SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक ४] दक्षिण भारत मे ९ - २० वीं शताब्दीका जैन धर्म | दक्षिण भारत में ९ वीं - १० वीं शताब्दिका जैन धर्म । [ लेखक : – स्वर्गस्थ कुमार देवेन्द्र प्रसादजी जैन ] गंग वंश । भारतवर्षके प्राचीन राजवंशों में पश्चिमके गंगवंशीय राजा जैनधर्मके कट्टर अनुयायी थे । यह बात परम्परासे चली आई है कि नंदीगण सम्प्रदायके सिंहनन्दी नामक एक जैनधर्मके आचार्यने, गंगवंशके प्रथम राजा शिवमारको राज्यसिंहासन प्राप्त करनेमें सहायता दी थी । एक शिलालेखमें इस बातका बर्णन है कि शिवमार कोणी बम सिंहनन्दीको शिष्य था, और दूसरे में यह कि सिंहनन्दी मुनिकी सहायता से गंगवंश वैभवसंपन्न हुआ । एतदर्थ इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जैनग्रन्थों में इस भावके श्लोक पाए जायं कि गंगवंशीय राजा १ देखो Repertoire d'epigraphie Jaina (A. A, Guerinot शिलालेख नं. २१३ और २१४; तथा चन्द्रगिरि पहाडी पर स्थित पार्श्वनाथवस्तीके शिलालेखका निम्न लिखित पद्य - “ योऽसौ घातिमलाद्विषद्बलशिला-स्तम्भावली - खण्डनध्यानासिः पतुरर्हतो भगवतः सोऽस्य प्रसादीकृतः । छात्रस्यापि स सिंहनन्दिमुनिना नो चेत् कथं वा शिलास्तम्भो राज्यरमागमाच्व परिघस्तेनासिखण्डो घनः " ॥ ( श्रवण बेलगोल शिलालेख, नं. ५४, पृष्ठ ४२ ) २ सलेम जिलाकी Manual - Reva. T. F.Foulkes द्वितीय भाग, पृ० ३६८ का निम्न लिखित पद्य देखिए-" यस्याभवत् प्रवरकाश्यपवंशजोऽये कण्वो महामुनिरनल्पतपः प्रभावः । यः सिंहनन्दिमुनिपपतिलब्धवृद्धि - गंगान्बयो विजयतां जयतां वरः सः ॥" लुईस राईस पाठानुसार ' महिप' की जगह 'मुनिप ' पाठ दिया है, जो ठीक संगत मालूम देता है । १२९ सिंहनन्दीकी चरणवन्दना करते हैं । अथवा जसि राजवंशका जन्म एक जैन धर्माचार्यकी कृपासे हुआ हो उसके राजाओंका कट्टर जैनधर्मावलम्बी होना भी कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । ऐसे लेख विद्यमान हैं जो इस बातको निस्संदेह सिद्ध कर देते हैं कि गंगवंशीय राजा जैनधर्मके उन्नायक और रक्षक थे । ईस्राकी चौथीसे बारहवीं शताब्दी तक के अनेक शिलालेखोंसे इस बातका प्रमाण मिलता है कि गंगवंशके शासकोंने जैन मन्दिरोंका निर्माण किया, जैन प्रतिमाओंकी स्थापना की, जैनतपस्वियोंके निमित्त चट्टानोंसे काट काटकर गुफाएं तैयार कराई और जैनाचार्योंको दान दिया । मारसिंह द्वितीय । , सत्यवाक्य इस वंशके एक राजाका नाम मारसिंह द्वितीय था, जिसका शिलालेखों में धर्ममहाराजाधिराज ( कोंगुणीवर्मा - परमानडी मारसिंह नाम मिलता है । इस राजाका शासन काल चेर, चोल, और पाण्ड्य वंशों पर पूर्ण विजयप्राप्तिके लिये प्रसिद्ध है । मारसिंह द्वितीयने अपने शत्रु बज्जलदेवके साथ सर्वोत्कृष्ट विजय प्राप्त किया और गोनूर और उच्छंगी में उसने बहुत घनघोर युद्ध लडे । जैन सिद्धान्तोंका सच्चा अनुयायी होनेके कारण इस महान् नृपने अत्यन्त ऐश्वर्यसे राज्य करके राजपद त्याग दिया और धारवार प्रांतके बांकापुर नाम स्थान में अपने प्रसिद्ध धर्म-गुरु अजितसेनके सन्मुख ३ “श्रीदेशीयगणाब्धिपूर्णमृगभृच्छ्रीसिंहनन्दिवति— श्रीपादाम्बुजयुग्ममत्तमधुपः सम्यक्त्वचूडामणिः ।। श्रीमज्जैनमताब्धिवर्द्धनसुधासूतिर्मही मण्डले रेजे श्रीगुणभूषणो बुधनुतः श्रीराजमल्लो नृपः ।। " ( बाहुबली चरित्र, श्लोक ८ )
SR No.542001
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1921
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy