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________________ तृतीय वर्ग - द्वितीय अध्ययन. - अभिग्रह और विद्याध्ययन अंतिए मुंडे जाव पव्वइए तं चेव दिवसं अभिग्गहं तहेव जाव बिलमिव आहारेइ, संजमेणं जाव विहरइ, बहिया जणवयविहारं विहरइ, एक्कारस अंगाई अहिजड़, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। कठिन शब्दार्थ - जं चेव दिवसं - जिस दिन, मुंडे - मुण्डित हुआ, तं चेव दिवसं - उसी दिन, अभिग्गहं - अभिग्रह, बिलमिव - सर्प के बिल में प्रवेश के समान, आहारेइ - आहार करता है, जणवयविहारं - जनपद विहार, एक्कारसअंगाई - ग्यारह अंगों का, अहिजइअध्ययन किया, भावेमाणे - भावित करते हुए। भावार्थ - जिस दिन सुनक्षत्र अनगार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित यावत् प्रव्रजित हुए, उसी दिन धन्य अनगार के समान उन्होंने अभिग्रह धारण किया यावत् सर्प के बिल में घुसने के समान अनासक्त भाव से आहार करने लगे। संयम से विचरते हुए बाहर के देशों में विहार करने लगे। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तए णं से सुणक्खत्ते अणगारे ओरालेणं जहा खंदओ। भावार्थ - तदनन्तर वे सुनक्षत्र अनगार, स्कंदकमुनि के समान प्रधान तप करने लगे। विवेचन - जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने अभिग्रह धारण किया और पारणे के दिन आयंबिल किया उसी प्रकार की प्रतिज्ञा सुनक्षत्र अनगार ने की। जिस प्रकार भगवती सूत्र के द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में वर्णित स्कंदक सन्यासी ने भगवान् के पास दीक्षित होकर तप के द्वारा अपना शरीर कृश किया था ठीक उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया था। . तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, राया णिग्गओ, धम्मकहा, राया पडिगओ, परिसा पडिगया। . भावार्थ - उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसके बाहर गुणशील नामक उद्यान था। वहां श्रेणिक राजा था। किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे। परिषद् उन्हें वंदना करने के लिए निकली। राजा भी वंदन करने के लिए निकला। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। राजा अपने स्थान पर गया। परिषद् भी लौट गई। .. विवेचन - धन्य अनगार के अध्ययन के समान ही यहां श्रेणिक राजा ने भगवान् से दुष्कर क्रिया वाले अनगार का प्रश्न किया और उसका उत्तर आदि सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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