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________________ अंक ४ जंबुद्दीव पण्णत्ति। १४७ प्रज्ञप्तीके कर्ता पद्मनन्दि कब हुए हैं, यह बतानेके ......रिसिविजयगुरुत्ति विक्खाओ ।। १४४ ।। लिये अभीतक हमें कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ सोऊण तस्स पासे जिणवयण विणिग्गयं अमदभूदं । है । परन्तु हमारा अनुमान है कि यह ग्रन्थ विक्रमकी रइदं किंचुद्देसे अस्थपदं तहव लसूणम् ।। १४५ ।।. दसवीं शताब्दीके बादका तो नहीं है, पहलेका भले ही यदि यह अनुमान ठीक हो कि दिगम्बर सम्प्रदायमें हो । क्यों कि इस विषयका यह पहला ग्रन्थ है तो अवश्यही यह १) ग्रन्थकी रचनाशैली बिलकुल त्रिलोक प्रज्ञप्तिके पुराना है | और आश्चर्य नहीं जो त्रिलोकप्रज्ञप्तिके सदृश है और भाषा भी अपेक्षाकृत प्राचीन मालूम रचे जाने के 'समयमें अथवा उससे कुछ पीछे लिखा होती है। गया हो | इस ग्रन्थमें ' उक्तं च' कह कर अन्य गाथायें २) नववीं दसवीं शताब्दीके बादके ग्रन्थकर्ता अपनी या श्लोकादि भी उध्दृत नहीं हैं । इससे भी इसे प्राचीन गुरुपरम्परा बतलाते समय संघ और गण गच्छादिका माननेकी इच्छा होती है। परिचय अवश्य देते हैं । पर इस ग्रन्थमें किसी संघ यह ग्रन्थ जिन नन्दिगुरुके लिये बनाया गया है, या गण गच्छादि का नाम नहीं है । मंगराजकविके उनके दादागुरुका नाम माघानन्दि था, और वे बहुतही शिलालेखके अनुसार अकलंकभट्टके बाद देव, नन्दि, विख्यात, श्रुतसागरपारगामी, तपःसंयमसम्पन्न, तथा सेन, और सिंह इन चार संघोंकी स्थापना हुई है। प्रगल्मबुद्धि थे । इन्द्रनन्दीने अपने श्रुतावतारमें लिखा अतः हमारी समझमें यह ग्रन्थ अकलङ्क देवसे पहलेका है कि वीरनीर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी होना चाहिए । अकलङ्क देवका समय विक्रमकी ८ वी प्रवृत्ति रही। उनके बाद अर्हदलि आचार्य हुए और शताब्दी है । उनके कुछ समय बाद ( तत्कालही नहीं) माघनन्दि ___३) ऐसा मालूम होता है कि इस ग्रन्थसे पहले इस आचार्य हुए । आश्चर्य नहीं जो नन्दिगुरुके दादागुरु यही विषयका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं था । पद्मनन्दि मुनिने माधनन्दि हों । उन्हें जो विशेषण दिये गये हैं उससेभी श्रीविजयगुरुके निकट आचार्य परम्परासे चला आया मालूम होता है कि वे कोई सामान्य आचार्य न हुआ यह विषय सुनकर लिखा है । किसी एक या होंगे । इन्द्रनन्दिके कथनक्रम माघनन्दीका समय अनेक ग्रथोंके आधार आदीसे नहीं । इस विषयमें नीचे वीरनिर्वाणसंवत् ८०० लगभग तक आसकता है | लिखी हुई गाथायें अच्छी तरह विचारने योग्य हैं । और इस हिसाबसे नन्दिगुरु और पद्मनन्दीका समय ते वंदिऊण सिरसा वोच्छामि जहाकमेण जिणदिळं। वीरनिवाणकी ९ वीं शताब्दि माना जा सकता आयरियपरम्परया पण्णत्तिं दविजलधीणं ।। ६ ।। इस विषयमें अधिक जोर नहीं दिया जा सकता कि Xxxxx इन्द्रनन्दिकथित माघनन्दि और यह माघनन्दि एकही आयरियपरम्परया सायरदीवाण तह य पण्णत्ती। होंगे । संखेवेण समत्थं वोच्छामि जहाणु पुव्वीए ।। १८ ।। इस ग्रन्थमें भगवान् महावीरके बादकी आचार्यxx x xx परम्पराके विषयमें जो कुछ लिस्वा है उसका आशय इस ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृतिं वा । प्रकार है । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता- विपुलाचलके ऊंच शिखरपर विराजमान वर्धमान स्तोतुं परस्य किमु कारयितुईयस्य ।। २२ ।। १ वीरनिर्वाण संवत १००० के लगभग । १. देखो श्रवण बेल्गोला इन्स्क्रिप्शनका १०८ वां २ यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके तत्वानुशासनादि. शिलालेख और जैनसिद्धान्त भास्कर किरण ३ । संग्रह ' नामक १३ व अंकमें छप चुका है।
SR No.542001
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1921
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size17 MB
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