Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
Catalog link: https://jainqq.org/explore/034788/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @kkbličke lys Ibollebic 19% 7 RSEENIme, onापन12. Eeehext-2020 : BT 300४८४७ चमत्कारि सावचूरि-स्तोत्र संग्रह तथा वंकचूलिया सूत्र-सारांश. E000600-0 प्रकाशक शाह हीराचंद ककलनाई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat पाठशाळwww.umaragyanbhandar.com | ग Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - SANSAR AM उँ नमःसिझम 1 AAMANASAAS चमत्कारि-सावचूरि-स्तोत्र संग्रहः वंकचूलियासूत्र-सारांशः तथा ..." R-NA मंग्राहक अनं मंशाधक. -- मुनिश्री दान्तिविजयजीमहाराजजी छपावी प्रमिद्ध करनार. शाह. हीराचंद ककलना मेनेजर जैनपाठशाला फनासानी पोल-अमदावाद. - ande मायिक सहायदाता मुनिश्री शान्तिविजयजी महाराजजीना सदुपदेशथी बुलठाणा जिल्लाना गाम लुणार निवासी जैनश्वेताम्बर मृतिपूजक मंघ तर्फथी शेठ हंसगजनी संचेता. विक्रम संवत १९७९ মখাৰাৰ वीर संवत् २४५० प्रत ५०० M PUN AONDA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पुस्तकनी हजार ( १००० ) नकल छपावी, ५०० नकली सतीमंडलनामना पुस्तकमां तेना मालीकनी मदद मलबाथी नेमां दाखल करी छे अने ५०० नकली जुदी प्रसिद्ध कंगे. थी युनियन प्रिन्टिग प्रेस कंपनी लीमीटेड, कालुपुर टंकशाळ ___ अमदावादमां शा. मोहनलाल चमनलाले छाप्यु. .......... ...ass ans Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सूचीपत्र. ॥ । । । नं. ग्रंथर्नु नाम. कर्तार्नु नाम. पृष्टांक . १ एकादश संधाना स्तुतिः विजयदान सूरीश्वर १ यी ८ अवचूरि सहिता शिष्यः २ षट् संधाना स्तुतिः ८ थी ११ अवचूरि सहिता ३ विद्वद्वगोष्टी माक्तन विद्वान् १२ थी १५ ४ नरवृत्तामुकम् १४ - १५ ५ वानरवल्लभाष्टकम् ६ सत्पुरुषाष्टकम् १७ - १८ ७ सजनचित्तवल्लभग्रंथा मल्लिषेण भाषान्तर सहितः ८ श्री अन्तरिक्ष पाश्र्धनाथ ३१ थी ५५ महात्म्य गर्भित पं० भावविजय गणि विरचितं स्व चरित्रम् ९ , हिदिभाषान्तर ४६ थी ६३ मुनीश्री शान्तिविजयजी १० श्री वंकचूलियासूत्र-सारांश: ले०-, ६४ यी ७५ गुजराति भाषामा ११ शुदि पत्रक. ७६ थी मुनीन्द्रः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्पणपत्रिका ॥ शान्त्याद्यनेक गुणगणालंकृत परम पूज्य प्रातःस्मरणीय परम गुरु स्वर्गस्थ पन्यासजी महाराज श्री श्री श्री उमेदविजयजी गणीश्वरजी महाराजजी . तथा ___ उपरोक्त विशेषण विशिष्ट विहरमान जैनाचार्य श्री श्री श्री विजयवीर सूरीश्वरजी महाराज जी, ____ आपश्रीनी पूर्ण कृपाथी मारामां अनेक गुणो उद्भव्या. सम्यक् दर्शन-झान-तथा चारित्रनु भाजन बन्यो अने भगवती जेवा गहन सूत्रोने वांचवा समर्थ थयो, वली लुणार नामना गाममां कुपंथीने हठाववामां समर्थ थयो, ते पण आप महात्माओनो पूर्ण कृपार्नुज फल छे इत्यादि अनेक गुणोथी प्रेराइ आ लघु पुस्तक आपश्रीना करकमलमा अर्पण करुछु ते कृपया स्वीकारी कृतार्थ करशो एवी आशा राखुछु. ली. कृपाकांक्षी कान्तिविजय. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥किंचिवक्तव्य॥ समय गया भावार्थ र विशेष मारो संस्कृत विषयक अभ्यास चालतो हतो ते अवसरे, परमपूज्य गुरुवर्य तरफथी, स्तुतिओ (स्तोत्रो.). मुखपाठ करवा माटे, आ पुस्तकमां प्रसिद्ध थयेल. नंबर. १ थी ७ सुधीनां स्तोसोनां पांनानी एकेक नकल, मने प्रसन्नता पूर्वक बक्षीस थइ हती, ते स्तोत्रोनो भावार्थ न समजी शकबाथी केटलोक वखत पोथीमां बांधी साथेज फेरव्यां. केटलोक समय गया बाद साधारण अभ्यास यवाथी स्तुतिओनो भावार्थ कांइक समजवा लाग्यो, तेथी तेना उपर विशेष प्रीति यइ अने तेथीज तेने बे चार दखत वांची, अशुद्धिने बुध्यनुसार सुधारी, प्रेस कोपी करो राखी. प्रेस कोपी पण घणो वखत पासे रही अनुक्रमे धर्म श्रद्धालु शाह हीराचंद ककलभाइनो समागम थवाथी कोइ पुस्तकमां दाखल करवा सारु प्रेस कोपी तेमने स्वाधीन करी हती. अवसर आववाथी ते ग्रंयो तेमणे छपाववा शुरु कर्या अने मने खबर आपी ते वखते में अन्तरिक्ष पाश्र्धनाथनी यात्रा करी त्यांनी हकीकतवालु:एक (८ मु.) स्तोत्र मेलव्यु हतु, तेने सुधारी तेनी प्रेस कोपी करी ते पण तेमने मोकली दीधु. वली बीजी वखत यात्रा करवा जवु ययु, ते वखते तेज स्तोत्रनो संस्कृत भाषायी अज्ञ लोकोने पण लाभ मले तया वराड खानदेश विगेरेमां वस्ता जैनो गुजराति भाषायी अजाण होवायी तेमने पण लाभ मले तेवा हेतुथी तेनु हिदि भाषामा भाषान्तर सखीने (९ मा स्तोत्र तरीखे) हिराचंदभाइ उपर मोकली आप्यु. www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो के हिंदी भाषानो अनभ्यास होवाथी अने मातृभाषा गुजराति होवाथी हिंदिमां लखबुं ते हास्यास्पद थशे एम जांणवा छतां पण उपरोक्त देशना लोकोने तेवी भाषा पण समजाशे एवी अनुभव सिद्ध खात्री थवाथी, तेवी भाषा लखवामां पण उत्साह थयो तो ते भाषाज्ञ पुरुषोए लेखकनी भाषाना दोष तरफ दृष्टि न करतां दोषोने दूर करी गुण ग्राही बनवा विनंति करवामां आवे छे तथा अंतरिक्ष पार्श्वनाथजोनी बोजीवारनी यात्रा करी. लुगार गाममां चोमासु थयु त्या ढुंढक साधु साथे विवाद थयो. कुपंथनु खंडन कयु. परिणाममां (१५०) दोहसो भाइयो बहेनोए ढुंढक पंथ छोडी ढुंढक पंथ सूचक तोबरो (मुहपत्ति) तोडी मिथ्या पडल फोडी सम्यक्त्व साथे प्रीति जोडो. सुद्ध देववीतरागनी मूर्तिने पूजता थया अने संवेगी गुरुने मानता थया, तथा होंदु धर्मना महान् गुरु कोलापुरना रहोश श्रीमत् शंकराचार्यजीनी सभामां. उपरोक्त ढुंढक मुनि पोताना धर्मनी प्राचीनताने सिद्ध न करी शकवाथी पलायन करी गया, तेथी मंदीर मार्गी लोकोने ढुंढक मतनी उत्पत्ति जा. णवानी इच्छा थइ अने घणो आग्रह करवायी ढुंढक मतनी हकीकतने प्रगट. करनार वंकचूलीया सूत्रनो टुकमां सारांश गुजराति भाषामां लखी, श्रेष्टी वर्य श्री हीराचरभाइ उपर (१० मा ग्रंथ तरीके मोकली आप्यो. आ ग्रंथ छपाववा दरम्यान मारो विहार चालु होवाथी सर्वे फरमाओ सुधारवा मोकलाइ शकाया-नही तेयी केटलेक स्थले विशेष अशुद्धि रही, माटे शुद्धि पत्र करचु परयुं छे तेयो मुद्धि पत्र जोइ सुधारी वाचवा तस्दी लेशो तो महेनत सफल www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशे, वली शुद्धि पत्रक करवा छतां पण दृष्टि दोषने लइने काइ अशुद्धि रही होय तेने सज्जन पुरुषो सुधारी वांचशे अने लखी जणावशे तो पुनरावृत्तिमां तेनो सुधारो करवा सूचनानो उपयोग यशे. ए रीते आ पुस्तकमां नाना नाना दश ग्रंथो प्रसिद्ध थवा पाम्या छे. आ पुस्तकने छपाववामां उपरोक्त श्रेष्टीवर्य श्री होराचंदभाइये घणीज महेनत लोधी छे तेथी आ स्थले तेमनो धन्यवाद आपवो योग्य छे, तेनी साथे आवा उत्तमोत्तम कार्यों करवामांज तेमणे पोतानी संपूर्ण जींदगी अर्पण करी छे ते जांणी कयो पुरुष तेमने धन्यवाद आप्या शीवाय रहेशे इतिशम्. ॐ शान्तिः ३ सी. पंन्यास पदालंकृत श्रीमान् उमेद विजयजी गणीश्वर चरणोपासक मुनि कान्तिविजय. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश संधाना स्तुतिः। - - प्रणम्य श्रीजिनेशानां पदपंकजयामलम् । सर्वेषां विद्यमानानां, भूतानां भाविनां तथा ॥१॥ खंडेरखंडैर्यमकैरनेकैः, पदैर्मयैकादशधा क्रियेत । एकस्तुतेरप्यवधार्य सम्यग् , व्याख्यानमाख्यां स्वगुरोः स्वचित्ते ॥२॥ तद्यथाश्रीनाभिनन्दन-जनेषु कुरुष्व शांते-नेमेगुणप्रवरपार्श्वगवर्द्धमानः। शान्ति सतामभयदाकरतागमाई-द्यक्षपभो विजयदानगुरोः प्रसन्नः॥१॥ इति श्रीआदिनाथ १ श्रीअभिनन्दन २ श्रीशान्तिजिन ३ श्रीनेमिनाथ ४ श्रीपार्श्वनाथ ५ श्रीमहावीर ६ श्रीसाधारण ७ जिनानां स्तुतिः तथा श्री५ विजयदानमरींद्राणां स्तुतिः संपूर्णा । व्याख्या-हे श्रीनाभिनंदन! नाभेर्नन्दनो नाभिनन्दना, श्रियाचतुस्त्रिंशदतिशयसमृद्धिरूपया ज्ञानसंपद्रूपया वा, उपलक्षितः ना. भिनन्दनः श्रीनाभिनन्दनः तस्य संबोधनम्, हे श्रीनाभिनन्दन ! हे श्री आदिनाथ ! जनेषु सताम्-शान्तिम्-क्षुद्रोपद्रवनाशरूपाम् । त्वं कुरुष्व-निष्पादयं इत्यन्वयः, शान्ति कि विशिष्टाम् ? सना-सह तया लक्ष्म्या वर्तते या सा सता नां सतां लक्ष्मोसहितां शांति कुरुष्वत्यर्थः । हे शान्ते ! शान्त्यात्मकत्वात् तत्कृर्तृत्वाचेति शान्तिः तस्य संबोधनम् ! हे अनेमे ! न विद्यते नेमिः शस्त्ररूपं चक्रं यस्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावनेमिः तस्य संबोधनम्, न तु लक्षणरूपम्, भगवतः पाणिपादादौ लक्षणरूपचक्रस्य सद्भावात्। त्वं किं विशिष्टः ? गुण प्रवरपार्श्वगवर्द्धमानः-गुणैः प्रवरा उत्तमाः पार्श्वगाः पुंडरीकादयो विनेयविशेषा यस्य स तथा हे अभयदाकरतागम ! तत्र भयम् इहलोकादिसप्तधा अथवा रोग-जल-ज्वलन-विषधर-चौर-रिपु-मृगेंद्र-गज-रणादिरूपं, दि-दु-दा-छेदबंधनयोः इत्येकाक्षरनाममालावचनाद् दा-शब्देन छेदो बंघो वा वाच्यः, तत्र छेदो-हस्तपादाद्यवयवानां, बंधा-पाणिपादकंठादिषु निगडादिभिधो बन्धनं, अकं-सामान्यतया दुःखं, रतमैथुनं, भयदाकरतपदैर्द्वन्द्वः, न विद्यते भयदाकरतानां आगमो यस्य यस्माद्वा स अभयदाकरतागमः तस्य संबोधनम् । केषाम् ? सताम्उत्तमानां वा इति अत्र षष्ठयन्तम् सतामिति पदं व्याख्येयं अथवा हे अभयदाकर ! दु-दांक दाने, विपि, दा-दानं । अभयस्य दांदानं करोतीत्यभयदाकरस्तस्य संबोधनम् । हे तागम ? ताया:लक्ष्म्या आगमो यस्य यस्माद्वा स तागमस्तस्य संबोधनम् । केषां ? सतामिति पूर्ववत् । यद्वा हे अभयद ? त्रिभुवनोदरविवरवर्तिनां प्राणिनां न कदाचिदपि भयं-पूर्वोक्तप्रकारं ददातीति अभयदस्तस्य संबोधनम् । अथवा हे अभयद ! हे सर्वज्ञ ! " स्याद्वाद्यभयदसार्वाः सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ” इत्यभिधानचिंतामणिवचनात् । हे आकरतागम ! रत्नसुवर्णरूप्पादीनां आकरेभ्यः ताया-लक्ष्म्या आगमः समागमनं यस्य स आकरतागमस्तस्य सम्बोधनम् । यद्वा हे अकरतागम ! अकं-दुखं, रतं-मैथुनं, “आः मंतापेऽव्ययः क्रुच्या"मित्येकाक्षरवचनात् आः-संतापः एभित्रिभिः पदैर्द्वन्द्वः www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकरतानां गमो-गमनं यस्य यस्माद्वा सोऽकरतागमस्तस्य संबोधनम् । केषां ? सतामितिपूर्ववत् । हे अद्यक्षप्रभो ! यक्षाणां प्रभव:स्वामिनः उपलक्षणखात् । भवनपतिव्यंतरज्योतिष्कवैमानिकविद्याभृत्मानकानां स्वामिनो गृह्यते ततोऽन्तः-पूजयन्तो यक्षप्रभवो यस्य यस्मै वा सोऽहंद्यक्षप्रभुस्तस्य संबोधनम् । यद्वां त्वं किं विशिष्टः ? अद्यक्ष:-अर्हन्तः-पूजयन्तो यक्षा देवविशेषा यस्य यस्मै वा स तथा। त्वं किं विशिष्टः ? प्रभः-प्रकृष्टा भा कान्तिर्यस्य स प्रमः, यद्वा हे प्रभो ! हे स्वामिन् ! त्वं किं विशिष्टः ? प्रसन्नः, कस्य ? विजयदानगुरोः, अथवा हे विजयदानगुरो! विशिष्टो जयो विजयस्तस्य दानं विजयदानं तेन गुरुमहान् विजयदानगुरुस्तस्य संबोधनम् । यद्वा हे विजयदानगुरो ! विजयं च दानं च विजयदाने ताभ्यां गुरुविजयदानगुरुस्तस्य संबोधनम् । यद्वा हे विजयदान ! विजयस्य दानं यस्य स तथा तस्य संबोधनम् । हे गुरो ! गृणान्ति तत्त्वमिति गुरुस्तस्य संबोधनम् । अथवा हे विजय ! विशिष्टो जयो यस्य स तथा तस्य संबोधनम् । हे दानगुरो !दानेन गुरुर्दानगुरुस्तस्य संबोधनम् । त्वं किंविशिष्टः ? प्रसन्नः, केषां ? सतामित्यत्रापि संबंधनीय मिति प्रथमस्तुत्यर्थः इयं च यदा मूलनायकः श्रीआदिदेवो भवति तदा तमधिकृत्य प्रथममेव भणनीया ॥१॥ अथ चेन्मूलनायकः श्रीअभिनन्दनस्तदा तमाश्रित्यापीयमेवप्रथमं वक्तव्या तत्र चेत्थमर्थः प्रतन्यते तथाहि हे श्रीन ! श्री:-पूक्तरूपा तस्या इनः-स्वामी श्रीनस्तस्य संबोधनम् । हे अभिनन्दन ! यद्वा श्रीनश्चासावभिनन्दनश्च श्रीनाभिनन्दनस्तस्य संबोधनम् । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनेषु-लोकेषु, सतां-लक्ष्मीसहितां शान्ति कुरुष्व, त्वं किं विशिष्टः? गुणप्रवरपार्श्वगवर्द्धमान:-गुणैः प्रवराः पार्श्वगाः शिष्यविशेषास्तैर्वर्द्धमानः शेष सर्व श्रीवृषभजिनपक्षवदिति द्वितीयस्तुत्यर्थः ॥२॥ ___ अथ यदि मौलं बिम्बं श्रीशान्तिजिनस्यास्ति तदा तमेव जिनं स्वीकृत्य इयं स्तुतिः पूर्व वक्तव्या तदा चायमर्थः प्रकटीक्रियते हे . शान्ते ! सतां लक्ष्मीकलितां शान्ति कुरुष्व केषु ? श्रीनाभिनन्दनजनेषु श्रिया इनाः, अभिनंदयन्तीत्यभिनन्दनाः, श्रीनाश्च अभिनन्दनाश्च श्रीनाभिनन्दनाः श्रीनाभिनन्दनाश्च श्रीनाभिनन्दनजनास्तेषु । अथवा जनेषु इति पृथकपदं हे श्रीन ! श्रीपते ! हे अभिनन्दन ! अभिनन्दयतात्यभिनन्दनस्तस्य संबोधनम् , हे हर्षकर ! केषां सतामितिपदं षष्टीबहुवचनान्तम् योजयितव्यम् , अन्यच्छेषं श्रीयुगादिजिनपक्षवदिति तृतीयस्तुत्यर्थः ॥३॥ यदा मूलनायकः श्रीनेमिजिनस्तत्र तमंगीकृत्याप्येषा एवोचार्या तत्र चार्थ एवं स च यथा हे नेमे ! सतां शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्रीनाभिनंदनजनेषु, त्वं किं विशिष्टः ? गुणप्रवरपाश्चगवर्द्धमानः इति श्रीशान्तिपक्षवदिति चतुर्थस्तुत्यर्थः ॥४॥ यदा कुत्रचित् मूलनायकः श्रीपार्श्वनाथस्तदा इयमेव तमुररीकृत्यं पूर्व वाच्या, तत्र च व्याख्यानविधिरयं तथाहि-हे पार्थ ! सतां लक्ष्मी सहितां शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्रीनाभिनंदनजनेषु, इति पदं श्री शान्ति जिन पक्षवत, हे शान्ने ! हे अनेमे ! हे गुणप्रवर ! गुणैः प्रवरः गुणप्रवरस्तस्य संबोधनम् । त्वं किं विशिष्टः ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवर्द्धमानः गोर्वाणी तया ऋद्धो-वृद्धि प्राप्तो, मानः-पूजाविशेषो, यस्य स तथा ऋधूद-वृद्धौ क्तप्रत्यये ऋद्ध इति गोशब्दस्य ऋद्ध इति, परे " स्वरे वानक्षे” इति सूत्रेणाव इत्यादेशे कृते सति " अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल" ( सि० १।२।६।) इति सूत्रेणार गवर्द्ध इति सिद्धं । अथवा हे गवर्द्ध ! गवा "संस्कारवत्वमौदात्यम् " ( अभि० प्र० का० श्लो० ६५) इत्यादि पंचत्रिंशद्वाग्गुण संयुक्तया वाण्या ऋद्ध-आद्यो गवर्द्धस्तस्य संबोधनम् । यदा हे ऋद्ध ! हे आद्य ! कया ? गवा-पूर्वोक्तरूपया वाण्या, त्वं किं विशिष्टः ? मानः-मां-लक्ष्मी नयति-प्रापयति इति मानः, केषां? सतामित्यत्रापियोज्यम्, शेषं सर्व श्रीऋषभपक्षवदिति पंचमस्तुत्यर्थः ॥ ५॥ अथ यदि मूलनायकः श्रीमहावीरस्तदाप्येषा एव तमुररीकृत्य पूर्व वक्तव्या तत्र चेत्थमर्थः प्रथनीयः स च यथा-हे वर्द्धमान ! सतां-लक्ष्मी समन्वितां शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्री नाभिनन्दनजनेष्विति श्री शान्तिजिनपक्षवद् व्याख्येयम् । हे शान्ते ! हे अनेमे ! हे गुणप्रवरपाश्चग ! गुणैः प्रवराः पार्श्वगाः श्रीगौतमादयो विनेयविशेषा यस्य स तथा तस्य संबोधनम् । शेषं सर्व श्रीकृषभपक्षवदिति षष्ठमस्तुत्यर्थः ॥ ६॥ नन्वेतद्वयतिरिक्तेषु मूलनायकेषु सत्सु कथं तत्संबंधिनी स्तुतिभवति ? उच्यते तदा विवक्षाप्राधान्यादग्रगं एक कंचिन्जिनमधिकृत्य पूर्व पठनीया, तत्र चैवमर्थों व्याक्रियते तद्यथा-हे अभयद! हे जिन! त्वं सतां-लक्ष्मी संयुतां शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्रीनाभिनन्दनज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेषु, त्वं किं विशिष्टः? गुणप्रवरपार्श्वगवर्द्धमान इत्येतच्छ्रीशान्तिजिनपक्षवदित्यक्सेय ह आकरतागम ! आकरात् पूर्वोक्तात्, तायालक्ष्म्या, आगमो यस्य स तथा तस्य संबोधनम् । यद्वा हे अकरतागमेति पूर्ववद् व्याख्येयं शेषमन्यत्सर्वं श्रीयुगादि जिनपक्षवदिति सप्तमस्तुत्यर्थः ॥७॥ ___ अथ समस्तजिनवरकदम्बकमुद्दिश्य द्वीतीयवारमपीयमध्य यनीया तत्र चैवमर्थ आविष्क्रियते स च यथा-हे अभयदाकर ! अभदा जिनास्तेषामाकरः समूहोऽभयदाकरस्तस्य संबोधनम् । " यथा निकरस्तथाऽऽकरोऽपि सम्रहार्थेऽस्त्यभिधानचिंतामण्यवचूरौ।" त्वं सतां-कमलान्वितां, शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्रीनाभिनन्दनजनेषु इति, गुणप्रवरपार्श्वगवर्द्धमान इति च श्रीशान्तिवत्, हे तागम ! ताया-लक्ष्म्या आगमो यस्य यस्माद्वा स तागमस्तस्य संबोधनम् । शेषं सर्वं श्रीयुगादिदेववदिति अष्टमस्तुत्यर्थः ॥८॥ ___अथ सिद्धान्त मभिप्रेत्य तृतीयवारमपि एषा एवोच्चारणीया तत्रायमर्थः यथा हे आगम ! सतां-पूर्वोक्तां शान्ति त्वं कुरुष्व, केषु? श्री नाभिनन्दनजनेषु इति श्रीशान्ति जिनवत्, हे अनेमे ! न विद्यते नेमाऽवधिर्मर्यादा खंडो वा यस्या सा अनेमा, अनेमा निःसीमा अखंडा वा ईलक्ष्मीर्यस्य सोऽनेमेस्तस्य संबोधनम् । “धर्मे दानादिके नेमस्त्वर्द्धमाकारगर्तयोः, अवधौ कैतवे काले" (द्वि० का० श्लो० ३३६-३३७ )इत्यनेकार्थवचनात् । यद्धा हे अनेमे ! नेमा-कैतवं इ. कामश्चेति द्वन्द्वः ततो न भवतः नेमयौ कैतबकामौ यस्मात् सोऽनेमेस्तस्य संबोधनम् । हे अनेमे ! त्वं किं विशिष्टः ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणप्रवरपार्श्वगवर्द्धमानः-गुणैः प्रवराः पार्श्वगाः आकर्णयितागे जनास्तैर्द्धमानः। हे अभयदाकरत ! न विद्यते भयदाकरतानि पूर्वोक्तरूपाणि यस्मात्स तथा तस्य संबोधनम् । इत्येक एवार्थः । अन्यत्सर्व श्रीआदिदेववदिति नवमस्तुत्यर्थः॥९॥ __ अथाविष्टायकदेवं समुद्दिश्य चतुर्थवारमप्येषैव कथनीया तत्रायमर्थः प्रादुष्क्रियते यथा हे अईद्यक्षपभो ! यक्षाणां प्रभुः यक्षप्रभुः अहंतः यक्षप्रभुरहंद्यक्षप्रभुस्तस्य संबोधनम् । अथवा हे अहंद्यक्ष ! हे प्रभो ! हे स्वामिन् ! इति पृथक् पद, त्वं सतां लक्ष्मीयुक्तां शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्री नाभिनन्दनजनेषु इति श्रीशान्तिदेववदेव । त्वं किं विशिष्टः ? गुणप्रवरपार्श्वगबर्द्धमानः-गुणैः प्रवराः पार्श्वगा देवदेव्यादयो भृत्यास्तवर्द्धमानः। हे अभयदाकर ! हे तागम ! इत्यामंत्रणद्वयं प्रकारान्तरेण द्वितीयवार पूर्वं व्याख्यात तथैवैकोऽर्थः अन्येषामर्थानामसंभवित्वात् अन्यत्सर्व श्रीऋषभजिनपक्षवदिति दशमस्तुत्यर्थः॥१०॥ अथाभीप्सितगुरुवर्णनत्वेनेयमपि स्तुतिः प्रकटनीया तत्रार्थों यथा-हे विजयदानगुरो! सतां लक्ष्मीसहितां शान्ति कुरुष्व, केषु ? श्रीनाभिनन्दनजनेषु इति श्रीशान्तिवत् । त्वं किं विशिष्टः ? गुणप्रवरपार्श्वगवर्द्धमानः-गुणैः प्रवराः पार्श्वगाः श्रीहोरविजयसूरिप्रमुखा विनयविशेषास्तैर्वर्द्धमानः, त्वं किं विशिष्टः ? प्रसन्नः, केषां ? सतां अन्यत्सर्व श्रीमारुदेवदेववदिति एकादशमोऽर्थः ॥११॥ गोति:-श्री विजयदानसूरे विनेयशिशुना कृता स्तुतिरियं तां । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशधियन्तु विबुधाः येऽमत्सरा मय्यनुग्रहं कृत्वा ॥१॥ इति श्रीआदिनाथ १ श्रीअभिनन्दन २ श्रीशान्ति ३ श्रोनेमि ४ श्रीपाच ५ श्रीवीर ६ श्रीसाधारणजिनानां ७ तथा श्री५विजयदानसूरींद्राणां स्तुत्यवचूरिः संपूर्णा ॥ ॥ षट् सन्धाना स्तुतिः ॥ श्रीमत्सान्निमस्कृत्य, सर्वानेकस्तुतेग्यिम् । व्याख्या प्रतन्यते षड्भिः, प्रकारैर्बोधहेतवे ॥१॥ सा चेयम्-श्रीवर्द्धमानाजितभारतीशा, वृधोधरायां यशसांभसेव । खमेववल्लीजिनराजराजी-स्तुतानिशं संमददाप्नपुंसाम् ॥१॥ इति श्रीअजितनाथ १ श्रीवीरजिन २ श्रीसाधारण ३ जिनानां स्तुतिः संपूर्णा ॥ __ व्याख्या-हे श्रीवर्द्धमान ! श्रियाऽष्टमहापातिहार्यरूपया वर्द्धमानस्तस्य संबोधनम् । हे अजित ! यहा श्रिया वर्द्धमानश्चासौ अजितश्चेति कर्मधारयस्तस्य संबोधनम् । हे भारतीश ! भया-कान्त्या रतीशः कंदर्पः स तथा तस्य संबोधनम् । कंदर्पवदूप इत्यर्थः। हे जिन ! जयति रागादिशत्रुनिति जिनस्तस्य संबोधनम्। हे राजराजीस्तुत ! राज्ञां-भूपतीनां राजी-श्रेणिस्तया स्तुतस्तस्य संबोधनम् । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्वा हे जिनराजराजीस्तुत ! जिना:-सामान्य केवलिना, राजानश्च प्रतीता एव, तेषां राजी-श्रेणिस्त या स्तुतस्य संबोधनम् । कथम् ? अनिशं निरंतर हे संमदद ! संमदो हर्षरतं ददातीति संमददस्तस्य संबोधनम् । केषाम् ? आप्तपुंसाम् आप्ताः-सत्याः ये पुमांसस्तेषामित्यर्थः " आप्तो लब्धे च सत्ये चाप्पाप्तिः संबद्धलाभयो " (द्वि० का श्लो० १७२) रित्यनेकार्थवचनात् । यद्वा हे संमदद ! सम्-सामस्त्येन, मदं द्यति-च्छिनत्तीति संमददः तस्य संबोधनम्, केषां? पुंसां, हे आप्त! देवाधिदेव ! "देवाधिदेव-बोधिद-पुरुषोत्तम-वीतरागाप्ता" (प्र० का० श्लो० २५) रित्यभिधानचिन्तामणिवचनात् । त्वमेव, धरायां-पृथिव्यां, यशसा अधः वृद्धि प्राप्तवानित्यर्थः, अत्र एवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः, इव यथा, अंभसा-वारिणा, वल्ली, वृद्धि प्राप्नोति तथा खमपि यशसा वृद्धि प्राप्तवान् । ननु अवृध इति क्रियापदं आत्मनेपदिधातुत्वात्कथं संजाधटीतीति चेदुच्यते "युद्भ्योऽद्यतन्यां वे" ति (सि०३।३।४४३) सूत्रेणाद्यतनीविषये धुतादीनां धातूनाम् आत्मनेपदस्य वैकल्पिकत्वात्परस्मैपदमिति " लुदि यतादि पुष्पादेः परस्मै (सि०३ । ४।६४) इति सूत्रेण कर्तर्यङ् डिम्वान्नगुणः इत्यादिनाऽवृधः इति प्रयोगसिद्धिः इयं कदा श्रीअजितनाथ एव मूलनायकस्तदा तं जिनं स्वीकृत्य प्रथममध्ययनीया इति प्रथमस्तुत्यर्थः ॥१॥ यदा श्रीवीरजिनो मूलनायकस्तदापीयं तमंगीकृत्य पूर्व वक्तव्या तत्रचेन्थमर्थः प्रतन्यते-यथा हे श्रीवर्द्धमान! श्रिया-पूर्वव्यावर्णितरूपया युतो बर्द्धमानः श्रीवर्द्धमानस्तस्य संबोधनम् । हे आजितभार www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीश ! आसमन्तात् जितो भया कात्या रतीशो येनासौ आजितभारतीशस्तस्य मंबोधनम् । अथवा हे अजित ! न जितो देवेन्द्रादिभिरित्यजितस्तस्य संबोधनम् । हे भारतीश ! इति पूर्ववत् । यद्वा हे अजितभ ! अजिता भा कान्तिर्यस्यासौ अजितभस्तस्य संबोधनम् अनेनानुपमकान्तिमचं मूचितम् । हे अरतीश ! न विद्यते रतीशः कंदो यस्यासौ अरतीशस्तस्य संबोधनम् । त्वमेव धराया यशसाऽघः अन्यच्छेषम्-श्रीअजितजिनपक्षवदिति द्वितीयस्तुत्यर्थः ॥२॥ यदैताभ्यां तीर्थकृयामन्यः कश्चिन्मूलनायकस्तदा विवक्षामाधान्यादेव तं अग्रग जिनं चेतसि अधिकृत्य एषापि पूर्वमुच्चार्या तत्राऽर्थी यथा हे आप्त! हे जिनेश्वर ! खमेव धरायां यशसाऽधः हे वर्द्धमान ! इत्यजित जिनवत् हे आजितभारतीश ! अस्यार्थस्त्रिधापि श्रीवीरपक्षवत् शेषं सर्व श्रीअजितपक्षवदिति तृतीयस्तुत्यर्थः ॥ ३॥ अथ समस्त जिनवरश्रेणिमुद्दिश्यापि द्वितीयवारमेषैव भणनीया तत्र चायमयः प्रकाश्यते यथा हे जिनराजराजि ! जिनानां सामान्यकेवलिनां मध्ये राजते शोभन्ते इति जिनराजास्तेषां राजी-श्रेणिः सा तथा तस्याः संबोधनम् । त्वमेव धरायां यशसा अधः त्वं कि विशिष्टा ? ईस्तुता ईर्लक्ष्मीस्तया स्तुना । श्रीवर्द्धमाना इत्यजित जिनवत् । आजितभारतीशा अस्यार्थो द्विधाऽपि श्रीमहावीरवत् परं स्त्रीलिंगकर्तविशेषणत्वेन व्याख्येयमित्येतत्पदद्वयम् । हे अजित ! हे भारतीश! इत्यामंत्रणद्वयस्य स्त्रीलिंगेऽसंभवित्वादत्र नोररोकृतं । त्वं किं विशिष्टा ? संमददा संमदो हर्षस्तं ददातीति संमददा, केषाम् ? आप्तपुंसां अन्यच्छेषं श्रीअजितपक्षवदिति चतुर्थस्तुत्यर्थः ॥ ४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रुतज्ञानहेतुभूतां श्रीभगवगिरमाश्रित्य तृतीयवारमपीयं कथितव्या तत्रार्थों यथा हे अजितभारति ! न जिता कुतीथिकं वादि भिरित्यजिता अजिता चासौ भारती चाजितभारती तस्याः संबोधनम् . केषां ? जिनानामितिगम्यं । त्वमेव धरायां यशसा अधः। त्वं किं विशिष्टा ? श्रीवर्द्धमाना। पुनः किं विशिष्टा! ईशा स्वामिनी। यद्वा, ईशा समा। त्वं कि वशिष्टा ? जिनराजराजीस्तुता, जिना:छद्मस्थवीतरागाः केवलिनो वा राजानश्च तेषां राजी श्रेणिस्तया स्तुता। कथमनिशं, त्वं किं विशिष्टा? संमददा केषां ? आप्तपुंसाम् । दृष्टान्तस्तु श्रीअजितजिनपक्षवदिति पंचमस्तुत्यर्थः ॥५॥ अथाधिष्टायिका सरस्वतीदेवी.उररीकृत्य चतुर्थवारमप्येषा एव वाच्या, तत्र चैवमर्थः कथ्यते तद्यथा हे अजितभारति! न जिता देवादिभिरित्यजिता अजिता चासौ भारती चाजितभारती तस्याः संबोधनम् । खमेव धरायां यशसा अवृधः, त्वं किं विशिष्टा ? श्रीवर्द्धमाना। पुनस्त्वं किं विशिष्टा, ईशा इति श्रीभगवद्र्वित् , त्वं किं विशिष्टा ? जिनराजराजीस्तुता इत्यपि भगवद्भिर्वत् , परं तत्संबंघिस्वरूपकथनेन । त्वं किं विशिष्टा? संमददा, केषां? आतपुसां अर्थः सर्वोऽपि श्रीअजितजिनवदिति षष्ठमस्तुत्यर्थः ।।६॥ श्रीमद्विजयदानाह्व-मूरीन्द्राणां प्रसादतः। मयाऽस्याः संस्तुतेष्टीका कृता संशोध्यतां बुधैः ॥१॥ इति श्रीअजितजिन ? श्रीविरजिन २ श्रीसाधारणजिनानां ३ स्तुत्यवचूरिः संपूर्णा । ग्रंथाग्रं १७५ संवत् १६१९ वर्षे कार्तिक वदि अष्टम्यां गुरौ लिखितं पुस्तकमिदं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथविद्वद्गोष्टी॥ श्रीभोजराजसभायां, पंचशतपण्डितपूरितायां, विद्यागुणगोष्ठयां, जायमानायां । श्रीधनपालपंडितेन, जिनधर्मरतेन, राज्ञोऽग्रे मोक्तम् येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न चापि शीलं, न गुणो, न धर्मः (न च धर्मबुद्धिः) ते मर्त्यलोके भूवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ १॥ इति पण्डितवचनं श्रुखा मृगः पाह-ममेनरोपमानं कस्मादुच्यते-यतः-स्वरे शीर्ष जने मांसं, खचं च ब्रह्मचारिणि । शङ्ग योगीश्वरे दद्यां, मृतः स्त्रीषु स्वलोचने ॥२॥ तेन ममैवंविधमनुष्योपमानं न युक्तं, ततः, पुनरपरपण्डितेनोक्तयेषां न विद्या० मनुष्यरूपाः पशवश्चरन्ति ॥३॥ ___इति श्रुत्वा गौराहतृणमपि दुग्धं धवलं, छगणं गेहस्य मण्डनं भवति (परमं)। रोगापहारि मूत्रं, पुच्छं सुरकोटिसंस्थानं ॥४॥ तेनैतदप्युपमानं न युक्तम्, ततोऽन्येनोक्तम् येषां न विद्या० मनुष्यरूपाणि तृणानि मन्ये इति श्रुत्वा तृणजातिराह-गवि दुग्धं रणे ग्रीष्मे, वर्षाहेमंनयोरपि । नृणां त्राणमहं स्यां तत् , तत्समत्वं कथं मम ॥६॥ सामान्योपमानं महतां न रोचते-(अपरेणोक्तम् ) येषां न विद्या० मनुष्यरूपैश्च भवन्ति वृक्षाः ॥७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्षाः प्राहु:-च्छायां कुर्मों वयं लोके, फलपुष्पाणि दद्महे । पक्षिणां सर्वदाधारा, गृहादीनां च हेतवः ॥८॥ परोपकारिणां निरुपकारिणां साम्यं कथं ? पुनः कवीश्वरेणोक्तम्येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण हि धूलिपुत्राः ॥९॥ इति श्रुत्वा रेणुराह- कारयामि शिशुक्रिडां, पङ्कनाशं करोमि च । मत्तोऽजनि रजःपर्व, लेखे क्षिप्तं फलप्रदम् ॥१०॥ पुनरपरेण विदुरेणोक्तम्-येषां न विद्या मनुष्यरूपा भषणस्वरूपाः ॥११॥ ततः श्वा प्राह-स्वामिभक्तः सुचैतन्यः, स्वल्पनिद्रः सदोद्यमी। अल्पसंतोषवान् शूरः, तस्मात् तत्तुल्यता कथम् ॥१२॥ तेन ततोऽधिक गुणोऽहम् कथं समः, पुनः प्रवीणेन प्रोक्तम्-येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण खराः स्फुरन्ति इति श्रुत्वाखरःप्राह-शीतोष्णं नैव जानामि, भारं सर्व वहामि च । तृणभक्षणसंतुष्टः, सदाऽपि प्राज्वलाननः ॥ १४ ॥ पुनः कोविदेन गदितम्- येषां न विद्या मनुष्यरूपेण भवन्ति काकाः॥ इत्युक्ते काका प्राह-प्रियं दूरं गतं गेह-माप्तं जानामि तत्क्षणात् । न विश्वसामि कस्यापि, काले चालयकारकः ॥१६॥ अहं तु बहुगुणः कथं तत्सदृशःस्याम् ? पुनरपरो निपुणो बभाणयेषां न विद्या० मनुष्यरूपेण भवन्ति चोष्टाः उष्टः प्राह- वपुर्विषमसंस्थानं, कर्णज्वरकरोरवः । करमेणाशु गत्यैवाऽच्छादिता दोषसंततिः ॥१८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एकस्यां घटिकायां योजनगामी सदा नृपतिमान्यः भारोद्वहनसमर्थः कथं समो निगुणैः सार्द्धम् ] एकेनैवगुणेन राजमान्यः स्यां चन्दनवत् , अपर माह-येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण च भस्मरूपाः रक्षा प्राह- मूढकमध्ये क्षिप्ता, करोम्यहं सकलधान्यरक्षां द्राग् । मां वन्दन्ते मनुजाः; मुखशुद्धिकरी सुगंधा च ॥२०॥ विदुषा प्रोक्तम्येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न चापि शीलं, न गुणो, न धर्मः (न च धर्मबुद्धिः )। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः, जानाम्यहं नैव च कीदृशाः स्युः॥२१॥ ॥इति विद्वद्गोष्टी समाप्ता॥ नरवृत्ताष्टकम् दक्षो दानं स्तब्धो, दुर्मन्त्री शुष्कमिन्धनं त्यजति । अर्थकृतुश्च लोके, नरस्य वृताष्टकं नाम ॥ दक्षः श्रियमधिगच्छति, पथ्याशी 'कल्पतां सुखमरोजी। उद्युक्तो विद्यान्तं, धर्मार्थयशांसि च विनीतः॥ ॥२॥ दानं दरिद्रस्य विभोः प्रशान्ति-युनां तपो ज्ञानवतां च मौनम् । इच्छानिवृत्तिश्च सुखोचितानां, दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ॥३॥ १ नीरोगताम्. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तब्धस्य नस्यति यशो विषमस्य मैत्री, नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्यधर्मः। विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं, राज्यं प्रमत्तसचिवस्य न राधिपस्य ॥ ४॥ दुर्मत्रिणं कमुपयान्ति न नीतिदोषाः,सन्तापयन्ति कमपथ्यभुजंन रोगा। के श्रीन दर्पयति कं न निहन्ति मृत्युः, कं स्वीकृता न विषयाः परि तापयन्ति ॥ ५॥ शुष्कन्धनैर्वह्निरुपैति वृद्धि, मूर्वेषु कोपश्चपलेषु शोकः। कान्तासु कामो निपुणेषु वित्तं, धर्मों दयावत्सु शमत्सु धैर्यम् ॥ ६॥ त्यजति भयमकृतपापं, मित्राणि शठं प्रमादिनं विद्या । होः कामिनमलसं श्रीः, स्त्री क्रूरं दुर्जनं लोकः ॥७॥ अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं हि वपुर्वयश्च । धर्मस्य दानं हि दया दमश्च, मोक्षस्य सर्वार्थनिवृत्तिरेव ॥८॥ ऋतौ विवाहे व्यसने रिपुक्षये, प्रियासु नारीष्वधनेषु बन्धुषु । यशस्करे कर्मणि मित्रसंग्रहे-ष्वतिव्ययो नास्ति नराधिपाष्टम ॥९॥ ॥ इति नरवृत्ताष्टकम् ॥ ॥वानरवल्लभाष्टकम् ॥ माधुर्यमुत्साहसुजीर्णरूप, श्रुतेन शाठ्येन जवो हि वैद्य । नीतिप्रिया वानरवल्लभेद,-मुल्लिङ्गनावृत्तमुदं जहार ॥ माधुर्य प्रमदाजनेषु ललितं, दाक्षि यमायें जने शौर्य शत्रुषु माईवं गुरुजने, धर्मिष्टता साधुषु । ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्मज्ञेष्वनुवर्तना बहुविधा, मानं जने गर्विते, शाठयं पापजने नरस्य कथितं, पर्याप्तमष्टौ गुणाः ॥२॥ उत्साहसंपन्नमदोर्घसूत्रं, क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् । शुरं कृतज्ञं दृढसौहृदं च, लक्ष्मी स्वयं वांच्छति वासहेतोः ॥३॥ सुजीणमन्नं सुविचक्षणः सुतः, सुखाश्रिता स्त्रोनपतिः सुसेवितः ।। सुचिन्त्य चोक्तं मुविचार्य सत्कृतं, सुदीर्घकालेऽपि न याति वि क्रियाम् ॥ ४ ॥ रूपं जरा सर्व सुखं हि तृष्णा, खलेषु सेवा पुरुषाभिमानम् । याचा गुरुत्वं गुणमात्मपूजा, चिन्ता बलं हन्ति दयां च लक्ष्मीः ॥५॥ श्रुतेन बुद्धिय॑सनेन मूर्खता, प्रियेण नारी सलिलेन निम्नगा। निशा शशाङ्केन धृतिः समाधिना, नयेन चालंक्रियते नरेन्द्रता ॥६॥ शाठयेन मित्रं कपटेन धर्म, परोपतापेन समृद्धिभावम् । मुखेनं विद्यां परुषेण नारी, वांच्छन्ति ये व्यक्तमपण्डितास्ते ॥७॥ जवो हि सप्तेः परमं विभूषणं, त्रपाङ्गनायाः कृशता तपस्विनः।। द्विजस्य विद्यैव मुनेरपि क्षमा, पराक्रमः शस्त्रबलोपजीविनः ॥ ८॥ वैद्यं पानरतं नटं कुपठितं, मूर्ख परिव्राजकं, योधं कापुरुषं विटं विवयसं, स्वाध्यायहीनं द्विजम् । राज्यं बालनरेन्द्रमंत्रिरहितम, मित्रं छलान्वेषिनं, भायौं योवनगर्वितां पररताम्, मुञ्चन्ति ते पण्डिताः ॥इति वानरवल्लभाष्टकम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ॥सत्पुरुषाष्टकम् ॥ शीतांशुस्ते केचित् . नम्रत्वे ये प्राप्त करे विपदि। वाञ्च्छा सज्जनगर्वैः, सत्पुरुषाष्टकं गदितम् ॥१॥ शीतांशु किं मुघायामभवदुत सुधै-वाभवच्छीतरमावाहोश्चिद् द्वावपीमौ मृगशिघटिता-वेतयोर्वा मृगाक्षी। एकैकं सज्जनादा समजनि जनित:, सज्जनो वा किमेभिर, संदेहश्चायमित्थं कथमपि मनसो, जीवतां न प्रयातः ॥२॥ ते केचिन्निजकान्ति सुन्दरतया, चेतश्चमत्कारिणो, दृश्यन्ते परमोत्सवं नयनयोः, संपादयन्तो जनाः। अन्तर्ये मनसः प्रविश्य सहसा, तैस्तैः स्वकीयैर्गुणै राजन्मावधि नोत्तरन्ति हृदया-दुत्कीर्ण बिम्बा इव ॥३॥ नम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणनुतिभिः, स्वान् गुणान ख्यापयन्तः, पुष्णन्ति स्वीयमर्थ सततकृतमहा-रम्भयत्नाः परार्थे। क्षान्त्याचाक्षेपक्षान खरमुखरमुखान् , दुर्मुखान् दूषयन्ता, सन्तः साश्चर्यचर्याः स्वयमिव मुनयो, वंदनीया भवन्ति ॥४॥ ये प्राप्ते व्यसनेऽप्यनाकुलधियः, संपत्सु नैवोन्नता:, माप्ते नैव पराङ्मुखाः प्रणयिनि, प्राणोपयोगैरपि । हीमन्तः स्वगुणप्रपञ्चनविधा-कन्यस्तुतावुत्सुका घिग्घात्रा निपुणेन तेऽपि न कृताः, कल्पान्तदीर्घायुषः ॥५॥ करे श्लाध्यस्त्यागः, शिरसि गुरुपादमणमनम्, मुखे सत्या वाणा, क्रमकमलयोस्तीर्थगमनम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ हदि स्वच्छात्तिः, श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः, विनाऽप्यैश्वर्येण, स्फुरति महतां मण्डनमिदम् ॥ मिया नाय्यावृत्तिमलिनमसुभङ्गेप्यमुकर। मसन्तो नाभ्यर्थ्याः, सुहृदपि न याच्यस्तनुधना, विपद्युच्चैःस्थेय पदमनुविधेयं च महताम्, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥ ॥७॥ वांच्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे, प्रीतिर्गुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोपिति रति-लोकापवादाद्भयम् । भक्तिश्चार्हति शक्तिरात्मदमने, संसर्गमुक्तिः खले, यौते निवसन्ति निर्मलगुणाः श्लाध्यास्त एव क्षितौ ॥ ॥८॥ गर्व नोदहते न निन्दति परं, नो भाषते निष्ठुरम्, उक्त केनचिदप्रियेण सहते, क्रोधं न चालंबते । श्रुत्वा काव्यमलक्षणं परकृतं, सतिष्ठते मूकवत् , दोषं च्छादयते स्वयं न कुरुते, एतत्सतां चेष्टितम् ॥ ॥९॥ ग्रं.॥२०॥ ॥ इति सत्पुरुषाष्टकम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सज्जनचित्तवन्ननः ॥ नत्वा वीरजिनं जगत्रयगुरूं मुक्तित्रियो वल्लभ, पुष्पेषुक्षयनीतबाणनिवहं संसारदुःखापहम् ॥ वक्ष्ये भव्यजनप्रबोधजननं ग्रंथं समासादहं, नाम्ना सजनचित्तवल्लभमिमं शवंतु संतो जनाः ॥१॥ शब्दार्थ-त्रण जगत्ना गुरू, मुक्तिरूप लक्ष्मीना पति, कामना बाण समूहने क्षय करनारा अने संसारनां दुःखने नाश करनारा श्री वीर प्रभुने नमस्कार करीने भव्य माणसोने ज्ञान प्रगट करनारा आ सजनचित्तवल्लभ नामना ग्रंयने संक्षेपयी कहुं छु, तेने संत पुरुषो सांभलो ॥१॥ रात्रिश्चंद्रमसा विनाजनिवहैनों भाति पद्माकरो, यद्वत्पंडितलोकवजितसभा दंतीव दंतं विना ॥ पुष्पं गंधविवर्जितं मृतपतिः स्त्री चेह तद्वन्मुनिः, चारित्रेण विना न भाति सततं यद्यप्यसौ शास्त्रवान् ॥२॥ शब्दार्य-जेम रात्री चंद्र विना, तलाव कमलोना समूह विना, समा पंडितलोक विना, हाथी दांत विना, पुष्प गंध विना अने स्त्री पति विना नयी शोभती तेम जोके शास्त्रनो जाण एवो पण मुनि चारित्र विना शोभतो नयी ॥२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं वस्त्रत्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते, क्ष्वेडेन च्युतपन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले ॥ मूलं किं तपसः क्षमेंद्रियजयः सत्यं सदाचारतारागादींश्च बिभर्ति चेन स यतिर्लिंगो भवेत्केवलम् ॥ ३ ॥ शब्दार्थ- अरे ! वस्त्रने त्यजवाथी शुं ? आ पुरुष ए वस्त्रने त्यजी देवाथी | मुनि थाय ? अर्थात् न थाय. विष खरी पडेलो अर्थात् विष रहित एवो सर्प शुं पृथ्वीने विषे थाय खरो ? अर्थात् नं थाय, तपर्नु मूळ क्षमा, इंद्रियजय, सत्य अने सदाचारपणुं छे छता जो यति रागादिकने धारण करछे तो ते यति नहि, परंतु मात्र लिंगधारी कहेवाय ॥३॥ कि दीक्षाग्रहणेन भो यदि धनाकांक्षा भवेच्चेतसि, किं गार्हस्थ्यमनेन वेषधरणेनासुदरं मन्यसे ।। द्रव्जोपार्जन चित्तमेव कथयत्यभ्यंतरस्थांगजं, नो चेदर्थपरिग्रहग्रहमतिभिक्षोन संपद्यते ॥४॥ शब्दार्थ- हे यति ? जो धननी इच्छा थाय तो दीक्षा लेवायी शुं ? कारणके, ए यतिवेषने धारण करवाथी ग्रहस्थपणाने तुं | खोटो माने छ ? द्रव्य मेलववान चित्तज अंतरना कामने देखाडी आपे छे अने जो अंतरनो कामविकार न होय तो साधुने घनने अने स्त्रीने ग्रहण करवानी इच्छा थतीज नथी. ॥४॥ योषापंडकगोविवर्जितपदे सतिष्ठ भिक्षो सदा, भुक्ताहारमकारितं परगृहे लब्धं यथासंभवम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्धावश्यकसत्क्रियासु निरतो धर्मादिरागं वहन् , सार्द्ध योगिभिरात्मपावनपरै रत्नत्रयालंकृतः ॥५॥ शब्दार्थ-हे सायो! स्त्री, जीव तथा पशु विनाना स्थानकने विले निरंतर रहे अने पारके घरे नहि करावेला तेमज अवसर प्रमाणे मलेला आहारने भोजन कर. वली आत्माथी पवित्र तेमज ज्ञान, वर्शन अने चारित्ररूप त्रण रत्नोथी सुशोभित एवा योगी पुरुषोनी साथे धर्मादि राग करतो छतो छ प्रकारनी आवश्यक कियाने विषे तत्पर था. ॥ ५॥ दुर्गध वदनं वपुर्मलगृहं भिक्षाटनाद्भोजनम्, शय्यास्थंडिलभूमिषु प्रतिदिन कट्यां न ते कर्पटम् ॥ . मुंडं मुंडितम दग्धशबवचं दृश्यसे भो जनैः, साधोऽद्याप्यबलाजनस्य भवतो गोष्टी कथं रोचते ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-मुख दुर्गंधवालं, शरीर मलनु घर, भिक्षा मागवाथी भोजन, मति दिवस पृथ्वीने विषे शयन, केड उपर वस्त्र पण नहि पूवं, अर्द्धा शबनी पेठे माथु मुंडेल. आ प्रमाणे आकृतिवाला तने हमेशां माणसो जूवे छे छतां हे साधो ! तने आज सुधी स्वीयोनी साये वातो करवी केम रुचे छ ? ॥६॥ अंग शोणितशुक्रसंभवमिदं मेदोस्थिमजाकुलं, बाह्ये माक्षिकपत्रसन्निभमहो चाहतं सक्तः॥ नो चेत्काकटकादिभिर्वपुरहो जायेत भक्ष्यं ध्रुवम् ॥ छायापि शरीरपबनि कयं निवेदना नास्ति ते ॥७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-आ शरीर रुधिर अने वीर्यथी उत्पन्न थयु छे. तेमज ते चरबी, हाडका अने स्नायुथी भरपुर छे. वली बहारना भागमां मांखीओनी पांखोना सरखी चामडीथी चारे तरफ ढंकायलं छे. जो आ वर्णन करवा प्रमाणे शरीर न होय तो ते शरीर कागडा अने नार विगेरे जीवोथी आश्चर्यकारी रीते भक्षण कराय छे, तेवा शरीरने जोइने पण तने ते शरीर उपर वैराग्य केम नयी थतो. स्त्रीणां भावविलास विभ्रमगतिं दृष्ट्वानुरागं मनाक्, मागास्त्वं विषवृक्षपकफलवत्सुस्वादवंत्यस्तदा ॥ ईषत्सेवनमात्रतोऽपि मरणं पुंसां प्रयच्छंति भो, तस्मात् दृष्टिविषाहिवत्परिहर त्वं दूरतोऽमृत्यवे ॥८॥ शब्दार्थ-स्त्रीयोना शृंगारादि विलासनी विभ्रमवाली गतिने जोइ तुं जरा पण राग न कर. कारणके, ते फक्त जोवाने अवसरे विषवृक्षनां पाकेलां फलनी पेठे उत्तम स्वादवाली देखाय छे. परंतु हे मुनि ! ते स्त्री जरापण सेवन करवाथी माणसोने मृत्यु आपे छे, माटे ते स्त्रीयोने तुं हारा पोतानां जीवितने माडे दृष्टिविषसर्पनी पेठे दूरथी त्यजी दे. ॥ ८ ॥ यद्यद्धांच्छसि तत्तदेव वपुषे दत्तं सुपुष्ट त्वया, सार्द्ध नैति तयापि ते जडमते मित्रादयो यांति किम् ॥ पुण्यं पापमिति द्वयं च भवतः पृष्टेऽनुयायिष्यते, तस्मात्वं न कृया मनागपि महामोहं . शरीरादिषु ॥ ९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-तुं जे जे वस्तुनी इच्छा करे छे ते ते वस्तु ते शरीरने आपीने तेने पुष्ट बनावी दीधुं, तोपण हे जडबुद्धि ! ते शरीर त्हारी साये आववानुं नथी. वली शुं मित्रादि आववाना छे ? अर्यात् तेओ पण आववाना नथी. परंतु पुप्य अने पाप ए बने त्हारी पाछल आववाना छे, माटे तुं शरीरादिकने विषे जरा पण महा मोह न कर. ॥९॥ अष्टाविंशतिभेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधौ वृत्तं, साक्षीकृत्य जिनान् गुरूनपि कियत्कालं त्वया पालितम् ॥ भक्त वाञ्च्छसि शीतवातविहतो भूत्वाधुना तद्वतं, दारिद्योपहः स्ववांतमशनं भुंक्त क्षुधातॊऽपि किम् ॥१०॥ शब्दार्य-हे साधु! ते श्री जिनेश्वरने तथा गुरुने साक्षी करी अट्ठाविश भेदवाला साधु व्रतने अंगीकार करीने केटलोक काल पाल्युं छे. वली हमणां ते तुं विषयरुप वायुथी हणायो छतो थइने तेने भांगवानी इछा करे छे. परंतु दारिद्यथी हणायेलो एवो पण भुख्यो माणस शुं पोताना वमन करेला पदार्यने खाय खरो? अर्थात् न खाय. ॥१०॥ सौख्यं वांच्छसि किं त्वया गतभवे दानं तपो वा कृतं, नो चेचं किमिहैवमेव लभसे लब्धं तदत्रागतम् ॥ घान्य किं लभते विनापि वपनं लोके कुटुंबीजनोदेहे कीटकक्षितेचसशे मोहं या मा कृथाः॥११॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.6 शब्दार्थ-हे साधु ! तुं देह सुखनी इच्छा करे छे ? तो | तें पूर्वभवे दान अथवा तप कर्यु छ ? जो तें दान अथवा तप ममी की तो तुं आ भवमांशुं पामवानो छ ? अने सुख प्राप्त करवानी इच्छायी जे शुभाशुभ कर्म कयु छे ते आ भवमां तेनो मेलेन मान अयेलं छे. दृष्टांत कहे छे के, लोकमां कणबी लोक शुं वाव्या विना क्यारे पण धान्य पामे खरा ? माटे कोडाथी भक्षण करायेली शेरडीना सरखा देहने विषे वृथा मोह न कर. ॥ ११॥ यत्काले लघुभांडमंडितको भूत्वा परेषां गृहे, भिक्षार्थ भ्रमसे तदापि भवतो मानापमानौ नहि ॥ भिक्षो तापसत्तितः कदशनात्किं तप्स्यसेऽहर्निश, श्रेयोर्थ किल सह्यते मुनिवरैर्वाधा क्षुधाशुद्भवा ॥ १२ ॥ शब्दार्थ-जे अवसरे न्हानां पात्रोथी शुशोभित हायवालो थइ कोकोनां घरने विषे भिक्षाने माटे भमे छे त्यारे पण तने मान अपमान थतुं नथी, हे साधु ! तो पछी तापसत्तिने लीधे कुत्सित आहारथी रातदिवस शामाटे खेद करे छे ? कारण उसम मुनिओ कल्याणने माटे भुख आदिथी उत्पन्न थयेली बहु पीडाओने निथे सहन करे छे. एकाकी विहरत्यनास्थितबलिवर्दी यथा स्वेच्छया, योषामध्यरतस्त्वमेवमपि भो त्यसवात्मयूथं यते ॥ तस्मिश्चेदमिलापता न भवतः किं भ्राम्यसि मत्यहम, मध्ये साधुजनस्य तिष्ठसि न किं कला सदाचास्तम् ॥१३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-हे मुनि! जेम गाडीमां जोडायेलो एक बलद पोतानी मरज़ी मुजब क्रीडा करे छे तेम तुं पण पोताना समूहने ( मुनिसमइने) त्यजी दइ स्त्रीयोना मध्यमां आसक्त थयो छतो क्रीडा करे छे. जो कदापि हारे ते स्त्रीयोनी इच्छा न होय तो तुं तेओना मध्ये निरंतर या माटे फरे छे अने सदाचार पालीने साधुओना समूहने विषे केम नयी रहेतो ? ॥ १३ ॥ क्रीतान्नं भवतो भवेत्कदशने रोषस्तदा श्लाध्यते, मिक्षायां यदवाप्यते यतिजनैस्तद्भूज्यते सादरात् ।। भिक्षो भाटकसबसन्निभतनोः पुष्टिं वृथा मा कृथाः, पूर्णे किं दिवसावधौ क्षणमपि स्थातुं यमो दास्यति ॥१४॥ शब्दार्थ-जो हारे खराब भोजनमां पण वेचाथी अन्न लावतुं प्रदतुं होय तो रोष करवो योग्य छे, परंतु मुनिजनोए भिक्षामांजे मन मेलवाय तेज आदरथो भोजन कराय छे, माटे हे भिक्षु ! भाडाना घर सरखा आ शरोरने तुं वृथा पोषण न कर. कारणके, ते शरीरनी अवधि पूर्ण यइ रहेशे त्यारे तेने यम क्षणमात्र पण तेमां रहेवा देशे नहि. ॥ १४ ॥ लब्धानं यदि धर्मदान विषये दातुं न यैः शक्यते, दारिदोपहतास्तथापि विषयाशक्ति न मुचंति ये ॥ धृत्वा ये चरण जिनेंद्रगदितं तस्मिन् सदा नादरास्वेषां जन्म निरर्थकं गतमजाकंठे स्तनाकारवत् ॥१५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-जो के जे गृहस्थो पोताने मलेलं अन्न धर्मदान करवामां आपी शकता नथी, जेओ दरिद्रथी हणाया छता पण विषयाशक्तिने मूकता नथी अने जेओ जिनराजे कहेला चारित्रने धारण करी तेने विषे आदर करता नथी. ते सर्वेनो जन्म बकरीना कंठे रहेला स्तननी पेठे निष्फल गयो छे. ॥ १५॥ दुर्गंध नवभिर्वपुः प्रवहति द्वारैरिमै संततं, संदृष्ट्वापि हि यस्य चेतसि पुनर्निवेदता नास्ति चेत् ॥ तस्माद्यद्भुवि वस्तु किशमहो तत्कारणं कथ्यते, श्रीखंडादिभिरंगसस्कृतिरियं व्याख्याति दुर्गंधतां ॥१६॥ शब्दार्थ-आ शरीर नवद्वारोथी हमेशां दुर्गंधनेज वहन करेते शरीरने जोइने जे पुरुषना चित्तमां जो वैराग्य नथी थतो तो पछी आश्चर्य छे के, तेने पृथ्वी उपर बोजी कइ वस्तु वैराग्यनुं कारण कहेवाय ? आ प्रत्यक्ष श्रीखंड-चंदन विगेरेयी करेली अंगनी संस्कृति पण दुर्गधनेज प्रगट करे छे. ॥१६॥ शोचंति न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेहे धनं, तच्चेन्नास्ति रुदंति जीवनधिया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम् ॥ कृत्वा तद्दहनक्रियां निजनिजव्यापारचिंताकुलास्तन्नामापि च विस्मरंति कतिभिः संवसरैयोषितः ॥१७॥ शब्दार्थ-स्त्री जो घरने विषे धन होय तो मृत्यु पामेला पतिनो शोक करती नथी अने जो धन नथी होतुं तो आजीविकानी www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्धियी तेने दररोज वारंवार संभारीने रुदन करे छे. वली ते स्त्रीयो पतिनी उर्ध्वदेहिक क्रिया करोने पछी पोतपोताना काममा आकुलव्याकुल थइ छती केटलाक वर्षे तेनु नाम पण विसरो जाय छे. ॥१७॥ अन्येषां मरणं भवानगणयन् स्वस्यामरत्वं सदा, देहिश्चितयसींद्रियद्विपवशो भूत्वा परिभ्राम्यसि ॥ अद्य श्वःपुनरागमिष्यति यमो न ज्ञायते तत्त्वतः, तस्मादात्महितं कुरुत्वमचिराद्धर्म जिनेंद्रोदितम् ॥ १८ ॥ शब्दार्थ-हे देहधारो ! तुं बीजाओनां मरणने नहि गणकारतो छतो हमेशां पोतानां अमरपणानो विचार करे छे अने तेथीन तुं इंद्रियरूप हाथोओने वश थइ भटके छे; परंतु मृत्यु आजे आवशे अथवा काले आवशे ते तत्त्वथी जाणी शकातुं नथी, माटे तुं तरत पोताना हितकारक एवा जिनेश्वरे कहेला धर्मने आचरण कर.॥१८॥ देहे निर्ममता गुरौ विनयता नित्य श्रुताभ्यासता, चारित्रोज्वलता महोपशमता संसारनिर्वेदता ॥ अंतर्बाह्यपरिग्रहत्यजनता धर्मज्ञता साधुता, साधो साधुजनस्य लक्षणमिदं संसारविच्छेदनम् ॥ १९ ॥ शब्दार्थ-हे साधु ! शरीरने विषे निर्ममपणुं, गुरुने विषे विनपप', निरंतर शास्त्रने विषे अभ्यासपणुं, चारित्रनुं उज्वलपणु, महोटुं उपशमपणुं, संसारमा वैराग्यपणुं, अंतरना अने बाहना परि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहने त्यजवापणु, धर्मज्ञपणुं अने साधुपणुं, आ उपर कहेलु साधुजननुं लक्षण संसारनो नाश करनारुं छे. ॥ १९ ॥ लब्ध्वा मानुषजातिमुत्तमकुलं रूपं च नीरोगतां, बुद्धिं धीधनसेवनं सुचरणं श्रीमजिनेंद्रोदितम् ॥ लोभार्थं वसुपूर्णहेतुभिरलं स्तोकाय सौख्याय भो, देहिन् देहसुपोतक गुणभृतं भक्तुं किमिच्छास्ति ते ॥२०॥ शब्दार्थ-हे देहधारी ! मनुष्यजातिने, उत्तमकुलने, रूपने, नीरोगीपणाने, बुद्धिने, बुद्धिवंतनी सेवाने अने श्री जिनराजे कहेला चारित्रने पामीने लोभने अर्थे धनने एकठा करवाना कारणथी रहारे सयु. शुं थोडां सुखने माटे गुणथी पूर्ण एवा आ देहरूप उत्तम नावने भांगी नाखवानी त्हारी इच्छा छे ? ॥ २० ॥ वैतालाकृतिमर्द्धदग्धमृतकं दृष्ट्वा भवंतं यते, यासां नास्ति भयं त्वया सममहो जल्पति प्रत्युत्तरम् ।। राक्षस्यो भुवि नो भवंति वनिता मामागता भक्षित, मत्वैवं प्रपलायतां मृतिभयात् त्वं तत्र मा स्थाः क्षणम् ।।२१॥ शब्दार्थ-हे यति ! वैतालना सरखी आकृतिवाला अंने अर्ददग्ध थयेला शब सरखा तने जोइ जे स्त्रोयोने भय थत्तो नयी, तेज स्त्रीओ तमने उत्तर आपे छे. शुं ते स्त्रीयो पृथ्वीने विषे राक्षसीयो न कहेवाय ? अर्थात् कहेवाय. 'ते स्त्रीओ मने भक्षण करवा आवी छे.' एम मानी तुं मृत्युना भयथी नासी जा, त्या क्षणमात्र प्रण रहिश नहि. ॥ २१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागास्त्वं युवतीगृहेषु सततं विश्वासतां संशयोविधासे जनवाच्यता भवति ते न स्यात्पुमर्थं ततः॥ स्वाध्यायानुरतो गुरुक्तवचनं चित्ते समारोपयन् , विष्ठ त्वं विकृति पुनव्रजसि चेद्यासि त्वमेव क्षयम् ॥२२॥ शब्दार्थ-तुं स्त्रीयोंना घरने विषे निरंतर विश्वासपणुं न कर. कारणके, विश्वास करवाथी संशय अने लोकमां निंदा याय के भने तेथीं त्हारो काइ पुरुषार्थ यवानो नथी. माटे तुं गुरुनां कहेला वचनने चित्तमां धारण करी भणवा भणाववामां आसक्त थयो छतो रहे. वली जो तु विकार पाम्यो तो निचे नाश पामीश. ॥२२॥ किं संस्कारशतेन विट् जगति भो कास्मीरजं जायते, किं देहःशुचितां व्रजेदनुदिनं प्रक्षालनादंजसा ।। संस्कारो नखदंतवक्रवपुषां साधो त्वया युज्यते, नाकामी किल मंडनप्रिय इति त्वं सार्थकं मा कृथाः ॥२३॥ शब्दार्थ-हे मुनि ! जगत्मां सेंकडों उपायोथी पण शुं विष्टा होय ते कंकु थाय खरं ? अथवा हमेशां सेंकडोवार प्रयत्नवडे धोवायी शरीर शुं पवित्रपणाने पामे ? माटे त्हारे नख उतारवा, दांत साफ करवा, मुख साफ राखवू अथवा शरीर धोवू विगेरे संस्कार करवा योग्य नथी ? तो 'तुं शुं अकामी नयी ? अथवा मंडनमिय छ ?' ए वचनने तुं सार्थक न कर.॥ २३ ॥ आयुष्यं तव निद्रयार्द्धमपरं चायुस्त्रिभेदादहो, बालत्वे जरया कियद्यसनतो यातीति देहिन् वृथा ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० निश्चित्यात्मनि मोहपाशमधुना सोछद्य बोधासिना, मुक्तिश्रीवनितावशोकरणसचारित्रमाराधय ॥ २४ ॥ शब्दार्थ-हे देहिन् ! त्हारुं अर्धं आयुष्य निद्रामा चाल्यु जाय छे अने बाकीचें अधु त्रण भेदथी चाल्युं जाय छे, ते त्रण भेदमां केटलुक बाल्यावस्थामां, केटलुक वृद्धावस्थामां अने केटलुक विषयादिव्यसनमा फोगट जाय छे, आ प्रमाणे तु आत्माने विषे निश्चय करी हमणां बोधरूप खड्गथी मोहपाशने कापी नाखी मुक्ति श्री रमणीने वशीकरण एवा उत्तम चारित्रने आराध. वृत्तविंशतिभिश्चतुभिरधिः सल्लक्षणेनान्वितः, ग्रंथं सज्जनचित्तवल्लभमिमं श्रीमल्लिषेणोदितम् ॥ श्रुत्वात्मेंद्रियकुंजरान्समटतो रुद्धंतु ते दुर्जयान् , विद्वांसो विषयाटवीषु सततं संसारविच्छित्तये ॥ २५ ॥ शब्दार्थ-श्री मल्लिषेण गुरुए उत्तम लक्षणवाला चोवीश काव्योवडे कहेला आ सज्जनचित्तवल्लभ नामना ग्रंथने सांभलीने पूर्वे कहेला संत पुरुषो संसारनो छेद करवा माटे विषयरूप अरण्यमां भटकता एवा दुर्जय इंद्रियरूप गजोने वश करो. ॥२५॥ ॥ इति सज्जनचित्तवल्लभं संपूर्णम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअतरिक्षपार्श्वनाथमाहात्म्यम्, ( संग्राहक भने संशोधक मुनि श्रीक्षान्तिविजयजी.) -- - प्रणम्यपरमानन्दम, शान्तिरस निमजनम् । 'स्वानुभूतश्चमत्कारो, वर्ण्यते सदुपकृते जम्बूद्वीपभरतस्य, मध्यभूभाग मंडनम् । पुरं सत्यपुरं नाम्नाऽभूद्वनखंडमंडितम् ॥२॥ तत्रोष(श)वालवंशेऽभू-द्राजमल्लोऽस्य तु प्रिया । मूली नाम्ना भानिराम, पुत्रं सौम्यमजीजनत् ॥३॥ अन्यदा तत्र नगरे, शमादिगुणसागरः । विजयदेव आचार्यों, ययौ साधुसमन्वितः ॥४॥ घनागमं मयूरीव, तत्रसूरि समागमम् । श्रुत्वा मुदो(त) ययुः सर्वे, वंदितुं श्राडश्राविकाः॥५॥ वद्य (?) मूरि पदाम्भोज, चातकेष्विव पक्षिषु । आगमामृतपिपाषुषूपविष्टेषु तेषु च सप्तनयाश्चतुर्भजाम् दुरितरिकारणाम् । सुधा मुधाकरीं सूरिविंदधे धर्मदेशनाम् तद्राि प्रतिबुद्धोऽहं, दीक्षां जग्राह सोत्सुकः। भाव विजय इति मे, दीक्षा नाम न्यधाद्रुः ॥८॥ १ स्वानुभवं चमत्कारम्. प्र. २ सौम्य. ३क्षमादि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततश्च गुरुभिः सार्द्धमं, विहरन्मरुमंडले । अभ्यासयामासाभ्यासं, सूत्रादीनां यथारुचि ॥९॥ ततः संतुष्टगुरुभि, जोंधपुराख्यपत्तने । श्रीसंघसमक्षं मयि, गणिपदं समर्पितम् ततश्च श्रीमदाचार्यः, पाटणसंघप्रेरितः । अबूंदाद्रिमभिवंद्य, सशिष्यो गुर्जरं ययौ ॥११॥ गच्छन्मार्गमृतौ ग्रीष्मे, नेत्रयो, रुजाऽभवत् । यथा तथा गुरुभिश्च, साई पूःपाटणं ययौ ॥१२॥ श्रीमंन्तः श्रावकास्तत्र, सौषधैरगदङ्कारैः। विविधोपायनं चक्रुस्तथाऽप्यगातां मे दृशौ ॥१३॥ दीपहीनगृहमिव, नेत्रहीनोऽहमन्यदा । विजयदेवमाचार्य, पृष्ट वाँस्तुदुपायनम् ॥१४॥ ततो मयि कृपां कृत्वा, ददौ सूरीश्वरस्तदा । पद्मावत्या महामंत्रं, पूर्णविधिविधानतः ततश्च श्रीमदाचार्यश्चातुर्मासी समाप्य च । मुनिना सह मां तत्र, मुक्त्वाऽन्यत्र विनिर्ययौ ॥१६॥ ततो गुरूक्तविधिना, तन्मन्त्राराधिते सुरी। एत्य स्वप्ने सविस्तारं, ममाचख्यौ च तद्यथा ॥१७॥ कुर्माङ्कहरिवंशस्य, श्रीसुव्रतस्य शासने । बभूव रावणो नाम, प्रतिविष्णुर्महाबली ॥१८॥ . १ प्रत्यक्ष प्र= २ मा. प्र=3 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदा स्वस्वसूनाथ, खरदूषणभूपतिम् । प्रेषयामास कस्मैचित् कार्याय सोऽतिसत्वरं ॥१९॥ सोऽपि पाताललङ्केशो, विमानमधिरुह्य च । खगः खग इव व्योममार्गेण प्रचचाल च ॥२०॥ अनेकानगरान् देशान् , वनखण्डाँश्च भूधरान् ! समुल्लंघ्याय विंगोलिं, देशमापाऽशनक्षणे ॥२१॥ तदा चोत्तीय सो भूमौ, स्नात्वा पूजनपात्रभृत् । समानय जिनचैत्यं, सूपकारमदोऽवदत् ॥२२॥ प्रणम्य समयः पाह, सूपकारः कृतालिः। स्वामिन्पाताललंकायां, गृहचैत्यं तु विस्मृतम् ॥२३॥ इति श्रुत्वा महिनाथस्तत्रस्थं वालुगोमयम् । समादाय विनिर्माय, पार्श्वनाथस्य प्रतिमाम् ॥२४॥ नमस्कारैर्महामन्त्रैः, प्रतिष्ठाप्य समय॑ च । विससज जलकूपे, बिम्बमाशातनामयात् ॥२५॥ पतन्मात्रप्रतिमां तां, तत्र कूपस्थदेवता । गृहय(धृत्वा)पुण्यपूनमिव, चकार वज्रसन्निभाम् ॥ २६ ॥ खरदूषणभूपोऽपि भोज्यं भोज्य ततोऽगमत् । स्वामिकार्य विधायाशु, पुनर्लङ्कापुरी ययौ ॥२७॥ तत्प्रभृति बहुकालं, तत्र कूपे स निर्जरः। पूजयामास तडिंबं, भत्तया भाविजिनोचमं ॥२८॥ १ ममानय. प्र. २ ( बिम्बकम् ) ३ ( भुक्त्वा .) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रोक्ताऽऽर्य सापंच विशदेशान्तर्वतिका । वैराटनगरेणासौ, मत्स्यदेशोऽवलक्ष्यते ॥२९॥ स देशो विंगोलिनाम्ना, तदा ख्यात स्ततश्च सः। वैराटश्च ततोप्यभूत, वराडेति तु सांप्रतं ॥३०॥ तत्राभूचन्द्रवंशीरा, डेलचपुरपत्तने । श्रीपालः सच प्रजानां, नेत्रकैरवचन्द्रमाः पितृभ्यां कल्पितो नाम, श्रीपाल स्तस्य तारुण्ये । इलचेति कृतं लोकैः, सम्यगिलां प्रशासनात् ॥३२॥ एकदा प्राक्तनैः पापैः, कुष्टरोग भयंकरं । प्रादुरभूत्तनौ राज्ञ-स्तेनामूर्छ त्सोऽभीक्षणं ॥ ३३ ॥ विविधौषधविद्यैर, कृतोपायोऽपि भूपतिः। नालेभे जातुचिच्छान्ति, वनवाटिजलाशये अन्येधुरेलचो भूप-स्तया वेदनयाऽऽकुलः । निरगात्स्वपुरावाा, रुजां निर्वृतिहेतवे इतस्ततो भ्रमनराजा, तोयतृषासमाकुलः । यत्र पार्श्वगर्भकूपं, ययौ चिश्चातरोस्तले तत्र कूपे करांध्यास्य, प्रक्षाल्येलापतिस्तदा । स्वच्छस्वादृपयः पीत्वा, पुनः स्वशिबिरं ययौ ॥३७॥ धर्ममार्गमतिक्रान्ते, श्रान्तचित्तः स भूपतिः । सायंकालेऽपि सुश्वा (वा)प, सराज्ञि स्तत्रमञ्चके ॥ ३८॥ (१ तारुणे ) २ इतस्ततोऽभमद्राजा प्र. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः सदा समग्ररात्रं, मीनेव फर्फरायकः। स तस्यांनिशि निश्चिन्तो, लेभे निद्रां यथारुचिः ॥ ३९ ॥ प्रातः समुत्थिते राज्ञि, निरुक्पाणिपदाननम् । राज्ञो विलोक्य सा राज्ञी, पपच्छ प्राणवल्लभं ॥४०॥ स्वामिन् ? हयोऽह्नि करांघ्यास्यं, भवद्भिः कुत्र क्षालितं । येनैतद्विनष्टकुष्टम्, प्रदृश्यते ममाधुना ॥४१॥ चलतेश ! पुन,य, सर्वाङ्गम् तत्र क्षाल्यतां । गमिष्यति भवतां वै, तेन तोयेन कुष्टरूक ॥४२॥ इति राज्या वचो बुद्धो, गत्वा तत्र नृपेलचः। सर्वाङ्ग स्नपयामास, पार्थपूतेन पायसा ॥४३॥ अनलेन यथा स्वर्ण तत्तोयेन तथा वपुः। बभूवतत्क्षणं तस्य हीलचस्य निरामय ॥४४॥ ततः स संप्राप्ताश्चर्य-सराज्ञीलचभूपतिः। अन्नपानं परित्यज्या-राधयामास तंसुरं ॥४५॥ भो कूपान्तर धिष्टात- भोऽत्रक्षेत्रदेवते । यः कोऽपि तिष्ठति सो मे, देहि दशै सकृपया ॥४६॥ इत्युदीर्य स्थिते राज्ञि, निजंगाम दिनत्रयं । दृष्ट्वा दृढपणयंत, तदा तत्रस्थदेवता ॥४७॥ स्वमान्तरे समागत्य, बभाणे त्येलचाधि । राजन् ! पार्थपभो बिब, विद्यतेऽत्र खराऽपितं ॥४८॥ १ प्रत्यक्षंच-प्र=3 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) तन्मूर्तिस्पर्शतः एत-महापूतं पयोऽभवत् । तद्वारिभिः स्नपनेन, त्वच्छरीरं निरामयं ॥४९ ॥ तद्विम्बस्पर्शतोयेना-साध्यान्यपि लयंति हि । श्वासखासज्वरशूल-कुष्टादोनि न शंसयः ॥५०॥ नेत्रहीनो लभे नेत्रे, बधिरः कर्णगोचरं ।। मूको वाचां पदौ पङ्गु-रपस्मारी पुनर्वपुः ॥५१ ।। वीर्यहीनो महावीर्य, धनार्थी द्रविणं तथा । कान्तार्थी कान्तकान्तां च, पुत्रार्थी पुत्रपौत्रकान् ॥ ५२ ॥ गतराज्यो महाराष्ट्र, पदहीनो पदोत्तमः (मं)। जयकांक्षी लभेज्जीतं, विद्याहीनः सरस्वतीम् ॥५३॥ प्लायन्ते भूतवेतालाः डायिनी शायिनी मुखाः। शाम्यन्ति कुग्रहाः सर्वे मूर्तिस्पर्शन (स्पृष्टेन) वारिणा॥ कुलकम् ॥५४॥ वर्णैः किं बहुभिरस्याः, स्वेष्टकार्य प्रदायिनी। चिन्तामणि रिवसाक्षा-दियं मूर्तिः कलौ नृप ! ॥ ५५ ॥ नागराजधरणस्य, सेवकोऽहं स्वयं प्रभोः। तदा दिष्ट इह स्थित्वा, भक्त्या मूर्ति मुपास्महे (2)॥५६॥ आकये ति विभोर्वण, भक्तयोल्लसितमानसः । तत्प्रत्यक्षचमत्कारी, मूर्ति स प्रार्थितः (पाथितवान्) सुरात् ५७ देवः प्राह श्रुणु राजन् ! मागिते धनधान्यके । दास्येऽहं त्वां यथेष्ट च, परं मूर्ति कदापि न ॥५०॥ (१ डाकिनी शाकिनी मुखाः) २ स्ययं. प्र. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) एवं नानाविधै वाक्यः, सुरे संबोधिोऽपि सः । न व्यधात्पारणं राजा, मूर्तिजिघृक्षुमानसः ॥५९ ॥ गते प्राणेऽपि यास्यामि, नाहमिति दृढाशयः। भक्तपानं विना तत्र, व्यतियौ सप्तवासरं ॥६०॥ ततस्तपोबलादेत्य, रात्रौ धरणराट् स्वयं । प्रबोध्य तमित्युवाच, राजन् ! किं त्वं हठायसे ॥६१ ।। महाचमत्कारिण्यास्या-मूर्त्याः पूजा न सेत्स्यति । युष्मद्भिश्च ततो राजन् ! सिद्धकार्यों गृहं ब्रज ॥२॥ राजोवाच फणिराज ! स्वकुक्षिभरणेन किं। ततो जगदुपकृते, देहि मूर्ति मम प्रभोः ॥१३॥ विनाऽऽकृतिं न यास्यामि, गते प्राणेऽपि नागराट् ! । ददातु न ददातु वा मम प्राणस्तु तत्पभोः (१) ॥६४ ॥ इत्याकर्ण्य नागराजः साधर्मिकष्टभीतिना। माह तमेलचाधीशं धरणेन्द्रो धरणीधवं ॥६५॥ राजन् ! त्वद्भक्तिसंतुष्टो दास्येऽहं प्राणतः प्रियां। जगदुपकृते नून, मूर्तिमिमां चमत्कृत(ताम् ॥६६॥ परमस्य प्रभोः राजन् !, मा कांर्षीस्त्वमाशातनाः। अन्यथा चेन्महाकष्ट, मचेतसि भविष्यति ॥६७॥ ओमिति स्वीकृते राज्ञि, प्राह नागो नृप ! श्रुणु । प्रगे स्नात्वा स्वच्छ भूय, त्वमेहि कूपनैकटम् ॥६८॥ १ स्वप्ने. प्र. २ प्रभौ. प्र. ३ मन्मनसि प्र. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) विधाय नालशिविकां, बध्वा तां सूत्रतंतुभिः। तस्मिन् कूपे घट मिवो-त्तार्य करावलंबनात् ॥६९ ॥ स्थापयिष्यामि तन्मूर्ति यानपात्रे ततो नृप !। बहिनिष्काष्य वर्धाप्य नाडिरथे निबेश्यतां ॥ युग्मम् ॥ ७० ॥ सप्ताहो (हौ) गोजनुवत्सौ, रथे नि योज्य तदग्रतः। त्वया गम्यं च त्वत्पृष्टे सो रथः स्वयमेष्यति ॥७१॥ नीयतां ते यत्र वांच्छा बिम्बं पार्थप्रभो रिदं । दृष्टव्यं न त्वया पृष्ठे, दृष्टे पृष्ठे न चैष्यति ॥७२॥ एतत्पंचमकालत्वा, ददृष्टो मूर्त्यधिष्ठितः। तस्याहं पूरयिष्याम्यु-पासकस्य मनोरथ।। ७३ ॥ इत्युक्त्वा तन्निशाशेषे, नागराजे गते सति । संप्रबुद्धःप्रगे राजा, तथाचक्रे स तत्क्षणात् ॥७४ ॥ बाह्यागताम् प्रतिमाम ताम, स्थाप्य नालरथे नृपः । तर्णको द्वौ च संयोज्य, तदनिमश्चचाल सः ॥७५॥ मागै गच्छकियद् दूरं, राजा दध्यौ स्वचेतसि । नाकर्ण्यते रथनाद, तत्कि नाथो नागच्छति १ ॥७६ ॥ इतिचिन्त्य (?) वक्रदृष्टया, सेक्षाश्चक्रे नृपः प्रभुम् । तदृष्टिपातमात्रेण, निरगादधस्ताद्रथः ॥७ ॥ तत्र न्यग्रोधवृक्षाधोऽ-न्तरिक्षे च स्थितं विभुं । वीक्ष्य सप्तकरोदन-मंतरिक्षस्ततो जगुः ॥७८॥ १तत्क्षणं. प्र. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तम्नि संस्थिते नाथे, सविषादै नॅपैस्तदा । पुनराराधितो नागः, पाहात्रैव स्थास्यत्यसौ ॥७९॥ इत्याकये महीनाथ-स्तत्र चैत्यमकारयत् । विशालं लक्षमुद्राङ्कम्, रंगमंडपमंडितं ॥८०॥ परिसमाप्तं तच्चैत्यं, दृष्ट्वा दध्यौ नृपो हृदि । अहो हीशचैत्येन, स्थास्यत्यति ममाभिधा ॥८१ ॥ तच्चैत्ये स्थातुमहन्तम्, प्रार्थयामास पार्थिवः । परं नागच्छति तत्र, नृपेऽभिमानकारणात् ॥८२॥ ततःखिन्नोऽवनीनाथः, पुनः सस्मार भोगिनम् । परं नायाति भोगी सो, नृपेऽभिमानकारणात् ॥ ८३ ॥ अतिखिन्नस्तदा दीनो, राजा पप्रच्छ मन्त्रिणं । प्रभु गच्छति चैत्ये, किं कार्यं तदुपायनम् ॥८४॥ इतिश्रुत्वा हृदि चिन्त्य (१) जजल्प सचिवस्तदा । उपायमेकमस्त्यत्र, शृणुत मद्वचःप्रभो ! ॥८५॥ श्रुयतेऽभयदेवाख्यः सर्वशास्त्रविशारदः। मान्यो बहुषु भूपेषु, सूरिः सुरीबलान्वितः ॥८६॥ गुर्जरदेशि(शी)यो राजा, कर्णः कर्णेवविक्रमः । स ददी श्रीमति सूरौ, मल्लधारिमहापदं ॥८७॥ सचाचार्यो गतेवर्षे, स्तम्भनसंघसत्तमैः। सम माणिक्यदेवेश, नन्तुमितः समागतः ॥८८ ॥ स त्वद्य विद्यते देव ? देवगिर्यभिधेपुरे । येन केनाप्युपायेन, चेदायातीह साधुभृत् ॥८९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) तंदा तत्सूरिभि नूनं, युष्मत्कार्य च सेत्स्यति (ते)। इति श्रुत्वा नृपस्तत्र, सचिवेनाऽऽनितो गुरुरु)म्॥९० ॥ अन्तरिक्ष स्थितं बिम्ब, दृष्ट्वा मूरिः सविस्मयः । श्रुत्वा नृपवचो नागं, सस्मार ज्युपवासकैः आगत्य धरणस्तत्रो-वाच सूरीश्वरमिति । एतच्चैत्यं विनिर्माय, राज्ञो हृदि मदोद्भुतम् ॥९२ ।। ततोऽत्र नृपचैत्ये न, स्थास्यति संघमंडिते । इति नागवचः श्रुत्वा, श्राद्धसंघमाकारयत् ॥९३ ॥ भो सर्वश्रावका ! यूयं, शृणुतात्राशुलाघवं । कुरुध्वम् नूतनं चैत्यं, तत्र स्थास्यत्यसौ प्रभुः ॥९४ ।। इति मूरिवचः श्रुत्वा, श्रद्धाभक्तिसमन्वितैः । मूरि संगा गतैः श्रादै, मिलित्वा चैत्यमकारयत् ॥१५॥ ततः मूरिस्तुतः स्वामो, सुरसंक्रमितः स्वयम् । खादूतोर्य च तच्चैत्ये, विवेश सर्वजनेक्षितः ॥९६ ॥ तत्रापि भूमितः सप्ता-गुलोचं संस्थितं प्रभुम् । प्रतिष्ठाविधिना सरिः, प्रतिष्ठापितवास्तदा ॥९७ ।। द्विचत्वारिंशदुत्तर-कादश शत ११४२ विक्रमे ।। माघसितपंचम्यर्के, मूहूर्ते विजयागते ॥९८॥ १ तदा तवेप्सितं सूरि-रेतत्कार्य विधास्यति । इति श्रुत्वा नृपसत्रा-नीनयत्तचिवेन तम् ॥ प्र. ॥ ९० ॥ २ आकाशात्.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र प्रभोरग्रवामे, भागे तदधिष्ठायक(का)म् । स्थापितः तीर्थरक्षार्थ, सूरिःशासनदेवत (ताम् ॥ ९९ ॥ तदा च तत्प्रभो पो, नानारत्नैः सुमंडितम् । न्यस्य मौलौ किरीटं च, कुण्डले कर्णयो योः ॥१०० ॥ हीरविशेषकं भाले, दृष्टिममृतवर्षिणीम् । कण्ठे मुक्ताफलहार-मङ्गे स्वर्णाङ्गरक्षिकाम् भामण्डलं शिरःपृष्ठे, सूर्यबिम्बविडम्बकम् । शीर्षोपरि सितच्छत्रं, मेघाडम्बरडम्बरम् ॥१०२ ॥ संघविस्रग्धरस्तत्र, गुरुचूर्णशिरोमणिः । अज्ञानतिमिरं हतु, सोत्ततार निराजनीम् चतुर्भिः कुलकम् कलापकम्) ददौ च जिनपूजाये, वासयित्वा पुरंतदा । श्रीमद्वासात् श्रीपुराख्यम्, श्रीपुरमेकमेलचः ॥१०४ ॥ यत्र विनिर्गतो नाथ-स्तत्रैवेलचभूपतिः । कुण्डं रबन्ध कूपस्य, तत्तोयसर्वोपकृते ॥ ॥१०५॥ तदा तत्र चतुर्मासं, कृत्वा सूरि नपेरितः । ततः प्रबोधयन् भव्यान्, विजहार महीतले ॥१०६॥ ततो भो भावविजय!, त्वमपि तत्लभु श्रय । आगमिष्यति ते नूनं, नयनयुगलं पुनः ॥१०७॥ (१ स्थापितवान् ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) इति रात्रौ सुरीवाचां, श्रुत्वाहं गुरुवान्धवं । श्राद्धाँच प्राह तैः सार्द्ध-मन्तरिक्ष ययौ तदा ॥१०८॥ तत्र संघे समस्तानां, यात्रिणां प्रभुदर्शनं । अभूत्परं च मे नैव, मन्दभाग्यशिरोमणेः ॥१०९ ।। तदा खिन्नोऽनपानोय, त्यत्त्वाऽहं दर्शनोत्सुकः। नानास्तुत्याऽन्तरिक्षं तं, स्तोतुं तत्र प्रचक्रमे ॥११० ॥ नमस्तुभ्यं जिनेन्द्राय, त्राहिणेऽपकृतामपि । कलौ जाग्रतदेवाय, यथेष्टफलदायिने ॥१११ ॥ विना स्वार्थमहिं नाथ!, कृतो नागेश्वरस्त्वया । कमठे वैरिणि दत्त, सम्यक्त्वमतिनिष्ठुरे ॥११२ ।। आषाढभूतिक श्राद्धं, त्वां चिरकालप्तेविनं । दत्तः स्वामिन् ! त्वया मोक्षः कारुण्यरससागर ! ॥ ११३ ॥ भक्त्याऽऽलिङ्गनकुर्वन्तम्, गजं स्वर्ग ददे त्वया । ततः कलिकुण्डनाम्ना, त्वं प्रथितोऽभवो भुवि ॥ ११४ ॥ नवाङ्गत्तिकर्तुश्चा-भयदेवगणेशितुः। कुष्ट हृत्वा त्वया नाथ !, कृतं हेमद्युतिवपुः ॥११५ ॥ पालनपुरनराधीशः, पालणः परमारकः । भ्रष्टराज्यं पुनर्लेभे, त्वत्पदाम्बुजसेवनात् ॥११६॥ उद्देशिश्रेष्टिनो गेहे, घृतद्धिस्त्वया कृता । ततोघृतकलोलाख्यो, नाथ ! त्वं भुवि विश्रुतः ॥१७॥ १ स्वप्ने. प्र. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) पुत्रार्थेव फलंतस्य (?), वृद्धिस्तत्र त्वया कृता। ततः फलवृद्धिः नाम्ना, ख्यातः क्षोणीतलेऽभवः ॥११८॥ एलचपुनरेन्द्रस्य, सदाहकीटकुष्टिनः । कुष्ट हत्य त्वया नाथ !, कृदेहं (2) स्वर्णसन्निभं ॥ ११९ ॥ अत्राप्य न्तरिक्ष स्थातु-मिच्छाऽभूत्ते कलौ परं । मल्लधारिस्तवतुष्ट, एत्य चैत्ये स्थितोऽसि भोः !॥ १२० ॥ एवं कियदर्णयामि, भोऽनन्तवर्णगर्भित !। यदि सहस्रजीहवोऽपि, पारं न तहं कथं ॥१२१ ॥ इंगीहक् चमत्कारः, दर्शितो भुवि नाथ ! मे।। तर्हि किं ? नेत्रयुग्मं ते, कठिनमस्त्युद्घाटितुं ॥१२२॥ हा नाथ ! तात ! हा स्वामिन् !, हा वामाकुलनन्दन !। हाऽश्वसेनवंशदीप !, देहि प्रत्यक्षदर्शनं ॥ १२३ ॥ इष्टवस्तु यदि पुत्रं, पित्रौ न ददत स्तदा । कोऽन्यो दास्यति हे तात !, हा! हा ! ! नेत्रं देहि माम् ॥१२४॥ इत्युद्गारं कुर्वतो मे, त्रोटयामास दृक्पट । जनजयारवैः सार्द्ध-मद्राक्षं त्रिजगत्पतिम् ॥१२५ ॥ यथा घनेऽपगतेऽक, पश्यन्ति प्राणिनोऽखिलाः। तयाऽहं चक्षुःविषया-नद्राक्षे पदार्थान् पुनः(पुरः) ॥१२६॥ हा नाय ! सत्योऽसि पार्थों, लोहं हेमकरोभुवि । पार्थनायस्ततःसत्यं, तात ते तात (तात तात!) कृतोऽभिधम्१२७ (१हत्वा.) (२ पितरौ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) ततश्च पारणं कृत्वा, ऽहं हर्षोत्फुल्ललोचनः । पुनः पुनरन्तरिक्षं, ददर्श दृष्टिदायकम् ॥१२८॥ ततो रात्रौ सुसुप्ते मां, एत्याचख्यौ च देवता। वत्स ! त्वयाऽत्र कार्य च, लघुत्वाद् दीर्घमंदिरं ॥ १२९ ॥ प्रतिवुद्धः प्रभातेऽहं, श्राद्धान् तत्रोपदिश्य च । एकत्रार्थ कारयित्वा-ऽऽरम्भयामास मंदिरं ॥१३०॥ अन्यसङ्घम् विसाह, तन स्थित्वाऽल्पश्रावकैः। यावत् वत्सरकालेन, सस्माप नवमंदिरं ॥१३१ ।। ततः श्रीमद्विक्रमाब्दे १७१५, चैत्रसितषष्टयां रवौ। तन्नवमंदिरे नाथं, स्थापयामास सोत्सवं ॥१३२॥ तत्रापि सोऽन्तरिक्षोऽहं-न चस्पर्श भुवं तदा । स्तुत्यैकाङ्गुलमुच्चं च, निवेशितः कथंचन तत्र नाथं प्रतिष्ठाप्य, पूर्वाभिमुखमासने । बोधिबीजं समुत्पाद्य, कृतकृत्यस्तदाऽभवम् तत्रैव मद्गुरोः पादान्, भत्त्या श्राद्ध निवेश्य च । सूरे विजयदेवस्य, गुरुभक्तिपरायणैः ॥१३५॥ ततोऽपि कतिपयानि, स्थित्वा तत्र दिनानि च । भव्य र्भावैः परिभाव्य, देवदेवं फणिध्वज पुनरागमनोत्सौक्य-स्ततो निर्गत्येतस्ततः ।। सर्वत्र सु (सू) चयामासाऽ-न्तरिक्षअनोपकृते ॥१३७ ॥ १ स्वप्न आचख्यौ देवता. प्र. २ सस्पर्श. प्र. www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) एव मन्योऽपि यो मयं-धान्तरिक्ष श्रयिष्यति । पु (पू) रयिष्यति स तस्य, प्रभुः पुर्णमनोरथं ॥ १३८ ॥ ॥ ग्रंथकर्तुः प्रशस्तिः ॥ सप्ततीर्थताम्रपत्रं, हीरसूरिरकब्बरात् । लेखयित्वा जयं चक्रे, यावच्चन्द्रदिवाकरं ॥१३९ ॥ तच्छिष्योविजयसेनो, जांगिरं प्रतिबोध्य च । प्रतिपदि रवी जोवे, जीवदयामपालयत् ॥१४०॥ तच्छिष्यो विजयदेवो, भव्याम्भोजदिवाकरः। यवनादौ बहुज्ञातौ, दयाधर्म प्रवर्तित ॥१४१॥ तस्याभूवृद्धशिष्य, आचार्यों विजयप्रभः । सूरिगुणैरलञ्चक्रे, पादपीठं तदीयकम् ॥१४२ ॥ लघुस्तु भावविजयो, गणिपदसमन्वितः। सोऽहमेतद्ग्रंथकर्ता राज्ये श्रीविजयप्रमे ॥१४३॥ विक्रमाब्दे १७१५ रचितवान् , भव्योपकारकाम्यया । चरित्रं स्वकीयमेत-दन्तरिक्षकृपात्मकम् ॥१४४ ॥ इति जगद्गुरुश्रीविजयहीरसूरीश्वरपटधरश्रीविजयसेनमूरिपटधरश्रीविजयदेवमूरिशिष्य पं. भाव विजयगणिविरचितं स्वचरित्रं संपूर्ण: लिखितं पंन्यास श्री उमेदविजयगणोश्वरशिष्येण क्षान्तिविजयमुनिना वराडदेशस्थश्रीअन्तरिक्षपापवीत्रितश्रीपुरनगरे. प्रथमयात्रावसरे संवत् १९७८ फालगुन कृष्णाष्टभ्यां ।। (१ प्रवर्तितवान् ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # नमः सिघम् अथ श्री अन्तरिद पार्श्वनाथ स्तुतिगर्जित श्री ___ मन्नाव विजयगणि विरचित स्वचरित्रका हिंदि लाषान्तर. लेखक:-पन्यासपद विभूषित श्रीमान् उमेदविजयजी गणि शिष्य मुनि श्रीक्षान्तिविजयजो. प्रणम्य श्री महावीरं, केवलज्ञान भास्करम् । रागद्वेषविजेतारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः॥१॥ स्तुत्वा श्रीसद्गुरुं भत्त्या, उमेदविजयं गणिम् । यस्याऽभुवं प्रसादेन, बालोऽपि मुखरीतरः ॥२॥ स्मृत्वा सरस्वती देवी, जगजाडयविनाशिनीम् । यस्याः प्रसादयोगेन, समयज्ञानवानहम् ॥३॥ नत्वाऽनुयोगवृद्धेभ्यो, लिखामि देशभाषया । श्री अन्तरिक्षपार्श्वस्य, स्तुतिविवरणं मुदा ॥४॥ अर्थ-केवलज्ञानयुक्त, रागद्वेषकुं जितनेवाला, सर्व पदार्थकुंजाननेवाला, महावीरप्रभुकुं नमस्कार करके, जिस्का प्रसादसें बालपणेमें भी शास्त्रसम्मतभाषा वोलनेकी छुटवाला हुवा एसा श्रीमान् निजगुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उमेदविजयगणिवर्यकी भक्तिसें स्तुति करके, और जिस्के प्रसादसे में शास्त्रो (आगमो) का ज्ञानवाला हुवा एसी जगतका अज्ञानकुं नाश करनेवाली, सरस्वती देवीका स्मरण करकें और अनुयोग वृद्धोकुंभी नमस्कार करके देशभाषासें (हिंदीभाषासें) श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी स्तुति ( महात्म्य) का विवरण आनन्दसें । में (शान्तिविजय ) लिखताहुं. १-४ श्री पार्श्वनाथायनमः शान्तिरसमय और श्री परमानन्द स्वरूप (परमात्मा) को नमस्कार करके अन्य प्राणीओका उपकारके लीये प्रत्यक्ष अनुभव कीया हुवा चमत्कारको वर्णन करता हुं. १ यह जम्बूद्वीपका भरतक्षेत्रके मध्य खंडकुं शोभानेवाला और अनेक बगीचाओसें मनोहर सत्यपुर नामका (साचोर) नगर था.२ उस नगरमे ओशवालवंशमें उत्पन्न हुवा राजमल्ल नामका श्रावक रहता था. उस्की मुली नामकी ओरतने भानिराम नामका सौम्य पुत्रको ( लडकेको) जन्म दीया. ३ अन्यदा उस नगरमें शमादि (वैराग्यादि) गुणके समुद्र (भंडार) बहोत मुनिवरो करके युक्त आचार्यपदको धारण करनेवाले विजयदेवमूरिजी पधारे. ४ वरसादके आनेसें मयूरीकी माफीक सूरिजीका आगमनको मुनकर सभी श्रावक श्राविकाओ आनन्दसें वन्दन करनेकुं गये. ५ " चातकपक्षीकी माफोक आगम ( सिद्धान्त ) रूप अमृत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ (मेघजल) का पान करनेकी इच्छासें वह लोक आचार्य महाराज का चरनकमलको वंदन करके बैठे. ६ उस वख्त आचार्य महाराजभी सातनय चतुर्भगीयुक्त पापहठादेनेवाली और अमृतसे भी मधुर धर्मदेशना देने लों. ७ वह मूरिजी महाराजकी मधुर देशना सुनकर में प्रतिबोध पाया. और बडा आनन्दसे मेंने उसी गुरुजीके पास दोक्षा (साधुपणा) लीनी. उस दीक्षा बक्त गुरुजीने मेरा नाम भावविजय एसा रक्खा .८ तत्पश्चात् गुरुके संग मरुस्थलमें (मारवाड देशमें ) विहार करते मूत्र, प्रकरण, व्याकरण, साहित्य, ग्रंथचरित्रादीका यथाशक्ति मेने अभ्यास कीया. ९ विद्याभ्यासादि गुणोसे संतुष्ट होकर गुरुजीने जोधपुर नगरम श्रीचतुर्विध संघके समक्ष मेरेको गणिपद दीया. १० उस्केबाद आचार्यमहाराज पाटणका श्रीसंघको विनतीसें आबृराजकी यात्रा करके शिष्योके साथ गुजरातमें गये. ११ __ रास्तामें चलते गरमीकी ऋतु आगेसे मेरे दोनु नेत्रोमें रोग (बिमारी) होगया तबभी ज्युं त्युं करके अपने गुरुके साथ पाटण पहुंचा. १२ पाटणमें धनाढय श्रावकोए बहुत वैद्योसें अनेक औषधीयां द्वारा (द्रव्यानुसे) नाना प्रकारका इलाज कीया मगर तब भी मेरी दोनु आंख (नेत्र ) बंध हो गइ. १३ दीपकहीन घरकी तरह नेत्रहीन (अंधकारव्याप्त) मैंनै विज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदेवमूरिजीसें उस्का (नेत्र अच्छा होनेका) इलाज ( उपाय) पुच्छा. १४ मेरे पुच्छनेसें आचार्यमहाराजने मेरेपर कृपा करके संपूर्ण विधिविधानयुक्त पद्मावतीका महामंत्र मेरेकों दीया. १५ पीछे वहां चातुर्मास पूर्ण करके एक मुनिकी साथ मेरेको पा. टणमें रखकर आचार्यमहाराजजीए अन्यत्र विहार कीया. १६ ___उस्के पीछे गुरुमहाराजने दिखलाया हुवा वह मंत्रका विधि अनुसार आराधन करनेसें देवी पद्मावतीजी प्रत्यक्ष (स्वममें) आके मेरेको विस्तारसें इस तरह कीया. १७ काचबाका (कच्छपका) लंच्छनवाला और हरिवंशमें उत्पन्न हुयें ऐसें (वीसमातार्थंकर)मुनिसुव्रतस्वामीकै शासनमें महाबलशाली रावणनामका प्रतिवामुदेव हुवाथा. १८ । वह रावणे कोइएक दिन अपना स्वस्पति (बनोइ) खरदूषण राजाकों कोइ कार्यके लीयें बहोत जल्दीसें भेजा. १९ पाताललंकाका मालिक वह खरदूषण नामका विद्याधर रा. नाभी विमानमें बेठके पक्षीकीतरह आकाशमार्गसें चल्या. २० (वहांसें) बहुत नगरो, देशो, वनखंडो और पर्वतोको उल्लंघन करके भोजनसमये विगोलिदेशमें पहुंचा. २१ । उसीसमय वहराजा भुमिपर उतरकें स्नान करकें पूजाके उपकरणो लेकर जिनचैत्य (मूर्ति )को मेरी पास ले आव इसतरह रसोइ बनानेवालेकुं कहा. २२ उस वखत भयभ्रांत हुवा वह रसोइया हायको मस्तकके उपर www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रख, नमस्कार करके बोला, हे स्वामिन् ! गृहचैत्य (मूर्ति) पाताल लंकामें भुल गया-रह गया है. २३ ___ यह वचन सुनकर राजानें वहांही रह्या हुवा बालु और गोबर लेकर श्रीपार्श्वनाथजीकी प्रतिमा ( अपने हाथसें) बनाइ. (और)२४ नमस्कार (नवकार) महामंत्रोसें प्रतिष्ठित की. पीछे पूजन करके आशातनाका भय से पाणीवाला कूपमें पधरा दीनी. २५ . वह कूपमें पडतेही उसी वखत कूपमें रखा हुवा देवनें उसमूतिको पुण्यसमूहकी माफक ग्रहण करके वज्रके समान करदी. २६. खरदूषण राजाभी रसोइ जीमके वहांसें रवाने हुवा और रावणका कार्य करके शीघ्रही पीछा कानगरीमें गया. २७. __उस वखतसें लेकर बहुत कालतक वह देवनें उसी कूपमें भावि जिनेश्वरका बिंबको भक्तिसें पूज्या. २४ . शास्त्रोमें बताया हुवा साढीपञ्चीस आर्यदेशोमें वैराटनगरसें यह देश मत्स्यदेश मालुम होता है. २९ . वह देश उस वखतमें विंगोलि नामसे प्रसिद्ध था उस्के पीछे वह देश वैराटनगरसेंही वैराट हुवा. और अभी तो 'वराड ' इस नामसें प्रसिद्ध है. ३० वह वराड देशस्थ एलचपुर पत्तनमें प्रजाकें नेत्ररूप कैरवोकों आहलाद देने में चंद्रकेसमान चंद्रवंशी श्रीपालनामका राजा था. ३१ श्रीपाल नाम उस्का मातापिताका दिया हुवाथा और युवाचस्थामें अच्छीतरहसे इला (पृथिवी)का पालन करनेसें लोकोने 'इलच' एसा नाम दियाथा ३१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यदा पापकर्मोदय आनेसें राजाका शरीरमें भयंकर कोढ रोग हुवा उससे वहराजा वारंवार मूर्छा पाताथा, ३३ ।। __अनेक प्रकारकें ऊषधको जाननेवाले वैद्योंने बहुत से उपचार कीया लेकिन उपवन बगीचें और जलाशयोमेंसे कीसी स्थानमें राजा लेशमात्र शान्ति पाया नही. ३४ वह वेदनासें व्याकुल हुवा एलचराना रोगकी शान्तिकें लीये एकदिन अपना नगरसे बाहिर निकला. ३५ वहां पानीकी तृषासें व्याप्तहुवा राजा, इधर उधर घुमता, जहां चिंचा (आमली)का दरखतकें नीचें पार्श्वनाथ प्रभु करकेसहित कूप है वहां आया. ३६ उसी वखत वह कूप (वावडी)में, हाथ पग और मुखको प्रक्षालन करके, निर्मल तथा स्वादिष्ट जलको पान करके पीछे राजा अपना पडावपर आया. ३७ धुप (गरमी)का वखत जानेपर, सायंकालमें शान्त चित्तवाला वह राजा अपना पडावमें अपनी राणीके साथ पल्यकमें मुत्ता. ३४ जो राजा हमेशां रातभर (विना पाणीका) मत्स्यकी माफक तरफडता था वह राजाकों उस रात्रिमें निश्चिंत तया इच्छानुसार निद्रा आइ. ३९ प्रातःकालमें जिसवखत राजा उठा उस वखत राजाका हाथ पग और मुखको निरोगी देखकर, राणीनें राजाको पुछा. ४० हे स्वामिनाथ ! गये कलदिन आपने हाथ पग और मुख कहांपर धोयाया? कि जिससे आजे यह रोगरहित मेनेकुं दिखता है.४१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे नाथ ! आप फिरभी वहां चलों और संपूर्ण अंगकों उस्मै प्रक्षालन करो, वह पानीसे हि आपका कोंढ रोग जावेगा. ४२ इस तरहका रानीका वचनसे प्रतितीवाला होकर राजाने वहां जाकर श्री पाचप्रभुके पवीत्र पानीसें सर्वांगका प्रक्षालन किया. ४३ जेसें अग्निसें तत्काल सुवर्ण शुद्ध (निर्मल) होता है ऐसें वह पानीसें उस राजाका शरीर तत्काल निरोगी हुवा. ४४ उससे आश्चर्य पाया हुवा राणीसहित इलचराजा अन्नपान (खानापीना) छोडकर वह देवकी आराधना करने लग्गा. ४५ हे कूप ( वावडी) के भीतरका अधिष्ठाता ! हे हे क्षेत्रदेवता !! इधर जो कोइ होवे वह सकृपा मुजे दर्शन देवे. ४६ एसा बोलकर राजा बेठ गया और तिनदिन जानेपर उस्को दृढनिश्चयवाला देखकर वहा रह्या हुवा देव,-४७ प्रत्यक्ष ( स्वप्नमां) आकर एलचराजासें बोला. हे राजन् ! इधर ( यह कूपमें) खरदूषणराजाका रक्खा हुवा पाचप्रभुका बिंब ( मूर्ति ) विद्यमान है. ४८ वह मूर्तिका स्पर्शसें यह पानी महा पवीत्र हुवा है उस पानीसें स्नान करनेसे तेरा शरीर निरोगी हुवा है. ४९। यह प्रतिमाका स्पर्शवाला पानीसें स्वास, खांसी, (खोकला) ज्वर (बुखार ) शूल और कुष्ट वगैरह असाध्य रोगोभी निश्चे विनाश होता है उसमें संदेह नही है. ५० औरभी वह मूर्ति से स्पर्शा हुवा पानीसें अंधा पुरुष नेत्रोकों (पाताहै) बधिर कर्णविषयको; मूक मनुष्य, वाणीको, पंगु आदमी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगोको, अपस्मार व्याधिले पीडित उस-रोगरहित शरीरको पराक्रमहीन महापराक्रमको और धनका अर्थी धनको सुंदर स्त्रीका अर्थी सुन्दर स्त्रीको, पुत्रका अर्थी पुत्र और पौत्रको, राज्यसे भ्रष्ट हुवा महाराज्यको, पदस भ्रष्ट हुवा उत्तम पदको, जयकी इच्छावाला जयकों, विद्याहीन, सरस्वतीको, पाता है तथा भूतवैताल-डाकिनी शाकिनी प्रमुख भाग जाते है और सब कुग्रहो भी शान्त होते है. ५१ से ५४ ।। हे राजन् ! यह मूर्तिका ज्यादा वर्णन करनेसे क्या! इस कलियुगमें यह मूर्ति चिंतामणिरत्नके माफिक प्रत्यक्ष आना इष्टकार्यको सिद्ध करने वाली है. ५६ नागराज धरणेद्रका में सेवक (देव) हुं. और उसका हुकमसे इहां रहकर भक्तिसें में आप भगवानकी मूर्तिकुं पूजता हुं. ५६ इसतरह प्रभुका महात्म्यकु सुनकर भक्ति उल्लसित मनवाला राजानें वह देवके पास, प्रत्यक्ष चमत्कारिणी मूर्तिकी याचना कीया. ५७ तब देव बोल्या. हे राजन् ! सुण. धन्यधान्यादि जो कुच्छ तु मांगेगा वह तेरी इच्छानुसार तेरेको में देउगा. लेकिन मूर्ति कभोभी नही देऊ. ५८ एसे अनेक प्रकारके वचनोसें देवनें बहुत समजाया, लेकिन मूर्तिको गृहण करनेकी इच्छावाला वह राजाए पारणा नहीकीया. ५९ चाहे प्राण जाय तबभी (मूर्तिविना) नहिजाना एसा दृढ नि. श्वयवाला राजानें वहां अन्नपाणी लीयाविना सातदिन निकाला.६० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस तपका बलसें खुद धरणेंद्र रात्रीमें (स्वप्नमें) आ कर उसकुं जाग्रत करके इस तरह कहा. हे राजन् ! तुं कायके वास्ते हठ करता है. ६१ महा चमत्कारिणी इस मूर्तिकी सेवा तुमेरेसे नहि हो सकेगी और तेरातो कार्य सिद्ध हुवाहै इसलीये हे राजन् तुं अपने घरकुं चलाजा. ६२ ___ तब राजा बोला. हे फणिराज! अपना पेट भरनेसे क्या! अतएव जगतका उपकारके लीये प्रभुकी मूर्ति मेरेकुं देनी चाहीए.६२ हे नागराज ! मेरा प्राण जावे तबभी मूर्ति लीयेविना में नहि जाउगा, चाहे दों अथवा मतदों मेरा प्राण वह प्रभुमेही है. ६४ एसा सुनकर साधर्मिको दुःख होवेगा एसा भयसै वह एलच पुरका मालिक राजाकुं नागराज धरणेंद्रे इस तरेह कहा. ६५ - हे राजन् ! तेरी भक्ति से संतुष्ट हुवा, में प्राणसेंभी वल्लभ और महा चमत्कारिणी यह मूर्ति दुनीयाका उपकारके लीये तेरेकुं देउंगा. ६६ लेकिन हे राजन् ! तेरेकुं यह प्रभुकी आशातना करना नहि, यदि आशातना करेगा तो मेरा मनमें बड़ा भारी दुःख होवेगा.६७ में आशातना नहि करुंगा एसा राजाने कबुल करनेसें नागराज बोल्या. हे राजन् ! सुन, प्रात:कालमें स्नान करके स्वच्छ होकर तेरेकु कूपके नजीक आना. ६८ * और नाल (जवारीके डांठा)की पालखी बनाकर उस्कुं सूतका www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंतुसे बांधकर सूतकु हाथमें पकडके घटकी तरह उस कूवेमें उतारना. ६९ उस पालखीमें मूर्ति में स्थापन करुंगा, पीछे बहार निकालके वधाकर नाडि (डांठा)का रयमें स्थापन करना. ७० - पीछे सातदिनके गोले दो बाच्छडे रथमें जोडक वह रथकी आगे आगे चलना, और तेरी पीछे पीछे वह रथ आपसे आप चला आयगा. ७१ इस तरह जहां तेरी इच्छा होवें तहांतक पार्थ प्रभुकी मूर्तिकुं लेजाना, लेकिन रस्तेमें पीछा देखना नही. यदि पीछे देखेगा तो, प्रभु नही आवेगा. ७२ __यह पंचमकाल होनेसे में मूर्ति अधिष्ठित होकर अदृष्टतया (पणे) मूर्तिकी उपासना करनेवालाका मनोरथ पूर्ण करुंगा. ७३ __ इस तरह बोलके पीछली रात्रीमें नागराज चला गया, पीछे प्रातःकालमें जाग्रत होके राजाने उसी वखत नागराजका कथनके अनुसार सब कीया. ७६ पीछे बाहिर आइ हुइ मृतिकुं नाल (जवारीका डांठे) का, रथमें स्थापन करके और सातदिनके दो वच्छडेकुं रथमें जोडकें रथके आगे राजा चल्या. ७५ कितनेक दूर मार्ग जाते राजा मनमें विचारनैलगा कि रथका अवाज सुननेमें नही आताहै तब क्या ! प्रभु नही आताहैं ? ७६ ... एसा विचारके राजाने प्रभुके सन्मुख वक्र दृष्टिसें देखा, जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुकें उपर उस्का दृष्टिपात हुवा उसी वखत प्रभुकी नीवेसें रथ निकल गया. ७७ वहा वडवृक्षको नीचे जमीनसें सात हाथ उंचा अन्तरिक्ष (आकाश) में रहे हूवे प्रभुकुं देखकें उसवखतसें ( लोको) अन्तरिक्ष (पार्श्वनाथ इस तरह) कहने लगें.७८ भगवान् मार्गमेंज रहनेसें खेदित हूवे, राजा राणी मंत्रि प्रमुखसें आराधित धरणेन्द्रनें कहा कि भगवान् इघरज रहेगा. ७२ ए बातकु सुनकर राजाने बडा विशाल रंगमंडपसें सोभित लक्षमुद्रा नामक मंदिर वहांही तैयार कराया. ८० वह मंदिर संपूर्ण हुवा देखकर (राजाको अभिमान आनेसे बिचारने लगा किं अहो एसा मंदिरस मेरा नाम बहोत कालतक रहेगा. ८१ __बह मंदिरमें बेठनेके लीयें भगवानको राजाने प्रार्थना किया, लेकिन राजाको अभिमान होनेसें भगवाद ना आते है. ८२ उससे खेदित होकर राजाने फिर धरणेद्रको बोलाया परंतु वह धरणेंद्रभी राजाका अभिमानका कारनसेंहि आया नहि. ८३ तब अतिखेदित और बहुत दुःखी होकर राजाने मंत्रिसे पुच्छा कि प्रभु मंदिरमें आते नही है क्या उपाय किया जावे ? ८४ ए वचन सुनकर हृदयमें सोचकर मंत्री बोला हे स्वामिन् ! इसकार्यमें एक आय है सो मेरा वचन आप सुनें. ८५ सर्व शास्त्रोमें विशारद (विद्वान् ), और बहुत राजाओमें माननिक, एसा अभयदेव नामका आचार्य देवीका बलयुक्त सुनें है. ८६ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और गुर्जर देशका मालिक, कर्णके समान पराक्रमी कर्णराजा में वहआचार्यको 'मल्लधारि' एसा महान्पद दीया है. ८७ वह आचार्य गतवर्षमें स्तंभनपुर (खंभात)का उत्तम संघके साथ माणिक्यदेव (कुलपाकजी)की यात्रा करनेकुं इधर आयें है.८८ यह आचार्य अभी देवगिरि नामका नगरमें विराजते है. हे स्वामिन्! यदि कोइभी उपायस साधुक सहित बह आचार्य इहां आवें. ८९ तब वह आचार्य आपका यह इष्ट कार्य जरुर करेगा एसा सुनके राजाने मंत्रिको भैनकर वह आचार्यको वहां बोलाया. ९० आकाशर्मे रहे हवें प्रभुकुं देखकें बडा आश्चय पाया हुवा. आचायेने राजासें सब पूर्वकी हकीकत सुनकर तेला (तीन उपवास) करके धरणेंद्रको याद कीया. ९१ __उस वखत धरणेदें वहां जाकर आचाय महाराजसें कहा कि यह मंदिर बंधाकर राजानें अपने मनमें बडा मद ( अभिमान कीया है. ९२ उसके लीयें यह राजाका मंदिरमें (भगवान) नहि बिराजेंगे लेकिन, संघका बंधाया हुवा मंदिरमें (भगवान् ) बेठेगा, इस प्रकारका धरणेंद्रका वचन सुनकर सुरिजीने श्रावक संघकुं एकत्र करके कहा. ९३ भोः सब श्रावको ! सु तुम लोक तैयार करावो, उसमें भगवान वेठेगा. ९४ एसा सुरिजीका वचन सुनकर, सरिजीक संग जाये हुवे श्रद्धा और भक्तियुक्त श्रावकोने मिलकर नवीन मंदिर तैयार कराया. ९५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीछे आचार्य महाराजकी स्तुतिसें देवसें अधिष्ठित अंतरिक्षपाश्वनाथे स्वयं आकाशसें उतर करके सब लोको देखते वह मंदिरमें प्रवेश कीया. ९६ वहमंदिरमें भी जमीनसें सात अंगुल उंचा ( अधर) रहा हुवा प्रभुकी आचार्य विक्रम संवत ११४२ में माघ शुक्ल पंचमी रविवार के दिन विजय मुहूर्त में प्रतिष्ठा विधिसे प्रतिष्टा की. ९७-९८ । वह मंदिरमें हि भगवानकी आगे वाम (बांही) बाजुमें भगवानकी अधिष्टायका शासनदेवीको तीर्थरक्षाके लीयें सूरीजीए स्थापन कि. ९९ उस बखत एलच राजाने भगवानका शीरपर विविध तरेहका रत्नोसें सुशोभित मुकुटकों स्थापन करके और भगवानकें दोनु कणों में कुंडलो पहिना करके और भालस्थलमें श्रेष्ट हीराको स्थापन करकें, तथा अमृत वर्षने वाले चक्षुको स्थापन करके, तथा कंठमें मुक्ताफल (मोति)का हारको रख करके, और, शरीरपर सुवर्णकी आंगी चडाकरके, और सूर्य बिंबको निस्तेज करनेवाला भाम. डलकुं भगवानका मस्तकके पीछे रखकरकें तथा मस्तकके उपर मेघाडंबर नामका श्वेत छत्रको बांध करके, और अपने गलेमें संघविकीमाला पहिनकर तथा गुरुका वासक्षेपको शिरपर धारणकरके अज्ञानरूप अंधकारको दूर करनेके लीये आरती उतारी. १००-१०३ फिर वहां श्रीमान् (प्रभु)का निवास होनेसें श्रीपुर नामका एक नगर वसाकरके वह श्रीपुर नगरकुं एलराजानें भगवानकी पूजाके लीये अर्पण कीया. १०४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जहांपर भगवान निकलेथे वहांका पानीसें सबलोकोका उपकारके लीयें वह कूपका एलचराजाने बडा कुंड बंधाया. १०५ : उस वखत राजाकी विनतिसें मूरिजीनें वहांहो चातुर्मास करके पीछे भव्यजावोकुं प्रतिबोध देते हुवे दुसरे देशमें विहार करगये. १०६ इतनी बात बोलकर, पीछे पद्मावती देवीन, कहा कि, हे भावविजय! तुमभी वहां जाओ और वही प्रभुका आश्रय लो, एसा करने से हि तुमेरा दोनु नेत्रो पीछा आवेगा. १०७ इसतरह रात्रिमें (स्वममें ) पद्मावती देवीकी वाणी सुनकर अपना गुरुभाइको और श्रावकोकुं यहवात कहकें उन सबको साथलेकर में अंतरिक्षजी (श्रीपुर) गया. १०८ वहां पहोचनेसें संघ सब यात्रियोकों भगवानकें दर्शन हुवें लेकिन, अभाग्यशेखर एसा मेरेंको प्रभुकें दर्शन नहि हुवे. १०९ तब बडा खेदित होकर-अन्न पानीका त्याग करक भगवानकादर्शनमें उत्सुक बनकर मेने अनेक प्रकारक स्तोत्रोसें अन्तरिक्ष पार्थनाथजीकी स्तुति करना इसतरह शरुकीया. ११० अपकार करनेवालेकाभी रक्षण करनेवाला, कलिकालमेंभी प्रत्यक्ष चमत्कार बतलानेवाला, और इष्ट फलको देनेवाला हे प्रभु आपकुं नमस्कार हो. १११ हे नाथ ! विना स्वार्थ सर्पकों आपने धरणेन्द्र बनाया, और बति निष्ठुर कमठ नामका वैरी असुरकुंभी आपे सम्यक्त्व दिया.११२ हे दयारसके समुद्र ! हे स्वामिन् ! बहुत कालतक आपको www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा करनेवाला आषाढाभूतिक नामका श्रावकको आपे मोक्ष दीया. ११३ भक्तिसें आलिंगन करता (कमल चडाता) हाथोकुं आपे स्वर्ग दीया, उस वखतसें आप 'कलिकुंड पार्थनाथ' इस नामसे जगतमें मसिद्ध हुवें. ११४ हे नाथ ! नव अंगकी टीका करनेवाले अभयदेव मूरिजीका कोढ रोगको नष्ट करके आपें कंचन तुल्य उस्का देह कोया. ११५ पालनपुरका मालिक पालणनामका परमार आपका चरण कमलकी सेवासें गया हुवा राज्यकुं पिच्छा मिलाया. ११६ हे नाथ ! उद्देशि शेठके घरमें आपें घीकी वृद्धि कोनी उससे आप 'घृतकल्लोल पाश्वनाथ' ए नामसें दुनीयामें प्रसिद्ध हुवें. ११७ ___ और पुत्ररूप फलकी प्रार्थना करने वालेकु वह फलकी आपे वृद्धि को उसमें पृथिवीतलमें आप 'फलद्धि पार्श्वनाथ ' इस नामस प्रसिद्ध हुवें. ११८ दाह और कीडा करकें युक्त कोढरोगवाला एलचपुरका राजाका कोढको हरण करके हे प्रभु आफै सुवर्णके समान उस्का शरीर कोया. ११९ यह कलियुगमें भी आकाशमें रहेनेकी आपकी इच्छा हुइ और हे प्रभु मल्लधारि अभयदेव मूरिजीकी स्तुतिसे संतुष्ट होकर मंदिरमें आ करके आप ठहरे हों. १२० हे अनन्तश्लाघागर्भित ! अब में कितना वर्णन करूं. यदि हजार जीवावालाभी पार नही पावें तो में केसें पाउं. १२१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे नाथ ! एसें एसें चमत्कार जगतमें तुमनें दिखाया तो क्या? मेरा दो नेत्रकुं खोलना आपकुं कठीन है ? १२२ . हा नाथ ! हे तात ! हे स्वामिन् ! हे वामा कुलनन्दन ! हा अश्वसेन वंशदीपक ! प्रत्यक्ष दर्शन दीजीयें. १२३ माता पिता यदि पुत्रकों इष्ट वस्तु नहि देगा तब दुसरा कोन देवेंगा, अतएवं हे तात ! हे स्वामिन् ? मेरेकों नेत्र दीजीयें. ११४ इसी प्रकार बोलते हि मेरा नेत्रका पडल तोड डाल्या, और लोकोका जय जय शब्बके साथ त्रिजगत्पतिका दर्शन मेरेकुं हुवा.१२५ और जेसें बादल दूर होनेसें समस्त प्राणीगण सूर्यकुं देखता है एसें चक्षुः विषयक पदार्थोकुं में आगे देखने लगा. १२६ हे नाथ ! जगतमें लोहकुं सुवर्ण बनानेवाला सच्चेसच्चा आपज पार्थ (मणि) है और हे तात तात ! उसी कारणसें खरेखर (आपका) पार्श्वनाथ एसा नाम रक्खा है. १२७ - उसके पीछे आनन्दसें विकस्वर नेत्रवाला में पारणा करके नेत्रकुं देनेवाला अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकुं वारंवार देखने लगा. १२८ पीछे रात्रीमें सोनेके बाद स्वप्नमें आकर देवीनें मेरेकुं कहा, कि हे वत्स ! इधर छोटा मंदिर होनेसें तेरेकुं वडा करना चाहीयें.१२९ प्रातःकालमें उठकर वहांज श्रावकोकुं उपदेश देकर धन एकत्र कराकर मैंनें मंदिरकी शरुयात करवाइ. १३० दुसरा संघको रवाने करकें थोडासा श्रावको के साथ में वहां रहा और एक वरसमें नया (नवीन) मंदिर तैयार करवाया. १३१ पीछे विक्रम सक्न १७१५ की सालमें चैत्र शुक्ल छठ रविवार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के दिन वह नया मंदिरमें उत्सबके साथ भगवानको स्थापन कीया. १३२ वहांपरभी वह अन्तरिक्ष अरिहंतने जमीनको स्पर्श नहीं कीया, लेकिन बडी मुशकेलीसें, स्तुति-प्रार्थना करकें जमीनसें एक अंगुल उंचे स्थापन कीया. १३३ - उस वख्त वह मंदिरमें पूर्व सन्मुख आसनपर प्रभुकुं स्थापन करकें और (निर्मल) सम्यक्त्वकुं उपार्जन करके और वहीन मंदिरमें मेरा गुरु श्री विजयदेवसूरि जाकें चरण पादुका कों गुरु सेवा परायण श्रावकोद्वारा भक्तिसें स्थापन करा क में कृत कृत्य हुवा. १३४-१३५ उस्के पीछेभी कितनेक दिन वहां रहकर, देवाधिदेव पाचनाथको श्रेष्टभावसे वारंवार, भेटके, १३६ इधर पीछे पीछा आनेमें उत्सुक बनकर, में वहांस निकलकरके रास्ता में इधर उधर सब जगे लोकोंका उपकारके लीये अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ( का महात्म्य ) की सूचना किनी. १३७ ।। - इस प्रकार दुसरा कोइभी आदमी अन्तरिक्ष पार्श्वनाथजीका आश्रय करेगा उसकाभी मनोरथ वह प्रभु पूर्ण करेगा. १३८ ग्रंथकारकी प्रशस्तिः । जगद्गुरु श्री विजयहीरसूरीश्वरजीने अकबरबादसाहसें सात तीर्थके ताम्रपत्र लिखाफर यावत्चंद्रदिवाकर जय कीया. १३९ . उनके शिष्य श्री विजयसेनमूरिजीने जहांगीर बादशाहकों प्रतिबोध देकर प्रतिपदा. रविवार और गुरुवार जीवदया पलाइ. १४० . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके शिष्य भव्यप्राणीयोरूप कमलोको विकस्वर करनेमें सूर्यके समान श्री विजयदेवेन्द्र रिजीने यवनादि बहुत ज्ञातियोमें दयाधर्म फेलाया. १४१ उनका बडा शिष्य विजयप्रभमूरिजी हुवा. वह मूरिगुणोसें विभुषित उनका (गुरुका) पाद पोठका शोभाता था. १४२ और उनकाहि छोटाशिष्य गणिपदस अलंकृत भावविजय, नामका विजयप्रभसूरिजीक राज्यमें हुवा सो में यह ग्रंथका कर्ता हुं. १४३ , विक्रम संवत् १७१५ की सालमें भव्य जीवोका उपकारकी इच्छासें अन्तरिक्षपार्श्वनाथकी कृपा स्वरूप मेरा चरित्र मेनें रच्या. १४४ इति जगद्गुरु श्री विजयहीरसूरिश्वर पटधर श्रीविजयसेनमूरि पटधर श्री विजयदेवमूरि शिष्य पं. भावविजथगणि विरचितं श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ कृपात्मकं स्वचरित्रं संपूर्ण. लिखितं पंन्यास श्री उमेदविजय गणीश्वर शिष्येण क्षान्तिविजय मुनिना वराड देशस्थ श्री अन्तरिक्षपार्श्वनाथ पवित्रीत श्रीपुरनगरें. • प्रयम यात्रायां संवत् १९७८ फाल्गुन कृष्णाष्टम्यां मूलं लिखित द्वितीय यात्रायां संवत १९७८ ज्येष्ट कृष्णदशम्या देशभाषया लिखितं. मंगलं भगवान् वीरो-मंगलं गौतम प्रभुः॥ मंगलं स्थूलभद्राद्याः, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रीपरमगुरुभ्योनमः श्री वंकचूलियासूत्र-सारांश. लेखक-मुनि खान्तिविजयजी भत्तिभर नमिय सुरवर सिरि, सेहर किरण रइय सस्सिरियं । नमिउं सिरिवीरपयं, वुच्छं सुयहीलणुप्पत्तिं ॥१॥ भक्तिना समुहे करी नमेला देवेंद्रोना श्रेष्ट मुगटनी कान्तिनी रचनाथी शोभायमान श्रीवीर प्रभुना चरणने नमिने श्रुतहेलनानी उत्पत्ति कहीश. श्रीवीर प्रभुना निर्वाणथी वीस (२०) वरसे श्री सुधर्मस्वामिनु निर्वाण थयु त्यारवाद चुमालिस (४४) वरसें चरम (छेला) केवली (केवलज्ञानी) श्री जंबूस्वामी सिद्धि पाम्या । त्यार बाद इग्यार (११) वरसें श्री प्रभवसूरि स्वर्ग गया, त्यार बाद त्रेवीस (२३) वरसे स्वयंभवसूरि स्वर्गे गया । त्यारपछी श्री स्वयंभवमूरिना शिष्य अने आगमना वेत्ता श्री यशोभद्रसूरिजी पृथ्वीमां विहार करता सावत्थी नगरीना कोष्टक नामा उद्यानमां समोसाँ। वे वखते द्वादशांगीना धरणहार श्री भद्रबाहुस्वामी अने संभृतिविजयजी ए बे शिष्यो सदा तेमनी पासे रहेता नित्य गुरु शुश्रुषा-सेवा करे छ । आ अवसरे अनिदत्तनामा श्री भद्रबाहुस्वामीना शिष्य मिथिला नगरीए लक्ष्मीक नामना उद्यानने विषे प्रतिमाए (काउसग्गध्याने) रहाछता तप आचरे के-करे छे । ते समये मद्य (दारु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिरा) अने मांसना आहारयी परवश थयेला तथा कामलता नामे गणिकाने विषे आसक्त थयेला बावोस (२२) गोठील पुरुषो (मित्रो) भेगा थइने ते उद्यानमां सदाकाल विचरे छे-फरे के (भव.१)। त्यां प्रतिमाए रहेल अग्निदत्त मुनिने देखीने, मदांध दयारहित महापापी ते बावीस पुरुषो अति तीक्ष्ण शस्रो हायमां लेइ समकाले साधुने हणवा दोडया। दोडतां वचमा रहेल अंधकूपमा समकाले सर्वे पुरुषो पडया, अने मांहोमांहे शस्त्रे हणाया छता मरणने शरण थया. ते देखी कृपालु मुनि विचार करवा लाग्या। हा हा खेदनी वात छे के ए विचारा रांकडा मनुष्यपणु पाम्याछतां जिनधर्मथी वंचित रही अकाले जीवितव्यथी रहित थइ क्या उप. ज्या हशे ते ज्ञानी जाणे । इम चिंतवी काउसग्ग पारीने अग्निदत्त मुनि त्यांथी चाल्या, अने ज्यां गुरुना गुरु (यशोभद्रमूरि) छे, त्यां आवी इर्यावही पडिक्कमिने-गमणागमणे आलोइने । गुरुमहाराज प्रत्ये वंदन करे-याने प्रथम श्री यशोभद्रसूरिजीने वांदी पछी श्री भद्रबाहुस्वामी तथा श्री संभृतिविजयसूरिने नमस्कार करीने पछी गुरुमहाराज श्री यशोभद्रसूरिजीनी आगल हाथ जोडीने प्रश्न करे-पुच्छे । अथ प्रश्न-हे भगवन् ! ते महा अधर्मि बावीस गोठिल पुरुषो अकाले मरण पामी क्या उत्पन्न थया. अयवा कर्मवसे कइ योनिमंडलमां परिभ्रमण करस्ये तथा ते बावीस पुरुषो | ? सुलभ बोधि छे अथवा दुर्लभबोधि थास्ये ए प्रश्ननो मारो शंसय कृपा करी निवारो. त्यारे तुंगियायण गोत्रवाला त्रणज्ञानयुक्त तया दृष्टिवादे भावित अन्तःकरणवाला ते यशोभद्रगुरु श्रुतज्ञाननो उपयोग www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दइने-ते बावीस गोठिल पुरुषो कर्मयोगे क्या उपन्या तथा कई योनिमंडलने विषे परिभ्रमण करस्ये तथा दुलभबोधि यस्ये एवं जोइने-निश्चय करीने अग्निदत्तनामा शिष्यने-आ प्रमाणे कहे-हे अग्निदत्त ! ते गोठिल पुरुषो तमने मारवा आवता हता ते पोते पो. तानी मेलेज मद्य मांसने परवशपणे अंधकूपमा पड्या अने मांहोमांहे तीक्ष्ण शस्त्रोथी अंगोपांग छेदावाथी आर्त तथा रौद्रध्यान व्याप्त तथा वारंवार कामलता गणिकाने इच्छता सुकृतनो क्षय थवाथी अन्तर्मुहुर्त्तमात्रमा तेवा अध्यवसाये करीने ते कामलता गणिकाना दक्षिण (जमणा) स्तननी बीटडोमां क्रमिनीयोनिमा (क्रमिपणे) उत्पन्न थया. (भव-२) त्यारबाद हे अग्निदत्त ! कामलता गणिकानी नानी बेटडीए ते गोठिल पुरुषो क्रमिपणे संक्रम्याथी अतुल-असह्य स्तननी वेदना उत्पन्न थइ. ते वेदनाथी पीडा पामती कामलता गणिका अनेक विद्वान वैद्योने स्तन देखाडती घणा मंत्र तंत्र औषध भैषज्ये उपचार करावती-औषध करती पिचरे त्यारे हे अग्निदत्त मुने! एक विद्वान् वैद्य तेनो उपाय जाणी शस्त्रक्रियाये करी स्तनने विदारीने-चिरीने तेमां बावीस क्रमि-कीडा-बेइंद्रिय जीव हाड-मांस रुधिरबद्ध हता तेमने काढी-छुटा पाडी पाणी भरेला भाजनमा मकिने कामलताने देखाडे तथा स्तनना मांस चर्मने सूत्रथी (दोराथ') सांधे अने संरोहिणी औषधिये समाधि पमाडे. त्यारे हे अग्निदत्त ! ते बावीस किडास्तनमांथी काढये छते, कामलता गणिका समाधि पामी तेथी ते वैद्यने घणा असन-पान-खादिम-स्वादिम-वस्त्र-माल्य-अलंकार विगेरे जीवे त्यां सुधी पहोचे तेटल भीतिदान देइने खुशी करीने www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्जन करे-जवानी रजा आपे. त्यारबाद ते क्रमि-कीडाओमा पूर्वना बंधायेल रागयी ते कामलता करूणाये चिंतवे ए जीवोर्नु मरण मारा हाथयी मा थाओ एम विचारीने ते कीडाओने लइने मिथिला नगरीनो खाइमां पडेल शुक शोणितवाली जमीनमां मुके स्यां ते बावीश कीडा ताप-भूख-तृषाथी पराभव पामता अन्तर्मुहुर्त पृथक्त्वे (बेथीनव ) काल करीने त्यांयो हे अग्निदत्त ? ते बावीस जीवो साधारण वनस्पतिमां कंदमूलनी जातिमां एकेंद्रियपणे उत्पन्न यस्ये (भव ३) ते काले पृथ्वीखणतां दुख पामता ते बावीस ऋमि जीवो पृथवी १ पाणी २ अग्नि ३ वायु ४ वनस्पति ५ ए पांच स्थावरने विषे जघन्य मध्यम आउखे उपजस्यै [भत्र १३ ] त्यार पछी हे अग्निदत्त ! ते बावीस क्रमिजीवनो तेज कामलता गणिकाना उदरमां गंडोलापणे उत्पति थस्ये [भा १४] त्यां चिकिसके-वैद्य रेच आपी गुदाद्वारा विष्टायी खयडायेला जंगवाला ते बावीसें काढया पछी अंतर्मुहुर्तमां मरीने ते विष्टामांज बेइंद्रियपणे उत्पन्न थस्ये [भव १५ ] त्यांथो वली अन्तर्मुहुर्तमां मरीने ते वावीसे तेइंद्रियपणे उत्पन्न थइ [भव १६] मरण पामी तेहज विष्टामा चउरिंद्रियपणे उपजशे [भ. २ श्लेष्म (भ. २) शरीरनो मेल (भ. २) नासिकानो मेल (२) वमन (भ.२) अने पीतमां (भा. २) सातवार ( ए सात ठेकाणे) पाप कर्मना योगयो विगलेंद्रियपणे (जघन्य-मध्यम आउखे) अनुक्रमे उपजस्ये एम ओगणतीस (२९) भवनी वक्तन्यता थइ त्यारपछी हे अग्निदत्त! ते बावीस गोठील्लपुरुषना जीवो तिसमा (३०) भवमां ते गणिकाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सोचकरवाना स्थानक (खाल-मोरो) नी अशुचीमां समुच्छिम देडकापणे उपजस्ये त्यां दिनपृथक्त्व (२ थी ९ दिवस ) नु आयुष्य पुरुं करीने एकत्रीसमेभवे (३१) कामलताना घरमां गर्भ ज उंदरपणे उपजस्ये त्यां मास पृथक्त्वनु आयुष्य भोगवीने बत्रीसमे भवे (३२) ते कामलता नणिकाना घरे दरवाजा पासे सुकर (डुकर-भुंड) पणे उपजस्ये त्यां अज्ञानना अनुभवरूप फलने वेदस्ये त्यां क्रूर रुद्रपरिणामी पुष्ट स्कंधाला कामांध ते बावीस सुकर दाहाबलथो विवाद करता कादव तथा विष्टाथो शरीरने लिपता तथा तेनाथीन (कादव-विष्टायोज) आहारनो वृत्ति करता परस्पर भयंकर स्वरथी गर्जना करता घणा प्राण भूत-जोव सत्वने मर्दन ( उपद्रव ) करता पोताना आत्माने आनन्द मानता वर्ष पृथक्त्वनु आयुष्य भोगविने त्यांथी काल करीने ते बावीस जीवो तेत्रीसमे (३३) भवे अवतो देशने विषे चंडालना कुलमां उपजस्ये ( अनुक्रमे ) वृद्धि पामतां ते बावीस चंडालो हुंडक संस्थानवाला लांबा दांलबाला मोटा पेटवाला गळीना रंग सद्दश ( काला) नहि देखा लायक लोकोने घणी दुर्गच्छा उपनावता पापकार्यमां डाह्या (हुशोयारनिपुण) थशे ते बावीसे चंडालकर्ममां कुशल अने विज्ञानगुणयुक्त होवाथी पापकर्मवडे घणो द्रव्य समूह एकठो करस्ये तथा ते द्रव्यथी आजीविका करता-ते द्रव्यने भोगवता विचरस्ये ते अवसरे हे अनिदत्त ! ते कामलना गणिका वृद्ध थवाथी घणु द्रव्य याचकोने भिक्षाचरोने आपीने पोताना स्वजनलोकने पुछिने परिव्राजक धर्ममा आदरवाली-मिथिला नगरीथी निकले निकलीने काशीदेश www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ये गंगा नदीने कोनारे रहेलो परिब्राजिकाओनी पासे आवीने शौच मूल परिव्राजकनो धर्म पामीने-ग्रहण करीने, पालती विच. रस्ये! त्यारे ते कामलता गणिका शुद्ध परिवाजिका थस्ये ! अन्यदा प्रस्तावे ते कामलता परित्राजिका सर्व तोर्थने नमस्कार करवाने माटे पोतानी गुरुणीने पुछीने काशी देशथी निकलोने वाहारना देशोमां विहार करती तीर्थोंने नमस्कार करती छती अवंती देशमा सीमा नदीना तटने विषे अनेक परित्राजिकाओथी परिवरी गेस्थी रंगेला प्रधान वस्त्रोयी अलंकृत तथा त्रिदंड कुंडि (कमंडलु) खपर अंकुस अक्षमालाथी पवीत्र हाथवाली थइने विचरस्ये त्यारे ते कामलता परिव्राजिकाने सीमा नदीने किनारे आवी जाणीने अवंती देशवासी अनेक श्रेष्टि सेनाधिपति प्रधान विगेरे घणा उत्तम मध्यम पुरुषो तथा स्त्रीयो शीघ्र दर्शनार्थे आवस्ये त्यां ते वावोस चंडाल पुरुषो पण ते परिवाजिकाना दर्शन माटे आवस्ये त्यारे कामलता परित्राजिका ते श्रेष्टि विगेरेनी आगल सौच मूल परिवनाकनो धर्म कहेस्ये, हे लोको अम्हे सौच मूल धर्म परुपीये छोये. ते सौच के प्रकारनो छे ते आ प्रमाणे द्रव्य सौच १ अने भाव सौच २ द्रव्यथी पाणी अने माटोये करीने भावथी डाभादि अने मंत्रे करीने, जो अपने कांइपण अशुचि थाय तो अम्हे सर्व माटीनो लेप करी शुद्ध पाणीथी प्रक्षालन करीये एटले पवीत्र थइये. एम निश्चे जे प्राणीमो जलाभिषेक करे ते पाजीओ परमपद पामे, त्यारे ते बावीस चंडाल पुरुषो, कामलता परिव्राजी काये कहेल, सौच मूल धर्मने सांभलीने हर्ष संतोप पा www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० मोने ते धर्मने सद्दहता ते धर्म उपर रूचि करता. कामलता परित्राजिकाने त्रण प्रदक्षिणा देइने तेनी पासे सौच धर्म स्वीकारस्ये. पछी फरीथी पण प्रणाम करीने पोताने घरे जस्ये. अने ते बावीसें चंडालो परिव्राजक धर्मना परमभक्त थस्ये. त्यार बाद मिथ्यादर्शनने धारण करनारा अन्यधर्मना प्रत्यनीक-निंदक ते बावीसे चंडाल पुरुषो शेष पांच दर्शन तथा विशेषे करी जैन दर्शनना पालक साधु श्रावक तथा जिने चरनां चैत्यना अवर्णवाद बोलनारा अने निंदा करनारा थस्ये. त्यारवाद परिव्राजक धर्मना रागी ते बावोस चंडालों जिन धर्मनो अवर्णवाद उचारता-बोलता छता लोकोना निमंत्रणथी भातपाणीने ग्रहण करो इच्छा प्रमाणे आहार करता मरणने अणवांच्छता पांच वर्ष सुधी परिव्राजकना धर्मने परम भक्तिथी आराधता अन्यदा आयुष्य क्षय करीने चोत्रीशमे भवे त्यां अवंती देशमांज भांडना कुलने विषे उत्पन्न थस्ये [३४] त्यार बाद अनुक्रमे ते बावीस भांडो वृद्धि पामस्ये त्यारे भयंकर दुष्ट रौद्र साहसीक अने विकलचारी थस्ये अने अनेक श्रेष्टि सेनाधिपति अमात्य नरपतिओनी आगल भांड चेष्टाने विस्तारता करता विचरस्ये, अन्यदा कुशस्थल नगरमां ब्रह्मद्वीप राजानी आगल माहोमांहे विडंबना करता माहोमांहे दासपणानी-हलकी-क्रिडा करता दुष्ट चेष्टा देखाडता ते बावीस भांडो. अठम (तेला)ने पारणे गोचरीने अवसरे गोचरीये विचरता एक साधुना युगल (जोडलाने बे साधुने) ने देखस्ये, ते समये त्यां बेठेल एक दुष्ट पुरोहिते प्रेयर्या ते बावीस भांड पुरुषो कलकल शब्द करता ते साधुना तरफ दोडस्ये, ते साधु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगलने संघट करस्ये, परिताप पमाडस्ये, किलामणा पमाडस्ये, उपद्रव उपजावस्ये, हिलना करस्ये, खिसणा करस्य, निंदा करस्ये, गरहणा करस्ये, अने ते पुरोहित प्रमुखने घणी हांसी उत्पन्न करस्ये, तोपण ते साधु युगलने मौनपणे रहेल देखीने ते (बावीस भांडो) पोतानी मेले शान्त थइ, खेद पामी दुष्ट चेष्टा बंध करी माईव गुणने स्वीकारता अहो आ मुनिओने क्षुधा लागी हस्ये. एम विचारिने मुनिओने विसर्जन करस्ये. (जत्रा देस्ये) त्यार बाद हे अग्निदत्त! ते बावीस भांड पुरुषो अकाले विजली पडवाथी अकस्मात् बलीभस्म थइ, थोडापण मार्दवगुणे वर्तता होवाथी पांत्रीसमे (३५) भवे मध्य देशमा जुदा जुदा कुलने विषे चउद विद्याना पारगामी द्विज (ब्राह्मण) थस्थे, ते बावीस विप्रो धारापुर नगरमां यज्ञदत्त ब्राह्मणना निमंत्रणथी तेने घरे यज्ञमंडपमां रही, द्वार बंध करीने अनेक द्रव्यो साथे घीनो होम करता छता, तीत्र अग्निथी दाज्या उतां तृषाथी पीडाता कंठसोष पामता आर्तध्याने मरी सीमा नदीना धरामां मत्स्यो यस्ये, एम जलचर मांहे सात भव करस्ये (४२) त्यार पछी नव भव खेचरनी योनिमां करस्ये (५१) त्यार पछी इग्यार भव स्थलचरमां करस्य, एम निश्चे हे अग्निदत्त ! बासठ (६२) भव भमस्ये ते बासठमा भवमां ते गोठगेल पुरुषोना जीवो मृगपणे उपजस्ये त्यां ते बावीस मृगों वृद्धि पाम्या छतां कठीन कर्मना उदयथी वनना अग्निमां बली समकाले मरीने तेसठ (६३) में भवें मध्य देशमा श्रावकना कुलमां उपजस्ये त्यां बाल्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्था मुक्याबाद विज्ञान गुणयुक्त थया छता ते बावीसे जणा दष्ट धीठा कुशील परवंचक खल अने पूर्व भावना मिथ्यात्वभावयी जिनमार्गना प्रत्यनीक देवगुरुनी निंदा करनारा थास्ये, तथा रूप श्रमण माहणने प्रतिकुलता करता जिनेश्वरना तत्त्वने अन्यथा स्वरूपे मरूपशे तथा सेंकडो-हजारो नरनारीनो आगल स्वकपोल कल्पित कुमार्गनो प्ररूपणा करशे. विशेष प्ररूपणा करशे, सविशेष प्ररूपणा करशे, तथा जिनप्रतिमाने भागता, जिनप्रतिमाने नही मानता जिनप्रतिमानी हीलना करता, प्रतिमाने उत्थापता, प्रतिमानी निदा करता, अवज्ञा करता, चैत्योने तीर्थोने तथा साधुसाध्वीने उत्थापशे. ते अवसरे हे अग्निद त ! ते कामलता परिव्राजिका अठोतर (७८) वर्ष गृहस्थावास पालीने, छवीस (२६) वर्ष परिव्राजक धर्म पालीने एकसो चार (१०४) वर्षनुं सर्व आयुष्य पालीने सात अहोरात्रिनुं अनशन करीने त्यांथी काल करो दक्षिण दिशाना वाणव्यंतरनिकायना सुवच्छ नामना इंद्रनी-देशोनअर्ध पल्योपमना आयुष्यवालो सुवच्छा नामनी देवी (इंद्राणी) पणे प्रथमथीज उत्पन्न थयेली हशे. ते सुवच्छा वाणमंतरी अवधि (विभंग) ज्ञाने पूर्वभवनो संबंध जाणीने ते बावीस वाणीयाओने देखी हर्ष संतोष पामीनें, ते बावीस वाणीयाने पूर्वभवना संबंधनो, परमप्रीतियी साहाय्य (मदद) करनारी थस् त्यारे, हे अग्निदत्त ! दुष्ट परिणामी ते बावीस वाणीया सुवच्छा वाणमंतरोनी मददथी धनधान्य पुत्र कलत्रयी तथा प्रीति सत्कारना समुदायथो वृद्धि पामशे, त्यारवाद www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते बावीस वाणीया धनधान्यादिके वृद्धि पामवाथी पोतानी भुनाओ उच्छालशे महा अभिमानी थशे, कुदस्य, गुंजारव करशे, अने हजारो पुरुष स्त्रीओनो आगळ आ प्रमाणे प्ररूपणा करशे. ए अमारो आ धर्म साचो छे. अर्थ अने परमार्थ अमारो धर्मज छे. बाकी सर्वे अनर्थ छे. हे मनुष्यो जुवो अमने इहलोकमांज प्रत्यक्ष धर्मर्नु फल मले छे तो आगलगें तो कहेवुजशुं! ते माटे तमे पण अमारा धर्मर्नु अनुष्ठान अंगीकार करो; एम कही निजमति कल्पित नवीन मार्गने स्वच्छपणे प्ररूपशे, एम निश्चे हे अग्निदत्त! ते बावीस वाणीया, श्रावक धर्मथी भ्रष्ट थइने षट्दर्शन मांहेथी एके दर्शनने नही मानता अने स्वकल्पित मार्गनी प्रभावना करता असंख्यात काल सुधीर्नु दुर्लभ बोधिपणुं उपार्जन करशे, ते अवसरे हे अग्निदत्त ! भगवंतना प्ररूपेला श्रुतनी हीलना थशे, ते वखते श्रुतहीलना थये छचे श्रमण-निग्रंथो पूजा सत्कार आदर सन्मान नही पामे, तथा धर्मर्नु पालवू अति दुष्कर थशे, वलो हे अग्निदत्त ! ते दुष्ट बावीस वाणीया पन्नर वर्ष तक गृह कृत्य करी-चार गतिमा भ्रमण करावनार x x x x x x ए बेना नामथी प्रसिद्ध थयेल साधु पर्यायने नवाणु वर्ष पालीने सोल महारोगनी पीडाथी पराभव पामता आर्तध्यानने वश थयेला कालावसरे काल करीने घमा नामनी प्रथम नरक पृथवीने पहेले पाथडे दश हजार वर्षने आउखे नारकीपणे उपजशे (भव ६४) त्यार पछी कर्मने बसे तेहज मिध्यात्वभावने पडिवजता थका ( अंगीकार करता) नाना प्रकारनी योनिमां उपजशे, अने घणो संसार परिभ्रमण करशे. वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे हे अग्निदत्त ! ते बावीस जीवो श्रावकपणु पामीने पण श्रुतनी हीलना करीने दुर्लभ वोधिपणुं पामशे, हवे अग्निदत्त मुनि गुरु महाराजने प्रणाम करी फरी पुछे, हे आर्य ! कहो ते श्रुतहेलना क्यारे यशे ! अने श्रुतनो उदय क्यारे थशे ! तेना उत्तरमा श्री यशोभद्रमूरिजी श्रुतनो उपयोग आपा कहे छे, हे अग्निदत्त ! हे महाभाग्य शालिन् ! श्रुतनी हेलना तथा उदयनो समय सांभलो:-श्रीवीरप्रभुना निर्वाणथी बसेने एकाणु (२९१) वर्षे संपति नामे राजा सवाक्रोड जिनप्रतिमा भरावशे तथा सवा लाख जिन मंदिर करावशे त्यार पछी सोलसें नवाणु वरसें ते दुष्ट वाणीया श्रुतर्नु अपमान करशे ते समये हे अग्निदत्त ? : , २९१ वीर १६९९ संव. संघ अने श्रुत राशिना नक्षत्र उपर आडत्री .१९९० ) श्रु-हो, ४७० विक. सं. समो धूमकेतु नामनो दुष्ट ग्रह लागशे, १५२० श्रु-ही. तेहनी स्थिति एक राशि उपर त्रणसे तेत्रीस (३३३) वर्षनी छे त्यार पछी संघनो अने श्रुतनो उदय थशे, एम यशोभद्र गुरुनां वचनो सांभलीने अग्निदत्त मुनिये, वैराग्य पामी प्रदक्षिणा देइ वारंवार गुरुमहारानने वंदन करीने २३२३ वी० सं. श्रु. उ, आचार्य महाराजने पुछिने अने मुगुरु ४७० ॐ श्रीभद्रबाहुस्वामि तथा संभूतिविजयने १८५३ विक्र०सं.श्रु. उ. पुच्छीने संलेखना करी अने ते मुनिवर प्रथम देवलोके गया ॥ २९१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ इय सुयहीलणुप्पाय - फलं फला जाणिऊण अन्नेवि । नसभद्दे जिणवयणे, दढचित्ता होई पर दियहं ॥ ए श्रुत हीलनाना उत्पातनुं फलाफलने जाणीने यश अने कल्याणने आपनार जिनेश्वरना वचनमां बीजाओ पण हमेशां दृढ चितवाला थाओ - आ छेली गाथामां आ सूत्रना प्रतिपादक श्री यशोभद्रसूरिजीनुं नाम पण जणावी दीधुं. इति वकचूलिया सूत्र सारांश संपूर्ण नोट - विस्तारथी संपूर्ण हकीकत जाणवानी इच्छाबोलाए बँकचूलिया सूत्र देखवुं या सांभलवु, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat लेखक. www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश संघानादि स्तुति विगेरेनुं शुद्धिपत्रक. ف م م سن من غة » نه पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १ १९ कुरुष्व कुरुष्वे ४ यस्य स्तैर्वर्द्धमानः यः ७ बंधो बंधो रूप्पादीनां रूप्यादीनां यद्वां यद्वा गृणान्ति गृणाति श्रीनाभिनन्दनाश्च श्रीनाभिनन्दनाश्च तेजनाश्च पृथक पृथक् अभिनन्दयतात्य अभिनन्दयतीत्य युगादि (अभिनन्दन) - १८ कृत्य कृत्य पाश्व अभदा अभयदा द्वितीयवार द्वितीयवारं सशा शत्रु शत्रू स्तुतस्य स्तुतस्तस्य चाप्पाप्तिः चाप्याति: संजाघटीतीति संजाघटीतीति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com نه १२ نو م ف ف ۸ संशो ۸ م Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धराया हुघः हे वर्द्धमान? मर्य घरायां दृषः हे श्रीवर्द्धमान ? मर्थः कययितव्या कुतीथिक त्वं किं विशिष्टा श्रीवीर २ कथितव्या कुतीर्थिक २० १२ त्वं कि वशिष्टा श्रीविर शृङ्ग मृतः इति त्वा भाज्व निगुणः रोजी युनां वृदि मृगः इति श्रुत्वा प्रोज्ज्व निर्गुणैः रोगी नां वैद्य वृद्धि वैद्यः (वैद्य) धर्मिष्ठता २० धर्मिष्टता सर्व मुखेन सर्व मुखेन १८ च । शान्त्या दर्मुखान् क्षान्त्या चा सुखान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ २१ वाणा वाणी सातमा श्लोक त्रोजु पाद छे तेने पहेलुं पाद समजवू जगत्रय जगत्रय, सदाचारता- सदा चारता, विष खरी पडेलो जेमके शब्द (फुफाटा) अर्थात् विषरहित थी रहित थयेलो सर्पशुं एवो सर्प शुं पृथिने जगतमां झेर विनानो विषे थाय खरो? थयो ? अर्थात् नथी अर्थात् न थाय थयो. तपनु मूल शु? तपनु मूल धारण कर छे धारण करे छे भिक्षो न. भिक्षो ? न जो धननी इच्छा जो मनमा धननी इच्छा थाय तो थाय तो १८-१९ धनने अने स्त्रीने धनरूप परिग्रहने भुक्ताहार भुक्त्वाऽऽहार जीव नपुंसक कर,वली आत्मा- आत्माने पवीत्र करवा. थी पवीत्र करीने मां तत्पर __ वली ९ दुर्गधे दुर्गंध २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , १४-१५ " m नहि एवु, अर्द्धा नहि, माथु मुंडेलु अने शबनी पेठे माथु अर्दा बलेला मडदानी मुंडेलु आ.प्रमाणे माफक आकृतिवाला आजसुधी हजीसुधी पण शरीर पद्मनिकयं शरीर सद्मनिकथं निनिर्वेदना वेदना चरबी हाड- मेद हाडकां अने चरबीथी कां अने स्नायुथी भक्षण कराय छे निश्चे भक्षण करवा लायक थात, जोइने पण तने ते जोइने हजीपण तने ते शरीर उपर शरीररूप घरने विषे च्छति जडमते जडमते ? शरीर आववानुनथी वलीशुं आवतु नथी तो शुं साधौ साधो ? भक्तु भक्तुम् किम् ? व्रतने अंगीकार व्रतने प्रथम आत्माने विषे आरोपण २२ च्छसि १८ १९ किम् . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G ० ८० हणायो छतो थइने हणायेल थइने । पदार्यने पदार्थने अथत् अर्थात् आ भवमां शुं आभवमांशुं एमने एमज तने तेमां रहेवा देशे शुं तेमां रहेवा देशे ? नहि अर्थात् नहि रहेवा दे, चरण चरणं रिमै रिमैः निवेदना . निर्वेदता रंगसस्कृति रंग संस्कृति स्त्री शोक कदिपणशोक देह सुपोतक देह सुपोतकं कंकु केशर निश्चे निश्चेतुंज नयी ? तो तु शुं छे ? अर्थात् योग्य नथी, अकामी नथी अ. तो 'मंडनप्रिय होय ते थवा मंडनप्रियछे? निश्चे अकामी न होय, सं। छद्य सं छिद्य मुक्तिश्री मुक्तिरूप श्रेष्ट नान्वितंः, नान्वितम् ० स्त्रीयो २० १८-१९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १५-१६ एवा مه س ه पूर्व कहेला संत पुरुषो हे विद्वानो? अरण्यमां भटकता अरण्यमां निरंतर भर कता एवा पोताना श्रीअत श्रीअन्त नन्दम, नन्दम् वर्ण्यते वण्ये सदुपकते ऽन्येषा मुपकते, सौम्य साम(२) (दा) वद्य (2) बंद्य (नत्वा) सामं साई श्रीमन्तः श्रीमन्तः ه ه م ه م कारैः स्वप्ने' . ममा १४ स्तुदु स्वप्ने ममा समानय विससन भोज्य इतस्ततो पुन!य पक्ष ३ समानय विससर्ज भोज्य इतस्ततो पुनयूयं (पृष्ट) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रौ १० २० रात्रौ मचेतसि स्वच्छा स्थाप्प WW. मच्चेतसि स्वच्छी (संस्थाप्य) सो सघो स्वयम् खादूतीर्य भूपतिः दर्शनम् पालण पुत्रार्थेव पित्री प्रतिबुद्ध: षष्ठयां त्वद्य स्वया खादूतोर्य भूपतिः दर्शन . पालन पुत्राथव पित्रो प्रनिवुद्धः षष्टयां १७ ५ पुर्ण पूर्ण २० गुरुश्री फाल्गुन कृष्णाष्टम्यां गुरुश्री फालगुन कृष्णाष्टभ्यां डय वोलर्नेकी रमरण ४६ ११ बोलनेकी स्मरण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ माफोक माफोक में (भानिराम) नगर, श्रावकोने नगरम श्रावकोए (द्रव्यानुसें ) """""87 जोर कीया तार्थकर विगोलि मेंने जोने कहा तीर्थकर किंगोलि सायंकालमें सायंकालमेंभी सोगया मेरेकुं मेनेकु म मभुकरके रोगोभी पदस अना . महात्म्य राजाए ५४ १२ परणद्रे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 3 3733 शेगोकभी पदसे अपना महात्म्यकुं राजाने धरणेंद्रने www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११११ ८४ ठांडा- धांडा-तटेला( डांठा) (जवारीके धांडा डोका) गौले ..... गौके जोडक . जोडकर आगे चलना आगेंतेरें चलना. तहांतक वहांतक ७४ Vsurror - " १ डांठे धांडा-डोका बहा वहां मंत्रिप्रमुख मंत्रिप्रमुखसें उस वखत फिर इघरज इधरज मंदिरस मंदिरसें भगवा........ भगवान् मंदिरमें नहि आते है इसदेशमें वह उपायससाधुक उपायसें साधुकरके आश्वय आश्चर्य १२ .. धरणेंद्रे धरणेंद्रने, १२ . . आचाय ... आचार्य ... सरिजीक संम रिजेके संग " १ यह " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::: ८५ जाये हुवे पार्थनाथें आचार्य , सूरीजीए. एल राजाने जावोकु करगयें देवीन तुममी आये हुवे : पार्थनाथजीने आचार्यने मूरिजीने एलच राजाने जीवोकुं कीया देवीने - तुंभी ::::::: करक प्रकारक आपे परमारें : नामस और में-भाव विजय करके प्रकार आपन परमारने नामसें तथापि अतएव १२४ पहि कराना संवत् मार्थना ११४ १२ करना २२ सवत् १२४ मार्यमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat :::: www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ८ ९ जाके जोकें . कराक कराकर के इधर पीछे पीछे इधर (गुजरातमें) वहांस, . .. वहांसें, पोटकां - पीठकों पदस .. पदसें जोक ज के संपूर्ण संपूर्ण थात्रायां संवत . यात्रायां संवत् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट. पंक्ति. অথত্তি नीनानी जंग उपनशे , १७ शुद्ध. ना स्तननी अंम उपजशें [भव१७] ए प्रकारे ते कामलताना वडी नीति लघुनीति शौच निकलश विकाल स्वीकारता दाझ्या छतां साच निकले विकल वीकारता दाज्या छतां For m var भावना तथा स्वच्छपणे भवना तथारूप स्वछंदपणे होइ होह ७८ १८ शब्द (फुफाटा)थी कंचुक (कांचळी)यी रहित रहित कर, वली आत्मायी करीने वली आपवीत्र त्माने पवीत्र कर वामां तत्पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्त अशुद्ध. वंदना भक्तु २० इतस्ततो मच्चतसि खादूनीय रोगोकभी शुद्ध. वेदता भक्तुम् इतस्ततो (२) मच्चेतसि (३) खादूतीर्य (२) रोगोकाभी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ alchbllo Karel Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com