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और गुर्जर देशका मालिक, कर्णके समान पराक्रमी कर्णराजा में वहआचार्यको 'मल्लधारि' एसा महान्पद दीया है. ८७
वह आचार्य गतवर्षमें स्तंभनपुर (खंभात)का उत्तम संघके साथ माणिक्यदेव (कुलपाकजी)की यात्रा करनेकुं इधर आयें है.८८
यह आचार्य अभी देवगिरि नामका नगरमें विराजते है. हे स्वामिन्! यदि कोइभी उपायस साधुक सहित बह आचार्य इहां आवें. ८९
तब वह आचार्य आपका यह इष्ट कार्य जरुर करेगा एसा सुनके राजाने मंत्रिको भैनकर वह आचार्यको वहां बोलाया. ९०
आकाशर्मे रहे हवें प्रभुकुं देखकें बडा आश्चय पाया हुवा. आचायेने राजासें सब पूर्वकी हकीकत सुनकर तेला (तीन उपवास) करके धरणेंद्रको याद कीया. ९१ __उस वखत धरणेदें वहां जाकर आचाय महाराजसें कहा कि यह मंदिर बंधाकर राजानें अपने मनमें बडा मद ( अभिमान कीया है. ९२
उसके लीयें यह राजाका मंदिरमें (भगवान) नहि बिराजेंगे लेकिन, संघका बंधाया हुवा मंदिरमें (भगवान् ) बेठेगा, इस प्रकारका धरणेंद्रका वचन सुनकर सुरिजीने श्रावक संघकुं एकत्र करके कहा. ९३
भोः सब श्रावको ! सु तुम लोक तैयार करावो, उसमें भगवान वेठेगा. ९४
एसा सुरिजीका वचन सुनकर, सरिजीक संग जाये हुवे श्रद्धा और भक्तियुक्त श्रावकोने मिलकर नवीन मंदिर तैयार कराया. ९५
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