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________________ उस तपका बलसें खुद धरणेंद्र रात्रीमें (स्वप्नमें) आ कर उसकुं जाग्रत करके इस तरह कहा. हे राजन् ! तुं कायके वास्ते हठ करता है. ६१ महा चमत्कारिणी इस मूर्तिकी सेवा तुमेरेसे नहि हो सकेगी और तेरातो कार्य सिद्ध हुवाहै इसलीये हे राजन् तुं अपने घरकुं चलाजा. ६२ ___ तब राजा बोला. हे फणिराज! अपना पेट भरनेसे क्या! अतएव जगतका उपकारके लीये प्रभुकी मूर्ति मेरेकुं देनी चाहीए.६२ हे नागराज ! मेरा प्राण जावे तबभी मूर्ति लीयेविना में नहि जाउगा, चाहे दों अथवा मतदों मेरा प्राण वह प्रभुमेही है. ६४ एसा सुनकर साधर्मिको दुःख होवेगा एसा भयसै वह एलच पुरका मालिक राजाकुं नागराज धरणेंद्रे इस तरेह कहा. ६५ - हे राजन् ! तेरी भक्ति से संतुष्ट हुवा, में प्राणसेंभी वल्लभ और महा चमत्कारिणी यह मूर्ति दुनीयाका उपकारके लीये तेरेकुं देउंगा. ६६ लेकिन हे राजन् ! तेरेकुं यह प्रभुकी आशातना करना नहि, यदि आशातना करेगा तो मेरा मनमें बड़ा भारी दुःख होवेगा.६७ में आशातना नहि करुंगा एसा राजाने कबुल करनेसें नागराज बोल्या. हे राजन् ! सुन, प्रात:कालमें स्नान करके स्वच्छ होकर तेरेकु कूपके नजीक आना. ६८ * और नाल (जवारीके डांठा)की पालखी बनाकर उस्कुं सूतका www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.034788
Book TitleChamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshantivijay
PublisherHirachand Kakalbhai Shah
Publication Year1923
Total Pages100
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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