Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जोधपुर 00 2 ०० ७०७ संस्कृति रक्षक संघ संस्कृति रक्षक संघ जैन संस्कृति रक्षक अ.भा.सुधर्म ज्वमिज्जइ स leela! जा दशा जैन अखिल भारतीय सुचन जन अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृ अखिल भारतीय स सूत्र "सययं तं संघ अखिल संस्कृति, सुधर्म जन पुराने जण संस्कृति शाखा कार्यालय सुधर्म जैन संस्कृि तीय सुधर्म जैनेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राजस्थान) संस्कृति रक्षक भारतीय सुधर्म जैन संस्का संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जे : (01462) 251216, 257699, 250328 संस्कृति रक्षक संघ आ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल संघ अि क संघ अि अखिल neo अखिल शक संघ अरि अखिल अखिल अखिल क्षक संघ अि क्षक संघ अनि क्षक संघ अि क्षक संघ अि क्षक संघ अि अखिल अखिल अखिल क्षक संघ अि क्षक संघ अि क्षक संघ अि अक संघ अि अक संघ अि अक संघ अि अक संघ अि क्षक संघ अि अक संघ अि अक संघ अि अक संघ अि अक संघ अिं क्षक संघ अि अखिल अखिल अक संघ अ अक संघ अि क्षक संघ अि अखिल अखिल क संघ अि अखिल क संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ क संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक आवरण सौजन्य तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ क्षक संघ अखिल अखिल अखिल अखिल अखिल एक साँघ अखिल भारतीय विद्या बाल मंडली सोसायटी, मेरठ क संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ तक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ • रक्षक संघ अखिल रक्षक संघ अखिल अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल पावयण यणं सच्च संस्कृतक्षक संघ तीय सुधर्म स्कृति रक्षक संघ ती सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक तीर्थ सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ सुधर्म जैन संस्कृति रक्षका तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक जय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जैन संस्कृति क (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) न संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय धर्म जैन संस्कृति संस्कृति रक्षक RECE अखिल भारतीय सुधन जन अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति र भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्ष भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति र भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति र अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति र रतीय सुधर्म जैन संस्कृति भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति पल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति साव गुणायरं वंदे क संघ जोधपुर अखिल अखिल अखिल ॐ अखिल अखिल अखिल अखिल अखिल अखिल अखिल अखिल ॐ अखिल Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का १२३ वा रत्न अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) नेमीचन्द बांठिया पारसमल चण्डालिया -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन . संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-३०५१०१ ®: (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर , 2626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 2 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० । स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक),252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 2 23233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 25461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 2 236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 225357775 १३. श्रीसंतोषकुमार बोथरावर्द्धमानस्वर्ण अलंकार ३६४, शॉपिंग सेन्टर, कोटा 32360950 मूल्य : १५-०० | द्वितीय आवृत्ति वीर संवत् २५३३ १००० विक्रम संवत् २०६३ दिसम्बर २००६ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर 82423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पावन प्रवचनों को उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने सूत्र रूप में गून्थन किया है। परिणामस्वरूप आगम दो भागों में विभक्त हुआ है - सूत्रागम और अर्थागम। भगवान् का पावन उपदेश अर्थागम और उसके आधार पर की गई सूत्र रचना सूत्रागम है। भगवान् महावीर स्वामी के कुल ग्यारह गणधर हुए थे। जिनकी नौ वाचनाएं हुईं। वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं, वह पांचवें गणधर सुधर्मा स्वामी की वाचना है। स्थानकवासी परम्परा में वर्तमान में जिन बत्तीस आगमों को मान्यता दी गई है वह वर्गीकरण की अपेक्षा चार भागों में विभक्त हैं। यथा - ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद सूत्र और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र। प्रस्तुत सूत्र नवां अंग सूत्र है। जो अनुत्तरोपपातिक दशा के नाम से प्रसिद्ध है। अनुत्तरोपपातिकदशा तीन शब्दों से बना है। अनुत्तर+उपपात+दशा जिसका आशय है अनुत्तर अर्थात् श्रेष्ठ अनुत्तर विमान, उपपात अर्थात् उत्पन्न होना। इस सूत्र के तीन वर्ग हैं उसके प्रथम एवं तृतीय वर्ग के दस-दस अध्ययन हैं जो दशा के सूचक हैं। इस प्रकार जिन साधकों ने अपनी उत्कृष्ट तप संयम की साधना के आधार से यहाँ का आयुष्य पूर्ण कर अनुत्तर विमानों में जन्म लिया। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि मति को प्राप्त करेंगे। उनका वर्णन इस सूत्र में है। . प्रस्तुत सूत्र में तीन वर्ग में कुल तेतीस महापुरुषों का वर्णन है। प्रथम के दो वर्गों में महाराजा श्रेणिक के तेवीस पुत्रों का एवं तीसरे वर्ग में १. धन्यकुमार २. सुनक्षत्र ३. ऋषिदत्त ४. पेल्लक ५. रामपुत्र ६. चन्द्रिक ७. पृष्टिमातृक ८. पेढालपुत्र ६. पोटिल्ल और १०. वेहल्ल का वर्णन है। सम्राट श्रेणिक मगध साम्राज्य का अधिपति था, जो अपने समय का महान् पराक्रमी राजा और श्रमण भगवान् स्वामी का अनन्य उपासक था। जैन साहित्य में महाराजा श्रेणिक के कुल छत्तीस पुत्रों का उल्लेख मिलता है। जो इस प्रकार हैं - १. जाली २. मयाली ३. उवयाली ४. पुरिमसेण ५. वारिसेण ६. दीहदन्त ७. लहदंत ८. वेहल्ल. ६. वेहायस १०. अभयकुमार' ११. दीहसेण १२. महासेण १३. लकृदन्त १४. गूढदन्त १५. शुद्धदन्त १६. हल १७. दुम १८. दुमसेण १९. महादुमसेण २०. सीह २१. सीहसेण २२. महासीहसेण २३. पुण्णसेण २४. कालकुमार For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** [4] २५. सुकालकुमार २६. महाकालकुमार २७. कण्हकुमार २८. सुकण्हकुमार २६. महाकण्हकुमार ३०. वीरकण्हकुमार ३१. रामकण्हकुमार ३२. सेणकण्हकुमार ३३. महासेणकण्हकुमार ३४. मेघकुमार ३५. दीनकुमार ३६. कूणिक । इन राजकुमारों में से २३ राजकुमारों ने दीक्षा धारण कर उत्कृष्ट तप संयम की आराधना की। परिणामस्वरूप अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए। जिनका वर्णन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। मेघकुमार जिनका वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में है, उन्होंने श्रमण धर्म को स्वीकार किया और अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। नंदीसेनकुमार भी दीक्षा स्वीकार कर साधना पथ पर आगे बढ़े। इस प्रकार पच्चीस राजकुमारों के दीक्षा लेने का वर्णन मिलता है। शेष ग्यारह राजकुमारों ने साधना पथ स्वीकार नहीं किया वे मर कर नरक में गये । निरयावलिया सूत्र के प्रथम वर्ग में श्रेणिक महाराजा कालकुमार आदि दस पुत्रों के नरक गमन का वर्णन है। इसके अलावा ग्यारहवां पुत्र कूणिक भी नरक में गया । प्रस्तुत सूत्र में सम्राट श्रेणिक के जिन तेवीस पुत्रों का वर्णन है वह अति संक्षिप्त है । थोड़ा-सा उनके जीवन का परिचय देकर बाकी के लिए मेघकुमार तथा गुणरत्न संवत्सर आदि तप के लिए स्कन्धकमुनि की भलावण दी गई। हाँ गृहस्थ अवस्था के समय का तो अभयकुमार का तो बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है। दण्ड, अभयकुमार अत्यन्त रूपवान एवं तीक्ष्ण चारों बुद्धियों का धनी था। वह साम, दाम, भेद आदि नीतिओं में निष्णातं था। वह सम्राट श्रेणिक के प्रत्येक कार्य के लिए सच्चा सलाहकार एवं राजा श्रेणिक का मनोनीत मंत्री था । श्रेणिक राजा की जटिल से जटिल समस्याओं को वह अपनी कुशाग्र बुद्धि से क्षण मात्र में सुलझा देता था । उन्होंने मेघकुमार की माता धारिणी और कूणिक की माता चेलना के दोहद को अपनी कुशाग्र बुद्धि से पूर्ण किये। अपनी लघुमाता चेलना और श्रेणिक का विवाह सम्बन्ध भी सआनंद सम्पन्न कराने में इनकी मुख्य भूमिका रही। इसी प्रकार जैन आगम साहित्य में उनकी कुशाग्र बुद्धि से अनेक समस्याएं चाहे राज्य कार्य से सम्बन्धित थी अथवा परिवार आदि से सम्बंधित उनके निराकरण के उदाहरण मिलते हैं। • अभयकुमार द्वारा अनेक लोगों में धार्मिक भावना जागृत करने के उदाहरण भी जैन साहित्य में मिलते हैं । सूत्रकृतांग सूत्र में आर्द्रकुमार को धर्मोपकरण उपहार रूप में प्रेषित करने वाले For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] **************************************************************** अभयकुमार ही थे, जिससे उसने प्रतिबुद्ध होकर श्रमण धर्म स्वीकार किया। इन्हीं के संसर्ग में आकर ही राजगृह का क्रूर कसाई कालशौकरिक का पुत्र सुलसकुमार भगवान् महावीर का परम भक्त बना। स्वयं अभयकुमार भी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत था और शीघ्र ही भगवान् के पास दीक्षित होना चाहता था। इसके लिए उन्होंने महाराजा श्रेणिक से अनेक बार निवेदन भी किया, पर श्रेणिक ने कहा - अभी तुम्हारी दीक्षा लेने की उम्र नहीं है। दीक्षा लेने की उम्र तो मेरी है। तुम राजा बनकर मगध देश का संचालन करना। अभयकुमार के अत्यधिक आग्रह करने पर श्रेणिक महाराज ने कहा कि जिस दिन मैं रुष्ट होकर तुम्हें कह दूं 'दूर हट जा मुझे अपना मुंह न दिखा', उसी दिन तू दीक्षा ले लेना। . __कुछ समय पश्चात् भगवान् का राजगृह नगर में पधारना हुआ। श्रेणिक महाराजा अपनी महारानी चेलना के साथ भगवान् के दर्शन करने गए। लौटते समय उन्होने एक मुनि को नदी के किनारे ध्यानस्थ खड़े देखा। सर्दी का समय था कड़कडाती ठण्ड पड़ रही थी। उस रात्रि को नींद में महारांनी का हाथ औढ़ने के वस्त्र से बाहर रह जाने से उसका हाथ ठिठुर गया। जिसके कारण महारानी की नींद उचट गई और उसके मुंह से अचानक शब्द निकल पड़े “वे क्या करते होंगे।" इन शब्दों से राजा के मन में रानी के चारित्र के प्रति संदेह हो गया। दूसरे दिन महाराजा श्रेणिक भगवान् के दर्शन करने जाते समय अभयकुमार को चेलना का महल जला देने की आज्ञा दे गये। अभयकुमार ने अपने बुद्धि कौशल से महल में रही रानियों को एवं बहुमूल्य वस्तुओं को बाहर निकाल कर महल में आग लगा दी। महाराजा श्रेणिक ने भगवान् के दर्शन किये और महारानी चेलना के शील के बारे में पूछा। प्रभु ने फरमाया चेलना आदि सभी रानियों पतिव्रतासदाचारिणी है। यह बात सुनकर महाराजा श्रेणिक को अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ। वे शीघ्र गति से चल कर राजमहल की ओर आने लगे। रास्ते में अभयकुमार मिल गया। राजा ने अभयकुमार को महल जला देने के बारे में पूछा। अभयकुमार ने राजा की आज्ञा के अनुसार महल जला देने की बात कही। जिससे राजा क्रोधित हो गया। क्रोध के वशीभूत बने हुए उनके मुंह से सहसा यह शब्द निकल गये “यहाँ से चला जा भूल कर भी मुझे मुंह मत दिखाना'। बस जिन शब्दों की लम्बे काल से अभयकुमार को प्रतीक्षा थी। वे शब्द सुनकर राजा साहब को नमस्कार कर सीधा भगवान् की सेवा में पहुंचा और दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, गुणरत्न संवत्सर आदि तप की आराधना की और अन्त में संलेखना संथारा करके विजय विमान में उत्पन्न हुआ। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] आगम में बुद्धि की सार्थकता इसी में बताई है कि वह अपनी बुद्धि को आत्म-तत्त्व की विचारणा में लगाये - "बुद्धे फलं तत्त्वविचारणा"। आज का व्यापारी वर्ग भी अभयकुमार की बुद्धि को याद करता है। नूतन वर्ष के अवसर पर अपने बही खातों में अभयकुमार की बुद्धि प्राप्त करने की कामना करता है। सूत्र के तीसरे वर्ग में दस महापुरुषों का वर्णन हैं। इनमें मुख्य एवं विस्तृत वर्णन तो एक मात्र काकंदी नगरी के धन्यकुमार का है। इतना ही नहीं यदि यह भी कह दिया जाय कि सम्पूर्ण अनुत्तरोपपातिक सूत्र में जिन तेतीस महापुरुषों का अधिकार है, उनमें धन्यकुमार का जितना सजीव चित्रण किया गया उतना अन्य किसी साधक का नहीं तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे तो भगवान् महावीर प्रभु स्वयं ने तथा उनके अन्तेवासी अनेक श्रमण श्रमणियों ने उत्कृष्ट तप की आराधना की, जिनका वर्णन आचारांग, अन्तगडदशा, भगवती आदि सूत्रों में मिलता है पर जिस विशिष्ट तप की आराधना धन्य अनागार ने की उसकी सानी का उदाहरण आगम में अन्यत्र नहीं मिलता। इसी कारण स्वयं वीरप्रभु ने अपने श्रीमुख से उनके तप की प्रशंसा की है। आगम में “तवे सूरा अणगारा" अर्थात् अनगारों को तप में शूर कहा है, जो धन्य अनगार के लिए पूर्ण चरितार्थ होता है। धन्यकुमार, काकन्दी नगरी की भद्रा सार्थवाही का पुत्र था, जो अत्यधिक धन्य धान्य एवं शील सदाचार आदि गुणों से सम्पन्न था। उनकी सम्पन्नता के लिए शब्द आया है 'इन्भ' जिसका अर्थ होता है हाथी यानी जिसके हस्ति परिमित धन होता वह 'इन्भ सेठ' कहलाता था। साथ ही उनके लिए दूसरा शब्द आया है 'सार्थवाही' अर्थात् माल को क्रय-विक्रय हेतु जन समूह को साथ लेकर वाहनों द्वारा एक देश से दूसरे देश में गमन करने वाली थी। इससे यह भी ध्वनित होता है कि उस समय में पुरुषों के साथ-साथ स्त्री जाति की भी प्रधानता थी। उनका क्षेत्र मात्र घर की चार दिवारी तक ही सीमित नहीं था बल्कि व्यापार वाणिज्य के निमित्त से देश-देशान्तरों तक भी उनका आगमन होता था। धन्यकुमार का जन्म भद्रा सार्थवाही के अत्यन्त सम्पन्न कुल में हुआ। अतएव उनका पांच धायमाताओं के द्वारा लालन पालन हुआ। यथायोग्य अध्ययन के पश्चात् जब उसने युवावस्था में प्रवेश किया तो उनका विवाह उत्तम इभ्य श्रेष्ठियों की बत्तीस कन्याओं के साथ एक ही दिन में सम्पन्न हुआ। प्रत्येक कन्या के माता-पिता द्वारा धन्यकुमार को खूब रत्न, आभूषण, वस्त्र, For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] यान आदि दहेज में दिया। तदनन्तर धन्यकुमार अपने महल में बत्तीस कन्याओं के साथ मनुष्य सम्बन्धी पांचों प्रकार के विषय सुखों का उपभोग करते हुए विचरने लगे। ___उस काल और उस समय धर्म की आदि करने वाले तिरण तारण की जहाज श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए काकंदी नगरी के सहस्रामन उद्यान में पधारे, परिषद् भगवान के दर्शन के लिए निकली। कोणिक राजा के समान जितशत्रु राजा भी वंदन करने निकला। धन्यकुमार को नागरिकजनों के कोलाहल को सुनकर जब यह ज्ञात हुआ कि भगवान् यहां पधारे हैं, तो वे भी पैदल चल कर भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सुनकर धन्यकुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने भगवान् को कहा - 'मैं मेरी माता भद्रासार्थवाही की आज्ञा लेकर आपके श्री चरणों में दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ।' ____धन्यकुमार ने घर जाकर अपनी माता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। यह बात सुनते ही भद्रामाता मूर्छित हो गई। मूर्छा हट जाने पर माता ने दीक्षा का निषेध किया। पर वह जब इसमें समर्थ नहीं हुई, तो जिस प्रकार थावच्चापुत्र के दीक्षा उत्सव के लिए उसकी माता श्रीकृष्ण के पास गई। उसी प्रकार भद्रा सार्थवाही जितशत्रु राजा के पास अपने पुत्र का दीक्षा महोत्सव करने के लिए छत्र चामर आदि के लिए जितशत्रु राजा के पास गई। राजा जितशत्रु स्वयं ने धन्यकुमार का दीक्षा महोत्सव किया। इस प्रकार धन्यकुमार दीक्षा अंगीकार कर अनगार बन गये। धन्य मुनि दीक्षा लेते ही भगवान् की सेवा में उपस्थित होकर जीवन पर्यन्त बेले-बेले तप और उसका पारणा आयम्बिल तप से करने का प्रभु के श्री चरणों में निवेदन किया। प्रभु की आज्ञा मिलने पर उन्होंने तप आरम्भ कर दिया। आप बेले के पारणे में आयम्बिल में कैसा आहार करते थे उसके लिए आगम में शब्द आया है "उज्झित धर्म वाला" (जिसे सामान्यजन फेंकने योग्य मानते हैं) अर्थात् ऐसा आहार जिसे दरिद्र याचक तो दूर, कौए और कुत्ते भी जिसे खाने की इच्छा नहीं करे। ऐसे आहार को भी २१ बार धोवन में धोकर उस आहार और पानी को भी बिना आसक्ति के जिस तरह सर्प बिल में प्रवेश करता है, उसी रूप में ग्रहण करते हुए विचरने लगे। इस प्रकार के उत्कृष्ट तप की आराधना करने से आपका शरीर एकदम कृश हो गया। किन्तु उनकी आत्मा एक अलौकिक बल को प्राप्त हो रही थी। जिसके कारण उनके चहरे का तेज देदीप्यमान हो रहा था। नीरस आहार करने से उनके शरीर के अवययों की क्या स्थिति बनी, उनके एक-एक अवयव का उल्लेख इस अध्ययन में किया गया है। उनका पूरा शरीर For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] रक्त और मांस से रहित हो गया था । मात्र हड्डियों का ढांचा रह गया था। जब वे चलते फिरते तो हड्डियों से कड़कड़ की आवाज आती थी। एक बार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे। परिषद के साथ श्रेणिक महाराज भी वंदन करने निकला । धर्मोपदेश सुनकर परिषद् लौट गई। श्रेणिक राजा ने भगवान् को वंदन नमस्कार करके पूछा - "हे भगवन्! इन्द्रभूति आदि आपके चौदह साधुओं में से महादुष्कर क्रिया करने वाले और महानिर्जरा करने वाले कौन अनगार हैं" इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया “एवं खलु सेणिया इमेसिं इंदभूइपामोक्खाणं चोद्दसहं . समणसाहस्सीणं धणे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव" भावार्थ हे श्रेणिक! इन्द्रभूति आदि चौदह हजार साधुओं में धन्ना अनगार महादुष्कर क्रिया और महानिर्जरा करने वाले हैं। भगवान् के उक्त कथन को सुनकर श्रेणिक राजा भगवान् को वंदन नमस्कार करके धन्य अनगार के पास आये। धन्य अनगार को वंदना नमस्कार करके अपने निज स्थान की ओर प्रस्थान कर दिया । एक दिन धन्य अनगार को मध्य रात्रि में धर्म जागरणा करते हुए उन्हें इस प्रकार के अध्यवसाय उत्पन्न हुए कि तप की आराधना करते हुए मेरा शरीर क्षीण हो चुका है। अतएव अब मेरे लिए श्रेयकर होगा कि प्रातः काल भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर आजीवन संलेखना संथारा ग्रहण करूँ । तदनुसार प्रातः काल भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर स्थविर मुनियों के साथ विपुलगिरि पर जाकर संथारा किया। इस प्रकार नौ माह संयम का पालन कर एक माह के संथारे के साथ काल के समय काल करके सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से यथासमय चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। यह सूत्र विस्तार की अपेक्षा' यद्यपि लघुकाय किन्तु तप की आराधना की अपेक्षा अपने आप में बेजोड़ है। इसका अनुवाद का कार्य सम्यग्दर्शन के सह सम्पादक श्रीमान् पारसमलजी सा. चण्डालिया ने किया। तत्पश्चात् मैंने इसका अवलोकन किया। बावजूद इसके छद्मस्थ होने के कारण हम भूलों के भण्डार रहे हुए हैं। अतः समाज के सुज्ञ विद्वान् समाज के श्री चरणों में हमारा निवेदन है कि इस आगम का अवलोकन करावें, इस आगम के मूल पाठ, अर्थ, अनुवाद, विवेचन आदि में कहीं पर भी कोई अशुद्धि, गलती आदि दृष्टिगोचर हो तो हमें सूचित करने की कृपा करावें । हम उनके आभारी होंगे और अगले संस्करण में यथायोग्य संशोधन करने का ध्यान रखेंगे। संघ की आगम बत्तीसी योजना के अन्तर्गत यह नूतन प्रकाशन है । For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 संघ का आगम प्रकाशन का कार्य पूर्ण हो चुका है। इस आगम प्रकाशन के कार्य में धर्म प्राण समाज रत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलाल भाई शाह एवं श्राविका रत्न श्रीमती मंगला बहन शाह, बम्बई की गहन रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा जितने भी आगम प्रकाशन हों वे अर्द्ध मूल्य में ही बिक्री के लिए पाठकों को उपलब्ध हो। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग प्रदान करने की आज्ञा प्रदान की है। तदनुसार प्रस्तुत आगम पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है, संघ एवं पाठक वर्ग आपके इस सहयोग के लिए आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, पर आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबहन शाह एवं पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ! .. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र की प्रथम आवृत्ति नवम्बर २००४ में प्रकाशित हुई थी। अब इसकी यह द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित की जा रही है। वर्तमान में कागज एवं मुद्रण सामग्री के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस आवृत्ति में जो कागज काम में लिया गया वह उत्तम किस्म का मेफलिथो साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण इसका मूल्य मात्र १५ रुपये ही रखा गया है। जो अन्य से प्रकाशित आगमों से बहुत अल्प है। सुज्ञ पाठक बन्धु संघ की इस नूतन आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। इसी शुभ भावना के साथ! ब्यावर (राज.) संघ सेवक ... दिनांकः २५-१२-२००६ नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातः स्मरणीय धन्ना अनगार त्रिलोक पूज्य परम आराध्य श्रमण भगवान महावीर प्रभु के सर्वत्यागी शिष्यों की उत्तमोत्तम साधना का वर्णन जब हम आगमों में देखते हैं, तो हमारा हृदय उन पवित्रात्माओं के चरणों में सहसा झुक जाता है। कैसी भव्य-साधना थी उनकी, कितना निर्दोष एवं शुद्ध संयम था उन महान् आत्माओं का, कैसी घोर तपस्या करते थे वे आत्मसाधक महान् संत। न किसी प्रकार का आडम्बर, न दिखावा, न प्रसिद्धि की चाह। एकमात्र आत्म-साधना "अप्पाणं भावेमाणे विहरामि" की दृढ़ प्रतिज्ञा का निष्ठापूर्वक पालन करते हुए तप-संयम में लीन रहने वाले पूज्य अनगार भगवंत। भगवान् महावीर के शिष्यों में वीतभय नरेश उदयन जैसे राजराजेश्वर थे, सुबाहुकुमार आदि राकुमार थे, अभयकुमार जैसे महामात्य थे और धन्ना जी जैसे कोट्याधिपति सेठ भी थे। महारानियाँ, राजकुमारियाँ, अतिमुक्त जैसे बालक राजकुमार भी थे। इतना ही नहीं, खंदक जी जैसे अकिंचन संन्यासी और अर्जुन जैसे तिरस्कृत हत्यारे तक भगवान् के शिष्य थे। किन्तु साधना में सभी उत्तम विशुद्ध और ध्येय को प्राप्त करने में सतत प्रयत्नशील थे। जब महाराजा श्रेणिक ने भगवान् से पूछा - "प्रभो! आपके चौदह हजार शिष्यरत्नों में अति दुष्कर साधना करने वाले संत कौन हैं?" - भगवान् ने कहा - "राजन्! इन्द्रभूति आदि चौदह हजार श्रमण निर्ग्रन्थों में धना अनगार महान् दुष्कर करणी करने वाले हैं।" ____उन धन्ना अनगार का चरित्र उनके गृहस्थ जीवन की उच्च स्थिति, उत्तम भोगज़ीवन और वैसा ही उत्तम - उससे भी उत्तमोत्तम साधनामय जीवन का विस्तृत परिचय इस सूत्र में मिलता है। सर्व प्रथम राजकुमार जाली आदि आदि तेईस अनगारों की साधना का वर्णन भी स्वाध्याय प्रेमियों के लिए प्रेरक है। इनके 'गुणरत्न सम्वत्सर' तप का वर्णन भगवती सूत्र के खंदक अनगार के प्रकरण से लेकर विवेचन में दिया है। भगवान् के अन्तेवासी निर्ग्रन्थों की उत्कट साधना का जब हम भाव पूर्वक स्वाध्याय करें, तो हमारा हृदय प्रशस्त भावों से सराबोर हो जाता है। उन महात्माओं का शरीर एवं आकृति हम नहीं देख सकते और इसका हमें प्रयोजन भी नहीं है। परन्तु हमारे ज्ञानचक्षु उन चारित्र सम्पन्न For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************####################### महान् तपोधनी महात्माओं की पवित्र आत्मा का दर्शन तो कर सकते हैं और उनके गुणों के प्रति प्रणिपात की भावना-गुणानुरागिता से हमारी आत्मा भी प्रभावित होती है और कभी हम भी वैसी साधना करने के योग्य बन सकते हैं - भले ही परभव में हो। वर्तमान समय में शास्त्र-स्वाध्याय और ऐसे उदात्त चरित्र हमें उस भव्य साधना का दर्शन कराते हुए अचक्षुदर्शन से उन महात्माओं के दर्शन करने का सौभाग्य प्रदान करते हैं। ___इस से हमारी मूढ़ता दूर हो कर हमें इस काल में भी निष्ठापूर्वक साधना करने वाले संतसतियों को समझने की विवेक-दृष्टि मिलती है। ___धन्ना अनगार के चरित्र में माता का नाम तो आया, परन्तु पिता के नाम का उल्लेख नहीं हुआ। ऐसा ही वर्णन ज्ञाता सूत्र के थावच्चा पुत्र अनगार का भी है। उनके भी माता का ही उल्लेख है। क्या कारण है - इसका? क्या १. वहाँ महिला-प्रधान परम्परा थी, २. वे विधवा थी या ३. पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी थी? भद्रा सार्थवाही के गृह-स्वामिनी होने का कारण क्या था? मुझे लगता है कि महिला प्रधान परम्परा तो नहीं थी। क्योंकि अन्य वर्णनों में वहीं पुरुष-प्रधान परम्परा के उल्लेख बहुत मिलते हैं। विधवा हो, या फिर पति व्यापारार्थ विदेश गया हो, जिसके लम्बे काल तक लौटने की संभावना नहीं हो। हो सकता है कि पति घरजामाता रहा हो - इंग्लेण्ड की महारानी के पति के समान, जो पति तो है, परन्तु राजा नहीं है। धन्यकुमार को व्यापार-व्यवसाय की चिन्ता नहीं थी। वह बत्तीस प्रियतमाओं के साथ रंग-राग और भोग-विलास में मस्त था। घर-बार और व्यवसाय का काम माता ही देखती थी। वह तो रंगरेलियों में ही रचा-पचा रहता था। दीनदुनिया की उसे कोई चिन्ता नहीं थी। परन्तु परिणति एकदम पलटती है। भगवान् महावीर के एक ही उपदेश से वह एकांत भोगी भौंरा महान् त्यागी-तपस्वी बन गया। कैसी उत्कटसाधना की उस महात्मा ने? यह सूत्र ऐसे ही त्यागी तपस्वी महात्माओं की महान् साधनाओं से भरा है। इसका भावपूर्ण स्वाध्याय करके हम उन महात्माओं की चारित्र-सम्पन्नता के दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकेंगे। सैलाना दिनांक २-५-१९७६ - रतनलाल डोशी For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये । आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय १. बड़ा तारा टूटे तो - २. दिशा-दाह ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो - ४. अकाल में बिजली चमके तो ५. बिजली कड़के तो - ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो ८- ६. काली और सफेद धूंअर१०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे - १५. श्मशान भूमि - काल मर्यादा For Personal & Private Use Only एक प्रहर जब तक रहे • एक प्रहर आठ प्रहर प्रहर रात्रि तक जब तक दिखाई दे जब तक रहे जब तक रहे तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो । मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो । मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक । तब तक * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा दाह है। हाथ से कम दूर हो, तो । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, . जब तक नया राजा घोषित न हो १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे । (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा- .. दिन रात २९-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। ... नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका क्रं. विषय - पृष्ठ | क्रं. विषय - १. प्रस्तावना १/ २५. प्रथम पारणा प्रथमवर्ग २६. काकंदी से विहार २. जंबू स्वामी की जिज्ञासा २७. धन्य अनगार की ज्ञानाराधना ३. आर्य सुधर्मा स्वामी का समाधान २८. धन्य अनगार का तप तेज ४. जालिकुमार नामक प्रथम अध्ययन २९. धन्य अनगार के पांवों का वर्णन ५. जालिकुमार का परिचय ३०. धन्य अनगार के पांव की अंगुलियाँ ३६ ६. दीक्षा, तपाराधना और अनशन . ३१. जंघा वर्णन ७. विजय विमान में उपपात ३२. घुटनों का तप रूप लावण्य . ४१ ३३. उरु, कटि और उदर का वर्णन .४१ ८. स्थविर भगवंत भगवान् की सेवा में ३४. धन्य अनगार की पांसलियां, पीठ करंडक, ६. भविष्य विषयक पृच्छा __ छाती, भुजा, हाथ और हाथ की अंगुलियाँ ४२ १०. प्रभु का समाधान ३५. धन्य अनगारकीग्रीवा, हनु, ओष्ठ और जिह्वा ४५ ११. शेष नौ अध्ययन ३६. धन्य अनगार के नाक, आँख, कान और शिर ४७ १२. मयालि आदि कुमारों का वर्णन ३७. धन्य अनगार की अलौकिक सुंदरता ४६ द्वितीयवर्ग ३८. धन्य अनगार की श्रेष्ठता . ' १३. जम्बू स्वामी की जिज्ञासा ३६. श्रेणिक का प्रश्न १४. सुधर्मा स्वामी का समाधान ४०. भगवान् का समाधान . १५. दीर्घसेनकुमार नामक प्रथम अध्ययन ४१. श्रेणिक द्वारा वंदन और गुणानुवाद १६. शेष अध्ययनों का वर्णन ४२. धन्य अनगार का संथारा तृतीयवर्ण ४३. भविष्य पृच्छा . १७. जम्बू स्वामी की जिज्ञासा ४४. उपसंहार ६० १८. सुधर्मा स्वामी का समाधान ४५. सुनक्षत्रकुमार नामक द्वितीय अध्ययन ६१ १९. धन्यकुमार नामक प्रथम अध्ययन ४६. सुनक्षत्र कुमार का परिचय २०. धन्यकुमार का जन्म ४७. प्रव्रज्या ग्रहण २१. धन्यकुमार का विवाह | ४८. अभिग्रह और विद्याध्ययन २२. भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण २६ | ४६. अनशन और देवोपपात २३. धन्यकुमार की दीक्षा २६ | ५०. शेष अध्ययन २४. धन्यकुमार का अभिग्रह ३२ | ५१. उपसंहार M For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० ३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०-०० ४. समवायांग सूत्र २५-०० ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१,२ ८०-०० ७. उपासकदशांग सूत्र २०-०० ८. अन्तकृतदशा सूत्र २५-०० ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० ११. विपाक सूत्र ३०-०० १५-०० . २५-०० २५-०० ८०-०० १६०-०० ५०-०० २०.०० २०.०० उपांग सूत्र १. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र ३. जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ ४. प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ . ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६-७. चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति ८-१२. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, , 'पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिवशा) मूल सूत्र १.. वशवकालिक सूत्र २. उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१, २ ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र छेद सूत्र १-३. त्रीणिछेवसुत्ताणि सूत्र (शाभुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ४. निशीथ सूत्र १. आवश्यक सूत्र ३०-०० ८०-०० २५.०० ५०.०० ५०-०० ५०.०० For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम बत्तीसी के अलावा संघ के प्रकाशन क्रं. नाम मूल्य | क्रं. नाम १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ १४-०० ५१. लोकाशाह मत समर्थन २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० ५२. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा . ३. अंगपविदुसुत्ताणि भाग ३ ३०-०० ५३.बड़ी साधु वंदना ४. अंगपविद्वसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० ५४. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ३५-०० ५५. स्वाध्याय सुधा ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० ५६. आनुपूर्वी ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० ५७. सुखविपाक सूत्र ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ३-५० ५८. भक्तामर स्तोत्र ६. आयारो ८-०० ५६. जैन स्तुति १०. सूयगडो ६-०० ६०. सिद्ध स्तुति ११. उत्तरायणाणि(गुटका) १०-०० ६१. संसार तरणिका १२. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) ५-०० ६२. आलोचना पंचक १३. गंदी सुत्तं (गुटका) अप्राप्य ६३.विनयचन्द चौबीसी १४. चउछेयसुत्ताई १५-०० ६४. भवनाशिनी भावना १५. आचारांग सूत्र भाग १ २५-०० ६५. स्तवन तरंगिणी १६. अंतगडदसा सूत्र १०-०० ६६. सामायिक सूत्र १७-१८. उत्तराध्ययनसूत्र भाग १,२,३ ४५-०० ६७. सार्थ सामायिक सूत्र २०. आवश्यक सूत्र (सार्थ) १०-०० ६८. प्रतिक्रमण सूत्र २१. दशवैकालिक सूत्र १०-०० ६६. जैन सिद्धांत परिचय २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ १०-०० ७०. जैन सिद्धांत प्रवेशिका २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ १०-०० ७१. जैन सिद्धांत प्रथमा २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ १०-०० ७२. जैन सिद्धांत कोविद २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ १०-०० ७३. जैन सिद्धांत प्रवीण २६.जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त १५-०० ७४. तीर्थंकरों का लेखा २७. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ ८-०० ७५. जीव-धड़ा २८. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ १०-०० ७६.१०२बोल का बासठिया २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ १०-०० ७७. लघुदण्डक ३०-३२. तीर्थंकर चरित्र भाग १,२,३ १४०-०० ७८. महादण्डक ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३५-०० ७e. तेतीस बोल ३४. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ३०-०० ८०. गुणस्थान स्वरूप ३५-३७. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ८१. गति-आगति ३८. सम्यक्त्व विमर्श १५-०० ८२. कर्म-प्रकृति ३६. आत्म साधना संग्रह २०-०० ८३. समिति-गुप्ति ४०. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी ८४. समकित के ६७ बोल ४१. नवतत्वों का स्वरूप १३-०० ४२. अगार-धर्म ८५. पच्चीस बोल १०-०० ८६. नव-तत्त्व १०-०० ४३. Saarth Saamaayik Sootra ४४. तत्व-पृच्छा १०-०० ८७. सामायिक संस्कार बोध ४५. तेतली-पुत्र ८८. मुखबलिका सिदि १-०० ४६. शिविर व्याख्यान १२-०० ८९. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ४७. जैन स्वाध्याय माला १५-०० १०. धर्म का प्राण यतना ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ २२-०० ६१. सामग्ण सहिधम्मो ve. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ . ६२. मंगल प्रभातिका ५०. सुधर्म चरित्र संग्रह १०-००६३. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप मूल्य १०-०० १५-०० १०-०० ५-०० ७-०० १-०० २-०० २-०० ६-०० ३-०० ७-०० २-०० १-००. '२-०० ५-०० १-०० ३-०० ३-०० ३-०० ४-०० ४-०० ३-०० ४-०० १-०० २-०० ०-५० ३-०० १-०० २-०० ३-०० १-०० ५७-०० १-०० २-०० २.०० ३-०० ६-०० ४-०० ३-०० ३-०० २-०० अप्राप्य १.२५ ४-०० १५-०० For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमो सिद्धाणं॥ अणुत्तरोववाड्य दसाओ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र (मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) प्रस्तावना भूतकाल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं। भविष्य में फिर अनंत तीर्थंकर होवेंगे और वर्तमान में संख्यात तीर्थंकर विद्यमान हैं। अतएव जैन धर्म अनादिकाल से है, इसीलिए इसे सनातन(सदातन-अनादिकालीन) धर्म कहते हैं। ___केवलज्ञान हो जाने के बाद सभी तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप से प्रवचन फरमाते हैं, वह प्रवचन द्वादशांग वाणी रूप होता है। तीर्थंकर भगवंतों की उस द्वादशांग वाणी को गणधर सूत्र रूप से गूंथन करते हैं। द्वादशांग (बारह अङ्गों) के नाम इस प्रकार हैं - १. आचाराङ्ग २. सूयगडाङ्ग ३. ठाणांग (स्थानांग) ४. समवायाङ्ग ५. विवाहपण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती) ६. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ७. उपासकदशाङ्ग ८. अंतगडदशाङ्ग ६. अनुत्तरोपपातिक दशां १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक और १२. दृष्टिवाद। __जिस प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकायये पांच अस्तिकाय कभी नहीं थे, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेंगे ऐसी बात नहीं किंतु ये पांच अस्तिकाय भूतकाल में थे, वर्तमान में हैं और भविष्यत् काल में भी रहेंगे। इसी प्रकार यह द्वादशाङ्ग वाणी कभी नहीं थी, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगी, ऐसी बात नहीं किंतु भूतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्यत्काल में रहेगी। अतएव यह मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना आदि देते रहने पर भी इसका क्षय For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र *********je aje aje aje ale aje aje aje aje aje je je je je je je aj jej je jajajaj je aje aje aje aje ajje s २ नहीं होने के कारण अक्षय है। गंगा सिन्धू नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है । यह द्वादशांग वाणी गणिपिटक के समान है अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गण को धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं । पिटक का अर्थ है - पेटी, या पिटारी अथवा मंजूषा। आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुत रत्नों की पेटी (मंजूषा) को 'गणि-पिटक' कहते हैं। ***** जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं। यथा- दो पैर, दो जंघा, दो उरू (साथल), दो पसवाडे, दो हाथ, एक गर्दन और एक मस्तक । इसी प्रकार श्रुत रूपी परम पुरुष आचारांग आदि बारह अंग होते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर हुए थे। उनकी नौ वाचनाएं हुई। अभी वर्तमान में उपलब्ध आगम पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं। सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है। इसलिए दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। वर्तमान में ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उसमें अनुत्तरोपपातिकदशा का नौवां नम्बर है। अनुत्तर नाम प्रधान और उपपात नाम जन्म अर्थात् जिनका सर्वश्रेष्ठ देवलोकों में जन्म हुआ है वे अनुत्तरोपपातिक ( अणुत्तरोववाइय) कहलाते हैं। इसी कारण यह सूत्र अनुत्तरोपपातिक सूत्र कहलाता है। इस सूत्र में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन है जो इस संसार में तप, संयम आदि शुभ क्रियाओं का आचरण कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं और वहां से चव कर उत्तम कुल में जन्म लेंगे और उसी भव में मोक्ष जायेंगे। इस सूत्र में कुल तीन वर्ग हैं। इन तीनों वर्गों कुल ३३ अध्ययन हैं। . अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग का शब्दार्थ इस प्रकार है 'अन्' - नहीं 'उत्तराणि - श्रेष्ठ, जिनसे ऐसे विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध नामक विमान 'उपपात' उत्पन्न होना, अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध नामक सर्वश्रेष्ठ विमानों में उत्पन्न होने वाले 'अनुत्तरोपपातिक' हैं। अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले जालिकुमार आदि दश अध्ययन वाला जिसका प्रथम वर्ग है, वह अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग सूत्र है। यहां दश शब्द, लक्षण से कथावस्तु का ज्ञान कराने वाला है क्योंकि भगवान् के द्वारा इस अंग का धर्मकथा रूप से उपदेश दिया गया है। इस नवमें अङ्ग के प्रथम वर्ग का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठमो वग्गो - प्रथम वर्ग जंबू स्वामी की जिज्ञासा (१) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे अज्जसुहम्मस्स समोसरणं, परिसा णिग्गया, जाव जंबू पजुवासइ एवं वयासी-जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयमढे पण्णत्ते, णवमस्स णं भंते! अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते? कठिन शब्दार्थ - तेणं कालेणं - उस काल में, तेणं समएणं - उस समय में, समोसरणं - समवसरण, परिसा - परिषद्, णिग्गया - निकली, पजुवासइ - पर्युपासनासेवा करते हुए, अढे - अर्थ। - भावार्थ - उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर में आर्य सुधर्मा स्वामी पधारे। उन्हें वंदना करने के लिये परिषद् निकली और धर्मोपदेश सुन कर अपने अपने स्थान पर गई यावत् जम्बू स्वामी सुधर्मा स्वामी की पर्युपासना (सेवा) करते हुए इस प्रकार बोले - - हे भगवन्! यदि मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आठवें अङ्ग अंतगडदशा का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो हे भगवन्! नौवें अङ्ग अनुत्तरोपपातिकदशा का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है? विवेचन - सूत्रों की संख्या-बद्ध क्रम में आठवां अंग अन्तकृद्दशा और नौवां अंग अनुत्तरोपपातिक-दशा है। अतः अंतगड दशा सूत्र के अनन्तर ही इसका आना सिद्ध है। आठवें अंगसूत्र में उन जीवों का वर्णन है जो उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में पधारे हैं किंतु इस नौवें अंग में उन महापुरुषों के जीवन का दिग्दर्शन कराया गया है जो इस मनुष्य भव का आयुष्य पूर्ण कर पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं। .. तेणं कालेणं - उस काल अर्थात् चौथे आरे के तेणं समएणं - उस समय, जब श्री भगवान् महावीर स्वामी निर्वाण पद प्राप्त कर चुके थे, राजगृह नामक एक नगर था। राजगृह For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र नगर का विशेष वर्णन औपपातिक सूत्र से जानना चाहिये। उस राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पांचवें गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी पधारे। ___ आर्य सुधर्मा स्वामी का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - 'कोल्लाक' नामक सन्निवेश में 'धम्मिल' नाम के एक ब्राह्मण रहते थे। उनकी स्त्री का नाम 'भदिल्ला' था। उनके 'सुधर्मा' नाम के पुत्र थे। उन्होंने ५० वर्ष की उम्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षा अंगीकार की। ३० वर्ष पर्यंत भगवान् महावीर स्वामी की सेवा की। वे चौदह पूर्वधारी हुए। वीर निर्वाण के १२ वर्ष पश्चात् जन्म से ६२ वर्ष की उम्र में उनको केवलज्ञान हुआ। आठ वर्ष तक केवली पर्याय का पालन कर पूरे १०० वर्ष की आयु में आर्य जम्बूस्वामी को अपने पद पर स्थापित कर आप मोक्ष पधारे। सुधर्मा स्वामी के गुणों का विस्तृत वर्णन ज्ञातासूत्र से जानना चाहिये। ऐसे सुधर्मा स्वामी का राजगृह में पधारना जान कर नगर निवासी वंदन तथा धर्म श्रवण करने के लिये निकले। धर्मकथा सुन कर अपने-अपने स्थान पर गये। तदनन्तर सुधर्मा स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जंबूस्वामी ने नतमस्तक हो दोनों हाथ जोड़कर आर्य सुधर्मा स्वामी से निवेदन किया - "हे भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं उन्होंने आठवें अंग अंतकृतदशा सूत्र का अमुक अर्थ प्रतिपादन किया है जो मैंने आपके मुखारविंद से सुन लिया है। अब मेरी जिज्ञासा नौवें अंग के अर्थ को जानने की है। कृपा कर वह भी वर्णन फरमाइये।" । - जम्बूस्वामी के उक्त जिज्ञासा रूप प्रश्न को सुन कर सुधर्मा स्वामी इस प्रकार कहने लगे आर्य सुधर्मा स्वामी का समाधान तए णं से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वंयासी - एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं णवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तिण्णि वग्गा पण्णत्ता। जड़ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं णवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तओ वग्गा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता? एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा - जालि-मयालि-उवयालि-पुरिससेणे य वारिसेणे य। दीहदंते य लट्ठदंते य वेहल्ले वेहासे अभए इ य कुमारे॥ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्दार्थ - वग्गा वर्ग-अध्ययनों के समूह को वर्ग कहते हैं, अज्झयणा अध्ययन, पण्णत्ता कहे गये हैं। प्रथम वर्ग - आर्य सुधर्मा स्वामी का समाधान ***** - - जम्बू ! भावार्थ - सुधर्मा स्वामी ने जम्बू अनगार के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष प्राप्त महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिकदशा नामक नौवें अंग के तीन वर्ग कहे हैं। ५ हे भगवन्! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने नौवें अंग अनुत्तरोपपातिक दशा के तीन वर्ग कहे हैं तो हे भगवन्! अनुत्तरोपपातिक दशा के पहले वर्ग के कितने अध्ययन कहे हैं? - हे जंबू ! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग के दस अध्ययन कहे हैं उनके नाम इस प्रकार हैं - १. जालिकुमार २. मयालिकुमार ३. उपजालिकुमार ४. पुरुषसेन कुमार ५. वारिसेनकुमार ६. दीर्घदंत कुमार ७. लष्टदंतकुमार वेहल्लकुमार ६. वेहासकुमार और १०. अभयकुमार । - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में इस ग्रंथ का विषय संक्षेप में बताया गया है। जम्बूस्वामी ने अत्यंत उत्कट जिज्ञासा से सुधर्मा स्वामी से पूछा कि हे भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिकदशा के कितने वर्ग कहे हैं? इस पर सुधर्मा स्वामी ने फरमाया कि उक्त सूत्र के तीन वर्ग कहे गये हैं। फिर जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया कि इन तीन वर्गों के प्रथम वर्ग के कितने अध्ययन प्रतिपादन किये गये हैं। उत्तर में सुधर्मा अनगार ने बताया कि प्रथम वर्ग के दश अध्ययन कहे गये हैं । जालिकुमार आदि प्रथम वर्ग के दश अध्ययनों के नाम हैं जो भावार्थ में दिये गये हैं। ८. इस सूत्र से यह सिद्ध होता है कि गुरु भक्ति से ही श्रुत ज्ञान की अच्छी तरह से प्राप्ति हो सकती है। अब जम्बू अनगार सुधर्मा स्वामी से फिर प्रश्न करते हैं जड़ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? For Personal & Private Use Only 'भावार्थ - हे भगवन्! यदि मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रथम वर्ग के . दश अध्ययन कहे हैं तो हे भगवन्! अनुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है? Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जालिकुमार नामक प्रथम अध्ययन जालिकुमार का परिचय एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे रिद्धत्थिमिय- समिद्धे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, धारिणी देवी, सीहो सुमिणे, जालि कुमारो जहा मेहो अट्ठट्ठओ दाओ जाव उप्पिं पासाए जाव विहरड़ । कठिन शब्दार्थ - रिद्धित्थिमियसमिद्धे - ऋद्धिस्तिमित समृद्धं - ऋद्धि-गगन चुंबी प्रासादों से अलंकृत स्तिमित - स्व पर चक्रभय रहित समृद्ध - धन-धान्य ऐश्वर्य वैभव संपन्न, अट्ठट्ठओ - आठ-आठ, दाओ - दात-विवाह के साथ लड़की की ओर से आने वाला दहेज, उप्पं पासा - प्रासाद के ऊपर सुखपूर्वक, विहरइ - विचरण करता है। भावार्थ - हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । वह ऋद्ध सम्पन्न, स्वचक्री-परचक्री के भय से रहित समृद्धशाली था । उस नगर के बाहर गुणशील नाम का उद्यान था। उस नगर में श्रेणिक नाम का राजा था। उसकी धारिणी नाम की रानी थी। उसने किसी रात्रि में सिंह का स्वप्न देखा । यथा समय उसके पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम 'जालिकुमार' रखा। इसका वर्णन मेघकुमार के समान जानना चाहिये । युवावस्था प्राप्त होने पर आठ राजकुमारियों के साथ उसका विवाह हुआ । आठ-आठ प्रासाद आदि दात - दहेज दिया यावत् वह उनके साथ प्रासाद में सुख का अनुभव करता हुआ रहता है। विवेचन - ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अ० १ में वर्णित मेघकुमार के समान ही इस अध्ययन में जालिकुमार का वर्णन किया गया है। अतः मेघकुमार के समान ही जालिकुमार का जन्मोत्सव, पांच धायों द्वारा लालन पालन, बहत्तर कलाओं का अध्ययन तथा विवाह आदि कार्य संपन्न हुए । श्वसुर के द्वारा दहेज में वस्त्र, अलंकार, रत्न आदि आठ-आठ प्रकार की वस्तुएं मेघकुमार के समान ही इनको विवाह में प्राप्त हुई थी। इस प्रकार जालिकुमार निज महलों में अपने पूर्व उपार्जित शुभ कर्मों के कारण अत्युत्तम गीत नृत्यादि पांच प्रकार के अनुपम विषय सुखों का अनुभव करता हुआ विचरता था । दीक्षा, तपाराधना और अनशन सामी समोसढे, सेणिओ णिग्गओ, जहा मेहो तहा जाली वि णिग्गओ, For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - दीक्षा, तपाराधना और अनशन तहेव णिक्खंतो जहा मेहो एक्कारस अंगाई अहिजइ, गुणरयणं तवोकम्मं एवं जा चेव खंदगवत्तव्वया सा चेव चिंतणा आपुच्छणा, थेरेहिं सद्धिं विपुलं तहेव दुरूहइ। ___ कठिन शब्दार्थ - सामी - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, समोसढे - समवसृत हुएविराजमान हुए, जहा - जैसे, णिग्गओ - निकले, तहेव - उसी प्रकार, णिक्खंतो - दीक्षित हुए, एक्कारस अंगाई - ग्यारह अंगों का, अहिजइ - अध्ययन किया, गुणरयणं तवोकम्मगुणरत्न संवत्सर तप, खंदयस्स वत्तव्वया - स्कंदक मुनि की वक्तव्यता, चिंतणा - धर्म चिन्तना, आपुच्छणा - पूछना - आज्ञा लेना, थेरेहिं - स्थविरों के, सद्धिं - साथ, विपुलं - विपुल गिरि पर, दुरूहइ - चढ़ता है। भावार्थ - उस समय राजगृह के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। उन्हें वंदना करने के लिये राजा श्रेणिक निकला। मेघकुमार के समान जालिकुमार भी भगवान् के दर्शन-वंदन हेतु निकला। भगवान् का उपदेश सुन कर मेघकुमार के समान जालिकुमार ने भी दीक्षा अंगीकार की। क्रमशः ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। गुणरत्न संवत्सर नामक तप किया। शेष जिस प्रकार स्कंदक की वक्तव्यता है उसी प्रकार समझना चाहिये। उन्हें भी उसी प्रकार अध्यवसाय-धर्मचिंतन हुआ और भगवान् की आज्ञा लेकर स्थविर मुनियों के साथ विपुलगिरि पर चढ़े, अनशन स्वीकार किया। विवेचन - भव्यजनों का कल्याण करने वाले, भव्यजनों के मन को रञ्जन करने वाले गुणगम्भीर चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गुणशील चैत्य में पदार्पण को जान कर उनको वंदन नमस्कार करने के लिये राजा श्रेणिक अपने समस्त परिवार एवं चतुरंगिणी सेना के साथ निकला और भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ। जालिकुमार भी भगवान् की पर्युपासना करने हेतु पहुंचा। मेघकुमार के समान उनको भी भगवान् की अनुपम धर्म देशना सुन कर वैराग्य उत्पन्न हुआ। अपने माता पिता से आज्ञा प्राप्त कर अत्यंत उल्लास एवं उत्साह के साथ सर्व प्राणियों को अभय प्रदान करने वाली परम पद मोक्ष के प्रति एकलक्ष्य बनाने वाली निग्रंथ प्रव्रज्या धारण की और मेघकुमार की तरह सामायिक से लेकर आचाराङ्ग आदि ग्यारह अंग सूत्रों का ज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् जालिकुमार अनगार ने गुणरत्न संवत्सर नामक तप की आराधना की। यहां भगवती सूत्र में वर्णित खंदक अनगार. के तप की भलामण दे कर पाठ को संकुचित किया गया है। पाठकों के लाभार्थ भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ से वह पाठ यहां उद्धत किया जाता है - For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र **************************************rrrrrrrrrrrrrrent पढमं मासं चउत्थं चउत्थेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियहाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। कठिन शब्दार्थ - अणिक्खित्तेणं - निरन्तर, वाणुक्कुडुए - उत्कटुक आसन से बैठना, सूराभिमुहे - सूर्य के सामने मुंह करके, आयावणभूमीए - आतापना भूमि में, रत्तिं - रात को, अवाउडेण - अप्रावृत्त - वस्त्र रहित। भावार्थ - प्रथम मास में निरन्तर उपवास करना। दिन में आतापना-भूमि में सूर्य के सामने मुँह कर के उत्कटुक आसन से बैठना और सूर्य की आतापना लेना तथा रात्रि में वीरांसन से बैठ कर अप्रावृत्त (वस्त्र रहित) हो कर शीत सहन करना। एवं दोच्चं मासं छह छटेणं, अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। भावार्थ - दूसरे मास में बेले-बेले निरन्तर तप करना, दिन में आतापना भूमि में उत्कटुक आसन से सूर्य के सम्मुख बैठ कर आतापना लेना और रात्रि के समय अप्रावृत्त होकर वीरासन से बैठ कर शीत सहन करना। एवं तच्चं मासं अहमं अहमेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। भावार्थ - तीसरे महीने में निरन्तर तेले-तेले तपस्या करना दिन में आतापना आदि पूर्वानुसार। चउत्थं मासं दसमं दसमेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियहाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य| भावार्थ - चौथे मास में चोले-चोले निरन्तर तप करना। शेष पूर्वानुसार। - पंचमं मासं बारसम, बारसमेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियहाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण या भावार्थ - पाँचवें मास में पचोले-पचोले तपस्या करना। शेष पूर्वानुसार। छह मासं चउट्स चउद्दसमेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियहाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - दीक्षा, तपाराधना और अनशन भावार्थ - छठे मास में छह-छह का निरन्तर तप करना । सत्तमं मासं सोलसमं सोलसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य । भावार्थ - सातवें मास में सात-सात का तप करना । अमं मासं अट्ठारसमं अट्ठारसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडे । भावार्थ - आठवें मास में आठ-आठ का निरन्तर तप करना । नवमं मासं वीसइमं वीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य भावार्थ - नौवें मास में नौ-नौ की तपस्या निरन्तर करना । दसमं मासं बावीसाए बावीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य । भावार्थ - दसवें मास में दस-दस की तपस्या निरन्तर करना । एकारसमं मासं चउवीसाय चउवीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं • दियाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाडे य भावार्थ - ग्यारहवें मास में ग्यारह - ग्यारह की तपस्या करना । बारसमं मासं छव्वीसाए छव्वीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए, आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य । भावार्थ - बारहवें मास में बारह बारह की तपस्या करना । तेरसमं मासं अट्ठावीसाए अट्ठावीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं For Personal & Private Use Only ह Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ****************************************************** * दियहाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए, आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। भावार्थ - तेरहवें मास में तेरह-तरह का तप करना। चउदसमं मासं तीसइ तीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए, आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। . भावार्थ - चौदहवें मास में चौदह-चौदह का तप करना। पण्णरसमं मासं बत्तीसइमं बत्तीसइमेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियद्वाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए, आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। .भावार्थ - पन्द्रहवें मास में पन्द्रह-पन्द्रह का तप करना। सोलसमं मासं चोत्तीसइमं चोत्तीसइमेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दियहाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए, आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण या भावार्थ - सोलहवें मास में सोलह-सोलह का तप करना। 'गुणरयणसंवच्छर' इस शब्द की संस्कृत छाया दो तरह से बनती है - गुणरचनसंवत्सर, अथवा गुणरत्नसंवत्सर, इनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार किया गया है - 'गुणानां निर्जराविशेषाणां रचनं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिंतपसि तद गुणरचनं संवत्सरम्।' 'गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः, गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तद् गुणरत्न संवत्सरं तपः।' ____ अर्थात् - जिस तेप को करने में सोलह मास तक एक ही प्रकार की निर्जरा रूप गुणों की रचना-उत्पत्ति हो, वह तप 'गुणरयण संवच्छर' - गुणरचन संवत्सर कहलाता है। अथवा - जिस तप में गुण रूप रत्नों वाला सम्पूर्ण वर्ष बिताया जाय, वह तप 'गुणरत्न संवत्सर' तप कहलाता है। इस तप में सोलह महीने लगते हैं। जिसमें से ४०७ दिन तपस्या के और ७३ दिन पारणे के होते हैं। यथा - पण्णरस वीस चउव्वीस चेव चउव्वीस पण्णवीसा य। चउव्वीस एक्कवीसा, चउवीसा सत्तवीसा य|॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - दीक्षा, तपाराधना और अनशन ११ तीसा तेत्तीसा वि य चउव्वीस छव्वीस अहवीसा य। तीसा बत्तीसा वि य सोलसमासेसु तव दिवसा॥२॥ पण्णरस दसह छ पंच चउर पंचसु य तिण्णि तिण्णि ति। .. पंचसु दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा।।३।। अर्थ - पहले मास में पन्द्रह, दूसरे मास में बीस, तीसरे मास में चौबीस, चौथे मास में चौबीस, पांचवें मास में पच्चीस, छठे मास में चौबीस, सातवें मास में इक्कीस, आठवें मास में चौबीस, नववें मास में सत्ताईस, दसवें मास में तीस, ग्यारहवें मास में तेतीस, बारहवें मास में चौबीस, तेरहवें मास में छब्बीस, चौदहवें मास में अट्ठाईस, पन्द्रहवें मास में तीस और सोलहवें मास में बत्तीस दिन तपस्या के होते हैं। ये सब मिला कर ४०७ दिन तपस्या के होते हैं। पारणे के दिन इस प्रकार हैं - गुणरत्न-संवत्सर तप तप दिन पारणा सर्व दिन ३२/१६/१६/२ ३०१५ १५/२ २४/१२/१२/ २ ३३/११/११/११/३ ३०/१०/१०/१०/३ २७६६.३ २४८८८३ २१/७/७७३ २५/५ ५ ५ ५ ५ ५ २४|४|४|४|४|४|४६ २४|३|३ | ३ ३ ३ ३ ३ |३|८ २०२|२|२|२|२२|२|२|२|२१० । १५/१/१/१/१/१/१/१/१/१/१/१/११११/१५ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ jjjjj se je je je sje QUY CÁCH पहले मास में पन्द्रह, दूसरे मास में दस, तीसरे मास में आठ, चौथे मास में छह, पांचवें मास में पांच, छठे मास में चार, सातवें मास में तीन, आठवें मास में तीन, नववें मास में तीन, दसवें मास में तीन, ग्यारहवें मास में तीन, बारहवें मास में दो, तेरहवें मास में दो, चौदहवें मास में दो, पन्द्रहवें मास में दो, सोलहवें मास में दो दिन पारणे के होते हैं। ये सब मिला कर ७३ दिन पार के होते हैं। तपस्या के ४०७ और पारणे के ७३ - ये दोनों मिला कर ४८० दिन होते हैं अर्थात् सोलह महीनों में यह तप पूर्ण होता है। इस तप में किसी महीने में तपस्या और पारणें के कीचड़ से पैदा हो। कीचड़ से बहुत सी चीजें पैदा होती है। जैसे कि कोई (शैवाल) मेढ़क आदि । किन्तु 'पङ्कज' शब्द का रूढ़ अर्थ है - कमल । अतः व्यवहार में 'पङ्कज' शब्द का अर्थ 'कमल' ही लिया जाता है, काई (शैवाल) मेढ़क आदि नहीं। इसी तरह 'अमर' शब्द है, जिसकी व्युत्पत्ति है - 'न म्रियतेइ ति अमर:' अर्थात् जो मरे नहीं, उसको अमर कहते हैं। यह 'अमर' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है। किन्तु इसका रूढ़ अर्थ है: - देव या 'अमरचन्द्र' नाम का व्यक्ति । अपनी आयु समाप्त होने पर देव भी मरता है और 'अमरचन्द्र' नाम का व्यक्ति भी मरता है । इस अपेक्षा इन में 'अमर' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ घटित ही नहीं होता है, किन्तु चूंकि - 'अमर' शब्द इन अर्थों में रूढ़ हो गया है। इसलिए 'देव' तथा 'अमरचन्द' नाम के व्यक्ति को 'अमर' कहते हैं। है। उपवास को चतुर्थभक्त कहते हैं । अतः चार टक का आहार छोड़ना, यह अथ नहा लेना चाहिये। इसी प्रकार षष्ठभक्त, अष्ठभक्त आदि शब्द- बेला, तेला आदि की संज्ञा है । से - शब्दों का व्युत्पत्त्यर्थ व्यवहार में नहीं लिया जाता है, किन्तु रूढ़ (संज्ञा ) अर्थ ही ग्रहण किया जाता है, जैसे कि - 'पङ्कज' शब्द की व्युत्पत्ति है- 'पङ्कात जातः, 'पङ्कजः ' । अर्थात् जो कीचड़ से पैदा हो। कीचड़ से बहुत सी चीजें पैदा होती है। जैसे कि कोई (शैवाल ) मेढ़क आदि । किन्तु 'पङ्कज' शब्द का रूढ़ अर्थ है - कमल । अतः व्यवहार में 'पङ्कज' शब्द का अर्थ 'कमल' ही लिया जाता है, काई (शैवाल) मेढ़क आदि नहीं। इसी तरह 'अमर' शब्द है, जिसकी व्युत्पत्ति है - 'न म्रियते ति अमर:' अर्थात् जो मरे नहीं, उसको अमर कहते हैं । यह 'अमर' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है। किन्तु इसका रूढ़ अर्थ है: - देव या 'अमरचन्द्र' नाम का व्यक्ति । अपनी आयु समाप्त होने पर देव भी मरता है और 'अमरचन्द्र' नाम का व्यक्ति भी मरता है । इस अपेक्षा इन में 'अमर' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ घटित ही नहीं होता है, किन्तु चूंकि - 'अमर' शब्द इन अर्थों में रूढ़ हो गया है। इसलिए 'देव' तथा 'अमरचन्द' नाम के व्यक्ति को 'अमर' कहते हैं । इसी प्रकार 'चउत्थभत्त' शब्द भी 'उपवास' अर्थ में रूढ़ है। अतः 'चार टंक आहार छोड़ना' यह अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र 7 ************** For Personal & Private Use Only - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - विजय विमान में उपपात 'चउत्थभत्त' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ व्यवहार एवं प्रवृत्ति में नहीं लिया जाता है। चार टंक आहार छोड़ना ऐसा 'चउत्थभत्त' शब्द व्यवहार में अर्थ लेना आगमों से विपरीत है। अतः 'चउत्थभत्त' यह उपवास की संज्ञा है- सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक आठ पहर आहार छोड़ना 'उपवास' है एवं षष्ठभक्त, अष्ठभक्त आदि शब्द-बेला, तेला आदि की संज्ञा है। जालि अनगार ने गुणरत्न संवत्सर तप कर्म का सूत्रानुसार, कल्पानुसार, मार्गानुसार और तत्त्वानुसार समतापूर्वक स्पर्श किया, पालन किया, शोभित किया, पार किया, कीर्तित किया और भगवान् की आज्ञा की आराधना करके भगवान् के निकट आये। भगवान् को वन्दनानमस्कार किया और उपवास, बेला, तेला आदि तथा मासखमणादि विविध प्रकार के तप से अपनी आत्मा को पवित्र करते हुए विचरने लगे। जालि अनगार उस उदार विपुल, प्रदत्त, प्रग्रहीत, कल्याणकारी शिवरूप (क्षेमकारी) धन्यरूप, मंगलरूप, शोभनीय, उदग्र, उत्तरोत्तर उदात्त, उज्ज्वल, उत्तम और महान् प्रभावशाली तप से शुष्क हो गए (सूख गए), रूक्ष हो गए, मांस रहित हो गए। उनके शरीर की हड्डियां चर्म से ढकी रही, हड्डियाँ खडखड बजने लगी और नसें ऊपर उभर आई। __ स्कंदक ऋषि के समान चिंतना, पृच्छना तथा अनशनव्रत. के लिये भगवान् की आज्ञा प्राप्त करना आदि वर्णन जान लेना चाहिये। स्कंदक ऋषि के समान ही जालिकुमार अनगार स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर गए और अनशन स्वीकार किया। ... विजय विमान में उपपात - णवरं सोलसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उड चंदिम० सोहम्मीसाण जाव आरणच्चुए कप्पे णव य गेवेजे विमाणपत्थडे उद्धं दूरं वीईवइत्ता विजय विमाणे देवत्ताए उववण्णे। कठिन शब्दार्थ - णवरं - इतना विशेष है कि, सोलसवासाई - सोलह वर्षों तक, सामण्णपरियाणं - श्रामण्य पर्याय का, पाउणित्ता - पालन कर, कालमासे - मृत्यु के अवसर पर, कालं किच्चा - काल करके, उद्धं - ऊंचे, चंदिमं - चन्द्र से यावत्, सोहम्मीसाणसौधर्म-ईशान देवलोक, आरणच्चुए - आरण-अच्युत, कप्पे - कल्प-देवलोक; गेवेजे - ग्रैवेयक, विमाणपत्थडे - विमान-प्रस्तट, दूरं - दूर, वीईवइत्ता - व्यतिक्रम करके, देवत्ताएदेव रूप से, उववण्णे - उत्पन्न हुआ। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र भावार्थ विशेषता यह है किं सोलह वर्ष तक चारित्र पर्याय पालन कर मृत्यु के समय काल कर चन्द्रादि विमानों से भी ऊपर, सौधर्म ईशान यावत् आरण अच्युत कल्प (विमान) को लांघ कर नवग्रैवेयक विमान के पाथडों से भी ऊपर अति दूर जा कर विजय नामक अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए । स्थविर भगवंत भगवान् की सेवा में १४ dje je je je aje aje aje aje aje aje al तणं ते थेरा भगवंतो जालिं अणगारं कालगयं जाणेत्ता परिणिव्वाणवत्तियं काउस्सगं करेंति, करित्ता पत्तचीवराई गेण्हंति, तहेव ओयरंति, जाव इमे से आयारभंडए । - कालधर्म निमित्त, कठिन शब्दार्थ- परिणिव्वाणवत्तियं परिनिर्वाण - प्रत्ययिक काउस्सग्गं कायोत्सर्ग, पत्तचीवराई - पात्र और वस्त्र, गेण्हंति - ग्रहण करते हैं, ओयरंति उतरते हैं, आयारभंडए - आचारभाण्ड ज्ञान आदि आचार पालने के भण्डोपकरण अर्थात् धर्म-साधन के उपयोगी उपकरण । - - भावार्थ तब उन स्थविर भगवंतों ने जालि अनगार को कालगत हुआ जान कर परिनिर्वाण - प्रत्ययिक - कालधर्म निमित्त किया जाने वाला कायोत्सर्ग किया फिर जालि अनगार के पात्र, वस्त्र आदि धर्मोपकरण ग्रहण किये और जिस प्रकार पर्वत पर चढ़े उसी प्रकार नीचे उतरे और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित होकर उन्होंने सविनय निवेदन किया कि हे भगवन्! ये जालि अनगार के आचारभाण्ड - धर्मोपकरण हैं। भविष्य विषयक पृच्छा - - 'भंते'! त्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी जालि णामं अणगारे पगइभद्दए, से णं जालि अणगारे कालगए कहिं गए? कहिं उववण्णे? कठिन शब्दार्थ - अंतेवासी कालगत हो कर, कहिं - कहां, गए • शिष्य, पगइभद्दए - प्रकृति से ही भद्र, कालगए गया है, उववण्णे - उत्पन्न हुआ है? भावार्थ - "हे भगवन् !” इस प्रकार संबोधन करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - प्रभु का समाधान १५ *************************************************** ************** महावीर स्वामी से इस प्रकार पूछा - आप देवानुप्रिय का शिष्य जालि नामक अनगार जो प्रकृति से भद्र आदि विशेषण वाले थे, वे काल धर्म को प्राप्त होकर कहां गए? कहां उत्पन्न हुए? प्रभु का समाधान एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी तहेव जहा खंदयस्स जाव कालगए उड़े चंदिम० जाव विजए विमाणे देवत्ताए उववण्णे। भावार्थ - हे गौतम! मेरे शिष्य जालि अनगार की वक्तव्यता स्कंदक अनगार के समान है यावत् वह कालधर्म को प्राप्त होकर चन्द्रादि विमान से ऊपर यावत् विजय विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है। जालिस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। से णं भंते! ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। (ता) एवं जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमवग्गस्स पढमअज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते॥ कठिन शब्दार्थ - ठिई - स्थिति, देवलोगाओ - देवलोक से, आउक्खएणं - आयु के क्षय होने पर, भवक्खएणं - भव (देव भव) के क्षय होने पर, ठिइक्खएणं - स्थिति के क्षय होने पर, गच्छिहिइ - जाएगा, उववजिहिइ - उत्पन्न होगा, महाविदेहेवासे - महाविदेह क्षेत्र में, सिज्झिहिइ - सिद्ध होगा, ता - इसलिये। _भावार्थ - हे भगवन्! जालि देव की कितने काल की स्थिति कही गई है? . हे गौतम! बत्तीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। हे भगवन्! वह जालिकुमार देव देवलोक से आयुष्य का क्षय होने पर, भव का क्षय होने पर, स्थिति का क्षय होने पर कहां जाएगा? कहां उत्पन्न होगा? ... हे गौतम! महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा अर्थात् सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा और निर्वाण पद प्राप्त कर सारे शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करेगा। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ****** ************* ********************************** हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। ___ विवेचन - इस प्रकार अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन में जालिकुमार का वर्णन किया गया है। ___ किसी भी त्यागी पुरुष के जीवन का संबंध उनके आद्य जीवन से जुड़ा हुआ रहता है। सुनने वाला जब तक पूर्व दशा को नहीं जान ले तब तक जीवन की उत्तर दशा को भलीभांति समझ नहीं . सकता इसी कारण सुधर्मा स्वामी-'उस काल' 'उस समय', 'राजगृह नगर', 'गुणशील उद्यान', 'श्रेणिक राजा' 'धारिणी देवी' आदि नाम दे दे कर उस समय की स्थिति का दिग्दर्शन कराते हैं। ___जालिकुमार कोई साधारण व्यक्ति नहीं था परंतु वह मगधाधिपति राजा श्रेणिक का स्वरूपवान् पुत्र था। लालन पालन तथा बहत्तर कला का अध्ययन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वर्णित मेघकुमार के समान बता कर "उनके जीवन की तुलना हर एक व्यक्ति कर सके” ऐसा स्पष्ट अभिप्राय व्यक्त किया है। इतना ही नहीं परंतु उस राजकुमार का रूप लावण्यवती आठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ और युवावस्था को प्राप्त वह जालिकुमार उत्तम महल में पूर्व पुण्योपार्जित शब्दादि विषयों का अनुभव करता हुआ आनन्द में निमग्न था, ऐसे समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का आगमन सुनकर दर्शन तथा उपदेश सुनने के लिये उत्साहित होकर जाना, वह प्रसंग आज के धनवानों के लिये महान् आदर्श और उपदेश का काम करता है। धनीपन की सार्थकता धर्मी होने में है न कि पथभ्रष्ट होकर व्यसन सेवन और विषयसुख के मार्ग की प्रवृत्ति में। ____ आज के अधिकांश मानव त्याग की अपेक्षा भोगों में रत रह कर ही मनुष्य जन्म की सार्थकता समझते हैं तब वे महापुरुष जीवन के पहले प्रसंग में प्रथम बार ही जिनवाणी-संसार त्याग का उपदेश सुन कर उसी समय संसार बंधन को शीघ्र तोड़ कर विरक्त बन जाते और भवोभव संचित कर्मों का नाश करने के लिये प्रधान तप को अंगीकार कर लेते थे। वह तप भी कोई साधारण नहीं परन्तु गुणरत्न संवत्सर आदि कठिन तप को अंगीकार करने में ही वे अपने जीवन की महत्ता समझते थे। जालिकुमार ने उक्त तप को धारण किया। वे ऐसे महातप के द्वारा शरीर का ही नहीं परंतु कर्मों का शोषण करके विजय विमान में उत्पन्न हुए और भविष्य में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे, शाश्वत सुखों के स्वामी बनेंगे। ॥ इति जालिकुमार नामक प्रथम अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष नी अध्ययन मयालि आदि कुमारों का वर्णन एवं सेसाण वि अट्ठण्हं भाणियव्वं। णवरं सत्त धारिणि सुया वेहल्ल वेहासा चेल्लणाए। आइल्लाणं पंचण्हं सोलस वासाइं सामण्ण परियाओ, तिण्हं बारस वासाई, दोण्हं पंच वासाइं। आइल्लाणं पंचण्डं आणुपुव्वीए उववाओ विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे दीहदंते सव्वट्ठसिद्धे, उक्कमेणं सेसा। अभओ विजए, सेसं जहा पढमे, अभयस्स णाणत्तं-रायगिहे णयरे, सेणिए राया, णंदा देवी माया, सेसं तहेव। एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते।॥१॥ ॥ पढमो वग्गो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - सेसाण वि - शेष, अट्ठण्हं - आठ अध्ययनों का भी, भाणियव्वंजानना चाहिये, धारिणी सुया - धारिणी के पुत्र, आइल्लाणं - आदि के, आणुपुव्वीए - अनुक्रम से, उववाओ - उत्पत्ति हुई, उक्कमेणं - उत्क्रम से, णाणत्तं - विशेषता है कि। . भावार्थ - इसी प्रकार शेष आठ (नौ) अध्ययनों के विषय में भी जानना चाहिये। . विशेषता केवल इतनी है कि शेष कुमारों में से सात धारिणी देवी के पुत्र थे, वेहल्ल और वेहायस कुमार चेलना देवी के पुत्र थे। पहले पांच ने सोलह वर्ष तक, तीन ने बारह वर्ष तक और दो ने पांच वर्ष तक संयम पर्याय का पालन किया था। पहले पांच कुमार क्रम से विजय, वैजयंत, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमानों में उत्पन्न हुए और शेष कुमारों की उत्पत्ति उत्क्रम से (अपराजित, जयंत और वैजयंत में) हुई। दीर्घदंत सर्वार्थसिद्ध में और अभयकुमार विजय विमान में उत्पन्न हुए। शेष अधिकार जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में वर्णन किया गया है, उसी प्रकार समझना चाहिये। अभयकुमार के विषय में इतनी विशेषता है कि वह राजगृह नगर में उत्पन्न हुआ था और श्रेणिक राजा तथा नंदा देवी उसके पिता-माता थे। शेष सारा वर्णन पूर्वानुसार ही है। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। . ॥ प्रथम वर्ग समाप्त॥ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रथम वर्ग के शेष नौ अध्ययनों का वर्णन किया गया है। इनका सारा वर्णन जालिकुमार के प्रथम अध्ययन के समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें से सात तो धारिणी देवी के पुत्र थे और वेहल्ल वेहायस चेलना के एवं अभयकुमार नन्दा देवी के पुत्र थे। प्रथम के पांचों कुमारों ने सोलह वर्षों तक संयम पर्याय का पालन किया, तीन कुमारों ने बारह. वर्षों तक और शेष दो कुमारों ने पांच वर्ष तक संयम पर्याय का पालन किया था। पहले पांच अनुक्रम से पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए और पिछले उत्क्रम से पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए। यह इन दश अनगारों के उत्कट संयम पालन का फल है कि वे एक-भवावतारी हुए और भविष्य में मोक्ष के अव्याबाध सुखों को प्राप्त करेंगे। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संयम का पारंपरिक फल मोक्ष है और यह सभी सुखाभिलाषियों के लिये उपादेय है। इन नौ अध्ययनों के विषय में हस्तलिखित प्रतियों में निम्न पाठ भेद मिलता है - "एवं सेसाण वि नवण्हं भाणियव्वं नवरं सत्तण्हं धारिणसुया, विहल्ले विहायसै चेल्लणा अत्तए, अभय नंदा अत्तइ। आइल्लाणं पंचण्हं सोलसवासाइं सामण्णं परियाओ पाउणित्ता, तिण्हं बारस वासाइं दोण्हें पंच वासाइं। आइल्लाणं पंचण्हं आणुपुव्वीए उववाओ विजए, विजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वसिद्धे दीहदंते सव्वसिद्धे लहदंते अपराजिए विहल्ले जयंते, विहायसे विजयंते, अभय विजए। सेसं जहा पढमे तहेवा एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गरस अयमहे पण्णते।" उपरोक्त मूल पाठ को देखने से ज्ञात होता है कि हस्तलिखित प्रतियों में पूरे नौ अध्ययनों के विषय में कहा गया है जबकि मुद्रित पुस्तक में पहले आठ अध्ययनों का वर्णन देकर अंत में अभयकुमार का पृथक् वर्णन दे दिया गया है। अतः कोई भेद नहीं है। प्रथम वर्ग का सार-संक्षेप जानकारी के लिए तालिका रूप इस प्रकार है - For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग - शेष नौ अध्ययन - मयालि आदि कुमारों का वर्णन १६ अध्ययन का नाम माता का नाम पिता दीक्षा पर्याय देवोत्पत्ति १. जालिकुमार धारिणीदेवी श्रेणिकराजा १६ वर्ष विजय २. मयालिकुमार धारिणीदेवी श्रेणिकराजा.. १६ वर्ष वैजयन्त ३. उपजालिकुमार धारिणीदेवी श्रेणिकराजा १६ वर्ष जयन्त ४. पुरुषसेनकुमार धारिणीदेवी श्रेणिकराजा १६ वर्ष अपराजित ५. वारिसेनकुमार . धारिणीदेवी श्रेणिकराजा १६ वर्ष सर्वार्थसिद्ध ६. दीर्घदंतकुमार ... धारिणीदेवी श्रेणिकराजा १२ वर्ष सर्वार्थसिद्ध ७. लष्टदंतकुमार . धारिणीदेवी श्रेणिकराजा १२ वर्ष अपराजित ८. वेहल्लकुमार चेलनादेवी श्रेणिकराजा १२ वर्ष जयन्त ६. वैहायसकुमार चेलनादेवी श्रेणिकराजा - ५ वर्ष वैजयन्त १०. अभयकुमार नन्दादेवी श्रेणिकराजा ५ वर्ष विजय . ॥ इति प्रथम वर्ग के दस अध्ययन समाप्त॥ ॥ प्रथम वर्ग समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिडओ वग्गो जम्बू स्वामी की जिज्ञासा (२) प्रथम वर्ग में जालिकुमार आदि दश अध्ययनों का वर्णन करने के पश्चात् सूत्रकार इस द्वितीय वर्ग में तेरह अध्ययनों का वर्णन करते हैं जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - - जड़ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमट्टे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते ? कहा है। - कठिन शब्दार्थ - जड़ - यदि, अयमट्ठे - यह अर्थ, पण्णत्ते भावार्थ - आर्य जम्बूस्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि हे भगवन् ! यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग का पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है तो हे भगवन्! अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग का श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष प्राप्त श्री महावीर स्वामी ने क्या अर्थ कहा है? द्वितीय वर्ग सुधर्मा स्वामी का समाधान एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तेरस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा - दीहसेणे महासेणे लट्ठदंते य गूढदंते य । सुद्धदंते हल्ले दुमे दुमसेणे महादुमसेणे य आहिए ॥ १ ॥ सीहे य सीहसेणे य महासीहसेणे य आहिए । पुण्णसेणे य बोद्धव्वेतेरसमे होइ अज्झयणे ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - तेरस - तेरह, अज्झयणा है, बोद्धव्वे - जानना चाहिये, होइ - होते हैं। - - अध्ययन, आहिए - कथन किया गया For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वर्ग - सुधर्मा स्वामी का समाधान २१ ********* भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी को उत्तर दिया - हे जंबू! मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन कहे हैं। वे इस प्रकार हैं - १. दीर्घसेन २. महासेन ३. लष्टदंत ४. गूढदंत ५. शुद्ध दंत ६. हल्ल ७. द्रुम ८. द्रुमसेन ६. महाद्रुमसेन १०. सिंह ११. सिंहसेन १२. महासिंहसेन और १३. पुण्यसेनः। इस प्रकार द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन जानना चाहिये। विवेचन - प्रथम वर्ग की समाप्ति पर श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से सविनय निवेदन किया कि - हे भगवन्! अनुत्तरोपपातिक सूत्र के प्रथम वर्ग का अर्थ जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया था वह मैंने आपके मुखारविंद से उपयोगपूर्वक श्रवण कर लिया है। अब हे भगवन्! आप कृपा कर फरमाइये कि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिकदशा के द्वितीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है। 'जम्बूस्वामी की इस जिज्ञासा को सुन कर सुधर्मास्वामी ने कहा - हे जम्बू! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादित किये हैं। जिनके नाम भावार्थ से स्पष्ट है। उक्त कथन से यह भलीभांति सिद्ध होता है कि अपने से बड़ों को जो कुछ भी पूछना हो, विनयसहित ही पूछना चाहिये। विनयपूर्वक प्राप्त किया हुआ - सीखा हुआ ज्ञान ही सफल होता है और विकास को प्राप्त होता है। अतः प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को विनयपूर्वक गुरु के सान्निध्य में श्रुताभ्यास करना चाहिये। - सामान्य रूप से द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययनों का नाम सुन कर श्री जम्बू स्वामी विशेष रूप से प्रत्येक अध्ययन के अर्थ जानने की जिज्ञासा से पुनः सुधर्मास्वामी से विनयपूर्वक निवेदन करते हैं - जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? - भावार्थ - हे भगवन्! यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादित किये हैं तो हे भगवन्! द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ फरमाया है? For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीर्घसेनकुमार नामक प्रथम अध्ययन एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, धारिणी देवी, सीहो सुमिणे, जहा जालि तहा जम्मं बालत्तणं कलाओ, णवरं दीहसेणे कुमारे सच्चेव वत्तव्वया जहा जालिस्स जाव अंतं काहिइ। कठिन शब्दार्थ - सीहो - सिंह का, सुमिणे - स्वप्न, जम्मं - जन्म, बालत्तणं - बालभाव, कलाओ - कलाओं का सीखना, अंतं काहिइ - अन्त करेगा। भावार्थ - सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि हे जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसमें गुणशील उद्यान था। वहां श्रेणिक राजा था। उसकी धारिणी देवी थी। उसने सिंह का स्वप्न देखा। जिस प्रकार जालिकुमार का जन्म हुआ, उसी प्रकार जन्म हुआ उसी प्रकार बालकपन रहा और उसी प्रकार कलाएं सीखीं। विशेषता केवल इतनी है कि इसका नाम दीर्घसेन कुमार रखा गया। शेष वक्तव्यता जैसी जालिकुमार की है उसी प्रकार जाननी चाहिये यावत् महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर समस्त दुःखों का अंत करेगा। शेष अध्ययनों का वर्णन एवं तेरस वि रायगिहे, सेणिओ पिया धारिणी माया, तेरसण्ह वि सोलसवासापरियाओ आणुपुव्वीए विजए दोण्णि वेजयंते दोण्णि जयंते दोण्णि अपराजिए, सेसा महादुमसेणमाई पंच सव्वट्ठसिद्धे। भावार्थ - इसी प्रकार तेरह अध्ययनों के विषय में जानना चाहिये। ये सभी राजगृह नगर में उत्पन्न हुए और सभी महाराजा श्रेणिक और धारिणी देवी के पुत्र थे। इन तेरह ही कुमारों ने सोलह वर्ष तक संयम-पर्याय का पालन किया। इनमें अनुक्रम से दो विजय विमान, दो वैजयंत विमान, दो जयन्त विमान और दो अपराजित विमान में उत्पन्न हुए। शेष महाद्रुमसेन आदि पांच मुनि सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वर्ग - शेष अध्ययनों का वर्णन २३ *##################################** ****************** एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते, मासियाए संलेहणाए दोसु वि वग्गेसु। ॥ बीओ वग्गो समत्तो॥ भावार्थ - हे जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। इन दोनों वर्गों में एक-एक मास की संलेखना जाननी चाहिये अर्थात् दोनों वर्गों के तेईस अनगारों ने एक एक मास का पादपोपगमन अनशन (संथारा) किया था। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययनों का वर्णन किया गया है। तेरह ही राजकुमार श्रेणिक राजा और धारिणी देवी के पुत्र थे। जालिकुमार के समान ही इनका जन्म महोत्सव, बालक्रीड़ा, शिक्षा आदि कार्य संपन्न हुए। आठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ। अनुपम सांसारिक सुखों का त्याग कर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप दीक्षा अंगीकार की। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। गुणरत्न संवत्सर तप का आराधन किया। सोलह वर्ष पर्यंत संयम का पालन किया और अंत में एक मास की संलेखना करके साठ भक्तों को छेदन कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए। इनमें अनुक्रम से दीर्घसेन और महासेन विजय विमान .. में, लष्टदंत और गूढदंत वैजयंत में, शुद्धदंत और हल्ल जयंत विमान में, द्रुम और द्रुमसेन अपराजित विमान में और शेष महाद्रुम सेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन और पुण्यसेन ये पांचों ही सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। ये सभी अनुत्तर विमानों से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और सभी कर्मों का क्षय · कर परम पद मोक्ष को प्राप्त करेंगे। ॥ इति द्वितीय वर्ग समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्चो वग्गो तृतीय वर्ग जम्बूस्वामी की जिज्ञासा (३) अनुत्तरोपपातिकदशा के द्वितीय वर्ग में तेरह अध्ययनों का वर्णन करने के बाद सूत्रकार इस तृतीय वर्ग में धन्यकुमार आदि दस राजकुमारों का वर्णन करते हैं। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैजइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, तच्चस्स णं भंते! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते ? - भावार्थ हे भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्ष को प्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग का पूर्वोक्त अर्थ कहा है तो हे भगवन्! अनुत्तरोपपातिक दशा के तृतीय वर्ग का श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है? विवेचन - द्वितीय वर्ग की समाप्ति होने पर आर्य जम्बू स्वामी ने पुन: सुधर्मा स्वामी - से निवेदन किया कि - हे भगवन्! द्वितीय वर्ग का अर्थ जो आपने फरमाया है वह तो मैंने श्रवण कर लिया है अब मेरी तृतीय वर्ग का अर्थ जानने की जिज्ञासा है अतः मुझ पर कृपा कर फरमाइये के श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के तीसरे वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन केया है। सुधर्मा स्वामी, जम्बूस्वामी के उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए फरमाते हैं कि - सुधर्मा स्वामी का समाधान एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स इस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा - धणेय सुणक्खत्ते य, इसिदासे य आहिए । पेल्लए रामपुत्ते य, चंदिमा पिट्ठिमाइया ॥ १ ॥ पेढालपुत्ते अणगारे, णवमे पुट्टिले विय। वेहल्ले दस वुत्ते, इमे ते दस आहिए ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन २५ भावार्थ - हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के तीसरे वर्ग के दस अध्ययन प्रतिपादित किये हैं वे इस प्रकार हैं - १. धन्य २. सुनक्षत्र ३. ऋषिदास ४. पेल्लक ५. रामपुत्र ६. चन्द्र ७. पृष्ठ ८. पेढालपुत्र अनगार ह. पोट्टिल और १०. वेहल्ल। इन दस कुमारों के नाम के दस अध्ययन कहे हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी द्वारा अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र के तृतीय वर्ग में वर्णित दस अध्ययनों का नामोल्लेख किया गया है। अब जम्बूस्वामी तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन के अर्थ के विषय में सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं - जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? . भावार्थ - हे भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के तृतीय वर्ग के दस अध्ययन कहे हैं तो हे भगवन्! प्रथम अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ फरमाया है? धन्यकुमार नामक प्रथम अध्ययन एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं काकंदी णामं णयरी होत्था रिद्धत्थिमियसमिद्धा, सहसंबवणे उजाणे सव्वोउयपुप्फफलसमिद्धे जाव पासाइए, जियसत्तू राया। कठिन शब्दार्थ - सव्वोउयपुप्फफल समिद्धे - सब ऋतुओं के पुष्प और फलों से युक्त। भावार्थ - हे जम्बू! उस काल और उस समय में काकंदी नाम की नगरी थी। वह ऋद्धि सम्पन्न, स्वचक्री-परचक्री के भय से रहित और समृद्धिशाली थी। उस नगरी के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। वह सब ऋतुओं के पुष्प एवं फल वाले वृक्षों से शोभित था। उस नगरी में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। तत्थ णं काकंदीए णयरीए भद्दा णामं सत्थवाही परिवसइ अड्डा जाव अपरिभूया। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र कठिन शब्दार्थ - सत्थवाही - सार्थवाही, परिवसइ - रहती थी, अपरिभूया - अपरिभूता-पराभव नहीं पाने वाली। भावार्थ - उस काकंदी नगरी में भद्रा नाम की सार्थवाही निवास करती थी। वह ऋद्धि संपन्न यावत् किसी से पराभव नहीं पाने वाली थी। ___विवेचन - प्रस्ततु सूत्र में प्रयुक्त सत्थवाही - सार्थवाही शब्द का अर्थ इस प्रकार है - 'सार्थं वाहयति या सा सार्थवाही' अर्थात् जो गणिम, धरिम, मेय आदि विक्रेय पदार्थों को लेकर विशेष लाभ के लिये दूसरे देश को जाती हो तथा सार्थ - साथ में चलने वाले जन समूह के योग, क्षेम की चिन्ता करती हो उसे सार्थवाही कहते हैं। गणिम - उन विक्रेय वस्तुओं को कहते हैं जो एक, दो, तीन आदि संख्या क्रम से गिन कर दी जाती हों। जैसे - नारियल, सुपारी आदि। धरिम - उन विक्रेय वस्तुओं को कहते हैं जो तराजू द्वारा तोल कर दी जाती हों। जैसे - गेहूं, जौ, शक्कर आदि। मेय - उन विक्रेय पदार्थों को कहते हैं जो किसी माप विशेष के द्वारा माप कर दिये जाते हों। जैसे - दूध, तेल, वस्त्र आदि। परिच्छेद्य - उन विक्रेय पदार्थों को कहते हैं जो प्रत्यक्ष रूप से कसौटी अथवा अन्य उपायों से परीक्षा करके दिये-लिये जाते हों जैसे - माणिक, मोती, सोना आदि। भद्रा सार्थवाही के लिये प्रयुक्त “अड्डा जाव अपरिभूया" विशेषणों में 'जाव' शब्द से निम्न पाठ संगृहीत किया गया है - “अड्डा दित्ता वित्थिण्णविउल भवणसयणासणजाणवाहणाइण्णा बहुधण बहुजायरूवरयया आओगपओग संपउत्ता विच्छड्डिय विउल भत्तपाणा बहुदासीदास गोमहिसग-वेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया।" ___ अर्थात् - वह भद्रा सार्थवाही अत्यधिक धनधान्य सम्पन्न, शील सदाचार रूपी गुणों से प्रकाशित तथा अपने गौरव से युक्त थी। उसके विस्तृत अनेक भवन, पलंग, शय्या, सिंहासन चौकी आदि, यान - गाड़ी रथ आदि और वाहन - घोड़ा हाथी आदि थे। उसके बहुत धन तथा बहुत सोना चांदी था। उसने अपना धन द्विगुणित लाभ-व्यापार आदि में लगा रखा था। उसके यहां सबके भोजन कर लेने के बाद बहुत-सा भक्त पान आदि अवशिष्ट रहता था जो गरीबों को दिया जाता था। उसके आज्ञाकारी बहुत दास-दासी आदि थे और बहुत से जातिवंत गाय, बैल, भैंस आदि थे। वह उस नगर में अत्यंत प्रतिष्ठित एवं सम्माननीय थी। For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * » » »« »je je »je je je aj तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन धन्यकुमार का जन्म *j*je sjajajaj उपरोक्त आगम पाठ से उस समय की स्त्री जाति की उन्नत अवस्था का पता लगता है। उस समय स्त्रियां पुरुषों के ऊपर ही निर्भर नहीं रहती थीं किंतु स्वयं पुरुषों के बराबर व्यापार आदि बड़े-बड़े कार्य करती थीं। उन्हें व्यापार आदि के विषय में सब तरह का पूरा ज्ञान होता था । देशान्तरों में भी उनका व्यापार वाणिज्य आदि कार्य चलता था। यहां भद्रा सार्थवाही नाम की स्त्री सारा कार्य स्वयं करती थी और इसकी विशेषता यह है कि अपनी जाति और बराबरी के लोगों में वह किसी से किसी प्रकार भी कम नहीं थी । यह बात उस समय उन्नति के शिखर पर पहुँची हुई स्त्री समाज का चित्र हमारी आँखों के सामने खींचती है। इस प्रकार जैनागमों के स्वाध्याय से यह निश्चय होता है कि उस समय स्त्रियों के अधिकार पुरुषों के अधिकारों से किसी अंश में भी कम नहीं थे। उस समय की स्त्रियाँ वास्तव में अर्द्धाङ्गिनियाँ थीं। उन्होंने पुरुषों के समान ही मोक्ष भी प्राप्त किया है अतः स्त्रियों को क्षुद्र मानने वालों को भ्रान्ति निवारण के लिये एक बार जैन शास्त्रों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये । धन्यकुमार का जन्म तीसे णं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते धण्णे णामं दारए होत्था अहीण जाव सुरूवे, पंचधाईपरिग्गहिए, तं जहा खीरधाईए जहा महब्बले, जाव बावत्तरिं कलाओ अहीए जाव अलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था । - कठिन शब्दार्थ - दारए - दारक - उसी के गर्भ से उत्पन्न बालक (पुत्र), अहीण - अहीनकिसी भी इन्द्रिय से हीन नहीं - परिपूर्ण इन्द्रियों वाला, सुरूवे सुरूप, पंचधाईपरिग्गहिए - पांच धात्रियों (धाइयों) से परिगृहीत, खीरधाई - दूध पिलाने वाली धात्री, बावत्तरिं कलाओ- बहत्तर कलाएं, अहीए - अध्ययन की, अलं भोगसमत्थे - सभी प्रकार के भोगों को भोगने में समर्थ । भावार्थ उस भद्रा सार्थवाही का पुत्र धन्य नामक कुमार था। वह परिपूर्ण अवयव वाला यावत् स्वरूपवान् था। पांच धायों द्वारा उसका लालन-पालन किया जाता था। वे पांच धाय इस प्रकार हैं १. दूध पिलाने वाली २. स्नान कराने वाली ३. वस्त्राभूषण पहनाने वाली ४. खेलाने वाली घूमाने फिराने वाली और ५. गोद में लेने वाली इत्यादि भगवती सूत्र शतक ११ उद्देशक ११ के महाबल के वर्णन के अनुसार जानना चाहिये यावत् वह धन्यकुमार बहत्तर - पढ़ा और भोग भोगने में समर्थ हुआ । २७ - For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र धन्यकुमार का विवाह तएं णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णं दारयं उम्मुक्कबालभावं जाव भोगसमत्थं यावि जाणित्ता बत्तीसं पासायवडिंसए कारेइ अब्भुग्गयमूसिए जाव तेसिं मज्झे भवणं अणेगखंभसयसण्णिविद्वं जाव बत्तीसाए इब्भवरकण्णगाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेइ, गेण्हावित्ता बत्तीसओ दाओ जाव उप्पिं पासायवडिंसए फुहंतेहिं मुइंगमत्थएहिं जाव विहरइ । २८ कठिन शब्दार्थ - उम्मुक्कबालभावं - उन्मुक्त बालभावं बालकपन से अतिक्रान्त, पासायवडिंसए - श्रेष्ठ प्रासाद (महल), अब्भुग्गयमूसिए - बहुत बड़े और ऊँचे, मज्झे मध्य में, अणेगखंभ सयसण्णिविट्ठ - अनेक सैकड़ों स्तम्भों से युक्त, इब्भवरकण्ण श्रेष्ठ श्रेष्ठियों की कन्याओं के साथ, एगदिवसेणं - एक ही दिन, पाणिं गेण्हावइ - पाणि ग्रहण करवाया, दाओ - दहेज, उप्पिं हुए मृदङ्ग आदि वाद्यों के नाद से । ऊपर, फुटंतेहिं मुइंगमत्थएहिं - जोर जोर से बजते - - भावार्थ तब उस भद्रा सार्थवाही ने धन्यकुमार को बाल्यावस्था से मुक्त हुआ यावत् भोग भोगने में समर्थ जान कर बत्तीस श्रेष्ठ प्रासाद (भवन) बनवाये। वे अति ऊंचे थे यावत् उनके मध्य में अनेक सैंकड़ों स्तम्भ से भूषित एक श्रेष्ठ महल बनवाया यावत् उत्तम इभ्योंश्रेष्ठियों की बत्तीस कन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका विवाह करवाया। विवाह करवा कर बत्तीस-बत्तीस दास-दासी आदि दायजा (दहेज) दिया यावत् वह धन्यकुमार उन बत्तीस कन्याओं के साथ उन श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपर वाद्यों के नाद सहित यावत् पांचों इन्द्रियों के विषय - सुखों को भोगता हुआ विचरने लगा । विवेचन प्रस्तुत सूत्रों में धन्यकुमार के बालकपन, विद्याध्ययन, विवाह संस्कार और सांसारिक सुखों के अनुभव के विषय में वर्णन किया गया है। यह सब वर्णन भगवती सूत्र शतक ११ उद्देशक ११ में वर्णित महाबल कुमार, ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वर्णित मेघकुमार आदि के समान है अतः जिज्ञासुओं को वहां से देखना चाहिये । युवावस्था प्राप्त होने पर भद्रा सार्थवाही ने बत्तीस इभ्य सेठों की बत्तीस कन्याओं के साथ एक ही दिन में धन्यकुमार का विवाह कराया । - je aje je aje aje aje aje aj j - For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्यकुमार की दीक्षा 'इन्भ' शब्द का अर्थ होता है 'हाथी'। जिसके पास हस्ति परिमित द्रव्य होता है उसे 'इभ्य' सेठ कहते हैं। ये इभ्य सेठ जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार के होते हैं। एक हाथी के परिमाण में जिसके पास सोना, चांदी हो उसे 'जघन्य इभ्य' कहते हैं। एक हाथी के परिमाण में जिसके पास माणिक, मोती आदि धनराशि हो उसे 'मध्यम इभ्य' कहते हैं। एक हाथी के परिमाण में जिसके पास मात्र वज्र-हीरे ही हों उसे 'उत्कृष्ट इभ्य' कहते हैं। इभ्य श्रेष्ठियों में श्रेष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट इभ्य श्रेष्ठियों के यहां धन्यकुमार का विवाह हुआ। प्रत्येक कन्या के माता-पिता द्वारा धन्यकुमार को रत्नआभरण, वस्त्र, यान-रथ, घोड़ा, गाड़ी आदि, आसन-पलंग, बिछौने आदि, दास-दासी आदि बत्तीस-बत्तीस दहेज में मिले। तदनन्तर वे धन्यकुमार अपने महल में अनेक प्रकार के मृदंग आदि वाद्यों एवं गीत नृत्यों के साथ मनुष्य संबंधी पांचों प्रकार के विषय सुखों का उपभोग करते हुए विचरने लगे। . भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, परिसा णिग्गया, राया जहा कोणिओ तहा जियसत्तू णिग्गओ। ___ भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का सहस्राम्रवन उद्यान में पदार्पण हुआ। परिषद् भगवान् को वंदन करने के लिए निकली। कोणिक राजा के समान जितशत्रु राजा भी वन्दन करने के लिए निकला। धन्यकुमार की दीक्षा तए णं तस्स धण्णस्स तं महया जणसदं जहा जमाली तहा णिग्गओ णवरं पायचारेणं जाव जं णवरं अम्मयं भई सत्थवाहिं आपुच्छामि। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि जाव जहा जमाली तहा आपुच्छइ, मुच्छिया वुत्तपडिवुत्तया जहा महब्बले जाव जाहे णो संचाएइ जहा थावच्चापुत्तो जियसत्तुं आपुच्छइ छत्तचामराओ सयमेव जियसत्तू णिक्खमणं करेइ जहा थावच्चापुत्तस्स कण्हो जाव पव्वइए अणगारे जाए ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। कठिन शब्दार्थ - पायचारेणं - पैदल गया, महया - बड़े भारी ऐश्वर्य से, अम्मयं - For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ********************************************* ***** माता को, देवाणुप्पियाणं - देवानुप्रिय के, अंतिए - पास में, पव्वयामि - प्रव्रजित होऊंगा, आपुच्छइ - पूछता है, मुच्छिया - मूर्च्छित हो गई, वुत्तपडिवुत्तया - उक्ति-प्रत्युक्त्या-मूर्छा टूटने पर माता-पुत्र की युक्ति प्रत्युक्ति से इस विषय में बातचीत हुई, जाहे णो संचाएइ - समर्थ नहीं हो सकी, छत्तचामराओ - छत्र और चामर, सयमेव - अपने आप ही, णिक्खमणंदीक्षा-महोत्सव, पव्वइए - प्रव्रजित हो कर, ईरियासमिए - ईर्या समिति वाला, गुत्तबंभयारीगुप्त ब्रह्मचारी। भावार्थ - धन्यकुमार ने नागरिकजनों के उच्च शब्द से भगवान् का आगमन जाना और . जमाली की भांति महान् ऋद्धि के साथ वन्दन करने के लिए निकला। विशेषता यह है कि वह पैदल वन्दन करने गया यावत् उसे भगवान् की धर्मदेशना सुन कर वैराग्य उत्पन्न हुआ। विशेषता यह है कि धन्यकुमार ने कहा - मैं मेरी माता भद्रा सार्थवाही की आज्ञा ले कर आप देवानुप्रिय के पास दीक्षा अंगीकार करूंगा, ऐसा कह कर यावत् जमाली के समान वह धन्यकुमार अपने घर जा कर अपनी माता से दीक्षा की आज्ञा मांगता है। .... धन्यकुमार की बात सुनते ही भद्रा माता मूर्च्छित हो गई। थोड़े समय बाद मूर्छा हटने पर माता की दीक्षा ग्रहण न करने की निषेध रूप उक्ति और पुत्र की प्रत्युक्ति इत्यादि महाबल के समान जानना चाहिये यावत् जब भद्रा माता दीक्षा का निषेध करने में समर्थ नहीं हुई तब जिस प्रकार थावच्चापुत्र की दीक्षा के उत्सव के लिये उसकी माता थावच्चा ने श्रीकृष्ण के पास याचना की थी, उसी प्रकार भद्रा माता ने जितशत्रु राजा से अपने पुत्र के दीक्षा-महोत्सव के लिए छत्र, चामर आदि की याचना की तब जितशत्रु राजा ने स्वयं ही उसका दीक्षा-महोत्सव किया जैसे श्रीकृष्ण ने थावच्चापुत्र का दीक्षा-महोत्सव किया था यावत् धन्यकुमार दीक्षा अंगीकार कर अनगार बन गये। वे ईर्यासमिति में उपयोग युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया गया है कि जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे तब नगर निवासी मनुष्यों के परस्पर वार्तालाप जन्य उच्च नाद से भगवान् के आगमन को जान कर धन्यकुमार के हृदय में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए - धर्म की आदि करने वाले, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले, धर्मनायक, धर्म सार्थवाह चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे हैं और समस्त जन उनके वन्दनार्थ जा रहे हैं तो ऐसे महान् गुणों से युक्त अर्हन्त भगवंतों के नाम मात्र सुनने से भी महाफल की प्राप्ति होती है तो फिर उनके सम्मुख दर्शनार्थ जाने तथा For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग प्रथम अध्ययन धन्यकुमार की दीक्षा je aje aje aje aje ale aje aje aje je aje je je aje je aje ale ale aje aje ale aje ale aje aje je ajje ajje je je aj je sje - ३१ उनकी पर्युपासना करने के फल का तो कहना ही क्या ? इस प्रकार चिंतन कर जिस भाव और भक्ति से जमाली भगवान् को वंदन करने के लिये गया उसी प्रकार धन्यकुमार भी गया । अंतर इतना है कि जमाली रथ में बैठ कर भगवान् को वंदन करने गया था जब कि धन्यकुमार अनेक वाहनों के होते हुए भी पैदल ही बिना किसी वाहन के गया। वहां जाकर उन्होंने भगवान् को विधि वन्दन नमस्कार किया तथा धर्मदेशना श्रवण करने के लिये बैठे। भगवान् ने विशाल धर्मसभा को धर्मदेशना फरमाई। ********* - तदनन्तर भगवान् ने धन्यकुमार को संबोधित कर कहा ' हे धन्य ! अत्यधिक रत्नों की खानों से परिपूर्ण रोहणाचल पर्वत के समान समस्त गुणों की खान, स्वर्ग तथा मोक्ष सुखों को देने वाला यह मनुष्य जन्म अत्यंत दुर्लभ है। हे देवानुप्रिय ! अनन्तानन्त दुःखों को सहन करते हुए तथा बार-बार पुद्गल परावर्त करते हुए तुमने किसी विशिष्ट पुण्य प्रकृति के उदय से धर्मानुष्ठान करने का मनुष्य भव रूपी यह स्वर्णावसर प्राप्त किया है। ऐसा सुअवसर पुनः प्राप्त होना मुश्किल है क्योंकि - १. मनुष्य जन्म २. आर्य क्षेत्र ३. उत्तम कुल ४. दीर्घ आयुष्य ५. समस्त इन्द्रियों का पूर्ण होना ६. शरीर का नीरोग होना ७. संत समागम ८. शास्त्र श्रवण ६. सम्यक् श्रद्धा और १०. धर्मकार्य में पुरुषार्थ ये दश मोक्ष के साधन जीव को अत्यंत कठिनता से प्राप्त होते हैं। - हे देवानुप्रिय ! जो मानव इस देव दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त कर अपने आत्मकल्याण के लिए मोक्ष मार्ग का आश्रय नहीं लेता है वह मानो अपनी अंजलि में आये हुए अमृत को गिरा कर विष पीना चाहता है । समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले अनमोल चिंतामणि रत्न को छोड़कर पत्थर के टुकड़े को ग्रहण करना चाहता है। ऐरावत हाथी को छोड़कर गधे पर चढ़ना चाहता है। सर्व अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष को उखाड़ कर बबूल बना है। पारसमणि देकर बदले में पत्थर के टुकड़े को ग्रहण करना चाहता है । कस्तूरी को देकर कोयले को ग्रहण करना चाहता है। कामधेनु गाय को बेच कर बकरी खरीदना चाहता है। को छोड़ कर अंधकार ग्रहण करना चाहता है। राजहंस की निंदा कर कौए को आदर देना चाहता है। मोती को छोड़कर चिरमी लेना चाहता है। अतः क्षणमात्र के लिए सुखदायी किंतु परिणाम में • लम्बे समय तक अनंत दुःख देने वाले इन कामभोगों का त्याग कर सर्वविरति रूप चारित्र धर्म में . यत्न करना चाहिये। ' For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र **############### ################## ##*********** इस प्रकार भगवान् के उपदेशामृत को पान कर धन्यकुमार संसार से विरक्त हो गया और एक मात्र धर्म को ही शरणस्थान मान कर उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन किया हे भगवन्! मैं निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, रूचि करता हूं। हे भगवन्! आपका यह उपदेश सत्य है, सर्वांग सत्य है और सर्वथा सत्य है। हे भगवन्! यह निग्रंथ-प्रवचन संदेह रहित (असंदिग्ध) है। जो आप फरमा रहे हैं वह सर्वथा पूर्ण है, उसमें किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं है। अतः हे भगवन्! मैं अपनी माता भद्रा सार्थवाही से पूछ कर आपके पास दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूं। यह सुन कर प्रभो ने फरमाया - हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो किंतु धर्म कार्य में विलंब न करो।' तदनन्तर वह धन्यकुमार अपने घर जाकर अपनी माता भद्रा सार्थवाही से पूछता है जिस प्रकार जमाली ने अपनी माता से पूछा था। पूर्व कभी नहीं सुने हुए ऐसे धन्यकुमार के वैराग्यपूर्ण वचनों को सुन कर भद्रा माता मूर्च्छित हो गई। मूर्छा दूर होने पर माता और पुत्र के दीक्षा विषयक उक्ति-प्रयुक्ति रूप संवाद (उत्तर-प्रत्युत्तर) हुआ। जब वह महाबल के समान धन्यकुमार को घर में रखने के लिए समर्थ नहीं हुई तब भद्रा सार्थवाही विवश होकर उसको संसार निष्क्रमण की आज्ञा प्रदान करती है। जिस प्रकार थावच्चापुत्र की माता कृष्ण वासुदेव से दीक्षा महोत्सव के लिए पूछती है और छत्र, चामर आदि की याचना करती है उसी प्रकार माता भद्रा भी राजा जितशत्रु से पूछती है और छत्र चामर आदि की याचना करती है। जिस प्रकार कृष्णवासुदेव ने थावच्चा पुत्र का दीक्षा-महोत्सव किया उसी प्रकार जितशत्रु राजा ने स्वयं धन्यकुमार का दीक्षा-महोत्सव किया। इस प्रकार धन्यकुमार भगवान् महावीर स्वामी के समीप प्रव्रजित होकर ईर्या समिति युक्त अनगार होकर गुप्त ब्रह्मचारी हुए। धन्यकुमार का अभिग्रह तए णं से धण्णे अणगारे जं चेव दिवस मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी भावार्थ - धन्यकुमार जिस दिन मुण्डित होकर प्रव्रजित हुए उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जा कर वंदना नमस्कार करते हैं और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले - एवं खलु इच्छामि णं भंते! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे जावजीवाए 'छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्यकुमार का अभिग्रह ****************************** ********************************** विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि कप्पइ आयंबिलं पडिग्गहित्तए णो चेव णं अणायंबिलं, तं पि य संसटुं णो चेव णं असंसटुं, तं पि य णं उज्झियधम्मियं, णो चेव णं अणुज्झियधम्मियं, तं पि य जं अण्णे बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा णावकंखंति। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह। कठिन शब्दार्थ - इच्छामि - मैं चाहता हूं, अब्भणुण्णाए समाणे - आज्ञा प्राप्त हो जाने पर, जावज्जीवाए - जीवन पर्यंत, छटुं छठेणं - षष्ठ-षष्ठ (बेले-बेले) तप से, अणिक्खित्तेणं - अनिक्षिप्त (निरंतर), आयंबिल परिग्गहिएणं - आयंबिल (आचाम्ल) ग्रहण रूप, तवोकम्मेणं - तपः कर्म से, अप्पाणं - अपनी आत्मा की, भावेमाणे - भावना करते हुए, विहरित्तए - विचरूँ, पारणयंसि - पारणा करने में, कप्पइ - योग्य है, पडिग्गहित्तए - ग्रहण करना, अणायंबिलं - अनाचाम्ल ग्रहण करना, संसटुं - संसृष्ट (खरड़े) हाथों से, असंसर्ट - असंसृष्ट हाथों से, उज्झियधम्मियं - उज्झित-धर्म वाला, अणुज्झियधम्मियं - अनुज्झित (अपरित्याग) रूप धर्म वाला, समण - श्रमण, माहण - ब्राह्मण, अतिहि - अतिथि, किवण - कृपण-दरिद्र, वणीमग - वनीपक-याचक, णावकंक्खंति - नहीं चाहते हों, अहासुहं - यथासुख-जैसा सुख हो, देवाणुप्पिया - हे देवानुप्रिय! मा - मत, पडिबंधं - प्रतिबन्ध-विलंब, करेह - करो। ___भावार्थ - हे भगवन्! आपकी आज्ञा प्राप्त हो तो मैं जीवन पर्यंत षष्ठ-षष्ठ (बेले-बेले) तप और पारणा आयम्बिल तप युक्त करके अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरना ' चाहता हूं। बेले के पारणे में आयम्बिल ग्रहण करना कल्पता है परन्तु अनाचाम्ल-आयम्बिल बिना की कोई चीज लेना नहीं कल्पता है। वह आयम्बिल का आहार भी संसृष्ट (देय वस्तु लिप्त हुए हाथ, बरतन आदि द्वारा दी जाती) हो तो ही लेना कल्पता है, असंसृष्ट लेना नहीं कल्पता है वह संसृष्ट भी उज्झित धर्म वाली (जिसे सामान्य जन फेंकने योग्य मानते हैं) हो, लेना कल्पता है, उज्झित धर्मवाली न हो तो लेना नहीं कल्पता है। वह उज्झित वस्तु भी ऐसी हो जिसे दूसरे बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक (भिक्षाचर) आदि भी नहीं चाहते हों तो ही लेना कल्पता है। इस प्रकार के तप करने की आप मुझे आज्ञा फरमाइये तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा - 'हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो। धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।' For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ************** ************************* * विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्यकुमार की धर्म-रुचि विषयक वर्णन किया गया है। धन्य अनगार ने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके इस प्रकार बोले - 'हे भगवन्! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं जीवनपर्यंत निरन्तर बेले बेले के पारणे में आयम्बिल करता हुआ अपनी आत्मा को विशुद्ध करता हुआ विचरूं।' आयम्बिल की विधि बताते हुए टीकाकार ने कहा है - विगइरहियस्स ओयण भजिय चणगाइलुक्ख अन्नस्स। खित्ता जले अचित्ते खाणं आयंबिलं जाण॥ - विगय रहित (घी, दूध, दही, तेल, गुड़, शक्कर आदि सरस पदार्थ रहित) चावल, सेके हुए चने आदि लूखा अन्न अचित्त जल में डाल कर एक बार खाना ही 'आयम्बिल' है। __ ऐसा रूक्ष नीरस आहार भी संसृष्ट - खरडे हाथों से दिया हुआ हो तो ही लेना, असंसृष्ट हाथों से नहीं अर्थात् उसी से लेना जिसके हाथ उस भोजनादि से लिप्त हो तथा वह आहार उज्झित धर्म वाला हो जिसे दूसरे श्रमण-शाक्यादि ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, भिखारी (करुणा भरी आवाज से भोजन मांगने वाले) आदि भी लेने की अभिलाषा न करे, ऐसा आहार ही मुझे आयम्बिल में ग्रहण करना कल्पता है। जो 'उज्झिय धम्मियं' की टीका करते हुए टीकाकार लिखते हैं - "उज्झिय-धम्मियं ति उज्झितं-परित्यागः से एव धर्मः-पर्यायोयस्यास्तीति उज्झित धर्मः, अर्थात् - जिस अन्न का सर्वथा परित्याग कर दिया गया हो वह 'उज्झित धर्म' होता है। धन्य अनगार के इस प्रकार निवेदन करने पर भगवान् ने फरमाया - 'जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, शुभ कार्य में विलंब न करो।' तए णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्टतुट्ठ जावजीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से इस प्रकार तप करने की आज्ञा प्राप्त होने से धन्य अनगार हृष्ट तुष्ट हुए यावत् जीवन पर्यंत बेले-बेले के तप कर्म के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन प्रथम पारणा प्रथम पारणा तए णं से धणे अणगारे पढमछट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ जाव जेणेव काकंदी णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता काकंदीए णयरीए उच्चणीय जाव अडमाणे आयंबिलं जाव णावकंख इ । कठिन शब्दार्थ - पढमछट्ठक्खमणपारणगंसि प्रथम बेले के पारणे के दिन, पढमाए पोरिसीए - प्रथम पौरुषी में, सज्झायं स्वाध्याय, उच्चणीय - ऊंच नीच और मध्यम कुलों में, अडमाणे - भिक्षा के लिये फिरता हुआ । " भावार्थ - वह धन्य अनगार प्रथम बेले के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय पौरुषी में ध्यान करते हैं, तीसरी पोरुषी में मुखवस्त्रिका, वस्त्र, पात्र आदि की प्रतिलेखना करते हैं यावत् गौतमस्वामी के समान पारणे के लिए भगवान् की आज्ञा मांगते हैं। यावत् काकंदी नगरी में आये और नगरी के उच्च, नीच, मध्यम कुलों में भ्रमण कर आयम्बिल वाला रूखा सूखा जिसे अन्य श्रमणादि नहीं चाहते हैं ऐसा आहार उन्होंने ग्रहण किया । तए णं से धणे अणगारे ताए अब्भुज्जयाए पयययाए पयत्ताए पग्गहियाए एसणाए एसमाणे जइ भत्तं लभइ तो पाणं ण लभइ, अह पाणं लभइ तो भत्तं - - - ण लभइ । कठिन शब्दार्थ अब्भुज्जयाए अभ्युद्यत - उद्यम वाली, पयययाए - प्रकृष्ट यत्न वाली, पयत्ता- गुरुओं से आज्ञप्त, पग्गहियाए उत्साह के साथ स्वीकार की हुई, एसणाएएषणा समिति से, एसमाणे - गवेषणा करता हुआ, जइ - यदि, भत्तं भात (आहार), लभ - मिलता है। भावार्थ धन्य अनगार उद्यमी साधु जैसी एषणा करते हैं वैसी प्रयत्नवाली, गुरु द्वारा अनुज्ञा दी गई, स्वयं स्वीकार की हुई एषणा समिति द्वारा गवेषणा करते हुए कभी आहार मिल जाता है तो पानी नहीं मिलता और कभी पानी मिलता है तो भोजन नहीं मिलता है। - - - -३५ ****** तणं से धणे अणगारे अदीणे अविमणे अकलुसे अविसाई अपरितंतजोगी जयण-घडण - जोग-चरित्ते अहापज्जत्तं समुदाणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता काकंदीओ णयरीओ पडिणिक्खमइ, जहा गोयमे जाव पडिदंसे । For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र **************************************************************** कठिन शब्दार्थ - अदीणे - अदीन-दीनता से रहित, अविमणे - अशून्य अर्थात् प्रसन्नचित्त से, अकलुसे - अकलुष - क्रोध आदि कलुषों से रहित, अविसाई - विषाद रहित, अपरितंतजोगी - अविश्रान्त अर्थात् निरन्तर समाधि युक्त, जयण - प्राप्त योगों में उद्यम करने वाला, घडण - अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये उद्यम करने वाला, जोग - मन आदि इन्द्रियों का संयम करने वाला, चरित्ते - चरित्र, अहापजत्तं - यथापर्याप्तं-वह जो कुछ भी प्राप्त, समुदाणं - समुदान-भिक्षा वृत्ति से प्राप्त, पडिगाहेइ - ग्रहण करता है, पडिदंसेइ - दिखाता है। भावार्थ - तब वह धन्य अनगार दीनतां से रहित, शून्य मन से रहित, कलुषता से रहित, विषाद (खेद) रहित, मन, वचन और काया के योग के श्रम से रहित, यतना प्राप्त योग के विषय में उद्यम और घटन-अप्राप्त योग के विषय में प्रयत्न की मुख्यता वाले योग एवं चारित्र से संपन्न होकर आवश्यकतानुसार सामुदानिक आहार ग्रहण करते हैं और काकंदी नगरी से बाहर निकलते हैं तथा गौतमस्वामी की भांति भगवान् महावीर स्वामी को आहार दिखाते हैं। तए णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए जाव अणज्झोववण्णे बिलमिव-पण्णगभूएणं अप्पाणेणं आहारं आहारेइ, आहारित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ___ कठिन शब्दार्थ - अब्भणुण्णाए समाणे - आज्ञा प्राप्त होने पर, अमुच्छिए - मूर्छा से रहित, अणज्झोववण्णे- अध्युपपन्न-राग और द्वेष से रहित होकर-अनासक्त भाव से, बिलमिवबिल के समान, पणगभूएणं - सर्प के समान मुख से अर्थात् जिस प्रकार सर्प केवल पार्श्वभागों के संस्पर्श से बिल में घुस जाता है उसी प्रकार, आहारेइ - आहार करता है, संजमेणसंयम से, तवसा - तप से, विहरइ - विचरण करता है। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त होने पर वह धन्य अनगार मूर्छा से रहित यावत् लुब्धता से रहित होकर बिल में घुसते हुए सर्प के समान अर्थात् आहार को स्वाद हेतु मुख में इधर-उधर न फिरा कर सीधा पेट में उतारते हुए आहार करते हैं और संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्रों में धन्य अनगार की प्रतिज्ञा-पालन करने की दृढ़ता का वर्णन For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या है . तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की ज्ञानाराधना ३७ ****************************************************************** किया गया है। प्रतिज्ञा ग्रहण करने के बाद जब वे भिक्षा के लिये काकंदी नगरी में गये तो उनके अभिग्रह के अनुरूप कहीं आहार मिला तो पानी नहीं मिला और पानी मिला तो आहार नहीं मिला। किंतु इतना होने पर भी उन्होंने धैर्य का त्याग कर दीनता नहीं दिखाई। वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे और तदनुसार आत्मा को दृढ़ और निश्चल बना कर प्रसन्नचित्त से संयम मार्ग में विचरण करते रहे। संयम के लिये शरीर रक्षा ही उनका लक्ष्य था। वे लूखे-सूखे आहार को भी आसक्ति रहित करते थे। इसके लिए “बिलमिव पणग भूएणं' - विशेषण दिया है। टीकाकार ने इसका अर्थ किया है - “यथा. बिले पन्नगः पार्श्वसंस्पर्शेनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन संस्पृशन्निव राग विरहितत्वादाहारयति" ___अर्थात् - बिल में सर्प के प्रवेश के समान अर्थात् जिस प्रकार सर्प केवल पार्श्वभागों के संस्पर्श से बिल में घुस जाता है उसी प्रकार धन्य अनगार भी आहार को बिना आसक्ति के मुंह में डाल देते और तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। काकंदी से विहार तए णं से समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ काकंदीओ णयरीओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। कठिन शब्दार्थ - अण्णया - अन्यदा, कयाइ - कदाचित्, पडिणिक्खमइ - निकलते हैं, बहिया - बाहर, जणवयविहारं - जनपद विहार के लिये। भावार्थ - अन्यदा किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकंदी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से बाहर निकलते हैं और बाहर के जनपद (देश) में विचरते हैं। धन्य अनगार की ज्ञानाराधना तए णं से धण्णे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ, अहिजित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र III +++++++ ++++++++++++++++++ कठिन शब्दार्थ - तहारूवाणं - तथारूप, थेराणं - स्थविरों के, अंतिए - पास, सामाइयमाइयाई - सामायिक आदि, एक्कारस अंगाई - ग्यारह अंगों का, अहिजइ - अध्ययन करता है। भावार्थ - धन्य अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप स्थविरों के समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करते हुए तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनग़ार के पठन (अध्ययन) के विषय में कथन किया गया है। धन्य अनगार का तप तेज तए णं से धण्णे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा खंदओ जाव सुहुयहुयासणे इव तेयसा जलंते उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ। कठिन शब्दार्थ - ओरालेणं - उदार तप से, सुहयहुयासणे - भलीभांति होम की गई (हवन की) अग्नि, तेयसां - तप रूपी तेज से जाज्वल्यमान होकर, उवसोभेमाणे - शोभित होते हुए। ___ भावार्थ - धन्य अनगार उस उदार (प्रधान) तप के द्वारा स्कंदक मुनि के समान यावत् भलीभांति होम की गई अग्नि के समान तप रूपी तेज से जाज्वल्यमान होकर अत्यंत शोभित होते हुए विचरने लगे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि तप और संयम की कसौटी पर चढ़ कर यद्यपि धन्य अनगार का शरीर तो अवश्य कृश हो गया था किंतु उनकी आत्मा एक अलौकिक बल को प्राप्त कर रही थी जिसके कारण उनके चेहरे का तेज हवन की अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। अब सूत्रकार धन्य अनगार के तप के साथ उनके शरीर का भी वर्णन करते हैं - धन्य अनगार के पांवों का वर्णन धण्णस्स णं अणगारस्स पायाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए सुक्कछल्लीइ वा, कट्ठपाउयाइ वा, जरग्गओवाहणाइ वा, एवामेव For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन धन्य अनगार के पांव की अंगुलियाँ jjjjjjje je sje धण्णस्स अणगारस्स पाया सुक्का ( लुक्खा) णिम्मंसा अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति णो चेव णं मंससोणियत्ताए । je aje aje aje aje aje ale aje aje तप रूप लावण्य कठिन शब्दार्थ - पायाणं - पैरों का, तवरूवलावण्णे तप-जनित सुन्दरता, जहाणामए - यथानामर्क, सुक्कछल्लीइ - सूखी हुई वृक्ष की छाल, कट्ठपाउयाइलकड़ी की पादुका- खडाऊं, जरग्गओवाहणाइ - जीर्ण उपानत् ( जूता ), पाया - पैर, सुक्कासूखे हुए, णिम्मंसा - मांस रहित, अट्ठिचम्मछिरत्ताए - अस्थि, चर्म और शिराओं के कारण, पण्णायंति - पहचाने जाते हैं, मंससोणियत्ताए मांस और रुधिर के कारण । भावार्थ - उन धन्य अनगार के पांवों का तप रूप लावण्य इस प्रकार था जैसे सूखी हुई वृक्ष की छाल, लकड़ी की पादुका (खडाऊं) अथवा पुराना जूता हो । धन्य अनगार के पांव सूखे तथा मांस रहित थे अतः केवल हड्डी, चमड़ा और नसों से ही पहचाने जाते थे न कि मांस और रुधिर से। विवेचन - तप के कारण धन्य अनगार के दोनों चरण इस प्रकार सूख गये थे जैसे सूखी हुई वृक्ष की छाल, लकड़ी की खडाऊं या पुरानी सूखी हुई जूती हो । केवल हड्डी, चमड़ा और नसों से ही मालूम होता था कि यह पांव है क्योंकि उनके पांवों (पैरों) में मांस और रुधिरो दिखाई ही नहीं पड़ता था । इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में उपमाओं से धन्य अनगार के पांवों का वर्णन किया गया है। धन्य अनगार के पांव की अंगुलियाँ धण्णस्स णं अणगारस्स पायंगुलियाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए कलसंगलियाइ वा, मुग्गसंगलियाइ वा, माससंगलियाइ वा, तरुणिया छिण्णा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी मिलायमाणी मिलायमाणी चिट्ठा, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स पायंगुलियाओ सुक्काओ जाव मंससोणियत्ताए । कठिन शब्दार्थ - पायंगुलियाणं - पैरों की अंगुलियों का, कलसंगलियाइ धान्य विशेष की फलियां, मुग्गसंगलियाइ - मूंग की फलियां, माससंगलियाइ माष की फलियां, तरुणिया - कोमल, छिण्णा - तोड़ कर, उण्हे - गर्मी में, दिण्णा - दी हुई रखी हुई, सुक्का समाणी - सूख कर, कलाय मिलायमाणी म्लान होती हुई । - ३६ For Personal & Private Use Only - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० __ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ****************************************************************** भावार्थ - धन्य अनगार के पांव की अंगुलियों का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे तुवर की फली, मूंग की फली, उड़द की कोमल फली को तोड़ कर धूप में डाली हो तब वह सूखती-सूखती एकदम मुरझा जाती है इसी प्रकार धन्य अनगार के पांव की अंगुलियां सूख गई थी यावत् उनमें मांस और रुधिर दिखाई ही नहीं देता था। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्यकुमार की तप के कारण सूखी हुई पैरों की अंगुलियों की सुंदरता का वर्णन किया गया है। धन्यकुमार के पांवों के तरह ही पैरों की अंगुलियां भी कलाय, मूंग या उड़द की उन फलियों के समान जो कोमल कोमल तोड़ कर धूप में डाल दी गई होंमुरझा गई थी। उनमें भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था अतः हड्डी, चमड़ा और नसें ही दिखने में आती थी। जंघा वर्णन धण्णस्स णं अणगारस्स जंघाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए काकजंघाइ वा कंकजंघाइ वा ढेणियालियाजंघाइ वा जाव णो मंससोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - जंघाणं - जंघाओं-पांव की पिण्डलियों का, काकजंघाइ - काक (कौए) की जंघा, कंकजंघाइ - कंक पक्षी की जंघा, ढेणियालियाजंघाइ - ढेणिकालिक पक्षी की जंघा। भावार्थ - धन्य अनगार की जंघाओं (पिण्डलियों) का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे कौए की जंघा, कंक पक्षी की जंघा अथवा ढेणिक (ढंक) पक्षी की जंघा हो जो स्वभावतः मांस रुधिर रहित होती है उसी प्रकार धन्य अनगार की पिण्डलियां भी सूख गई थी यावत् उनमें मांस और रुधिर दिखाई ही नहीं देता था। ____ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की जंघा का वर्णन किया गया है। तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जंघाएं मांस और रुधिर के अभाव में ऐसी प्रतीत होती थीं मानो काकजंघा नामक वनस्पति की-जो स्वभावतः शुष्क होती है - नाल हों अथवा यों कहिए कि वे कौए की जंघाओं के समान ही निर्मांस हो गई थी अथवा उनकी उपमा कंक और ढंक पक्षियों की जंघाओं से दे सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - उरु, कटि और उदर का वर्णन ४१ घुटनों का तप रूप लावण्य धण्णस्स णं अणगारस्स जाणूणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहाणामए कालिपोरेइ वा मयूरपोरेइ वा ढेणियालियापोरेइ वा, एवं जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - जाणूणं - घुटनों का, कालि पोरेइ - कालि वनस्पति विशेष का पर्व (संधि स्थान) हो, मयूर पोरेइ - मयूर के पर्व, ढेणियालिया पोरेइ - ढेणिक पक्षी के पर्व। ___भावार्थ - धन्य अनगार के घुटनों का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे काली वनस्पति की गांठ हो, मयूर और ढेणिक पक्षी के पर्व (गांठ) हो, इस प्रकार धन्य अनगार के घुटने शुष्क हो गये थे यावत् उनमें मांस और रुधिर दिखाई नहीं देता था। उरु, कति और उदर का वर्णन धण्णस्स णं अणगारस्स उरुस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए सामकरिल्लेइ वा बोरीकरिल्लेइ वा सल्लइयकरिल्लेइ वा सामलिकरिल्लेइ वा तरुणिए छिण्णे उण्हे जाव चिट्ठइ, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स उरू जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - उरुस्स - उरुओं का, सामकरिल्लेइ - प्रियंगु वृक्ष की कोंपल, बोरीकरिल्लेइ - बदरी-बेर की कोंपल, सल्लइयकरिल्लेइ - शल्य वृक्ष की कोंपल, सामलिकरिल्लेइ - शाल्मली वृक्ष की कोंपल। ___ भावार्थ - धन्यकुमार के उरु-घुटनों का ऊपरी प्रदेश (सांथल) का तपरूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे प्रियंगु वृक्ष की कोंपल (अंकुर), बोरडी की कोंपल, शल्लकी वृक्ष की कोंपल और शाल्मली (सेयल) की कोंपल, जो कोमल अवस्था में धूप में सुखाई हो वह जिस प्रकार म्लान होकर सूख जाती है उसी प्रकार धन्य अनगार की उरुएं सूख गई थीं उनमें मांस और रुधिर दिखाई नहीं देता था। धण्णस्स णं अणगारस्स कडिपत्तस्स इमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहाणामए उट्टपाएइ वा जरग्गपाएइ वा (महिसपाएइ वा) जाव सोणियत्ताए। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ***** कठिन शब्दार्थ - कडिपत्तस्स कटि-पट्ट का, उट्टपाएइ जरग्गपाएइ - बूढे बैल का पैर, महिसपाएड़ - भैंस के पांव । भावार्थ धन्य अनगार की कमर का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे ऊंट का पांव, बूढे बैल का पांव (भैंस के पांव) हों यावत् धन्य अनगार की कमर में मांस और रुधिर नहीं रहा था । धण्णस्स णं अणगारस्स उदरभायणस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से हाणामए सुक्कदिएइ वा भज्जणयकभल्लेइ वा कट्ठकोलंबएइ वा, एवामेव उदरं सुक्कं० । कठिन शब्दार्थ - उदरभायणस्स उदर-भाजन का, सुक्कदिएइ - सूखी हुई चमड़े की चने आदि भूनने का भाजन, कट्ठकोलंबएइ - काष्ठ का कोलम्ब भज्जणयकभल्ले मशक, ( पात्र विशेष ), उदरं - उदर, सुक्कं सूख गया । भावार्थ - धन्य अनगार के पेट रूपी भाजन का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे सूखे चमड़े की मशक, चना आदि भूंजने की भाड़ अथवा वृक्ष की शाखा का नमा हुआ अग्रभाग और काष्ठ की कचौटी हो वैसे ही धन्य अनगार का पेट सूखा और मांस रह हो गया था। धन्य अनगार की पांसलियां, पीठ करंडक, छाती, भुजा, हाथ और हाथ की अंगुलियाँ धण्णस्स णं अणगारस्स पांसुलियकडयाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए थासयावलीइ वा पाणावलीइ वा मुंडावलीइ वा एवामेव पांसुलियाकडयाणं जाव सोणियत्ताए । कठिन शब्दार्थ - पांसुलियकडयाणं. पार्श्व भाग की अस्थियों के कटकों का, थासयावलीइ - स्थासकावली - दर्पण जैसी आकृति वाले 'स्थासक' कहे जाते हैं - स्थासकों की पंक्ति, पाणावलीइ - पाणावली-गोल आकार के भाजन विशेष को 'प्राण' कहते हैं अर्थात् प्राणों की श्रेणी पंक्ति, मुंडावलीइ - मुंडावली मुंड की श्रेणी अर्थात् समुदाय, भैंस के बाड़े आदि में परिध रखा जाता है उसे 'मुंड' कहते हैं। - अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र - ✯ ✯ ✯✯ ✯ ✯ ✯ ✯********** ale aje ale aje aje a For Personal & Private Use Only - उष्ट्र (ऊंट) का पांव, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की पांसलियाँ.... * *** ****************############Here भावार्थ - धन्य अनगार की पांसलियां रूपी कटक का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे स्थासकावली, पाणावली और मुंडावली हो। इस प्रकार उनकी पंसुलियां रुधिर मांस से रहित हो गई थी। धण्णस्स णं अणगारस्स पिट्टिकरंडयाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए कण्णावलीइ वा गोलावलीइ वा वयावलीइ वा एवामेव धण्णस्स अणगारस्स पिट्टिकरंडयाओ जाव सोणियत्ताए। ___ कठिन शब्दार्थ - पिढिकरंडयाणं - पीठ की हड्डी के उन्नत प्रदेशों की, कण्णावलीइकर्णावली-कर्ण अर्थात् मुकुट आदि के कंगूरों की आवली अर्थात् श्रेणी कान के भूषणों की पंक्ति, गोलावलीइ - गोलक-वर्तुलाकार पाषाण विशेषों की पंक्ति, वट्टयावलीइ - वंतकावलीवर्तक-लाख आदि के बने हुए बच्चों के खिलौनों की पंक्ति। __ भावार्थ - धन्य अनगार की पीठ-करंडक का तप रूप लावण्य इस प्रकार हो गया जैसेकर्णावली, गोलावली, वर्तकावली हो इसी प्रकार धन्य अनगार के पीठ-करंडक मांस रुधिर से रहित शुष्क हो गये थे। धण्णस्स णं अणगारस्स उरकडयस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए चित्तकट्टरेइ वा वियणपत्तेइ वा तालियंटपत्तेइ वा एवामेव उरकडयस्स जाव सोणियत्ताए। .. कठिन शब्दार्थ - उरकडयस्स - उर (वक्ष स्थल) कटक की, चित्तकट्टरेइ - गौ के । चरने के कुण्ड का अधोभाग, वियणपत्तेइ - बांस आदि के पत्तों का पंखा, तालियंटपत्तेइ - ताड के पत्तों का पंखा। ____ भावार्थ - धन्य अनगार की छाती रूपी कटक का तप रूप लावण्य इस प्रकार हो गया था जैसे चित्त नामक तृण से बनाई गई चटाई, वायु के लिये बांस के सीको से बनाया हुआ पंखा, तालवृक्ष के पत्र का पंखा, इनके समान धन्य अनगार की छाती (वक्ष स्थल) सूख कर मांस और रुधिर से रहित हो गई थी। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में क्रमशः धन्य अनगार के कटि, उदर, पांसुलिका, पृष्ठप्रदेश और छाती (वक्ष स्थल) का उपमा द्वारा वर्णन किया गया है। तपस्या के कारण शरीर के ये सभी अवयव शुष्क एवं मांस-रुधिर से रहित हो गये थे। इन सब अवयवों का वर्णन उपमालंकार For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र **** *************** ********************************** से होने के कारण रोचक है। तप के कारण धन्य का शरीर यद्यपि सूख कर कांटा हो गया था किंतु उनकी आत्मिक शक्ति दिन-दिन बढ़ती चली जा रही थी। अब सूत्रकार धन्य अनगार के शेष अवयवों का वर्णन करते हैं - - धण्णस्स णं अणगारस्स बाहाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहाणामए समिसंगलियाइ वा वाहायासंगलियाइ वा अगत्थियसंगलियाइ वा, . एवामेव बाहाणं जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - बाहाणं - बाहुओं (भुजाओं) का, समिसंगलियाइ - शमी वृक्ष की फली, वाहायासंगलियाइ - बाहाया-एक वृक्ष विशेष की फली, अगत्थियसंगलियाइ - अगस्तिक नामक वृक्ष की फली। भावार्थ - धन्य अनगार के बाहुओं का तप रूप लावण्य ऐसा हो गया था जैसे शमी (खेजड़ी) वृक्ष की फली बाहाय (अमलतास करमाला) वृक्ष की फली और अगथिया वृक्ष की फली हो इस प्रकार धन्य अनगार की भुजाएं पतली लम्बी, शुष्क और खून-मांस से रहित हो गई थी। धण्णस्स णं अणगारस्स हत्थाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए सुक्कछगणियाइ वा वडपत्तेइ वा पलासपत्तेइ वा एवामेव हत्थाणं जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - हत्थाणं - हाथों की, सुक्कछगणियाइ - सूखा गोबर (कंडा), वडपत्तेइ - वट वृक्ष का सूखा हुआ पत्ता, पलासपत्तेइ - पलाश (खांखरे) का सूखा पत्ता। भावार्थ - धन्य अनगार के हाथ (पंजा) का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे सूखा गोबर (कंडा) वट (वड) का पत्ता और खांखरे का पत्ता हो। इस प्रकार धन्य अनगार के हाथ मांस और रक्त से रहित हो गये थे। धण्णस्स णं अणगारस्स हत्थंगुलियाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए कलायसंगलियाइ वा मुग्गसंगलियाइ वा माससंगलियाइ वा तरुणिया छिण्णा आयवे दिण्णा सुक्का समाणी, एवामेव हत्थंगुलियाणं जाव सोणियत्ताए। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की ग्रीवा, हनु..... ४५ कठिन शब्दार्थ - हत्थंगुलियाणं - हाथ की अंगुलियाँ, कलायसंगलियाइ - कलाय (तूवर) की फलियाँ, मुग्गसंगलियाइ - मूंग की फलियां, माससंगलिया - माष (उड़द) की फलियां। भावार्थ - धन्य अनगार के हाथ की अंगुलियों का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था मानो कलाय की फली, मूंग की फली और उड़द की फली को कोमल अवस्था में छेद कर धूप में सूखाई हो वह जैसे म्लान हो कर सूख जाती है इसी प्रकार धन्य अनगार के हाथ की अंगुलियां शुष्क एवं मांस-रुधिर से रहित हो गई थी। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में क्रमशः धन्य अनगार की भुजा, हाथ और हाथ की अंगुलियों का उपमा अलंकार से सौन्दर्य वर्णन किया गया है। तप के कारण उनकी भुजाएँ सूख कर ऐसी दिखाई देती थी मानो शमी, अगस्तिक अथवा वाहाय वृक्षों की सूखी हुई फलियां होती है। अगस्तिक और बाहाय का ठीक ठीक निश्चय नहीं हो सका है कि ये किन वृक्षों की और किस देश में प्रचलित संज्ञा है। टीकाकार ने भी इसके लिए वृक्ष विशेष ही लिखा है। संभवतया उस समय किसी प्रांत में ये नाम प्रचलित रहे हों। इसी प्रकार धन्य अनगार के हाथों और हाथों की अंगुलियों में भी विचित्र परिवर्तन हो गया था। तप के कारण वे भी सूख कर मांस और रुधिर से रहित हो गये थे। यदि कोई उनको पहचान सकता था तो केवल अस्थि और चर्म से जो उनमें अवशिष्ट रह गये थे। ___ अब सूत्रकार धन्य अनगार के शरीर के अन्य अवयवों-ग्रीवा, हनु, ओष्ठ और जिह्वा का वर्णन करते हैं - धन्य अनगार की ग्रीवा, हनु, ओष्ठ और जिह्वा धण्णस्स णं अणगारस्स गीवाए अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से • जहाणामए करगगीवाइ वा कुंडियागीवाइ वा उच्चट्ठवणएइ वा एवामेव गीवाए जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - गीवाए - ग्रीवा (गर्दन), करगगीवाइ - करवे (मिट्टी का छोटा सा पात्र) की ग्रीवा, कुंडियागीवाइ - कुंडिका (कमंडलु) की ग्रीवा, उच्चट्ठवणएइ - उच्च स्थापनकऊंचे मुंह वाला बर्तन अथवा ऊंचे मुख वाली कोथली। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र भावार्थ - धन्य अनगार की गर्दन का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे घड़े की ग्रीवा हो, कमंडलु की ग्रीवा हो अथवा किसी ऊंचे मुख वाले पात्र की ग्रीवा हो। इस प्रकार धन्य अनगार की गर्दन कृश, शुष्क एवं मांस तथा रुधिर से रहित हो गई थी। धण्णस्स णं अणगारस्स हणुयाए अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए लाउयफलेइ वा हकुवफलेइ अंबगट्ठियाइ वा, एवामेव हणुयाए जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - हणुयाए - चिबुक-ठोडी-दाढी, लाउयफलेइ - तुम्बे का फल, हकुवफलेइ - हकुव वनस्पति का फल, अंब गट्ठियाइ - आम की गुठली। भावार्थ - धन्य अनगार की चिबुक (ठोडी-दाढी) का तप रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे तुम्बे का फल हो, हकुव वनस्पति का फल हो अथवा आम की गुठली हो। इस प्रकार धन्य अनगार की दाढी शुष्क एवं मांस रुधिर से रहित हो गई थी। ___धण्णस्स णं अणगारस्स ओट्ठाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए सुक्कजलोयाइ वा सिलेसगुलियाइ वा, अलत्तगगुलियाइ वा, एवामेव ओट्ठाणं जाव सोणियत्ताए। ___ कठिन शब्दार्थ - ओट्ठाणं - हौठों (ओठों) का, सुक्कजलोयाइ - सूखी हुई जौंक, सिलेसगुलियाइ - श्लेष्म की गुटिका, अलत्तगगुलियाइ - अलक्तक-लाख की गोली, मेहंदी की गुटिका। - भावार्थ - धन्य अनगार के ओंठो (होठों) का तप रूप लावण्य ऐसा हो गया था जैसे सूखी हुई जौक हो, श्लेष्म की गोली हो अथवा सूखी हुई मेहंदी की गुटिका (लाख की गोली) हो। इसी प्रकार धन्य अनगार के होंठ सूख कर कांति रहित तथा मांस रुधिर से रहित हो गये थे। धण्णस्स णं अणगारस्स जिब्भाए अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए वडपत्ते इवा, पलासपत्ते इ वा उंबरपत्तेइ वा सागपत्ते इ वा एवामेव जिन्माए जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - जिन्माए - जिह्वा-जीभ का, वडपत्तेइ- वट वृक्ष का पत्ता, पलासपत्तेइपलाश वृक्ष (खांखरे) का पत्ता, उंबरपत्तेई - उम्बर वृक्ष का पत्ता, साकपत्तेई - शाक का पत्ता। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार के नाक, आँख, कान और शिर ४७ भावार्थ - धन्य अनगार की जीभ का तप रूप लावण्य ऐसा हो गया था जैसे बड का पत्ता, पलाश (ढाक-खांखरे) का पत्ता, उंबर वृक्ष का पत्ता अथवा शाक वृक्ष का पत्ता हो। इसी प्रकार धन्य अनगार की जिह्वा नीरस, शुष्क तथा मांस-रुधिर से रहित हो गई थी। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में धन्य अनगार की गर्दन, चिबुक (दाढी), ओंठ एवं जीभ के तप रूप लावण्य का उपमा से वर्णन किया गया है। तप के कारण धन्य अनगार की गर्दन मांस और रुधिर के अभाव में लम्बी दिखाई देती थी। सूत्रकार ने उसकी उपमा लम्बे मुख वाले पात्रों-सुराई, कमंडलु, उच्च स्थापनक आदि से की है। __धन्य अनगार की दाढी मांस और रुधिर के रहित हो जाने के कारण ऐसी दिखाई देती थी मानो सूखा हुआ तुम्बा, हकुब वनस्पति का फल या आम की गुठली हो। __ जो ओंठ कभी बिम्बफल के समान लाल थे वे तप के कारण सूख कर ऐसे हो गये थे जैसे सूखी हुई जौंक, श्लेष्म की गोली अथवा लाख की गोली हो। तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जीभ भी सूख कर वट वृक्ष के पत्ते के समान, पलाश के पत्ते के समान, उम्बर वृक्ष के पत्ते के समान अथवा शाक के पत्ते के समान पतली, नीरस और रूखी हो गई थी। ___ अब सूत्रकार धन्य अनगार के नाक आदि अंगों का वर्णन करते हैं - धन्य अनगार के नाक, आँख, कान और शिर ... धण्णस्स णं अणगारस्स णासाए अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए अंबगपेसियाइ वा, अंबाडगपेसियाइ वा, माउलिंगपेसियाइ वा तरुणिया वा एवामेव णासाए जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - णासाए - नाक का, अंबगपेसियाइ - आम की फांक (चीर), अंबाडगपेसियाइ - आम्रातक-अम्बाडा-आंवले की फांक, माउलिंगपेसियाइ - मातुलिंगबीजपूरक फल-बिजोरे की फांक। भावार्थ - धन्य अनगार के नाक का तप रूप लावण्य इस प्रकार हो गया था जैसे आम की फांक (चीर), आम्रातक-आंवले की फांक अथवा बिजौरे की फांक को कोमल ही काट कर धूप में सूखा दी गई हो, इसी प्रकार धन्य अनगार की नासिका शुष्क रूक्ष और मांस-रुधिर से रहित हो गई थी। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र धण्णस्स णं अणगारस्स अच्छीणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए वीणाछिड्डेइ वा, वद्धीसगछिड्डेइ वा पाभाइयतारिगाइ वा एवामेव अच्छीणं जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ- अच्छीणं - आंखों का, वीणाछिड्डेइ - वीणा के छिद्र, वद्धीसगछिड्डेइबद्धीसग-वाद्य विशेष के छिद्र, पाभाइयतारिगाइ - प्रातःकाल का तारा। भावार्थ - धन्य अनगार की आंखों का तप रूप लावण्य इस प्रकार हो गया था जैसे - वीणा के छिद्र, बद्धीसक वाद्य (बंसरी) के छिद्र अथवा प्रातःकाल के तारे हो। इसी प्रकार धन्य अनगार की आंखे ऊंडी (गहरी), शुष्क रूक्ष तेजोहीन तथा मांस रुधिर से रहित हो गई थी। ___धण्णस्स णं अणगारस्स कण्णाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए मूलाछल्लियाइ वा वालुंकच्छल्लियाइ वा, कारेल्लयच्छलियाइ वा, एवामेव कण्णाणं जाव सोणियत्ताए। कठिन शब्दार्थ - कण्णाणं - कान का, मूलाछल्लियाइ - मूली की छाल, वालुंकच्छल्लियाइ - ककडी-खीरे (डोचरे) की छाल, कारेल्लयच्छल्लियाइ - करेले की छाल। . भावार्थ - धन्य अनगार के कान का तप रूप लावण्य ऐसा हो गया था जैसे - मूले की छाल, ककडी की छाल अथवा करेले की छाल हो इसी प्रकार धन्य अनगार के कान पतले, शुष्क तथा मांस रुधिर से रहित हो गये थे। ____धण्णस्स णं अणगारस्स सीसस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था, से जहाणामए तरुणगलाउएइ वा, तरुणगएलालुयइ वा, सिण्हालएइवा, तरुणए जाव चिट्ठइ, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स सीसं सुक्कं लुक्खं णिम्मंसं, अट्ठिचम्मच्छिरत्ताए पण्णायइ, णो चेव णं मंससोणियत्ताए। ___ एवं सव्वत्थ, णवरं उदर भायण-कण्णजीहाउट्ठा एएसिं अट्ठी णं भण्णइ चम्मच्छिरत्ताए पण्णायइ त्ति भण्णइ। ____ कठिन शब्दार्थ - सीसस्स - सिर-मस्तक का, तरुणगलाउएइ - कोमल तुम्बक (बा) फल, तरुणगएलालुयइ - कोमल एलालुक फल, सिण्हालएइ - सेफालक (सिस्तालक) नामक फल विशेष, लुक्खं - रूक्ष, अट्ठिचम्मच्छिरत्ताए - अस्थि, चर्म और नसों के कारण, पण्णायइ - जाना जाता, सव्वत्थ - सभी, ण भण्णइ - नहीं कहा जाता। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की अलौकिक सुंदरता भावार्थ धन्य अनगार के मस्तक का तप रूप लावण्य इस प्रकार हो गया था जैसे कोमल (अपक्व) तूंबा हो, कोमल एलालुक (गोलाकार कंद विशेष) फल हो अथवा सेफाल का फल हो उसे कोमल अवस्था में तोड़ कर धूप में डाला हो वह सूख कर म्लान (मुरझा गया ) हो गया हो इसी प्रकार धन्य अनगार का मस्तक सूखा, रूखा, मांस रहित हो गया था और केवल हड्डी, चर्म और नसों द्वारा ही जाना जाता था, न कि मांस और रुधिर के कारण। इसी प्रकार सभी अंगों के विषय में जानना चाहिये। विशेषता यह है कि उदर- भाजन, कान, जीभ और ओंठ के वर्णन में ‘अस्थि-हड्डी' शब्द नहीं कहना चाहिये किंतु "केवल चर्म और नसों से ही जाने जाते थे" इस प्रकार कहना चाहिए । विवेचन प्रस्तुत सूत्रों में धन्य अनगार के नाक, कान, आंख और शिर का वर्णन किया गया है जो भावार्थ से स्पष्ट है। इस प्रकार सूत्रकार ने पैरों से लगा कर मस्तक तक सभी अंगों का वर्णन कर दिया है। इसमें विशेषता केवल इतनी है कि उदर भाजन, जिह्वा, कान और होठों के साथ “अस्थि' शब्द नहीं कहना, क्योंकि इनमें हड्डियाँ नहीं होती है केवल ये चर्म तथा नसों से ही पहचाने जाते हैं। शेष सब अंगों के साथ 'सुक्कं लुक्खं णिम्मंसं' आदि सभी विशेषण समझने चाहिये । ४६ अब सूत्रकार प्रकारान्तर से धन्य अनगार के शरीर का वर्णन करते हैं - - धन्य अनगार की अलौकिक सुंदरता धणे णं अणगारे णं सुक्केणं भुक्खेणं पायजंघोरुणा, विगतडकणं .कडिकडाहेणं, पिट्ठमवस्सिएणं उदरभायणेणं, जोइज्जमाणेहिं पांसुलियकडएहिं अक्खसुत्तमालाइ वा गणिजमालाइ वा गणेज्जमाणेहिं पिट्ठिकरंडगसंधीहिं गंगातरंगभूएणं, उरकंडगदेसभाएणं, सुक्कसप्पसमाणाहिं बाहाहिं, सिढिलकडाली विव चलंतेहिं य अग्गहत्थेहिं, कंपणवाइओ विव वेवमाणीए सीसघडीए, पव्वायवयणकमले, उब्भडघडामुहे, उब्बुड्डणयणकोसे जीवं जीवेणं गच्छइ, जीवं जीवेणं चिट्ठs, भासं भासिस्सामीइ गिलायइ, से जहाणामए इंगालसगडियाइ वा जहा खंदओ तहा जाव हुयासणे इव भासरासिपलिच्छपणे तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठा । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ... कठिन शब्दार्थ - सुक्केणं - मांस आदि के अभाव से सूखे हुए, भुक्खेणं - भूख के कारण रूखे पड़े हुए, पायजंघोरुणा - पैर, जंघा और ऊरु से, विगयतडिकरालेणं - भयंकर रूप से प्रान्त भागों में उन्नत हुए, कडिकडाहेण - कटि रूप कटाह से, पिट्ठमवस्सिएणं - पीठ के साथ मिले हुए, उदरभायणेणं - उदर भाजन से, जोइज्जमाणेहिं - दिखाई देते हुए, पांसुलिकडएहिं - पार्श्वस्थिकटकै-पसलियाँ रूपी कटक, अक्खसुत्तमालाइ - अक्षसूत्र - रूद्राक्ष के दानों की माला, गणिजमालाइ - गिनती के माला के दाने, गणेजमाणेहिं - गण्यमानैः-गिने जाने वाले, पिट्टिकरंडगसंधीहिं - पृष्ठकरण्डक की संधियों से, गंगातरंग भूएणंगंगा नदी की तरंगों के समान, उरकडगदेसभाएणं- उदर कटक के प्रान्त भागों से, सुक्कसप्पसमाणाहि- सूखे हुए सर्प के समान, बाहाहिं - भुजाओं से, सिढिलकडाली - शिथिल लगाम के, विव- समान, चलंतेहिं - कांपते हुए, अग्गहत्थेहिं - अग्रहस्त-हाथों से, कंपणवाइओ - कम्पनवातिक, वेवमाणीए - कम्पायमान, सीसघडीए - शीर्ष घटी से, पव्वायवयणकमले - मुरझाए हुए मुख कमल वाला, उन्भडघडामुहे- घड़े के मुख के समान विकराल मुख वाला, उब्बुड्डणयणकोसे- जिसके नयन कोश भीतर घुस गये थे, जीवं - जीवन को, जीवेणं - जीव की शक्ति से, भासं - भाषा को, भासिस्सामि - कहूंगा, गिलायइ - ग्लान हो जाता था, इंगालसगडियाइ - कोयलों की गाड़ी, भासरासिपलिच्छण्णेभस्म की राशि से ढके हुए, हुयासणे - हुताशन-अग्नि के, इव - समान, तवेणं - तप से, तेएणं - तेज से, तवतेयसिरिए - तप और तेज की शोभा से, उवसोभेमाणे - शोभायमान होता हुआ। ___ भावार्थ - धन्य अनगार के पांव, पिंडलियां और जंघाएं मांस न होने के कारण सूखी . थीं, भूख के कारण लूखी थीं। उनकी कमर रूपी कड़ाह मांस न होने से और हड्डियां बाहर निकली हुई होने से विकृत और पार्श्व भाग में कराल (ऊंचा) था। उनका पेट रूपी भाजन पीठ से चिपक गया था। उनकी पसलियां रूपी कटक मांस-रहित होने से स्पष्ट दिखाई देते थे। उनकी पीठ रूपी करंडिये की संधियां अक्षसूत्र की माला के समान गिनी जा सकती थीं। उनकी छाती रूपी कटक का भाग एक पर एक हड्डियों के दिखाई देने से गंगा नदी की तरंगों की भांति दिखाई देता था। उनकी भुजाएं सूखे हुए सांप के समान भासित होती थीं, उनके हाथ के पंजे शिथिल की हुई घोड़े की लगाम जैसे लटकते थे, कंपनवात रोग वाले की भांति उनका मस्तक रूपी घड़ा हिलता रहता था, उनका मुख कमल मुझाया हुआ था, ओष्ठ की अत्यंत क्षीणता के For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की अलौकिक सुंदरता ५१ कारण उनका मुख घड़े के समान विकराल दिखाई देता था, उनके नेत्र रूपी कोष अंदर धंस गये थे वे धन्य अनगार, आत्मा की शक्ति से चलते थे अर्थात् शरीर की शक्ति से वे चलने में अशक्त हो चुके थे, वे आत्मा की शक्ति से ही खड़े रहते थे। भाषा बोलने के विचार से भी वे ग्लानि प्राप्त करते थे। कोयले से भरी हुई गाड़ी के समान चलते समय उनकी हड्डियां खड़खड़ शब्द करती थीं। इस प्रकार जैसे भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ में स्कंदक मुनि का वर्णन किया है वैसा यहां जानना चाहिए यावत् राख के ढेर से ढंकी हुई अग्नि के समान वे धन्य अनगार तप के तेज से और तपस्तेज की लक्ष्मी द्वारा अत्यंत शोभित होते हुए विचरते थे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रकारान्तर से धन्य अनगार के सभी अवयवों का वर्णन किया गया है। धन्य अनगार के पैर, जंघा और उरु, मांस आदि के अभाव से बिलकुल सूख गये थे और निरन्तर भूखे रहने के कारण बिलकुल रूक्ष हो गये थे। चिकनाहट उनमें नाम-मात्र के लिये भी शेष नहीं थी। कटि (कमर) मानो कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजन विशेष - हलवाई आदि की बड़ी बड़ी कढ़ाई) के समान थी। वह मांस के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयंकर प्रतीत होता था जैसे ऊंचे ऊंचे नदी के तट हो। पेट बिलकुल सूख गया। उसमें से यकृत और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे। अतः वह स्वभावतः पीठ के साथ मिल गया था। पसलियों पर का भी मांस बिलकुल सूख गया था और एक एक साफ साफ गिनी जा सकती थी। यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था। वे भी रूद्राक्ष-माला के दानों के समान सूत्र में पिरोए हए जैसे अलग-अलग गिने जा सकते थे। उर के प्रदेश ऐसे दिखाई देते थे जैसे गंगा की तरंगे हों। भुजाएं सूख कर सूखे हुए सांप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश में नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही इधर-उधर हिलते रहते थे। शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी। वह शक्ति से हीन हो कर कम्पन वायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान कांपता ही रहता था। उग्र तप के कारण जो मुख कमल के समान खिला रहता था वह भी मुरझा गया था। ओंठ सूख गये थे। इससे मुख फूटे हुए घड़े के मुख के समान भयंकर हो गया था। उनकी दोनों आंखें भीतर धंस गई थी। शारीरिक बल बिलकल शिथिल हो गया था अतः वे केवल जीव-शक्ति से ही चलते थे अथवा खड़े होते थे। इस प्रकार सर्वथा दुर्बल होने के कारण उनकी ऐसी स्थिति हो गई थी कि किसी प्रकार की बातचीत करने में भी उनको ग्लानि होती थी। उनका शरीर अस्थि पंजर सा हो गया था अतः जब वे चलते थे तो अस्थियों में परस्पर रगड़ लगने के कारण चलती हुई कोयलों की गाड़ी के समान शब्द उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र होने लगता था। कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार स्कंदक का शरीर तप के कारण क्षीण हो गया था उसी प्रकार धन्य अनगार का शरीर भी क्षीण हो गया था। शरीर क्षीण होने पर भी उनकी आत्मिक-दीप्ति बढ़ रही थी और वे इस प्रकार दिखाई देते थे जैसे राख से आच्छादित अग्नि हो। उनकी आत्मा तप से, तेज से और इनसे उत्पन्न कांति से अलौकिक सुंदरता धारण किए हुए थी। अब सूत्रकार धन्य अनगार की अन्य अनगारों में प्रधानता दिखाते हुए कहते हैं - धन्य अनगार की श्रेष्ठता तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए, सेणिए राया। भावार्थ - उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसके बाहर ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था। उस नगर में श्रेणिक नाम का राजा था। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, परिसा णिग्गया, सेणिए णिग्गए, धम्मकहा, परिसा पडिगया। भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे। उन्हें वंदना करने के लिए नगर से परिषद् निकली। श्रेणिक राजा भी वंदना करने के लिए नगर निकला। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुन कर परिषद् लौट गई। श्रेणिक का प्रश्न __तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीइमेसि णं भंते! इंदभूइपामोक्खाणं चोइसण्हं समणसाहस्सीणं कयरे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिजरतराए चेव? कठिन शब्दार्थ - धम्म - धर्म को, सोच्चा - सुन कर, णिसम्म - मनन कर, इंदभूइपामोक्खाणं - इन्द्रभूति प्रमुख, चोइसण्हं - चौदह, समणसाहस्सीणं - हजार श्रमणों For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - भगवान् का समाधान WARN NNERNMEN ********************* में, कयरे - कौनसा, अणगारे - अनगार, महादुक्करकारए - अति दुष्कर क्रिया करने वाला, महाणिजरतराए - महा कर्मों की निर्जरा करने वाला। भावार्थ - तब राजा श्रेणिक ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुन कर और हृदय में धारण कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके पूछा कि - 'हे भगवन्! इन्द्रभूति आदि आपके चौदह हजार साधुओं में से महादुष्कर क्रिया करने वाले और महा निर्जरा करने वाले कौन अनगार हैं?' भगवान् का समाधान एवं खलु सेणिया! इमेसिं इंदभूइपामोक्खाणं चोद्दसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरतराए चेव। ____भावार्थ - भगवान् ने कहा - 'हे श्रेणिक! इन इन्द्रभूति आदि चौदह हजार साधुओं में धन्य अनगार महादुष्कर क्रिया और महानिर्जरा करने वाले हैं।' से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ इमेसिं जाव साहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिजरतराए चेव? भावार्थ - हे भगवन्! आपके ऐसा कहने का क्या कारण है कि इन यावत् चौदह हजार अनगारों में धन्य अनगार महादुष्कर क्रिया और महानिर्जरा करने वाले हैं? ... एवं खलु सेणिया! तेणं कालेणं तेण समएणं काकंदी णामं णयरी होत्था उप्पिं पासायवडिंसए विहरइ। तए णं अहं अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुव्वीए चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जेणेव काकंदी णयरी जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागए अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा जाव विहरामि। परिसा णिग्गया, तहेव जाव पव्वइए जाव बिलमिव जाव आहारेइ। धण्णस्स णं अणगारस्स पायाणं सरीरवण्णओ सव्वो जाव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ। से तेणटेणं सेणिया! एवं वुच्चइ - इमेसिं चउद्दसण्हं समण साहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए महाणिजरतराए चेव। भावार्थ - हे श्रेणिक! उस काल उस समय में काकंदी नाम की नगरी थी उसमें यावत् For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र श्रेष्ठ प्रासाद में धन्य कुमार रहता था। किसी समय मैं पूर्वानुपूर्वी से ग्रामानुग्राम विचरता हुआ जहां काळंदी नगरी थी और जहां सहस्राम्रवन उद्यान था वहां पहुँचा और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए ठहरा हुआ था। परिषद् धर्मोपदेश सुनने के लिए निकली उसी प्रकार यावत् पूर्वानुसार धन्यकुमार ने मेरे पास प्रव्रज्या अंगीकार की यावत् बिल में सर्प प्रवेश करता है उसी प्रकार धन्यमुनि अनासक्त भाव से आहार करते हैं। उन धन्य अनगार पांव आदि शरीर का सब वर्णन यहां कहना चाहिये यावत् धन्य अनगार तप लक्ष्मी से उपशोभित होते हैं। ५४ je të इस कारण हे श्रेणिक ! मैं ऐसा कहता हूं कि इन चौदह हजार अनगारों में धन्य अनंगार महादुष्कर कार्य और महानिर्जरा करने वाले हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रेणिक महाराजा की जिज्ञासा का समाधान करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने चौदह हजार साधुओं में धन्य अनगार की मुख्यता बताई है। धन्य अनगार के उपरोक्त वर्णन से हमें तीन शिक्षाएं ग्रहण करनी चाहिये - १. जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने धन्य अनगार की कठोर साधना का यथातथ्य वर्णन करते हुए उनको उसके लिए धन्यवाद दिया और अपने चौदह हजार श्रमणों में श्रेष्ठ बताया उसी प्रकार हमें भी गुणवान् व्यक्तियों के यथातथ्य गुणों का प्रतिपादन करते हुए उनका धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिये । २. धन्य अनगार की तरह संसार के सुखों को त्यागने का फल यही है कि सम्यक् तप के द्वारा आत्मशुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिये । जो व्यक्ति साधु बन कर भी ममत्व में ही फंसा रहे उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि ऐसा करने वाला कहीं का नहीं रहता, उसका इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। साधु वृत्ति अंगीकार करने वालों के सामने धन्य अनगार ने कितना अच्छा उदाहरण रखा कि संसार के सारे सुखों का त्याग कर साधु M बाद उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप कर अपनी आत्मा को सुशोभित किया और आत्मशुद्धि की । ३. तीसरी शिक्षा यह मिलती है कि जिस व्यक्ति में वास्तविक जितने गुण हों उन्हीं का वर्णन करना चाहिये, झूठी प्रशंसा करके किसी को ऊंचा चढ़ानां निरर्थक है। असत्य गुणों का आरोपण करके की जाने वाली स्तुति प्रशंसनीय नहीं किंतु हास्यास्पद होती है । For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - श्रेणिक द्वारा वंदन और गुणानुवाद * ** * **************************************************** श्वेणिक द्वारा वंदन और गुणानुवाद तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमढें सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव धण्णे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धण्णं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-धण्णे सि णं तुमं देवाणुप्पिया! सुपुण्णे सुकयत्थे, कयलक्खणे, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्मजीवियफले त्तिक? वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ___ कठिन शब्दार्थ - हट्ट तुट्ट - हृष्ट और तुष्ट होकर, धण्णेसि - धन्य हो, सुपुण्णे - अच्छे पुण्य हैं, सुकयत्थे - कृतार्थ हुए, कयलक्खणे - शुभ लक्षणों से युक्त, माणुसए - मानुष, जम्मजीवियफले - जन्म के जीवन का फल, सुलद्धे - अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है, जामेव - जिस, दिसं - दिशा से, पाउन्भूए - प्रकट हुआ, तामेव - उसी, पडिगए - . वापिस चला गया। भावार्थ - तब श्रेणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से 'यह वृत्तान्त सुन कर और मन में धारण कर हृष्ट तुष्ट होकर भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार दक्षिण ओर से आरंभ कर प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके धन्य अनगार के समीप आया। धन्य अनगार को तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया और इस प्रकार बोला - 'हे देवानुप्रिय! आप धन्य हैं, अच्छे पुण्यशाली हैं, अच्छे लक्षण वाले हैं। हे देवानुप्रिय! आपने मनुष्य जन्म और जीवन का फल भलीभांति प्राप्त किया है।' इस प्रकार कह कर श्रेणिक राजा ने धन्य अनगार को वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार वन्दन नमस्कार किया तथा जिस दिशा से आया था, उधर ही लौट गया। For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ************************ ************ ************ विवेचन - धन्य अनगार के विषय में प्रभो के उद्गार सुन कर राजा श्रेणिक का हृदय प्रसन्नता से हृष्ट तुष्ट हो गया। भगवान् को वंदन नमस्कार कर वह धन्य अनगार के पास गया जहां वे अन्य अनगारों के मध्य विराजमान थे। भगवान् के अनगारों में कितनेक आचारांग से, लेकर विपाक पर्यंत ग्यारह अंग सूत्रों के ज्ञाता अनगार समूह रूप में बैठे हुए तत्त्व चिंतन कर रहे थे, कितनेक शास्त्र संबंधी प्रश्नोत्तर करने वाले, कितनेक सूत्र पाठ की बार-बार आवृत्ति (स्वाध्याय) करने वाले, कितनेक सूत्र के अर्थ का चिन्तन करने वाले, कितनेक धर्म कथा कहने वाले, कितनेक अपने घुटनों को खड़े रख कर तथा मस्तक को नीचे झुका कर इन्द्रियों की एवं . मन की वृत्ति को रोक कर ध्यानस्थ थे, कितनेक संसार के भय से अत्यंत व्याकुल, जन्म मरण . से डरे हुए, कितनेक पन्द्रह दिन की दीक्षा पर्याय वाले, कितनेक एक मास की दीक्षा पर्याय वाले यावत् छह मास, बारह मास, दो, पांच, सात, ग्यारह, पन्द्रह, बीस वर्ष व इससे अधिक दीक्षा पर्याय वाले स्थविर थे। कितनेक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक थे। कितनेक मनोबली, कितनेक वचनबली, कितनेक कायबली तथा कितनेक आर्मषौहि आदि नानाविध लब्धियों के धारक थे। कितनेक एक मास की तपस्या करने वाले, कितनेक दो मास की यावत् छह मास तक की तपस्या करने वाले थे। इस प्रकार छह जीवनिकाय के रक्षक सभी अनगार जिस प्रकार मानसरोवर पर राजहंस सुशोभित होते हैं उसी प्रकार गुणशील उद्यान में सुशोभित थे। ___उन मुनियों के बीच में राजा श्रेणिक ने धन्य अनगार को देखा जो उत्कृष्ट भाव से गृहीत, कर्मों का नाश करने वाले, मोक्ष लक्ष्मी को देने वाले तप से शुष्क हो गये थे। उनका शरीर केवल अस्थि चर्म मात्र रह गया था तथा जिनके उठने बैठने से अस्थियों की किट-किट आवाज होती थी। वे शरीर से इतने कृश हो गये थे कि उनका शरीर नसों का जाल मात्र ही दिखाई देता था फिर भी वे आत्मिक कांति से देदीप्यमान तप तेज पुंज जैसे दिखाई देते थे। ऐसे धन्य अनगार के समीप पहुंच कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन नमस्कार कर राजा श्रेणिक बोला - ___ 'हे देवानुप्रिय! आप धन्य हैं। देवताओं के द्वारा भी प्रशंसनीय हैं। आप महापुण्यशाली हैं क्योंकि आपने शीघ्र ही संयम तथा तप की आराधना कर ली है। आप कृतार्थ हैं क्योंकि आपने अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया है। आप सुकृत लक्षण हैं क्योंकि आपने सम्यक् रूप से चारित्र की आराधना कर ली है। हे देवानुप्रिय! आपने जन्म और जीवित का फल प्राप्त कर For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार का संथारा ५७ लिया है।' इस प्रकार स्तुति तथा वन्दन नमस्कार कर राजा श्रेणिक भगवान् के पास आकर प्रसन्न मन से बोले - 'हे भगवन्! जैसा आपने कहा है उसी रूप में मैंने धन्य अनगार को देखा है।' इस प्रकार धन्य अनगार की प्रशंसा करते हुए राजा श्रेणिक भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन नमस्कार कर स्वस्थान लौट गये। धन्य अनगार का संथारा .. तए. णं तस्स धण्णस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपजित्था-एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जहा खंदओ तहेव चिंता, आपुच्छणं थेरेहिं सद्धिं विउलं दुरूहंति, मासिया संलेहणा णवमास परियाओ जाव कालमासे कालं किच्चा उड्डे चंदिम जाव णव य गेविज विमाणपत्थडे उड़े दूरं वीईवइत्ता सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववण्णे। थेरा तहेव ओयरंति जाव इमे से आयारभंडए। . कठिन शब्दार्थ - पुव्वरत्तावरत्तकाले - मध्य रात्रि के समय, धम्मजागरियं - धर्म जागरण करते हुए, इमेयारूवे - इस प्रकार के, अज्झथिए - आध्यात्मिक विचार, ओरालेणंउदार तप से, आपुच्छणं - पूछ कर, थेरेहिं - स्थविरों के, सद्धिं - साथ, विउले - विपुल पर्वत पर, दुरूहंति - चढ़ गया, मासिया - मासिकी, संलेहणा - संलेखना की, परियाओ - पर्याय का पालन किया, कालमासे - मृत्यु के समय, कालं किच्चा - काल के द्वारा, उद्धं - ऊंचे, चंदिम - चन्द्रमा से, णव - नव, गेविजविमाणपत्थडे - ग्रैवेयक विमानों के प्रस्तर से, वीइवईत्ता - व्यतिक्रम करके, सव्वट्ठसिद्धे विमाणे - सर्वार्थसिद्ध विमान में, देवत्ताए - देव रूप से, उववण्णे - उत्पन्न हुए, ओयरंति - उतरते हैं, आयारभंडए - आचार भण्डोपकरणवस्त्र पात्र आदि उपकरण। भावार्थ - तत्पश्चात् धन्य अनगार को अन्यदा मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा जागते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय, चिंतन और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि - "मैं निश्चय ही इस प्रधान तप से' इत्यादि स्कंदक मुनि जैसा विचार हुआ। तत्पश्चात् प्रातःकाल होने पर For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ __ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र . *######################################################### # भगवान् से आज्ञा प्राप्त की। स्थविर मुनियों के साथ विपुलगिरि पर चढ़े। वहां एक मास की संलेखना (अनशन) करके नौ मास तक चारित्र पर्याय पाल कर यावत् काल के समय काल कर के ऊर्ध्व चन्द्रादि विमानों को लांघ कर यावत् नवग्रैवेयक के विमान पाथड़ों को लांघ कर और ऊर्ध्व जा कर सर्वार्थसिद्ध नाम के विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। तब स्थविरमुनि पूर्वोक्त रीति से कायोत्सर्ग करके धन्य मुनि के उपकरण आदि लेकर नीचे उतरे यावत् 'यह उनके भांडोपकरण' हैं - ऐसा कह कर वे भांडोपकरण भगवान् को सौंपे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की अंतिम समाधि का वर्णन किया गया है। ... एक समय रात्रि के अपर भाग में धर्मजागरणा करते हुए धन्य अनगार को स्कंदक ऋषि के समान विचार उत्पन्न हुए - "मैं इस उग्र तप से शुष्क, रूक्ष एवं रक्त मांस रहित हो गया हूं, केवल हड्डियों, नसों से तथा चर्म से बंधा हुआ शरीर रह गया है। मैं सर्वथा निर्बल एवं कृश हो गया हूं। आत्मशक्ति से ही गमन करता हूं, शरीर बल से नहीं। बोलने के समय भी अत्यंत कष्ट पाता हूं। काष्ट से भरी हुई गाड़ी के समान, सूखे हुए पत्तों से भरी हुई गाड़ी के समान, एरण्ड के सूखे काष्ठ से भरी हुई गाड़ी के समान चलने फिरने पर सारा शरीर किट-किट आवाज करता है अतः जब तक मेरे में स्वतः उठना बैठना आदि पुरुषकार पराक्रम है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचर रहे हैं तब तक मेरे लिये यही श्रेय है कि मैं प्रातःकाल सूर्योदय होने पर भगवान् को वंदन नमस्कार कर उनकी आज्ञा से आत्मकल्याण के लिये पुनः महाव्रतों को धारण कर आलोचना निंदा पूर्वक समस्त जीव राशि से क्षमायाचना करके बहुश्रुत स्थविरों के साथ विपुलाचल पर्वत पर जाऊं। वहां पृथ्वीशिलापट्ट की प्रतिलेखना प्रमार्जन कर तथा दर्भ संस्तारक पर बैठ कर संलेखना द्वारा सभी आहारों का त्याग कर जीवन मरण की अभिलाषा नहीं करता हुआ पादपोपगमन अनशन स्वीकार करूँ।" . ___ इस प्रकार विचार कर प्रातःकाल वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित हुए। वंदन नमस्कार कर अपने हृदयगत भावों को प्रकट किया। भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर स्थविर भगवंतों के साथ विपुलगिरि पर्वत पर गये और पादपोपगमन अनशन धारण किया। एक मास का अनशनव्रत पूर्ण कर नौ मास की दीक्षा पर्याय पाल कर समाधि मरण से काल कर चन्द्र से ऊंचे यावत् नवग्रैवेयक विमानों को उल्लंघ कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - भविष्य पृच्छा ५६ धन्य अनगार को दिवंगत हुआ जानकर स्थविरों ने परिनिर्वाण प्रत्ययिक कायोत्सर्ग किया। अर्थात “परिनिर्वाणम्-मरणं यत्र, यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययोहेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययः' अर्थात् मृत्यु के अनन्तर जो ध्यान किया जाता है उसको परिनिर्वाण प्रत्ययिक कायोत्सर्ग कहते हैं। कायोत्सर्ग करने के बाद समीपस्थ स्थविरों ने धन्य अनगार के वस्त्र, पात्र आदि उपकरण उठाये, विपुलगिरि पर्वत से नीचे उतरे और भगवान् के समीप आकर इस प्रकार बोले - 'हे भगवन्! ये धन्य अनगार के वस्त्र आदि उपकरण हैं।' भविष्य पृच्छा भंते! त्ति भगवं गोयमे तहेव पुच्छइ जहा खंदयस्स, भगवं वागरेइ, जाव सव्वट्ठसिद्धे विमाणे उववण्णे। भावार्थ - "हे भगवन्!" भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को संबोधन कर भगवती सूत्र में वर्णित स्कंदक मुनि के वृत्तांत के अनुसार पूछा तब भगवान् ने गौतम स्वामी से कहा कि यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। धण्णस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। भावार्थ - गौतमस्वामी ने पूछा - हे भगवन्! धन्य देव की कितने काल की स्थिति कही हे गौतम! तैतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। से णं भंते! ताओ देवलोगाओ कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववजिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं करेहिए। . कठिन शब्दार्थ - कहिं - कहां, गच्छिहिइ - जायगा, उववजिहिइ - उत्पन्न होगा, महाविदेहेवासे - महाविदेह क्षेत्र में, सिज्झिहिइ - सिद्ध होगा, बुज्झिहिइ - बुद्ध होगा, मुच्चिहिइ - मुक्त होगा, परिणिव्वाहिइ - निर्वाण प्राप्त करेगा, सव्वदुक्खाणं अंतं - सभी दुःखों का अन्त, करेहिइ - करेगा। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र भावार्थ - हे भगवन्! वह धन्य देव देवलोक से चव कर कहां जायगा ? और कहां उत्पन्न होगा ? हे गौतम! वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और दीक्षा ग्रहण कर सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, सभी कर्मों से मुक्त होगा, निर्वाण प्राप्त करेगा और समस्त दुःखों का अंत करेगा । विवेचन गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर प्रश्न किया - हे भगवन्! आपका विनयी शिष्य धन्य अनगार समाधि-मरण प्राप्त कर कहां गया, कहां उत्पन्न हुआ है, वहां कितने काल तक उसकी स्थिति होगी और तदनन्तर वह कहां उत्पन्न होगा ? ६० - इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया हे गौतम! मेरा विनयी शिष्य धन्य अनगार समाधि मरण प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुआ है, वहां उसकी तेतीस सागरोपम स्थिति है और वहां से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र में मोक्ष प्राप्त करेगा अर्थात् सिद्ध बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण पद प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त कर देगा । यह सुन कर गौतमस्वामी अत्यंत प्रसन्न हुए । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ भावार्थ इस प्रकार हे जंबू ! श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष प्राप्त महावीर स्वामी ने प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है। विवेचन प्रथम अध्ययन का उपसंहार करते हुए श्री सुधर्मास्वामी श्री जंबू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू! जिस प्रकार मैने उक्त अध्ययन का भाव (अर्थ) श्रवण किया है उसी प्रकार तुम्हें कहा है अर्थात् मेरा यह कथन केवल भगवान् के कथन का अनुवाद मात्र है। इसमें . मेरी अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा है । ॥ इति तृतीय वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ उपसंहार - - For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूनक्षत्रकुमार नामक द्वितीय अध्ययन सुनक्षत्र कुमार का परिचय तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन में धन्य अनमार के तपोमय आदर्श जीवन का वर्णन करने के बाद अब सूत्रकार द्वितीय अध्ययन का वर्णन करते हैं जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - जइ णं भंते! उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं काकंदीए णयरीए भद्दा गामं सत्यवाही परिवसइ अहा। तीसे गं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते सुणक्खत्ते णामं दारए होत्था अहीण जाव सुरूवे पंचधाइपरिक्खित्ते जहा धण्णो तहा बत्तीसओ दाओ जाव उप्पिं पासायबडिंसए विहरइ। ___कठिन शब्दार्थ - उक्खेवओ - उत्क्षेप-आक्षेप से जान लेना चाहिये, परिवसइ - रहती थी, अड्डा - सर्व ऋद्धि सम्पन्न, पंचधाइपरिस्खित्ते - पांच धायों के लालन पालन में, पासायवडिंसए - सर्वश्रेष्ठ प्रासादों में। भावार्थ - हे भगवन्! प्रथम अध्ययन का पूर्वोक्त अर्थ कहा है तो द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ कहा है इत्यादि उत्क्षेप-प्रस्तावना जानना चाहिये। सुधर्मा स्वामी कहते हैं - हे जंबू! उस काल और उस समय में काकंदी नगरी में भद्रा नाम की सार्थवाही रहती थी। वह समृद्धिशाली थी। उस भद्रा सार्थवाही का पुत्र सुनक्षत्र नामक कुमार था। उसके अंगोपांग हीनता रहित - परिपूर्ण थे यावत् वह सुरूपवान् था। पांच धाइयों द्वारा उसका लालन पालन किया जाता था। वह जब युवक हुआ तब धन्य कुमार के समान बत्तीस कन्याओं के साथ उसका विवाह किया और बत्तीस भवन आदि दायजा दिया यावत् वह अपनी पत्नियों के साथ यावत् सर्वश्रेष्ठ प्रासादों में सुखों का अनुभव करता हुआ विचरता था। विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त उक्खेवओ - उत्क्षेपः शब्द से निम्न पाठ का ग्रहण होता है__ "जड णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं णवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते णवमस्स णं भंते! अंगरस अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स बिइयस्स अज्झयणस्स के अहे पण्णत्ते?" अर्थात् - हे भगवन्! यदि मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने नवमें अंग For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ************** अनुत्तरोपपातिकदसा के तीसरे वर्ग के प्रथम अध्ययन का पूर्वोक्त भाव फरमाया है तो हे भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकदसा नामक नववें अंग के तीसरे वर्ग के दूसरे अध्ययन का प्रभु प्रतिपादन किया है सो कृपा कर फरमाइये । क्या अर्थ यह पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में आता है अतः उसको संक्षिप्त करने के लिये यहां उक्खेवओ - उत्क्षेपः पद दिया गया है। अन्य आगमों में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जंबूस्वामी की जिज्ञासा का समाधान करने के लिये सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - हे जम्बू ! उस काल उस समय में काकन्दी नाम की नगरी थी । उसमें भद्रा नाम की एक सार्थवाही निवास करती थी। उस भद्रा सार्थवाही के एक सुनक्षत्र नामक पुत्र था। वह सर्वांग सम्पन्न और सुरूप था। पांच धायमाताएं उसके लालन पालन के लिए नियुक्त थी । जिस प्रकार धन्य कुमार का बत्तीस कन्याओं के साथ विवाह हुआ, बत्तीस प्रकार का दहेज आया उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार के लिए भी समझना यावत् वह सर्वश्रेष्ठ भवनों में सुखोपभोग कर रहा था। प्रव्रज्या ग्रहण ते काणं तेणं समए णं समोसरणं, जहा धण्णे तहा सुणक्खत्ते वि णिग्गए जहा थावच्चापुत्तस्स तहा णिक्खमणं जाव अणगारे जाए ईरियासमिए जाव बंभयारी । कठिन शब्दार्थ - णिग्गए- निकला, थावच्चापुत्तस्स - थावच्चापुत्र का, णिक्खमणंनिष्क्रमण-दीक्षा महोत्सव, ईरियासमिए - ईर्यासमिति वाला, बंभयारी - ब्रह्मचारी । भावार्थ - उस काल और उस समय वहां भगवान् महावीर स्वामी पधारे। धन्यकुमार समान सुनक्षत्र कुमार भी भगवान् को वंदन करने के लिए निकला। धर्मोपदेश सुन कर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ और थावच्चापुत्र के समान उसका दीक्षा महोत्सव हुआ यावत् वह अनगार हो गया। ईर्यासमिति में तत्पर यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार और थावच्चापुत्र की भलावण दी गयी है । धन्य अनगार का वर्णन तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन में और थावच्चापुत्र अनगार का वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के पांचवें अध्ययन में किया गया है। जिज्ञासुओं को विशेष जानकारी के लिए इनका अध्ययन ( स्वाध्याय) करना चाहिये । अभिग्रह और विद्याध्ययन तणं से सुणक्खते अणगारे जं चेव दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - द्वितीय अध्ययन. - अभिग्रह और विद्याध्ययन अंतिए मुंडे जाव पव्वइए तं चेव दिवसं अभिग्गहं तहेव जाव बिलमिव आहारेइ, संजमेणं जाव विहरइ, बहिया जणवयविहारं विहरइ, एक्कारस अंगाई अहिजड़, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। कठिन शब्दार्थ - जं चेव दिवसं - जिस दिन, मुंडे - मुण्डित हुआ, तं चेव दिवसं - उसी दिन, अभिग्गहं - अभिग्रह, बिलमिव - सर्प के बिल में प्रवेश के समान, आहारेइ - आहार करता है, जणवयविहारं - जनपद विहार, एक्कारसअंगाई - ग्यारह अंगों का, अहिजइअध्ययन किया, भावेमाणे - भावित करते हुए। भावार्थ - जिस दिन सुनक्षत्र अनगार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित यावत् प्रव्रजित हुए, उसी दिन धन्य अनगार के समान उन्होंने अभिग्रह धारण किया यावत् सर्प के बिल में घुसने के समान अनासक्त भाव से आहार करने लगे। संयम से विचरते हुए बाहर के देशों में विहार करने लगे। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तए णं से सुणक्खत्ते अणगारे ओरालेणं जहा खंदओ। भावार्थ - तदनन्तर वे सुनक्षत्र अनगार, स्कंदकमुनि के समान प्रधान तप करने लगे। विवेचन - जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने अभिग्रह धारण किया और पारणे के दिन आयंबिल किया उसी प्रकार की प्रतिज्ञा सुनक्षत्र अनगार ने की। जिस प्रकार भगवती सूत्र के द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में वर्णित स्कंदक सन्यासी ने भगवान् के पास दीक्षित होकर तप के द्वारा अपना शरीर कृश किया था ठीक उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया था। . तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, राया णिग्गओ, धम्मकहा, राया पडिगओ, परिसा पडिगया। . भावार्थ - उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसके बाहर गुणशील नामक उद्यान था। वहां श्रेणिक राजा था। किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे। परिषद् उन्हें वंदना करने के लिए निकली। राजा भी वंदन करने के लिए निकला। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। राजा अपने स्थान पर गया। परिषद् भी लौट गई। .. विवेचन - धन्य अनगार के अध्ययन के समान ही यहां श्रेणिक राजा ने भगवान् से दुष्कर क्रिया वाले अनगार का प्रश्न किया और उसका उत्तर आदि सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र अनशन और देवोपपात तए णं तस्स सुणक्खत्तस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स जहा खंदयस्स, बहुवासाओ परियाओ, गोयमपुच्छा, तहेव कहेइ, जाव सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववण्णे, तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । से णं भंते! महाविदेहेवासे सिज्झिहि । ॥ बीयं अज्झयणं समत्तं ॥ ६४ कठिन शब्दार्थ - पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि - मध्य रात्रि के समय में, धम्मजागरियंधर्म जागरण करते हुए, बहुवासाओ परियाओ बहुत से वर्षों तक संयम पर्याय का, गोयमपृच्छा - गौतम स्वामी ने प्रश्न किया, सिज्झिहिड़ - सिद्ध होगा । भावार्थ - सुनक्षत्र अनगार को किसी समय, मध्य रात्रि के समय धर्म जागरणा करते हुए स्कंदक मुनि जैसा अनशन करने का विचार हुआ यावत् भगवान् की आज्ञा ले कर उसी प्रकार तप किया, बहुत वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन किया यावत् गौतम गणधर के प्रश्न और भगवान् का उत्तर कहना चाहिये यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। उसकी तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है। हे भगवन्! वह वहां से चव कर कहां उत्पन्न होगा - ऐसा गौतमस्वामी ने प्रश्न किया तब भगवान् ने कहा कि यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर संयम लेकर सिद्धि पद को प्राप्त करेगा । ** विवेचन सुनक्षत्र अनगार का वर्णन भी धन्य अनगार के समान ही जानना चाहिये । अंतर इतना है कि धन्य अनगार ने नौ मास तक संयम पर्याय का पालन किया किंतु सुनक्षत्र अनगार की दीक्षा पर्याय बहुत वर्षों की थी । भगवती सूत्र में वर्णित स्कंदक अनगार के समान उन्होंने भी अंतिम समय में संलेखना - संथारा किया और काल करके सर्वार्थसिद्ध विमान में ३३ सागरोपम की स्थिति वाले देव बने ।. वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर दीक्षा अंगीकार कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे, शाश्वत मोक्ष स्थान को प्राप्त करेंगे। ॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ - For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष अध्ययन एवं सुणक्खत्तगमेणं सेसा वि अट्ठ (अज्झयणा) भाणियव्वा। णवरं आणुपुव्वीए दोण्णि रायगिहे, दोण्णि साकेए, दोण्णि वाणियग्गामे, णवमो हत्थिणापुरे, दसमो रायगिहे। णवण्हं भद्दाओ जणणीओ, णवण्ह वि बत्तीसओ दाओ णवण्हं णिक्खमणं थावच्चापुत्तस्स सरिसं वेहल्लस्स पिया करेइ, णव मास धण्णे छम्मासा वेहल्लए सेसाणं बहू वासा, मासं संलेहणा, सव्वट्ठसिद्धे महाविदेहे सिज्मणा। कठिन शब्दार्थ - सुणक्खत्तगमेणं - सुनक्षत्र के आलापक-आख्यान के समान, सेसाशेष, अट्ठ - आठ, अवि - भी, भाणियव्वा - कहना चाहिये, णवरं - विशेषता है कि, आणुपुव्वीए - अनुक्रम से, दोण्णि - दो, जणणीओ - माताएं, णिक्खमणं - निष्क्रमण, सरिसं - सद्दश, पिया - पिता, सिज्झणा - सिद्धि गति प्राप्त करेंगे। ' भावार्थ - इस प्रकार सुनक्षत्र के समान शेष आठ अध्ययन भी कहने चाहिए। विशेषता इतनी है कि - अनुक्रम से दो (तीसरा और चौथा) राजगृह में, इनके बाद के दो (पांचवां छठा) साकेत में, इनके बाद के दो (सातवां आठवां) वाणिज्यग्राम में उत्पन्न हुए। नौवां हस्तिनापुर और दसवां राजगृह नगर में उत्पन्न हुआ। नौ ही की माता का नाम भद्रा था। नौ ही का विवाह ३२-३२ कन्याओं के साथ हुआ। बत्तीस भवन आदि दायजा मिला। नौ ही का दीक्षा-महोत्सव थावच्चापुत्र जैसा जानना चाहिये। दसवें वेहल्लकुमार का दीक्षा महोत्सव उसके पिता ने किया था। धन्य अनगार ने नौ मास का चारित्र पाला। वेहल्लकुमार की दीक्षा पर्याय छह मास, शेष आठ ने बहुत वर्षों तक चारित्र पाला। दसों ने एक मास का अनशन किया। सभी सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए और महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि-गति को प्राप्त करेंगे। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में शेष आठ अध्ययनों का वर्णन किया गया है। - सुनक्षत्र के समान ही शेष आठों ही कुमारों का वर्णन समझ लेना चाहिये। विशेषता यही है कि इनमें क्रमशः दो - ऋषिदास और पेल्लक राजगृह नगर में, दो - रामपुत्र और चन्द्रिक - अयोध्या में, दो - पृष्ठमातृक और पेढालपुत्र - वाणिज्यग्राम में, नववां पोट्टिल हस्तिनापुर में तथा दशवां वेहल्लकुमार राजगृह नगर में उत्पन्न हुआ। धन्यकुमार आदि नौ कुमारों की भद्रा नामक माताएं थी। प्रत्येक की भद्रा नामक भिन्न भिन्न माताएं थी न कि एक ही। धन्यकुमार For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ********************************* *************************** आदि नौ कुमारों का दीक्षा-महोत्सव थावच्चापुत्र के समान उनकी अपनी-अपनी माताओं ने किया जबकि दशवें वेहल्लकुमार का दीक्षा महोत्सव उनके पिता ने किया। धन्यकुमार की दीक्षा पर्याय नौ मास, वेहल्लकुमार की दीक्षा पर्याय छह मास तथा सुनक्षत्र आदि आठों अनगारों की दीक्षा पर्याय बहुत वर्षों की थी। सभी मुनियों ने एक मास की संलेखना की। सभी सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए तथा महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सभी कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त करेंगे। ___ उक्त कुमारों के जीवन वृत्तांत में मुख्य रूप से यही समानता है कि सभी का श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्मकथा सुनने को जाना, वहां वैराग्य की उत्पत्ति, दीक्षा ग्रहण, उच्च कोटि की तपस्या, शरीर का कृश होना, अर्द्ध रात्रि में धर्म जागरण करते हुए अनशन व्रत के भावों का उत्पन्न होना, अनशन कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होना, महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर संयम अंगीकार करना और सिद्धि गति को प्राप्त करना आदि। इसी जीवन वृत्तांत को विस्तृत जानने के लिये भगवती सूत्र शतक २ वर्णित स्कंदक अनगार और ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अध्ययन ५ में वर्णित थावच्चापुत्र की भलामण दी गयी है। अतः जिज्ञासुओं को दोनों स्थलों का स्वाध्याय करना चाहिये। इन अध्ययनों से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति को अपना लक्ष्य स्थिर कर तदनुसार सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये और दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिये कि उस लक्ष्य की प्राप्ति में चाहे कैसी ही बाधा क्यों न आये, अपने प्रयत्नों में तनिक भी शिथिलता नहीं आनी चाहिये। जब तक व्यक्ति इतना दृढ़ संकल्प नहीं करता है तब तक उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है किंतु जो अपने ध्येय प्राप्ति के लिये एकाग्रचित्त से गंभीरता पूर्वक प्रयत्न करता है वह अवश्य और शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। ____ धन्य आदि कुमारों ने एक मात्र मोक्ष लक्ष्य से तपाराधना करते हुए संयम पालन किया, शरीर की तनिक भी परवाह नहीं करते हुए आत्मसाधना में लीन रहे तो अपने लक्ष्य की सिद्धि कर ली। उपसंहार एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं सयंसंबुद्धेणं लोगणाहेणं लोगप्पदीवेणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं सरणद एणं चक्खुदएणं मग्गदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेणं जिणेणं जावएणं बुद्धणं बोहएणं मुक्केणं मोयगेणं तिण्णेणं For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग - शेष नौ अध्ययन - उपसंहार ६७ तारएणं सिवमयल-मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावत्तयं सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं अणुसरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते। .. ॥ अणुत्तरोववाइयदसाओ समत्ताओ॥ कठिन शब्दार्थ - आइगरेणं - धर्म की आदि करने वाले, तित्थगरेणं - चार तीर्थ की स्थापना करने वाले, सयंसंबुद्धेणं - अपने आप बोध को प्राप्त करने वाले, लोगणाहेणं - तीनों लोकों के नाथ, लोगप्पदीवेणं - लोक में प्रदीप के समान प्रकाश करने वाले, लोगपजोयगरेणं - लोक को सूर्य के समान प्रदीप्त करने वाले, अभयदएणं - अभय प्रदान करने वाले, सरणदएणं - शरण देने वाले, चक्खुदएणं - ज्ञान-चक्षु देने वाले, धम्मदएणं - श्रुत और चारित्र रूप धर्म देने वाले, मग्गदएणं - अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति मार्ग दिखाने वाले, धम्मदेसएणं - धर्मोपदेशक, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा - धर्म में प्रधान तथा चार गति का अंत करने वाले चक्रवर्ती के समान, अप्पडिहय - अप्रतिहत, वर - श्रेष्ठ, णाणदंसणधरेणं- ज्ञान, दर्शन धारण करने वाले, जिणेणं - राग और द्वेष को जीतने वाले, जावएणं - जिताने वाले, बुद्धणं - बुद्ध-जीवादि पदार्थों को जानने वाले, बोहएणं - औरों को बोध कराने वाले, मुक्केणं - मुक्त, मोयगेणं - अन्य को मुक्त कराने वाले, तिण्णेणं - संसार सागर को पार करने वाले, तारएणं - दूसरों को पार कराने वाले, सिवं - शिव-कल्याण रूप, अयलं - अचल-नित्य स्थिर, अरुयं - रोग रहित, अणंतं - अन्त रहित, अक्खयं - . अक्षय-कभी भी नाश न होने वाले, अव्वाबाहं - अव्याबाध-पीड़ा रहित, अपुणरावत्तयं - जहां से पुनः संसार में नहीं आना पड़े, सिद्धिगई - सिद्धि गति, णामधेयं - नाम वाले, . ठाणं - स्थान को, संपत्तेणं - प्राप्त हुए। भावार्थ - इस प्रकार हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो धर्म की आदि करने वाले हैं, तीर्थ की रचना करने वाले हैं, स्वयं बोध प्राप्त हैं, लोक के नाथ है, लोक में प्रदीप के समान है। लोक में उद्योत करने वाले हैं, अभय देने वाले हैं, शरण देने वाले हैं, ज्ञान रूपी नेत्र के देने वाले हैं, धर्म मार्ग के प्रदर्शक हैं, धर्म का उपदेश करने वाले हैं, धर्म रूपी चारों दिगन्त के चक्रवर्ती है, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन के धारक हैं, रागद्वेष के विजेता हैं, अन्य को रागद्वेष जिताने वाले हैं, बुद्ध है (स्वयं बोध प्राप्त है), दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं मुक्त हैं, दूसरों को मुक्त करने वाले हैं, स्वयं संसार से तिर चुके हैं, दूसरों को संसार से तिराने वाले हैं। जो कल्याणकारक, स्थिर, रोगरहित, अनन्त, अक्षय, बाधारहित और जहां से For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ . . अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र पुनः संसार में न आना पड़े, ऐसी सिद्धि गति को प्राप्त हैं, उन भगवान् ने अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र के तीसरे वर्ग का यह अर्थ कहा है। ___ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र उपसंहार रूप है। इस सूत्र में उपसंहार करते हुए सुधर्मा स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी के 'नमोत्थुणं' में दर्शित सभी गुणों का वर्णन किया है। जब कोई साधक सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है तो वह अनंत और अनुपम गुणों का धारक बन जाता है। उसके गुणों का अनुकरण करने वाला भी एक दिन उसी रूप हो सकता है अतः प्रत्येक व्यक्ति को उनका अनुकरण अवश्य करना चाहिये। यही कारण है कि सुधर्मा स्वामी ने भव्य प्राणियों के हित के लिए भगवान् के विशिष्ट गुणों का यहां दिग्दर्शन कराया है जिससे लोग भगवान् के गुणों का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा में लीन हो जायं और मोक्ष मार्ग में आगे बढ़े। ... इस सूत्र का उपसंहार करते हुए सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे. जम्बू! आदिकर यावत् मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक सूत्र के तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। __|| तीसरा वर्ग समाप्त॥ || अनुत्तरोपपातिकदशा नामक नवमां अंग समाप्त॥ इस सूत्र की समाप्ति पर कुछ प्रतियों में निम्नलिखित पाठ मिलता है - अणुत्तरोववाइयदसाणं एगो सुयखंधो, तिण्णि वग्गा, तिसु चेव दिवसेसु उद्दिसिजंति तत्थ पढमे वग्गे दस उद्देसगा, बिइए वग्गे तेरस उद्देसगा, तइए वग्गे दस उद्देसगा सेसं जहा णायाधम्मकहाणं तहा णेयव्वं ॥ ७॥ .. ॥ अणुत्तरोववाइयदसाओ समत्ताओ॥ कठिन शब्दार्थ - सुयखंधो - श्रुतस्कन्ध, वग्गा - वर्ग, दिवसेसु - दिनों मे, णेयव्वं जानना चाहिये। __भावार्थ - अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र में एक श्रुतस्कन्ध और तीन वर्ग हैं जो तीन दिनों में पढ़े जाते हैं। उसके प्रथम वर्ग मे दस उद्देशक, दूसरे वर्ग मे तेरह उद्देशक और तीसरे वर्ग के दस उद्देशक हैं। शेष सारा वर्णन ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिये। || अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथ पावयण सच्चं णिग्गंथ जो उवा रायरं वंदे मज्जइस संघ गणाय सुधर्म जैन संत सययं तं सत्र 'न संस्कृति रक्षाक कि संघ जोधपुर अधर्म रतीय सुधर्म भारतीय सुधर्म खलभारतीय सुधर्मः अखिल भारतीय सुधर्मसंघ अखिल भारतीय सुधर्म रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्मर लभारती स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खलभारतीयसुध जनसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खल भारतीय सुधर्म जैजसस्कृत नारतीयसुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मः खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृतिरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जिलभारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म: खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म। खिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म खिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिलभारतीय सुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म खिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म शलभताभ मजन संस्कति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधमा