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तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की अलौकिक सुंदरता
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कारण उनका मुख घड़े के समान विकराल दिखाई देता था, उनके नेत्र रूपी कोष अंदर धंस गये थे वे धन्य अनगार, आत्मा की शक्ति से चलते थे अर्थात् शरीर की शक्ति से वे चलने में अशक्त हो चुके थे, वे आत्मा की शक्ति से ही खड़े रहते थे। भाषा बोलने के विचार से भी वे ग्लानि प्राप्त करते थे। कोयले से भरी हुई गाड़ी के समान चलते समय उनकी हड्डियां खड़खड़ शब्द करती थीं। इस प्रकार जैसे भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ में स्कंदक मुनि का वर्णन किया है वैसा यहां जानना चाहिए यावत् राख के ढेर से ढंकी हुई अग्नि के समान वे धन्य अनगार तप के तेज से और तपस्तेज की लक्ष्मी द्वारा अत्यंत शोभित होते हुए विचरते थे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रकारान्तर से धन्य अनगार के सभी अवयवों का वर्णन किया गया है। धन्य अनगार के पैर, जंघा और उरु, मांस आदि के अभाव से बिलकुल सूख गये थे
और निरन्तर भूखे रहने के कारण बिलकुल रूक्ष हो गये थे। चिकनाहट उनमें नाम-मात्र के लिये भी शेष नहीं थी। कटि (कमर) मानो कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजन विशेष - हलवाई आदि की बड़ी बड़ी कढ़ाई) के समान थी। वह मांस के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयंकर प्रतीत होता था जैसे ऊंचे ऊंचे नदी के तट हो। पेट बिलकुल सूख गया। उसमें से यकृत और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे। अतः वह स्वभावतः पीठ के साथ मिल गया था। पसलियों पर का भी मांस बिलकुल सूख गया था और एक एक साफ साफ गिनी जा सकती थी। यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था। वे भी रूद्राक्ष-माला के दानों के समान सूत्र में पिरोए हए जैसे अलग-अलग गिने जा सकते थे। उर के प्रदेश ऐसे दिखाई देते थे जैसे गंगा की तरंगे हों। भुजाएं सूख कर सूखे हुए सांप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश में नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही इधर-उधर हिलते रहते थे। शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी। वह शक्ति से हीन हो कर कम्पन वायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान कांपता ही रहता था। उग्र तप के कारण जो मुख कमल के समान खिला रहता था वह भी मुरझा गया था। ओंठ सूख गये थे। इससे मुख फूटे हुए घड़े के मुख के समान भयंकर हो गया था। उनकी दोनों आंखें भीतर धंस गई थी। शारीरिक बल बिलकल शिथिल हो गया था अतः वे केवल जीव-शक्ति से ही चलते थे अथवा खड़े होते थे। इस प्रकार सर्वथा दुर्बल होने के कारण उनकी ऐसी स्थिति हो गई थी कि किसी प्रकार की बातचीत करने में भी उनको ग्लानि होती थी। उनका शरीर अस्थि पंजर सा हो गया था अतः जब वे चलते थे तो अस्थियों में परस्पर रगड़ लगने के कारण चलती हुई कोयलों की गाड़ी के समान शब्द उत्पन्न
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