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________________ उनके शिष्य भव्यप्राणीयोरूप कमलोको विकस्वर करनेमें सूर्यके समान श्री विजयदेवेन्द्र रिजीने यवनादि बहुत ज्ञातियोमें दयाधर्म फेलाया. १४१ उनका बडा शिष्य विजयप्रभमूरिजी हुवा. वह मूरिगुणोसें विभुषित उनका (गुरुका) पाद पोठका शोभाता था. १४२ और उनकाहि छोटाशिष्य गणिपदस अलंकृत भावविजय, नामका विजयप्रभसूरिजीक राज्यमें हुवा सो में यह ग्रंथका कर्ता हुं. १४३ , विक्रम संवत् १७१५ की सालमें भव्य जीवोका उपकारकी इच्छासें अन्तरिक्षपार्श्वनाथकी कृपा स्वरूप मेरा चरित्र मेनें रच्या. १४४ इति जगद्गुरु श्री विजयहीरसूरिश्वर पटधर श्रीविजयसेनमूरि पटधर श्री विजयदेवमूरि शिष्य पं. भावविजथगणि विरचितं श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ कृपात्मकं स्वचरित्रं संपूर्ण. लिखितं पंन्यास श्री उमेदविजय गणीश्वर शिष्येण क्षान्तिविजय मुनिना वराड देशस्थ श्री अन्तरिक्षपार्श्वनाथ पवित्रीत श्रीपुरनगरें. • प्रयम यात्रायां संवत् १९७८ फाल्गुन कृष्णाष्टम्यां मूलं लिखित द्वितीय यात्रायां संवत १९७८ ज्येष्ट कृष्णदशम्या देशभाषया लिखितं. मंगलं भगवान् वीरो-मंगलं गौतम प्रभुः॥ मंगलं स्थूलभद्राद्याः, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034788
Book TitleChamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshantivijay
PublisherHirachand Kakalbhai Shah
Publication Year1923
Total Pages100
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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