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जैन साहित्य संशोधक ।
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तीन दिनोंके व्रतसे शरीर त्याग दिया । मारसिंह द्वितीयकी समाधिका लेख कूगे ब्रह्मदेव खंभ नामक स्तम्भके निम्न भागमें चारों ओरके शिलालेखों में विद्यमान है । वह स्तम्भ श्रवणबेलगोल (माइसार) की चन्द्रगिरी पहाडियों पर स्थित मन्दिरोंके द्वारपर है । यद्यपि इस लेख में कोई तिथि नहीं लिखी है, तथापि मारसिंह द्वितीयके मृत्युकी तिथि एक दूसरे शिलालेखके आधारपर सन ९७५ ई० निश्चय की गई है "
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चामुण्डराय ।
चामुण्डराय या चामुण्डराज इस महान् नृपतिका सुयोग्य मंत्री था । इस मन्त्रीके शौर्यही के कारण मारसिंह द्वितीय वज्जलसे तथा गोनूर और उच्छंगीके रणक्षेत्रोंमें विजय प्राप्ति कर सका । श्रवणबेलगोलके एक शिलालेखमें चामुण्डराय की इस प्रकार प्रशंसा की हुई है - " जो सूर्यकी भांति ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी उदयाचलके शिरको मणिकी नाई भूषित करता है; जो चंद्रमाकी भांति अपने यशरूपी किरणोंसे ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी समुद्रकी वृद्धि करता है, जो ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी खानियुक्त - पर्वतसे उत्पन्न मालाका मणि स्वरूप है और जो ब्रह्मक्षत्र कुलरूपी अग्निको प्रचण्ड करनेके हेतु प्रबल पवन के समान है; ऐसा चामुण्डराय है ।
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'कल्पान्त क्षुभित समुद्र के समान भीषणबलवाले और पातालम के अनुज वज्जलदेवको जीतनेके हेतु इन्द्र नृपतिकी आज्ञानुसार, जब उसने भुजा उठाई; तब उसके स्वामी नृपति जगदेकवीरके विजयी हाथीके सन्मुख शत्रुकी सेना इस प्रकार भाग गई जैसे दौडते हुए हाथी के सन्मुख मृगोंका दल ।
४ देखो, लुईसराईस रचित ' श्रवणबेलगोल के शिलालेख ' नं ३८ |
५ देखो, मेलागानिका शिलालेख जिसको लुईस राईसने अपने " श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंकी भूमिकाकी पाद टीकामें उद्धृत किया है । पुनः देखो, एपिग्राफिया इन्डिका, भाग ५, शिलालेख नं. १८ ।
६ इन्द्र चतुर्थ, तृतीय कृष्णका पौत्र - देखा 'एपिग्राफिया इन्डिका' भाग ५, लेख नं० १८ ।
[ खंड १
" जिसकी उसके स्वामीने नोलम्बराजसे युद्ध के समय इस प्रकार प्रशंसा की थी " जो वज्ररूप दांतोंसे शत्रुके हाथियों के मस्तकको विदीर्ण करता है और जो शत्रुरूपी हिंस्र जीवोंके लिये अंकुशके समान है । ऐसे हाथीवत् आप जब वीर वीर योद्धाओंके सन्मुख विराजमान हैं तो ऐसा कौन नृप है जो हमारे कृष्णबाणोंका ग्रास न बने " । जो नृप रणसिंह से लडते हुए इस प्रकार गर्ज कर बोला, " हे नृपति जगदेकवीर ! तुम्हारे तेजसे मैं एक क्षणमें शत्रु को जीत सकता हूं, चाहे वह रावण क्यों न हो, उसकी पुरी लंका क्यों न हो, उसका गढ त्रिकूट क्यों न हो, और उसकी खाई क्षारसमुद्र क्यों न हो । "
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" जिसको स्वर्गीगनाओने यह आशीर्वाद दिया था 'हम लोग इस वीरके बहुतसे युद्धों में उसको कण्ठालिंगनसे उत्कंठित हुई थीं, परन्तु अब उसकी खड्गकी धारके पानी से हमलोग तृप्त हुई हैं । हे रणरंगसिंहके विजेता ! तुम कल्पांत तक चिरंजीव रहो । जिसने चलदंकगंग नृपतिकी अभिलाषाओंको व्यर्थ कर दिया, जो अपने भुजविक्रमसे गंगाधिराज्यके वैभवको हरण करना चाहता था, और जिसने वीरोंके कपालरत्नोंके प्याले बना कर और उनको वीरशत्रुओंके शोणितसे भरकर खूनके प्यासे राक्षसों की अभिलाषाको पूर्ण कियाँ । ” उपरोक्त शिलालेख स्वयं चामुण्डराजका लिखा हुआ अपना वर्णन है । परन्तु ऐसा जान पडता है इस शिलालेखका अधिक भाग अप्राप्य है । ऐसा मालूम देता है कि हेगडे कन्नने, अपने लिए केवल अढाई पंक्तिओंका लेख लिखनेके लिए, चामुण्डरायके मूल-लेखको तीन ओर अच्छा तरहसे घिसा दिया; और केवल एकही ओके लेखको
७-८ “ब्रह्मक्षत्रकुलोदयाचल शिरोभूषामणिर्भानुमान् ब्रह्मक्षत्रकुलाब्धिवर्द्धनयशोरोचिः सुधादीधितिः । ब्रह्मक्षत्रकुलाकराचलभव श्रीहारवल्लमिणिः
ब्रह्मक्षत्रकुलाग्निचण्डपवनश्चामुण्डराजोऽजनि ॥ कल्पान्तक्षुभिताब्धि भीषणबलं पातालमल्लानुजम् जेतुम् वज्जलदेवमुद्यतभुजस्येन्द्र क्षितीन्द्राज्ञया ।