SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक सप्तभंगी अष्टसहस्रीना कर्ता विद्यानन्दी कहे छे के " तेमां सत्त्व ' वस्तु धर्म छे; तेनो अस्वीकार करतां गधेडाना सांगडानी माफक वस्तु वस्तुत्व विनानी थई जाय छे ते प्रमाणे कथंचित् असत्व 'छे, कारण के स्वरूपा दिथी जेम सत्त्व अनिष्ट नथी तेम पर रूपादिधी पण अनिष्ट न होय तो प्रतिनियत स्वरूपना अभावथी वस्तु प्रतिनियमनो विरोध थाय तेथी" ( एम मानवुं जोईए के स्वरूपनी अपेक्षाए जेम सत् इष्ट छे तेम पररूपादिनी अपेक्षाए नथा.) 6 अनेकान्तजयपताकाना कर्ता हरिभद्र सूरि कहे छे के " ते ( वस्तु) स्वद्रव्य क्षेत्र -काल-भाव-रूपे सत् छ, अने-परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भावरूपे 'असत् ' छे. तेथी ते 'सत्अने' असत् छे. नहिं तो तेना अभावनो प्रसंग आवे (घटादिरूप वस्तुनो अभाव थाय) एटले के-जो ते जेम स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव रूपे ' सत् ' छे, तेम परद्रव्यादिरूपे पण होय, तो ते घट वस्तुज न थाय. कारणके ते परद्रव्यादिरूपे पण, तेनाथी अन्य पोताना स्वरूपनी मा फक, हयात छे. ते प्रमाणे जो जेम परद्रव्य क्षेत्र काल भावरूपे ते ' असत् ' छे तेम स्वद्रव्यादिरूपे पण ' असत् ' होय, तो एम पण गधेडाना सींगडानी माफक घट वस्तुज न चाय. आ प्रमाणे तेनो (वस्तुनो) अभाव थाय तेथी सदसद्रूप ज कबुल करवी जोईए. से ११६ ૧૯૭ ते कहे छे के जो आ तस्व स्वीकारवामां न आवे तो एक ज घटादि वस्तु सर्वत्र व्यापि अने तेथी एक वस्तु सर्व पदार्थ थवा नो दोष नीपजे, " ५ तत्र सत्वं वस्तुधर्मः, तदनुपगमे वस्तुनो वस्तुत्वायोगात्, खरविषाणादिवत् । तथा कथंचित्वं स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभि रपि वस्तुनो सानो प्रतिनियतस्यरूपाभावा वस्तुप्रति नियम विरोधात् । अष्टसहस्री पृ. १२६ ६] यतस्तत् क्षेत्रकालभावरूपेण सद्यर्तते, परद्रव्यक्षेत्र कालभावरूपेण चासत् । ततश्च सच्चासच्च भवति । अन्यथा तदभाव - प्रसंगात् । ( घटादिरूपस्य वस्तुनोऽभावप्रसंगात् ) इत्यादि । अनेकान्तज्जयपताका, पृ० ३० जोसेफ ' Introduction to Logic' नामना पोताना ग्रंथमां पण आज मुद्दानी वात करे छे. ते कहे छे के " निषेधात्मक वचनेने आपणे वस्तुओनो वास्तवि क व्यवच्छेद दशीवनार गणवं जोईए अमुक धर्मोनी अने अस्तित्वना अमुक प्रकारोनी परस्पर व्यवच्छेदकता ए निषेधमा रहे वास्तविक सत्य से जो एम न होय तो दरेक वस्तु दरेक अन्य वस्तु धई जाय एटले के अस्तित्वना आ विविधप्रकारना जेटली विध्यात्मक थई जाय. ११८ ...... हरिभद्रसूरि या प्रमाणे वस्तुतत्त्वनी दृष्टिए ऊहापोह करी तेनी सदसदात्मकता सिद्ध करी ज्ञान तत्त्वनी दृष्टिए पण एज बाबत सिद्ध करे छे. 'स्वपररूपानुवृत्तव्यावृत्तरूपमेव तस्त्वनुभूयते । ' स्वरूपे अनुवृत्त अने पररूपे व्यावृत्त ज अमुक वस्तु अनुभवाय छे. टुंकामां एमना कारणो आ प्रमाणे छे. प्रथम तो संवेदन वस्तु छे. अने वस्तु उभय रूप छे, माटे ते पण उभय रूप छे.' आनो अर्थ आपणे एम ज करवो जोईए के अमुक संवेदन स्वरूपे सत् छे अने अन्य संवेदन दृष्टिए असत् छ. एटले आ पण वस्तु तस्य विचारमां ज समाई जाय छे. पण 6 66 तेज ग्रंथम अन्य स्थाने हरिभद्रसूरि जणावे छे के 'न हि स्वपरसत्ताभावाभावरूपतां विहाय वस्तुनो वि ७ तदा यथा स्वयपेक्षया सत्वं तथा परमव्यायपेक्षयापि शिष्टतैव सम्भवति । स्वसत्तानो भाव अने परसत्तानो सत्यं तथा सदेव घटादि वस्तु प्राप्नोति । ' ततश्च सर्वअभाव न होय तो वस्तुनी विशिष्टतानो ज सम्भव नथी" पदार्थापत्तिलक्षण दूषणमा पद्येत । प्रमेयरत्नकोष, ० पृ० <." Hence we प्रमेयरत्न कोषमा चन्द्रप्रभसूरि आ ज तत्त्व दर्शवे छे. must accept the negative Judgment as expressing the real limitation of things. The reci procal exclusivness of certain attributes and modes of being is the real truth underlying negation But for that every thing would be every thing else; that is as positive as these several modes of themselves. " पृष्ठ १७२-१७३.
SR No.542001
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1921
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy