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________________ अंक ४] अनन्तर, नृपति विष्णुका मन्त्री गंग; और उसके पश्चात् नृसिंहदेव नृपतिका मन्त्री हुल्ल । यदि और भी इसके योग्य हैं, तो क्या उनके नाम न लिये जायेंगे ? ११२४ मूर्तिके नीचे के शिलालेखके अतिरिक्त ११८० ई० के लगभग एक और शिलालेखमें इस प्रकार इसका वर्णन है— दक्षिण भारतमे ९ वीं -१० वीं शताब्दीका जैन धर्म । " जिसमें बुद्धिमत्ता, धर्मिष्ठता, वैभव, उत्तमाचरण, और शौर्यका समावेश है, ऐसा राचमल्ल गंगवंशका चन्द्र था, उसका यज्ञ मूमंडल व्यापी था । नृपतिसे वैभव द्वितीय [ उसका मन्त्री चामुण्डराय ], मनुके समान, क्या उसीने अपने प्रयत्नसे यह गोम्मट नहीं बनवाया ? २५ : भुजबलीका वृत्तान्त, किम्बदन्तियोंके आधार पर । तीनों मूर्त्तियां बाहुबली, या भुजबलीको व्यक्त करती हैं, जिनको गोम्मटेश्वर भी कहते हैं और जो जैनियोंके प्रथम तीर्थंकर आदिजिन ऋषभनाथ के पुत्र थे । लोककथाके अनुसार ऋषभनाथ एक राजा थे और उनके दो स्त्रियां थीं, जिनके नाम थे नन्दा ( या कुछ लोगों के मतमें सुमंगला ) और सुनन्दा | नन्दा या सुमंगलाने दो जुडवे उत्पन्न किए, जिनमें एक लडका था और एक लडकी थी और जिनके नाम थे क्रमशः भरत और ब्राह्मी | जब ऋषभदेवने अनन्त ज्ञानकी खोजमें वनवास स्वीकार किया; तब उन्होंने अपने राज्यका भार भरतको सोंपा | बाहुबली और उनकी बहिन सुन्दरी सुनन्दाकी सन्तान थे, और जब उनके पिताने अपने पुत्रोंको राज बांट दिया तो बाहुबली तक्षशिलाके सिंहासनपर सुशो - भित हुए । भरतके पास एक अद्भुत चक्र था जिसका सामना कोई भी योद्धा रणमें न कर सकता था । इस चक्रकी सहायतासे पृथ्वी, विजय करके भरत अपनी २४ देखो, एपिग्राफिमा करनाटिका, भाग २, भूमिका पृ. ३४. हुल्ल होयशालवंशीय नृपति नरसिंह प्रथमका मंत्री था । वह १२ वीं शताब्दी में विद्यमान था । २५ देखो. एपि कर्ना. मा. २, पृ. १५४. मूर्तिके निर्माणके संबंध में यह पंक्ति है - " चामुण्डरायं मनुप्रतिमं गोम्मटं अल्ते माडिदिन् इन्ती देवनं यत्नदिम् " ३ १३५ राजधानीको लौट आया । परन्तु चक्र राजधानी में ( अथवा दूसरों के मतसे - अस्त्रालय में ) प्रविष्ट नहीं होता था । भरतने इसका अर्थ यह समझा कि पृथ्वीमें कोई ऐसा राज्य शेष है जिसको उसने नहीं जीता है; और विचार करनेपर यह फल निकला कि केवल तक्षशिलाका राज्य शेष था, जहां उसका भाई भुजबली राज्य करता था । तब भरतने अपने भाई मुजवली पर युद्ध ठान दिया परंतु उस घोर युद्ध में विजयलक्ष्मी मुजवलीको प्राप्त हुई । भरतके चक्रसे भी मुजवलीको कोई हानि नहीं पहुंची। परन्तु विजयी होनेपर भी इस संसारको असार जानकर मुजबली क्षणभर में समाधिस्थ हो गए । भरतने मुजबलीको वंदना की और फिर अपने स्थानको लौट आए। फिर भुजबली कैलाश पर्वतके शिखरों में चले गए और वहां ( अथवा दूसरे वर्णन के अनुसार — युद्धभूमिमें ) वर्षभर मूर्त्तिकी भांति खडे रहे " तटस्थ वृक्षोंमें लपटी हुई लताएं उनके गलेमें लिपट गईं। उन्होंने अपने वितानसे उनके शिरपर छत्र सा बना दिया और उनके पैरो के बीच में कुश उग आए और देखनेमेंमे वे मानों वल्मीक प्रतीत होने लगे । अन्तमें मुजबलीको केवली ज्ञानकी प्राप्ति हुई और वे अनन्त हो गए । परन्तु एक शिलालेख में यह लिखा है कि मुजबली या बाहुवली और भरत के पिता पुरु थे" । और उसके आगे यह लिखा है कि, – “पुरुदेव के पुत्र भरतने, जिसके चारों ओर उसके पराजित राजा बास करते हैं, प्रसन्न - तासे विजयी बाहुवली केवली की मूर्ति निर्माण कराई जो पौदनपुर के समीप है और ५२५ चाप लम्बी है । बहु समयके अनन्तर अनेक लोक भयकारी कुक्कुट सर्प २६ देखो, जिनसेन रचित हरिवंश पुराण, अध्याय १९ । कुछ भिन्न वर्णनके लिए देखो, कथाकोश ( ट्वेनी द्वारा इंग्रेजीमें अनुवादित ) पृ. १९२ - ९५. २७ देखो, कथाकोश, पृ. १९२-९५. २८ " पुरुसु बाहुबलि वोल् ” एषि. कर्ना. मा. २ शिलालेख नं. ८५, पृ. ६७.
SR No.542001
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1921
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size17 MB
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