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जैन साहित्य संशोधक
NAARA
वळी सरखावोः-'हे भिक्षुओ ! मांस खावाना हेतुथी वर्णन अने प्रशंसा करीने कहे छ के "स्वच्छताने (आमहणाएला प्राणीनुं मांस जाणी जोईने कोईए खावू नहीं. गंध एटले खराबगंधने ) मारी साथे कोई संबंध नथी. जे कोई ए प्रमाणे करशे ते "दुक्कत " अपराध करशे. हे आम तमे कहो छो ( अने वळी ) हे ब्रह्मबंधु ! सारी भिक्षुओ ! अदृष्ट, अश्रुत, अने अशंकित एम त्रण प्रकारे रीते तैयार करेल पक्षीना मांस साथे मेळवेला भात तमे खाओ जे मांस शुद्ध होय ते खावानी हुं रजा आपुं छु.” छो; तेथी हे काश्यप ! हुँ तमने पूर्छ छु के तमे अशुद्धता( महावग्ग ६, ३१ ना अंतमां) वळी. “ हे मूर्ख ! नो शो अर्थ करो छो ?" आनो बुद्ध उत्तर आपे छ केः (मांस क्याथी आव्युं छे ते ) तपास्या विना तुं शी रीते " जीव” प्राणिओने दुभवां, मारवां,कापा,दांधवां,चोरी ते मांस खाई शके ?.........हे भिक्षुओ! तपास कर्या करवी, असत्य भाषण करवं, छल अने कपट करवु, सार वगर कोईए पण मांस खावू नहीं" ( तेज ग्रंथ ६.२३) वगरनुं वाचवू तेनुं नाम अशुद्धता छे, पण मांसभक्षण
बीजो नियम ए छे के-मांस काचुं न होवू जोईए. नहीं." आनी पछी आ प्रकारना बीजा छ श्लोको आवे (ब्रह्मजाल सुत्त १०, अंगुत्तरनिकाय १९३-१९९, छे जे दरेकनी अंते; "आ ते अशुद्धता छे; पण मांसमज्झिमनिकाय, ३८ विगेरे ) संघमां दाखल थता नवा भक्षण नहीं " आ शब्दो होय छे. अने तेमां कहे छे के पुरुषो माटे वारंवार कहेवामां आव्युं छे के "तेओ काचुं “मत्स्याहार के मांसाहारनो त्याग, नग्नभ्रमण, मस्तक( अन्न ) स्वीकारता नथी [ तेओ काचुं मांस स्वीकारता मुंडन, जटाधारण, धूल-निर्माल्य-भस्मधारण, अग्निहोम, नथी.]"
आ सर्व, मायामाथी जे पुरुष मुक्त नथी तेने पवित्र करी छेवटे महावग्ग (५,२३ ) मां एक विचित्र आज्ञा शकता नथी. वेदाध्ययन, गुरुदान, देवयजन, धर्म करवामां आवी छे-अने हं जाणुं छं त्या सुधी अन्यत्र अथवा शीत सहनद्वारा आत्मदमन, अने एवा बीजां: ते जोवामां आवती नथी. ते स्थळे माणसन, हाथ न अमृतत्वनी इच्छाथी करवामां आवेलां तपो, मायाथी बद्ध घोडान, कुतरानु, सर्पन, सिंहनु, वाघनं. चित्तानं.दीप- पुरुषने पवित्र करी शकता नथी." डानु, रीछर्नु अने तरखुनुं मांस त्यजवा विषे कहेवामां अलबत्, ए वात तो स्पष्ट ज छे के ऊपर जे प्रकारो आव्युं छे. आने आपणे व्यासनी यादीना ( जुओ उपर) वर्णवेला छे तेमां मांसने भिक्षुना भोजनना एक आवश्यअवशिष्ट भाग तरीके गणी शकीए.
क भाग तरीके तो स्थान आपवामां आव्यु नथी ज, पण __ अहिंसोपदेशक धर्मना एक महान् प्रवर्तक मांसना उ- सहेलाईथी जेनो सर्वदा त्याग करी शकाय एवा अपपभोगने धिक्कारे नहीं मांसाहारनो सर्वदा त्याग कर्या वाद रूपे ज मांसने स्थान आपेलुं छे. तथापि बुद्ध तेनो सिवाय पोताना मनोविकारोने जीतवानी एक भिक्षु सर्वथा निषेध करवा इच्छता न हता. अने तेम करवामां इच्छा राखे; आ बधुं, जेम अत्यारे पण बौद्धधर्मना परि- तेमने मुख्य कारण, पोताना उपदेशन ए एक स्पष्ट अने चयमां, जे विचार शील पुरुषो आवे छे तेमने, एक न शाश्वत उदाहरण बताववानी तेमनी इच्छा हती के समजी शकाय एवी गुंचवण लागे छे, तेम ते समये पण “आहारना प्रश्नने धार्मिक शुद्धि-विशुद्धि साथे बिलकुल घणा माणसोने आ विचार आश्चर्यजनक अने अतयं संबंध छे नहीं." लागतो हतो. परंतु ए एक सारी वात छे, के आ विचार- मांसना आ नियत उपयोग सिवाय, आपणा प्रस्तुत नो बुद्ध पोते शी रीते निराकरण करता हता तेनो एक विषयमा बौद्ध अने जैन साधुओमा विशेष भेद नहीं 'पुरावो आपणने मळी आवे छे.
हतो. जैन साधुनी जेम बौद्ध साधुने पण कालजीपूर्वक सुत्त निपातना आमगंध सुत्तमां कोई एक पुरुष बुद्ध- कोई पण प्राणीनी हिंसाथी दूर ज रहेवार्नु हतुं. सुतीनने संबोधे छे; "अने पछी पोताना वनस्पतिभोजीपणान पातमा (धम्मिक सुत्त १९) पण का छे के: