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________________ अंक ४] दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वी शताब्दीका जैन धर्म । रख छोडा, जिसका अनुवाद ऊपर दिया है । " चामु- तथा कृतयुगमें वह षण्मुख था, त्रेतामें राम, द्वापरमें पडरायने एक ग्रन्थकी रचना की जिसका नाम चामुण्ड- गाण्डीवि और कलियुगमें वीर मार्तण्ड था । फिर उसकी राय पुराण है और जिसमें २४ तीर्थंकरोंका संक्षिप्त अनेक उपाधियोंके प्राप्त होनेके कारण लिखे हैं । खडग इतिहास है और उसके अन्तमें ईश्वर नाम शक संवत्सर युद्धमें विज्जलदेवको परास्त करनेसे उसको समरधुरन्धर९०० (९७८ ईस्वी) उसकी तिथि दी हुई है"। की उपाधि मिली । नोलम्बयुद्धमें गोनूर नदीकी तीर, उपरोक्त शिलालेखके श्लोकोंमें दिया हुआ वर्णन चामु- उसकी वीरतापर 'वीरमार्तण्ड' की उपाधि, उच्छंगी पडरायपुराणके वर्णनसे मिलता जुलता है। उस पुराणके गढके युद्ध के कारण रणरंगसिंह'की उपाधि,बागलूरके किलेप्रारंभके अध्यायमें यह लिखा है कि उसका स्वामी गंग- मे त्रिभुवन-वीर ' और अन्य योद्धाओंका वध करने कुल चूडामीण जगदेकार नोलम्बकुलान्तक-देव था; और गोविन्दको उस किले में प्रवेश कराने के उपलक्ष्यमें और वह ब्रह्मक्षत्रवंशमें उत्पन्न हुआ था । अन्तके अध्या- 'वैरीकुलकालदण्ड' की उपाधि; काम नामक यमें यह लिखा है कि वह अजितसेनका शिष्य था । नृपति के गढमें राजा तथा अन्य लोगोंको हरानेसे 'भुजपत्युः श्रीजगदेकवीरनृपतेज्जैत्रद्विपस्याग्रतो विक्रम ' की उपाधि, अपने कनिष्ठ भ्राता नागवर्मा को उसके द्वेषके कारण मारडालने के निमित्त ' चलदंकगंग' धावद्दन्तिनि यत्र भग्नमहतानीकं मृगानीकवत् ।। की उपाधि; गंगभट मुदु राचय्यके वधसे 'समर-परशुअस्मिन् दन्तिनि दन्तवज्रदलितद्वित्कुम्भिकुम्भापले राम' और ' प्रतिपक्ष-राक्षस ' की उपाधियां; सुभटवीरोत्तंसपुराोनषादिनि रिपुव्यालाङ्कुशे च त्वयि । स्यात् को नाम न गोचरः प्रतिनृपो मदबाण कृष्णोरग- वीर के गढका नाश करनेके कारण ' भटमारि' की उपाधि, अपनी और दूसरोंके वीरगुणोंकी रक्षाके कारण ग्रासस्यति नोलम्बराजसमरे यः श्लाघितः स्वामिना ।। 'गुणवं काव' की उपाधि; उसकी उदारता एवं सद्गुण खातः क्षारपयोधिरस्तु परिधिश्चास्तु त्रिकूट: पुरी आदिके कारण ' सम्यक्त्व रत्नाकर' की उपाधि दूसलङ्कास्तु प्रतिनायकोस्तु च सुरारातिस्तथापि क्षमे । तं जेतुं जगदकवीरनृपते त्वत्तेजसीतिक्षणान् रोके धन दारा हरण की इच्छा न करनेसे 'शौचाभरण' की उपाधि; हास्यमें भी कभी असत्य न बोलनेसे 'सत्य नियंढे रणसिंहपार्थिवरणे येनोजितं गजितम् ॥ युधिष्ठिर ' की उपाधि; अत्यन्त वीर योद्धाओंके शिवीरस्यास्य रणेषु भूरिषु वयं कण्ठग्रहोत्कण्ठया रोमणि होनेके कारण 'सुभटचूडामणि' की उपाधि तृप्ताः सम्प्रति लब्धनिर्वृतिरसास्तत्-खड्गधाराम्भसा । मिली । अन्तमें अपने ग्रन्थमें वह अपनेको 'कविजनकल्पान्तं रणरङ्गसिंहविजयि जीवेति नाकाङ्गना शेखर' भी कहता है । गीर्वाणाकृतराजगन्धकरिणे यस्मै वितीर्णाशिषः ।। इन उपरोक्त उल्लेखोंमेंसे बहुतोंका और कहीं वर्णन आकृष्टं भुजविक्रमादभिलषन् गङ्गाधिराज्यश्रियं नहीं है । परन्तु यह बात ध्यान देने योग्य है कि इतने येनादौ चलदंकगङ्गनपतिर्व्यर्थाभिलाषी कृतः । प्रसिद्ध और गौरवान्वित कार्योंके साथ उसके एक भी कृत्वा वीरकपालरत्नचषके वीरद्विषः शोणित धार्मिक कार्यका वर्णन नहीं है । प्रत्युत अादिसे अन्त तपातुं कौतुकिनश्च कोणपगणाः पूर्णाभिलाषीकृताः ।। (त्यागड ब्रह्मदेवखम्भका शिलालेख, ई. स. ९८३: देखो. न क युद्ध और रक्तपातकी ही कथा वर्णित है। १० रा. श्रवणबेलगोल. पृष्ठ ८५) परन्तु इस बातको सिद्ध करने के लिए सन्देह रहित ९ लुईस राईस 'श्रवणबेलगोलके शिलालेख' भूमिका पृ. २२, प्रमाण उपस्थित है कि वृद्धावस्था प्राप्त होनेपर चामुण्डतथा कर्नल मेक का कलेक्शन (एच्. एच्. विल्सनद्वारा संपादित, भाग १, पृ. १४६; जहां यह लिखा है कि चामुण्डराय पुरा- १० देखो, लुईस राईस, 'श्रवण बेलगोलके शिलालेख, 'मणमें जैन धर्मके ६३ प्रसिद्ध पुरुषोंका वर्णन ह । भिका, पृ. ३४.
SR No.542001
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1921
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size17 MB
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