SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र भावार्थ विशेषता यह है किं सोलह वर्ष तक चारित्र पर्याय पालन कर मृत्यु के समय काल कर चन्द्रादि विमानों से भी ऊपर, सौधर्म ईशान यावत् आरण अच्युत कल्प (विमान) को लांघ कर नवग्रैवेयक विमान के पाथडों से भी ऊपर अति दूर जा कर विजय नामक अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए । स्थविर भगवंत भगवान् की सेवा में १४ dje je je je aje aje aje aje aje aje al तणं ते थेरा भगवंतो जालिं अणगारं कालगयं जाणेत्ता परिणिव्वाणवत्तियं काउस्सगं करेंति, करित्ता पत्तचीवराई गेण्हंति, तहेव ओयरंति, जाव इमे से आयारभंडए । - कालधर्म निमित्त, कठिन शब्दार्थ- परिणिव्वाणवत्तियं परिनिर्वाण - प्रत्ययिक काउस्सग्गं कायोत्सर्ग, पत्तचीवराई - पात्र और वस्त्र, गेण्हंति - ग्रहण करते हैं, ओयरंति उतरते हैं, आयारभंडए - आचारभाण्ड ज्ञान आदि आचार पालने के भण्डोपकरण अर्थात् धर्म-साधन के उपयोगी उपकरण । - - भावार्थ तब उन स्थविर भगवंतों ने जालि अनगार को कालगत हुआ जान कर परिनिर्वाण - प्रत्ययिक - कालधर्म निमित्त किया जाने वाला कायोत्सर्ग किया फिर जालि अनगार के पात्र, वस्त्र आदि धर्मोपकरण ग्रहण किये और जिस प्रकार पर्वत पर चढ़े उसी प्रकार नीचे उतरे और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित होकर उन्होंने सविनय निवेदन किया कि हे भगवन्! ये जालि अनगार के आचारभाण्ड - धर्मोपकरण हैं। भविष्य विषयक पृच्छा - Jain Education International - 'भंते'! त्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी जालि णामं अणगारे पगइभद्दए, से णं जालि अणगारे कालगए कहिं गए? कहिं उववण्णे? कठिन शब्दार्थ - अंतेवासी कालगत हो कर, कहिं - कहां, गए • शिष्य, पगइभद्दए - प्रकृति से ही भद्र, कालगए गया है, उववण्णे - उत्पन्न हुआ है? भावार्थ - "हे भगवन् !” इस प्रकार संबोधन करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy