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________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - दीक्षा, तपाराधना और अनशन तहेव णिक्खंतो जहा मेहो एक्कारस अंगाई अहिजइ, गुणरयणं तवोकम्मं एवं जा चेव खंदगवत्तव्वया सा चेव चिंतणा आपुच्छणा, थेरेहिं सद्धिं विपुलं तहेव दुरूहइ। ___ कठिन शब्दार्थ - सामी - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, समोसढे - समवसृत हुएविराजमान हुए, जहा - जैसे, णिग्गओ - निकले, तहेव - उसी प्रकार, णिक्खंतो - दीक्षित हुए, एक्कारस अंगाई - ग्यारह अंगों का, अहिजइ - अध्ययन किया, गुणरयणं तवोकम्मगुणरत्न संवत्सर तप, खंदयस्स वत्तव्वया - स्कंदक मुनि की वक्तव्यता, चिंतणा - धर्म चिन्तना, आपुच्छणा - पूछना - आज्ञा लेना, थेरेहिं - स्थविरों के, सद्धिं - साथ, विपुलं - विपुल गिरि पर, दुरूहइ - चढ़ता है। भावार्थ - उस समय राजगृह के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। उन्हें वंदना करने के लिये राजा श्रेणिक निकला। मेघकुमार के समान जालिकुमार भी भगवान् के दर्शन-वंदन हेतु निकला। भगवान् का उपदेश सुन कर मेघकुमार के समान जालिकुमार ने भी दीक्षा अंगीकार की। क्रमशः ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। गुणरत्न संवत्सर नामक तप किया। शेष जिस प्रकार स्कंदक की वक्तव्यता है उसी प्रकार समझना चाहिये। उन्हें भी उसी प्रकार अध्यवसाय-धर्मचिंतन हुआ और भगवान् की आज्ञा लेकर स्थविर मुनियों के साथ विपुलगिरि पर चढ़े, अनशन स्वीकार किया। विवेचन - भव्यजनों का कल्याण करने वाले, भव्यजनों के मन को रञ्जन करने वाले गुणगम्भीर चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गुणशील चैत्य में पदार्पण को जान कर उनको वंदन नमस्कार करने के लिये राजा श्रेणिक अपने समस्त परिवार एवं चतुरंगिणी सेना के साथ निकला और भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ। जालिकुमार भी भगवान् की पर्युपासना करने हेतु पहुंचा। मेघकुमार के समान उनको भी भगवान् की अनुपम धर्म देशना सुन कर वैराग्य उत्पन्न हुआ। अपने माता पिता से आज्ञा प्राप्त कर अत्यंत उल्लास एवं उत्साह के साथ सर्व प्राणियों को अभय प्रदान करने वाली परम पद मोक्ष के प्रति एकलक्ष्य बनाने वाली निग्रंथ प्रव्रज्या धारण की और मेघकुमार की तरह सामायिक से लेकर आचाराङ्ग आदि ग्यारह अंग सूत्रों का ज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् जालिकुमार अनगार ने गुणरत्न संवत्सर नामक तप की आराधना की। यहां भगवती सूत्र में वर्णित खंदक अनगार. के तप की भलामण दे कर पाठ को संकुचित किया गया है। पाठकों के लाभार्थ भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ से वह पाठ यहां उद्धत किया जाता है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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