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________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र *********je aje aje aje ale aje aje aje aje aje je je je je je je aj jej je jajajaj je aje aje aje aje ajje s २ नहीं होने के कारण अक्षय है। गंगा सिन्धू नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है । यह द्वादशांग वाणी गणिपिटक के समान है अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गण को धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं । पिटक का अर्थ है - पेटी, या पिटारी अथवा मंजूषा। आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुत रत्नों की पेटी (मंजूषा) को 'गणि-पिटक' कहते हैं। ***** जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं। यथा- दो पैर, दो जंघा, दो उरू (साथल), दो पसवाडे, दो हाथ, एक गर्दन और एक मस्तक । इसी प्रकार श्रुत रूपी परम पुरुष आचारांग आदि बारह अंग होते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर हुए थे। उनकी नौ वाचनाएं हुई। अभी वर्तमान में उपलब्ध आगम पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं। सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है। इसलिए दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। वर्तमान में ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उसमें अनुत्तरोपपातिकदशा का नौवां नम्बर है। अनुत्तर नाम प्रधान और उपपात नाम जन्म अर्थात् जिनका सर्वश्रेष्ठ देवलोकों में जन्म हुआ है वे अनुत्तरोपपातिक ( अणुत्तरोववाइय) कहलाते हैं। इसी कारण यह सूत्र अनुत्तरोपपातिक सूत्र कहलाता है। इस सूत्र में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन है जो इस संसार में तप, संयम आदि शुभ क्रियाओं का आचरण कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं और वहां से चव कर उत्तम कुल में जन्म लेंगे और उसी भव में मोक्ष जायेंगे। इस सूत्र में कुल तीन वर्ग हैं। इन तीनों वर्गों कुल ३३ अध्ययन हैं। . अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग का शब्दार्थ इस प्रकार है 'अन्' - नहीं 'उत्तराणि - श्रेष्ठ, जिनसे ऐसे विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध नामक विमान 'उपपात' उत्पन्न होना, अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध नामक सर्वश्रेष्ठ विमानों में उत्पन्न होने वाले 'अनुत्तरोपपातिक' हैं। अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले जालिकुमार आदि दश अध्ययन वाला जिसका प्रथम वर्ग है, वह अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग सूत्र है। यहां दश शब्द, लक्षण से कथावस्तु का ज्ञान कराने वाला है क्योंकि भगवान् के द्वारा इस अंग का धर्मकथा रूप से उपदेश दिया गया है। इस नवमें अङ्ग के प्रथम वर्ग का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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