 'ए अगत्याना शब्दो होडी दीधा छे. जो ए ध्यानमां होय तो ते छोड़वायांनी पण शंकराचार्ये ए बाबत उपर लक्ष्य ण नयी आयु. आप्युं अने एमनुं आखुं खंडन आ भूल उपर रचायेलुं छे. एमनो पहलो बांधो एछे के " एक धर्ममा एक साधे असत्त्वादिविरुद्ध धर्मनो समावेश सम्भवे नहिं शीतो जनी माफक १,१५
पररूपेण ए
शब्दो
'
16
जो शंकराचार्ये स्वरूपेण अने ध्यानमां लीवा होत अने सत् अने असत् शब्दने पूर्व पक्षीना अर्थमा समजवा प्रयास कमी होत तो तेमने समजात के 'सत् अने 'असत् ' एटला बघा विरोधी नथी. बीजो वांधो ए छे के जेनुं स्वरूप अनिर्धारित छे ते ज्ञान संशयनी माफक प्रमाण न भाय. आ अने बीजा वांधाओ अनेकान्तताने अनिर्धारणात्मक मणवानी अने संशयमूलक गणयानी भूलने परिणामे छे. तेनो रदियो अकलङ्कदेवना उपर आपेला बार्तिकमां आधी जाय छे. त्रीजो वांधो उपर जणाव्युं ले प्रमाणे अनेकान्तताने जे अनिर्धारणात्मक गणवामां आवे छे से धोधो ए छे के प्यारे वस्तुने वक्तव्य कहो छो त्यारे मळी शी रीते ते अवक्तव्य कहेवाय. आ केवल शब्दखल छे.
शंकराचार्यना मत मने जैनमत रथे विरोध बन्नेना वस्तुस्वभावना ख्यालमा छे. शंकराचार्य जगत्ने एक मात्र ब्रह्ममय माननार छे ज्यारे जैन अनेकान्त तत्त्वनुं प्रतिपादन करे छे. तेथी शंकराचार्ये जो आ दृष्टिए खंडन
.
•
प्रथम प्रश्न ए छे के प्रमाण पद्धतिमी दृष्टिए खाते भंगो आवश्यक छे ? एटले के वस्तुस्वभाव नक्की करवा माटे सातेमी आवश्यकता छे ? मा बाबत तो स्पष्ट के के एक विधान एक वखते एक ज निर्देश करी शके. विध्यानफ के प्रतिमेवात्मक सथला विध्यात्मक वाक्योनो एक बर्ग अने निषेधात्मकनो एक वर्ग करी आपणे विध्वात्मक वर्गने विधि-विधान कहीए अने निमेवात्मक वर्मने निषेध-विधान कही. इवे मन ए छे के वस्तु समप्रश्न जबा माटे आवा केटला विभामांनी जरूर छे. स्वाभाविक रीले प्रथम वस्तु पोते शुं छे तेमो निर्णय करीए. ए दृष्टि
"
"
"
6
स्यादस्ति वाक्य बराबर के पछी वस्तु झुं नथी ते मक्की करीए अने ते दृष्टिए स्वान्नास्ति मङ्ग बराबर बन्नेमाथी नीपन वस्तुस्वरूप स्वादस्ति छे. आ नास्लि' ते द्विवाक्यात्मक मंगभी दर्शावी शकाम. या प्रथम त्रण मंगोनी जरूर हो ' स्थादस्ति स्वरूपेण घट: ; स्वान्नास्ति पररूपेण घटः; अने स्यादस्ति 'नास्ति क्रमेण' थी समणी शकाय चोथो मङ्ग स्वादवतव्य ' छे. आ भाषा तत्त्वनी दृष्टिए समणी शकाय तेम छे. एक वखतेएक ज वाक्यमां विधि अने प्रतिषेध थई शके नहि. तेथी ते अपेक्षा समने वस्तु अवन कहे
पण सप्तभंगीमा निरूपण वीभुं पण एक दृष्टिबिन्दु अने ते एछे के सप्तमंत्री अमुक प्रकारनी वाद पद्धतिमांची उत्पन्न भएकी छे भने आभी सक्षमंगी प्रयोजन विशेष समजाय के आ साधे गंगो सात प्रकारना अनोना
ܕ
१७ अतस्तदुभयात्म को सौ क्रमेण तच्छब्दवाच्यतामवस्कन्दन् स्वाद् घटश्वाघटश्चेत्युच्यते । यदि तदुभयात्मकं वस्तु घट इत्येबाच्वेस, इतरात्मासंग्रहादतत्वमेव स्वात् । अवापट व इत्युच्येत
१५ न ह्येकस्मिन् पाणि युगपत्सदसत्त्वादिविरुद्ध धर्म समावेशः घटात्मानुपादनावनृत्यमेव स्वान वस्तु तावदेषेति । न चान्यः शब्दसंभवति शीतोष्णवत् । शांकरभाष्य, २-२-२२, २३. स्तट्टमवात्मकावस्वतत्त्वाभिभाषी विमले SATS बचन गोचरातीतत्वात 'स्यादवक्तव्य ' इत्युच्यते । राजवार्तिक पू- ६०
१६ अनिर्धारितरूपं ज्ञानं संशयज्ञानवत् प्रमाणमेव न स्यात् ।
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड
उत्तर रूपे छे. आ बाबत अकलंकदेवे आपेला तेना लक्षण- भाग करे छे प्रत्यक्ष अने परोक्ष. परोक्षना पांच विभाग थी स्पष्ट थाय छे. "प्रश्नने लईने एक वस्तुमा अविरोध करे छे-स्मरण, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान अने आगम. थी विधि प्रतिषेधनी कल्पना ते सप्तभंगी" ( अविरोध- आगमन बीजुं नाम शब्द प्रमाण छे. आप्त वचनमाथी थी एटले दृष्ट अने इष्ट प्रमाण अविरुद्ध ). जे माणसे निपजतुं ज्ञान शब्द प्रमाण. ते वचन,वर्ण, पद अने वाक्योनुं सप्तभंगीनी प्रथम रचना करी हशे तेनो उद्देश ए शोधी बनेलं होय छे. शब्द स्वशक्तिथी अने समयथी ज्ञान कहाडवानो हशे के पुनरुक्ति कर्या विना माणस अमुक पेदा करे छे. आ पछी वचननो सप्तभंगी साथे संबंध वस्तु स्वभाव बिषे केटला प्रश्नो पूछी शके. ( अथवा तो दर्शावे छे. "दरेक जग्याए आ शब्द विधिप्रतिषेध वडे आपणे एम मानीए के सप्तभंगीनो विकाश धीमे धीमे पोताना अर्थने जणावतो सप्तमंगी ने अनुसरे छे." थयो तो जे माणसे छल्ला त्रणा वाक्यो उमेर्या हशे आ रीते आपणे जोई शकीए छीए के सप्तभंगीनो आगम तेनो उद्देश तो आवो ज कोई होवो जोईए.) दाखला अथवा शब्दप्रमाणमा समावेश थाय छे. . तरीके कोई एम पूछे के ' स्यादवक्तव्य ' ने आठमा
आ निबंधमां जेनुं विवेचन कयु छ तेने प्रमाण सप्तभंगी भंग तरीके केम स्वीकार्यों नथी ? तो एनो एवो जवाब
कहे छे. आने मलती ज बीजी एक सप्तभंगी छे ते नय अपाय के ज्यारे वस्तु विषे स्यादस्ति नास्ति कहेवामां
सप्तभंगी कहेवाय छे. प्रमाण अने नयमां ए तफावत आवे छे त्यारे ते वक्तव्य थाय छे. तेथी तेने आठमा भंग
छे के प्रमाण वस्तुना सकल स्वरूपनुं निरूपण करे छे, तरीके स्वीकारवानी जरूर नथी. आ रीते एक बाजुथी
ज्यारे नय वस्तुना अंश मात्रनुं करे छे. पण एनी सप्तमंगी सत् अने असत् विषे उत्पन्न थता सर्व प्रश्नो.
विशेष चर्चा आ निबंधमां थई शके एम नथी तेने माटे नो उत्तर आपी शके छे अने बीजी बाजुए केवल सत्
बीजो निबंध लखवानी जरूर रहे छे. इत्यलम्. असत् माननारनुं खंडन करे छे. छतांए मने एम
॥ ॐ शांतिः ।। लागे छे के प्रमाण पद्धतिनी दृष्टिए तो प्रथम त्रण ज भंग आवश्यक छ; चोथाने भाषा-दृष्टिए स्थान छे पण
१९ तत् ( प्रमाणं) द्विभेदं प्रत्यक्ष परोक्षं च । स्मरण-प्रत्यभिज्ञा छल्ला त्रणनों तत्त्वज्ञाननी दृष्टिए खास उपयोग
" तर्का-नुमाना-गमभेदतस्तल्पच प्रकारकम् । जणातो नथी."
२० आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। वर्णपदवाक्यात्मकं वच . हवे जैन प्रमाण शास्त्रमा सप्तभंगीतुं स्थान क्यां छे नम । स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनं शब्दः । सर्वत्रायं ते आपणे जाणवू जोईए. श्रीवादिदेवसूरि प्रमाणना बे ध्वनिविधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः सप्तभंगीमनुगच्छति,
ननु चोदाहृता नयसप्तभंगी, प्रमाणसप्तभंगीतस्तु तस्याः किंकृतो १८ 'सप्तविध एव तत्र प्रश्नः कुत इति चेत, सप्तविधजिज्ञासा. विशेष इति चेत् सकलविकलादेशकृत इति ब्रूमः। विकलादेशघटनात् । सापि सप्तधा कुत इति चेत्, सप्तधा संशयोत्पत्तेः । सप्त- स्वभावा हि नयसप्तभंगी वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात् । सकलादेशघघसंशयः कथमिति चेत्, तद्विषयवस्तुधर्मसप्तविधत्वात् । स्वभावा तु प्रमाण-सप्तभंगी यथावद्वस्तु प्ररूपकत्वात् । अष्टसहस्री, पृ. १२५
प्रमेयकमलमार्तड, पृ. २०६.
-- ननु चादीक्षा
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अंक
बे नवा क्षेत्रादेशः पट्टक बे नवा क्षेत्रादेश पट्टक
__पं. जयविजय ग. उ. श्री कल्याणविजय ग. सत्क गया अंकमां जे क्षेत्रादेश पट्टकोनी नकलो आपी
शमाणुं ? छे तेमां सौथी जूनो पट्टक वि. सं. १७७४ नी सा- .
पं. कमलविजय गणि हंसार १ महिम २ लनो छे. परंतु पाछळथी एक तेनाथी पण १०० वर्ष ऋ. पद्मकुशल गणि अभिरामाबाद १ जेटलो वधारे जुनो पट्टक मळी आव्यो छे जे अहिं
ऋ. रत्नविमल गाण मांडलि १ आपवामां आवे छे. ए पट्टक तपागच्छना सुप्रसिद्ध आ
ऋ. हर्षविमल गाण अणि आरं १ चार्य विजयसेन सूरि तरफथी संवत् १६६७ नी सालमां ऋ. लाभकुशल पर्वतसर १ लखाएलो छे. आ पट्टक फक्त मेवातदेश माटेनो छे. आ
ऋ. मुनि सौमाग्य ग. सेरपुर १ गरा अने तेनी आसपासना प्रदेशने ते वखते मेवात
ऋ. शिवविजय ग. टुंक १ देशना नामथी ओळखवामां आवतो हतो. संवत् १६६७
ऋ. कनकसागर मसूदुं १
ऋ. रविसागर ग. टोडा. १ तेमनां चातुर्मास स्थळो जाहेर करवा माटे आ पट्टक ल-.
ऋ. भोजविमल सिरवाडी १ खायो हतो; गुजरात के राजपूताना आदि बीजा देशो माटे नथी. तेथी आमां फक्त १७ यतियोनां नामोज आपवामां आव्यां छे. नहीं तो विजयसेन सूरिनो यति हालमां, पं. श्रीगुलाबविजयजीना शास्त्रसमुदाय तो लगभग बे हजार जेटली संख्या वाळो हतो. संग्रहमांथी एक बीजो पट्टक मळी भाव्यो छे आनी लंबाई ५ इंच अने पहोळाई ३४ ई. छे. पंक्ति जे आ नीचे आपवामां आवे छे. आ पट्टक सं. कुल २० छे.
१८४५ नी सालनो छे. ते वखते आचार्यपद पटकनी नकल
उपर विजयजिनेन्द्र सरि हता. र्द०।। श्रीहीरविजय सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः । संवत्
॥श्री॥ १६६७ वर्षे श्रीविजयसेनस्तिभिर्येष्ठस्थित्यादेशपट्टो लि- ॥ॐ || श्रीविजयधर्म सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः ख्यते ।। मेवात देशे ।।
___ सं. १८४५ वर्षे भ | श्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वर गुर्जर उपाध्याय श्री विवेक हर्ष ग० आगरुं १ पार २ देशे ज्येष्ठस्थित्या देश पट्टको लिष्यते ॥ उपाध्याय श्री भानुचंद्र ग० आगरामध्ये _ -- पं. सौभाग्यविजय ग | श्रीजीसपरिकरा सूरति १ नवपं. जयविजय ग. पं. विजयहंस सत्क सांगानेर १ सारी २ वसरावी ३ बोराकठोर ४ पं. हर्षविजयगाण नरायणुं १
- उ. श्रीषुशालविजय ग । वृद्धश्रीजी स.। पं. कल्याणचंद्र पं. भीमविजय ग. पं. यसविजय गणि सत्क मा. पं. खूषाल स । विरमगाम १ भोजया २ गोरीआ ३. लपुर १
. ठा ४ अस्मत् पार्थे । पं. महानंद गणि अलवर १.
पं. हितविजय ग । पं. हंसविजय ग । पं. सुजाण स । पं. घनचंद्र गणि रयवाडी तथा दिल्ली १
खंभात १ धारापरो २ वडोदरा ३
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड,
"सा
पं. न्यानविजय । पं. नेम स | पाटण १ कुणगर २ पं. लालविजय ग | पं. रत्न स । लींबडी १ अंचेवालीउं २ पं. जयविजय ग । पं. दीप स । राजनगर १ शरज २ पं. माणिक्यविजय पं. मोहन स । इलोल १ रायपर ३ प्रोसायो ४ नवोवास ५
पं. गुलालविजय ग | पं. राम स | सावली १ पं. भक्तिवि. । पं. कांति स | पं. कृष्णवि । पं. राज स । पं. लक्ष्मीविजय ग। पं. राम स + जामला ?
पं फतेवि । पं. कुसल स । राधनपूर १ कमालपूर२ पं. हेमविजय ग । पं. कपूर स | पंचासर १ मालोट ३ सोनेथ ४ धंधाणा ५
पं. घुश्यालविजय | पं. राज स । वडावली १ आंकरा २ पं. कल्यागवि | पं. प्रसिद्ध स । पं. जीन वि । पं. पद्म पं. जिनविजय ग | पं. जय स । दमण १ उडपाट २ स | चाणसमो १ कंबोई सोलंकीनी २
अगासी ३ पं. मोहनवि । पं. नय स । पं. पुन्यवि । पं. भक्ति स। पं. शांतिविजय ग | पं. रंग स | मावड १ गोठडा २
वीसनगर १ कडा २ जासका ३ गोठ्या ४ पं. भाग्यविजय ग । पं. श्रीजी स । वेंड १ पं. उत्तमविजय । पं. सुमति स । रानेर ठा ४ अस्मत् पं. उमेद विजय ग । पं. वृद्धि | आगलोड १ पार्श्व
पं. पद्मविजय ग । पं. उमेद स । मेंसाणा १ सामेपं. मुक्तिवि । वृद्धश्रीजी स । पं. डुंगरवि । पं. मुक्ति स तरा २ पादरु १
पं. लालविजय ग । पं. माणिक्य स | चीलोडो १ बदपं. रत्नकुशल | पं. विनित स । पं. न्यान पं. रत्न स । रघु २
वाराही १ धोलकडूं २ कोरडा ३ झझाम ४ - पं. हर्षविजय ग । पं. मोहन स । वडनगर १ उंमता २ पं. मनरूपसागर । पं. अनंत स | मालवदेशे
पं. हस्तिविजय ग | पं. रंग स । राणकपूर १ पं. कनकविजय | पं. शुभ स । पं. राजेंद्र | पं. कनक स । पं. ज्ञानविजय ग । पं. लक्ष्मी स. | साचोर १.---. मियांगाम १
पं. हस्तिविजय गः । पं. चतुर स । मातर १ वटापं. अमृतविजय ग । पं. विवेक स | भस्यश्च १ देज- दरं २ बारुं २
पं. सुबुद्धिविजय ग । पं. जीव स | शमी १ दूधषा २ अपं. षुशालविजय | पं. जिन स । सोरठदेशे
___णवरपूर ३ राफु ४ पं. षुश लविजय पं. ऋद्धि स । ध्रागधर १ सायला २ पं. वृद्धिविजय ग | पं. देव स | पं. तेजविजय । पं. रंग स । पालीयाद ३ मडढा ४
कंबोइ कोलीनी १ आंगणवाडू २ पं. राजवर्धन । पं. सकल स । पं. विवेकवर्धन । पं. मेघ पं. षुशालविजय ग । पं. कपूर स | केसरडी १ स | वढवाण १ पाणसाणा २
पं. कस्तूरविजय ग | पं. मान स । इटोलू पं. सुबुाद्धविजय पं. रुप स । हेवदपूर १
पं. वृद्धिविजय पं. सुजाण स | पं. रुपविजय पं. घुष्याल स पं. विनीतविजय । पं. नेम स | पाटडी १
__डभोइ १ कारवण २ पं. हीराचंद्र | पं. गुलाब स | पं. धीर्यचंद्र । पं. हीर स। पं. रत्नविजय । पं. न्यांन स । लांघणोज १ ईडर १ घेरालू २ सीपर ३ प्रोतेज ४
पं. माणिक्यविजय | पं. मोहन स | पाटण मध्ये पं. पद्मविजय | पं. उत्तम स | राधनपुर मध्ये
पं. बुद्धिविजय ग | पं. मोहन स | वावि १ माढकुं २ पं. हस्तिविजय ग । पं. कुशल स | विजापूर पं. विवेकविजय । पं. ऋद्धि स । रानेर १ उंबरी२ पं. अमीविजय ग। पं. सुख स । थिराद १ कोटबाबली२ पं. रविविजय | पं. केसर स ! भांभेर १ तेरवाडु २ पं. हंसविजय ग। पं. गज स | मालण १
पं. मोहनविजय | पं. रत्न स | वसु १ मेंता २
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भक ४]
बे नपा क्षेत्रादेश पट्टक पं. गौतमविजय ।पं धन स । दसाडो १ कलाडो २ पं. नित्यविजय पं. भाण स । गोधावी १ पं. अमृतविजय पं. प्रताप स | गणाद्वहिः
पं. रत्नविजय पं. प्रेम स । नडियाद १ पं. प्रतापचंद्र । पं. दान स । पं. मावचंद्र | पं. दोलत स। पं. गोविंदविजय पं. हेम स । लेणप १ मोरवाडू २ कुकुआव १
पं. मेघविजय । पं. माणिक्य स । गोत्रकुं १ पं. जयविजय । पं. कांति स । कटोसण १ डांगरवं २ पं. जीवणचंद्र ग । पं. उदय स । थिरा १ बडा २ झापं. गुलाबविजय पं. कुंवर स । झीणोट १
लिम ३ पं. दयाचंद्र पं. हर्ष स | खेड ब्रह्मानी १
पं. उत्तमचंद्र | पं. उदय स । लूंणपूर १ छत्राला २ पं. नायक विजय पं. विनय स । दक्षण देशे पं. दोलतिवि । पं. लक्ष्मीविजय पं. महिमा स | मुंडेठ पं. माणिक्यविजय पं. विनित स । कुंवर १ मुंजपर २ १ नेवडा २ पं. चंद्रविजय पं. उत्तमविजय स । राजनगरमध्ये.
पं. राजविजय पं. सुंदर स । टपर १ वलण २ . पं. हर्षविजय पं. जस स । धोलको १ मोरीयो २
पं. घूघ्यालविजय पं. प्रेम स । वडाली १ पं ऋद्धि सागर पं. धिमेंद्र स | छठीयाडो ।
पं. जसविजय ग पं. प्रताप स । शंखेश्वर १ पं. ज्योतिविजय पं. रत्न स । व्यारा १ बुहार २ पं. सोभाग्यविजय पं.षिमा स । मुजपूर रचिया'२ पं. हीरविजय पं. भाण स | चंदूर १ लोलारू २
पं. गुणविजय पं. घूष्याल स । पं. रविविजय पं. दोलत पं. कांतिविजय पं. नायक स । पेटलाद १ वसोर २ स । समु १ वाव २ वासज ३
पं. भाणविजय पं. केशर स । वजाणुं १ पं. प्रेमविजय पं भाण स | देवाडभू १
पं. वृद्धिविजय पं. कांति स | पीलुचुं १ मगरवाडु २ पं. अमृतवि । पं. चंद्र स | पं. तेजवि | पं. भाण स । पं. जसविजय पं. कनक स । सोजतरा १ छनायार १ देकावाडू २
पं. नायकविजय पं. इंद्र स । मणोद १ संडेर २ पं. माणिक्यविजय पं. सुबुद्धि स | कोठ १
पं. रविविजय पं. कनक स । नानादरु १ पं. जीवणविजय पं. लाल स । गांभू १ सरदारपूर २ पं. हंसविजय पं. जीवण स. | अहमदनगर १ पं. प्रेमवि । पं. दर्शन स । पं. रुपवि । पं. प्रेम स | पं. पुन्यसोम पं. केसर स | सोवनगढ १ वागड देशे
पं. पानाचंद पं. उदय स | झेरडा १ वरापाल २ झिपं. कांतिविजय पं. दर्शन स. | वखतापुर १ व- णाल ३ लासणु २
पं. माणिक्यविजय पं. दीप स । धेणोंज १ पं. धीमविजय पं. पुष्याल स । लींच १ पीपलदलकर- पं. इंद्रविजय ग पं. अमृत स । गणाही । वटीउं २
पं. जिनविजय ग | पं. दर्शन स । हरसोर १ बलोल २ पं. देवविजय पं. दीप स । कडी १ .
पं. वृद्धिविजय ग | पं. विनय स | गांगद १ फेदरा २ पं. विनयचंद्र पं. भक्ति स | वडगाम १ धोतासकलाणा २ पं. कृष्णविजय ग पं. घूष्याल स । सीद्धपूर १ लालपर २ पं. हेमविजय पं. भीम स । काकर १
कलांणा ३ पं. कपूरवि. । पं. देवविजय १पं. अमी स । पालणपुर १ पं. विनयविजय पं. राघव स | धाषां १ धनेरा २ वगदा २ मयादर ३ दांतावसही ४
पं. उग्रचंद्रगणी । पं. मोहन स । डीसा १ राजपूर २ पं. नायकविजय पं. गुलाल स | द्यावड १
वडाल ३ पं. वसंतविजय पं. माव स । डभोई १ पं. जीवनविजय पं. जीत स । आत्रोली १
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१५६
पं. भवानविजय पं. नायक से । कसरा १ पं. रूपविजय पं. गौतम स । जामपूर १ बाडीया
पं. भवानविमल पं. ऋद्धि स पं. वसंतविजय पं. देव स । चांगा १ पं. मानविजय पं. रत्न स । गोला १
कुवार १
जैन साहित्यशोधक
पं. हर्षविजय पं. पुण्याल स
| नंदासण १ भलगाम १
पं. न्यानविजय पं. कपूर स
पं. भाग्यविजय पं. जस स | मांडल १
पं. मोहन सोभाग्य पं. भाग्य स । पाडला १ पं. मणिकविजय पं. मान स रणोद १
^^^^^^^^^^
पं. रत्नविजय ग । ऋ. देव स । सांपरा १
वासाबावल पं. गुणविजय पं. प्रेम स । षेंमाण १ पं. षीमारुचि पं. गणेश स । वणोद १ पं. देविद्रविजय पं. हर्ष | बालोल
पं. भाग्यविजय पं. कुसल स | सांडवा १ पं. माणिक्यविजय पं. राम स । अस्मत्पार्श्वे
पं. रामविजय पं. तेजस साहाणी १ पं. ज्ञानसागर पं. उदय स । मालक १
पं. दयासीम में जीत समोभा सादडा १
पं. रविविजय पं. विनीत स | गणद्वही ?
[ खंड
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अंक ४]
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बृहटिप्पनिका नामक प्राचीन जैन ग्रंथ सूचि बृहट्टिप्पनिका नामक प्राचीन जैन ग्रंथ सूचि
बीजा अंकमां परिशिष्ट रूपे ए सूचि प्रकट करवामां पाटण (देवपत्तन ) ना मुख्य पुस्तक भंडारो जोईने आ आवी छे. ए सूचि कोणे अने क्यारे बनावी छे तेनो सूचि बनावी छे. मारवाडना सुप्रसिद्ध जैसलमेरना ज्ञानकाई पतो लाग्यो नथी. परंतु एमां आवेला ग्रंथोना नामो भंडारनु आमां नाम नथी तेथी ते जोवायो होय तेम "उपरथी एटलुं अनुमान करी शकाय छे के विक्रमना पं- जणातुं नथी. ए उपरथी एम पण अनुमानाय छे के दरमा सैकाना मध्य भागमां कोई विद्वाने आ सूचि तै- सूचिका कोई गुजरातनो अने खास करीने तपागच्छनो यार करी छे. कारण के सालवारना जे ग्रंथनामो आमां विद्वान् होवो जोईए. आपेला छ तेमां सौथी छवटर्नु नाम, संवत् १४४३ मां सूचिकर्तनी शोधकबुद्धिनो नमुनो आपणने १५५ रचाएला कुलभंडन सूरिना 'प्रवचन पाक्षिकादि आलापक नंबरवाळी नोंध उपरथी स्पष्ट जणाई आवे छे.ए नोंधमां शत्रुसंग्रह'नुं छे (नं. १६४). तेना पछीनी सालनो रचाएलो जय महात्म्य' जेवा प्रसिद्ध अने प्रामाणिक कहेवाता ग्रंथने कोई ग्रंथ ए सूचिमां दाखल थएलो जणातो नथी. तेनी स्पष्टरुपे 'कल्पित' अने 'आधुनिक धनेश्वरकृत' पहेलां, सं. १४३६ मां रचाएला उपदेश चिंतामणि, बताव्यो छे ! मूळ ग्रंथमां तो ग्रंथ कर्ताए ए 'माहात्म्य' ( नं. २२३ ) सं. १४२९ मां रचाएली प्रश्नोत्तर रत्न- ने घणुंज प्राचीन अने तेथी घणुंज प्रामाणिक होय तेवू मालावृत्ति (नं २२२), १४२६ मा बनेली भक्ता- बताववा माटे आकाश-पाताळ एक कर्यां छे. परंतु मरस्तवटीका (नं. १३२); इत्यादि ग्रंथोनी नोंध शोधक विद्वान्ना हाथमां जता ते बधी कत्रिमता एकथएली एमां अवश्य जोवाय छे. परंतु ते पछी- एके दम उघाडी पडी गई अने तुरत ज तेना माटे तेणे नाम जोवातुं नथी. लगभग पंदरमां सैकाना त्रीजा ज 'कल्पितता' नो चोखो शेरो मारी दीधो. प्रो. वेबर अने पादमां थएला सोमसुंदर, मुनिसुंदर, गुणरत्न, ज्ञानसागर डॉ. बुल्हरने जो आ शेरानी खबर पडी होत तो ए आदि प्रसिद्ध ग्रंथकारोना ग्रंथोनी नोंध एमां बिलकुल महात्म्यने कल्पित सिद्ध करवा माटे जे मोटी महेनत तेमने लेवाई नथी. तेथी हुँ ए सूचिनी तैयार थवानी तारीख वि. उठाववी पडी हती ते जराए न पडत अने मात्र आएक सं. १४४० थी ६० नी बच्चे मुकुं छं. एटले आज थी ज प्रमाणथी तेमनो सिद्धांत सत्य साबीत थई लगभग सवापांचसो वर्ष पहेला ए सूचि थएली छे. शकत. अस्तु.
सूचि करनार कोई समर्थ विद्वान् अने उत्कृष्ट साहि- आ सूचिमां जणावेला केटलाक ग्रंथोनो आज क्यां त्य प्रिय यातेजन ज होवो जोईए. तेणे ए सूचि घणीज ए पतो संभळातो नथी. तो ते माटे विद्वानोए शोध बारीकी थी पूरेपूरी जांच साथे करेली छे. ग्रंथोने विषयवार करवानी खास आवश्यकता छे. दाखल! तरीके 'सम्मति
। अने दरेक ग्रंथने तपासी' तपासीने तक' जेवा सुप्रसिद्ध अने जैन साहित्यभूषण ग्रंथनी आज नोंध्यो छे. सूचिमां ग्रंथ, तेना कर्ता, तेनी रचायानी मात्र एक बृहद्वृत्ति ज मळी आवे छे. परंतु ए सूचिम साल अने तेनी एकंदर श्लोकसंख्या; एम चार बाबतो तेनी त्रण वृत्तिओ नोंधेली छे. (जुओ लीधी छे अने दरेक ग्रंथना संबंधमां शोध करी करी तेमा प्रथम वृत्ति तो बहु ज महत्त्वनी छे, कारण के तेना छेवटे आ ४ बाबतोमांथी जेटली मळी तेटली नोंधीं छे. कर्ता मल्लवादी जणाव्या छे. मल्लवादी सूरिए सम्मति ___ सूचिकर्ताए मुख्य करीने पाटण ( अनहिलपुर पत्तन), उपर कांईक विवरण लख्यु छ तेनो पुरावो तो आपणने खभायत (स्तंभतीर्थ ), भरूच (भृगुपुर ) अने प्रभास हरिभद्रसूरिना लेखमांथी पण मळी आवे छे. ऐतिहासिक
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जैन साहित्य संशोधक
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दृष्टिए मल्लवादीनी ए टीकार्नु घणुं ज महत्त्व होई शके पीना सन् १९२१ ना जान्युआरी-फेब्रुआरी मासना संयुक्त छे. कारण के तेना आधारे न्याय शास्त्रना विकास अंकमां एक महत्त्वनी टिप्पणी प्रकाशित करी छे. अने इतिहास संबंधी अनेक प्रश्नोनो विशिष्ट ऊहापोह करी तो शोधक जनोए ए टीकानी पण गवेषणा करवी आवशकाय छ; अने ते उपरथी अनेक अज्ञात बाबतोनुं ज्ञापन श्यक छे. आवी ज रीते बीजा-पण अनेक ग्रंथोनां नामो अने संदिग्ध वातोनु निराकरण करी शकाय छे. तेथी जोवामां आवे छे के जे ए सुचिमां नोधायला छे पण सम्मतिनी ए टीकानी शोधखोळ करवा माटे दरेक अत्यारे उपलब्ध थता नथी. विद्वानने आग्रहपूर्वक भळामण करवामां आवे छे. सम्मतिनी एक त्रीजी टीकानी पण एमां नोध करेली।
ही आ सूचि बे हस्तलिखित प्रतो उपरथी मुद्रित करछे. तेनो कर्ता कोण छे ते एमां जणाव्युं नथी. १
वामां आवी छे जेमांनी एक प्रत तो लगभग ३००फक्त ' अन्य कर्तक' छे, एम जणावी छे. कदाच ए ४०० वर्ष जटला जुनी हती अने एक नवी लखाएली टीका कोई दिगंबर विद्वान् कृत होय, जेना संबंधमां हती. बंने प्रतो वडो दराना जैन ज्ञानमंदिर वाळा प्र. अमारा विद्वान् मित्र श्रीयुत नाथू रामजी प्रेमीए जैनहितै- श्री कांतिविजयजीना शास्त्र संग्रहमांनी हती.
एक ऐतिहासिक पत्र
[नोटः--आ नोटनी नीचे आपेलो पत्र मने एक करता यति, संन्यासी, बनजारा अने बाजीगर आदि जे मजूना भंडारमां पडेला रद्दी कागळोना ढगलामाथी मळ्यो नुष्य हमेशा देशाटण अथवा परिभ्रमण करता रहेता तेओ ज छे. कोई कोई वार रद्दी कागळोमांथी बहु महत्त्वनी चीजो राष्ट्रीय तेम ज सामाजिक परिस्थितिथी विशेष वाकेफ रहेता. मळी जाय छे के जेने साधारण मनुष्य नकामी गणीने ए बीना आ कागळ उपरथी स्पष्ट थाय छे. राज्यक्रान्तिकचरामा फें की दे छे. आ पत्र विक्रम संवत् १८३१ मां ना वखतमां लोकोने केवा केवा संकटो भोगववा पडे छे, लखायलो छे. ते मेवाड राज्यना प्रसिद्ध देवस्थान एनो पण ख्याल आ कागळ उपरथी थई शके छे. संसार'नाथद आरा' थी तपागच्छना यति ऋषभविजयजीए नो संसर्ग तजीने यति-संन्यासी थयेला मनष्योने पण देशनी पोताना कोई वृद्ध अने पूज्य यतिना उपर लखेलो छे. अस्वस्थताने लीधे केवु अस्वस्थ थई जर्बु पडे छे ए बाबतेमर्नु नाम पत्रनी किनारी फाटी जवाथी जतुं रहयुं छे. तनुं पण स्पष्ट अने अनुभूत वर्णन आ पत्रमा छे. संवत् पत्रनी भाषा राजपूतानी-मुख्यत्वेकरी मेवाडी छे. आ १८३१ मां राजपूतानानी-विशेषतः मेवादनी-सामाजिपत्रमा ए समयनी राजपुतानानी राजकीय परिस्थितीनो क, आर्थिक अने राजकीय परिस्थिति केवी हती एनुं बहु सारो अने मजेदार चितार आपेलो छे. ए जुना संक्षेपमां पण पूर्ण विश्वसनीय वर्णन आ पत्रमा छे. ऋषवखतमां ज्यारे रेलवे, टपाल, तेमज समाचारपत्र विगेरे भविजयजी एक सारा विद्वान् यति हता (जेना प्रमाण साधनो न होतां त्यारे लोकोने एक बीजा प्रतिमा किंवा मने बीजा अनेक उल्लेखोमांथी मळ्या छ परन्तु ए बधांना राज्यमां शीशी हीलचालो थई रही छे ए: जाण- अत्रे उल्लेख करवानी आवश्यकता नथी.) एयी तेमनी वामां आवतुं हतुं. ए जमानामा सर्वसाधारण लोकोना पासे अनेक प्रकारना मनुष्योनुं आवागमन रहेतुं ज हशे.
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एक ऐतिहासिक पत्र
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मांथी जो आवी जातना साहित्यनी शोध खोळ करवामां आवे तो एमांथी अनेक प्रकारना एवां ऐतिहासिक साधनो मळी शके के जे धर्म अने देश एम उभय दृष्टिथी बहु महत्त्वना थई पडे तेम छे. संपादक
बीजं मेवाड राज्यना घणा खरा कर्मचारीओ जैनी ओसवाळ ज वधारे हता, एथी तेमनी मारफते यति-साधुओनी पा एवी बातोना विश्वसनीय खबरो विशेष रूपमा आवे ए पण स्वाभाविक छे. यतिवर्गना अधिकारवाळा जुना भांडारो ।। ६० ।। स्वस्ति श्रीपार्श्व परमेश्वरं प्रणम्य श्रीमति तत्र श्रीजीदुआरातो से । ऋषभविजयस्सानंदेन लिखत्यपरं वंदणा १०८ वार अवधारवीजी. अत्र सुष व श्रेय छई तथा श्रीपंडितजीना सुख पत्र देई हर्ष पोष करवाजी. अपरं श्रीपंडितजी परमेष्ट श्रेष्ठ सकल गुणगरिष्ठ विद्वज्जन वरिष्ठ संत दंत सज्जनसिरोमणि कृपानिधान सर्वत्र राजसभायां लब्धसन्मान गुणालंकृत परम प्रीतिपात्र गुणग्राहक मोटा सत्पुरुष छो. सेवकोपरि सदा हितप्रीति सुदृष्टि राषो छो तिमज राघवीजी. जे दिवसै श्रीपंडितजस्युं मिलस्युं वातो करस्युं ते दिवस घणुं सफल करी जाणस्युं जी. अपंच गत वर्षे पत्र १ श्रीपंडीतजीनो गोढवाडनो, एक अनुचर हस्ते श्रीजीदुआरामें आव्यो हतो, वैशाष द्वितीय मैः ते हस्ते पत्र १ श्रीपंडितजीना नामनो... हस्ते मूक्यो हतो ते पोहताना समाचार नाव्याजी: बीजुं इकतीसानो चोमासो श्रीजी - दुआरै थयाजी: उदेपुरमै ठांणुं २ बैठा राख्या छेः वस्तुभाव कुशल षेमै रह्यौ छैः ओर सर्वस्थानक नष्ट थयापिण आपणो आलय कुशल षेमे रह्यो छेः भगवान राष्यो छे; माल्यानो साजबाज भंडाऱ्या मध्ये मूकी बे मालिम करी ने श्रीदुआरे आव्योः सर्व वणिक दिसोदिस नीकले गया : सकल साधासुं दषल थई. सात दिवस फतेषांन मावथनी ओरीयै ठांणुं १५ संघातै बैठा रह्याः सर्व महाजन चोरासीगच्छना मिली राद्य सहस्र तृक दीघा पंडित जमान थयो त्यारै सात दिवस घढी २ दिन रहते अठे आव्या. सर्व श्रावक साथ पंडित साथै आवी साधांने पारणो कराव्योः पछे वणिक पिण नीकल्या ने अमे पिण नीकली आघाट आव्याः मास बे तिहां रह्या; तिहां पिण पंडितजीनो कारण संधीइ लोप्युं त्यारै पंडित जाबतो करी नाथदुआरे पोहचता कय; हवै रावत अर्जुनसिंघजी मैहतो लषमीचंद विजैसिंघ नाणाविटी दिषणीना पंडित रूपनगर वालानो कांमदार देवदास मुंणोत मिली उदेपुर आव्या; च्यार लाष रुपया जूना देई ने संधी (सिंधी - काबुली ) सर्व ने बारे काढ्या छेः दीवांण हमीर पासे रजपूतनो साथ मूकी संघनी चोकी रावला मांहिथी घणा कष्टथी काढी छे: हवे सतानी ठक्यारडानै थई छै जीः त्वारांनो जोर घणो वधी गयोः सहिर मध्ये नोग्यारो क्रोडां पांनै पड्यो; सर्व षोदे षणे ग्यारो ग्राह्य कीधो; हजी हजार ५० जूना देणा छैः ते दीधे सर्व नीकलस्यैः पंच महाजन नाडोल हता ते रावत अर्जुनसिंवना पत्रथी आव्या छेः वराड फेर हजार २८ नो नांष्यो छेः रुप्या हम्मीरसाई उदेपुरमै नवा पडे छेः टका २० चाले छे: ते दीधे संधीनो कालो कट त्यारै लोक उदेपुर मै पाछा आवश्ये जी: हजी देशनो बिग्रह मिठ्यौ नहीं छैः दोय राणा छैः हमीरजी तो अडसीने पाट उदेपुर मै छे: रतनसिंघ कुंभलमेर मै बैठा छे: जोगी साबत छे; गोढवाढ विजेसिंघजी ने छे: चीतोड, मांडलगढ, उदेपुर, राजनगर, ए जायगां राणा हमीरजीनो अमल छे. सेरोनलो, कुंभलमेर, कैलवाडो, देवगढ रतनसिंघजीनों अमल छैः देश मै लूटा षोसो पकडणो मारणो आमो सामो लागे रह्यो छे; नाथदुआरे महाराजनी फोज हजार बारेसे पड्या छेः ते तिमज छे: महाराज विजैसिंघनी फोज रावोदास मिली देवसूरी वाला ऊपरे आव्या हताः वास राट धूलवाणी मिली पिण देवसूरीवालो महाराजसुं नम्यो नही, सोलंबीनो मजो रह्योः फोज झषमारे पाछी गई. ढाणां मै बैठो छै: नाल देवसूरीनी कोई छोडी नहींः बीरम मेडत्यो चांणोदवालो जोधपुर चाकरी मै पड्यो रडवडे छेः सोलंषी नी टेक घणी रही: रांडने पगे लागो तथा विजेसिंवने पगे लागो: चाकर चितोडरो छु. आउआ वाला तसिंघ महाराज विजेसींधे ठारयो. चांपावत तेहना बेटा गुणावल कहुंजे छांडी आव्या छे: इस्यो रूप बणे रह्यो छे: जैपुर मैं पिण मेवाड सरीषो विषो लागे है. रावत जसूंतसिंघजी ने जैपुरमांहिथी परा काढ्या छे: सोबोकरजी
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[खा. आया सुण्या छः रावत अर्जुनसींघजी लेवा जासीः एकलींगजी भेला वेसीः इसी बात छैः पछै तो वणै सो परीः उदेपुर नो...............नही पिण हवे रजपूत राणावतारो साथ हजार दोय सहर मै आवे............यो हवे संधी सर्व बारै डेरा दीधा छे...............मांही छे बाकी रुप्या दीधासुं निजर आवसी. राज-देशविग्रह भारी ठेरथो मिटणो तो साहिबरे हाथ छैः वले एक टिंखल थयो छेः सलूंबरना घरमे पहाडसिंघ रावत उजेणनी राडि मै काम आव्या पछे भीमसिंघजीने तरवार बंधावी राणे अडसीजीइ सलूंबरनी गादी बैठा. हवै पांच बरस पछी पाछा पहाडसिंगजी प्रगट थया छे. ए विग्रह नवो प्रगट्यो छे. हवणा महीना ५ छ थया छैः डुंगरपुरने चोषले आव्या छे. भीमसिंघजी चीतोड ऊपरे हता तिहांनो जाबतो करी थांणो मेलीने सलूंबर दाखल थया छे. विग्रहमे पाछ नही छै. और समाचार छ ज्युं छे. अत्रत्य पं. नरोत्तमविजयगणि पं. प्रतापविजयगणि विनयविजयगणि लघुशिष्य गिरधरनी वंदणा जाणवीजी पं. क्षेमानंद ग. नेमविजयगणि ठाणु २उदेपुरमें मेल्या छः हेमविजयजी ग. झाडोल छे. ठाणुं २जासमे छे. रत्नानंद ग. मानविजयगाण, उदयपुरनो ढंग महीना एक दोयमें सुदरस्ये जी त्यारे उदेपुर नो ढंग सुदरसी जदी बुलावो आव्ये उदेपुर जावो थास्ये जी ते जांणकुंजी. तत्र पार्श्वस्थ साधुसमुदायने पं. सौभाग्यविजय ग० पं. जयविजयग० पं. भाग्यविजयग० पं. फतेंद्रसागरगणि प्रमुष सर्व साधुसमुदायने वंदणा कहवीजीः पं. हेमसोभाग गणिनी वंदणा पण जाणवीः पं. गुलाबहंसगाणि ठाणुं २ नी वंदणा जाणवीः xxx मेदपाटभे ग्राम.........कोई कोई जायगा वसती छः इस्यो ढंग ढोल देशनो छे जी: केटल लघवामें आवैजीः कृपापत्र वलमान कृपा करवी जीः देवदर्शनमें संभारवा मिती संवत् १८३१ रा मिगसरवदि अष्टम्यां रात्रो पत्र-तुराई लप्यु छ जी:
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अंक ४]
एक श्रीमाली जैनकुटुंबनी जुनी वंशावली
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एक श्रीमाली जैन कुटुंबनी जुनी वंशावली
श्वेतांबर जैन संप्रदायने अनुसरनारी मुख्य त्रण वैश्य नथी परंतु ओसवाल जातिनी तो छेक विक्रमना १७ जातो छः १) ओसवाल, २) श्रीमाली, अने ३) मा सैका सुधी वृद्धि चालू रही होय एम जणाई आचे छे. पोरवाड, ओसवाल जातिनुं मूल उत्पत्ति स्थान ओसिया लोकमान्यता प्रमाणे, उपर जमाव्युं तेम, मूल तो ए नगरी मनाय छे जे मारवाडनी जोधपुर राजधानीनी पासे त्रणे प्रसिद्ध अने समृद्ध जैन जातो मारवाडनी सीमामा आवेली छे. ए जातिनी वधारे वसती राजपूताना अने ज उत्पन्न थएली, परंतु पाछळथी जनसंख्यानी वृद्धिने मालवामा रहेली छे. श्रीमाली जातिनु मूल स्थान श्री. लईने, व्यापारना निमित्तने लईने, तेम ज राज्योनी उथल माल नगर कहेवाय छे. एने हालमा भिन्नमाल कहे छे पाथलना कारणने लईने भारतना जुदा जुदा प्रदेशोमां ए अने ए पण मारवाडना जोधपुर राज्यमां, राज्यनी प्रसरती गई. उत्तरनी सीमा तरफ आवेलुं छे. ए जातिनी वधारे ए जातोमां अनेक गोत्रो छे अने दशा-वीसा आदि वसती गुजरात अने काठियावाडमां आवेली छे. पोर- जेवा केटलाक पेटा-भेदो छे. गुजरात अने काठियावाडवाड जातिनुं जन्म स्थान क्यां छे ते चोक्कस जणातुं नथी मां वसनारा लोकोने फक्त दशा-वीसाना भेदनी तो मापण किम्बदन्ती प्रमाणे अरवलीनी पर्वतमालामां वसेलो हिती रहली छे परंतु गोत्रनुं ज्ञान तो लगभग सर्वथा वागडदेश तेनु उत्पत्ति स्थान होय एम जणाय छे. मलाई जवायुं छे. मारवाडमां वसता लोकोने-अने तेमा पोरवाडोनी माटी संख्या मारवाड राज्यना गोडवाड-के खास करीने ओसवालोने-पोताना गोत्रोनी माहिती जेने नानी मारवाड पण कहेवामां आवे छे-प्रांतमां अवश्य होय छे. ए माहिती होवानुं खास कारण ए छे पसरेली छे. गुजरात अने मालवामां पण ए जातिनी के त्यांना लोकोना कुलगुरु हजी हयात छे जेओ दरेक साधारण वसती छे. ए जातोनुं जन्म क्यारे अने कई कुटुंबना विवाह आदि शुभ प्रसंगो उपर हाजर थई ते रीते थयुं तेनो सविस्तर निर्णय करवा जेटलां साधनो हजी ते कुटुंबनी वंशावलि विगेरे वारंवार संभलावता रहे छे. ए ज्ञात थयां नथी. साधारण मान्यता प्रमाणे जैनाचार्यो वंशावलिओमा १०-१०,२०-२० पेढी सुधीना पूर्वए, ते ने प्रदेशमा वसता रजपूतो अने बीजा तेवा जोना नामोनी तेमज केटलाकना ठाम अने मोटा · कालोकोने धर्मबोध आपी जैन बनाव्या अने तेमने, पूर्वना मोनी पण नोंधो करेली होय छे. जो के ए नोंधोमा बीजा बीजा व्यवसायो छोडी दई व्यापारनो व्यवसाय कपोलकल्पित जेवू पण घणु होय छे तो पण जेटली नोंध करवा तरफ प्रेरणा करी. ए जातोनुं निर्माण कोई एक ज -नोधनी वही-वधारे जुनी होय तेटली ते वधारे विआचार्य द्वारा अने एक ज वखते थयुं छे एम नथी. परंतु श्वसनीय होई शके छे. गुजरातमा तेवा कुलगुरुओनो सप्रथम एक आचार्ये केटलाक कुटुंबोने जैन बनावी तेमनी र्वथा अभाव थई गयो छे तेथी त्यांना वतनिओ पोताना एक जात बनावी अने पछीथी बीजा बीजा आचार्योए गोत्रो पण भूली गया छे. प्रसंगे प्रसंगे बीजा बीजा स्थळोना लोकोने जैन बनावी
जन बनावा * अने हवे तो केटलाक पोतानी जातोने पण भली जवानी कोबनावी ते ते जातिमा दाखल करता गया, अने तेम शीस करता नजरे पडे छे ! थोडा दिवस उपर अमदाबादना एक करी एत्रणे जातिनी संख्यामा कमे क्रमे वधारो करता श्रीमंत जैन गृहस्थना बालकोने तेमनी जाति पूछतां तेओ तेनो गया. श्रीमाली अने पोरवाड जातिनी आवी रीते क्या
जबाव आपवा असमर्थ निवडचा हता. (त्यारे बीजी बाजुए ते
ओ इंग्लडना इतिहासनी वातो अने' आयरीश, इंग्लीश, स्काच सुधी वृद्धि थती रही तेनी तो माहिती हजी सुधी मळी विगरे जातोना परिचयो झटापट आपी देता हता.) जे बालको
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जैन साहित्य संशोधक
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गुजरातना वासिओने भाग्ये ज पोताना पूर्वजोना सं- माल शहर भांग्यु. तेमा संख्या बन्ध माणसो मार्या गया बंधमां कांई माहिती होय छे. तेओ पोतानी ३.४ पेढी तथा केदमां पकडाया. ते अवसरे शेठ नान्हा त्यांथी उपरांतना वडावाओनां नामो सुधां जाणी शकता नथी तो नासी छट्यो अने कोलिहाराना पायची नामे गाममा पछी तेओ क्याथी आव्या अने क्यां वस्या, तेमना जईने वस्यो. त्या तेना पुत्र-पौत्र विरेनो परिवार वध्यो पूर्वजो ए शां कामो को इत्यादि तो जाणे ज क्याथी. अने तेना वंशजो पाछळथी यथा समये पाटण, नरेली तेमने कुलगुरुओ अने तेमनी नोंधवाहिओनी पण कल्पना (गांभू पासे), मोढेरा, वलाद, सलखणपुर इत्यादि आवी शकती नथी.
अनेक गामोमां जई जईने वस्या. एमांना केटलाकोए
संघो काढया, मान्दिरो बन्धाव्या, महोत्सवो कर्या, जमण • आ नीचे एक श्रीमाली जैन कटुंबनी जुनी वंशावलि
जमाङ्या अने कोईक तो संसार छोडी यति पण थया. आपवामां आवे छे, जे एक कुलगुरूनी जनी नोंधवही
आवी रीते आ वहीनी अंदरथी केटलीए जाणवा जोग माथी उतारी लेवामां आवी छे. ए नोंधवही लगभग
हकीकतो मळी आवे छ. ४०० ५०० वर्ष जेटली जुनी छे अने कपडा उपर लखली छे. आ वही पाटणना एक प्राचीन
उपर जणाव्युं छे तेम ए वही ४००-५०० वर्ष जेपुस्तक भंडारमा छे. आ वंशावलिमां श्रीमालि- टली सुनी छे तेथी एमां छेवटे जणोवला कुटुंबोना वंशोजातिना नोडा नामना शेठनी वंश परंपरा आपलीकेए क्या सुधी पहोंच्या अने आजे तेमांनो कोई वंश शेठ, आ नोंधमां जणाव्या प्रमाणे, भिन्नमाल ( जे श्री- हयात छे के नहिं ते जाणवा-जणाववानुं कशुं साधन नथी. मालनु बीजुं नाम छे ) नगरमा रहेतो हतो. एर्नु रहेठाण, आ वंशावलिनी भाषा अस्सल प्रमाणे ज कायम नगरना पूर्वना दरवाजा तरफ आवेली भट्टनी पोलमा राखी छे. तेम ज एमां फक्त नामो सिवाय बीजी कोई हतुं. मूल जातिए ए भारद्वाज गोत्रीय (ब्राह्मण ?) विशेष हकीकत पण जेथी वाचनारने कोई जातनी हतो. संवत् ७९५मां कोई आचार्यना प्रतिबोधथी ए कठिनता पडे तेम पण नथी. जैन थयो हतो. ए मोटो व्यापारी हतो अने पांच क्रो- गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर )
-संपादक. डनी आसामी गणातो. एनी गोत्रजा अंबाई माता हती.
भाद्रपद पूर्णिमा तेनुं स्थान, नगरनी पासे आवेला गो...णी नामना सरोवरना कांठे, जे देविओनुं स्थान हतं, तेमांनी ईशान अथ भारद्वाज गोत्रे संवत् ७९५ वर्षे प्रतिबोधित कोनमां आवेली चंपकवाडीमां हतुं. ते वाडीमां, चारे बाजु श्रीश्रीमालीज्ञातीयः श्रीशान्तिनाथ गोष्ठिकः । श्रीमिन्नमा
आंबाना झाडोथी ढंकाएलुं एक मन्दिर हतुं जमां चार लनगरे भारद्वयज गोत्रे श्रेष्ठि नोडा. तेहनो वास पूर्वीली मुजा वाळी ए अंबामातानी रूपानी बनेली मूर्ति स्था- पोली भट्टनई पाडइ. कोडी पांचनो व्यवहारियो. तेहनी पित हती. आसो अने चैत्र मासनी सुदी ९ ना दिवसे गोत्रजा अंबाई. नगरीनी परिसरि गो...एणी सरोवरी ए माताने नैवेद्य चढावी पूजा करवामां आवती. नैवेद्यमां देव्यानां ठाम नेऊ सहिस वेहमांहि ईशाणकुणदिसि लापसी, पुडला अने जवार, खीचडुं मुकवामां आवतुं. चंपकवाडी तेहमांहि चैत्य. चिहुपासइ आंबाना वृक्ष तिण
ए शेठ नोडानी १७ मी पेढिए नान्हा नामे पुरुष स्थानाक चतुर्भुजा गोत्रज स्वरूप रुप्यमई हादरि न हुई थयो. तेना वखतमा, संवत् ११११ नी सालमां, भिन्न- तुं कुंकनी लीटी पाटली ३ कीजइ नैवेद्य लापसी पूडला
- खीचड़ जवारिन. चैत्री आसोह ९, पुत्र जन्मइ पारणे आजे आवी रीते पोतानी जातिने भूली जवानी तयारीमा छे ते
त्रि मुंडणं जमणीनुं कापडं.. फइनइ सहर्षी १ पुत्र जन्मइ ओ काले पोताना धर्भ असे परम दिवसे देशने पण केम न भूली जाय?
पुत्रीई अर्द्धकर कीजई ॥
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अंक ४]
एक श्रीमाली जैनकुटुंबनी जुनी वंशावली : [सेठ नोडानी वंशारंपरा--]
सीधर भा. सिरियादे-पु. १ अना, २ वन्ना. श्रेष्ठ नोडा, भार्या सूरमदे
अना भा. अनादे-पु. मूला. पुत्र गुणा, भार्या रंगाई
-१ श्री आदिजिन बिंब चउवीस घटु भराव्यउं. संवत् पु. हरदास, भा० माहवी
१३१६ वर्षे श्री अंचलगच्छे श्री अजितसिंह सूरीणापु. भोला, भा० गंगाई
मुपदेशेन प्रतिष्ठितं. एक कूप, गोत्रजा चैत्य, मूलाकेन पु. गोवाल, भा० मी
एवं कृतं । पु. असा, भा० पुहता
मूला भा. मालणदे पु. १ वर्धमान, २ जइता. पु. वर्जीग, भा० करमी
वर्द्धमान भा. वयजलदे-पु. १ करमण, २ लाला. पु. शीवा, भा० पती
- एउ चली मोढेरइ वास्तव्य. तेणइ मोढेरइ दाधेलीऊ पु. महीराज, भा० कमाई
महं. कर्मा ते साढू तेणि सगपणि संवत् १३९५ वर्षे पु. राजा भा. पूरी
महं. । पु. गुणपति, भा. रही
करमण भा. करमादे पु. झांझण, भा० कपू
पु. महुया, भा. सोहांगदे. पु. १ धना, २ हीरा पु. मणोर, भा० हापी
३ खीमा, ४ चुथा. पु. कुंयरपाल, भा० वाछी
२ हीरा भा. हीरादे-पु. हेमा. . पु. पासा, भा० प्रेमी
संवत् १४४५ वर्षे बिंब चुवीसवट्टो प्रतिष्ठामहोत्सव पु. वस्ता, भा० वनादे--
श्री अंचल गच्छे श्रीमरुतुंग सूरि चोमासि कराव्या पु. कान्हा, भा० सांपू
प्रतिष्टितं महोच्छव करावी, पु. नान्हा संवत् ११११ वर्षे श्रीभिन्नमालभग्नं. मनुष्यनी कोडी मरण गई. बंदि पड्या. श्री . माढरि हेमा भा. हेमादेनान्हा नाठा. कोलीहारामांहि पायची ग्रामे वास्तव्य.
- पु. भावड, भा. पूनी पु:-१ देवा, २ पर्वत, ३
नंदा. श्रेष्ठी नान्हा, भा० पूगीपु. अमरा, भा० आऊ
देवा भा. सरियादे-पु. १ सूरा, २ लखमण. पुः-१ हरदे, २ वरदे, ३ नरदे, ४ नगा.
लखमण, भा. लखमादे. पु. १ हर्षा, २ जगा. हर्षा हरदे भार्या हांसलदे
भा. पूरी पुः-१ नरपाल, २ बरजांग, ३ फतना,
४ रतना. पु.-१ गोपी, २ पदमा गोपी भा० गुरीदे
१ नरपाल भा. लीलादे. पु. जोगा, भा० हापू
पु. नरबद भा. नांमल दे, पु. वस्ता. पु. नांदिल. भा. नांदलद:
२ वरजांग भा. सखी पु. १ राणा, २ श्रीवंत, ३ पु. १ सारिंग २ महिपा ३ संघाड ४ धपा.-पत्तनि भाणा, ४ महीराज. वास्तव्य सासरिं संवत् १२२५ वर्षे फोफलीया वाडिं- ३ फतना भा. महणादे सारंग मा. नारिंगदे पु.१ सीधर २ जीवा.
पु. वेणा, भा. मरघाद पु. १ भीमा, २ अमा. सीधर भा. सरीयादे, एउ चली. गांभूपासे नरेली ३ लहुया. ग्रामे वास्तव्य सासरई संवत् १२८५ वर्षे.
जगा भा. जस्मादे पु. १ सीपा, २ सामल
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१६४
पर्बत भा. प्रेमलदे, पु. १ रामा, २ पदमा, ३
मादा.
१ रामा भा. ढदू, पु. १ नाथा, २ नारद, ३ सोमा.
जैन साहित्य संशोधक
महिया भा. मानबाई पु. हीरा -
एउ चली गोलवाडी वलयांमि वास्तव्य. मं. हीरा, भा. सखू - तेहनि डालिं सिद्ध शीकोत्तरी भाव. तेह का -
नाथा भा. नागल दे
पु. आनंद नाकर भा. टांक, पु. १ सधारण, २ रणिं पूछी कहीऊं माहरइ गोत्रज जुहारूं. तेह कारणे पांशिवसी, ३ गोपी. वलाद्रग्रामे
जरी नाम लेई गोत्रज जुहारइ. नणंदनइ सेर २ नी मात्र. पारणे त्रिमुंडणं. माणा ४ ना लाडू कुटुंबमाही लाहि फईनंइ सहर्षि १.
नंदा भा. लाखू, पु. १ रूपा, २ आसा.
रूपा भा. कुंअरी पु. १ भचा, २ अजु, ३ महिपा,
४ कान्हा |
भचा मा. नाथी.
पु. राघव भा. रीजलदे, पु. १ धना, २ वर्द्धमान ३ पोचा, ४ पोपट.
आजु मा. अजादे पु. १ रूडा, २ राजा, ३ नायक. रूडा मा. २ वयजलदे, - माणिकदे. वयजलद पु. १ मेघजी, २ जगमाल. - माणिकदे पु. अभयराज.
नायक भा. नारिंगदे पु. १ देवराज, २ संघराज वलद्रि मं. नंदाख्येन मल्लिनाथ बिंब भराव्यो. ए आदे कुटुंबिं बिंब ३ भराव्या. श्री अंचलगच्छ श्री विजय केसर सूरीणामुपदेशेन प्रतिष्ठितं.
मं. नंदा भार्या हीरू
पु. साहू भा. सुहागदे.
पु. रतीमा भा. देवलदे, पु. १ वीसा, २ देशल,
३ लाला.
वीसा भा. टूबी
पु. सहिता भा. मरघाई, पु. सिंघा
देशल भा. मकू.
पु. लाखा भा. खीमाई पु. १ हरखा, २ मेघा, ३ जगा, ४ आणंद, ५ कीमा, ६ पोमा-दीक्षा लीधी, ७ अर्जण.
[ खंड १
पु. हरदास भा. हसिलदे पु. रहिया, २ महिन्यादीक्षा लीधी,
हरखा भा. गुरी पु. १ वर्द्धमान, २ ठाकुर. अर्जण भा. अहिवदे पु. मांडण
पूर्वि करमण भाई लाला भा. लाडमदे.
मं. हीरा भा. सखू -
पु. चाचा भाचांपल दे पु, १ पोमा, २ मका. पोमा भा. प्रेमलदे.
पु. श्रीवंत मा. सरियादे
पु. भोला भा. भावलदे
पु. रोडा भा. सोभी
पु. सिंघा भा. जयवंती पु. १ कीला, २ अर्जुन, ३
वन्ना.
काला भा. मरघु पु. १ देवा, २ भीमा देवा भा. नानु
पु. दूदा, भा. आनी पु. जसा
भीमा भा. भरमादे
पु. जोधा भा. जसमादे
अर्जुन भा. माणिकदे
पु. नाकर भा. पुहती पु. १ सीहा, २ पेथा, ३ नाईया ४ नगा, ५ पांचा.
सीहा भा. सरिया पु. १ देवराज, २ शिवराज. पत्तणिनगरे
पूर्वि महुया चतुर्थ पुत्र चुथा भा. चाहणिदे पु. सोभा संग्रहणं कृतं. नोरते वास्तव्यः संप्रति पतनि वास्त व्यः । संवत् १४४१ वर्षे लघुशाखी बभूव ।
सोभा भा. रंगाई
पु. माहव भा. देमी पु. १ रंगा, २ जागा. रंगा भा. रंगादे
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'अक ४]
पु. वरसंग मा. जिस्मादे पु. १ सुंडा, २ राईया. दीक्षा लोधी.
22
"
सुंटा भा. करमादे पु. १ राजपाल, २ विजपाल, ३ जीवा, ४ नाथा.
एक श्रीमाली जैन कुडंबनी जुनी वंशावली
ब्रह्मदास.
लहरी सलखणपुर पार्श्वे मं. जगा फडीयाना व्यापारथी फडीया अडक. जगा भा. जिस्मादे पु. १ जोगा. पूर्व वर्द्धमान भाई जयता एक चली चाहणसांम वास्तव्यः सासरा मांहि तब श्री भट्टेवा श्री पार्श्वनाथ चैत्यं कारापितं संवत् ११३५ वर्षे श्री अचलगच्छे श्री अजितसिंह सूरीनामुपदेशेन प्रतिष्ठितं ।
भं. जयता भा. जयवंती
प्र. हा भा. देसाई
पु मांडण मा. मालणदे
पु. रहिया भा. रहियादे
पु. वस्ता. एउ चली गेगूदणि वास्तव्यः वस्ता भा. वलादे
पु. वागुरणसी भा. रमाद पु. १ मदा, २ बाछा, ३ रामा.
मदा भा. सल पु. १ नगा, २ हापा १ तेजा. नगा भा. धनी
३ गल्या
मीमा भा. करमी पु. १ नायक, २ माली, ३ हरखा, ४ गोरा, ५ सामल, ६ कुरा.
नायक भा. नायकदे
"
माली मा. मानूं पु. १ सीहा, २ सरवण ३ करमण सोहा भा. टाकू. १ जागा, मेघा
जागा भा. जीवादे
सरवण मा. सहिजलद पु. १ वीरम २ खोखा, ३ . जूठा वीरम मा. वनादे
करमण भा कामलदे पु. १ रोडा, २ लखा रीडा मा. राजलदे
पु. रावसी भा. सुषमादे
पु. लखा भा. लखमादे पु. १ जगसी, २ हरखा माणकदे पु. १ मेला, २ मांका, ३
मांका भा. मालणदे पु. १ श्रीवंत, २ वीणा, ३
धना, ४ धरमसी, ५ अजा
श्रीवंत भा. सरीयादे पु. १ पूंजा, २ देवा पुंजा मा. रत्नादे
१६५
ढापा भा. मानू
पु. करमसी भा. भोली पु. १ हाईया २ भीमा चारित्र लीधुं.
पु. वीणा भा. वलादे पु. रांका दहिरवालिया
पूर्व सीधर भाई जीवा पत्तनि. मं. जीवा मा. जीवादे पु. जिणदत्त भा. पकू. पु. १ वना, २ विजय - दीक्षा लोधी. वना. एउ चली सासरइ जांबूथी डाहर बालिवास्तव्य सं. १२९५ वर्षे
मं. वना भा. सखू
३ पु. माधव भा. सांपू पु. १ नयणा, २ नगा, रंगा नयना भा. नारिंगदे पु. सारिंग वयजलके वास्तव्य. सारंग भा. सारियांद
पु. जेसा मा. नाकू पु. १ रंगा, २ मेला, ३ रामा रंगा भा. जोमी पु. वाछा श्रीपार्श्वनाथ चैत्यं प्रतिष्ठितं श्री अचलगच्छे श्रीभुवन तुंमसूरीणामुपदेशेन
मं. वाछा भा. माऊ पु. १ करमण, २ लखमण
करमण भा. करमादे
पु. मोका मा. पूगी पु. १ महीराज, २ मांडण महिराज भा. माणिकदे पु. १ देवा, २ नगा. मं. देवा भा. देवलदे
पु. माना भा. मानू
पु. जागा भा. देगी
पु. धरणि भा. पूरी
1
पु. पासा भा. अजी पु. १ शीवा २ पोचा शीया भा. बलादि पु. १ जाणा, २ भाणा, ३ मा
वड, ४ नरसंघ, ५ करमसी
वढवाण पांति बलदाणु
पूर्व महिराज भाई मांडण, भा. सोभी पु. १ वरधा
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड,
२ काला, ३ नोला, ४ लखा.
गहगा मा. मनाई पु. १ कुंभा, २ कुंरा. वरधा भा. देगी
कुंभा मा. कुंभलदे पु. १ पोपट, २ लाला, ३ वाला. पु. सांगा मा. सांगारदे
पोपट भा. माई पु. कान्हडदे, एउ चली वडुद्रइ वास पछी बलदाणा पु. विद्याधर भा. हर्षादे पु. १ वाछा, २ सहसा - वास्तव्यः । तत्र वसही कारापिता मूल नायक श्रीपार्श्व- दीक्षा लीधी. वाछा भा. दाडिमदे पु. १ भोजा, २ भीमा, नाथ बिंब ।
३ संतोषी. . ---- कान्हडदे भा. कपूरदे पु. १ चांपा, २ अमीया भोजा भा. धनी पु. शिवसी अधुना. . चांपा भा. प्रेमलदे
-पूर्वि सारिंग भाई महिपा भा. फूलां, पु. भाटा, पु. सहसा भा. सरियादे पु. १ जीवा, २ खीमा. ते सिद्धराज जेसिंगदेव राज्ये व्यापारी सहसलिंग उपरिजीवा मा. टूबी पु. १ भामा, २ शाणा, ३ मुजवल रायन आदेश चित्तकरी तिहां पाषाण अणावि ते पांच ४ जसा, ५ जाणा, ६ जोधा.
गज लाडलां दीठ रखाबई. वरतण माटे रायें गोभलेज भीमा भा. भावलदे पु. १ श्रीवंत, २ जवचंद, गाम आप्यउ छई. चिडोत्तर मांहि मातर पासिं. तिणि ३ रंगा.
गांमि पाषाण मोकलई तिणि गामि तलाव १ कूप १२ पूर्वि बलदाणे अधुना नागतेशठिं
कराव्या । श्रीशनुजये प्रासादबिंबं प्रतिष्ठितं अंचल गच्छे । शाणा भा. समाई
पछि कालांतरे राजा रूठो देखी ए. पाषाणनी राव (१) पु. शिवराज भा. अजादे पु. १ सामल, २ श्रीमल कीधी । ३ भला, ४ भोजा
म. भाटा मंडपदुर्गे वास्तव्यः । भाटा भा. देमीसामल भा. सुरमदे पु. १वाघा, २नागजी, ३हेमराज.
पु. लुभा भा. मानी पु. १ माधव, २ केशव बाघा भा...पु. १ आंबा, २ सिद्धराज.
माधव भा. मालणदे पु. १ गांगा, २ गोरा. नागजी भा. देवकी पु. १ सुरजी, २ हेमराज
गांगा भा. रूपी. ,, ,, मेला पु. सहिजपाल, २ खेता.
पु. जयवंत भा. जीस्मादे पु. १ मुंभच, २ भामा. -श्रीमल भा. शणगारदे पु. १ मेघा, २ मेला
भूभच भा. रजाई पु. १ नाका, २ माका. • मेघा भा. सवीरा, पु.१ सिवगण, २ श्रीपाल.
नाका भा. नयणादे पु. सोभा. एउ चली श्रीमल द्वितीय भा. वीरमदे, पु. वेला.
वडोदरे वास खेतसीमइ पागटिं. खंभायत पासिं तारापुरिं
म. सोभा मा. सरियादे पु. १ करमा, २ घरमा. पूर्षि माधवपुत्र नगा भा. नागदे पु. १ गोगन, करमा भा. करमादे पु. भमिड, २ भावड. २ गणपति | संवत् १४४५ वर्षे श्रीशबुंजय तीर्थनी यात्रा
भीमड भा. भीमादे. कृता । श्रीरंगरत्नसूरिनिं आचार्यपद स्थापना श्रीअंचल
पु. देवड भा. देमाई पु. १ राजड, २ चांपा. गच्छे गुजराती सोरठी चोरांसी गच्छना यतिनिं वेस
राजड भा. पदमाई पु. १ मावड, २ भरमा. बुहराव्या । वाणोत्र मेलीनी एणि कारणिं डहरवालीया
भावड भा. रुपाई पु. ठाकरसी. एउ चली खंभाप्रसिद्ध बिरुद |
यति पार्श्वे तारापुरि वास्तव्यः । पछी सीगी वाडई. -गोगन भा. गुरादे चु. १ मंगल, २जिणदत्त. ठाकरसी भा. मलाई पु. १ जेसंग, २ बट्टा. मंगल भा. मयगलदे पु. १ खोजा, २ कान्हा. जेसंग भा. जिस्मादे. पु. सोभा भा, रूडी. खोजा भा. सहिजलदे पु. १ गहगा, २ गणपति
( समाप्त)
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अंक ४ 1
डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
डॉ हर्मन जेकोबीनी जैन सूलो परनी प्रस्तावना ( भाग बीजो )
१६७
[ अनुवादक:- -श्रीयुत अंबालाल चतुरमाई शाह ' बी. ए. जैन साहित्य संशोधक कार्यालय ]
विचारथी में आ प्रस्तावनाओ साथ कोई पण प्रकारनी टीका-टिप्पणी लखी नथी के जेम करवामाटे मने घणाक सज्जनो तरकथी सूचनाओ सुधां मळी हती.
[ प्रथम अंकमां डॉ. हर्मन जेकोबीनी कल्पसूत्र ( मूल आवृत्ति ) नी प्रस्तावना आपवामां आवी हती अने बीजा अने त्रीजा अंकमां, ' सेक्रेड बुकस् आफ धी ईष्ट' ना मनी प्रख्यात ग्रंथमाळाना २२ मां पुस्तकमां प्रसिद्ध थ एला जैनसूत्रोना प्रथम भागनी प्रस्तावना प्रसिद्ध करवामां आवी छे. आ अंकमां ए ज जैन सूत्रोना बीजा भागनी ( जे उक्त ग्रंथमाळाना ४५ मा पुस्तकरूपे बहार पढेल छे ) प्रस्तावना आपीए छीए. आ भागमां, सूत्रकृतांग अने उत्तराध्ययन एम बे सूत्रोनुं इंग्रेजी भाषान्तर आपे - लूं छे. डॉ. जेकोबीनी आ त्रणे प्रस्तावनाओए युरोपीय विद्वानोना जैनधर्मविषयक जुना विचारोमां घणुं संशोधन क छे अने सर्वसाधारणमां जैन संबंधी व्यापेला अज्ञानने घणे अंशे दूर कर्तुं छे. इंग्रेजी केळवणी पामेली आलमने जैनधर्मनुं जे कांई थोडुं घणुं खरं ज्ञान मळ्युं होय तो तेनो बधो यश डॉ. जेकोबीनी आ महत्त्वनी प्रस्तावनाओने घटे छे. बौद्ध धर्मथी जैनधर्म तद्दन स्वतंत्र अने तेना करतां जुनो छे ए सिद्धान्त डॉ. जेकोबीए ज सौथी प्रथम अने सचोट रीते स्थापित कर्यो छे. जैनधर्मना सामान्य स्वरूपने समजवा माटे आत्रणे प्रस्तावनाओ विद्वानोमा खास प्रमाणभूत मनाय छे.
आ साथे एक आटली सूचना करी लेवानुं हुं उचित समजुं छं के आ प्रस्तावना ओमांना बघा विचारो मने सम्मत छे एम कोईए समजी लेवानी भूल न करवी जो ईए. आमांना केटलाए विचारो साथे मारो मतभेद छे के जे हुं भविष्यमां सविस्तर प्रकट करवा इच्छु छु, अने एज
आ अनुवादो में मारी जातीय देखरेख नीचे कराव्या छे अने पाछळथी घणी काळजी अने महेनत पूर्वक मूळ साथै संपूर्ण सरखाव्या के. छतां जो कोई सज्जनने आमां क्यांए स्खलन विगेरे जणाय तो ते खास लखी जणाववा सूचना छे जेथी तेनुं संशोधन करी देवांमां आवे. संपादक. ]
जैनसूत्रोना मारा भाषान्तरना प्रथम भागने प्रकट थए दश वर्ष थयां. ते दरम्यान केटलाक उत्तम विद्वानोद्वारा जैनधर्म अने तेना इतिहासविषयक आपणा ज्ञानमां घणो अने महत्त्वनो वधारो थयो छे. हिंदुस्तानना विद्वानोए संस्कृत अने गुजरातीमां लखेली सारी टीकाओ साथै सूत्र ग्रंथोनी साधारण आवृत्तिओ बहार पाडी छे. प्रो. ल्युमन' अने प्रो. होर्नले' आ सूत्र ग्रंथोमांना बे सूत्रोनी गुण-दोषना विवेचनवाली आवृत्तिओ पण प्रकट करी छे; अने तेमांए प्रो. होर्नले तो पोतानी आवृत्ति साथे मूळ काळजीपूर्वक करेलुं भाषान्तर अने पुरतां उदाहरणो पण
१ दस्, औपपातिक सूत्र, Abhandlungen fur die kunde des Morgenlondes नामनी ग्रंथमाळा, पुस्तकं ८, दर्शकालिक सूत्र अने निर्युक्ति, जर्नल आफ धी ओरिएन्टल सोसायटी, पु. ४५.
२ उवासंग साओ (बिब्लिओथिका इन्डिका ) भाग १ मूळ अने टीका, कलकत्ता १८९०, भाग २, इंग्रेजी भाषान्तर, १८८८.
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड १
आप्यां छे. प्रो. वेबरे पोते तैयार करेला बर्लिनना हस्तलेखोना मांना घणाक महत्त्वना शिलालेखो बहार पाड्या छे' विस्तृत सूचिपत्रमा संपूर्ण जैन साहित्यनु साधारण अवलोकन एम्. ए. बार्थे जैनधर्म विषयक आपणा ज्ञाननी समालोकर्यु छे. तेम ज तेमणे जैन सूत्रो उपर एक अति विद्वत्ता- चना करी छे". बुल्हरे पण एक नानो निबंध लखी तेवी पूर्ण मोटो निबंध पण प्रकट कर्यो छे. प्रो. ल्युमने आलोचना प्रकट करी छे', अने छेवटे भांडारकरे संपूर्ण बळी जैन वाङमय अने शास्त्रना विकासनं सारु अध्ययन जैन धर्मनी एक महत्त्वनी अने घणी उपयोगी रूपरेखा कर्य छे. तथा केटलीक जैन कथाओ अने तेना आलेखी प्रसिद्धिमा मुकी छे'. आ रीते, आपणा जैन ब्राह्मण अने बौद्ध कथाओ साथेना संबंधनी तपासणी धर्म विषयक ज्ञानमा थएला वधाराआए (जेमांना पण करी छे", श्वेताम्बर संप्रदायना जुना इतिहासनी मा- मात्न खास नोंधवा लायक ग्रंथोनो ज में अहिं उल्लेख को हिती आपनारो एक महत्त्वानो ग्रंथ मे पण संपादित छ ) आ आखा विषय उपर एटलुं बंधु अजबाळू पाड्यु कर्यो छे; तथा तेमना केटलाक गच्छोनो इतिहास होर्नल
छे के जेथी हवे मात्र कल्पनाने आ विषयमा घणो ज थोडा अने क्लाट द्वारा जाहिरमां आव्यो छ. आमांनो छल्लो अवकाश रहेशे. अने ऐतिहासिक तेम ज भाषाविज्ञानात्मक विद्वान ( क्लाट ) जे अत्यारे आपणी वच्चे मौजुद नथी,
साची पद्धति, ते साहित्यना सघळा भागोने लागु पाडी तेणे सघळा जैन लेखको अने ऐतिहासिक पुरुषोनो एक
शकाशे. तेम छतां, हजी केटलाक मुख्य प्रश्नोना खुलासा जीवन चरित्रात्मक महान् नामकोष ( Onomasticon)
करवा बाकी रह्या छ, तथा जे निराकरणो आ अगाउ थई तैयार कर्यों छे अने जेना केटलाक नमुना प्रकट पण थया
गयां छे ते हजी बधा विद्वानोने मान्य थयां नथी; तेथी छे. होफ्रेट बुल्हरे सर्वविद्याविशारद एवा प्रसिद्ध वि
आ सुअवसरनो लाभ लई आनंद पूर्वक हुं अहिं केटद्वान् हेमचंद्रनुं विस्तृत जीवन चरित्र लख्यु छे'. वळी
लाक विवादग्रस्त मुद्दाओनुं स्पष्टीकरण करवा इच्छु छु.
आ मुद्दाओना खुलासाओ माटे आज पुस्तकमां भाषान्ततेमणे घणाक जुना शिलालेखोना अर्थो पण प्रसिद्ध कर्या
रित एथला सूत्रोमांथी घणी किंमती सहायता मळी शके छे. डॉ. फुहररे मथुरामाथी खोदी काढेला कोतर कामोनुं
तेम छे. . . विवेचन कर्यु छे , अने मि. लेवीस राइसे श्रवण बेल्गोल
__ ए बाबत तो हवे सर्व सम्मत थई चुकी छे के नातपुत्त ३ बर्लिन १८८८ अने १८९२.
(शातपुत्र ) जे साधारण रीते महावीर अथवा वर्धमानना ४. Indische Studien पु. १६, पृ. २११ आदि. इ. मामे ओळखाय छे ते बुद्धना समकालीन हता. निगण्ठो ए. मां अनुवाद तथा जुदा पुस्तक रुपे, मुंबई १८९३.
(निर्ग्रन्थो )१३ जे हालमां जैन अथवा आहेतना नाम५. Actes duVI Cougres International des Orientalistes, section Arieane पृ. ४५९ ९. बेंगलोर १८८९. aer Wiener zeitschrift fur die Kunde des 90. The Religions of India. Balletin Morcenlandes पु. ५ अने ६. वळी,जर्नल आफ दी जर्भन des Riligions de l'Tande, 1889.94 ओरिएन्टल सोसायटी, पु. ४८.
99. Uber die Indische Secte der ६. हेमचंद्राचार्य रचित परिशिष्ट पर्व, कलकत्ता.
Jainas, Wien 1881. ७. Denkschriften der philos-histor. १२. रीपोर्ट सन १८८३-८४. (Maana dan-Kaicar Andammind १३. निगण्ठ ए स्पष्टरूपे मूळ रूप ज होय एम जणाय छे. Weissens chaften, Vol. XXXVII, p.171ff
कारण के अशोकना शिलालेखोमां, पालीमां, अने केटलीक वसतें
जैन ग्रन्थामां पण ए ज रूप मळी आवे छे. पण आ त्रणे बोली6. Wiener Zeitschrift fur die Kunde
ओना स्वरशास्त्रना नियमो प्रमाणे तो तेनुं वधारे वास्तविक रूप des Morgenlaudes, Vols II and III. निग्गन्थ ' एबुं थर्बु जोईए. अने आq रूप जैन ग्रंथामा स्वीकाEpigraphia Indica, Vols. I and II. रेलु पण मळी आवे छे.
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अंक 1
डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
थी वधारे प्रसिद्ध छ; तेओ, ज्यारे बौद्ध धर्म स्थपाई रह्यो आ विचारोनुं जैन प्रतिबिंब उत्तराध्ययनना २९ मा हतो त्यारे एक महत्त्वशाली संप्रदाय तरीके क्यारनाए अध्ययनमा मळी शके छ:-'तपथी मनुष्य कर्मने छेदी प्रसिद्ध थई चुक्या हता. परंतु हजी ए प्रश्ननु निराकरण शके छ २७. ' 'योगना त्यागथी अयोगपणुं प्राप्त थाय छ; थq बाकी रह्यं छे के-ए प्राचीन निर्ग्रन्थोनो धर्म, ते कर्म रोकवाथी ते नवीन कर्मने ग्रहण करी शकतो नथी खास करीने वर्तमान जैनोना आगमो अने बीजा ग्रंथोमां अने पूर्व ग्रहण करेला कर्मोनो क्षय करे छे. ३७' आ जे वर्णयेला छे ते ज हतो, के सिद्धान्तो पुस्तकारूद थया प्रकारनी प्रवृत्तिनी बे अन्तिम दशाओ (सूत्र ७१ अने त्यां सुधीना समयमां घणो रुपान्तरित थई गयो हतो. ७२ मां ) वर्णवामां आवेली छे. अने वळी. अध्ययन
आ प्रश्ननु निराकरण करवा माटे, अत्यार सुधीमा ३२, गाथा ५, ७ मां आवती नीचेनी हकीकत वाचाए प्रकट थएला बधा बौद्ध ग्रंथोमां, जेमने आपणे सौथी छीए:- जन्म अने मरणतुं कारण कम छ अने जन्म जना समजीए छीए तेमांथी जैन निगण्ठो, तेमना सिद्धा. अने मरण ए ज दुःख कहेवाय छे.' मा उपरांत बाजा न्तो अने तेमना धार्मिक आचारोना विषयमा जेटलां पण उपरना अर्थने मळती ३४, ४७, ६०, ७३, ८६ प्रमाणो जडी आवे ते बानो ऊहापोह करवो जोईए. अने ९९ भी गाथानो संक्षिप्त अर्थ नीचे प्रमाणे छ:____ अंगुत्तरनिकाय ३,७४ मां, वैशालीना लिच्छविओ- 'परंतु जे मनुष्य इंद्रियोना विषयोथी अने मानसिक मांनो अभय'' नामे विद्वान राजकुमार निगण्ठोना केट- लागाणीओथी आनो अर्थ बौद्ध तत्त्वज्ञाननी 'वेदना' लाक सिद्धान्तोनुं नीचे प्रमाणे वर्णन करे छे:-'भदन्त! ना अर्थ साथे घणो ज मळतो आवे छे] उदासीन रहे निगण्ठ नातपुत्त जे सर्वज्ञ अने सर्वदशी छे, जे संपूर्ण छ तेने शोक स्पर्श करी शकतो नथी. जो के ते संसारमा ज्ञान अने दर्शनथी संपन्न होवानो ( आ आगळ जणा- मौजुद छे तो पण ते दुःख परंपराथी, जेम कमलनुं पान वेला शब्दोमां) दावो करे छे के " चालतां, उमतां, पाणीथी अलिप्त रहे छे तेम, ते मनुष्य पण अखिन्न ऊंघतां अने जागता हुं सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छु ” ते रहे छे. ' जुना कर्मोनो तपस्या वडे नाश थवानुं प्ररूपे छे. अने आ सिवाय बौद्ध ग्रंथमां, नातपुत्त सर्वज्ञान अने सर्व संवरद्वारा नवां कर्मोने रोकवानो उपदेश आपे छे. ज्यारे दर्शन प्राप्त करवानो दाबो करे छे–ए प्रकारनुं जे कथन कर्मनो क्षय थाय छे त्यारे दु:खनो क्षय थाय छे. ज्यारे छे तेने स्पष्ट करवा माटे प्रमाण आपवानी जरूर नथी. दुःखनो क्षय थाय छे त्यारे वेदनानो अंत आवे छे. ज्यारे कारण के आ तो जैन धर्मन खात एक मौलिक मंतव्य वेदना मटशे त्यारे सर्व दुःखनो क्षय थशे. आ रीते ज्यारे ज छे. पापनो पूरो ध्वस थशे त्यारे मनुष्य वास्तविक मुक्ति निगण्ठोना सिद्धांत विषयक बीजी वधारे माहिती मेळवशे."
महावग्ग ६, ३१ ( S. B. E, पु. १७, पृ. १०८) १४ आ नामना, स्पष्टरीते, बे पुरुषो मळी आवे छे. बीजो अभय आदिमांथी मळी आवे छे. ए स्थळे सीह"नुं एक वृश्रेणिकनो पुत्र हतो अने जैनोनो सहायक हतो. तेना जैनोना सूत्रो तेम ज कथाओमा उल्लेख थएलो छे. मज्झिम निकायना ५ मां
तान्त आपेलुं छे. ते सीह लिच्छवि ओनो सेनापति हतो ( अभय कुमार ) सुत्तमा एवं वर्णन छे के निगण्ठ नातपुत्ते तेने बु- अने नातपुत्तनो उपासक हतो. ते बुद्धने मळवा इच्छतो द्धनी साथ वाद करवा मोकल्यो हतो. प्रश्न एवो चालाकी भरेलो हतो परंतु नातपुत्त क्रियावादी होई बुद्ध अक्रियावादी तैयार करवामा आध्यो हतो के बुद्ध तेनो गमे तेवा हकार अगर
हतोतेथीतेनी पासे जवानी तेने ना कहेवामां आवती नकारा नवाब आपे पण ते स्वविरोध वाळा न्यायशास्त्र प्रसिद्ध दोषमां रूपडाया वीना रहे ज नहि. परंतु आ युक्ति सफळ थई नहिं १५' सीह ' नु नाम भगवती [ कलकत्ता आवृत्ति, पृ. १२६७ अने परिणाम तेथी उलटुं ए आव्यु के अभय बुद्धानुयायी थई गयो. जुओ होर्नल नी उवास गदसाओ, परिशिष्ट, पृ.१०] मां महावीआ वर्णनमां नातपुत्तन। सिद्धांत उपर प्रकाश पाडे एवं कांई तत्त्व रना एक शिष्य तरीके पण मावेलुं छे,परंतु ते साधु होवार्थ महावनथी..
ग्गमा आवता आ नाम साथे तेनी एकता बतावी शकायतेम नथी।
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जैन साहित्य संशोधक
हती. परंतु ते तेमनी आज्ञाने उलंधी पोतानी मेळे बुद्ध उपालिनुं बीजुं कथन के, जेमां ते निगण्ठोने मानसिक पासे गयो अने बुद्धनी मुलाखातना परिणामे ते तेनो पापो करतां कायिक पापोने वधारे महत्त्व आपनारा जणाअनुयायी बन्यो. आ वृत्तान्तमा निगण्ठोने जे क्रिया- वे छे, ते कथन जैन सिद्धान्त साथ बराबर मळतुं आवे वादी जणाववामां आव्य' छे, ते बाबत आ पुस्तकमां छे. सूत्रकृतांग २, ४ (पृ. ३९८ ) मां एवा एक अनुवादित सूत्रोना उल्लेखथी सुसिद्ध थाय छ:-सूत्र- प्रश्ननी चर्चा करवामां आवी छ के अणजाणपणे कराएकृताङ्ग १, १२,२१, (पृ. ३१९) मां जणावे छे के ला कृत्यनु पाप लागे के नहिं. त्यां आगळ स्पष्ट रीते 'तीर्थकर-अहनने क्रियावाद प्ररूपवानो-उपदेशवानो -जणावेलुं छे के निश्चित रीते तेवु पाप लागे छे. ( सरखाअधिकार छे. ' आचारांगसूत्र १, १, १, ४ (भाग १ वो पृ० ३९९ टिप्पण ६ ) वळी ते ज सूत्रमा ६ ठा पृ० २) मां पण आ विचार, आ प्रमाणे दर्शावामां अध्ययनमा (पृ० ४१४) बौद्धोना ए मंतव्यन केआव्यो छे:- 'ते आत्माने माने छे, जगत्ने माने 'अमुक कर्म पापयुक्त छे के पापरहित छ तेनो निर्णय ते छे. फळने माने छे. कर्मने माने छे. ( एटल के ते आ कर्म आचरनार मनुष्यना आशय उपर आधार राखे छ,' पणां ज करेला छे अने जे आ प्रमाणेना विचारोथी स्पष्ट खूब खण्डन अने उपहास करवामां आव्यो छे. जणाय छे ) ते कर्म में कथु छे; ते बीजा पासे करावीश; ते अंगुत्तर निकाय ३,७०,३ मां निगण्ठ श्रावकोना हं बीजाने करवा दईश.' इत्यादि.
आचारोनं वर्णन आपलं . ते भागनुं नीचे प्रमाणे महावीरना जे बीजा शिष्यन बुद्धे पोतानो अनुयायी भाषान्तर आपुं छं. हे विशाखा, निगण्ठनामे ओळखा. बनावी लीधो हतो तेनुं नाम उपालि हतुं. मज्झिमनि- तो श्रमणोनो एक संप्रदाय छे. तेओ श्रावकोने आ प्रकायना ५६ मा प्रकरणमा जणाव्या प्रमाणे तेणे बुद्धनी माणे उपदेश आपे छे. “हे भद्र, अहींथी पूर्वदिशा तरफ साथे, ए बाबतनो वाद को हतो के–'निगण्ठ नातपुत्त एक योजन प्रमाण भूमिथी बहार रहेता जीवतां प्राणिकहे छे तेम कायिक पाप मोटुं छे, के बुद्ध मामे छे तेम ओनी हिंसाथी तमारे विरमवु, तेवी ज रीते दक्षिण, पश्चिम मानसिक पाप मोटुं छे ? ए संवादना प्रारंभमां उपालि अने उत्तर दिशा तरफनी योजन प्रमाण भूमिथी बहार कहे छे के, मारा गुरु साधारणरीते कर्म अथवा कृत्य माटे रहेता प्राणिओनी हिंसाथी विरमद् " आ रीते दण्ड ( शिक्षा ) शब्दनो उपयोग करे छे.' जो के आ तेओ केटलांक जीवतां प्राणिओने बचाववानो उपदेश उल्लेख साचो छे परंतु संपूर्णरूपे नहिं. कारण के जैनसूत्रो. आपी दयानो उपदेश करे छ; अने एज रीते वळी तेओ मां कर्म अर्थमां पण 'कर्म' शब्दनो तेटलो ज उपयोग केटलांक जीवत प्राणियोने न बचाववानो बोध करी थएलो छे. अने दण्ड शब्दनो पण तेटलो ज क्रूरता शिखडावे छे. ' ए समजावq कठिण नथी के आ थएलो छे. सूत्रकृताङ्ग २,२ ( पृ० ३५७) मां १३ शब्दो जैनोना दिग्विरति व्रतने उद्देशीने कहेला छे के, जे प्रकारना पापकर्मनुं वर्णन करेलुं छे जेमां पांच स्थळमां व्रतमा श्रावकने अमुक हद बहार मुसाफरी के व्यापार वि'दण्डसमादान' शब्द आवलो छ अने बाकीनां स्थळमां गेरे नहिं करवा संबंधीनो नियम उपदेशवामां आव्यो के. 'किरियाथान' शब्द आवेलो छे.
आ व्रतनुं पालन करनार मनुष्य, अलबत्त, पोते छूटी निगण्ठ उपालि विशेषमा जणावे छे के कायिक, वा- राखेली भूमि बहारना प्राणीनी हिंसा तो न ज करी शके चिक अने मानसिक एम त्रण प्रकारनो दण्ड छे. उपा- ए तो स्पष्ट ज छे. परंतु, आवा एक निर्दोष नियमने विलिनु आ कथन, स्थानांग सूत्रना त्रीजा प्रकरणमां (जुओ रोधी सम्प्रदाये केवा विकृत रूपमा आलेख्यु छ? पण इन्डि. एन्टि. पु. ९, पृ० १५९ ) जणावेला जैन एमां ए आश्चर्य जेवू कशुं नथी. कारण के कोई पण धार्मिक सिद्धान्तनी साथे पूर्ण मळलु आवे छे..
सम्प्रदाय पासेथी, तेना विरोधी मतना सिद्धान्तोनुं यथा
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अंक ४] डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
१७१ र्थ अने प्रामाणिक आलेखन मेळववानी आपणे आशा जेवा ज होवा जोईए. गृहस्थ अने साधुजीवनना नियमोनुं न ज राखवी जोईए. तेओ स्वाभाविक रीते, ते सिद्धा- भिन्नत्व बीजा दिवसोमा रहेतुं हतुं. परंतु आ वर्णन न्तोर्नु आलेखन एवा ज रूपमां करशे के जेथी तेमां दे- जैनोना पोसहव्रतना नियमो साथे पूरेपूरुं मळतुं आवतुं खाई आवता दोषो वधारे मोटा प्रमाणमां बतावी शकाय. नथी. प्रो. भांडारकर, तत्त्वार्थसार-दीपिकाना आधारे जैनो पण आ बाबतमा बौद्धो करतां लेशमात्र उतरे तेम पोसहवतनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे आपे छ; अने आ वर्णन नथी. तेमणे पण बौद्धोना सिद्धान्तोने आ ज प्रमाणे विकृत बीजा तेवा वर्णनो साथे बगबर संगत थाय छे. भांडारकर रूपमां आलेख्या छे. बौद्धोना ए मंतव्यनु के-पाप लखे छ:-'पोसह एटले दरेक पक्षनी अष्टमी अने चतु. ए तेना आचारनारने आशय उपर आधार राखे छे, तेनुं शीना पवित्र दिवसे उपवास करवो अथवा एकाशन जैनाए, आ पुस्तकना पृ० ४१४ उपर, केवु असत्य करवू अथवा एक ज ग्रास खावो. ते दिवसोमा यतिनी निरूपण कर्यु छे ते जोवा जेतुं छे. ए ठेकाणे जैनोए बौ- माफक वैराग्य धारण करी स्नान, लेपन, आभरण, स्त्री धोना एक महान् सिद्धान्तने मिथ्या कल्पित अने मूर्खता- संगमन, सुगन्धी धूप-दीप इत्यादिना त्याग करवो' जो के पूर्ण उदाहरण साथे मेळवी उपहास पात्र बनावी वर्तमान जनानु ए पोसहव्रत-पालन बौद्धो करतां वणुं दीधो छे.
सखत छे, ए वात खरी छे; तो पण ते, निगण्ठ-नियमो अंगुत्तर निकायनो एक उल्लेख जेनी थोडीक चर्चा
के जेमर्नु वर्णन उपर आपवामां आव्युं छे, तेना करतां आ उपर करवामां आवी छ तमां वळी आगळ चला
घणुं शिथिल होय तेम जणाय छे. मारा जाणवा प्रमाणे वतां जगाववामां आव्यु छ के-उपोसथना दिव. जैन गृहस्थ, पोसहमां कपडांनो त्याग करतो नथी. पण सोमां तेओ (निगण्ठो ) श्रावकोने आ प्रमाणे उपदेश
बाकीना आभूषणो अने बीजा विलासानो त्याग करे छे. आपे छे के “ भद्र, तमारे सघळां वस्त्रो काटीनोखा तेम ज दीक्षा ग्रहण करती वखते जेम साधुने त्यागना जोईए अने कहेवू जोईए के -हं कोईनो नथी असे सूत्रो बोलवा पडे छ तेम तेने बोलवा पडतां नथी. आ माझं कोई नथी." अहीं विचारवानुं छे के, तेना माता
उपरथी एम जणाय छ के-कां तो बौद्धोनुं आ वर्णन -पिता तेने पोतानो पुत्र तरीके माने छे अने ते पण
भूल भरेल अगर असत्यमूलक होय अने कां तो तेमने पोताना माता-पिता माने छे. तेनो पत्र अगर जैनोए पोताना नियमोमां काईक शिथिलता दाखला तेनी पत्नी, तेने पिता अगर पतिरूपे माने छे. अने ते करा हाय. पण तेमने पोताना पुत्र अगर पत्नी तरीके माने छे. तेना दीघनिकाय १, २, ३८ (ब्रह्मजाल सूत्र) मां गुलामो अने नोकरो तने पोतानो मालिक या शेठ माने आवता निगण्ठ विषयक उल्लेख उपरनी पोतानी टीकामां छे अने ते पण तेमने तेओ पोताना गुलामो अगर नोकरो एक ठेकाणे बुधोष लख छ के-'निगण्ठो आत्मा वर्णछे, तेम माने छे. आ कारणथी (निगण्ठो) तेमने रहित छ एम माने छ; अने आजीविको आत्माना व(श्रावकोने ) उक्त रीते बालवानुं कही तेमनी पाथी र्णनी अनुसार समस्त मानव जातिना ६ विभागो पाडे असत्य भाषण करावे छे. वळी ए रात्री व्यतीत थया बाद, छे. परंतु मृत्यु पछी पण आत्मानुं अस्तित्व धरावे छ तेओ, ते ते वस्तुआनो उपभोग करे छे जे सके ना अने ते बधा रोगोथी मुक्त ( अरोगो) होय छे. ए बाबतमा माटे) अदत्तादानरूप छ. आथी हुँ तेमने अदत्तादान निगण्ठो अने अजीविको बंने समानमत वाळा छे.' छेवटना लेवाना पण दोषी तरीके मार्नु छ.'
शब्दोनो अर्थ गेम तेम हो, परंतु तेनी उपरनुं वर्णन आ वर्णन उपरथी समजाय छे के निर्ग्रन्थ-उपासकना तो, आ पुस्तकना पृ. १७२उपर आपेला जैनोना आत्मउपोस्रथना दिवसोवाळा नियमो साधुजविनना नियमो स्वरूपना वर्णन साथे बराबर मळतुं आवे छे. एक बीजा
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड १
फकारामां (10p 168) बुद्धघोष जणावे छे के निगण्ठ हे महाराज, निगण्ठ चार दिशाना संवरथी संत छ. नातपुत्त थंडा पाणीने सचेतन मान छे ( सो किर सीतो- अने महाराज, आ प्रमाणे संवृत होवाथी ते निगण्ठ दके सत्तसञ्जी होति ) अने तेथी ते तेनो उपयोग नातपुत्तनो आत्मा मोटी योग्यतावाळो, संयत अने सुस्थित करता नथी. जैनोनुं आ मंतव्य अत्यंत प्रसिद्ध होवाथी छे." अलबत्त, आ जैनधर्मनुं यथार्थ तेम ज संपूर्ण वर्णन तेनी साबीती आपवा माटे सूत्रोमांथी अवतरणो आप नथी. परंतु तेमा जैनधर्मर्नु विरोधी तत्त्व पण नथी. आना वानी आवश्यकताने हं निरर्थक मार्नु छ.
शब्दो जैनसूत्रोना शब्दो जेवा ज छे. में बीजे स्थळे पाली ग्रन्थोमांथी प्राचीन निगण्ठोना मंतव्यो संबंधी जणाव्युं छे तेम'चातुयाम संवर संवुतो ' ए वाक्य मात्र जे कांई माहीती हुं एकत्र करी शभ्यो छ, लगभग ते टीकाकारे ज नहीं परंतु मूळ ग्रन्थकारे पण खोटो रीते बधी उपर आपी दीधी छ. जो के आपणे इच्छीए तेना समजेलुं छे. कारण के पाली शब्द 'चातुयाम' ते प्राकृत करतां ते घणी अल्प प्रमाणमा छ, तो पण तेथी तेनी शब्द 'चातुग्गाम' नी बराबर थाय छे. अने आ प्राकृत किंमत बिल्कुल ओछी गणाय तेम नथी. प्राचीन निगण्ठोना शब्द नो एक प्रसिद्ध जैन पारिभाषिक शब्द छ जे मंतव्यो अन आचारोना संबंधमां जे उल्लेखो आपणे महावीरना (पंच महत्वय ) पांच महावतोथी भिन्न एवा एकत्र कर्या छ त सबळा, एक अपवादने बाद करतां पार्श्वनाथना चार व्रतोनो वाचक छे. आथी आ स्थळे वर्तमान जैन मन्तव्यो अने आचारो साथ मळता आव बौद्धोए, जे सिद्धान्त वास्तविकमां महावीरना बुरोगामी छे अने तेमांना केटलाक तो जैनोना खास मौलिक पार्श्वनाथने लागू पडे छ तेने, महावीर उपर आरोपित विचारो छे. आ उपरथी आपणने एम संदेह करवानुं करवामां भूल करेली छे, एम हुं धारुं छु. आ उपरथो जराए कारण नथी जडतुं के आ बौद्ध ग्रन्थोमांनी गोंधो एम सूचित थाय छे के बौद्धोए आ शब्दने निगण्ठोना अने जैन सिद्धान्तोनी रचना वच्चेना-अंतर्वती काळमां धर्मवर्णनमा लीधेलो होवाथी तेमणे ते पार्श्वनाथना अनुजैन सिद्धान्तोमा झाझो फेरफार भयो होय.
याथियोना मुखेथी सांभळ्यो हो; अने बीजी ए पण कमें जाणी जाईने ज निगण्ठ नातपुत्तना मत विषयक ल्पना थई शके के महावीरना संशोधित मतो जो बुद्धना एक प्रधान फकरान विवेचन कर आ स्थळे मुलतवी समयमां सर्व सामान्यरीते स्वीकाराया होत तो पार्श्वनाराख्यु छ. कारण के ए फकरामां आपेली बाबत उपरथी थना अनुयायियो पण ते वखते ते शब्दनो उपयोग नहीं आपणने एक नवी ज पद्धतिए तपास करवानी जरूरत करता होत. बौद्धोनी आ भूल द्वारा हुं जैनोनी ए परंपराने रहे छ. आ फकरो दीघनिकायना सामञफल सुत्तमां सत्य स्थापित करी शकुं छु के महावीरना समयमां पण आपलो छे. हुं तेनु अहिं सुमङ्गलविलासनी नामे बुद्धघोष- पार्श्वनाथना शिष्या विद्यमान हता. वाली टीकाना अनुसारे भाषान्तर आपुं छ-' महाराज, आ पद्धतिए तपास करवानी शरुआत करतां अहिंयां एक निगड चारे दिशाना नियमनथी सुरक्षित पहेला हुं बौद्धोनी एक बीजी पण अर्थपूर्ण भूल तरफ छ (-चातुधाम संव(संवुतो). हे महाराज, की रीते निगण्ठ चार दिशाना संवरथी रक्षित छे ? महाराज, आ
१ ग्रामबोल्ट Pali sept suttas मां, गेगी । Co
gerly, अने बफ ( Burnout ) जे भाषान्तरे। निगण्ठ सघळु [थंडु ] पाणी वापरता नथी. सर्व दुष्ट कर्म
आपेलां छे ते तेमणे टीकानी सहायता लीधा विना करेलां होवाथी करता नथी. अने सघळा दुष्कर्माना विरमणबडे ते सर्व दुर्लक्ष्य करवा जेयां छे. बुध पर्नु वर्णन परंपरागत ह के कपापोथी मुक्त छे. अने सर्व प्रकारना दुष्कर्मोथी, लित हतुं ते संदिग्ध छे. सपळा पापकर्म थं निवृत्ति अनभवे छे. आ प्रमाणे २ जुओ. इन्डि. एन्टि भा. ९. पृ.१५८ मा प्रकट थए ठो मारो
On Mahavir and his Pre lecessors ना१ सुमंगलाला सेनी [पाली टेक्स्ट सेनयटा ] . ११९ मनो निबन्ध, ।
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अंक ४]
डॉ हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना वाचकनु ध्यान खेचवा मांगु छुः बौद्धा नातपुत्तने अग्गि- समजावी निःशंक बनी संपूर्ण एकमत थाय छे. बन्ने संप्रवेसन अर्थात अग्निवैश्यायन कहे छे, परंतु जैनोना मतानु- दायो वच्च काईक मतभेद , जोवामां आवे छे, सार ते काश्यप हता; अने पोताना तीर्थंकरो संबंधी परंतु परस्पर द्वेष या बैर बिलकुल जोवातुं नथी. जो के आवी बाबतोमा जैनोर्नु ज कहे विश्वासपात्र मनावु जो- प्राचान संप्रदायना अनुयायि ओने 'पंच महावत प्रतिपादईए. वळी महावीरनो एक मुख्य शिष्य, जे सुधर्मा नामे नार ' महावीरना धर्मना स्वीकार करवो पडयो हतो, ए हतो अने जेने सूत्रोमां महावीरना धर्मना मुख्य उपद- वात खरो छे; तो पण तेओ पोतानी केट लीक जूनी रूढिशक तरीके बतावेलो छ ते पोते अग्निवैश्यायन हतो; अने ओने पण वळगी रह्या हता. खास करीने वस्त्र वापरतेणे जैन धर्मनो प्रसार करवामां मुख्य भाग भजवेलो वाना विषयमा के जे रूढीनो महावीरे त्याग कर्यो हतो, होवाथी बहारना बीजा माणसो शिष्यने गुरु समजी ले- तेम आपणे मानवं जोईर. आ कल्पनानुसार आपणे वानी भूल करी होय अने तेथी करीने शिष्यनुं गोत्र गुरुने श्वेताम्बर अने दिगम्बर संप्रदायरूपी बे फिरकानो उत्पत्तिलगाडी देवामां आव्युं होय, ते घणु संभवित छे. आ नु मूळ कारण पण बतावी शकीए छाए, के जेना संबंधमां रीतनी बौद्धोए करेली बेवडी भुल महावीरनी पूर्व पार्श्व- श्वेताम्बर अने दिगम्बर बने संप्रदायमा भिन्न मिन्न अने नामना तीर्थकरनी तथा महावीरना मुख्य शिष्य सुधर्मा- परस्परविरोधी दंतकथाओ प्रचलित छे.' आ भेद देखी. नी हयातीनी साक्षी आपे छे.
ती रीते ज कांई आकस्मिक थया न हतो; परंतु असपार्श्व ए एक ऐतिहासिक पुरुष हता ते वात तो बधी लनो एक मतभेद [ उदाहरण तरीके जेवो के श्वेताम्बर रीते संभावित लागे छे. केशी' के जे महावीरना सम- मतना केटलाक गच्छोनी वचे अत्यारे ए हयाती धरावे छ यमा पार्श्वना संप्रदायनो एक नेता होय तेम देखाय छ काळे करीने विभागना रूपमा परिणत थयो अने आखरे तेनो तथा अन्य पण तेवा अनुयायीओना जैन सूत्रोमां तेणे एक महान् धर्मभेदन रूप लोधुं. घणे ठेकाणे उल्लेखो थएला छे; अने ते उल्लेखा एवी बौद्ध ग्रन्थोमां मळो आवता उल्लेखो, नातपुत्तनी पूर्वे सरळ रीते थएला छे के जेथी करीने तेनी सत्यासत्यताना पण निर्ग्रन्थोनी हयाती हती, ए नकारना आपणा विचार संबंधमा शंका उठाववाने कारण मळतु नथी. उत्तराध्यय- ने दृढ करे छे. ज्यारे बौद्ध धर्मनो प्रादुर्भाव थयो त्यारे नना २३ मा अध्ययनमा जुना अने नवा संप्रदायनो पर- निबन्थोनो संप्रदाय एक मोटा सम्प्रदायरूपे गणातो होवो स्पर मेळ केवी रीते थई गयो हतो ते बतावनारी; एक जोईए. ए निर्ग्रन्थोमांना केटलाकने बौद्ध पिटको मां, कथा आ विषयमां घणी ज अगत्यनी छे. केशी अन बुद्धना अने तेना शिष्योना विरोधी तरीके अने वळी गौतम के जेओ बंने जैन धर्मना बे संप्रदायोना प्रतिनिधि केटलाकने तेना अनुयायी थएला तरीके वर्णवेला छ के तथा नेता हता, तेओ पोताना शिष्यपरिवार सहित एक जे उपरथी आपणे उपर प्रमाणे अनुमान करी शकीए वखते श्रावस्ती पासेना उद्यानमा भेगा मळे छे, अने छीए. एथी उलट ए ग्रंथोमां कोई पण स्थले एवो उलेख महाव्रतोनी संख्या विषयक तथा सचेलकाचेलक अवस्था के सूचन सरखं पण थएटुं जोवामां नथी आवतुं के विषयक तेमना धार्मिक मतभेदो वधारे- विवेचन कया निर्ग्रन्थोना सम्प्रदाय ए एक नवीन सम्प्रदाय छे. आ सिवाय मात्र सहज समजावीने दूर करवामां आवे छे.
उपरथी आपणे अनुमान करी. शकीए छीए के निर्ग्रन्थो अने त्वराथी मौलिक नीतिविषयक विचारोना संबंधमां बद्धना जन्म पहला धणा लांबा कालथी अस्तित्व धराप्रत्येक पक्ष दृष्टान्तो द्वारा एक बीजाना विचारो समजी -
------- . ? श्वतावर अन दिगंबर सम्प्रदायांनी उत्तात्तना संधमा जर्मन १ राजप्रश्नीमां पावने (?) राजा पएसी साथ संवाद थयो हतो ओरिएन्टल सोसायटीना जर्नलना ३: मां भागमा प्रकट थरलो अने त्यार बाद राजाने तेमे पे तानो धर्मानुयायी बनाव्यो हतो. मारो निबंध जूओ।
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प्रा
वता हशे. आ अनुमानने बीजी टेको मळे छे. बुद्ध अने लोन एवा मक्खलि गोसले मनुष्य जातिनी मनुष्य जातिनी गौमां वहेचणी करी हती.' बुद्धघोषना 'कहेवा आ छ वर्गमांना श्रीजावर्गमां निर्धन्योनां समावेश करवामां आग्यो तो हवे विचारीए के निर्मन्यो जो तेज अरसामां हयातीमां आव्या होत तो तेमनी गणना एक खास पटले के मनुष्य जातिना एक स्वतंत्र पेटाविभाग तरीके कदापि न करवामां आधी होत. जरूर तेणे नियं न्धोने एक महत्वना अने साधे मारा मानवा प्रमाणे मा चीन बौद्धो मानता हता तेम एक प्राचीन संप्रदायरूपें लख्या इशे मारा उपरोक्त छेला मतनी पुष्टिमां नीचे मुजवनी दलील पण छे. मन्झिमनिकाय, ३५ म बुद्ध अने सचक नामना एक निर्बन्धपुत्र वसे धरला वादनुं वर्णन आपे छे. सचक वादमां नातपुतने हराव्यानी बढाई आपेलुं मारतो होवाथी ते निर्धन्य होय तेम लागतो नयी अने बी ए के जे सिद्धान्तोनुं ते समर्थन करवा मधे छे ते सिद्धान्तो जैनोना नथी. अ उपरथी ए विचारवा जे छ के एक प्रसिद्ध वादी के जेनो पिता निर्ग्रन्थ हतो अने जे पोते बुद्धनो समकालीन हतो, तेना पुरावा उपरथी नि न्योनो संप्रदाय बुद्धना समयमा स्थापित थयो हतो तेम भाग्ये ज मानी शकाय.
·
एक बाबत द्वारा पण महावीरना समका - छव छ व मुजब
हवे आपणे जे जे जैनंतर पाखंडी मतावलबिओ सामे जैनोए पोतानो तात्त्विक विरोध बताव्यो छे, अने ते संबंधे जे उल्लोखो तेओए कर्याी छे, ते तपासीए, अने तेनी साथै बौद्धोना उल्लेख सरखावीए सूत्रकृतांग २, १,५५ ( पृ० ३८८ ) अने २१ ( पृ० ३४३ ) मां घणे अंशे एवा वे जडवादी सिद्धान्तोनो
परस्पर मळता आवता
२०
१ दीघनिकाय, सामफल २ मंगलवासीनी १६२मा उद्धघोष स्पष्ट जणावे छे के गोसाले पोताना शिष्ये चतुर्थ वर्गेना हता तेना करता निर्धन्धो ने इलकी प्रतिमा गण्या छे. गोसाले तो भिक्खुओने तेथीए हलका प्रकारना गण्या छे के जे बाचत उपर बुद्धघोषे लक्ष्य आप्युं नथी. ते उपरथी ष्ट जाणाव के के भा भिक्छुभने बौद्ध साधुओ करता वे भिन्न मानतो हतो.
[ खंड १
तेनुं ज बनेलुं छे
उल्लेख छे. पहेला सूत्रमां जे लोको आत्माने एक अने अभिन्न माने छे तेमना एक अभिप्रायनुं वर्णन छ, अने बीजा सूत्रमां पंचभूतने नित्य अने बधुं तेम माननार एक सिद्धान्तनुं वर्णन आपे बने मत ना अनुयायीओ श्रीवतां प्राणीनी हिंसा करवामां पाप मानता नथी. आवाज प्रकारनो मत सामञ्ञफलसुत्तमां पूरण कस्सप अने अजित केशकंबलिनो होवानुं बतान्युं छे. पूरण कस्सप पुण्य अगर पाप जेबी कोई वस्तुने मानतो नथी अने अजित केसकम्बलांनो एवो सिद्धांत छे के अनुभवातीत मंतव्य के जे लोकोमा प्रचलित छे तेने मळतु कोई तत्व ज नथी. आ उपरान्त ते एम माने छेके 'माणस (पुरिस ) चार भूतोनो बनेलो छ, न्यारे छे; से मरी जाय छे त्यारे पृथ्वी पृथ्वीमां, पाणी पाणीमां, अनि अझिमा वायु वायुमां, अने ज्ञानेंद्रियो हवामां ( अथवा आकाशमा ) विलीन थई जाय छे. ठाठडीने उपाढनार, चार पुरुषो मुडदाने स्मशानभूमिमा लई जाय छे त्यारे कल्पांत करे छे कपोत रंगना हाडक बाकी रहे छे अने बीजा सपळां ( पदार्थों) बळीने भस्मीभूत भई जाम छे. आ छेल्लं सूत्र थोडा फेरफार साधे सूत्रकृतांग ना पृ० ३४० उपर आये छे: अन्य ' जनो मुडदाने बाळवा माटे लई आय के प्यारे अग्नि तेने बाळी नांवे छे त्यारे मात्र कपोतरंगना हाडकां बाकी रहे छे अने चार उपाडनारा ठाठडीने लई गाम तरफ पाछा बळे छे.
जडवादना बीजा सिद्धांत (पृ. ३४३, २२, अने पृ. २३७ ) ना संबंधमां एक बीजी शाखानो पण उल्लेख
१ माकाशने बौद्ध ग्रंथोमां पांचमा तत्त्व तरीके मान्युं नथी, परन्तु जैन ग्रंथोमां ते मान्युं छे. जुमो आगळ पृ० ३४३ ओन पृ० २३७ गाथा १५. आ मात्र एक शाब्दिक भेद छे नहीं के तात्त्विक.
1
२. हुं भ स्थल बने मूळ सूत्रोने सामसामे मुकुं हुं जेथी करीने तेमनी चेनुं साम्य पधारे स्पष्टी समजो शकायःनसन्द पचमा पुरिक्षा मतमा | अददगार पर िभिज दाय गच्छन्ति याच अळाहना | अगणित सरीरे कोपदानि पञ्ञापन्त, कापोतकानि | तवाई अहनि असन्दि होनि भवन्ति भवन्ता हुतियो | पञ्चमा पुरिक्षा गार्म पचा गच्छन्ति
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अंक ४]
डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
थएलो छे. ते मतमां पांच भूत उपरान्त छठे तत्त्व नि ७ मी गाथामा थरलो छे. साथे ए पण जणावतुं जोईए त्यात्मा मनाय छे. आ मत ते अत्यारे वैशेषिक नामना के वेदान्ति ओ अथग तेमना मंतव्योनो पण सिद्धान्तोमा दर्शनथी जे प्रसिद्धिमां आवेलुं छे तेनुं प्राचीन अथवा घणे स्थले उल्लेख आवे छे. सूत्रकृत गना बीजा पुस्तकलोकपसिद्ध रूप छे. बौद्धग्रंथमां आ दर्शनना संस्थापक ना पहेला अध्ययनमा, पृ. ३४४ उपर, त्रीजा पाखंड तरीके पकुध कच्चायन निर्दिष्ट थएलो छे. तेनो मत एवो मत तरीके वेदान्तनुं वर्णन थएलुं छे. छठा अध्ययनमां, हतो के आलुं विश्व सात वस्तुनु ( पदार्थोनु ) बनेलुं छे. पृ. ४१७ उपर, तेनुं फरीथी वर्णन आवेलुं छे. परंतु अने ते सर्व पदार्थो नित्य निर्विकार अने परस्पर बौद्धोए गणावेला छ तीर्थीकोमा आ मतनो कोई पण आस्वतंत्र छे. ते पदार्थो चार भूत, सुख, दुःख अने आत्मा चार्य नहीं होवाथी आपणे ते उपर आ स्थळे ध्यान ए प्रमाणे छे. आ सर्वेनी एक बीजा उपर कोई असर देता नथी. १ थती नहीं होवाथी कोई पण पदार्थनो वास्तविक नाश सुत्रकृतांगना बीजा भागना प्रथम अध्ययनमा, चोथा थतो नथी. मारे कहेवू जाईए के सुख अने दुःखने नित्य पाखंड मत तरीके दैववाद ( Fatalism ) नुं वर्णन मानवा छता पण ते बन्नेनी आत्मा उपर कोई असर आवलं छे. सामञ फलसत्तमां आ मतनुं मक्खली गोथती न मानवी ते मारा अभिप्राय प्रमाणे तो अज्ञानता साल नीचे प्रमाणे प्रतिपादन करे छः– महाराज, जीभरेलुं छे. परन्तु बौद्धोए कदाच असल सिद्धान्तोनु असत्य वात्माओनी अपवित्रतामां कोई हेतु अगर पहेला हयाती आलेखन कर्यु होय तो ते पण संभवित छे. पकुध कच्चायनना धरावतुं एवं कांई कारण नथी. ते अनन्यकृत छे. तेम ज ते विचारो अवश्य करीने अक्रियावादमां अंतर्गत थाय छे. पटेला हयाती भगवती कोई बीजी
छ. पहेला हयाती धरावती कोई बीजी वस्तुथी उत्पन्न थयेली अने आ बाबता ते वैशेषिक दर्शन के जे क्रियावादी नथी. ( तेवी ज रीते ) जीवात्माओनी पवित्रतामां पण छे तेनाथी भिन्न पडे छे. आ बन्ने वादो बौद्ध तेम ज जैन कोई कारण अगर पूर्वे हयाती धरावतो कोई हेतु नथी. साहित्यमां आवता होवाथी तेमनी विशेष व्याख्या करवी
या करवा ते अनन्यकृत छे. तेम ज तेनु:कोई उपादान कारण नथी.
जनोई सामान अहीं अस्थाने नहीं गणाय. जे सिद्धान्त आत्माने आनी उत्पत्ति व्यक्तिओना कोई आचारनं परिणाम नथी. क्रियाशील अने क्रियालिप्त (क्रियाथी जेना उपर असर तेम ज पारकाना कायेंनी पण तेना उपर असर नथी. तेम थाय तेवो ) माने छे ते क्रियावादी कहेवाय छे. आ
मनुष्यप्रयत्न, पण ते फल नथी. जेने उत्पन्न करवामा, वर्गमां जैनधर्म, ब्राह्मणधर्मो पैकी वैशेषिक अने न्यायदर्श
पुरुषनी शक्ति, प्रयत्न, बल, धैर्य, अगर सामर्थ्य एमानुं नो ( आ बे दर्शनोना स्पष्ट उल्लेखो बौद्ध अने जैन धर्म
कोई कारणभूत थतुं नथी. सर्वे सत्त्व, सर्वे प्राणिओ, शास्त्रोमां थएला नथी) तथा बीजां पण एवां केटलांक
सर्वे भूतो, अने सर्वे जीवो, पछी ते पशु, अगर वनस्पति दर्शनो-के जेनां नाम अत्यारे उपलब्ध थई शकतां
१ एक वात याद राखवा जेवी छ के वेदान्तिओ पण बुद्धना नथी परंतु जेनी हयातीनी माहीती आपणे आपणा आ
प्रतिस्पर्धी तरीके काम बजावता अने तेओ वैदिक धर्भना तत्त्वज्ञाग्रंथोमांथी मेळवी शकीए छीए, ते सर्वेनो-समावेश थाय मां आगळ पडता होवाथी आपणे एम अनुभान करवू जोईए के छे. अक्रियावाद ते सिद्धान्त कहेवाय छे जेमां आत्मानुं बौद्ध धर्मनी असरवाळा लोकाथी विद्वान् ब्राह्मणो दूर ज रहेता.
* मळमां 'सव्वे सत्ता, सव्वे पाण', सब्बे भूता, सव्वे जीवा, नास्तित्व अगर निष्क्रियत्व अथवा कर्मालिप्तत्व प्रतिपादन
एवो पाठ छे. जैन सूत्रोमां पण आ ज क्रमथी अनक ठेकाणेए करवामां आवे छे. आ वर्गमा सवळा जडवादी मता; पाठ भावे छे. अने ए पाठन संक्षेपमाall classes of liviब्राह्मणधर्मो पैकी वेदान्त, सांख्य अने योगदर्शनो; तथा ng beings. बौद्ध धर्मनो अंतर्भाव थाय छे. बौद्ध धर्मना क्षणिकवाट सचेतन प्राणओना बधा वर्गो' एवं भाषान्तर करेल छे.
बुद्ध घोषनी टीकार्नु भाषान्तर, हार्नले, उवासगदसाओना परि. तथा शून्यवादनो उल्लेख सूत्रकृतांग १, १४, ४ थी अने शिष्ट नं. २ जाना पान १६ उपर नीचे प्रमाणे आप्यु छे 'सब्वे
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड,
vommons
गमे ते हो पण तेमनामांना, कोईमा आंतर बल, शक्ति अस्तित्व अने नास्तित्वना संबंधमां सर्वे प्रकारनी निरूतथा सामर्थ्य नथी; परंतु आ दरेक जीव पोतानी स्वभा- पण पद्धतिओ तपासता हता अने जो ते वस्तु अनुभवावनियतिने वश थई, छ प्रकारमांनी कोई पण जातिमां तीत मालुम पडती तो तेओ सर्वे कथननी रीतिओनो रही सुख-दुःख भोगवे छे. इत्यादि.' आ सिद्धान्तानुं सूत्र इनकार करता हता. ' कृतांगमां (1. c. ) आपलु वर्णन जो के थोडा शब्दोमा
बुद्ध अने महावीरना समयमा प्रचलित एवा अन्य छे, छतां पण सरखा भानार्थवाळु छ; अलबत, ते स्थळे
तात्त्विक विचारोना विषयमां जैन तथा बौद्ध ग्रंथोमां मळी आ सिद्धान्तो मक्खलिपुत्र गोसालना छे एम स्पष्ट -
आवती नोंधो गमे तटली जूज होय, तो पण ते नामांकहेवामां आव्युं नी. जैनो प्रधानतया चार दशनाना कित कालना इतिहासकारने अति महत्त्वनी छे. कारण उल्लेख करे छे:-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञा
के आ नोंधो द्वारा ते कालना धार्मिक सुधारकने केवा नवाद अने वैनयिकवाद. आमाथी अज्ञानिको
- प्रकारना पाया उपर तथा कया साधनोनी मददथी पो. ना मतानु मूळमां स्पष्ट कथन करेलु देखातुं नथी. तानो मत उभो करवो पड्यो हतो ते जणाई आबे छे. आ सबळां दर्शनाना विषयमा टीकाकारे जे समजुता एक बाजए आ बधा पाखंडी मनोमां मळी आवती परआपली छे, अने जे में प्र. ८३ नी २ नंबरनी टीपमा स्परनी केटलीक साम्यता अने बीजी बाजुए जैन अगर नोंधेली छे, ते घणी ज अस्पष्ट अने गरसमजुती उत्पन्न
बौद्धोनी जणाती विशिष्टता उपरथी स्पष्ट रीते अनुमान करे तेवी छे. परन्तु ए अज्ञयवादनो यथार्थ ख्याल आप
करी शकाय छे के बुद्ध अने महावीरे केटलाक विचारो णने बौद्ध ग्रंथाथी आवी शके तेम छे. सामञफल
तो आ पाखंडीओना मतोमांथी लीधा हता अने केटसुत्तमा जणाव्या प्रमाणे ते मत सञ्जय बेलट्ठिपुत्तनो हतो;
ना हता, लाक तेओनी साथे चालता तेमना सतत वादविवादनी अने त्यां नीचे प्रमाणे तेनुं वर्णन करेलुं छे:-'महाराज, भ.
असरथी उपजावी कढाया हता. माझं एम धारदुं छे के जो मने तमे पुछशो के जीवनी कोई भावी अवस्था छे ?
सञ्जयना अज्ञेयवादनी विरुद्ध महावीरे पोतानो स्याद्वादनो तो हुं जबाब आपीश के जो हुं भावी अवस्था अनु
मत स्थाप्यो हतो. अज्ञानवाद जणावे छे के जे वस्तु आभवी शकुं, तो पछी हुँ त अवस्थानुं स्वरूप समजावी ,
पणा अनुभवना पछे तेना संबंधमां अस्तित्व अगर शकुं. जो मने पुछशो के शुं ते अवस्था आ प्रकारनी
नास्तित्व अथवा युगपत् अस्तित्व अने नास्तित्वनुं विछे ? तो (हुं कहीश के ) ते मारो विषय नर्थ'. शुं ते
धान, अगर निषेध करी शकाय नहीं. ते जरीते पण तेथी ते प्रकारनी छे ? ते मारो विषय नथी. शुं ते आ बन्नेथी
उलटी दिशार दोडतो स्यावाद एम प्रतिपादन करे छे भिन्न छ ? ते पण मारो विषय नथी. नथी एम नथी? ते
के एक दृष्टिए ( अपेक्षाए ) कोई पुरुष वस्तुना अस्तिपण मारो विषय नथी.' इत्यादि. आ ज रीते मृत्यु
त्वचें विधान करी शके ( स्याद अस्त्रि ) तेम बीजी पछी तथागतनी हयाती रहे छे के नहीं ? रहे छे अने
दृष्टिए तेनो निषेध करी शके ( स्यादे नास्ति ); अने नथी रहेती ? रहे छे एमए नथी ? अने नथी रहेती एम
तेवी ज रीते भिन्न भिन्न कालमां से वस्तुना अस्तित्व तथा ए नथी ? आवा प्रश्नो जो कोई पूछे तो तेनो पण
नास्तित्वनुं विधान करी शके ( स्याद् अस्ति नास्ति ) ते ए ज रीत जबाब आपे छे. आ उपरथी
परन्तु जो एक ज कालमां अने एक ज दृष्टिए कोई मनुष्य स्पष्ट छ के अशेयवादीओ कोई पण वस्तुना
वस्तुना अस्तित्वन तथा नास्तित्वनुं विधान करवा इच्छतो सत्ता-पटले ऊंट, बळद, गधेडा अने तेवा बीजा बधा पशुओ. होय तेणे एम कहेवू जोईए के ते वस्तु विषये कांई कही सचे पाणा-पटले एकान्द्रय द्विन्द्रिय नादि चेतनावाळा प्राणि ओ,
, शकाय नहीं ( स्याद् अवक्तव्य: ). ते प्रमाणे केटलाक सब्ये भूता-एटले अण्डज अने गर्भज जीवो; अने सब्बे जीवा -एटले डांगर, जव, धऊं इत्यादि ( वानस्पतिक ) जीवो.
संयोगोमा अस्तित्वनुं विधान करवू अशक्य छे (स्याद
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अक ४]
डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
नास्ति अवक्तव्यः); केटलाक प्रसंगे नास्तित्व (स्याद् निर्वाणना सिद्धान्तने झीलवा माटे भूमि तैयार करी राखी नास्ति अवक्तव्यः ); अने केटलीक वखते बन्नेनुं विधान हती. एक बाबत खास नोध लेवा जेवी छ:-संयुत्त
अशक्य होय छे (स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्यः) निकाय जेर्नु भाषांतर प्रो. अल्डनवर्गे करेलुं छे, तेमा ___ आ वाद ते जैनोनो प्रसिद्ध सप्तभंगी नय छे. शें कोई एक ठेकाणे पसेनदि रजा अने खेमा नामनी आर्या वच्चे पण तत्त्ववेत्ता पोताना भयंकर प्रतिस्पर्धीने चूप करवाना थए लो संवाद आवे छे. तेमां राजाए मृत्युवाद तथागत प्रयोजन सिवाय, जेने प्रमाणनी जरूर नथी, एवी उघाडी हयाती धरावे छे के नहीं ए संबंधमा प्रश्न पूछे ला छे. बाबतोनी व्याख्या करवानी इच्छा करे खरो ? एम लागे जे सूत्रोमां आ प्रश्नो पूछेला छे, तेमां सामञफल सुत्त छे के अज्ञेयवादिओना सूक्ष्म विवादोए प्राय तेमना घणा -के जेनु भाषांतर उपर आपलं छे,-मां जेवा शब्दो खरा समकालीन मनुष्योने गुंचवणमा नांख्या हो अगर संजय वापरे छे तेवा ज शब्दो वापरेला छे. भमाव्या हशे; अने तेथी करीने ते सर्वेने अज्ञानवादनी भूल- बुद्धना समयना अशेयवादनी असर बुद्ध उपर थई हती भूलामणीमाथी बहार निकळवा माटे स्यादवादनो सिद्धान्त तेवा प्रकारना मारा अनुमाननी पुष्टिमां हुं महावग्ग १, एक क्षेममार्ग तरीके देखायो हशे. आ शास्त्रनी मददथी २३ अने २४ मां आपेली एक परंपरागत कथा अत्रे विरोधिओ उपर आक्रमण करनार अज्ञानवादिओ पोताना ज रजु करूं छं. ते कथामा एम जणावेलुं छे के बुद्धना साथी सामे थई जता हता. आपणे नथी कही शकता के अज्ञेय- वधारे प्रख्यात एवा सारिपुत्त अने मोगलान नामना बादना केटला अनुयायिओ, आ सप्तभंगी नयना सत्यनी बे शिष्यो, तेमना अनयायी थया पहेला सञ्जयना शिष्यो प्रतीति पामी महावीरना धर्ममा आवी गया हशे! हता अने पछाथी तेओए पोताना जूना गुरुना मतना
अशेयवादनी बुद्धना उपर पण केटली बधी असर थई २५० शिष्योने पण बौद्धमागी बनाव्या हता. आ हकिकत हती ते आपणे पाली ग्रंथोमा निरुपित बुद्धना निर्वाण बुद्धे बोधि प्राप्त कर्यु त्यार पछी तरत ज बनी हती. आ विषयक सिद्धान्तमां जोई शकीए छीए. आ प्रकारनां नि. थी ए संभवित छ के पोताना नवा मतना प्रारंभ कालमा श्चयात्मक वाक्यो तरफ प्रथम ध्यान प्रो. ओल्डनबर्गे बुद्धे शिष्यो भेळववा माटे ते वखते प्रचलित एवा बीजा खेच्यु हतुं. आ वाक्यो निःशंक पणे जणावे छे के मृत्यु मतो तरफ सर्वप्रकारनी योग्य वर्तणुंक राखवानी कोशीश बाद तथागत ( अर्थात् मुक्तात्मा अथवा जेने वास्तवमां करी हशे. व्यक्तित्वनो हेतु कही शकाय ते ) हयाती धरावे छे के महावीरना सिद्धान्तोना विकास उपर, मारी मान्यनहीं; एवा प्रश्ननो उत्तर आपवा बुद्ध चोक्खी ना पाढता हता. जो तेमना समयना लोकोना सांभळवामां आवा विचा
२ निर्गणना स्वरूप-कथन संवन्धमा बुद्ध जे मौन धारण कर्य
हतुं ते तेमना वखतमा भले डहापम भग्लं गणारं होय, परंतु ते रो बिलकुल न आव्या होत अने आवी केटलीक बाबतो के संप्रदायना विकासने माटे तो तमाघमा परिणामो समाएला इता. जे मनुष्यना मनथी अतीत होई ते घणी महत्त्वनी गणाय कारण के बौद्ध मतना अनुपायीओने, ब्राह्मण दार्शनिको जेवा के तेना संबंधमा, तेवा प्रकारना उत्तरोथी ते लोकोने
दूधमाथी पोरा काढनारा तर्कशास्त्रोमोनी विरुद्ध पोताना मतन
टकावी राखबानो होवाथी, आ महान् प्रश्न के जेना विषयमा तेसंतोष न वळतो होत तो तेओ, तेवा कोई धार्मिक सुवा- मना धर्मसंस्थापके काई पग निश्चयात्मक कथन कर्यु नशेतुं, ते रक के जे ब्राह्मणधर्ममां तर्कसिद्ध निरुपित सधळी बाब- उपर वधारे स्पष्ट विचारो जणाववानी फरज पडी इती. आ रीते तोना संबंधमां-पोतानो स्पष्ट अभिप्राय न आपे, तेना
पोताना गुरुए अधुरा राखेला महेलने पूर्ण करवा माटे सामग्री
भेगी करवाना उद्देशथी बुद्धानेर्वाण पछी तरत ज बौधर्म पुष्कळ उपदेशोने आदरपूर्वक सांभळे ए असंभवित छे. परन्तु
संप्रदायाना रूपमा विभक थई गयो हतो. आश्चर्य पामवानी जरूर वस्तुस्थिति जोतां एम लागे छे के अज्ञेयवादे बौद्धोना नथी के सिलोन जे ब्राह्मणविद्याविषयक केंद्रथी घणु दूर आवेल
छे त्या बौद्धोना आ निर्वाणनो सिद्धांत असल रूपमां अखंडित १ भांडारकर-रिपोर्ट सन् १८८३-४ पृ. ९५
रही शक्यो छे.
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड १
तानुसार, मक्खलिपुत्त गोसालनी मोटी असर थयेली छे. भगवती १५, १, मां आपेलो तेना जीवननो इतिहास, हॉर्नले पोताना उपासग दसाओना भाषान्तरने अंते, एक परिशिष्टमा संक्षेपमा भाषान्तरित करेलो छे. तेमां एम माणे नोवेलुंछे के, गोसाल महावीरनी साथे तेमना शिष्य तरी के श्रमणधर्म पाळतो थको छ वर्ष सुधी रह्यो हतो. परन्तु पछी ते तेमनाथी जुदो थई गयो अने पोतानो नवो धर्म स्थापी जिन तरीके आजीविकोनो नायक कहेवडावया लाग्यो. परन्तु बौद्ध ग्रंथोमां तेना संबंध एवी नॉच मळी आवे नोंध छे के ते नन्द वच्छ अने किस संकिचनो उत्तराधिकारी तो अने तेनो संप्रदाय साधुवर्गमा चिरस्थापित (लांचा वत पूर्वे स्थापित थलो एवो) मनातो होई अलक परिवाजका नामे प्रसिद्ध हतो. जैनोनी ए हकिकत के महावीर अने गोसाल ए बन्ने केटलाक वखत सुधी साधे तपश्चर्या करी हती, तेमां शंका करवानुं काई कारण नयी परन्तु तेओ बन्ने वच्चे जे संबंध बताववामां आवे छे ते वास्तवमां तैनाथी जुदा प्रकरनो होय तेम लागे छे. मारुं एवं मानवु छे; - अने मारा आ अभिप्रायना पक्षमां हुं हमणा जकेटलीक दकीलो आपीश के महावीर अने गोसाल ए बने पोताना संप्रदायोने एक करवाना अने एकने बीजामां मेळवी देवाना इरादाथी परस्पर सहचारी बन्या हता अने लांबा वखत सुधी आ बन्ने आ चाय साधे राहता. ए बाबत उपरथी चोकस अनुसूचवे छे भने तेओना धार्मिक आचारोनुं वर्णन महि
आवे छे. परंतु आ बाबतना संबंधमा मारुं एवं मानवुं छे के जैनोए मूळ आ विचार आजीविको पासेथी लीवो हतो, अने पाळची पोताना बजा बचा सिद्धान्तोनी साधे ते संगत बने तेी रीते ते फेरफार कर्यो हतो. आचार विषयक संघळा नियमोना संबंधमां, जेटला प्रमाणो उपलब्ध थाय छे ते उपरथी, लगभग सिद्ध थाय छे के महावीरे अधिक कठोर नियमो गोसालना लीधा हता. कारण के उत्तराध्ययन २३, १३ ( पृ० १२) मां जणाव्या प्रमाणे पार्थना धर्ममा निधाने नीचे अने उपरना भागमां एकेक वस्त्र पेहरवानी छूट हती. परंतु वर्ष मानना धर्ममा कपडानो स्पष्ट निषेध करवामां आव्यो हतो. न साधु माटे जैन सूत्रोमा अनेक स्थळे मळी आवतो शब्द 'अक'' छे जेनो शब्दार्थ 'वन रहित' एवो थाय छे. 'वस्त्र बौद्धो अचेलको अने निर्बंधोंने भिन्न भिन्न माने छे. उदाहरण तरीके धम्मपदं उपरनी बुद्धद्घोषकृत टीकामा केट लाक भिक्षुओना संबंधमां जणावेलू छे के, तेओ अचेलको करतां नियोने वधारे पसंद करता हता. कारण के अ लको तद्दन नग्न रहे छे ( सब्बसो अपटिच्छन्ना ) परन्तु निर्धन्यो कोई जातनुं ड्रंकुं आवरण राखे छे जेने ते मि क्षुओ खोटी रीते 'लगानी खातर' मानता हता. अचेलक शब्दद्वारा बौद्धो मक्ख गोसाल अने तेनी पूर्वे ई गएला किस संकिच अने नन्द बच्च्छना अनुयायिओ
मनिकायमा संगृहीत राख्युं छे. तेमां ते स्थले निगण्ठपुत्त सचक — जेनी ओळखाण आपणने उपर बई गएली छे
मान थाय छे के ते बन्नेना मतोनी वच्चे केटलंक साम्य हो ज जोईए आगळ पृ० २६ उपरनी टीपमां में जणा छे के 'सच्चे सत्ता सव्ये पाणा, सब्वे भूता सध्ये जीवा' ना स्वरूप वर्णन गोसाल तेमज जैनोनी बसे समान छे. अने टीकामा जणावेल एकेद्रिय द्विन्द्रियादि वर्गरूपे प्रा जिओना विभागों के जे जैन ग्रंथोमां बना ज साधारण छ, सेवा विभागोनो गोसाले पण उपयोग कयौं छे. चमस्कारी अने लगभग असल्यामासरूप छ लेश्यानो जैनसि द्वान्त, जेने पहेली ज वखत दृष्टिगोचर कपतुं मान कर्यानुं प्रो० ल्यूमनने घटे छे -- गोसाले करेला सघळी मनुष्यजाति माटेना छ वर्गोंना विभाग सावे संपूर्ण रीते मळतो
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१ बीजो एक शब्द ' जिनकल्पिक ' छे जेनो अर्थ 'जिन जेवो आचारपालनार बई शके. शांवरो कह ले के जिनकल्पने मछे प्राचीन काळमां ज स्थानरकल्प स्विर करवामां अयो बदले आवी हते जेनी अंदर पत्र राखवानी छूट आपणामा जान हती. १ जओ फुसूबोलनी आवृत्ति, पृ. ३९८.
२ मूळ अविलासेसकं पुरिमसमर्पिता व परिच्छान्ति ए शब्दो बेरावर स्पष्ट धता नवी परंतु तेमां वामां आवरोध निशंकरीते ए ज भावार्थ सूचवे छे. पाली शब्द ' सेसक ' ते मारा धारवा प्रमाणे संस्कृत 'शिक्षक' नुं रूप छे आ जो खरूं होय तो उपरना शब्दानुं भातान्तर नीचे प्रमाणे ६ई शके 'तेभो ( शरीरना) आगला भाग उपर (कपडुं) पहेरी गुद्यांगने ढांके छे
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डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावमा
अंक ४ ]
- कायभावना एटले शारीरिक पवित्रतानो अचेल कोना आचारने उद्देशीने अर्थ समजावे छे. सच्चा वर्णनमांनी केटलीक विगतो टीकाना अभावे नहीं समजी शकाय तेवी दुर्बोध छे. परन्तु केटलीक तो तद्दन स्पष्ट छे अने ते, केटलाक प्रसिद्ध जैन आचारो साथे संपूर्ण सादृश्य धरावे छे. दाखला तरीके अचेलको पण जैन साधुओनी माफक भोजननुं आमन्त्रण स्वीकारता नथी. तेओने माटे अभिहत अथवा उद्दिस्सकत अन्न लेवानो निषेध छे. आ बन्ने शब्दो जैनोना अभ्याहृत अने औदेशिक शब्दो ( जुओ पृ० १३२. टिप्पण ) समान होय तेम दरेक रीते संभावित छे. वळी तेओने मांस अने मदिरा लेवानी छूट नथी. 'केटलाक मात्र एक ज घरे मिक्षा लेवा जाय छे अने मात्र एक ज ग्रास खोराक ले छे. केटलाक वधारेमा वधारे सात घेर भिक्षा माटे जाय छे; केटलाक एक ज वार आपेलं अन्न लईने रहे छे; लकवा वारे सात वार सुधी आपलं लईने रहे छ' आ प्रकारना ज जैन साधुओना केटलाक आचा. गे कल्पसूत्रनी सामाचारीमां वर्णवेला छे (२६, भाग १, पृ० ३००, अने आ ग्रंथना पृ० १७६; गाथाओ १५ अने १९). नीचे वर्णवेलो अचलकोनो आचार अने जैनोनो आचार बराबर एक ज छे एम स्पष्ट जणाय छे. 'केटलाक हमेश एक ज वखत भोजन करे छे अने केटलाक बे दिवसमां एक ज वखत भोजन करे छे, ' इत्यादि अने ए रीते वधता क्रमे केटलाक ठेठ एक पखवाडीए एक वार भोजन ले छे. ' अचेलकोना आवा बधा नियमो अने जैनोना नियमो या तो लगभग एक ज छे अगर तो अतिशय मळता छे. अने आ प्रकारनुं साम्य जोवामां आवतुं होवा छतां, तथा सच्चक एक निगण्ठपुत्त गणातो होवाना लीघे तेमना धार्मिक आचारोथी ते परिचित होवा छतां, काय भावनाना आदर्श तरीके निग्रन्थोनो
१
१ आ प्रकारना उपवासोने जैनो उत्यभत्त छहभत्त इत्यादि माम आरे छे (जुओ उ त ल्युमनसपादित औपप तिक सूत्र ३० I A); भने आ उग्वास करनारा सांधुओ अनुक्रमे चउत्थभ. त्तिय, छभ त्तिय, इत्यादि नामोथी ओळखाय छे. ( जुओ दा. त कल्पसूत्र सामाचारी २१. )
१७१
उल्लेख करतो नथी ते खरेखर आश्चर्यजनक लागे छे. परन्तु आ आश्चर्यजनक बाबातने नीचेनी कल्पना द्वारा आपणे सहेलाईथी समजावी शकीए छीए, अने ते एवी रीते के बौद्ध ग्रंथोमां बहुधा जे असलना प्राचीन निर्ग्रन्थोनी बाबत ना उल्लेखो मळी आंव छे, ते (निर्ग्रन्थो ) जैन समाजना जे एक वर्गे महावीरना उग्र व्रतोनो स्वीकार कर्यो हतो तेओ नहीं, परन्तु महावीरना मतना विरोधी न बनता जेओ ते संयुक्त संप्रदायमां रहीने पण पोताना प्राचीन संप्रदायना केटलाक खास आचारोने वळगी रह्या हता ते प्रकारना पार्श्वना अनुयायिओ हता. आ प्रकारना केटलाक कठोर नियमो के जे प्राचीन धर्मना अंगभूत मनाता न हता अने जेमने महामीरे ज दाखल करेला हता, ते संभवित रीते तेमणे गोसालना अचेलक अथवा आजीविक नामे प्रसिद्ध अनुयायिओना लीघा हता. अने आनुं कारण ते तेओए ( महावीरे ) जे छ वर्ष सुधी गोसालनी साथ अत्यंत निकट सहचर तरीके रही तपश्चर्या करी हती, ते छे. आ प्रमाणे आजीविकोना केटलाक धार्मिक विचारो अने आचारोनो स्वीकार करवामां महावीरनो आशय गोसाल अने तेना अनुयायिओने पोताना पक्षमां लेवानो होय एम लागे छे; अने केटलाक समय सुधी तो आ उद्देश सफल पण थयो होय. परन्तु आखरे बन्ने नेताओनी बच्चे मतभेद थयो हतो, के जेनुं कारण घणुं करीने ए प्रश्न हतो के आ संयुक्त संप्रदायनो नेता कोण बने. गोसालने साथै थएला आ टुक समयना सम्बन्धी स्पष्टरीते महावीरनी पदवी घणी सुस्थित बनी हती; परन्तु गोसाले, जैन हकिकतो अनुसार, पोतानी प्रतिष्ठा गुमावी हती
अने आखरे तेना शोकपूर्ण अवसानथी तेना संप्रदायना भाविने सखत फटको लाग्यो.
आपणे जो के ते बधुं साबीत न करी शकीए, परन्तु महावीरे अन्य संप्रदायोमाथी घणुं लीधुं छे ए वात नि:संशय छे. जैन धर्म यथार्थमां एक संस्थिति रूप दर्शन नहीं होवाथी तेमां नवा मतो तथा सिद्धान्तोना उमेरा घासलाईथी थई शके तेम हतुं जे जे संप्रदाय अगर
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जैन साहित्य संशोधक
तो तेना भागो महावीरनी सफल कार्यदक्षताने' लईने वधारे जुनो होय तो तेना तत्त्वज्ञानना स्वरूपमां पण जैनधर्ममा आवता गया ते सघळा संप्रदायोना केटलाक कांईक प्राचीनतानां चिह्नो देखावां'जोईए. आवं एक प्रीतिपात्र विचारो तेम ज तेमना प्रिय गुरुओ, जेओने चिह्न ए धर्ममा खास मळी आवे छे, अने ते तेनो, सवळी तेओ चक्रवती अथवा तीर्थकरना नामे ओळखता वस्तु चैतन्य युक्त छे, एम बतावतो सचेतनवाद छे. ते हता, ते सघळां दाखल थई गयां होय तो तेमां नवाई वाद जणावे छे के मात्र वनस्पतिमा ज नहीं परन्तु पृथ्वी, नथी. अलबत् आ एक मात्र मारूं अनुमान छे. परन्तु पाणी, अग्नि, अने वायुना कणोमां पण आत्मतत्त्व रहेखें आ अनुमाननी मददथी आपणे जैनोनी आचार्यो साधुओ छे. मानवजातिशास्त्र ( Ethnology ) आपणने एम विषयक विलक्षण परंपरानु उत्पत्ति कारण समजी शकीए शीखवे छे के जंगली लोकोनी तत्त्वज्ञान विषयक सघळी छीए. प्रत्यक्ष प्रमाणनो ज्यां सर्वथा अभाव होय त्यां मान्यताओ सचेतनवादमूलक होय छे. आ सचेतनवाद आपणने अनुमानो उपर ज आधार राखवो पडे छे, जेम जेम जनसंस्कृति वधती जाय छे, तेम अने ए अनुमानोमां पण जे अनुमान विशेष सत्य- तेम शुद्ध मनुष्यत्वरूपमा ज मात्र परिणत थतो सांभळतां खरूं लागे एवं-होय ते स्वीकारवा योग्य बने जाय छे. आथी करीने जो जैन धर्मनुं नीतिशास्त्र मोटे छे. फक्त आ बाबत ने छोडीने बाकीनी जे जे बाबतो भागे आ प्राचीन सचेतनवाद-मूलक होय तो जैनधर्मनी आ प्रस्तावनाना प्रारंभनां पानाओमां में मारी कल्पनानु- पहेल वहेली उत्पत्तिना समये ते सचेतनवादनो सिद्धांत रुपे रजु करेली छे ते सघळी आना करतां वधारे प्रमाण- हिन्दुस्ताननी प्रजाना मोटा भागोमां विस्तृतरुपे विद्यमान मत छे, ए हुँ अत्रे खास जणावी दऊ छं. ए बधा वि- होवो जोईए. आ परिस्थति ते अति प्राचीन समयनी चारोमां मारा कोई पण कथनथी जैन परंपरागत कथन होई शके के जे वखते हिन्दुस्तानना मनुष्योना मन उपर के-जे लेखी पुरावा ओना अभावमां आपणने एक मात्र उंचा प्रकारनी धार्मिक मान्यताओए अने पूजानी पद्धतिते ज मार्गदर्शक बने छे-तेने आघात पहोचतो नथी. ओए असर करी न होती. अने बीजुं, मारी एके कल्पना पण एवी नथी और
जैन धर्मनी प्राचीनतानुं बीजु चिन्ह ते तेनी वेदान्त के जे ते समयनी परिस्थिति अनुसार असंभबित
अने सांख्य जेवा बे सौथी प्राचीन ब्राह्मण दर्शनोनी साथे
र लागे. जैन धर्मना प्राचीन इतिहासनी रचनामां
रहेली सिद्धांतविषयक समानता छे. ते प्राचीन कामुख्य स्थान राकनार जे, ए रक हकीकत छे के, महा
लमा तत्त्वज्ञानना ( Metaphysics ) विकास क्रमा वीरना समयमा पार्श्वनाथना शिष्यो हयाती धरावता हता
गुण नामना पदार्थनो जेवो जोईए तेवो खुल्लो अने स्पष्ट अने जेनो निर्देश बतावती परंपरा पण विद्यमान होई
ख्याल थई चूक्यो ह न हतो; परन्तु ते पदार्थ द्रव्यपतेनी सत्यता पण अत्यारना सबळा विद्वाना एके अवाजे
दार्थमाथी उत्क्रांत थई रह्यो हतो एम लागे छे. जे जे स्वीकारे छे, तेनो ज में अहिं उपयोग कर्यो छे.
वस्तुने आपणे गुण तरीके ओळखीए छीए ते, ते वखते __ हवे आ रीते जो जैनधर्म ए एक प्राचीन कालथी
भूलशी वारंवार द्रव्य तरीके मनाई जती अने केटलीक वखते चालतो आवतो धर्म होय अने महावीर तेम ज बद्ध करतां
द्रव्य साथे तेनुं मिश्रण पण थई जतुं. वेदान्तमा परब्रह्मने १ खरखर महावीर तेमना पोताना मार्गमा एक महान व्यक्ति
. शुद्ध सत्ता, ज्ञान, अने आनन्दरूप स्वाभाविक गुणथी इशे, तेम ज तेमना समकालीन पुरुषोमा त एक उत्तम प्रकारना सम्पन्न नहीं, परंतु सत्, चित्, अने आनंदस्वरूप ज माननेता पण हशे, तमां शक नथी. तेमनी तीर्थ कर पद-प्राप्तिमा जे. वामां आव्यू छे. सांख्यमा पुरुष अथवा आत्माना स्वभाटले शे, तमो पोताना मतनो प्रसार करवायी संपादित करेलो
वनुं वर्णन करती वखते तेने ज्ञान अथवा तेजोरूप बताबतेमना या क रयाभूत थयो छ तेटले वधे अंशे तेमन पवित्र जीवन कारण भूनन होतु थर्मु.
वामां आव्यो छे. अने जो के सत्त्व, रजस्, अने तमस्,
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अंक ४
डॉ. हर्मन जेकोबोनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
एत्रण पदार्थोंने गुणरूपे गणाव्या छे खरा, परंतु गुणनं जे लक्षण आपणे स्वीकारीए छीए ते अनुसार ते गुणो थई शकता नथी. प्रो० गार्बेना जणाव्या प्रमाणे वास्तमां ते मूळ प्रकृतिना अवयवो ज छे. आ ज प्रकारना सिद्धांतने लईने सामान्य रीते जैनोना प्राचीन सूत्रोमा द्रव्य अने तेना पर्यायोनो ज मात्र उल्लेख करेलो होय छे. सूत्रोमा गुण पदार्थनो ज्यारे कोईक ज ठेकाणे उल्लेख थलो मळी आवे छे त्यारे पाछळना बीजा बधा ग्रंथोमां ते नियमित रीते वर्णवेलो होय छे. आ उपरथी एम स्पष्ट जणाय छे के ते पाछळना काळमां स्वीकारवामां आव्यो होवो जोईए. अने तेनुं कारण न्याय वैशेषिक दर्शनोना तत्त्वज्ञान अने साहित्यनी जे असर धीमे धीमे भारतवर्षना वैज्ञानिक विचारों उपर थती हती ते ज होवुं जोईए पर्याय एटले विकास अगर अवस्थान्तरनी मान्यतामां गुण जेवा स्वतंत्र पदार्थने स्थान ज मळी शके तेम नथी. कारण के द्रव्य दरेक काळमां तेना पर्यायना रुपमां ज रहे छे, अने तेथी करीने पर्याय गुणात्मक ज होय छे; अर्थात् पर्यायो नी अंदर गुणोनो समावेश थई ज जाय छे. अने आ ज विचार प्राचीन सूत्रोमां लीघेलो होय तेम जणाय छे. अन्य एक उदाहरण, जैनोए जे अद्रव्यत्वयुक्त पदार्थ उपर द्रव्यत्वना आरोप करी, वास्तविक रीते जे वस्तु गुणना वर्गमां आवी जाय हे तेवी ' धर्म ' अने 'अधर्म' एबे वस्तुओ, विषयक छे. आ बे वस्तुओने जैनोए द्रव्य तरीके वर्णवी छे के जेनी साथे जीवनो संबंध रहे होय छे. आ द्रव्योने आकाशनी साथे ज संपूर्ण लोक व्यापी मानेला छे. वैशेषिको पण आकाशने द्रव्य माने छे. जो ते समयमां द्रव्य अने गुण ए बने पदार्थों भिन्न भिन्न वर्गीकरण थयुं होत अने बन्ने अन्योन्याश्रित मनाता होत, के जैम वैशेषिको माने छे, (मुणाश्रयं द्रव्यम् अने द्रव्यान्तर्वतीं गुणः ) तो उपर जणावेल गो टाळा भरेला विचारो जैनोए कदापि स्वीकार्या नहीं होत.
१ आ कल्पना मूळ वैदिक हिन्दुओनी हती, तेम मोल्डनबर्ग पोताना Die Religion des veda नामना पुस्तकना पृ० ३१७ उपर जणान्युं छ.
उपरोक्त विवेचन उपरथी स्पष्ट जोई शकाय छे के वैशेषिक दर्शन साथे जैनोना केटलाक विचारो मळता आता होवाथी जैनधर्मनी उत्पत्ति तेना पछी थई छे, एवो जे मत डॉ० भाण्डारकरे उपस्थित करेलो छे तेनी साथे हुं समत थई शकुं तेम नथी. वैशेषिक दर्शनना स्वरुपनुं संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे आपी शकाय केसंस्कृत भाषा बोलनार तथा समजनार बधा माणसोए मनन करला सर्वसाधारण विचारांनी जे पद्धतिसर व्यवस्था अने तेनुं जे तात्विक प्रतिपादन निरूपण, ए ज वैशेषिक दर्शन छे. आ प्रकारनुं पदार्थविज्ञानशास्त्र प्राप्त करवानुं काम तो घणा प्राचीन काळथी शुरु थयुं हशे अने कणा - दना सूत्रोमा जेवुं ए शास्त्र संपूर्ण रूपे प्रतिपादित थयं छे तेवु तैयार थता पहेला मनुष्योने घणी सदीओ सुधी धीरजथी मानसिक परिश्रम उठाववो पड्यो हशे ; तेम ज तत्त्वज्ञानविषयक सतत चर्चाओ चलाववी पडी हशे आथी वैशेषिक दर्शननी आदि अने अंतिम स्थापनानी वच्चेना काळमां जो वैशेषिक विचारो लई लेवानो खोटो या खरो आरोप जैनो उपर मूकवामां आवे तो, ते कदाच तेम संभवी शके खरूं आ स्थळे बीजी एक बाबतनो उल्लेख करवो अस्थाने नहीं गणाय, अने ते ए छे के जे मुद्दाओ हुं अत्र चर्चवा इच्छु छु ते मुद्दाओने लईने डॉ० भाण्डारकरनो एवो मत थलो छे के 'जैन। ना विचारो ते एक बाजू सांख्य अने वेदान्तदर्शन अने बीजी बाजु वैशेषिक दर्शन एम बे पचनी व चेना समन्वयना आकारना छे. ' परन्तु प्रस्तुत चर्चाीने माटे तो ते बन्ने प्रकारना विचारो सरखा छे: - एटले के साक्षात् लेबुं अगर वे प्रकारना विरुद्ध विचारानुं तडजोड करवुं, ए एक ज छे. उपरोक्त मुद्दाओ नीचे प्रमाणे छे:( १ ) जैन दर्शन अने वैशेषिक दर्शन ए बन्ने क्रियावादी छे. अर्थात् ते बन्नेनुं मानवु छ के आत्मा उपर कर्म, कषायो तथा वासनादिनी साक्षात् असर थाय छे. (२) बन्ने दर्शनो असत्कार्यना सिद्धान्तने माने छे; एटले के तेमना मते कार्य ते तेना उपादान कारणथी भिन्न छे. परन्तु
२ जुओ तमनो रिपोर्ट, सन १८८३-८४, ५. १०१
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१८२. जैन साहित्य संशोधक
[सं-१ वेदान्त अने सांख्य बन्ने सत्कार्य वादने माने छः अर्थात् एक जातना द्रव्यो माने छे. एक बाबतमां, एक विरुद्ध कार्य कारणने भिन्न माने छ. ( ३ ) ए बन्ने दर्शनोमां वैशेषिक विचार अने तद्भिन्न जैन सिद्धान्त वच्चे केटलुक गुण अने द्रव्यनो पृथक् विभाग थएलो छे. ए छेल्ली बा- सादृश्य जोवामां आवे छे. वैशेषिक मतमा चार प्रकारना बत तो आपणे उपर ची गया छीए; तेथी हवे आपणे शरीरो मानेलां छे-पार्थिव शरीर जq के मनुष्य पशु प्रथम बे मुद्दाओना संबंधमां विचार करवानो रह्यो छे. आदीनु, जलात्मक शरीर जेम वरुणनी सृष्टिमां छे, आ(१) अने (२) मां जे मन्तव्योनुं निरुपण करेलुं छे. नेय शरीर जेम अग्निनी सृष्टिमां छे, अने वायर्व य शरीर ते व्यावहारिक ज्ञान-साधारण बुद्धिना विचारो छे. (अर्था- जेम वायुनी सृष्टिमां मळी आवे छे. आ विचित्र विचार त सह कोई समजी शके तेवा छ ) कारण के आपणा- साथे सदृशता धरावनारो जैनदर्शनमां पण एक विचार छे. उपर वासनाओनी साक्षात् असर थाय छे ज, तेम ज कारण- जैनो पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, अने वायुकाय; थी कार्य भिन्न छ त पण आपणा अनुभवनी बहारनी वात एम ४ काय माने छे. आ ४ मौलिक पदार्थो के जे नथी. उ.त. बीज अने वृक्ष ए बन्ने परस्पर भिन्न छे, एम मूळ तत्त्वो छ अथवा तो तेना पण सूक्ष्मभागो छ, तेनी दरेक विवेकी माणस जाणे छे; अने ते मात्र सामान्य अ- अंदर एक एक विशिष्ट आत्मा रहेलो छे, एम तेओ माने नभवनो विषय छ तेम पण लाग्या विना नहीं रहे. आवा छे. आ जड-चैतन्यवादनो सिद्धान्त उपर जणाव्या प्रमाणे विचारोने अमुक दर्शनना खास लक्षण रूपे मानी शकाय असल सचेतनवादनुं परिणाम छे. वैशेषिकोनो एतद्विषयज नहीं; अने एक बीजा मतोमो आवा विचारो समान- क विचार जो के मूळ एक ज विचार प्रवाहमाथी उत्पन्न रूपे जोवामां आवे ते उपरथी ते, एके बीजाना मतमाथी थएलो छे खरो, परन्तु तेमणे ते विचार लौकिक पुराणोलीधेला छे तेम पण कही शकाय नहीं. परंतु जो बे भिन्न ना अनुरूपे गोठवेला छे. आ बन्नेमां जैनमत वधारे प्रादर्शनोमां परस्पर विपरीत विचारदशी एक ज सिद्धान्त चीन छे अने ते वैशेषिक दर्शनना चार प्रकारना शरीर आव्यो होय तो ते बाबत अवश्य विचारणीय होय छे. वाला मतना करतां पण तत्त्वज्ञानना वधारे पुरातन विकासआवो सिद्धान्त मूळ तो ते एक ज दर्शनमांथी उत्पन्न क्रमना समयनो छ. मारा अभिप्राय मुजब वैशेषिक अने थएलो होय छे अने ते तेमां सुपतिष्ठित थया पछा ज अ- जैन दर्शननी वच्चे एवो कोई पण संबंध ज न हतो न्यद्वारा स्वीकृत थाय छे. दिक् अने आकाश ए के जेथी एक दर्शने बीजामांथी विचारो लीवा छे, एम बन्ने भिन्न द्रव्यो के ए जातनो वैशेषिकोनो स्थापित करी शकाय. छतां पण हुं एम कबूल करूं छं के खास स्वतंत्र तर्कसिद्ध सिद्धांत छे. ते जैन दर्शनमां ए बे दर्शनो वच्चे केटलुक विचारसादृश्य अवश्य रहेतुं छे. बिलकुल देखातो नथी. वेदांत अने सांख्य जेवा अधिक वेदान्त अने सांख्यना मूळ तत्त्वभूत विचारो प्राचीन दर्शनोमां तथा जैन दर्शनमा आकाश अने दिक जैन विचारोथी तद्दन विरुद्ध छ; अने बच्चे बिलकुल भेद करवामां आव्यो नथी. ए दर्शनोमां तेथी करीने जैनो पोताना सिद्धान्तने कांई पण आंच एकलुं आकाश ज बन्नेनुं प्रयोजन सारे छे.
आव्या दीधा सिवाय तेमना विचारो स्वीकारी शके ज वैशेषिक अने जैन दर्शननी वच्चे मूल सिद्धान्तोमा
नहीं. परन्तु वैशेषिक ए एवा प्रकारनुं दर्शन छे के जेथी भेदसूचक एवां केटलाक उदाहरणो नीचे प्रमाणे छे. जैन सिद्धान्त पोताना मतने आघात पहोंचाड्या सि. पहेलाना मते आत्माओ अनन्त अने सर्वव्यापी ( विमु) वाय केटलीक हद सुधी तेनी साथे संमत थई शके छे. छे; परन्तु बीजाना ( जैनोना ) मते तेओ मर्यादित परि- अने आथी ज न्याय-वैशेषिक दर्शन उपरना ग्रंथकारोमां माणवाळा छे. वैशेषिको धर्म अने अधर्मने आत्माना जैनोनां पण नामो जोवामां आवे तो तेमां नवाई पामवा गुणो माने छे, परन्तु उपर जणाव्युं तेम जैनो ते बन्नेने जेवू नथी. जैनो तो आनाथी पण आगळ वधीने त्यां
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अंक ४]
डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोगरनी प्रस्तावना
marmarma
सुधी जणावे छे के वैशेषिक दर्शन स्थापनार तेमना मत- जेनुं संस्कृतरुप षडुलूक थाय छे. तेमा घुवड अने घj नो ज एक कौशिक गोत्रीय छलुय रोहगुत्त नामनो करीने काणादोनु सूचन थाय छे ए खरुं छे, परन्तु निन्हव हतो जेणे वि. सं. ५४४ (इ. स. १८) मां उलूक शब्द जैनोए रोहगुत्तना गोत्रने अर्थात् कौशिकने' त्रैराशिक मत नामनो छठ्ठो नैन्हविक संप्रदाय स्थाप्यो उद्देशीने लखेलो होय तेम जणाय छे. कौशिक शब्दनो हतो. आ दर्शननुं जे वर्णन अवश्यक सूत्र VV. 77-83 अर्थ पण घुबड ज थाय छे. परन्तु आ बाबतमां जैनोनी मां आपेलुं छे ते वांचवाथी जणाय छे के ते सघळं वर्णन दंतकथा करतां सर्वब्राम्हणसंमत परंपरा वधारे पसंद कणादना वैशेषिक दर्शसमांथी लीधेलं छे. कारण के तेमां करवा लायक होवाथी, आपण जैनोना परंपरागत कथ( सात नाही पण ) छ पदार्थो अने तेना पेटा भेदोनुं नने एवी रीते समजावी शकीए के रोहगुत्ते आ वैशेषिक वर्णन आपेलुं छे, अने आ उपरान्त गुणना वर्गमां (२४ दर्शनने नवं प्ररूप्यु न होतुं परंतु पोताना नैन्हविक विचानहीं परन्तु ) १७ वस्तुओन वर्णन करवामां आवेलुं छे रोने समर्थित करवा वैशेषिक मतनो मात्र अंगीकार जे वैशेषिक दर्शन १, १, मां आपेली हकिकत साथे कया हतो. बराबर मळी रहे छे.
आ भागमां भाषांतरित करेलां उत्तराध्ययन अने सूत्र
कृतांग सूत्रना विषयमा प्रो. वेबरे Indische Studien. मारुं मानवु छ के, जैनो अनेक बीजी बाबतोनी मा
Vol. XVI. p 25yff अने Vol. XVII, p_43ff फक, हिंदुस्तानना प्रत्येक प्रसिद्ध पुरुषने पोताना धर्मना ।
मा जे लख्युं छे ते उपरान्त मारे कांई विशेष उमरेवानुं इतिहास साथ जोडी देवानी बाबतमां पोताने घटे तेना करतां अधिक माननो हक्क करे छे. उपरोक्त जैन दंत.
नथी. आ बन्नेमां, सूत्रकृतांग ए बीजं अंग गणाय छे
अने जैन आगमोमां अंगोने प्रथम-प्रधान-स्थान कथाने असत्य मानवामां मारां कारणो नीचे मुजब छे:
आपवामां आवे छे,तेथी ते उत्तरायध्यन सूत्र, के जे प्रथम वैशेषिक दर्शन वास्तवमां एक आस्तिक ब्राह्मण दर्शन मनाय छे अने ते मुख्यत्वे करीने स्वधर्मचस्त हिन्दओ मूळ सूत्र गणातुं होई सिद्धान्तमां तेने छल्लं स्थान मळेलं द्वारा विकसित थयुं छे. आम होवाथी तेमणे सूत्रकार
छे, तेना करतां वधारे प्राचीन छे. चोथा अंगमां आपेला नु जे नाम तथा काश्यप एवं जे गोत्र बताव्यु छ
सिद्धान्तोना सार उपरथी जणाय छे के सूत्रकृतांगनो ते संबंधमां तेओ असत्यालाप करे छे, एवी शंका कर
मुख्य उद्देश नवीन साधुओने विरोधी आचार्योना वानुं जराए कारण जणातुं नथी. अने बीजु ए के समग्र
पाखंडी मतोथी संरक्षित राखवानो अने ते रीते सम्या ब्राह्मण साहित्यमां एवो क्यांए उल्लेख मळी आवतो नथी
दर्शनमा स्थिर बनावी तेमने परमश्रेय प्राप्त कराववानो के वैशेषिक दर्शनना कर्तार्नु खरूं नाम रोहगुत्त हतुं तथा
छे. आ हकिकत एकंदर साची छे, परन्तु सर्वांगपूर्ण नथी; तेनुं गोत्र कौशिक हतुं. तेम ज रोहगुत्त अने कणाद
र ए आपणे आ पुस्तकनी शुरुआतमां आपेली विषय सूचि ए बन्ने नामो एक ज व्यक्तिानां होय तेम पण मानी
उपरथी जोई शकीए छीए. ग्रन्थनी शुरुआतमा विरोधी शकाय नहीं, कारण के तेओना गोत्र स्पष्ट भिन्न भिन्न
मतोनुं निराकरण आपवामां आवेलुं छे अने तेनो ते ज जोवामां आवे छे. कणादनो अनुयायी ते काणाद' ।
विषय फरीथी अधिक विस्तार साथे बीजा श्रुतस्कंधना
प्रथम अध्ययनमा चर्चवामां आवेलो छे. प्रथम श्रुतस्कंए शब्द, व्युत्पत्तिशास्त्रना अनुसारे काक-पक्षक एटले घुवड वाचक छे, अने एथी ते दर्शन, उपहासात्मक नाम २ अक्षरशः-छ घुवड. आ शब्दनो पहेलो 'छ' शब्द वैशे.
षिक दर्शवना छ पदार्थोनो सूचक छे. औलूक्य दर्शने पडेलु छे. रोहगुत्तनु बीजु नाम छुलुय छे, '
३ भाग १, पृ० २९०, परन्तु प्रो. ल्युमने | c. p. 121,
उपर भाषान्तर करेली एक दंतकथामां तेनुं गोत्र 'छऊलू ' तरीके १ जुओ, कल्पवनी मारी आवृत्तिनु पृष्ठ. ११९
लस्युं .
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जैन साहित्य संशोधक
धमा आनी पछी पवित्र जीवन गाळवा संबंधी, साधुनः थता गया अने जैनधर्मनी संस्था ओ सुदृढ रीते स्थिर परिषहो संबंधी, जेमा खास कराने तेमना मार्गमां बता- थती गई. नविन साधने जीवाजीवर्नु बराबर ज्ञान वधारे बवामा आवतां प्रलोभनो तथा असाधुजनो तरफथी उपयोगी मनातुं होय तेम लागे छे. कारण के आ विषय मळता शारीरिक कष्टो संबंधी, तथा धर्मना आदशभूत उपर एक मोटूं अध्ययन आ ग्रंथना अंते आपवामां महावीरनी स्तुति विषयक अध्ययनो आवेलां छे तनी आव्यं छे. जो के आ आखा ग्रंथमां आवेला जदा जुदा पछी बीजा पण तेवा ज विषयोपर अध्ययनो छे. बीजो बधां अध्ययनोनी पसंदगी तथा गोठवणीमां काईक योजश्रतस्कंध जे लगभग संपूर्ण गधयां ज लखाएलो छ तेमां ना जेवी देखाय के खरी परंतु ते सघळां अध्ययनो एक पण आवा ज प्रकारना विषयोनु निरूपण करेलुं छे. परन्तु ज कर्ताना रचेलां के के लेखी अगर मौखिक परंपरागत तेना विविध भागो वच्चे कोई पण देखीतो संबंध जोवामां साहित्यमाथी चूंटी काढेलां छे, ए एक विचारणीय बाबत आवतो नथी. आ उपरथी ते स्कन्ध अनुपूर्तिरूपे गणी छे. कारण के आवा प्रकारचें साहित्य जैन संप्रदायमां, शकाय अने तेथी ते पाछळना कालमां प्रथम स्कंधमा तेम ज अन्य संप्रदायोमा पण, धर्मशास्त्र ग्रंथोनी रचनानी अपलो एक उमेरो छे. प्रथम स्कन्धनो उद्देश स्पष्ट रीते पूर्वे वर्तमान हो ज जोईए. मारुं एम मान, छे के आ जवान साधुओने मार्ग बताववाना छे.' तनी रचना शैली अध्ययनो प्राचीन परंपरागत साहित्यमांथी ज उद्धृत करी पण आ ज प्रयोजनने उपकारक थाय तेवी राखवामां लीधेला छे. कारण के तेनी वर्णनशैली तथा भाषाशैली आवी छे. तेमां घणा छदोनो पण उपयोग करवामा परस्पर भिन्न होय तेम स्पष्ट जणाई आवे छे. अने ते आव्यो छे, जेथी तेमां कवित्वना पण समावेश थएलो बाबत एक ज कर्तानी कल्पना साथे संगत थई शकती के एम मानवु जोईए, आमांधी केटलीक गाथाओगें रूप नही
गाथाअनुरूप नथी; अने आम मानवानुं बीजु कारण ए छे के वर्तमान कत्रिम लागे छे अने ते उपरथी ए ग्रंथ एक ज कताना सिद्धांतोमा घणा ग्रंथो आ ज प्रकारे उत्पन्न थथा छे, एम रचेलो होय तेम आपणे मानी शकीए छीए. बीजो मान्या विना छट को नथी. कया समयमां आ प्रस्तुत ग्रंथो स्कन्ध प्रथम स्कन्धमा चर्चेला विषयो उपर लखेला
रचवामां आव्या अथवा तो वर्तमान स्वरूपमा मुकवामा निबन्धोनो एक समूह होय एम जणाय छे.
आव्या ते प्रश्ननो संतोषदायक निर्णय करी शकाय तेम उत्तराध्ययन अने सूत्रकृतांग बन्ने सूत्रोनो उद्देश तथा नथी. परंतु आ ग्रंथनो वाचनार स्वाभाविक रीते ज आ तेमा चर्चाएला केटलाक विषयो परस्पर समान छ, बाबतमा भाषांतरकारनी अभिप्राय जाणवानी आशा परंतु सूत्रकृतांगना मूळ भाग करतां उत्तराध्ययन वधारे राखता होवाथी, हं अत्यंत संकोचपूर्वक मारो मत जाहेर लांबं छे तेम ज ते सूत्रनी योजना पण वधारे कुशळता- करु छ के, सिद्धान्त ग्रंथोना घणा खरा भागो, प्रकरणो पर्वक करवामा आवी छे. तेनो मुख्य आशय नविन तथा आलापको खरेखर जुनां छे. अंगानु आलेखन साधने तेनी मुख्य फरजोनो बोध आपवाना, तथा विधि अने प्राचीन काळमां ( परंपरानुसार भद्रबाहुना समयमां) उदाहरणो द्वारा यति जीवननी प्रशंसा करवानो, तेना दक्षिा- धयं हतं: सिद्धान्तना अन्य ग्रंथो काळक्रमे घj करीने काळ दरम्यान आवत विघ्नो सामे चेतवणी आपवानो, तथा ई. स. पूर्वेनी पहेली शताद्विमां संगृहित थया हता. केटलंक तात्विक ज्ञान आपवाना पण छ.पाखडामतानु वणाक परत देवी गणिए सिद्धान्तोनी आ छल्ली आवात्त तैयार ठेकाणे सचन मात्र करवामां आव्युं छे परंतु तेमने विस्तृत करी ( वि. सं. ९८० ई. स. ४५४ ) त्यां सुधी तेमा होने चचेवामां आव्या नथी. ते दिशामांथी आवतां विन्नो सानो
आता ग जेम जेम वखत जवा मांड्यो तेम तेम स्पष्ट रीते ओछा उत्तराध्ययन अने सूत्रकृतांगनुं भाषान्तर, में,मने मळे
१ पुराणी परंपरा अनुसार दीक्षा लीधा पछी चार वर्ष वात्या ली साथी प्राचीन टीकाओमा स्वीकारेला मळना आधारे बाब सूत्रकृतांगनुं अध्ययन कराक्थामा भाषतुं हतं.
करेलु छे. आ मूळ, हस्तलिखित अन्य प्रतिओ तथा
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अंक ४ ]
डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोपरनी प्रस्तावना
मुद्रित प्रतिओना मूळथी थोडेक अंशे ज भिन्न छ. में हती. कारण के शीलांक केटलेक स्थळे प्राचीन टीकाकाएकत्रित करेली केटलीक हस्तलिखित प्रतिओं उपरथी रोनो उल्लेख करे छे. शीलांक नवमी शताब्दिना पश्चार्धमा एक स्वतंत्र मूळ तैयार करी लीधुं हतुं के जे मने थई गया होय एम जणाय छे, कारण के तेमणे आचारांग मुद्रित मूळ साथे मेळवी जोवामां घणुं उपयोगी थई सूत्रनी टीका शक वर्ष ७९८ एटले ई. स. ८७६ मां पडयुं छे.
समाप्त करी हती, एम कहेवाय छे. (२) ए टीकाउत्तराध्ययन सूत्रनी कलकत्ता वाळी आवृत्ति ( संवत् मांथी हर्षकुले करेलो संक्षेप जेनुं नाम दीपिका छे, ते १९३६ ई. १८७९) मां गुजराती विवरण उपरांत खरतरग- संवत् १५८३ अथवा ई. स. १५१७ मां रचेलो छे. च्छीय लक्ष्मीकीर्ति गणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभनी रचेली सूत्र मारी पासे दीपिकानी एक प्रति छे जेनो में उपयोग दीपिका आपेली छे. आ टीकाथी वधारे प्राचीन देवे- कर्यो छे. ( ३ ) पासचन्द्रनो बालावबोध-एटले गुजन्द्रनी टीका छे अने ते ज टीका उपर में मुख्य आधार राती टीका. माहीतीना मुख्य ग्रंथ तरीके में साधाराख्यो के. ए टीका संवत् ११७९ एटले ई. स. रण रीते शीलांकनी ज टीका वापरी छे. ज्यारे शी११२३ मां रचाई छे अने ते प्रकटरीते शांत्याचार्यनी लांक अने हर्षकुल बंने ममता आवे छे त्यारे टीप्पणमां बृहद्वृत्तिना सारांश रुपे छे. शांत्याचार्य वाळी वृत्ति में में तेमने बताववा ' टीकाकारो' एम लख्युं छे. ज्यारे वापरी नथी. मारी पासे स्ट्रेस्सबर्ग युनिवर्सिटी लाइब्रेरीनी शीलांकनो अमुक टीकांश हर्षकुले पडतो मुकेलो होय मालीकीनी अवचूरिनी पण एक सुंदर प्राचीन हस्तलिखित छे त्यारे हुँ मात्र शीलांकनु ज नाम आपुं छु; अने ज्यारे प्रति छे. आ ग्रंथ पण स्पष्टरीते शान्त्याचार्यनी वृत्तिनो कोई उपयोगनी असल हकिकत हर्षकुल ज आपे छे त्यारे संक्षेप मात्र छे. कारण के लगभग ए तने अक्षरशः त्यां आगळ में तेनुं ज नाम आपेलुं छे. मारे आ स्थळे मळतो आवतो जणाय छे.
खास जणावी देवू जाईए के मारी एक हस्तलिखीत सूत्रकृतांगनी मुंबईवाळी आवृत्ति ( संवत् १९३६- प्रातमा हाासर
प्रतिमा हासियामां तथा बे बे लीटिओनी वच्चे केटलीक ई. स. १८८०) मांत्रण टीकाओ आपली छः (१) संस्कृत नोटी आपेली छे के जेनी मददथी हुँ केटलीक शीलांकनी टीका: जेमां भद्रबाहुनी नियुक्ति पण आवेली वखते मूळनो खास अर्थ निश्चित करी शक्यो छु. छे. आ टीका सर्वे विद्यमान टीकाओमां सौथी प्राची- बोन
एच्. जेकोबी. न छे. परंतु आना पहेला पण बीजी टीकाओ थएली नवेंबर, १८९४.
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जैन साहित्य संशोधक
अहिंसा अ वनस्पति आहार खास करीने बौद्ध धर्ममां
[ बुद्धि रिव्युना, पुस्तक ६, अंक १ मां प्रकट थलाडॉ. F. OTTO SCHRADER, PE. D. ना लेखनो अनुवाद. ] अहिंसा - एटले जीवित प्राणिओने कोई पण प्रकारनी अहिंसाने उद्देशीने जैनोनुं दृष्टिबिन्दु आ प्रमाणे इजा करवामांथी अलग रहेवानुं व्रत हिंदुस्तानना आर्यो- बताव्युं छे:मां ज जन्म पाम्युं हतुं याहुदी - ख्रिस्ती संस्कारोथी ए व्रत केलं बधुं विदेशीय छे, ए वात नीचेना विरोधदर्शक दृष्टान्तोथी जणाई आवे छे.' ज्यारे क्राईस्ट पिटरने मळ्या त्यारे पिटरे पोतानुं माछलीओ पकडवानुं काम शरु कर्यु हतुं. पिटरे जलमां नाखेली जाळेने क्राईस्टे एटला बघा आशीर्वादो आप्या के जेथी पकडाएली माछलीओना मोटा समूहने लावे होडीओ डुबी जवाना भयमां आवी पडी. एथी उलटं, पाणीमां नांखेली पोतानी जाळोने बहार खेंची काढवानी तैयारी करता केटलाक माछीमारो ब्यारे पायथागोरसनी दृष्टिए त्यारे तेणे ते माछीमारो पासेथी जाळग्रस्त बधी लीओ वेचाती लई लोधी अने पछी ते बधी माछलीओ तेम ज ते जालमां पकडाएल बीजा प्राणिओने पण तेणे मुक्त कयी. जो के अत्यारे आर्य ओलादनो दरेक पश्चिमवासी पोताना पौर्वात्य बन्धु जेटलो ज अहिंसावतनो पक्षपाती होय छे. छतां हजुर पश्चिममा सामान्यरीते बन्धनकारक नियम तरीके तो अहिंसावतनो स्वीकार घणो ज अल्प छे.
पड्या
माछ
अहिंसाने धार्मिक तत्त्वनुं स्थान क्यारे मळ्युं ए कहेवुं मुश्केल छे; परन्तु अत्यारे अस्तित्व धरावा धममां जैनधर्म एक एवो धर्म छे के जेमां अहिंसानो क्रम सम्पूर्ण छे अने जे शक्य तेटली ताथी सदा तेने वळगी रह्यो छे. उत्तराध्ययन सूत्र नामक जैनोना एक आगम ग्रंथमां
[ खंड १
“ कोईए पण जीवता प्राणिओनी हिंसामां अनुमति आपवी नहीं; तेम करवाथी मनुष्य सर्व दुःखमाथी मुक्त थशे, जे आचार्योर यतिधर्म कह्यो छे तेओए ए प्रमाणे आज्ञा करी छे.
" जे ज्ञानी पुरुष जीवता प्राणिओने इजा करतो नथी ते समित ( चारे बाजुए जोनारो) कहेवाय छे. जेम जल उच्च प्रदेशनो त्याग करे छे तेम पापकर्म ते पुरुषने त्यजी देशे.
" जंगम अथवा स्थावर जे प्राणिओ जगत्मां रहेला छे तेमने हानी! थाय तेनुं कांई पण कर्म मनथी, वचनथी के कायाथी मनुष्ये करवुं नहीं. "
“ ( मनुष्यो सहित ) प्राणिओ, अग्नि अने पवन ए त्रस-चाली शके तेवा प्राणिओ छे; पृथ्वी, पाणी, अने वनस्पति ए स्थावर-न चाली शके एवा प्राणी छे. "
आचारांगसूत्र नामना एक बीजा प्राचीन अने आगम ग्रंथमां आ बधानो यथाक्रमे संक्षेपमां नीचे प्रमाणे समावेश करवामां आव्यो छे.'
“ ते पाप कर्मने जाणीने ज्ञानी पुरुषे पृथ्वी ( जल तेज विगेरे ) प्रत्ये हिंसक रीते वर्तवुं नहीं, बीजाने ते प्रमाणे बर्तवा प्रेखं नहीं, तेम ज जेओ ते प्रमाणे वर्त होय तेमने प्रशंसवा नहीं. ”
जैन धर्ममां अहिंसाना विचार संबंधी जे उत्कटता छे तेनो आथी ख्याल आवे छे. जो के आ नियमो मात्र यतिओ माटे छे छतां हाली चाली शकतां प्राणिओनो वध न करवानुं अहिंसाणुव्रत -अहिंसा संबंधी नानो निय म- तो यति न होय तेने पण दृढताथी पाळवो पडे
* ब्लॅक टाईप अमे मुक्या छे. - संपादक जै. सा. सं. छे:
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अंक ४]
आहंसा भने वनस्पति आहार
" त्रस एटले चाली शके एवां प्राणिओने अभय दान मन्तव्यनी प्रथम स्थापना जैनो अथवा कोई अन्य धर्मानुआफ्वामा तत्पर रहेनार सत्पुरुषोए प्रमादक पान, मांस, यायीओ तरफथी करवामां आवी हशे. आ कल्पनाथी मद्य अने रसवाला वृक्षोना फलोनो हमेशा त्याग करवो आपणे वैदिक युगनी समाप्ति सुधी पाछळ जईए छोए, जोईए.
अने अहिं छान्दोग्य उपनिषदना अन्तिम भागमां आपणे "जमां सूक्ष्म जंतुओनो नाश थाय छे अने अभक्ष्य इच्छेलु अहिंसा व्रतनुं प्रथम पगथियुं आपणने मळी वस्तुओ खवाय छे तेवु रात्री भोजन, दयालु सज्जनो कदी आवे छे.-जो के देखीती रीते ते मूळनी शरुआतनुं तो करता नथी.
नथी ज. छान्दोग्य उपनिषदनो ते भाग नीचे प्रमाणे छ__“जेओ स्थावर प्रणिओनो नाश करीन अन्नाहारी " आचार्यना घरे यथाविहित समयमां, यथा विधेि, तरीके रहे छ अने जेओ त्रस प्राणिओनो नाश करीने वेदनो अभ्यास करीने जे गुरुना घेरथी पाछो आव छ, मांसाहारी तरीके जीवे छे, ते बनेना पापर्नु अन्तर, तेणे पोतानी मेळे पोताने घरे पवित्र स्थानमां, ते पवित्र सत्पुरुष जणावे छे के, परमाणुं अने मेरुना जेटलं ग्रंथोनो अभ्यास करवो; सत्यशील शिष्योने भणाववा; होय छे.
पोतानी सकल शक्तिओनुं स्थान आत्माने बनाववो; " अन्नाहारमा जे परमाणु जेटलं पाप छे तेनो नाश पवित्र तीर्थो सिवाय अन्यत्र कोई पण प्राणीनी हिंसा प्रायश्चित्त मात्रथी करी शकाय छे, परन्तु मांसाहरमा करवी नहीं; ते खरेखर आ प्रमाणे यावज्जीवन रही ब्रह्मपाप पर्वतराज जेवं मोटं के अने तेथी तेनो नाश करी लोक मेळवे छ; अने पुनः आवतो नी.-पुनः शकातो नथी."
आवतो नथी." - मध, रेशम अने ऊन विगेरेनी उत्पत्तिमां बने छ एनो अर्थ ए के-जे मोक्षनी आकांक्षा राखे छ ते तेम माणिओनी संपत्ति खूचवी लेवानी यति अने उपा- यज्ञ सिवाय अन्यत्र पशुवध करी शके नहीं. ए ध्यानमा सक बन्नेने मना करवामां आवी छे. मध खावामां चोरी राखq जोईए के अहिं गृहस्थने उद्देशीने आ अहिंसाना अने हिंसा बन्ने रह्या छे. हिंसा एटला माटे के " मधनुं नियमनुं वर्णन थाय छे. केम के घणु करीने ते समये, दरेक बिन्दु असंख्य मक्षिकाओना वधथी ज प्राप्त थाय वैदिक युगना अन्तमां पण, 'सन्नथास' नो प्रारंभ थयो छ . " " जेटलुं पाप सात गामोंने बाळी नांखवाथी न हतो. थाय छे तेटलुं पाप मधन एक टी' खावाथी थाय परन्तु त्यार पछीना उपनिषदोमा चतुर्थाश्रम पूर्ण
"ज्यां हजारो ढोरो भखे मरे छ एवा हिन्द देशमा विकास पामेलो जोवामां आवे छे. अने तेने माटे आपला उपरना विचार साथ आश्चर्यजनक विरोध धरावनार वात नियमो जैन यतिना नियमोने केटलेक अंश मळता आवे तो ए छे के पाणिओर्नु द्ध पीवामा पाप बिलकुल गण- छे. जैन यतिनी जेम. ब्राम्हण संन्यासीने पण वर्षाऋतमां वामां आव्युं ज नथी !
फरवार्नु बंध राखवू पडे छे, अने पाणी पीधा पहेलां अहिंसानो आवो उत्कट मार्ग अनुक्रम वगर एकदम उ- गाळवं पडे छे. अने स्पष्ट पणे ज-जो के चोक्कस नथी त्पन्न थाय ए भाग्य ज मानी शकाय तेवु छ, तेथी; तेम छतां-ते मांसाहार करी शकतो नहीं.८ गमे तेम हो ज महावीर अने पार्श्वनाथ पण आमांना घणा नियमो उपर परन्तु आटलं तो चोक्स छ के ब्राम्हण धर्ममां भार मूकता इता तेथी, आपणे एवी कल्पना तरफ दोराईए पण घणा लांबा समय पछी सन्नथासिओ माटे छीए के बुद्धनी पूर्वे बे शतक के तेथी पण पहेलो आ सूक्ष्मतर अहिंसा विहित थई: अने आखरे वनस्पति ( एटले क्राईस्टनी पूर्वे ८०० वर्ष पहेलां) हाल जेने आहारना रूपमां ब्राह्मण ज्ञातिमा पण ते दाखल थई हती. अहिंसान अणुव्रत' कहेवामां आवे छ तेना जेवा एक कारण ए छे के जैनोना धर्मतत्त्वोए जे लोकमत जीत्यो
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड १
हती तेनी असर सज्जडरीते वधती जती हती. बुद्धना बहु तो द्विजोने उद्देशीने छे. वैदिक संप्रदायना अवशिष्ट
समये अने त्यार पछी पण केटलाक वखत सुधी ब्राह्मणोए वनस्पति अहारनो स्वीकार पूरे पूरो कर्यो न हतो ए वात सुप्रसिद्ध पंच पंचनख व्रतथी साबीत थाय छे. महाभारत ( १२, १४१, ७० ) मां आ नियम नीचेना रूपमा आपेल -
ब्राह्मण,
क्षत्रिय अने वैश्ये मात्र पांच पांच नख वाळा प्राणीनुं भक्षण करी आ धर्म प्रमाणे चालवुं अने जे अभक्ष्य छे ते प्रत्ये मन दोरखं नहीं. "
"C
नियम एक जूना ब्राह्मण कूर्मपुराणमां
ए ध्यानमां राखवा जेवुं छे के ते ज जूना बौद्ध जातकमा अने लगभग बधा धर्मग्रंथो–स्मृतिओमां° मळी आवे छे. तेने मनुए कहेलो बताव्यो छे, परंतु मनु ( तेमज गौतम) छ प्राणीओनी अनुमति आपे छे; अने आपस्तंब सातनी पण रजा आपे छे. महाभारतमां बीजे स्थळे ( १२, ३७, २१--२४ )' ' ब्राह्मणने अभक्ष्य एवा प्राणीओनुं एक लांबु लीष्ट व्यास मुनिए आप्युं छे. जो भक्ष्य प्राणीओनी संख्या बहु थोडी होत तो व्यास आटली महेनत लेत नहीं. परंतु समय जतां ज्यारे जैन अने बौद्ध धर्म देशमां प्रबळ थया त्यारे प्राणी-हिंसा अने मांस भक्षण मात्र यज्ञमां ज करवां एवो नियम कर्या वगर ब्राम्हणोथी चलावी लेवायुं नहीं." अने तेमां पण पशुहिंसा वधारे ने वधारे ओछी करवामां आवी अने अन्ते मांसनी इच्छा राखनारा ( आमिषकांक्षिणः पितृओने [ जेओनो मांसभक्षणनो हक्क महाभारतना छल्लो भागोमां सहेज नामरजी साधे स्वीकारवामां आव्यो छे] पण वनस्पति-मक्षक थवानी फरज पाडवामां आवी. अने आखरे दक्षिण हिंदमां ई. स. ना तेरमा सैका मां उत्पन्न थएला माधव संप्रदायना केटलाक प्रतिनिधिओए अन्तिम पगलुं लीधुं. तेमणे गमे ते प्रकारनी प्राणीहिंसाने पापवाळी गणीने धिक्कारी अने यज्ञमां प्राणी बलिदानने स्थाने कहे वातो पिष्ट- पशु एटले अन्ननी बनावेली प्राणीनी आकृति वापरवानो रिवाज दाखल कर्यो.' परन्तु आ सर्व ब्राह्मणोने ज उद्देशीने छे; अथवा
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वर्गोंने मांसाहारमाथी
मुक्त राखवामां आव्या न हता. तेथी आधुनिक स्थिति बहुशः नीचे दर्शाव्या मुजब छे. दक्षिण हिन्दमां सर्वत्र ब्राह्मणो वनस्पति आहार करनारा छे. उत्तरमां घणा ब्राह्मणो मत्स्य भक्षक छे अने काश्मीरमां तो अन्य मांस पण खाय छे. क्षत्रियो सदा मोटे भांगे मांस खाता ज हता अने हजुए खाय छे. वैश्यो ( व्यापारी वर्ग, जेने दक्षिणमां बेटीआर अने उत्तरमां वाणीआ विगेरे कहे छे तेओ ) साधारण रीते ब्राह्मणोना भोजननुं अनुकरण करता देखाय छे. शूद्रो मांस भक्षक तेम ज वनस्पति-भाजी पणं होय छे. घणा भागे तेओ वनस्पति आहार उपर रहे छे, केम के मांस घणुं मोघुं होवाथी तेमना माटे दुर्लभ
जेवुं छे.
संन्यासीओना विषयमां तो में प्रथम ज कयुं छे के जे नियमोने तेओ अनुसरे छे ते घणे अंशे जैन मतने मळता आवे छे. तेओ झाझे भागे तपस्या करे छे अने तेंथी तेओमांना घणा तो मांसनो स्पर्श पण करता नथी; केम के इंद्रियोना विषयोनी वृत्तिओने तेथी पोषण मळे छे. परन्तु जन्मथी ब्राह्मण एवो एक आदर्श रूप अने विद्वान् संन्यासी के जेना परिचयमां हुं आव्यो छु, तेणे मने कह्युं श्रद्धापूर्वक अर्पण करवामां आवेली मांसवाळी वस्तुनो पण अनादर करवो ए खरा भिक्षु माटे अयोग्य अने दौर्बल्यसूचक छे. तेनो विचार आवो होय एम जणाय छे, के जे यति तेने आपवामां आवेली खावायोग्य गमे ते वस्तु खावाने शक्तिमान न होय, ते तैत्तिरीय उपनिषद्मां ( २, ) कहेल, तेनी अने संसारनी वच्चे रहेला खाडानी ( 'उदरं अन्तरं ' नी ) पेलीपार जवाने फतेह थयो गणाय नहीं; तेम ज द्वन्द्व-मोह अने जुगुप्साने जीत्यां गणाय नहीं, के जे आत्म-साक्षात्कारमां मुख्य साधन मनाय छे. आ उपरथी ' मिलिन्दपह्न ' ( ३,६ ) नो एक जाणवा जेवो उल्लेख स्मरणमां आवे छे, जेमां बौद्ध साधु कहे छे के " हे महाराज ! ते हजु रागथी मुक्त थयो नथी, जे भोजन करती वखते
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अंक ४]
आहंसा अने वनस्पति आहार
स्वाद अने स्वाद जन्य सुखनो पण अनुभव करे छे "( दुष्कालना वखतमा) एक गृहस्थ पोताना पुत्रने ज्यरो खैरेखर राग रहित पुरुष तो भोजन करती वखते मारीने खाई शके, अने एक ज्ञानी भिक्षु जो तेमाथी मात्र स्वादनो ज अनुभव करे के परन्त स्वाद जन्य सुखनो मांस ले तो तेने पाप लागे नहीं. अनुभव करतो नथी."
" जो कोई माणस मूलथी धाननो ढगलो मानीने" हवे आपणे बौद्धधर्म तरफ वगए. अहिं अहिंसा अने माणस अथवा बालकनो वध करे, तेने अग्नि उपर वनस्पति आहारना संबंधमां एक विवादग्रस्त प्रश्न उत्पन्न मूके, पकाये तो ते बुद्धोनो माटे योग्य एवं भोजन होई थाय छ, के जे प्रश्ननो निर्णय मारा जाणवा प्रमाणे हजु श कोई लावी शक्युं नथी. डॉ० न्यूमेन आदिनो पक्ष कहे आहंया आ प्रमाणे घणा विलक्षण रूपमां बुद्धना छे, के बुद्ध वनस्पति आहार ज करता; ज्यारे बीजो पक्ष के एक मतने आलेख्युं छे के जे असलमा आपणे जेमा घणा विद्वानो छे, तेओ 'अमुक खास प्रसंग सिवाय जोई ए तो, आ प्रमाणे जडी आवे छे, के वध अन्यत्र बुद्ध मांसाहारनी मना करता हता,' ए वातनो कराएला प्राणीना वधनुं कारण पोते कोई पण रीते न इन्कार करे छे. पूर्वपक्ष ज्यारे, अहिंसा ए व्रत भिक्ष तेम होय तेवा मांस सिवाय बौद्ध भिक्षुए अन्य कोई जातज गृहस्थे पाळवाना नियमोमां प्रथम स्थान धरावे छ. ए नो मांसाहार करवा नहीं. बाबत उपर भार मुके छे, त्यारे उत्तर पक्ष, धर्म ग्रंथोना चुल्लवग्गमां (७,३-१५) अने अन्य पिटकोमा केटलाक फकराओनो, तथा महायान तेम ज हीनयान एउ- वणी सारी रीते एक खुलासो आपवामां आव्यो छे. के भय शाखाओना अनुयायीओनो मोटो भाग जे आजे मांस ज्यारे मतभेद उत्पन्न करवानी इच्छाथी ( अर्थात पोभक्षण करवा छतां पोते अहिंसानुं पालन करे छ एम तानी मांगणी स्वीकारवामां नहीं आवे एम सारी रीते माने छे, ते बाबतनो आश्रय ले. छे.
जाणतो होवो छतां) देवदत्त मत्स्य अने मांस आहारनी मारा मत मुजब सत्य बन्ने पक्षमा रहेलु छ अने तेना भिक्षुओने माटे मना कराववानी विनति करवा बुद्ध पासे कारणो हवे हुँ विस्तारथी आपुं छु.
जाय छे त्यारे बुद्ध तेनी विनतिनो अस्वीकार करे छ१८ एक आश्चर्यजनक वात ए छे, के दक्षिण हिन्दना जैनो
अने कहे छे के '......हे देवदत्त ! आठ मास सुधी वृक्षो मां बुद्धसम्बन्धी अद्यापि जाणीती एवी एक हकिकत छ ।
. नीचे शयन करवानी में रजा आपी छे. १९ तेम ज अदृष्ट, के ते 'बुद्ध एक घणो खराब माणस हतो अने मांसाहारने अश्रुत
__ अश्रुत अने अशंकित ए प्रमाणे त्रणे बाबतोमा जे तद्दन उत्तेजन आपतो हतो,' ब्राह्मणधर्मर्नु उपहास आलेखतुं शुद्ध
शुद्ध होय तेवा मत्स्य अने मांस [ खावानी पण में रजा अने खण्ड नमण्डन करतुं धर्मपरीक्षा नामे पुस्तक" जे आ तामिल भाषान्तरना रूपमां बणुं प्रसिद्ध छे, तेमा उल्लेखे- अर्थात्, हत प्राणीतेने माटे हणवामां आव्युं छे तेम ली बुद्धनी आ अपकीर्तिन कारण आपणे गोतवं जोईए. ते भिक्षुना दीठामां आवेलुं न होय ( अदिट्ठम् ), तेना ए पुस्तकमां बौद्धधर्म ऊपर सात पद्यो छ; अने तेमां पहेलो माटे हणाएलुं छे एम तेना सांभळवामां पण आव्यु न ज जे आक्षेप करवामां आव्यो छ ते ए छे के 'बुद्धना मत होय (अश्रुतम् ), अने आ मारा माटे हणवामां आव्यो प्रमाणे मांसाहार करवामां पाप नथी.' आ आक्षेप मात्र हशे के केम ? एम तेने शंका पण न आवी होय (अपमनःकल्पित नथी. बीजा प्राचीन जैन पुस्तकोमां पण रिशंकितम् ), तेवा मांसने पवत्तमंस ('पहेलोथी ज अस्तिते रूपान्तरथी मळी आवे छे. दृष्टांत तरीके सूयगडांगसूत्र त्वमा आवेलुं मांस') कहेवामां आवे छे, अने ते उद्दिमां एम कहेल छ के बुद्धे नीचे प्रमाणे उपदेश कर्यों सकतमंस ('हेतुपूर्वक तैयार करेला मांस') थी उहतो.
लटा प्रकारचें मनातुं हतुं."
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जैन साहित्य संशोधक
NAARA
वळी सरखावोः-'हे भिक्षुओ ! मांस खावाना हेतुथी वर्णन अने प्रशंसा करीने कहे छ के "स्वच्छताने (आमहणाएला प्राणीनुं मांस जाणी जोईने कोईए खावू नहीं. गंध एटले खराबगंधने ) मारी साथे कोई संबंध नथी. जे कोई ए प्रमाणे करशे ते "दुक्कत " अपराध करशे. हे आम तमे कहो छो ( अने वळी ) हे ब्रह्मबंधु ! सारी भिक्षुओ ! अदृष्ट, अश्रुत, अने अशंकित एम त्रण प्रकारे रीते तैयार करेल पक्षीना मांस साथे मेळवेला भात तमे खाओ जे मांस शुद्ध होय ते खावानी हुं रजा आपुं छु.” छो; तेथी हे काश्यप ! हुँ तमने पूर्छ छु के तमे अशुद्धता( महावग्ग ६, ३१ ना अंतमां) वळी. “ हे मूर्ख ! नो शो अर्थ करो छो ?" आनो बुद्ध उत्तर आपे छ केः (मांस क्याथी आव्युं छे ते ) तपास्या विना तुं शी रीते " जीव” प्राणिओने दुभवां, मारवां,कापा,दांधवां,चोरी ते मांस खाई शके ?.........हे भिक्षुओ! तपास कर्या करवी, असत्य भाषण करवं, छल अने कपट करवु, सार वगर कोईए पण मांस खावू नहीं" ( तेज ग्रंथ ६.२३) वगरनुं वाचवू तेनुं नाम अशुद्धता छे, पण मांसभक्षण
बीजो नियम ए छे के-मांस काचुं न होवू जोईए. नहीं." आनी पछी आ प्रकारना बीजा छ श्लोको आवे (ब्रह्मजाल सुत्त १०, अंगुत्तरनिकाय १९३-१९९, छे जे दरेकनी अंते; "आ ते अशुद्धता छे; पण मांसमज्झिमनिकाय, ३८ विगेरे ) संघमां दाखल थता नवा भक्षण नहीं " आ शब्दो होय छे. अने तेमां कहे छे के पुरुषो माटे वारंवार कहेवामां आव्युं छे के "तेओ काचुं “मत्स्याहार के मांसाहारनो त्याग, नग्नभ्रमण, मस्तक( अन्न ) स्वीकारता नथी [ तेओ काचुं मांस स्वीकारता मुंडन, जटाधारण, धूल-निर्माल्य-भस्मधारण, अग्निहोम, नथी.]"
आ सर्व, मायामाथी जे पुरुष मुक्त नथी तेने पवित्र करी छेवटे महावग्ग (५,२३ ) मां एक विचित्र आज्ञा शकता नथी. वेदाध्ययन, गुरुदान, देवयजन, धर्म करवामां आवी छे-अने हं जाणुं छं त्या सुधी अन्यत्र अथवा शीत सहनद्वारा आत्मदमन, अने एवा बीजां: ते जोवामां आवती नथी. ते स्थळे माणसन, हाथ न अमृतत्वनी इच्छाथी करवामां आवेलां तपो, मायाथी बद्ध घोडान, कुतरानु, सर्पन, सिंहनु, वाघनं. चित्तानं.दीप- पुरुषने पवित्र करी शकता नथी." डानु, रीछर्नु अने तरखुनुं मांस त्यजवा विषे कहेवामां अलबत्, ए वात तो स्पष्ट ज छे के ऊपर जे प्रकारो आव्युं छे. आने आपणे व्यासनी यादीना ( जुओ उपर) वर्णवेला छे तेमां मांसने भिक्षुना भोजनना एक आवश्यअवशिष्ट भाग तरीके गणी शकीए.
क भाग तरीके तो स्थान आपवामां आव्यु नथी ज, पण __ अहिंसोपदेशक धर्मना एक महान् प्रवर्तक मांसना उ- सहेलाईथी जेनो सर्वदा त्याग करी शकाय एवा अपपभोगने धिक्कारे नहीं मांसाहारनो सर्वदा त्याग कर्या वाद रूपे ज मांसने स्थान आपेलुं छे. तथापि बुद्ध तेनो सिवाय पोताना मनोविकारोने जीतवानी एक भिक्षु सर्वथा निषेध करवा इच्छता न हता. अने तेम करवामां इच्छा राखे; आ बधुं, जेम अत्यारे पण बौद्धधर्मना परि- तेमने मुख्य कारण, पोताना उपदेशन ए एक स्पष्ट अने चयमां, जे विचार शील पुरुषो आवे छे तेमने, एक न शाश्वत उदाहरण बताववानी तेमनी इच्छा हती के समजी शकाय एवी गुंचवण लागे छे, तेम ते समये पण “आहारना प्रश्नने धार्मिक शुद्धि-विशुद्धि साथे बिलकुल घणा माणसोने आ विचार आश्चर्यजनक अने अतयं संबंध छे नहीं." लागतो हतो. परंतु ए एक सारी वात छे, के आ विचार- मांसना आ नियत उपयोग सिवाय, आपणा प्रस्तुत नो बुद्ध पोते शी रीते निराकरण करता हता तेनो एक विषयमा बौद्ध अने जैन साधुओमा विशेष भेद नहीं 'पुरावो आपणने मळी आवे छे.
हतो. जैन साधुनी जेम बौद्ध साधुने पण कालजीपूर्वक सुत्त निपातना आमगंध सुत्तमां कोई एक पुरुष बुद्ध- कोई पण प्राणीनी हिंसाथी दूर ज रहेवार्नु हतुं. सुतीनने संबोधे छे; "अने पछी पोताना वनस्पतिभोजीपणान पातमा (धम्मिक सुत्त १९) पण का छे के:
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अंक ४]
आहिंसा अने वनस्पति आहार "चर तेम ज अचर ( तस अने थावर ) उभय प्रका- परंतु जे कायाथी, वचनथी, अने मनथी कोईनी हिंसा रना प्राणीनी हिंसाथी दूर रहे, तेणे ( भिक्षुए ) जीवने करतो नथी तेवो अहिंसक तू था. केम के ते ज खरो अ"हानि करवी नहीं, कराववी नहीं, बीजाने तेम करवामां हिंसक छ जे बीजानी हिंसा करतो नथी." सम्मति आपवी नहीं."
पुनः अंगुत्तरनिकाय (३, १५३ comp,१०, २१२ तेज प्रमाणे धम्मपद (२६,२३) मांः-
मां आपणे वांचीए छीए केः"जे चराचर प्राणीनी हिंसाथी दूर रहे छ तेने हु “हे भिक्षओ !त्रण कार्यवाळो माणस नरकगामी ब्राह्मण कहुं छ; जे पोते हिंसा करतो नथी, अने अन्यने थाय छे. कया ते त्रण कार्यो? जे पोते जीवनी हिंसा हिंसा करवा प्रेरता नथी (तेने हुं ब्राम्हण गणुं छु.)" करतो होय, बीजाने हिंसा करवा प्रेरतो होय, अने ___“सारुप्यमत्तनो-आत्मानुं सारुप्य-अर्थात् ज्यां बीजाने हिंसा करवामां सम्मति आपतो होय.". ज्यां जीव छ त्या त्यां तेना आत्माना जेवू ज कोई छे" "हिंसा. हे भिक्षओ! हं त्रण प्रकारनी गणुं छु. लोए वात भिक्षुए मूलवी जोईए नहीं.२४
भथी कराएली, दोष-धिक्कारथी कराएली, अने अज्ञान" लीला रोपाओने पगनीचे चगदी नाखवाथी दूर रहे- मोहथी कराएली. " वाने, वनस्पति जीवनी हिंसाथी बचवाने. घणा नाना आ वचनो अंगुत्तर निकाय (१०-१७४ ) मानों जीवोनी जिंदगीमो क्षय थतो अटकाववाने " २५ माटे नियमनी जेम मात्र भिक्षुओ माटे ज कहेवामां नथी वर्षा ऋतुमा पर्यटन करवानी ना करी हती. जे फळोने अ- आव्या. ग्निथी, छरीथी, नखथी अचेतन करवामां आव्या होय अथवा आ विषयमा सौथी वधारे विचारवा लायक सुत्तजेमा एक पण बीज रह्यं न होय अथवा जेमां बीजनो निपातन धम्मिक सुत्त छे. भिक्षुना नियमनुं वर्णन कर्या ( अर्थात् बीजमां रहेली बीजां फळो उत्पन्न करवानी पछी, तेमां (श्लोक १८ विगेरे ) कां छे के " हवे हुं शक्तिनो) क्षय थई गयो होय, तेवां ज फळो खावानी तमने गृहस्थना धर्मो कहीश, जेनुं पालन करवाथी मनुष्य रजा आपवामां आवी हती.२६ आ साथे-एटले वनस्पति (बीजा जन्ममां) श्रमण अने अहंतु थाय छे. कारण जीवनी अहिंसा साथे "घास वगरनी" जगामां अन्नना के एक भिक्षु पाथी जे नियमोना पालननी आशा अविशिष्ट भागने फेंकी देवानो आदेश पण वणे स्थले राखी शकाय, तेवा नियामो पालवा गृहस्थ, कदाच समर्थ करवामां आव्यो छे.
थाय नहीं. " अने त्यार पछी "चर तेम ज अचर-तस ___ आ बधुं तो बौद्ध भिक्षुने उद्देशीने विवेचन थयु. थावर-उभय प्रकारना " विगेरे उपर उतारेला श्लोको हवे आपणे ए निर्णय करवानो छे के बौद्ध गृहस्थ माटे बडे उपासक गृहस्थन। धोनी ते गणना गणावे छे. आ नियमो छ के नहीं ? अने जो होय तो ते केटली आथी ए विचार सूचवाय छे के. जो के “ अचरमर्यादा सुधी.
जीवो " ए पदनो बौद्ध मतमा अर्थ मात्र “ वनस्पतिजैनोनी स्थूल अहिंसाना जेवं एमां पण कांई होवू जोईए योनी" एटलो ज थाय छे. छतां चर अने अचर बन्ने ए विचार, दृष्टांत तरीके, संयुत्त निकाय ७, १, ५ ना प्रकारनो अहिं समावेश करवामां आवेलो होवाथी बौद्ध उल्लेखथी दृढ थाय छे. ते स्थळे ज्यारे अहिंसक नामनो धर्मी गृहस्थ, जैन उपासक करतां वधारे व्यापक अर्थमां ब्राह्मण बुद्धपासे आवीन कहे छे के " अयुष्मान् गोतम. अहिंसानुं पालन करे छे. परंतु कदाच ए विचार बराहूं अहिंसक छु" त्यारे तेनो उत्तर बुद्ध श्लोकोमा आ वर पण नहीं होय. कारण के पिटकोमा एक ज शब्द प्रमाणे आपे छः
घणी वार जुदा जुदा अर्थमा प्रयोजाएलो नजरे पडे छे; " तूं जेम कहे छे तेम भले तारूं नाम अहिंसक होः अने तेथी तस अने थावरनो जे अर्थ अहिं ए लोको करता
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[खंड , ते घणे भागे फुजबोले पोताना माषांतरमा कर्यो छे आपणा आ ऊहापोह उपरथी आपणे ए निश्चय तेवो ज हतोः एटले तस " जे ध्रुजे छे ते " अने थावर उपर आवीशु के पुराणा बौद्ध धर्ममा भिक्षु मांसाहार " जे बलवान् छे ते."
क्वचित् ज करतो, अने गृहस्थ तो तेना करतां पण ओछी, - गमे तेम हो, पण ए तो स्पष्ट छ के बौद्ध गृहस्थने वखत मांस खातो. केम के गृहस्थ कांई भिक्षा मांगतो मात्र जाते हिंसा करवामांथी ज नहीं. परन्तु मत्स्य अ- नहीं. परंतु तेने प्रवास विमेरेना प्रसंग दर्मियान बौद्धेतर थवा मांस वेचातुं लेवामांथी, तेम ज अन्य रीते पण प्राणी वर्ग पासथी तेवो खोराक लेवानी रजा आपवामां आवी वधने उत्तेजन आपवामाथी पण अलग रहेवान कहेवामा हती.. -- आव्युं हतुं. केम के जे माणस मास्य अथवा मांस खरीदे संपूर्ण अहिंसानुं पालन तो मोटामां मोटा ज्ञानी पुरुछे ते माछीमार अथवा कसाईना कार्यने अनुमति आपे षने माटे पण 'अशक्य छे. अने जेम घणा माणसो धारे छे ज. खरुं जोतां तो ते वधारे (पाप) करे छे. ते" बीजा छ
छ तेम आ कांई नवी पण शोध नथी. आ विषयमा पासे हिंसा करावे छे” “हिंसाने उत्तेजन आषे छे" महामार
.
महाभारतना वनपर्वमांनी धर्मव्याध-भक्तिमान शौनि
कनी मनोरंजक वार्ता वांचवा जेवी छे. तेना अंते कहेलु अथवा ( महाभारत १३, ११३, ४० ) भीष्मना
छे के चालवामां, बेसवामां, सुवामा, खावामा, विगरे शब्दोमां कहीए तो ते “ पोताना पसा वडे हिंसा
दरेक क्रियामां अने दरेक बाबतमां असंख्य प्राणाओनी करे छे."
हिंसा थाय छे. तेथी जगत्मां कोई अहिंसक नथी. ___ हं मार्नु छ के महावग्ग (६, ३१ ) ना उल्लखमा (नास्ति कश्चिदहिंसकः )' आ निर्विवाद सत्य छे. रहेलो अर्थ आ ज छे. ए स्थळे राजा पवतमस-एटले आपणने जीववा माटे जीवनी हिंसा करवी पडे छे, ए कोईए तैयार करेलुं मांस मंगावे छे, जेनुं परिणाम ए आ जीवननी एक अत्यंत द:खदायक बीना छे; "आ बधुं आवे छे के बलदना एक घातक तरीके तेनी निंदा कर.
जीवता प्राणीओथी व्याप्त छे" अने " आ सर्व जीवता वामां आवे छे. वळी संयुत्त निकाय (१४, २५.३ )
२) प्राणी ओथी ग्रस्त छे.” ( जीवैस्तमिदं सर्व ) ए जुओ. त्यां हिंसा करनाराओ साथना संसर्गने पण निंदवा
वा: उल्लेख सत्य छे. तेम छतां पण सर्व अनावश्यक हिंसामां आव्यो छे. महाभारत (१३, ११३, ४७) मा थी बचवानी आपणी फरज छे. ज्या ज्यां आपणाथी कचं छे के सात माणसो जीव-भक्षक छे, एटले हिंसान
हिसानु बनी शके त्यां त्यां दुःख उत्पन्न थतुं अटकाववानी अने
की जान पाप करे छे, जेम के-जे माणस ते प्राणी ने लावे छे, ,
4 , उत्पन्न थएल दुःखने घटाडवानी आपणी फरज छे. वृद्ध जे अनुमाते आपे छे, जे हणे छे, जे वेचे छ, अथवा मीष्ममा शब्दो ( महाभारत-११३,११६,३४) ध्यानखरीदे छे. जे मांस तैयार करे छे, अने जे तेने खाय छे. मां राखवा जोईए के. “जीवनदानथी अन्य महत्तर छेल्ला बेमे अपवादरूप गणिए तो बुद्धे कहेला नियमोने बात
दान हतुं नहीं अने थशे नहीं. " अनुसरतो ज महाभारतनो-आ उल्लेख छे. जो के बुद्धना
प्राणदानात्परं दानं न भूतो न भविष्यति अनुयायीओना वर्तन साथे तो ते असंगत छे.
परंतु कोई शंका करे के, जो गृहस्थ मांस वेचातुं [ आ आखा लेखमां आवेली टीपो आ नीचे एक पण लई शके नहीं तो भिक्षुओने जे त्रण प्रकारे शुद्ध साथे ज आपी देवामां आवे छे.-संपादक.] एवा मांसने लेवानी रजा आपवामां आवी छे, ते मांस १ शांपनहॉर, ग्रन्ड्ले ज डर मारल, रेलम्, पु० ३, पान ६२३ क्यांथी आवे ? आनो तो उत्तर स्पष्ट छ के बौद्ध साधु
२.जेकॉबी, जैनसूत्र, पु. २, पा० ३३, ३१.
३. जेकॉबी, जैनसूत्र, पु. १, पा. ५ ओ गमे त्यांथी भिक्षा ग्रहण करता हता; मात्र बुद्धानु- ४. चातुर्भोतिक देहवाळा असंख्य आत्माओ छे. एवा घणा यायी पासेथा ज नहीं.२७
दहो एकस्थाने भेगा थवाथी ज तेओ दृष्टिगोचर थाष छे. जेकॉबी.
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अंक
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अहिंसा अने वनस्पति आहार
१९३
vi-vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv
५. नीबविचार तथा अन्य ग्रन्थोंने आधारे तेनो अर्थ वनस्पती १७. प्रो. जेकॉबीए तेनो अनुवाद कर्यो छे. सेक्रेड बु०ई०; पु० - अने ज्वारभूनो सिवाय अन्य सर्व एम थाय छे.
४५ पा० २४३ तथा ४१५ ६.अमितगतिनुं सुभाषितसंदोह, ३१, ३, ५, तथा २१, ८, ९, १८ पूर्वपक्षीए शंका उठावी छे ते प्रमाणे शक्य नथी. विरुद्ध ७. अमितगतिनुं सुभाषितसंदोह, २२, २,
पक्षमा बंधबेसता दृष्टान्तनुं विचित्र रूपांतर करवाने बदले लेखके ८. " " , २९, ३
एटलं ज कहवं जोईतुं हतुं के भूलथी हणेला प्राणीने खावामा कांई ९. सरखावो, डबसेननु Geschich teder Philosoh पाप नथी. hie, I,२, पा० ३४०. 'भिक्षा' ना अर्थ उपर तेनो आधार छे. १९. “ मत्स्यमांस " ओल्डनबर्ग, परंतु सरसावो अङगुत्तर नि
१० स्युडर्स, Eine indische Speisereel.जर्मन काय ३, १५१, 'न मच्छं न मंसं." ओरिएन्टल सोसायटीनुं जर्नल १९०७ पा० ६४१
२. Dनी अन्य सूचना विषे जणावे छे. ११. याज्ञ०१७ १७७, वसि०१४, ३९, गौ०१७,२९, म ०५ २ १ ओल्डनबर्गन विनयपिटकम, पु० २, पा.८१ टीप. १८, आप०१५, १७,३७, विष्णु० ५१, ६.
२२. आ स्थळे मूळमां कस्सप छे.पण ते काई खाम नोंधवा जवी Durnrater, Dierragen des hoenigs बाबत नथी,कारण के सगळा बुद्धोनो लगभग सरखो ज उपदेश छ Menandros परिशिष्ट, पा० २७
२३. दुष्ट ब्राह्मग. १३. पहेलां घणी वखत आ प्रमाणे करवामां आव्यु हतुं तेमा
४ Rhys Davids, Buddhism, 8 th ed. जुओ उपर. १४. अल्पदोषमिह ज्ञयम् (१३, ११५,४५).
पा० १३१, तथा सॅक्रेड बु० ई०, १०, १०. पा. ४०, ४१ १५. आ रिवाजनी तरफेणमां तेम ज विरुद्धमा घणुं लखायु छे,
२५. सुचनिपात १३, १० तथा अन्य स्थळे. जुओ महामहोपाध्याय हरप्रसादशास्त्रीनुं Notices on San
२६. महावग्ग, ३, १. Mss., 1907, p. .घणे भागे आ बाबतमा मध सुधारक हता. २७. चुल्लवग्ग, ५, ५,२ ( सरखावो. ओल्डनबर्ग, पा. ७५) महाभारत १३, ११५, ५६ मा जणाव्यु छ के " पूर्वकल्पमां यज्ञपशु २८. मा उपरथी एबुं अनुमान करवु न जोईए के जे चुन्दनी चोखाना लोटनो (व्रीहिमय ) बनावता, अने ते वडे शुभ लोकनी पासेथी तेमने छेवटनी भिक्षा मळी हती ते बौद्धेतर तथा मांसाहा. इच्छावाळा पुरोहितो यज्ञ करावता एम कहेवाय छे." ते ज स्थळे राहतो. केवी जातनो खोराक बनाववो ए निश्चय नहीं करी शक ६३ मा श्लोकमां जैनधर्मनी असर जणाय छे ज्यां भीष्म मधु मां- वाथी तेगे एक पाडोशीने मोकल्यो हतो. अहीं खास जाणवाने सनो उपयोग करवानो निषेध करे छे.
ए छे के आ फकरामा (४.१३-२०) चन्द शब्द ज वपराएलो १६ ' Die Dharmapariksha des Amitag छे, तथा तेने 'लुहाग्ना पुत्र' तरीके ओळखाव्यो छे; परंतु आati, Leipzig' 1905 मां एम० मीरोनोए तेनुं पृथक्करण गळ उपर तेने 'आवुसो' (४२) तथा 'भिक्खु (४१ ) पण कर्यु छे., पा०३८.
कहेलो छे.
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खंड
जैन साहित्य संशोधक डॉ० होनलना जैनधर्म विना विचारो,
. [अनुवादक-श्रीयुत नानालाल नाथाभाई शाह. बी. ए.]
[ स्वर्गस्थ डॉ. ए. एफ्. आर. होर्नलनुं नाम पुरातत्त्ववेत्ताओमां सुप्रसिद्ध छे..तेमणे चंडकृत प्राकृत लक्षण अने उवास गदसाओ सूत्र ए बे जैन ग्रंथो संशोधित-अनुवादित करीने प्रकट कर्या हता. ते सिवाय केटलीक जैन पट्टावालओ पण तेमणे प्रसिद्धिमां मुकी हती. तेओ सन् १८९७ मां बंगालनी एसियाटिक सोसायटीना प्रमुख नेमाया हता. सन् १८९८ मां ज्यारे ए सोसायटीनी वार्षिक सभा मळी हती त्यारे तेमणे पोताना प्रमुख तरीकेना माषणमां खास करीने 'जैनीजम् एण्ड बुद्धिजम्' तथा 'इन्डियन आर्किओलॉजी एन्ड एपिग्राफि 'ए विषयो चा हता. आ नीचे आपला विचारो तेमना ए ज भाषणमांथी लीधेला छे. आ मूळ भाषण प्रोसीडिग्नासू ऑफ धी एसियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगालना १८९८ ना फेब्रुवारीना अंकमां (पृ० ३९ थी ५३) प्रसिद्ध थएलं छे.
सम्पादक.] जैनधर्मविषेना आपणा ज्ञानमां गया वर्षोमां घणो ज नवामां आवे छे. तेमनुं मूळ नाम वर्धमान हतुं. बौद्ध वधारो थयो छे. हिंदुस्तानमां जैन अने बौद्ध ए बन्ने ग्रंथोमा तेमने 'मातपुत्त ' एटले के नात क्षत्रियोना राजप्रतिस्पधी धर्मो होई सरखी रोते ज पुराणा छे, तो पण पुत्र तरीके ओळखाव्या छे. बुद्धनी माफक महावीर मध्यकालीन युगमां जैनधर्मर्नु अस्तित्व ज नहीं हतुं एम पण राजकुलोत्पन्न हता. तेमना पिता सिद्धार्थ ते नात आजपर्यंत घणा विद्वानोनुं मत हतु, अने हजी पण तेना अगर नाय नामनी क्षत्रिय जातना ठाकोर हता, जे वैविश्वविख्यात प्रतिस्पधी-बौद्धधर्म-साथ सरखावतां मात्र शाली नामना आबादी भर्या शहेरना कोल्लाग नामना नाम सिवाय तेनी विशेष माहिती जनसमुदायने नथी. परामा रहेता हता. आ कारणथी महावीरने वैशालीय परंतु हवे प्रो. जेकोबीए करेली गवेषणाओ, के जेमां पण कहेवामां आवे छे. वैशालिनु आधुनिक नाम बैसाढ प्रो. बुल्हर, में अने अन्य विद्वानोए पण मदद करी छे,' छे, जे पटनाथी उत्तरे २७ मैल दूर आवेलुं छे. जुना तेने लईने हिन्दुस्तानना अति प्राचीन अने सुस्थित संप्र- वखतमां ते शहेरना त्रण भाग हता; वैशाली, कुंडगाम अने दायोमानो ए पण एक छे एवी जातनुं पोतार्नु अस्सल वाणियगाम; जेमां अनुक्रमे ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वाणीस्यान ए धर्मे पुनः प्राप्त कर्यु छे. ए ज गर्वेषणाओनो या रहेता हता. हालमां आ सर्व नाश पाम्युं छे. परंतु सारांश संक्षेपमा हुं आज अहीं आपवा इच्छु छु. . तेनी निशानीओ आधुनिक बेसाड, बसुकुंड अने बनिया
जैन आगमो विगेरेमां महावीरना नामथी ओळखाता नामना गामोना रुपमा हजीए हयाती धरावे छे ते वखते महापुरुषने साधारण रीते जैन धर्मना प्रवर्तक तरीके मा. तेमां गणस्वामिक नामनी विचित्र प्रजासत्ताक राज्य
१ आ बाबतनी विशेष हकीकत माटे प्रो० जेकोबीना 'आ व्यवस्था चालती हती: एटले के त्यांना रहेवासी क्षत्रिय चारांग अने 'कल्पसूत्र' तथा 'उत्तराध्यन ' अने 'सूत्रकृतांग जातीना उमरावोनी बनेली एक समितिना हाथमा राज्यसूत्र' ना अनुवादो तथा प्रो. बुल्हरनुं 'ईडियन सेक्ट ओफ
सत्ता रहती हती. ए समितिमां एक सभापति रहेतो जैनस्' अने मारु 'उपासक दशा'नु भाषांतर जुओ. वळी, १८७९ मा प्रसिद्ध थयेलु प्रो० जेकोबीनु 'कल्पसूत्र' तथा 'ओ
जेने राजा कहेवामा आवतो, अने तेनी मददमा एक उपरीजिन ओफ धी श्वेताम्बर एन्ह दिगम्बर' न मना जर्मन भोरी- सभापात अन बाजा सनापात रहता. ए प्रजासत्ताक एन्टल सोसायटीना Volo XXXVIII जर्नलमा प्रसिद्ध राज्यना ते समयना प्रमुख राजा चेटकनी त्रिसला थएलो तेमनो लेख वाचा.
नामे कन्या साथे सिद्धार्थना लग्न थयां हता, अने तेना
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अंक ४]
डॉ० होनलना जैनधर्म विना विचारो।
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naanaamanaramination
ज पेटे ई. स. पूर्वे ५९९ मां अगर ते अरसामां महा- छे. तेथी एकाद वर्ष पछी तेओ त्यांथी नीकळो गया, वीरनो जन्म थयो हतो. आ उपरथी तेओ एक उच्च अने निर्वस्त्र ( दिगंबर) थईने बिहारना दक्षिण तथा कुलमां जन्म्या हता, ए स्वतः सिद्ध थाय छे. अने तेने उत्तर प्रांतमां, तेम ज कदाचित् हालना राजमहाल सुधी लीधे ज बुद्धनी माफक महावीर पण शरुआतमा पो. तेओ खूब फर्या हता. नग्नवृत्तिवाळी दीक्षा लेवा तैयार तानी जात ना क्षत्रियो अने उच्च कुळना लोकोना संसर्ग- थाय एवा अनुयायीओ मेळवतां तेमने बार वरस लाग्या मां ज वधारे आव्या हता. महावीरना लग्न यशोदा होय तेम जणाय छे. ए पछी तेमने 'महावीर'नु उपनाम नामे स्त्री साथे थयां हता. ते यशोदाने अनोज्जा नामनी मळ्यु अने 'जिन' तरीके तेओ ओळखावा लाग्या. पुत्री थई जेनां लग्न पण एक एवा ज उच्च कुलना जमा- आ 'जिन' पद उपरथी ज जैन अने जैनधर्म ली नामना पुरुष साथे करवामां आव्यां. आ जमाली पा- एवां नामो घडायां छे. महावीर प्रथम पार्श्वनाथना पंथछळथी महावीरनो शिष्य थयो हतो. पोताना पिताना मां दीक्षित थया हता, तेथी तेमनो उल्लेख जैन तीर्थमरण सुधी महावीर गृहस्थवासमां ज रह्या. पितानी करोनी परंपरामा पार्श्वनाथनी पछीना तीर्थकर तरीके करसंपत्तिनो वारसा तेमना मोटा भाई नंदीवर्धने लीधा वामां आवे छे. जैन मंदिरोमा पार्श्वनाथनी प्रतिमा स्थापछी, त्रस वरसनी उमरे, पोताना कुटुंबना वृद्ध पुरुषो- पवानुं पण आ ज कारण छे. जैन मंदिरोकाळा पवित्र नी आज्ञा लईने तेमणे यतिजीवनमा प्रवेश कर्यो, के जे पर्वतर्नु पार्श्वनाथ पहाड (पारसनाथ-हिल ) एबुं नाम जीवनने युरोपनी माफक भारतवर्षमां पण कुलना जेष्ठ पुत्र पण आ उपरथी ज पडेलु छे. पोतानी जींदगीना छशिवायना अन्य युवानो माटे महत्त्वाकांक्षाओ पूरी कर- वटना त्रीस वरसोमां महावीरे धार्मिक उपदेश आप्यो वाना क्षेत्र तरीके मानवामां आवे छे. कोल्लागमां नाय छ, तथा पताना संप्रदायनी व्यवस्था करी छे. ए कामवंशना क्षत्रियोए एक धार्मिक संस्था स्थापी हती, के मां तेमने, तेमना मातृपक्षने लईने सगपणनां संबंधमां जेवी संस्थाओ हजीए आ देशमां दृष्टिगोचर थाय छे. जोडाएला उत्तर अने दक्षिण बिहारपदशमांना विदेह,मगध अहीं कलकत्तामा आपणी नजीक आवेला माणिकतो. अने अंग देशना राजाओनी घणी सहायता मळी हती. लामां ज आवी एक संस्था विद्यमान छ जेने आपणे आ देशोमां आवेला शहेरो अने गामडाओमा ज घणे बधा जाणए छीए. आवी संस्थाओमां मंदिर अने भागे तेमणे पोतार्नु धार्मिक जीवन गाळयुं हतुं. परंतु मुनिओने रहेवा सारूं उपाश्रय होय छे अने तेनी फरतुं नेपाळनी हद भणी आवेली श्रावस्ती नगरी तेम ज पारसउद्यान होय छे, केटलीक वखते तेमा स्तूप पण होय नाथनी टेकरी सुधी पण तेमणे पोतानुं भ्रमण लंचावेलु छे. आ बधाने साधारण रीते चैत्यना नामथी ओळख- खरूं. आ उपरथी एम कही शकाय के तेमनी धार्मिक वामां आवे छे, जो के खरी रीते चैत्य नाम फक्त अंदर- मुसाफरी तेमना समकालीन बुद्धना जेटली ज लगभग ना मंदिर माटे ज वापरी शकाय. नाय वंशना आ चै- हती. साधारण रीते तेमना जीवनमा एवा कोई खास त्यने दुईपलास कहेता, अने तेमां ते वंशमां पूज्य मनाता बनावो बनेला नथी. बुद्ध तेमना एक भयंकर प्रतिस्पधी पार्श्वनाथना संप्रदायना साधुओ आवीने वसता हता. हता; तो पण तेमनी साथे कोई जाणवा जेवो वाद-वि. पोताना यतिजीवनना आरंभकाळमां महावीर स्वा
वाद थयो होय एम लागतुं नथी. जैनोना ग्रंथोमा बुद्धभाविक रीते ज दुईपलास चैत्यमा वसता पार्श्वनाथना ना
नो भाग्ये ज उल्लेख आवे छे, प्रत्युत ते ग्रंथोमा तत्कालीसंप्रदाय तळे रहवा लाग्या; परंतु त्याग विषेना तेमना न एक बीजा ज मोटा धर्मगुरु साथे महावीरने थएला विचारो, जेमां दिगम्बरत्व मुख्य हतुं, तेने लीथे, ए संप्र- भयंकर वैरनो उल्लेख करेलो छे. आ धर्मगुरु ते गोसाल दायना नियमो तेमने रोचक न लाग्या होय एम जणाय छे. जे एक मंखली ( भिक्षु) नो पुत्र होई आजीविक
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जैन साहित्य संशोधक
नामना साधुओनो आचार्य हतो. आ आजीविक साधु. पथन तो पोताना मतमां ज मेळवी लीधा हतो के जेथी संप्रदाय ते समय तेम ज तदनंतर पण एक घणो आ- पार्श्वनाथना पंथनुं निग्रंथ नाम तेमना पंथने पण लगाडगळ पडतो संप्रदाय हतो. तेनो उल्लेख अशोकना ई० वामां आव्युं हतुं. ए बेऊना मतमां फक्त न्यूनाधिक वस्त्रो स. पूर्वे २३४ मा स्तंभ-लेखभा पण आवे छे. परंतु पहेरवा विषे ज मुख्य फेर पडतो हतो. पार्श्वनाथमा पं. त्यार बाद ते संप्रदाय नष्ट थयो लागे छे. ज्यारे महावीर थना साधुओ ते वखते तो आ बाबतमां एकमत थई प्रारंभमा नग्नावस्थामा फरवा लाग्या त्यारे आ गोसाल गया हता. परंतु वस्त्र विषेनो आ मतभेद केटलाक सतेमनो पहेलो शिष्य थयो हतो एम लागे छे. पण छ मयसुधी मूढावस्थामा रहीने थोडा सैका बाद ए फरीथी वर्ष ते ओ साथे रह्या पछी ते बेऊमा विखवाद उत्पन्न जागी उठ्यो, अने आगळ उपर आपणे जोईशु तेम, थयो. तेथी गोसाल तेमनार्थी जुदो पड्यो अने एक नवा तेना लीधे श्वेताम्बर अने दिगम्बर एवा बे खास विभाग ज सम्प्रदायनो जाते गुरु बन्यो; अने ते पण महावीर पडी गया. पहेला जैन लोको निग्रंथ अगर निगण्ठना करतां बे वर्ष पहेला. पोतानो शिष्य पोतानी पहेलां नामथी ओळखाता हता. उपर कहेला ई. स. पूर्वे गुरुपदने प्राप्त थयो, आथी स्वाभाविक रीते ज ते बे- २३४ ना अशोकना स्तंभ-लेखमां पण आ ज माम तेमऊमां वैर थयू. गोसाल शिवाय महावीरने मुख्य ११ ने माटे वापरेलुं छे. त्यार पछीना घणा सैकापर्यंत पण शिष्यो हता जे सघळा भक्तिपूर्ण रह्या हता, अने तेमणे आ ज नाम चाल्युं आव्युं हतुं. कारण के ई० स० उपदेश आपी एकंदर ४२०० श्रमणो बनाव्या हता. पछीना सातमां सैकामां आवलो चीनी मुसाफर हुएन्त्सांग आ बधामाथी महावीरनी पाछळ जीवतो रहेनार सुध- पण तेमने ए ज नामथी ओळखे छे. आ नाम केवी भन् नामनो शिष्य हतो जेना लीधे हाल सुधी जैनधर्म रीते उडी गयुं अने तेने स्थाने " जैन " नाम केम चाल्यो आवे छ. महावीरनुं निर्वाण तमना ७२ मा वर्षे प्रचलित थयुं ते हीपर्यंत समजायुं नथी. पटना प्रतिमांना पावा नामना गाममां थयु हतुं के जे अहिया क्राईस्ट अने महावीरना साम्य विषे थोडीक स्थान जैन लोकोमा हाल पण पवित्र मानवामां आव छ. टीका करवानुं मने मन थाय छे. ते बेऊने बार शिष्यो तेमना जन्म अने निर्वाणनी साधारण रीते मनाती तिथि- इता के जेमाथी बेऊने एक शिप्याभास हतो. आवी
ओ ई. स. पूर्वे ५९९ अने ५२७ छ. अने हालनी जातना केटलाक समान बनावोने लीधे बौद्धर्म अने शोधखोळो उपरथी पण ए बहु खोटी लागती नथी. ईसाईधर्म वच्चे जेम परस्परनी सापेक्षिता बताववामां आवे आ प्रमाणे बुद्धनी मितिओ पण क्रमथी ई. स. पूर्वे छे. तेम जैन अने ईसाई बच्चे बताववानुं काम कोईए ५५७ अने ४७७ छे. एटलुं तो निश्चित ज छे के आ करेलुं नथी. आवा बनावोने घणी वार वधु महत्त्व आबन्ने समकालीन हता, अने महावीर बुद्ध करतां पहेलां पवामां आवे छ. उपर्युक्त नाव पण जरा विचारास्पद निर्वाण पाम्या हता. तेमनुं प्राबल्य पण बुद्ध जेटलु ज छे, जो के आवा छूटा छवाया बनावो बहु प्रमाणभूत तो हशे, कारण के तेओ पण पोतानो एक खास सम्प्रदाय न ज लेखाय. जैन अने बौधर्मनी तपास चलावतां चलावी शक्या छे. तेमणे खास करीने पार्श्वनाथना मालुम पडे छे के महावीर अने बुद्धना जीवन तेम ज
सिन्धातोमा धणी नानी मोटी बाबतोमा साम्य रहेलुं छे. २ गोसाल विष प्रो० जेकोबीना विचारो सहेज जदा छे. आ साम्य उपरथी ज महावीरना वृत्तान्तमां तथा तेमनी तेमना मा प्रमाणे गोसाल अने महावीर बन्ने स्वतन्त्र मतस्थापक हता के जेओ पात पोताना पंथोने भेगा करवाना हे तुथी ज ६ वर्ष ३त्रण वेपारीनी वात विषना साम्य वाला आवा एक बीजा साथ रह्या हता, परन्तु मंघटित पंथ नो कोण नेता थाय ते विष- बनाव माटे जुओ प्रो० जेकोबीनो उत्तराध्ययनसूत्र नो अनुवायम रार पढ़ता तेओनी बच्चे विरोध उत्पन्न थयो हतो. . द, पान २९.
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अंक ४]
डॉ.हलिना जैनधर्म विना विचारो.
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पहला जैन धर्मना अस्तित्वमा घणाओने अश्रद्धा रहेली ळथी, बीजा लोकोने पण दाखल करवामां आव्या. हती. परंतु उपर आपेली महावीरना जीवननी रूपरेषा ब्राह्मण संन्यासीओ आवा ब्राह्मणेतर संन्यासी वर्गों तरफ उपरथी जणाशे के तेमनुं जीवन बुद्धना जीवन करतां घृणानी नजरथी जुवे, ए स्वाभाविक छ, अने तेथी तेमचोक्कस भिन्न ज छे.
नामां परस्पर भेदभाव अने विरोध उत्पन्न थाय ए पण
तेटलुं ज स्वाभाविक छ. आ कारणथी ब्राह्मण संन्यासीसिद्धान्तो अने व्रत-नियमोना साम्यनी बाबत विषे बो
ओनी जेम जैन अने बौद्ध श्रमणोए एकला कर्मकांडने लतां पहेलां मारे जणावयूँ जोईए के बौद्ध अगर जैन ए खरी
ज तिलांजली आपी अटकी नहीं रह्या, पण तेमणे एक रीते धर्मो नथी ;परंतु एक जातनी साधु-संस्थाओ छे. युरोपमा
पगलं आगळ जई वेदाध्ययन पण बंध कर्यु, के जेने जेम डॉमिनिकन्स अने फ्रान्सीस्कन्स जेवा साधुसंप्रदायो लीधे तेओ खरी रीते ब्राह्मणधर्मथी बिल्कुल छूटा पड्या. छ तेवा आ पण भिक्षुसंप्रदायो छे. बने ई. स. पूर्वे
जैनधर्म अने बौद्धधर्म ए सुधारक पक्षनी चळवळो होई पांचमां सैकाना आरंभमां अने छठ्ठा सैकाना अतमा खास करीने तेओ वर्णाश्रम सामे बंड उठावनार छे, एबुं स्थपायेला छे. ए वखते उत्तर हिन्दमां धार्मिक चळवळ जेमत अद्यापि प्रचलित जणाय छे ते तद्दन खोटु छ. पूरजोशमां चालती हती. एवा घणा संप्रदायो ए वखत तेओ तो फक्त ब्राह्मण संन्यासीओना स्वातंत्र्य सामे ज उद्भव्या हता. परंतु तेमां आ बे ज प्रचलित रही शक्या.
विरोध उठावे छे. वर्णाश्रम धर्म उपर तेओनो धसारो त्रीजो संप्रदाय 'आजीविको' नो हतो, जेना विषे में उपर
नथी. तेमना संप्रदायोमां पण, जो के उघाडी रीते बधाने कहेलु ज छे. आ उपरथी एम नहीं मानवानुं के आवा
अवकाश छे एम जणाववामां आवे छे, छतां घणा भागे भिक्षु संप्रदायो ते वखतनी परिस्थिातमा खास सुधारारूप
मात्र उच्च वर्णोने ज दाखल करवामां आवे छे. एक वात अगर नवा ज हता. आवी संस्थाओ मूळ चालता आ
खास जाणवा जेवी छे, के आ पन्थोने माननारा गृहस्थ वेला ब्राह्मण धर्भमां पण हती. ब्राह्मण धर्ममा चार लोको साधारण रीते धार्मिक बाबतोमा पोताना पंथना आश्रमो विहित छे; जेम के विद्याभ्यासने माटे ब्रह्मचर्या
व्रतनियमोने ज अनुसरनारा हता, तेम छता, गर्भाधान, श्रम, पछी गार्हस्थ्य, पछी एकांतवास माटे वानप्रस्थ, अने
अन लग्नविधि, उत्तरक्रिया विगेरे संस्कार मां तेओ ब्राह्मणत्यार बाद छेल्लां वर्षो माटे संन्यस्त. आ संन्यासी आना धर्मना उपाध्यायोने निमंत्रता हता. बौद्ध अगर जैन ढबे ज जैन अने बौद्धना संप्रदायो ई. स. पूर्वे छट्ठ
भिक्ष श्री ते लोकोना धर्माचार्य तरीकेन काम करता, कामां अस्तित्वमा आव्या हता. फेर मात्र एटलो ज के ,
परंतु ते मनुं गौरपदं तो ब्रह्मणो ज करता रहेता हता. जैनो तथा बौद्धोनी माफक ब्राह्मणोए मोटी भिक्षुसंस्थाओ रची न हती. ए धर्मोए ब्राह्मण संन्यासीओना विधि- आ उपरथी जणाशे के बौद्ध अने जैनधर्ममा घणं नियमोनुं ज अनुकरण कयु हतुं. अने तेथी ज बौद्ध अने साम्य होवानुं कारण तेमना वखतनी परिस्थिति ज हती. जैनोमां साम्य होवानुं कारण मळे छे. अहिंसानो सिद्धान्त बाकी सिद्धांत अने प्रक्रिया विषयक तेओमा घणी भिन्नजे बौद्धो अने जैनोमां खास अगत्यनो गणाय छे ते मूळ ताओ छे, अने ते एटली बधी तथा एटली झीणवटवाळी ब्राह्मण धर्मना संन्यासीओमाए पळातो हतो. काळक्रमे अने परिभाषिक छे के आवा नाना. लेखमा हुँ भाग्ये ज ब्राह्मणधर्ममा एवी एक वृत्ति उद्भवी के संन्यस्त आश्र- तेनुं विवेचन करी शकुं. तेम ज ते, विवेचन घणाने ममां ब्राह्मण शिवाय बीजा लोको दाखल थई शके नहीं; नीरस पण लागे. जेमने तेमां रस पडे एम होय तेमने अने प्रायः ए कारणने लोधे ज, ब्राह्मणेतर ज्ञातिओ माटे प्रो. जेकोबीनां जैन सूत्रोना भाषांतरोनी प्रस्तावनाओ आ जैन अने बौद्ध संन्यासी आश्रम स्थपाया हता. एमां जोवा मारी भलामण छे. बे बाबतो के जेना विषेनो पण प्रथम तो क्षत्रिओने ज अवकाश हतो. परंतु पाछ- उल्लेख बीजे कोई ठेकाणे थयो नथी ते, मारा मत प्रमाणे,
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जैन साहित्य संशोधक आ वे धर्मोना सिद्धांत अने प्रक्रियामांनो खास तफावत ज- तथा कोई दुष्टने बहिष्कृत पण करवामां आवतो नहीं; णावी शके छे. 'त्रिरत्न' नामनो प्रख्यात. शब्द बौद्धो हुंकाणमां ए ज के तेमना पंथना साधारण लोकोनी अने जैनोने सामान्य छ, जेनो अर्थ बौद्धो बुद्ध, धर्म स्थिति एवी शिथिल तथा असंबद्ध हती के बौद्ध पंथनो अने संघ करे छ; अने जैन लोको सम्यक्दर्शन, सम्यक्- अनुयायी साथे साथे बीजा पंथनो पण होई शके; कारण ज्ञान, अने सम्यक्आचार करे छे. बेऊ धर्मना आ मुद्रा- के ते माटे कोई जात्तना खास नियमो न हता. हु बुद्धना लेखो खास विचारसूचक छे. बौद्ध लोकोनो मुद्रालेख आधि- महाम संघमांनो एक छु तथा तेना धार्मिक फायदाओ भौतिक अर्थवाळो छे अने जैनोनो आध्यात्मिक अर्थमां छे. हुं उठावं छु; आवी मगरीनी लामणी राखबानो अविपहेला अर्थ उपरथी जणाय छे के बुद्ध धर्ममा व्यावहारिक कार बौद्ध उपासकोने न हतो. जैनोना श्रावकादिनी अने जीवंत उत्साह भरेलो छ, अने बीजा अर्थ उपरथी स्थिति आथी जुदी ज छ. बौद्ध उपासक करतां तद्दन जुदी जणाय छे के जैन धर्म विचारोमां वहनारो अने असाह- ज रीते ते ओ पोताना सबना खास आवश्यक अंग तरीके सिक छे.आ अनुमानने बेऊ धर्मना इतिहासथी समर्थन मळे गणाता; अने पोतानो गाढ संबंध भिक्षुओ साथे जोडाछे.पोताना चपळ अने प्रवर्तक उत्साही बौद्धधर्म, हिंदुस्ता- एलो छे एम तेओ मानता. आ बाबतमा बौद्धधर्मे हिमाननी बहार प्रसर्यो, अने फक्त एक भिक्षु संप्रदायमांथी लय जेवडी मोटी भूल करी छ; अने विकसित थईने सिलोन, बर्मा, तिबेट,तथा अन्य भागोमां वे हिंदुस्तान के ज्या तेनो खास प्रादुर्भाव थयो हतो वधीने एक महान् धर्म तरीके परिणत थयो; पण जैन- त्यांथी, जडमूळथी जतो रह्यो छे. आगळ वधता ई. स. धर्म शान्तवृत्तीथी मात्र हिन्दमां ज चालु रह्यो. बीजो ना सातमा सैकाथी असरकारक बनता जता लोकोना शब्द जेनो जैनो अने बौद्धो बने उपयोग करे छे ते धार्मिक वळणमां फेरफार थतो होवाने लीधे प्रख्यात
जैनोना संघमां चार प्रकारना माणसो- चीनी भुसाफर हुएन्त्संगना समयमा बौद्ध धर्ममां ओट नो समावेश थाय छे-जेम के भिक्षु, भिक्षुणी, श्रावक थतो गयो; अने तेमां पण काळक्रमे नवमा सकामां शंक- . अने श्राविका. बौद्ध लोकाना संघमां फक्त भिक्षुओ अने राचार्ये प्रकटावेली ब्राह्मण धर्मनी संस्थाओना सचोट भिक्षणीओनो ज समावेश थाय छे. ते पंथमां इतर लोकोने विरोधने लीधे पड्या पर पाटु मारवा जेवं थयु. आखरे कोई खास नामथी संप्रदायमां जोडवामां आव्या नथी. ज्यारे बारमा अने तेरमा सैकामां भारतवर्ष उपर, उच्छेपोताना पंथना लोको साथ कोई प्रकारना व्यवस्थित दक मुसलमानोनी स्वारीओ थया लागी त्यारे, तारानाथ संबंध विना कोई पण भिक्षुसंघ न भी शके नहीं, ए स्पष्ट अने भिन्हाजुद्दीननी तवारीखोमां जणाव्या प्रमाणे थोडा ज छे. कारण के पोताना संपदायना अस्तित्वनी खातर घणां बाकी रहेला बौद्ध विहारो तथा चैत्योने सखत पोताना पंथना लोको पामेथी द्रव्य विगेरे मेळववानी आघात पहोच्यो, जेथी बौद्धधर्म केवळ छिन्नभिन्न दशामां दरेक संघने खास करीने जरूर रहे छे ज. पण ए बेऊ आची अंते नाश पाम्यो. तेणे मूळथी ज पोताना उपासपंथोनुं वर्तन पोताना उपासको तरफ तद्दन भिन्न भिन्न कोने भिक्षुसंघसाथे गाढ संबंधमा राख्या नहीं, तेम ज प्रकारनुं हतुं. बौद्धोमां भिक्षुओनी बाबतमां कांई कहेवा- पाछळथी पण ते संबंध योजाई शकयो नहीं, तेथी करीने करवानो बीजाओने कोई अधिकार न हतो. लोकोने साधारण उपासको पाठा ब्राह्मण धर्ममां जोडाई गया संघमां कोई विधिपुरस्सर दाखल करवामां आवता न अने तेथी ब्राह्मणो केवळ गोरपदं करवाने बदले, पुनः बौद्ध हता. तेमने कोई जातनी प्रतिज्ञाओ लेवानी न हती.तेमना धर्मना पहेलांना समय प्रमाणे गोरपदुं तेम ज आचार्यप, आचारोने माटे कोई विधि-निषेधनो खास ग्रंथ न हतो. बंने करबा लाग्या. फक्त थोडाक लोको, अने खास करीने तेमने माटे कोई विशिष्ट धर्मक्रिया करवामां आवती नहीं; बंगाळना केटलाक लोको, ब्राम्हणधर्ममां न भळतां बुद्ध
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अंक ४]
डॉ. होर्मलना जैनधर्म विषना विचारो तथा भिक्षुसंघ विना पण बौद्ध धर्मनी पतित अने कळ्या छे. बौद्धोनो तथा जैनोनो ऐतिहासिक शोख एकविशीर्ण अवस्थामा पड्या रद्धा के जेमने जोतां साधारण सरखी रीते वृद्धिंमत थएलो छे. तेओए नियमित रीते
ते पहेलांना जाहो जलालीवाळा बोधर्मनुं भाग्बे ज पोताना धर्माचार्यों तथा गुरुओनी पट्टावलीओ जाळवी "कोईने भान थाय. बौद्धर्मना आ अबशेष रहेला उपास- राखेली छे, जेमांनी घणी खरी प्रो. बुल्हरे, डॉ. क्लाटे, कोनी शोध करवान मान आपणा जोईन्ट फिलोलोजिकल तथा मे इंडियन एन्टीक्वेरीमा अने एपिग्राफिआ. इंडिसेक्रेटरी पंडित हरप्रसाद शास्त्रीने घटे छे. तेमणे ज प्रख्यात कामा प्रसिद्ध करी छे. विशेषमा तेमना धार्मिक तथा बौद्ध त्रयीमांना 'धर्म' ना अनुयागी तरीके ते लोकोने अन्य पुस्तकोमा घण ऐतिहासिक बाबतोनी नोंधो वारंवार शोधी कहाड्या छे, अने १८९५ ना आपणी संस्थाना जोवामां आवे छे. आवी बाबतोने उपर्युक्त विद्वानो उपजर्नलमा तेमनी हकीकत प्रसिद्ध करी छ. आ लोको उप- रांत प्रो. वेबर तथा प्रो. भाण्डारकरे पण जुदी जुदी रथी ज धर्मतोला स्ट्रीट आबु नाम घडायुं छे, तथा हजी काढीमे संगृहीत करी छे. ए साहित्यमांथी हजी पण पण जाऊं बाजार स्ट्रीटमा तेमनुं धर्मचैत्य मौजूद छे. एबी घणी बाबतो तारवी कढाय तेम छे, जेनी ट्रंक रुप.
बौद्ध धर्मना आ प्रकारना विनाशकाळ दरम्यान जैन रेषा हुँ अहिं नीचे वर्णवं छं. धर्मनी स्थिति तद्दन जुदी ज हती. अने तेथी ते हजी पण महावीरतुं निर्वाण थयां पछी बीजा सेकामां-ई०स० निर्विघ्नपणे चाल्या करे छे, तथा तेना साधुसंघो पूर्व लगभग ३१० मां-मगध देशमा एटले हालना बि. अने श्रावकसंघो हजी पण पश्चिम तथा दक्षिण हिन्दमां हार प्रांतमा हादश वार्षिक दुकाल पड्यो. ते वखते अने बंगालमा दृष्टिगोचर थाय छे. तेमनी एवी एक संस्था जैनधर्म बिहारप्रांत ओळंगी बहार नीकळ्यो हतो एम जआपणी नजीकमां आवेला माणिकतोला परामां ज मौजुद णाव छे. ते समवे त्यांनो राजा मौर्यवंशीय चंद्रगुप्त हतो. छे. जुमा वखतनी धार्मिक भिक्षुसंस्थाओमाथी हाल जी- तथा अद्यापि अविभक्त जैनधर्मना आचार्यपदपर भद्रबाहु वती जागती एवी फक्त ए एक जैनधर्मनी ज संस्था छे. प्रतिष्ठित हता. दुकाळनी आफतमा केटलाक साधुओ साथ अलबत् आवी ऐकांतिक संस्थाना इतिहासमांथी जनस- भद्रबाहु दक्षिण तरफ कर्णाटकमां नीकळी गया अने माजने रस पडे एवो खोराक तो भाग्ये ज मळी शके; तो मगधमां तेमनी जग्या स्थूलभद्र भोगववा लाग्या. लगभग पण जे एक बाबत आपणा ध्यान उपर खास धसारो करी दुकाळना अंतमां, पण भद्रबाहुनी गेर हाजरीमां, पाटलीशकेले ते ए छ, के आ धर्म पण श्वेताम्बर अने दिगंबर पुत्र ( पटना ) मां एक सभा थई जेणे अग्यार अंगो तथा एवा बे पंथमां विभक्त थई गएलो छे. आ बिभाग 2- चौद पूर्वो के जेनो समावेश बारमा अंगमां थाय के ते भेगां वानुं कारण ए शब्दो उपरथी ज सूचित थाय छे. एटले की. दुर्भिक्षना आपत्ति-समयमा जे जे हरकतो पेदा थई के न्यूनाधिक वस्त्रो पहेरवाना विखवाद उपरथी आ भागो तेनी असर जैन धर्मनी प्रकिया उपर पण थई. साधुओने पडेला छे. आ उपरांत पाछळवी सिद्धांत अने प्रक्रि- माटे साधारण एवो नियम हतो के तेमणे नग्न ज रहे, यामां पण बेऊ संप्रदायोने केटलोक भेद थएलो छे, पण जोईए; जो के अपवादरूपे केटलाक नबळा साधुओने ते जनसमाज माटे विशेष रसोत्पादक नथी. जैनधर्मना अमुक वस्त्र पहेरवानी रजा पण आपवामां आवेली हती. आ बने संप्रदायो विभक्त तेम ज विरोधी अवस्थामा रह्या मगधमां रहेला ते केटलाक साधुओने वखतनी जरुरीयात करे छे. बेऊनुं साहित्य पण भिन्न छे; परंतु ' अंगो' .... अने 'पूर्वो' ना नामे जे जुनुं धार्मिक साहित्य छ ते ४. जुओ प्रो. वेचरर्नु “फेटलाग ऑफ जैन मेन्युस्क्रप्टस्' मात्र श्वेताम्बरोनुं ज गणाय छे. वखत जतां आवे वि- १८८८ ने ९२, तथा प्रो. भांडारकरनो पिोर्ट ऑफ धी सर्च फॉर
मेन्युस्कीप्टस् १८८३-१. विशेष हकिकत माटे वळी जुओ. प्रो, भागोमांथी संप्रदायो अने साधुओना अनेक फांटा नि- जेकोबीनी जैनसत्रौनी प्रस्तावना (भाग २).
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जैन साहित्य संशोधक
Radian
प्रमाणे एम लाग्युं के नग्न दशा छोडी आपणे हवे श्वेत लागी. तेथी तेमने व्यवस्थित करवानी जैन समाजने। वस्त्र पहेरवां जोईए. एथी उलटुं केटलाक साधुओ धर्माध- अत्यंत आवश्यकता लागी अने रेटलामाटे आखरे संप्रताथी ए विचारने वश न थतां पोताना वर्गना साधुओने दायना एक मुख्य आचार्य देवर्धिनी देखरेख तळे गुजः। माटे निर्वस्त्र रहेवानो फरजीयात विधि बनाव्यो, अने रातमां आवेला वल्लभी नगरमां एक....सभा मरतेमनाथी अलग थई दूर जता रह्या. दुर्भिक्ष पछी ज्यारे वामां आवी. -- फरीथी देश आबाद थयो त्यारे ते पेला साधुओ पाछा ,
आ दंतकथा उपरथी एम जणाय छे के श्वेलाम्बरोए आव्या परन्तु तेमनी गेरहाजरीमा श्वेतवस्त्र पेहरवानो
सुरक्षित गखेला जैन सिद्धान्तग्रंथो ई. स. पहेलांना नियम रूढ थई गएलो होबाथी तेओ त्यांना साधुओ
लगभग चौथा सैकाना अंत अथवा त्रीजा सकाना प्रारंभ साथे भेगा मळी शक्या नहीं. आ रीते दिगम्बरो अने
- जेटला जुना छे, कारण के पाटली पुत्रनी सभा लगमग श्वेतांबरोनी भिन्नताना पायो नंखायो. आना परिणाम
ई. स. पूर्वे ३०० मां थरली; अने ते वखते ज आ पाटलीपुत्रमा संगृहीत थएला धार्मिक ग्रंथोने दिगम्बरो
आगमो संगृहीत थया हता. आ हकीकत उपरथी सूचित ए मान्य राख्या नहीं अने तेथी तेओ कहेवा लाग्या के
थाय छे के ए ग्रंथो ते वखत पहेला पण विद्यमान होवा अमारा 'पूर्वो' अने 'अंगो' नष्ट थई गयां छे. शरुआतमां
जोईए अने जैन दंतकथा पण एम कई छ के महावीरे पोआ विभाग बहु महत्त्वनो न हतो परन्तु केटलाक सैका पछी
ताना मुख्य शिष्य गणधरोने प्रथम 'पूर्वो' शीखव्यां हता एटले लगमग ई. स. ७९अगर८२मां आ विभागोए चुस्त- अने ते पर्वो उपरथी गणधरोए नवा 'अंगो' बनाव्या रूप धारण कयु. विभक्त थवा विष घेऊ पक्षनुं ऐकमत्य छे,
हता. ' पूर्वो' एटले 'पहेलां'ना ग्रंथो अर्थात् ' अंगो' नी परन्तु विभक्त थवाना वर्ष माटे ३ वर्षनी भिन्नता जोवामां ।
पहेलां थएला ग्रंथो. पाटलीपुत्रनी सभा वखते, जैनोना कहेवा आवे छ. आ समये विहार प्रांतमांथी नीकळीने जैनधर्मे
प्रमाणे ते ग्रंथोमांनो केटलोक भाग नाश पाम्या हतो, घणी दूर सुधी पोतानो प्रसार कर्यो हतो तथा पोतानी
अने तेथी बाकी रहेला भागने बारमा — अंग' तरीके केटलीक संस्थाओ अने पक्षो वधार्या हता; अने आपणे
संगृहीत करवामां आव्यो. एक जैन दंतकथा एम जणावे आगळ जोईशु के आ वखते तेमणे मथुरामा पण एक केके मळमां जे सिद्धान्त ग्रंथो हता, तेमाथी बाकी रहेला सारी संस्था स्थापी हती. तवारीख उपरथी एम जणाय
ग्रंथोने पाटलीपुत्रनी सभामां पुनः संशोधित करी ते समछे के, आ प्रमाणे विस्तृत थवानी प्रवृत्ति खास करीने, .
1, यने अनुकूल आवे तेवा नवा रूपमां गोठववामां आव्या. ई. स. पहेलानां त्रीजा सैकामां श्वेताम्बराचार्य सुहास्तन् जैन धर्म अने तेना इतिहास विषे आ प्रमाणे दंतना समयमां वधी हती. कारण के ते वखतनी पट्टावलीमा
कथा ओ छे. त्रीसेक वर्ष पहेला आ दंतकथाओने बिल. विभागो अने उपविभागोनी असाधारण भरती जोवामां
कुल बेवजूद गणवामां आवती हती, परन्तु हवे तेवी आवे छे. अने एटलुं तो निश्चित ज छे के ई. स. पहे.
वृत्तिने, जैन साहित्यमा देखाई आवती ऐतिहासिक चोक्कलांना बीजा सैकानी मध्यमां जैनधर्म ओरीसाना दक्षिण
साई अने झीणवटने लीधे सखत फटको लाग्यो छे. गत भाग सुधी पहोंची गयो हतो. केम के कटक आगळना
वर्षोमां प्रो. जेकोबी, प्रो. ल्युमॅन अने में प्रसिद्ध करेला खंडगिरि पर्वतना खारवेलना लेखमां जैनोनो खास उल्लेख
जैन पुस्तको उपरथी आ दंतकथाओनी सत्यता विशेष थएलो छे.
मालुम पडती जाय छे. प्रो. जेकोबीए जैन सिद्धान्त काळक्रमे पाटलिपुत्रमा संगृहीत थएला जैन सिद्धान्तो ग्रंथोनी भाषा अने शैलीनी बारीक तपास करीने तेमना फरी केटलीक अव्यवस्थामां पड्या, अने हस्तलिखित पुराणपणा विषेनुं पोतानुं प्रामाणिक मत प्रसिद्ध कयु छ। प्रतोना अभावने लीधे तेमना नाशनी पण तैयारी थवा तो पण ज्यां सुधी आ दंतकथाओ विषे अचुक अने
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अंक.]
डा. होर्नलना जैन धर्म विषेषना विचारो.
२०१
....... .ran.
स्वतंत्र पुसवा मळी शके नहीं त्यां सुधी तेमना उपर अथवा साध्विओना उपदेशथी ए कार्य करवामां आव्यु संपूर्ण विश्वास राखी शकाय नहीं, ए स्वाभाविक ज छे. तेनां अने जे गण अगर संघना तेओ अनुयायी हता परंतु हवे आवा स्वतंत्र पूरावानी शोधो पण गण वर्षोमां तेनां नामो आपेला छे. आ समर्पणना लेखोमांथी घणी थएली छे, अने तेनुं मान वीएनाना प्रो. बुल्हरनी तीव्र उपयोगी बाबतोना विश्वसनीय पुरावाओ मळी आवे छे. 'बुद्धिने घटे छे. ई. स. १८७१ मां मेजर जनरल सर प्रथम तो आ लेखोमा उपदेशक तरीके उल्लिखित ए. कनीन्हामे मथुराना कंकाली टीलाना खडेरोमांथी साधु अगर साध्विओना जे जे गण-संघ शोधी काढेला लेखानु पुनर्निरीक्षण करीने प्रो. बुल्हरे आदिनां नामो एमां आपेला छे ते गणादि ई. स. ना तमांना केटलाक लेसोमां जैनोना केटलाक आचार्यों अने पहेला अने बीजा सैकामा विद्यमान हता ए बाबतनो विभागोनां खास नामी शोधी काढयां; अने तेथी ते वख- पुरावो कल्पसूत्र अने बीजा जैन ग्रंथोमाथी आपणने तना आकाओं लॉजील सव्र्हे खातान. वडा डॉ० जे मळी आवे छे. जे कौटिक नामना गणनो एमां वारंवार बर्गेस द्वारा ते टेकराने बराबर खोदाववानी व्यवस्था कर- उलेख थएलो छे ते गण सुस्थिताचार्ये स्थापेलो हतो. वामां आवी, जे मुजब डॉ० फुहररना अध्यक्षपणा नीचे आ सुस्थित ई. स. पूर्वना बोजा सैकाना पूर्वार्धमा संघना १८८९ थी १८९३ सुधी अन पुनः १८२६ मां तेनुं आचार्य तरीके विद्यमान हता. स्पष्ट रीत ज आ गण जैनोनी खोदाण काम करवामां आव्यु. आथी बीजा घणा नवा श्वेतांबर शाखानो हतो. आ रीते आपणने आ लेखो उपलेखो हाथ लाग्या अने तेनी नकलो डॉ० बुल्हर तरफ रथी ई. स. पर्वेना बीजा सैकाना मध्यमां जैन श्वेतांबर रवाना करवामां आवी. तेमणे ते लेखोर्नु परीक्षण करी संप्रदायनी विद्यमानतानो परोक्ष पुरावो मळे छ एटलु तमाथी केटलाक खास खास लेखो चूंटी काढथा अने ज नहीं पण ई. स. ना प्रारंभना बे सैकामा ए संप्रदाय वीएना ओरीएन्टल जर्नलमां तथा एपीग्राफीआ इंडी- नो कौटिक नामे गण मथुरासुधी फेलाएलो हतो तेनो काना प्रथम बे पुस्तकोमा प्रसिद्ध को. आमांना केट. प्रत्यक्ष पुरावो पण मळे छे. तथा ए लेखोमा तेनो जे लाक लेखो घणा उपयोगी छ. कारण के तेमां इंडो वारंवार उल्लेख आवे छ तेथी ते मथरामां सारी पेठ जासिथीयन संवत् एतले के इंडो-सिथीयन राजा कनिष्क, मेलो हशे एम पण स्पष्ट जणाय छे. ते समय बुलन्द इविष्क अने वसुदेवे उपयोग करेला संवतनी मितिओ शहरमां पण एक एवी संस्था हती जेनो पुरावो ए लेखोआपेली छे. आ राजाओ ई० स० ना प्रथम बे सैका ओमां मां आवता उच्चनगर अथवा वारण नामना समुदायना थएला छे अने तेमनुं राज्य हिंदना उत्तर-पश्चिम किना- साधुओनां नामो उपरथी मळे छे. ए बन्ने नामो उक्त राथी टेठ मथुरासुधी प्रसर्यु हतुं. आ लेखोनी मिति, ते शहेरना जुना नामो हता. संवत्ना ५ था ९८ मां वर्ष सुधीनी छे, जे ई० स० ना. बीजी बाबत ए छे के, संघना एक अंग तरीके ८३ थी १७६ वर्षनी बराबर थाय छे. आमांना घणा साध्वी वर्गने जे गणवामां आवे छे तेनी हयातीनो पुरावो लेखो तो जन प्रतिमाओनी बेसणी ऊपर कोतरेला छे. पण आलेखो परो पाडे . अने ते उपरथी विशेष ए तेमां ते मूर्ति बन बनार श्रावक अगर श्राविकाओनां, जे पण हकीकत मळी आवे छ के पोताना धर्मनो विकास मंदिरमा ते मूर्ति स्थापित करवामां आवी तेनां, जे साधु करवामां आ साध्वीओ पण घणो भाग लेती हती. अने
५ आ विषयनी शोध खोलना तेमना लेखो वीएना ओरिएन्टल खास करीने श्राविकाओमां. कारण के एक अपवाद जर्नल, १०८ थी ९१, अने १८९६ मां प्रसिद्ध थया छे; तेम ज सिवाय बधी ज श्राविकाओए साध्वीओना उपदेशथी १८९७ मा इमिरीयल एकेडेमी ऑफ सायन्सना जर्नलमां पण
प्रतिमा समर्पण करवानुं जणाव्युं छे. आ वातने जैन तमणे ते प्रकट कराव्या हे. ६ जुलो तेमना सर्वे रिपोर्टर , भाग २.
सिद्धान्त ग्रंथोना लखाणथी समर्थन पण मळे छे. जैन
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धर्ममां दिगंबर अने श्वेताम्बर ए वे विभागो घणा जुना वखतथी पडेला छे तेनो पण एक अधिक पूरावो आमांथी मळी आवे छे. दिगम्बरो पोताना संघमां स्त्रीओने सामेल करता नथी. फक्त श्वेताम्बरो ज तेम करे छे. तेथी आलेखो उपरथी एम सिद्ध थाय छे के मथुरामांनी आ संस्था श्वेताम्बरोनी जहती तथा ई. स. ना प्रथम सैंकामां आ विभक्त अवस्था बराबर निश्चित थएली हती.
जैन साहित्य संशोधक.
लेखोमांथी थई शके एम छे, ए सिद्ध करवा भाटे प विस्तृत पूरावा हुं आपी शकुं तेम छु; परन्तु ते करवा करता आ विषयमां रस लेनार सज्जनोने प्रो. बुल्हरना लेखो ज स्वयं वांची लेवानी हुं भलामण करवी योग्य धारुं छु हजी जे एक बाबत मारे खास जणाववी जाईए, ते ए छे के, सुप्रसिद्ध चक्र अने स्तूप तथा तेना अन्य अंगो ए बौद्ध धर्मना ज खास बाह्य चिन्हो मनाय छे। पण १८८३ मां लीडन मुकामे भराएली छडी ' इन्टरनेशनल कॉंग्रेस ऑफ ओरीएन्टालीस्टस् ' आगळ वांचेला लेखमां महुम पंडित भगवानलाल इंद्रजीए बतावी आप्युं हतुं के जैन लोको पण स्तूपोने पूजे छे. खोळ कर्या अने हवे प्रो. बुल्हरे ऊंडी शोध पछी सप्रमाण सिद्ध कर्ये छे के चक्र अने स्तूप विषेनी अद्यापि चालती आवती विद्वानोनी मान्यता केवळ भूल भरेली छे. मथुरामांथी एक जैन स्तूपनां अवशेष सुधां प्रकट रीते मळी आव्या छे. पहेलांथी थती आवती भूलने लीधे शरुआतमां एम लाग्युं हतुं के आ स्तूप पण बौद्धोनो हशे; परन्तु तेनी बाजुएथी ज्यारे बे जैन मंदिरोना अवशेषो मळी आव्या तथा जैन लेखो अने प्रतिमाओ विगेरे पण त्यां मळी आव्यां त्यारे आ स्तूप पण जैनोनो ज होवो जाईए, ते विषयमा पछी कोई जातनी शंका रही नहीं. त्यारबाद केटलाक कोतरेला पत्थरो पण मळेला हे, जेना उपर तेना बीजा अवयवशे साथे जैन स्तूपोनो आकार कोतरेलो छे. आपणे हाल सुधी जेने बौद्ध स्तूपो मानता आव्या छीए तेना जेवा ज आ स्तूपो छे. प्रो. बुल्हरे तो पोतानुं अनुमान आगळ दोडावीने एम पण कह्युं छे के स्तूप - पूजा ए जुना वखतमां फक्त जैन अने बौद्ध ज करता एम नहीं, परंतु चुस्त संन्यासीओ ( ब्राह्मण धर्मना ) पण करता हता. एक जैन प्रतिमानी बेसणी जेना उपर कोतरकांम तथा लेख छे तनी शोध खास जाणवा जेवी छे, तेमां बौद्ध प्रतिमाओती माफक ज एक त्रिशूल उपर चक्र काढलुं छे. आ उपरथी एम सिद्ध थाय छे के चक्रनुं चिन्ह ए केवळ बौद्धोनुं ज नथी. जैन ग्रंथोमां आपेली घणी बाबतोनुं समर्थन आ ते लेखमां जणाव्या प्रमाणे, ते प्रतिमा, एक साधुना
आलेख उपरथी एक बीजी हकीकत ए मळे हे के जैन संघमा श्रावक-श्राविकाओनी व्यवस्थित रचना करेली छे. में उपर सूचना करेली ज छे के जैन संघमां आपण एक अगत्यनो विभाग गणाय छे, के जं धर्मनी उन्नतिमां वणी महत्त्वनी बाबत छे. ए लेखोमां श्रावक अने श्राविका एवा शब्दो वपराएला छे जैने हाल सरावगी पण कामां आवे छे. बौद्धोमां पण श्रावक शब्द वपराएलो के पण त्यां तेनो अर्थ अर्हत् ( अमुक कक्षानो साधु ) एवो करवामां आवे छे. आ हकिकत श्रावकोनी चोक्स |स्थतिविषे उल्लेख करे हे एटलुंज नहीं, पण जैन अने बौद्ध ए बे महान् धर्मोनी विशिष्टतानुं पण स्पष्ट प्रतिपादन करे छे.
खडे
एक बीजी उपयोगी बाबत ए छे, के ते लेखांमां श्रावकोनी जःतिविषे पण वारंवार उल्लेख आवेलो छे. जैन अगर बौद्धधर्म वर्णाश्रम दूर करवा मांगे छे, एवी जे मान्यता छे ते तद्दन खोटी छे एम में पहेली जणावेलुं छे. एक माणस श्रावक बनवाथी वर्णभ्रष्ट थतो नथी. ते पोतानी जातिनो बंधो—रोजगार छोडी शके छ, परन्तु कन्यानी आप ले माटे तथा अन्य व्यवहार माटे तो तेने पोतानी जुनी जातिनो ज आश्रित रहनुं पडे छे. एक लेखमां एक लुहारे दान आप्यानुं वर्णव्युं छे. जैन थया पछी ते लुहार बन्यो हशे एम मानवुं भूल भरेलुं छे, कारण के श्रावकोने माटे तो छुहारना धंधानो निषेध करेलो छे. तेथी आ उल्लेख तेना बापदादानी तथा तेनी जाति माटे ज हशे तो पण एम जणाय छे के हालनी माफक ते बखते पण घणा खरा श्रावको वपारी वर्गना ज हता.
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अंक
डा होनलना जैन धर्म विषेना विचारो. उपदेशथी एक श्राविकाए प्रतिष्ठित करी हती. ए बेऊनी हतो अने ते वखते तेनी मरामत विगरे करवामा " आकृति औ पण, आ पवित्र चिन्हनी तेओ स्तुति करता आवी हती; तथा तेमां पत्थरो बेसाडवमां आव्या हता.
होय तेम, कोतरवामां आवी छे. वरी लखमा एम पण मूळ ते स्तूप ईटोनो बनेलो हतो अने पार्श्वनाथने सम। उल्लेख छ के, ई. स. १५७ ने मळती सालमां, आ र्पित करेली सुवर्णथाल तेमां मुकेली हती. एम कहेवामा * देवनिर्मित स्तूपमा प्रतिमा बेसाडवामां आवी. 'देवनि- आवे छे के ए सुवर्ण थाळ मथुरामां देवोए आणी हती
मित' ए शब्दथी सूचित थाय छ के ए स्तूप बहु ज जुनो अने वणा वखत सुधी जैनोने पूजा करवा माटे ते बहार "होवो जोईए. कारण के ई. स. ना बीजा सैकामां राखवामां आवी हती. परंतु पाछळथी ज्यारे मथुराना एक तेनो मूळ इतिहास भूली जवायो हतो अने तेनुं स्थान जुना राजानी ते थाळी पडावी लेवानी इच्छा थई त्यारे एक दंतकथाए लीधुं हतुं. तेथी आपणे तो ए ज निश्चय तेना उपर ईंटोनो आ स्तूप बनाववामां आव्यो उपर आवी शकीए के घणा सैका पहेला ए स्तूप निर्मित आ समय ते. वणा भागे ई. स. पहलांना बीजा सैकाना थयो हशे. प्रो. बुल्हरे शोधली ए बाबतने एक जैन ग्रंथ- हशे, ज्यारे प्रथम ज जैनो मथुरामां वास करवा लाग्या माथी टेको पण मळे छ.' ते दंतकथा प्रमाणे ३० हता. ए. थाळ तेओ कंदाच बिहारमाथी लाव्या स० ना ९ मा सैकामां ते स्तूप हयाती धरावतो हशे, अने जे राजाए थाळ पडावी लेवानी इच्छ १ ए ग्रंथ ते जितप्रभकृत तीर्थकला छ र विषयना विशेष वर्ण
की, ते कदाच ई. स. नी शरुआतमा अमल चलावतो न माटे 'वाएका एकेडमी ऑफ सायन्सोज्'ना, कार्य विवरण मां जुओ.
इंडो-सीथियन कनिष्क राजा हशे.
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जन साहित्य संशोधक
महावीर निर्वाणनो समय-विचार
[* जेमनी ऐतिहासिक विषय तरफ रुची छे अने जेओ ए विषयना लेखोनुं मननपूर्वक अध्ययन-श्रवण करे छे तेओ सारी पेठे जाणे छ के, जैन इतिहास अने जैन काळगणानाना ॐ नमः रूपे जे श्रमण भगवान् श्री महावीर देवनो निर्वाण-समय छे तेना विषयमा पुरातत्त्ववेत्ताओमा आज घणां वर्षोथी परस्पर मतभेद अने वाद-विवाद चाली रह्यो छे. जैन धर्मना प्राचीन साहित्यमां पण खुद ए बाबतमा एकता जणाती नथी. महावीरदेवनो निर्वाण. समय, ए जैन इतिहासमां तो सौथी अय भाग भजवे छे; परन्तु अखिल भारतीय इतिहासमां पण तेनी देरली ज महत्ता छे अने ए कारणने लईने पुरातत्त्वज्ञोना माटे ते एक घणो ज अगत्यनो सवाल थई रह्यो छे.
सामान्य रीते जैन ग्रंथोनी वळण उपरथी एम मानवामां आवे छे के, हिन्दुस्तानमा वर्तमानमा जे विक्रम संवत्ना नामे संवत् प्रवर्ते छ तेना प्रारंभ पहेलो ४७० वर्षे, अने ई० स० ५२७ पूर्वे, श्रमण भगवान् श्रीमहावीर, निर्वाण थयुं हतुं. जैन धर्मना दिगंबर अने श्वेतांबर नामना बने प्राचीन संप्रदायाना घणा ग्रंथो उपरथी ए निर्णय निकळे छे. परंतु प्रसिद्ध जैन साहित्यज्ञ जर्मन विद्वान् डा. हर्मन जेकोबीए, आचार्य श्री हेमचन्द्रना एक उल्लेखथी प्रेराई ए निर्णयमा शंका उपस्थित करी अने तेने मळतां बीजां केटलांक पमाणोनो आश्रय लई, ए जुनी मान्यताने असंबद्ध जणावी. त्यार पछी बीजा घणाक विद्वानोए ए संबंधो, परस्पर खंडन-मंडन चालु कयु अने एक बीजाए पोत पोताना कथनने सत्य सिद्ध करवा अनेक जातनो ऊहापोह को. जार्ल चार पेंटियर नामना एक विद्वाने ' इंडियन एन्टीक्वेरी' नामना सुप्रसिद्ध मासिक पत्रना सन् १९१४ ना जून, जुलाई अने ओगष्ट मासना अंकोमा, ए विषयनो एक वणो ज विस्तृत लेख लख्यो अने तेमां महावीर निर्वाण विक्रम संवत् पूर्वे ४७० बर्षे नहीं परंतु ४१० वर्षे (ई० स० ४६७ पूर्व) थयुं हतु, अने परंपराप्रमाणे जे गणना गणवामां आवे छ तेमां ६. वर्ष वधारे छ ते कमी करवा जोईए, एम सिद्ध करवा विशेष प्रयास को हतो..
पोताना ए विस्तृत लेखमा प्रथम तो ए विद्वाने एम सिद्ध कयु के, मेरुतुंगाचार्य विगेरेना विचारश्रेणी आदि ग्रंथोमा जैन काळगणना संबंधी जे पाचीन गाथाओ आपली छे, तेमां जणावेला राजाओनो कोई पण प्रकारनो परस्पर ऐतिहासिक संबंध के ज नहीं. तेम ज महावीर निर्वाण पछी ४७० वर्षे जे विक्रम राजा थवानो उल्लेख छ तेनो इतिहासमां क्याए अस्तित्व नथी. माटे ए पुराणी गाथाओमा जे प्रकारे काळगणना करवामां आवी छे अने जे राजाओना राज्यकाळ आप्या छे ते निर्मूळ छे. लेखना बीजा भागमा ए विद्वाने एम बताव्युं के सामण्णफलसुत्त विगेरे केटलाक बौद्ध ग्रंथो उपरथी जणाय छे के, महावीरदेव अने बुद्धदेव बंने समकालीन हता; अने बौद्ध ग्रंथ प्रमाणे बुद्धदेवनो निर्वाण ई. स. पूर्वे ४७७ वर्षे थयुं हतुं. जनरल कनिंग्हाम अने मोक्षभुल्लरे पण ए तारीख मान्य राखी छे. बुद्धदेवनी मृत्युसमये ८० वर्षनी अवस्था हती. तो हवे जोवान के, गाथाओमा जणाच्या प्रमाणे जो महावीर देवनो अंतकाळ ई. स. पूर्वे ५२७ वर्षे थयो होय तो ते वखते बुद्धदेवनी उमर फक्त ३० वर्षनी हशे. परंतु ए सौ कोई माने छे के छत्रीस वर्षनी उम्मर पहेला तो गौतम बुद्धने बोधिज्ञान पण थयुं न होतुं, तो पछी तेमना
----- - *आ लेख चारेक वर्ष उपर लखायो इतो. अने एक पत्रमा ते वखत प्रकट करायो इतो. हवे आपण विषयना यथा लेखो, आ पत्रमा क्रमथी प्रकट करवानो विचार राख्यो छे तेथी आ लेख अह प्रकट करवो आवश्यक भान्यो छे.-दिक.
लेखो अनुवाद हा पळीना अंकामां आवामां आवशे.-संपादक.
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अंक .
महावीर निर्वाणनो समय-विचार.
अनुयायियो तो थाय ज क्यां थी. तेथी हवे सिद्ध छे के महावीर देवतुं निर्वाण जो उक्त कथन प्रमाणे थयुं होय, तो पछी मनी, बुद्धदेवनी साथे समकालीमता शी रीते मळी शके छ ?क्ळी एम पण कहवामा आवे छे के महावीर अने बुद्धदेव बने अजातशत्रु (श्रेणिकना पुत्र ) ना राज्यकाळमां मौजुद हता. ऐतिहासिक उल्लेखो प्रमाणे अजातश बुद्धदेवना मृत्यु पूर्वे ८ वर्षे राजगादीए बेठो हतो अने तेणे एकंदर ३२ वर्ष सुवी राज्य कर्यु. आ रीते माथा ओ प्रमाणे जो महावीर निर्वाण मानवामां आवे तो आ हकीकत पण बंध बेसती आवे तेम न थी. तेथी या तो महा वीरनिर्वाणनो समय उक्त समयथी आ तरफ आणवो जोईए अने या तो बुद्धदेवनो निर्वाणसमय पाछळ हठाववो नाईए. परंतु बुद्धदेवनो निर्वाणसमय तो चोक्कस गणतरीए गणेलो छ अने महावीरनो समय मात्र अनुमानथी कल्पी लीधेलो छे, माटे तेने ६० वर्ष आ तरफ खसेडवानी जरुरत छे. आनी पुष्टिमां हेमचन्द्राचार्यना परिशिष्ट पर्व नुं कथन पण उपलब्ध छे आ विषयमां, आवी रीते, ए लेखमां ते विद्वाने घणा ज लंबाणथी चर्चा करी छे.
उपर ज जणाव्यु छ के, जैन इतिहासना मारे आ एक वणो ज अगत्यनो सवाल छे अने एना निराकरण उपर ज जैनधर्मना साहित्य अने इतिहासनी वास्तविक अने क्रमिक रचना रची शकाय छे अने तेटला माटे, जैन विद्वानोए, ए बाबत खास प्रयत्न करवानी जरूरत हती; परंतु जोईए छीए के संख्याबंध जैन आचार्यमांथी कोई. ए पण, जेमनी गादीना पोते वारस थवा जाय छे तेमनी, खरी तारीख खोळी काढवा माटे जराए प्रयत्न कर्यो नथी. प्रयत्न करवानी वात तो दर रही, परन्तु दुनियाना बीजा विद्वानो ए विषयमां शी घड-थळ करी रह्या छे तेनी खबर सुधा मेळववानी दरकार करता नथी !
अस्तु. श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवाल एम्. ए. ( आक्षफोर्ड युनिवर्सिटी ) बारिस्टर-एट-ला करीने पटनामा एक विद्वान् गृहस्थ छे. हिंदुस्तानना नामी ऐतिहासिकोमांना तेओ एक छे. तेमणे भारतना प्राचीन इतिहाससम्बंधी वणो ऊहापोह को छ अने केटलाक पाश्चात्योना भ्रांत विचारोनो घणी ज उत्तमतापूर्वक संस्कार कर्यो छे, अने अनेक ऐतिहासिक गुचवाडाओ उकेल्या छे. प्रसंगोपातथी महावीरना निर्वाण समयनो पण तेमणे केटलेक ठेकाणे उल्लेख करेलो छे, अने उपर जणाव्या प्रमाणे ए गुंचवायला कोकडाने पण खोलवानो प्रशसनीय प्रयास करेलो छे. बिहार अने ओरीसा रीसर्च सोसायटीना सने १९१५ ना सप्टेंबर मासना जर्नलमां शैशुनाक अने मौर्य काल गणना ( Saisunaka and Mauyra Chronology ) विषये तेमणे एक घणो ज महत्त्वनो निबंध लख्यो छे. तेमां अंते बुद्ध देव अने महावीर देवना निर्वाण-समय, पण वणी ज विद्वत्तापूर्वक विवेचन कर्यु छे, अने जैनोनी प्राचीन गाथाओनी गणतरीने ज सप्रमाण सिद्ध करी, जे विद्वानो उपर जणाव्या प्रमाणे ६० वर्षनी न्यूनता आणता हता तेमनी दल लो तोडा पाडवानुं प्रयत्न कयु छे; तथा जैन, बौद्ध अने हिंदुओना ग्रंथोना प्रामाणिक आधारोने लईने तेमणे पोतानां कथनने पुष्ट बनाव्यु छे.
हालमां ए विद्वाने एक अत्यंत महत्त्वना ऐतिहासिक लेखनुं संशोधन करी उक्त जर्नलनां छेल्ला अंकमां प्रकट कर्यो छे. ए लेख ते सुप्रसिद्ध सम्राट् खारवेलनो उदयगिरिनी हाथीगुहावाळो लेख छ, जे में. डॉ. भगवानलालजीनी संशोधित करेली आवृत्ति प्रमाणे गये वर्षे गुजरातीमां बहार पाडयो छ. डॉ. भगवानलालना संशोधनमां थोडा वर्ष उपर डॉ. फलीट विगेरे पुरातत्त्वज्ञोए शंका करी हती, अने कोई अधिकारी विद्वानना हाथे ए लेखनुं पुनः अव. लोकन थवानी जरूर जणावी हती. ते कार्य श्रीयत जायसवाल महाशये पूर्ण कयु छे अने ए लेखनी घणी ज सूक्ष्म बुद्धिथी छानवीन करी तेनी उत्तम आवृत्ति प्रसिद्धिमा मूकी घणा नवा तत्त्वोनुं उद्घाटन कर्यु छे. ए लेखना एक बेभागा संबंधमां मारी साथे पण तमणे केटलोक रसभर्यो पत्रव्यवहार चलाव्यो हतो. तेमना ए लेख-संशोधनथी जैनधर्मना तत्कालीन इतिहास उपर डॉ. भगवानलाल करतां पण वधारे प्रकाश पडयो छे अने समुच्चय भारतीय
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जैन साहित्य संशोधक
इतिहासनी महत्तामा पण एक विशेष उमेरो थयो छे. ए निबंधमां पण तेमणे महावीर - निर्वाण संबंधी सूचन कर्तुं छे अने पोताना उपर्युक्त काळनिर्णयवाळा लेखमां करेला कथनने वधारे पुष्ट बनायुं छे. तेमनी आ वधी दलीलो पुरातत्वज्ञो मान्य करता जाय छे अने अलि हिस्टरी ऑफ इन्डिआना लेखक प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि. वीन्सेंट स्मीथे हवे तमना कथनने सादर स्वीकार्य छे, एम श्रीयंत जायसवाल मने पोताना तारीख ९/७/१८ ना पत्रमा, खास रीते नीचे प्रमाणे जणावे छ.
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आप को यह सुन कर प्रसन्नता होगी कि V. Smith ने यह अब मान लिया कि बुद्धदेव तथा महाबी रस्वामी का निर्वाण-काल जैसा हम कहते हैं वही ठीक है । अर्थात् जैसा कि उन के अनुयायी मानते हैं । यहाँ खारवेल के लेख से सिद्ध हो गया । भि. विंसेंट स्मीथने पत्रद्वारा यह मुझे लिखा है ।"
आवी रीत भारतीय इतिहासना एक घणा ज महत्त्वना प्रश्ननो घणा युगोनी घडमथल पछी एक भारतीय विद्वानना हाथे ज निर्णय थतो जोई दरेक भारतीयने प्रसन्न थवा जेतुं छे, अने खास करीने जैन समाजे तो पोतानी कृतज्ञता प्रकट करवा माटे श्रीयुत जायसवालने हार्दिक अभिनंदन आप जोईए.
कालगणना विषयमा हमेशां कृपणता बतावनारा पाश्चात्य पुरातत्वज्ञोए महावीर - निर्वाणने ६० वर्ष आ तरफ चीने पुराणा जैन ग्रंथोमां आपेली प्राचीन गाथा आने असत्य वा हती, परंतु श्रीयुत जायसवाल ए ग्रंथकारोना पक्षमां वगर फीए बेरीस्टरी करवा तैयार थया अने अनाथ अने मूक एवा ए जीर्ण ग्रंथांना कथनने पोताना प्रतिभाबळे सत्य ठरावी विचारक जगत् आगळ तेमनो प्रतिष्ठाने पूर्ववत् स्थिर करी आप। छे.
श्रीयुत जायसवालना मत प्रमाणे महावीर स्वामीनुं निर्वाण वि. सं. पूर्वे ४७० वर्षे नहीं परंतु ४८८ वर्षे थयुं हतुं. कारण के पट्टावलिओ विगेरेमां जे ४७० वर्ष लख्या छे ते विक्रमना राज्यारोहण सुधीनां नथी; परंतु जन्म सुधीनां छे. विक्रम पोतना जन्मथी १८ मे वर्षे गादिए बेठो हतो, अने त्यारथी तेनो संवत् चाल्यो छे, तेथी विक्रम सं. नी शरूआत पहेला ४८८ वर्ष उपर महावीर - निर्वाण थयुं हतुं ए सिद्ध थाय छ. आ गणत्री प्रमाणे आजे जे आपणे महावीर - निर्वाण संवत् २४४८ मानीए छीए तेना बदले २४६६ ( २४४८+१८ ) मानकुं जोईए. केटलीक जूनी पट्टावलिओमांथी पण आ कथनने पुरावा मळे छे.
श्रीयुत जायसवाले आ संबंधमां छूटा छवाया वणा उल्लेखो कर्या छे, परंतु सचळा पुरावाओनो संक्षेपमां एकत्र संग्रह अने तेना उपरथी निकळतो सार; तेमणे उपर जणाव्या प्रमाणे बीहार अन ओरीसा रीसर्च सोसायटीना जर्नलना प्रथम भागना प्रथम अंकमा ( The Journal of the Bihar and Orissa Researe Society. Vol, 1. Part 1.) शैशुनाक अने मौर्यकालगणना तथा बुद्धनिर्वाणनी तारीख (Saisunaka and Maurya Chronology and the Date of the Buddha's Nirvana ) नामना लेखनी अंते, खास महावीरनिर्वाण अने जैन कालगणना संबंधी एक स्वतंत्र प्रकरण उमेरीने तेमां आप्यो छे. जैन ग्रंथोमां वारंवार मळी आवता श्रेणिकादि शिशुनाकवंशीय अने चन्द्रगुतादि मौर्यवंशीय राजाओना वास्तविक राज्यकाल जाणवानी जिज्ञासावाला दरेक जैन विद्वाने ए समग्र निवधं खास मननपूर्वक वांचवा जोईए. : जिज्ञासु वांचकोनी खातर तेमज विद्वान् मनाता जैन मुनिवरोना ज्ञाननी खातर ए लेखमानो अंतिम भाग जे महावीर - निर्वाण संबंधी लखाएलो छे तेनो 'अनुवाद अत्र आपवामां आवे छे. जैन विद्वानो तरफथी आ विषयमा वधारे ऊहापोह थवानी आशा तो राखी शकाय तेम छे ज नहीं परंतु जो तेओ एकवार मननपूर्वक आ वधुं समग्र वांची जवा जेटली पण प्रवृत्ति करशे तो आ प्रयत्न माटे लेवायलो श्रम आशा आपनार निवडशे.
तथास्तु.]
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अंक
महावरि निर्वाणने समय-विचार निवाण तिथिो . .
हवे चंद्रगुप्तना राज्यारोहण पहेलानुं २१८ मुं वर्ष ते -चंद्रगुप्त राजाना राज्यारोहण विधे जैनो तरफथी नीचे ( ३२६+२१८) ई. स. पूर्वेनुं ५४४ मुं वर्ष थाय, 'प्रमाणेनी हकीकत मळे छे.--जे वर्षमां नवमो नंद एटले के बुद्ध निर्वाणनुं वर्ष पण उपर जणाव्या प्रमाणे, (शकटालनो स्वामी ) मृत्यु पाम्यो अने चंद्रगुप्त गादी- ई. स. पूर्वेनू ५४४ मुंज थयु. अने सीलोन, बर्मा अने ए बठो ते ज वर्षमा स्थूलभद्राचार्ये काल को हतो.' आ सीआमनी दंतकथाओ प्रमाणे पण बुद्धनिर्वाण- ए ज बनाव महावीरना निर्वाण पछी २१९ वर्षे बन्यो हतो. वर्ष आवे छे, जे जाणी आपणने सानुक्ळ आश्चर्य थशे. हवे जो एम मानिए के महावीर चंद्रगुप्तना तख्तनशीन जैन कालगणना( Jaina Chronology ) थया पहेला २१९ वर्षे निर्वाण पाम्या, तो पछी महावी
डॉ. होर्नल सरस्वती गच्छनी पट्टावलानी १८ मी ग्ना निर्वाण पछी ५३ के ६० वर्ष पछी बुद्ध निर्वाण
गाथाना आधारे विक्रम संवत्नी शरुआत माटे ४७० पाम्या, एम मानवं योग्य गणाब नहिं कारण के तेओ
पछी बीजां १६ वर्ष वधारे ले छे. गायानो अर्थ अथवा बंने समकालीन हता अने तेथी तेमनु मृत्यु.पण थोडा ज
तो भावार्थ एवो छे के-विक्रम सोळ वर्धनी उमर सुधी अंतरे थयुं होय एम मान, सकारण छे.
निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र ( महावीर ) ज्यारे पावामां निर्वाण खमा अने चंद्रगुप्तनी राज्यारोहणनी तारीखमां परस्पर काई वि. पाम्या त्यारे बुद्ध जीवता हता एवा भावार्थ वाळो उल्लेख रोध नथी. नन्दना सैन्य सामेथी अॅलेकझेंड रनो पाछा फरवानो जे अंगुत्तर निकायमाथी मळी आवे छे ते पूर्ण मानवा
अने पंजाबमां मेसेडोनियन लष्करनी हयातीनो पण चंद्रगुप्ते लाभ
लीधो. पंजाबना लोकोए चंद्रगुप्तने मगधनु राज्य मेळववामां योग्य छे. अने जे पुरावाओना विषयमा अत्रे ऊहापोह मदत करी हती. अने ते एवा इरादाथी करी हशे के मगधनुं महान् कर्यो छे, तेमांथी पण एज निकळा आवे छे, के महावीर सेन्य पर्छ तेमना स्वतंत्र थवाना आशाने पुरी करे; एटके चं चंद्रगुप्तना राज्यारोहण पूर्वे २१९ वर्षे निर्वाण पाम्या
द्रगुप्त पोतानो विजय थया पछी ते सेन्यनो उपयोग तेमना माटे
गुप्त पाता
करे. अॅलेकझेन्डर कामिनियामां हते। एटलामां ज पंजाबना सुअने बुद्ध २१८ वर्षे. आ प्रमाणे चंद्रगुप्त ३२० A M.
बा फिलिप्पोसवें हिंदिओना हाथे खून थयु, अने आ काम चंद्रJ. (महावीर जिन पछी) ( चालु ) अने २१९ A.B. गुप्तनी उस्फेरणीथी थयु होय तेम लाग छे. सरखावो,मुद्राराक्षसनी ( = बुद्धदेव पछी ) ( चालु ) गादिये बेठो; अने बुद्ध,
अंदर पर्वतकना मृत्युनी हकीकत. पर्वतक सरवओ-पिरवओ=
फिलिपोस । (मुद्राराक्षस विषयक म्हारो निबंध, I. A. महावीरना पछी एक वर्षे निर्वाण पाम्या. जैनोनी का- '
आक्टोबर, १९१३.) लगणन प्रमाणे चंद्रगुप्त ई. स. पूर्व ३२६ या ३२५ ना
J. R A. S. ( जर्नल ऑफ धी रॉयल मेशियाटक नव्हेंबर मासमां गादिए बेठो."
से सायटि) 1503, 2. . . .
- बुद्धदेवना निर्वाणनी तारीख उपर तक्षशीलानो इतिहास एक जैन ग्रंथा प्रमाण आ कथन बिल्कुल बंधबेसतुं नथी. रीते अमुक प्रकारनों प्रकाश पाडे छे. ज्यारे बुद्ध उपदेश आपता
सपादक ज. सा. स. हता त्यारे तक्षशिला ए एक स्वतंत्र संस्थाननी राजधान हती, १ तपगच्छ नी पटावली I. A. ११-२५१ ( इन्डियन एन्टी
( BI, P.20. ) अने हिन्दी विद्यार्नु एक महान् केन्द्र हवं. क्वेरी, पुस्तक ११. पृष्ठ २५
अशोकना अभिषेकनुं वर्ष बु. नि० पछी- २१८ मुं गणी तेना २. खरतगच्छनी पटावली. I. A.-११.२४६.
उपरथी गणना करतां बुद्धनो उपदेश समय (४४ वर्ष ) ई. स३ बोलडेनबुर्ग, Z D M G ३४,७४९,
पूर्व ५२८ थी ४.३ सुधीमां मावी जाय छे. परन्तु तक्षशिला लग१ बर पर चोकस बोलिए तो बुद्ध महावीर पछी एक वर्ष अने भग ई. स. पूर्व ५०५ वर्ष ना अरसामा हिन्दु राजधानी तरीके रही भाठ विषसे निर्वाण पाम्या कारण के महावीर कार्तिक वदी १५ न हती. कारण के तेज वर्षे अथवा तो तेनी आसपासमां ज ते हे. ने दिवसे निर्वाण पाम्या (कल्पसूत्र, प्रकरण १२३) अने बुद्ध रीअसावाथमां चाली गई इती. बुद्धना छेल्ला वीस वर्षना अरकार्तिक शुदी ने दियसे (फलीट, J RAS. 1909,42) सामां तक्षशिला जो पशिअनोना ताये रही होत तो भाग्ये ज कोई
५ बेलेकझेन्टर ज्यारे पंजाचमांथी पाछो फयों (ई.स. पूर्व ३- तेने एक स्वतंत्र राजधानी तरीके अधा हो एक महत्त्ववें स्थान २६ मॉक्टोबर ) त्यारे नन्दराजा राज्य करतो हतो. आ तारी. तरीके गणी.शकत..
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गादिए बेठो हतो नहीं. एटले के १७ मा वर्षे प्रद्योतोना समयथी लई शकराज्य' अने विक्रम संतेनो अभिषेक थयो, एने एनो तात्पर्थार्थ एवो नोकळे वत् सुधीनी जैन कालगणना नीच प्रमाणे छे. १0% छे के ते सत्तरमा वर्षना अंतमां अथवा तो ४८७ ( अ ) पालक ( जेनु प्रद्यात पछी गादिये आववानु' A. M J. ना अंते गादिए बेठो. आनुं परिणाम ए वर्णन पुराणोमाथी पण मळी आवे छे. ) जे रात्रिए मआव्यु के जैनोए विक्रम संवत्ना प्रथम वर्ष (ई० स० हावीर निर्वाण पाम्या ते रात्रिए ( अर्थात् दिवसे) अपूर्वे ५८-५७) ना अंते अने ४७० A, M.J. वंतीनी गादिये बेठो. . पुरा थयानी वच्चे १८ वर्षतुं अंतर मुक्यु.
(व) तेनां ६० वर्षों पछी नन्दोना राज्यने एक . ___ " ब्राह्मण साम्र ज्य" नामना म्हारा लेखमां, म्हें अगत्यनो समय गणवामां आव्यो छे. अने तेओना रासाबीत कयु छ के जैनो विक्रम नामथी सातकर्णि बीजाने ज्यना एकंदर १५५ वर्ष गणेला छे. पुराणोना हिसाब, ओळखे छे ( जे नहपानने ताबे करनार हतो अने जेना नंदवर्धनथी ते छेल्ला नन्द सुधी १२३ वर्ष थाय छे अने विषे नीचे जुओ-) के जे लगभग ई. स. पूर्व ५७ वर्षे तेटला काल सुवी ए लोकोर्नु राज्य चाल्यु. ३२ वर्षनो मृत्यु पाम्यो; अथवा तो तेनो पुत्र पुलुमायि के जे जे वधारो छे ते आपणने उदायोना राज्यना प्रथम अथवा तेना पछी ते ज वर्षे गादिये बेठो. अने म्हारा पोताना बीजा वर्ष आगळ लावी मुके छे. एट के पालकवंशनो मत प्रमाणे तो हवे पुलुमाथि ए ज जैनोनो खरो लक्ष्य खेंचवा लायक बोजो एक अगत्यनो समय, उदाविक्रम छे. ( कारण के-लोकमां तनुं बीजं अने घणुं क- यीना राज्यारोहणथी शरु थाय छे. पण पुराण) प्रमाणे रीने वधारे प्रचलित नाम — विलवय ' हतुं (कुरु-राजा) अजातशत्रुना छठा वर्षनी (पालकना राज्यारोहण ) अने [ सरखावो, शिकानु नाम विविलक ( A- ) पिलव, उदायीना अभिषेकनी वच्चे आपणे ६४ वर्ष मूकी ए ( I- ) पुराणोनो विलक, W. and H, 196; V. छीए, ज्यारे जैन कालगणना प्रमाणे पालक ( एटले पाP. 45a n. ] आज विलव ( विडव ) अथवा पिलव लकवंश ) ना ६० ज वर्ष छे.'° आ रीते चंद्रगुप्तना सने, क्र नो ल (ड) थई गएलो समजी जैनोए तेनो मयमा पुनः ४ वर्षनो फरक आवे छे, अने तेथी ते मविक्रम करी न्हाख्यो छे. मालवाना कार्तिकादि (कतेष) हावीर पछी २१५ अथवा २१९ वर्षे गादिये बेठो एम संवतना पहेला वर्षनो अने विलवना राज्यारोहणनो समय जुदा जुदी तारीखो आपवामां आवे छे. आपणे आगळ एक होवाथी, अथवा घणुं करीने तेओनो परस्पर समान- जोइशु तेम, आ तफावत शुंग समयनी शरूआत सुधी काल होबाथी, ते बन्ने हक ज होय, एम मानी लेवामां बराबर करवामां आव्यो न हतो अने तेथी ते पाछळथी आव्युं छे.
करवामां आव्यो हशे. . ७. I. A. 2, Page 347, सरस्वती गच्छमी पटा- (क) मौर्याना राज्यकालना वर्षसमूहना वे विभागो वली, डॉ० होनलनी ३६० मा पृष्ठ उपरनी टीका. महावीरना नि- करवामां आव्या छ १०८ अने ३०. (एकंदर १३८ वाणथी ते शक सुधी ४७० वर्ष । सरखायो, I.A. 2. 363.) वर्ष अने पुराण' प्रमाणे १३७ ) तेमां १०८ वर्ष मौर्यभने पछी विक्रम संवत्नी शरूआत सुधी १८ वर्ष “वीरात् ४९२ वंशना के अने ३० वर्ष पुष्यमित्रना छे. बीजा शब्दोमां विक्रम जन्मान्त वर्ष २२-राज्यान वर्ष ४” एटले के ४९२ A M. J=४ विक्रम संवत्. (पुरा थयां )
बोलीए तो पुष्यमित्रनुं पहेलु वर्ष ते ज तेना छल्ला वर्ष ८ सरखावो, चांडना (हिन्दी ) चंक्रमण (संस्कृत) ___सड (हिं०) सकृत् (सं.)
९ 1. A, II, 361; XX, 341. भेंड (हिं०) भक(2)
१० अजातशत्रु २९ भडाव (हिं०) भक्रम (सं)
दरशक ३५ क्लिम ( हिं. भीमे चालबु) विक्रम्.
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अंक ४]
महावीर निर्वाणनो समय-विचार तरीके जणाय छे. अने बलमित्र-मानुमित्र (बलमित्र
हेमचंद्राचार्यनी भूल. वंशनो मानुमित्र ? ) ना ६० गणी समय बराबर कर्यो हेमचंद्राचार्ये प्रद्योतोना जे ६० वर्ष मुकी दीधा छ, छे. आ गणना आपणने महावीर पछी ४१३ वर्ष सुधी ते तेमनी एक म्होटी भल छे अने ते स्पष्ट ज छे. कारण लई आवे छे. ४० वर्षनो बीजो आंकडो नहपाणना है जो आपणे सत्य
के जो आपणे शुरुआतना ते । ६० वर्ष मुकी दईए तो, राज्यकाल माटे आप्यो छे.” छेल्ला अंकोमा १३ वर्ष चंद्रगुप्त स्थलभद्र, सुभद्र अने भद्रबाहुनी समकालीन“गर्दभिल्लना राज्यना छे अने ४ शकराज्यना छे. आवी
तामां विरोध आवे छे. प्रो० जेकोबीए मध्यकालीन रीते एकंदर संख्या ४७० थाय छे. अहिंआ गाथाओनी हेमचंद्रना आ भांग्यातुट्या अहेवालने पोतानी गणनामां गणना बंध थाय छे. ते प्रथम शकोना पराजयी समाप्ति पाया तरीके लीधो के. अने आम करवामा, पालीपामे छे.१२ विक्रमसंवत् अने आ गणनानो (४७० लेखोमां आपेला अशोकना अभिषेकना भूलभरेला महावीर पछी) परस्पर संबंध मेळववा, जैनो उपर जणा- समयनी अने तेना उपर बांधेली निर्वाणकाल-गणनाना व्या प्रमाणे वच्चे १८ वर्षनो आंतरो मुके छे.
तेमना उपर वधारे असर थई छे. गाथा, महावीरना निर्वाणन वर्ष ( १७+५८+ पाल
पाली लेखोमां आपेला समय उपर बांधली गणतरीए, ४७०= ) ई० स० पूर्वे ५४५ मुं आपे छे, के जेने र ज लेखोमां लखायली अशोकना अभिषेकनी तारीख जैनो, महावीर पछी ४७० वर्षे, विक्रम जन्म अने तेना
अने पूर्वपरंपराथी चालती आवेलो तवारीख वञ्चे लगभग १८ मां वर्षे विक्रमराज्य प्रारंभः एम जणावे के ६० वर्षनो तफावत मुक्यो छे. हेमचंद्राचार्यमी भूलथी महावीर कार्तिक वदी १५ ना दिवसे निर्वाण पाम्या ।
जैन तवारीखमां पण ६० वर्ष छोटी देवामां आवेला अने विक्रमना कालिकादी संवत्नी शुरुआत थई ते वच्चे होवाथी, आ गणना-एकताए, कालगणना विषे ४७. अने १८ वर्ष पूरेपूर पसार थई गया हता. संकुचित दृष्टि राखना। आधुनिक अभिप्रायने मजबुत हवे आ प्रमाणे चंद्रगुप्तना राज्यारोहण- प्रथम वर्ष, बनाव्या छ. पर
बनाव्यो छे. परंतु प्रद्योतनो पुत्र पालक, के जे अजातके जे महावीर पछी २१९ वर्षे आवे छे, ते ई० स० शत्रुनो समकालीन हतो, ते महावीर निर्वाण पछीना दिवसे पूर्वे ३२६ ना नवेंबरना कोईक दिवसनी अने ई० स० अथवा वर्षे गादिये बेठो, ए मानवं स्वाभाविक अने सपूर्वे ३२५ ना आक्टोम्बर-नवेम्बरना अंतनी वच्चे आवे. प्रमाण छे. हेमचंद्राचार्यना कथन प्रमाणे, महावीर-निर्वाण जैनोना अहेवाल प्रमाणेनी आ तारीख, अशोकना पछी तुरत ज नंदवंशनुं राज्य शरू थयु ए मानव॒ तद्दन
प्रमाणेनी तवारीख भने ती मीना भूलभरेलुं अने अप्रमाणिक छे. आनी समकालीनता साथे बराबर मळती आवे छे.१५
उपसंहार.
उपर जे ऊहापोह करवामां आन्यो छे तेनो सारार्थ ११ 'ब्राह्मण साम्राज्य ' नामना में म्हारा लेखमां नहपाणनी ए निकळे छ के-पुराणोनी गणना प्रमाणे बुद्धना निर्वाणन तारीखमी पर्चा करी छे. [ अने ते समय १३३-९३ B. C.छे] संवत्सर ई. स. पूर्वे ५४४ मुं वर्ष आवे छे. आ तारीखने
१२ आ शकोनो पराजय सातकणि बीजाए को हतो...... जैन कालगणना पण पुष्टि आपे छे, अने बौद्धग्रंथ दीपज्योतिषियोनो विकमादित्य ते बीजो शातकर्णि छे अने जैमोनो विक्रम से पुलुमायी छे.
वंशनी अंदरथी पण एवी हकीकत मळी आवे छे के जे १३ जैन तवारीखने उज्जैननी तवारीख कही शकाय. ते पालक मा निर्णयनै मजबुत करे छे. अने आ बधा उपरथी ए मा राज्यथा शरू थई नहपाण सुधी आवे छे अने पछी मालव सिट थाय छे के बौधर्मिओनो, तेमना धर्मसंस्थापकना संवतथी प्राईभ थाय छे.. १४ पुणो, अशोकमा मभिक उपर म्हारो लेख. J.A.S.B.
निर्वाण-समय माटे वर्तमानमा जे अभिप्राय छे, ते यथार्थ बागस्ट-सप्टेंबर १९१३.
सके. बीजो सारार्थ एमिकळे छे, के महावीरना निर्वाण.
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जैन साहित्य संशोधक
समय विधे जैनग्रंथोमा आपेला अहवालने पुराणोमाथी आ त्रणे संप्रदायोना कथनोमां जो के केटलोक परटेको मळे छे."
स्पर विरोधाभास देखाय छे परन्तु भावार्थ एक ज छे. ___ वास्तविक रीते सीलोनना पाली-लेखोने पुराणनी गण- आ त्रणे आस्तिक-नास्तिक पंथो खरेखरा इतिहासने ना स थे विरोध नथी. ते तेने पूर्ण करे छे अने पुष्टि आपे छे अनुसर्या छे, अने तेनुं रक्षण कर्यु छे. बे हजार वर्ष तथा पोते तेनाथी पूर्ण थाय छे अन पुष्टि मेळवे छे. नंदोना जेटला लांबा समयमां जे कांई मूलो पेसी गई के ते विषयनो घोटाळो, के जेना परिणामे, सैकाओ सुधी बीजा आवी रीते थोडी मेहनते अने थोडं ध्यान आपे दर करी. घोटाळाओ उद्भव्या हता ते दूर थवाथी जैन कालगणना- शकाय एवी छे. नी खरी किंमत जणाई आवे छे."
१५ डॉ, होर्नलेए जैनकालगणनामांनो घणे घोटाळो दूर कों छे. [जओ, इडिं अन एंटीक वेग, पु. २०, पृष्ठ १३० ]
[आ लेखना सूक्ष्म अवलोकनथी समजाशे के श्रीयुत १६ संप्रति अने सुहस्ती विषे जे तारीख आपेली छे ते भूल जायसवाले जैन दंतकथा अने तेनी पुराणी गाथाओनी मरेली छ. बधी प्रतोना संप्रतिनी तारीख विष एक मत नथा, बौद्ध अने हिंदपुराण ग्रंथोनी साथे केवी उत्तम रीते सं[इ. ए. पु. ११ पृ. २४६ ] तेओ २०२ A.M.J. अने २३५ .
बद्ध ठरावी छे, अने आज लगभग बे हजार वर्ष A.JIJी वच्चे हता. [ तेज ठेकाणे जुओ.] ज्यारे चंद्रगुप्तनी
जेटला दीर्घकाळ सूधी, भारतना इतिहास युगना आदितार ख त २१९ थी २४३ A.M.J. नां वर्षे गणी लीधा छे. पुराणोना आधारे करली गणना प्रमाणे २३५ A.M.J. ना ब- भूत उल्लेखोमां, जे परस्पर विरोध अने असंगतता पुरादलेतेनी खरी तारीख [इ. स. पूर्व २२०, ५४५+२२० = ] ३२५ तत्वज्ञोने जणाती हती तेनो केवी उत्तम पद्धतिए निकाल A.M.J छे. [ जुओ, एडीकस, C] श्वेताबर जैनो, सुहस्ती भ
आप्यो छे. अलबत्त श्रीयुत जायसवालना विचारोनो
र के, जे संप्रतिना समकालीन इता, तेमनी विद्यम नताना वर्ष
सर्वाशे स्वीकार हजी सुधी विद्वानो तरफपी थयो न राके २६५ A.MJ. वर्धने गगे छे. पण श्वेत'बर जैनो पालकना शरूआतना ५० अथवा वधारे-खरी रीते ५४-वर्षे [ जओ, विभाग हाय,के तेमा कांई कोई अशे मतभेद होय तो ते स्वाभाविक
छे; परंतु तेमणे भारतना प्राचीन इतिहासना निरीक्षण, =३२९ A.M.J. छे. आमना स्वर्गवासनी तारीख छ. आ प्र
एक जुर्दू ज दृष्टिबिन्दु विचारक जगत् आगळ उपस्थित करी, माणे मुहस्ती, संप्रतिना गादीनशीन थथा पछी चार वर्षे देवलोक. पाभ्या.
इतिहासना गुंचाएला कोकडानु नवी ज पद्धतिए पृथक्करण चंद्रगात अने सहस्तीना निर्वाणनी वच्चे श्वेतांबर जैनो १०९ करवानुं एक अत्युत्तम साधन देखाडी आप्यु छे, तेमा अथवा ११० वर्ष मुक छे. [डॉ. जेकोबीनी परिशिष्टपर्वनी प्रस्ताबना पृ. ५] आ हकीगत पुराणोक्त कथन साथे मळता आवे छे.
कोईने संशय नथी. अने जैन काळगणना तथा महावी[जओ एपेंडीक्स सी प्रकरण २५-२५] २४ वर्ष चंद्रगुप्त, २५ वर्ष र-निर्वाण समयना विषयना तेमना विचारो म्हने तो बिंदुवार, ४० वर्ष अशोक,८ वर्ष कुनाल, ८ दशरथ, ४ संप्रतीना
" घणे अशे ग्राह्य जणाय छे. तो पण जो कोई विद्वानना राज्यना = एकंदर १०९ सरखाव। एपेंडीक्स बी. ३.
हेमचंद्र अने बीजाओना लेखा प्रमाणे जैन राजपरंपरा नीचे मनमां आ संबंधी मतभिन्नता जणाती होय, तो तेणे प्रमाणे छे.
अवश्य आवी रीते जाहेर ऊहापोह करीने, आपणा श्रमण A. श्रेणिक [बिंबीसार]. B. कुणिक [ अजातशत्रु ] [अवंतीमां पालक ]. भगवान श्रीमहावीरदेवना निर्वाण समयनो सदाने C. उदायी.
माटे निर्णय करी नाखवो जोईए. ज्यांसुधी आ D. नंद [ नंद. वर्धन ] अने, बीजा नंदो. .
रीते, कोई प्रमाणिकपणे श्रीयुत जायसवालना निर्णE. चंद्रगुप्त. F. बिंदुसार, म.[ कुनाल ].
यमा शंका उपस्थित न करी शके अने आ विचाG. अशोकश्री. I संप्रति.
रमां सप्रमाण मतभेद न जणाबी शके त्यां सुधी हवे
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महावार निर्वाणनो समय-विचार
मापने ए ज निर्णयने कबूल करवो जोईए अने वहे में जिसमें महावीरस्वामी और विक्रमसंवत् के बीच का अछी वीर-निर्वाण संवत् ए ज गणतरीए लखवानो व्यव- अन्तर दिया हुआ है नहपाण का नाम हमने पाया । हार अने प्रचार करवो जोईए. आवता नवा वर्षना छ- वह ' नहवाण' के रूप में है । जैनों की पुरानी गणना पाता जैन पंचांगोमां वीर संवत् २४४५ ना बदले में जो असंबद्धता योरपीय विद्वानों द्वारा समझी
४६३ लखवां जोईए. आशा छ के जैन पंचांग प्रका- जाती थी वह हमने देखा कि वस्तुतः नहीं है । शको अने जैन पत्र संपादको आ बाबत उपर लक्ष्य आपशे. महावीर के निर्वाण और गर्दभिल्ल तक ४७० परिशिष्ट
वर्षका अन्तर पुरानी गाथा में कहा हुआ है जिसे [उपर जे लखवामां आव्यु छे, ते शरुआतमां जणाव्या
दिगंबर और श्वेतांबर दोनों दलवाले मानते हैं । यह प्रमाणे श्रीयुत जायसवालना एक इंग्रेजी विस्तत नि. याद रखने की बात है कि बुद्ध और महावीर दोनों बंधना थोडाक भागना भाषांतररूपे छे. ए निबंधमा तेमणे
एक ही समय में हुए । बौद्धों के सूत्रों में तथागत जैन काळगणना संबंधी विस्तत विवेचन बोलने में का निर्ग्रन्थ नातपुत्र के पास जाना लिखा है। और ते आ लेख ध्यानपूर्वक वांची जबाथी तेनो कांईक यह भी लिखा है कि जब वे शाक्यभामे की और ख्याल आवी जशे. आ इंग्रेजी निबंध लख्या पहेला
जा रहे थे तब देखा कि पावा में नातपुत्र का शरी४-५ वर्ष अगाउ ज्यारे श्रीयुत जायसवाल पाटलीपुत्र
रान्त हो गया है। जैनों के 'सरस्वती गच्छ' की नामना हिन्दी पत्रना संपादक हता त्यारे ते पत्रमा पण तेमणे
पट्टावली मे विक्रमसंवत् और विक्रमजन्म में १८ वर्ष एक न्हानो सरखो लेख जैन निर्वाण संवत् उपर हिन्दी
__ का अन्तर माना है । यथा-" वीरात् ४९२ मो लख्यो हतो.ए लेख पण आ विषयने ज लगतो छ अने
विक्रम जन्मान्तर वर्ष २२, राज्यान्त वर्ष ४" संक्षिप्तमा लखायेलो होई सहज समजवा जेवो छ तेथी ते
विक्रम विषय की गाथा की भी यही ध्वनि है कि पण, तेमनी ज भाषामा अत्र आपी देवमां आवे छे. ]
वह १७ वें या १८ वें वर्ष में सिंहासन पर बैठे ।
इस से सिद्ध है कि ४७० वर्ष जो जैन-निर्वाण जैन निर्वाण-संवत् ।
और गर्दभिल्ल राजा के राज्यान्त तक माने जाते हैं, जैनों के यहां कोई २५०० वर्षकी संवत्-गणना का वे विक्रम के जन्म तक हुए-(४९२=२२+४७०) हिसाब हिन्दुओंभर में सबसे अच्छा है। उस से विदित अतः विक्रमजन्म ( ४७० म०नि० ) में १८ और . होता है कि पुराने समयमें ऐतिहासिक परिपाटी की जोडने से निर्वाण का वर्ष विक्रमीय संवत् की गणना वर्षगणना यहां थी । और जगह लुप्त और नष्ट हो गई, में निकलेगा अर्थात् (४७०+१८) ४८८ वर्ष केवल जैनोमें बच रही । जैनों की गणना के आधार विक्रम संवत् से पूर्व अर्हन्त महावीर का निर्वाण पर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुत सी घटनाओं हुआ । और विक्रम संवत् के अब तक १९७१ वर्ष को जो बुद्ध और महावीर के समय से इधर की है सम- बीत गए हैं, अतः ४८८ वि० पू० १९७१=२४५९ यबद्ध किया और देखा कि उन का ठीक मिलान जानी वर्ष आजसे पहले जैन-निर्वाण हुआ | पर "दिगंहुई गणना से मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक बर जैन" तथा अन्य. जैन पत्रों पर वि० सं० बातों का पत्ता जैनों के ऐतिहासिक लेख पट्टावलियो में २४४१ देख पडता है। इस का समाधान यदि ही मिलता है | जैसे नहपान का गुजरात में राज्य करना कोई जैन सज्जन करें तो अनुग्रह होगा | १८ वर्ष उस के सिक्कों और शिला-लेखों से सिद्ध है । इस का का फर्क गर्दभिल्ल और विक्रम संवत् के बीच गणना जिक पुराणों में नहीं है । पर एक पट्टावली की गाथा छोड देने से उत्पन्न हुआ मालूम देता है । बौद्ध लोग
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जैन साहित्य संशोधक
लंका, श्याम, वर्मा आदि स्थानो में बुद्ध निर्वाण के नहीं तो बौद्ध गणना और 'दिगंबर जैन ' गणना से आज २४५८ वर्ष बीते मानते हैं। सो यहां मिलान अर्हन्त का अन्न बुद्ध-निवार्णसे १६-१७ वर्ष पहेले खा गया कि महावीर, बुद्ध के पहले निर्वाण-प्राप्त हुए; सिद्ध होगा. जा पुराने सूत्रों की गवाही के विरुद्ध पडेगा।
विजयसेन सूरिने आगराना संघे मोकलेलो सचित्र सांवत्सरिक पत्र. आ साथ जे एक चित्र आपेलुं छे, ते तपागच्छना हतुं. ए बाबतनो पण थोडोक उल्लेख उपर्युक्त पुस्तकमां सुप्रसिद्ध आचार्य विजयसेनसूरि उपर संवत् १६६७ मां को छे. संवत् १६५२ मां हीरविजयसूरि स्वर्गस्थ आगराना जैन संघे मोकलेला एक सांवत्सरिक-क्षमापना थया अने तेमनी पाटे विजयसेन सूरि अधिष्ठित्त थया. पत्रनु छे. सांवत्सरिक-क्षमापना पत्र एटले शु ए जमे ते बनाव पछी १० वर्षे एटले संवत् १६६२ मा अकजाणवानी इच्छा होय तेणे अमाउं विज्ञप्ति त्रिवेणी नामर्नु बर बादशाह गुजरी गयो अने तेनी गादिए जहांगीर हिन्दी पुस्तक वाचवू. ए पुस्तकमां अमें एवी जातना आव्यो. अकबर बादशाहे हीरविजयसूरिना उपदेशथी पत्रो-के जने विज्ञप्ति पत्र पण कहेवामां आवे छ न पोताना साम्राज्यमां पर्युषणा विगेरेना दिवसोमां जे जीव विस्तृत वर्णन करेलुं छे.
हिंसा-निषेधना फरमान आदि बहार पाड्या हता ते ___ आ सचित्र पत्र मुनिराज श्रीहंसविजयजी महाराजना जहांगीरे रद कर्या हता एटलं ज नहीं पण जैनोमा धर्मशास्त्र-संग्रहमांथी मळी आव्युं छे. मूळ पत्रना कोईए बे गुरुओ उपर पोतानी खफगी जाहर करी अनेक रीते ककडा करी नांख्या छे अने तेमा पहेला ककढाना मथा- तेमने कनडवानी पण तेणे शुरुआत करी हती. ळानो केटलोक भाग जतो रह्यो छे. आ बन्ने ककडानी विजयसेन सूरिना शिष्य समूहमा महोपाध्याय विवेकभेगी लंबाई एकंदर लगभग १३ फूट जेटली छे अने हर्ष गणी करीने एक महान् विद्वान् अने अनेक राज. पहोळाई १३ईच छे. पहेला अने बीजा ककडानी वच्चेनो दरबारोमा घणुं मान सन्मान पामेला प्रभावशाली यतिकोई चित्र-भाग जतो रह्यो छ के, छे ते बराबर छे, ते वर हता. तेमणे संवत् १६६८ नी सालमां आगरामां जाणवानुं कशुं साधन नथी. चित्रसमूहनी नीचे विज्ञप्ति- चातुर्मास को अने राजा रामदासादि द्वारा जहांगीर लेख छे अने तेणे एकंदर ३-७ जेटली जग्या रोकी छे. बादशाहने मळीने पोतानी विद्वता अने शांतवृत्तिथी
आ सचित्र पत्रनी पूरेपूरी विगत समजवा माटे, एने तेने संतुष्ट करी तेनी पासथी, ते सालमां, तेना राज्यमां लगतो थोडोक इतिहास अहिं आपवो आवश्यक छे. पर्युषणाना दिवसोमां जीवहिंसा न थवा पामे तेवू फर
जगद्गुरु श्रीहरिविजय सूरि अने तेमना पट्टधर आ- मान बहार पडाव्यु. महोपाध्यायना आवा सुकृत्यथी चार्य विजयसेनसूरि-बंने जैन इतिहासमां सुप्रसिद्ध छे. आगराना जैन संघने घणो आनंद थयो हतो. तेणे हीरविजयसूरिने मुगल सम्राट अकबर बादशाहे केवी रीते पोताना ए आनंदने गच्छपति आचार्य के, जे ते वखते पोतना दरबारमा बोलाव्या हता अने केवी रीते देवपाटण (काठियावाड ) मां चातुर्मास रहेला हता तेमनो आदर-सत्कार कर्यो हतो, ए विगेरेनो इतिहास तेमनी अगळ प्रकट करवा माटे उत्तम चित्रकार पासे अमारा कृपारसकोष नामना पुस्तकनी प्रस्तावनामा वि- सुन्दर अने भावदर्शक चित्रपट्ट तैयार करावी सांवत्सरिक स्तार साथ आप्यो छे. हीरविजयसूरि ज्यारे बादशाहनी क्षमापनाना पत्ररूपे तेमनी उपर मोकल्यु. आ चित्रपट्ट. अनुमति लई पाछा गुजरातमां आव्या त्यारे एक-बे मां केवी रीते महोपाध्याय विवेकहर्ष गणी राजा रामवर्ष पछी बादशाहे विजयसेनसरिने पण पोतानी पासे दासने साथे लई जहांगीर बादशाह पासे फरमान मेव M P ने तेमनुं पण तेगे सारं सन्मान कयु वानी प्रार्थना करे छे; ते मळ्या पछी केवी ते उपा
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महावीर निर्वाणनो समय-विचार ध्यायना वे शिष्यो बादशाही नोकरोने साथे लई आगरा उल्लेख करवामां आव्यो छ के-'उस्ताद सालीवाहन
मेरमा जाते ते बाबतनो ढंढेरो पीटता फरे छे, इत्या- बादशाही चित्रकार छे. तेणे ते समये जोयो तेवो ज दि दृश्यो बहु सुन्दररीत चित्रेलां छे. चित्रना एक भागमा आमां भाव राक्यो छे. ' आथी आ सचित्र-पत्रनी ऐतिविजयसेनसूरिनी व्याख्यानसभा पण चित्रली छे अने हासिक महत्ता केटली विशेष छे ते दरेक विद्वान् समजी तेमा विवेकहर्ष गणी जाते ए फरमान पत्र लई आचार्यनी शके तेम छे. सेवामा समर्पित करी रमानो देखाव पण काढेलो छे. पत्रनी भाषा हिन्दी मिश्रित गुजराती छे अने ते * आ चित्रमा आलेखली आकृतियो बह स्पष्ट अने काना-मात्रना हिसाब वगर जेम व्यापारी लोको लखे छे तादृश छे. दरेक प्रधान आकृति उपर तेनुं नाम पण तवा रात लखाएला छ. आ नाच प्रथम पाना मूळ काळी शाहीथी लखेलुं छे. चित्रनी महत्ता एटला उपरथी ज नकल- असलनी भाषामा ज-आपी छे अने तेनी नीचे समजी शकाश के ते खद बादशाही चित्रकारनी पीळीथी लाईनवार हालनी भाषा प्रमाणे शुद-संस्कारी रूपान्तर आलेखायुं छे. ए बाबत ए पत्रमा नीचे प्रमाणे खास आप्युं छे.
__ (मूळ नकल) (१) स्वास्ताश्रीचंतामणापारस्वजणाप्रणामो श्रीदेवकापाटणामाहानगरसूभथांने पूजआरंद्धा माहाओतमो(२) अतंमचारीतरपात्रसुरामणा कमतं अंधकारनभोमंणा कलकालगउतमोअवतार सरस्वती कंठ आमरंणा(३) चउदवदानद्धांन ऐकवद्ध असंमना टालणाहार वद्ध दरंम परूपक त्रगा ततवना जाणा चार कखाअना. (४) जीपक पंचमाहावरतना पालणाहार छकाअना पीहर सातभअना टालणाहार आठ मद्ध सानकना जीपक. (५) नववाग्वसबरंमचरजानापालणाहार दसवद्धसरमणारंमपत्रपालक अगर अंगबार ऊपांगना जाणा. (1) तेर काठी आना जीपक चऊदभेद जीवना परोपक पनर परमाधार्मना भेदना जाण सोलकलासं(७) पुरण चंद्रवदन सतरभेद संज्यमना प्रतिपालक अढार सहस सिलंग रथना (८) धारकः उगणिस न्यतधरमना परूपक विस असमाधीथाने रहातः ऐकविस सबल(९) ना वारकः बावीस परीस्हाना जीपकः तेवीस सुगडा अंग अधेनना जाण चैवि(१०) स तिथंकरनी आगन्यना प्रतिपालकः पंचविस भावनाना भायकः छविस(११) दसाकलपविवहारना जाण सताविस साधगुणना उपदेसक अठाविस आया- . (१२) रकलपना जाण उगणतिस पपसुत्त प्रसंगना टालणहारः तिस मोहनी स्थानीक(१३) ना जीपक ईकतिस सिधगुणना जाणः बत्तिस जोग संग्रहना प्रतिपालक ते(१४) तिस गुरनी आस्यतनाना वारणहारः चत्तिस अतीबैना जाणः पत्तिस श्रीवित-- (१५) रागवणीना गुणना कथकः छत्तिस छत्तिसी सुरगुणे वोरजमानः वादीगुर(१६) ड गोवीद वादीगोधुमघरट मरिदतवादी मरट सरसतिलबधप्रसादः दली(१७)त अनेक दुरवादवाद समुद्रनी परि गंभीरः मेरपरबतनि परी धिरः प्रापत सं(१८)सार समुद्र तिरः मायमही विडारणसीरः श्रीजिनसासन सहकारकीर (१९) करमसत्त विडारणवीरः वाणि मीठि ईम्रतखीर: धरमकरतै न कर धीरः नीर(२०) मलचित जीम गंगानीरः उजल जससागर डंडीरः भंजण भवभिरः सोभा(२१ ) गगुणे अमिनवै गुरहीर जीण प्रतीबोध्य अकबर साह वडवीर दी(२२) न करणीपर अधीक प्रताप तेज सुविहत जणसु धरे हेज व वैरागी अती
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जैन साहित्य संशोधक
(२३) सोभागी करणीन परी त्यागी मुगतिना रागी श्रीपतिसाह प्रबोधक अवोह जी - (२४) व प्रतिबोह कलिकाल गोतीमा अवतार तपगछ सागार हार तपतेज दीवा - ( २५ ) कर गछाधीपति गछाधीराज सरबउपमाजोगः भटारिक पुरिंदर श्री श्री श्री श्री श्री - (२६) श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री विजयसेन सुरसूरिश्वर (२७) परिवार चरण कमलानं श्री आगराकोटानु सदा आदेसकारी चरणसेवक दासन( २८ ) दास पाइरज समान सदासेवकः साः विमलदास सा मंदीदास सा लालचंद दुरगदा(२९) सः सं चंदुमती साः ननजीः साः चंद्रसेनः सः प्रतापसी: सांः नाथु मीधारीदास सा पुन्मना (३०) खाः समीदास दरगहमलः साः पेमन सा: टोबर: सं: वीरदास साः कश् नतु सं धरमदास गटका संः नेतसीः साः खड़ाः साः भोजु साः सा
?
T
(३१) गर सं कवरजी वरचमानः साः बैरा राई सीप सा कवरा धरमसी साः मोकल साः मेघा (३२) साः कटारू पिरथीमल साः बोहीच सा गोरा सा बचा कुहाड सं देवकरण साः पदमसीः साः मा( ३३ ) नकिचंद सा तीलोकसी जैतसीः सं धरमदासः साः ताराचंद साः पापीयाका सा रासाः साः प्रेत( ३४ ) सी साः नेतसी सा मुलाः साः डूंगरः सं: रीषभदास सा चाउ सा षेभन साः लीषमीदास सः भीरपाल साः मीमा साः मोजुराजु
(३५) सा: भारूतारणः साः पतापसारिः सा तारूपसारी साः देवजी सोनी: रोषमदास सोनी विमलदासः ( ३६ ) साः अमीचंद सा देवकरण सा देवजी मीमजी साः जीवा से उदा कमाः संः सीधु से सवल ( ३७ ) सं: समीदास सं: लीलापती संः कलु संः वीरजीः संः कपुरा सादुल साः कल्याण सुगंधीः
दरगह सुगंधी :
(३८) सा कचरा मुहणैत साः पदा मुहणैत साः जेसीय मुहणैत सा जादू सा ( ३९ ) साः सोमसीः साः पोमश्री सा दरधमान खा राउ सा धनराज सं: वाल सोनी
( ४० ) सकतन सा:, रतना साः संसारू साः वाघु सा: जावड साः डगर वैद साः गग्ग साः भू इगर साः सु( ४१ ) रताणाः साः जेकरण आदेसकारी दवस वंदणा: सीकाह सा कावः राघवनी अवधार जो: समस(४२) त संपनी द्वादस वंदणा अवचारजो ईह श्री पुजीजी ने प्रसाद कुसल बेम छै पुजीजीना( ४१ ) कुचल बेमना सदा समाचार लीघवाजी त सेवकनै परम संतोष उपजै: अपर इंह श्री(४४) पजुसण प्रव नीराबाद पणै हुआ छै अमारी दीन १२ पजुसणनी विसेष सावदेसः पुरबदेसः (४५) तथा डीलमंडळ: मेवातमंडल रणर्धमैरगढ देसी: बीजा ही पण देसी अमारी वरती छै ते संतोष
मानजो
ईसर साः माउ सा गोवल नीहालु साः रूढाः साः मो
(४६) श्री सतरभेद पुजा १५ श्री जहगीर पातीसाह तषत बेठ पुठै ये अपुरब करणी हुई छे भ
( ४७ ) गवनजीनै प्रसाद श्रीतपागच्छनी उनित वीसेष हुई छै श्रीः पातिसाहजी फुरमान २ करी द— ( ४८ ) नाः ते श्री पण आव श्रीजीनुः रमदासजी आगे हुई गुदरण हुकम दीआ ढंढोरा दीवाय(४९) पारीउर वार सारै दीना १२ अमारी बरताई: जीण बेल श्रीजी हुकम दीना तीणवेला दरीधन(५०) जुडथा श्रीजी झरोषै बैठा था राजा रमदासजी आगै था तीण पाछै फुरमान लीयः पंः विवेक [ हर्ष ( ५१ ) तिण पाछैः पंः उदैई ( हर्ष ) थाः पछं अमारी आसरी विनती की श्रीपातिसाहजी हुकम दीना ( ५२ ) ततकाली: तीणवेला: जीसा दरीषना जुडसु तीण समना ये लेष माह सरब लीष छै
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आगरा संघनो सचित्र सांवत्सरिक पत्र
(५३) उसता सालीवहण पातिसाही चित्रकार छै तेण तीण समै देष छै ईसाही ईण चिं(५४)त्र माहे भाव राष छै सु लेष देष प्रीछजोः उतता सालीवहण वंदणा विनवी छै प्रछ जो
) ईह श्रीः पजुसण श्रीसतर भेद पुजा १५ सनाथदीन ६१ तप मासषमण १॥ मासषम(५६) ण १। पाषषमण तथा अठाई तथा दवदसम दसम अठम बीजाही तप घणा हुआ छै.
छमछरी पोसह त ९०१ सहमी वछल साः बंदीदासकैः चैमासा पाषी असटमी सदी सह
) मीवछल चाल छै पुजोजीका प्रसादथी अपरं ईह श्री जिन प्रासाद नवा संः चंदु करय छै (१९) प्रतीमा पीण माहासुदर हुई छै धणिनु पीणा प्रतीस्टाना घणार्ह छै श्रीपुजी जी आवै तथा (१०) श्रीआचारिजजी पधारतै जीणससणीना घणा उछाह होई सार संघना मनोरथ पैहचै
६१) पुजीजी क्रिपाकर पधारजोः महो उपाध्याय श्रीसोमविजै पीण नेडा छै पुजी जलदथी लषी छै वि(६२) चारी भला जाण तम लीषजो जीम पुजी लीष तिम परमाण लेष प्रसाद वैगा मकुलजो. (६३)ईभरमावादः पंः श्री: माहानंद ठण ३ छै दील: री जेठठण २ छैः पारोःगणसरतनह ठण २ पहली चै(६४) मासः पेरोजाबाद गणी षीमानंद रहथा विजा मतका आचारिज रहमाट: हीवक ते ते पाली (६५) पडः हीवै चैमास पेरोजाबादकी घेतनी चीता करजोः पहले कैतही सात परहथा तै सरब मडराष ( ६६ ) हीवै भीपु षेत पाली न रह तीम करजोः सावीकानी वंदणा विनवि छै ते पीछजो सही चाणजो. (६७) संः विमलादे बाः साहाजदे बाः मीरघ बाः जादव [पारमासहमनी वंदणा: अवधारजो (६८)वाई कपुर दे बाः लाछ बाः मोतास पयादी बाः जीवट दे १साः ताराचंद साः ताबेद साः मोहील (६९)मणीक दे बाः कवर .. बाः सीरदे. बाः भगत.. १ साः छीतु साः कासी सा वेणीदास (७०) बालादे वहुः मनोरथदे बाः गारबदे बाः राज १ साः सागर साः भैरू साःमणकचंद (७१) वहु केसरदे बाः होली वाः गरादे १ साः भोवाल सा: ढोला साः डगर (७२) पुजीजी प्रतिस्टा उपरी वैग पधारजो ईहना संघना उतकंठा पणी छै ऐकवार तुमार चरण (७३ ) देष समसत संघ संतोष पामः नहीतर महोउपाध्यनु आदेस देजो जीण सासणनी सो(७४) भा होई तीम करजो घण स्य लीषीअ पुजीजी ईहनी परचीता तुमन छे ते पीछजो (७५) संवतु १६६७ मीती कातीसुदी २ सुभदीने सोमवारे सुभं भवतुः लीः सीकहसा सुत.
[उपरना लखाणर्नु हालनी भाषामां शुद्ध संस्कारी रूपांतर ] (१) स्वस्ति श्रीचिन्तामणिपार्श्वजिनं प्रणम्य श्री देवपाटण महानगरे शुभस्थाने, पूण्य आराध्य महात्मा, (२) उत्तम चारित्र पात्रशिरोमाण, कुमतान्धकार नभोमाणि, कलिकाल गौतमावतार, सरस्वतीकंठाभरण, ( ३ ) चउदविद्यानिधान, एक विध असंयमना टाळणहार, द्विविध धर्मप्ररूपक, त्रण तत्त्वना जाण, चार
कषायना( ४ ) जीपक, पंचमहाव्रतना पाळणहार, छकायना पिता, सात भयना टाळणहार, आठ मदस्थानकना
जीपक, (५) नववाढ विशुद्ध ब्रह्मचर्यना पाळणहार, दशविध श्रमणधर्म प्रतिपालक, अग्यार अंग बार उपांगना
. जाण, . (६) तेर काठियाना जीपक, चऊद भेद जीवना प्ररूपक, पंदर परमाधार्मिकना मेदना जांण, सोलकला
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________________ 296 ... जैन साहित्य संशोधक Gowwwwws (7) संपूर्ण चन्द्रवदन, सतरभेद संयमना प्रतिपालक अढार सहस्र शीलांगरथना(८) धारक, ओगणीस ज्ञाताधर्म ( कथा ) ना प्ररूपक, वीस असमाधि स्थानक रहित, एकवीस सबल(९) [ दोष ] निवारक, बावीस परीषहना जीपक, तेवीस सूयगडांगना अध्ययनना जाण, चौवी(१०)स तीर्थकरनी आज्ञाना प्रतिपालक, पंचवीस भावनाना भावुक, छवीस(११) दशाकल्प-व्यवहार [ अध्ययन ] ना जांण, सतावीस साधुगुणना उपदेशक, अठावीस आचा(१२) रप्रकल्पना जांण, ओगणतीस पापसूत्रप्रसंगना टाळणहार, तीस मोहनीयस्थानक-.. (13) ना जीपक, एकत्रीस सिद्धगुणना जाण, बत्रीस योमसंग्रहना प्रतिपालक, ते(१४) त्रीस गुरुनी आशातनाना वारणहार, चउत्रीस अतिशयना जांण, पांत्रीस श्रीवीत(१५) रागवाणीना गुणना कथक, छत्रीस छत्रीसो सूरिगुणे विराजमान, वादोगरु-- (16) डगोविन्द, वादीगोधुमघरट्ट, मृदितवादीमरट्ट, सरस्वती लब्ध प्रसाद, दलि. (17) त अनेक दुरवादी वाद, समुदनी परे गंभीर, मेरु पर्वतनी परे धीर, प्राप्तसं (18) सार समुद्रतीर, मायामही विदारणसोर श्रीजिनशासन सहकारकीर, (19) कर्मशत्रुविदारणवीर, वाणी मीठी अमृतक्षीर, धर्मकरतां न करे धीर, नि(२०) मल चित्त जिम गंगानीर, उज्ज्वल यश सागर डंडीर, मंजग भवभीर, शौभा(२१) ग्य गुणे अभिनवगुरुहीर, जेणे प्रतिबोध्यो अकबर शाह बडवीर, दि( 22) नकरनी परे अधिक प्रताप तेज, सुविहित जनथी. धरे हेज, वड वैरागी, अति( 23 ) सौभागी, कर्णनी परे त्यागी, मुक्तिना रागी, श्रीबादशाह प्रबोधक, अबोधजी(२४) व प्रतिबोधक, कलिकाल गौतमावतार, तपागच्छ श्रृंगारहार, तपतेज दिवा(२५) कर, गच्छाधिपति, गच्छाधिराज, सर्वोपमायोग्य, भट्टारक पुरंदर (पांच श्री) (21) [15 श्री ] विजयसेनसूरि सूरीश्वर स(२७) परिवार चरणकमलान् श्री आगराकोटना सदा आदेशकारी, चरणसेवक, दासानु(२८) दास, पायरजसमान, सदा सेवक, सा. विमलदास, सा. बंदीदास, सा. लालचंद दुगड, ( 29 थी 42 मी लाईन सूधीमां आगराना आगवोन श्रावकोनां नामो मात्र आपेला छे.) (43 )-समस्त संघनी द्वादशवंदना अवधारशो. अहिंया श्रीपूज्यजीना प्रसादे कुशल-क्षेम छे. पूज्यजीना (44) कुशल-क्षेमना सदा समाचार लखवा, जेथी सेवकोने परमसंतोष उपजे. अपरं अहिंया श्री(४५ ) पजुसण पर्व निराबाधपणे थया छे. अमारी दिन 12 पजुसणनी,-विशेष सावदेश, पूर्वदेश, (46 ) तथा दिल्लीमंडल, मेवातमंडल, रणथंभोर गढदेश, बीजाए घणा देशे अमारी वरती छे, ते संतोष मानजो. ' ( 47 ) श्रीसत्तरभेदी पूजा 15, श्रीजहांगीर बादशाह तखत बेठां पछी आ अपूर्व करणी थई छे. (48) भगवन्तजीना प्रसादे श्रीतपागच्छनी उन्नति विशेष थई छे. श्रीबादशाहजीए फरमान 2 करी दी(४९) धा, ते श्रीपजुसण आव्ये श्रीजीना रामदासजी आगळ थई गुदरण (?) हुकम दीधो. ढंढेरो देवायो. (50) पारीउरवारसारे ( 1 ) दिन 12 अमारी वरतावी. जे वेळा श्रीजीए हुकुम दीधेो ते वेळां दरीखानो (51) भराणो हतो. श्रीजी झरोके बेठा हता. राजा रामदासजी आगळ हता. तेमनी पाछळ फरमान लई ., पं. विवेक हर्ष,