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________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र श्रेष्ठ प्रासाद में धन्य कुमार रहता था। किसी समय मैं पूर्वानुपूर्वी से ग्रामानुग्राम विचरता हुआ जहां काळंदी नगरी थी और जहां सहस्राम्रवन उद्यान था वहां पहुँचा और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए ठहरा हुआ था। परिषद् धर्मोपदेश सुनने के लिए निकली उसी प्रकार यावत् पूर्वानुसार धन्यकुमार ने मेरे पास प्रव्रज्या अंगीकार की यावत् बिल में सर्प प्रवेश करता है उसी प्रकार धन्यमुनि अनासक्त भाव से आहार करते हैं। उन धन्य अनगार पांव आदि शरीर का सब वर्णन यहां कहना चाहिये यावत् धन्य अनगार तप लक्ष्मी से उपशोभित होते हैं। ५४ je të इस कारण हे श्रेणिक ! मैं ऐसा कहता हूं कि इन चौदह हजार अनगारों में धन्य अनंगार महादुष्कर कार्य और महानिर्जरा करने वाले हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रेणिक महाराजा की जिज्ञासा का समाधान करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने चौदह हजार साधुओं में धन्य अनगार की मुख्यता बताई है। धन्य अनगार के उपरोक्त वर्णन से हमें तीन शिक्षाएं ग्रहण करनी चाहिये - १. जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने धन्य अनगार की कठोर साधना का यथातथ्य वर्णन करते हुए उनको उसके लिए धन्यवाद दिया और अपने चौदह हजार श्रमणों में श्रेष्ठ बताया उसी प्रकार हमें भी गुणवान् व्यक्तियों के यथातथ्य गुणों का प्रतिपादन करते हुए उनका धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिये । २. धन्य अनगार की तरह संसार के सुखों को त्यागने का फल यही है कि सम्यक् तप के द्वारा आत्मशुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिये । जो व्यक्ति साधु बन कर भी ममत्व में ही फंसा रहे उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि ऐसा करने वाला कहीं का नहीं रहता, उसका इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। साधु वृत्ति अंगीकार करने वालों के सामने धन्य अनगार ने कितना अच्छा उदाहरण रखा कि संसार के सारे सुखों का त्याग कर साधु M बाद उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप कर अपनी आत्मा को सुशोभित किया और आत्मशुद्धि की । ३. तीसरी शिक्षा यह मिलती है कि जिस व्यक्ति में वास्तविक जितने गुण हों उन्हीं का वर्णन करना चाहिये, झूठी प्रशंसा करके किसी को ऊंचा चढ़ानां निरर्थक है। असत्य गुणों का आरोपण करके की जाने वाली स्तुति प्रशंसनीय नहीं किंतु हास्यास्पद होती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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