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________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन - विजय विमान में उपपात 'चउत्थभत्त' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ व्यवहार एवं प्रवृत्ति में नहीं लिया जाता है। चार टंक आहार छोड़ना ऐसा 'चउत्थभत्त' शब्द व्यवहार में अर्थ लेना आगमों से विपरीत है। अतः 'चउत्थभत्त' यह उपवास की संज्ञा है- सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक आठ पहर आहार छोड़ना 'उपवास' है एवं षष्ठभक्त, अष्ठभक्त आदि शब्द-बेला, तेला आदि की संज्ञा है। जालि अनगार ने गुणरत्न संवत्सर तप कर्म का सूत्रानुसार, कल्पानुसार, मार्गानुसार और तत्त्वानुसार समतापूर्वक स्पर्श किया, पालन किया, शोभित किया, पार किया, कीर्तित किया और भगवान् की आज्ञा की आराधना करके भगवान् के निकट आये। भगवान् को वन्दनानमस्कार किया और उपवास, बेला, तेला आदि तथा मासखमणादि विविध प्रकार के तप से अपनी आत्मा को पवित्र करते हुए विचरने लगे। जालि अनगार उस उदार विपुल, प्रदत्त, प्रग्रहीत, कल्याणकारी शिवरूप (क्षेमकारी) धन्यरूप, मंगलरूप, शोभनीय, उदग्र, उत्तरोत्तर उदात्त, उज्ज्वल, उत्तम और महान् प्रभावशाली तप से शुष्क हो गए (सूख गए), रूक्ष हो गए, मांस रहित हो गए। उनके शरीर की हड्डियां चर्म से ढकी रही, हड्डियाँ खडखड बजने लगी और नसें ऊपर उभर आई। __ स्कंदक ऋषि के समान चिंतना, पृच्छना तथा अनशनव्रत. के लिये भगवान् की आज्ञा प्राप्त करना आदि वर्णन जान लेना चाहिये। स्कंदक ऋषि के समान ही जालिकुमार अनगार स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर गए और अनशन स्वीकार किया। ... विजय विमान में उपपात - णवरं सोलसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उड चंदिम० सोहम्मीसाण जाव आरणच्चुए कप्पे णव य गेवेजे विमाणपत्थडे उद्धं दूरं वीईवइत्ता विजय विमाणे देवत्ताए उववण्णे। कठिन शब्दार्थ - णवरं - इतना विशेष है कि, सोलसवासाई - सोलह वर्षों तक, सामण्णपरियाणं - श्रामण्य पर्याय का, पाउणित्ता - पालन कर, कालमासे - मृत्यु के अवसर पर, कालं किच्चा - काल करके, उद्धं - ऊंचे, चंदिमं - चन्द्र से यावत्, सोहम्मीसाणसौधर्म-ईशान देवलोक, आरणच्चुए - आरण-अच्युत, कप्पे - कल्प-देवलोक; गेवेजे - ग्रैवेयक, विमाणपत्थडे - विमान-प्रस्तट, दूरं - दूर, वीईवइत्ता - व्यतिक्रम करके, देवत्ताएदेव रूप से, उववण्णे - उत्पन्न हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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