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________________ जंबुद्दीव पण्णाति । अंक ४ ] द्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि उपांग ग्रन्थ करणानुयोगकेही वर्णनसे लबालब भरे हुए हैं । दिगम्बर संप्रदाय में इस विषयका सबसे प्राचीन और विशाल ग्रन्थ त्रिलोकप्रज्ञप्ति है । इसका और लोकविभाग ग्रन्थका परिचय हम जैनहितैषी ( भाग १३ - अंक १२ ) में दे चुके हैं । त्रैलोक्यसार नामक ग्रन्थ मूल प्राकृत और संस्कृत टीका सहित माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामै प्रकाशित हो चुका है । आज इस लेख में हम जम्बुद्दीवपत्तिका परिचय देना चाहते हैं । इसी नामका और एक ग्रन्थ माथुरसंघान्वयी अमितगति आचार्यका भी हैं । अमितगतिने चन्द्रप्रज्ञप्ति और सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ भी इसी विषयपर लिखे हैं | परन्तु ये अभीतक हमारे देखनेमें नहीं आये । जम्बुद्दीवपणत्ति नामका एक ग्रन्थ श्वेताम्बर संप्रदाय - का भी है। इसका संकलन करनेवाले गणधर सुधर्मास्वामी कहे जाते हैं । यह छठ्ठा उपांग है और आगमग्रन्थोंकी शैलीसे लिखा हुआ है । इसकी श्लोक संख्या ४१४६ है | मुर्शिदाबाद के राय धनपतिसिंह बहादुरके द्वारा यह वाचनाचार्य रामचन्द्र गणिकृत संस्कृत टीका और ऋषि चंद्रभाणजीकृत भाषा टीका सहित छप चुका है। दिगम्बरसम्प्रदायी जम्बुद्दीवपणत्तिकी दो प्रतियां हमने देखी हैं; एक स्वर्गीय दानवीर शेठ माणिकचन्द्रजी के चौपाटी के ग्रन्थभाण्डारमें है और दूसरी पूने के भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिटयूटमें । पहली प्रति सावन वदि १२ सं० १९६० की लिखी हुई है और इसे सेठजीने अजमेरसे लिखवाकर मँग वाई थी । दूसरी प्रतीपर उसके लिखे हुएका समय नहीं दिया है; परन्तु वह कुछ प्राचीन मालूम होती है ! यह ग्रन्थ प्राकृत भाषामें है और गाथाबद्ध है । १ इसके कर्ता श्रीयतिवृषभाचार्य हैं, और इसकी रचना लगभग १००० वीरनिर्वाणसंवत् में हुई है । २ इसके कर्ता मुनि सर्वनन्दि है और यह शक संवत् ३८० में लिखा गया है। इस ग्रन्थका संस्कृत अनुवाद उपलब्ध है । १४५ इसमें १३ उद्देश या अध्याय, २४२७ गाथायें और भरत, ऐरावत, पूर्व विदेह, उत्तर विदेह, देवकुरु, उत्तरकुरु, लवणसमुद्र, ज्योतिषपटल आदिकावर्णन है । वर्णन त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अपेक्षा कुछ संक्षिप्त है । इसके कर्ताका नाम सिरिपउमणंदि या श्रीपद्मनान्द है । वेह अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाते हैंवीरनान्दे, बलनान्दे, और पद्मनान्द | अपने लिए उन्होंने गुणगणकलित, त्रिदण्डरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध, त्रिगारवरहित, सिद्धान्तपारगामी, तप-नियम-योग-युक्त, ज्ञानदर्शनचारित्र्योद्युक्त और आरम्भकरणरहित विशेषण दिये हैं । अपने गुरूओंकी भी उन्होंने ज्ञान और तप आदिके विषयमें प्रशंसा की है । उन्होनें ऋषिविजय गुरुके निकट जिनवचन - विनिर्गत सुपरिशुद्ध आगमको श्रवण करके, उनहीके कृपामाहात्म्यसे इस ग्रन्थकी रचना की है । विजयगुरुका विशेष परिचय वे नहीं देते, इससे उनकी गुरुपरम्परापर कोई प्रकाश नहीं पडता | मा नामके एक विख्यात आचार्य थे जो राग-द्वेष - मोहसे रहित, श्रुतसागरके पारगामी, प्रगल्भ मतिमान्, और तपः संयम - संपन्न थे । उनके शिष्य सकलचन्द्र गुरु हुये, जो नव नियमों और शीलका पालन करते थे, गुणी थे और सिद्धान्त महोदधिमें जिन्होंने अपने पापोंको घोडाला था । इनके शिष्य नेन्दिगुरुके लिए -जो सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्र्य सम्पन्न थे - यह ग्रन्थ बनाया गया है | आचार्य पद्मनन्दि जिस उमय बारानगरमें थे, उस समय यह ग्रन्थ रचा गया है । इस नगर की प्रशंसा में लिखा है कि उसमें वापिकायें, तालाब, और भुवन बहुत थे, भिन्नभिन्न प्रकारके लोगोंसे वह भरा हुआ था, बहुतही रम्य था, धनधान्यसे परिपूर्ण था, सम्यग्दृष्टिजनोंसे, मुनियोंके समूहसे, और जैन मंदिरोंसे विभूषित था । यह नगर पारियत्त ( पारियात्र ) नामक देशके १ पुराणसारके कर्ता श्रीचन्द्रमुनि - जो वि. सं. १०७० के करीब हुए हैं - अपने गुरूका नाम श्रीमान्दलिखते हैं । वे इनसे पृथक् व्यक्ति जान पडते हैं । वसुनन्दि आचार्यकी गुरुपरम्परामे भी एक श्रीनन्दि है ।
SR No.542001
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1921
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size17 MB
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