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________________ षड्धावश्यकसत्क्रियासु निरतो धर्मादिरागं वहन् , सार्द्ध योगिभिरात्मपावनपरै रत्नत्रयालंकृतः ॥५॥ शब्दार्थ-हे सायो! स्त्री, जीव तथा पशु विनाना स्थानकने विले निरंतर रहे अने पारके घरे नहि करावेला तेमज अवसर प्रमाणे मलेला आहारने भोजन कर. वली आत्माथी पवित्र तेमज ज्ञान, वर्शन अने चारित्ररूप त्रण रत्नोथी सुशोभित एवा योगी पुरुषोनी साथे धर्मादि राग करतो छतो छ प्रकारनी आवश्यक कियाने विषे तत्पर था. ॥ ५॥ दुर्गध वदनं वपुर्मलगृहं भिक्षाटनाद्भोजनम्, शय्यास्थंडिलभूमिषु प्रतिदिन कट्यां न ते कर्पटम् ॥ . मुंडं मुंडितम दग्धशबवचं दृश्यसे भो जनैः, साधोऽद्याप्यबलाजनस्य भवतो गोष्टी कथं रोचते ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-मुख दुर्गंधवालं, शरीर मलनु घर, भिक्षा मागवाथी भोजन, मति दिवस पृथ्वीने विषे शयन, केड उपर वस्त्र पण नहि पूवं, अर्द्धा शबनी पेठे माथु मुंडेल. आ प्रमाणे आकृतिवाला तने हमेशां माणसो जूवे छे छतां हे साधो ! तने आज सुधी स्वीयोनी साये वातो करवी केम रुचे छ ? ॥६॥ अंग शोणितशुक्रसंभवमिदं मेदोस्थिमजाकुलं, बाह्ये माक्षिकपत्रसन्निभमहो चाहतं सक्तः॥ नो चेत्काकटकादिभिर्वपुरहो जायेत भक्ष्यं ध्रुवम् ॥ छायापि शरीरपबनि कयं निवेदना नास्ति ते ॥७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034788
Book TitleChamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshantivijay
PublisherHirachand Kakalbhai Shah
Publication Year1923
Total Pages100
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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