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________________ ५० अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र ... कठिन शब्दार्थ - सुक्केणं - मांस आदि के अभाव से सूखे हुए, भुक्खेणं - भूख के कारण रूखे पड़े हुए, पायजंघोरुणा - पैर, जंघा और ऊरु से, विगयतडिकरालेणं - भयंकर रूप से प्रान्त भागों में उन्नत हुए, कडिकडाहेण - कटि रूप कटाह से, पिट्ठमवस्सिएणं - पीठ के साथ मिले हुए, उदरभायणेणं - उदर भाजन से, जोइज्जमाणेहिं - दिखाई देते हुए, पांसुलिकडएहिं - पार्श्वस्थिकटकै-पसलियाँ रूपी कटक, अक्खसुत्तमालाइ - अक्षसूत्र - रूद्राक्ष के दानों की माला, गणिजमालाइ - गिनती के माला के दाने, गणेजमाणेहिं - गण्यमानैः-गिने जाने वाले, पिट्टिकरंडगसंधीहिं - पृष्ठकरण्डक की संधियों से, गंगातरंग भूएणंगंगा नदी की तरंगों के समान, उरकडगदेसभाएणं- उदर कटक के प्रान्त भागों से, सुक्कसप्पसमाणाहि- सूखे हुए सर्प के समान, बाहाहिं - भुजाओं से, सिढिलकडाली - शिथिल लगाम के, विव- समान, चलंतेहिं - कांपते हुए, अग्गहत्थेहिं - अग्रहस्त-हाथों से, कंपणवाइओ - कम्पनवातिक, वेवमाणीए - कम्पायमान, सीसघडीए - शीर्ष घटी से, पव्वायवयणकमले - मुरझाए हुए मुख कमल वाला, उन्भडघडामुहे- घड़े के मुख के समान विकराल मुख वाला, उब्बुड्डणयणकोसे- जिसके नयन कोश भीतर घुस गये थे, जीवं - जीवन को, जीवेणं - जीव की शक्ति से, भासं - भाषा को, भासिस्सामि - कहूंगा, गिलायइ - ग्लान हो जाता था, इंगालसगडियाइ - कोयलों की गाड़ी, भासरासिपलिच्छण्णेभस्म की राशि से ढके हुए, हुयासणे - हुताशन-अग्नि के, इव - समान, तवेणं - तप से, तेएणं - तेज से, तवतेयसिरिए - तप और तेज की शोभा से, उवसोभेमाणे - शोभायमान होता हुआ। ___ भावार्थ - धन्य अनगार के पांव, पिंडलियां और जंघाएं मांस न होने के कारण सूखी . थीं, भूख के कारण लूखी थीं। उनकी कमर रूपी कड़ाह मांस न होने से और हड्डियां बाहर निकली हुई होने से विकृत और पार्श्व भाग में कराल (ऊंचा) था। उनका पेट रूपी भाजन पीठ से चिपक गया था। उनकी पसलियां रूपी कटक मांस-रहित होने से स्पष्ट दिखाई देते थे। उनकी पीठ रूपी करंडिये की संधियां अक्षसूत्र की माला के समान गिनी जा सकती थीं। उनकी छाती रूपी कटक का भाग एक पर एक हड्डियों के दिखाई देने से गंगा नदी की तरंगों की भांति दिखाई देता था। उनकी भुजाएं सूखे हुए सांप के समान भासित होती थीं, उनके हाथ के पंजे शिथिल की हुई घोड़े की लगाम जैसे लटकते थे, कंपनवात रोग वाले की भांति उनका मस्तक रूपी घड़ा हिलता रहता था, उनका मुख कमल मुझाया हुआ था, ओष्ठ की अत्यंत क्षीणता के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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