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________________ ५८ __ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र . *######################################################### # भगवान् से आज्ञा प्राप्त की। स्थविर मुनियों के साथ विपुलगिरि पर चढ़े। वहां एक मास की संलेखना (अनशन) करके नौ मास तक चारित्र पर्याय पाल कर यावत् काल के समय काल कर के ऊर्ध्व चन्द्रादि विमानों को लांघ कर यावत् नवग्रैवेयक के विमान पाथड़ों को लांघ कर और ऊर्ध्व जा कर सर्वार्थसिद्ध नाम के विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। तब स्थविरमुनि पूर्वोक्त रीति से कायोत्सर्ग करके धन्य मुनि के उपकरण आदि लेकर नीचे उतरे यावत् 'यह उनके भांडोपकरण' हैं - ऐसा कह कर वे भांडोपकरण भगवान् को सौंपे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की अंतिम समाधि का वर्णन किया गया है। ... एक समय रात्रि के अपर भाग में धर्मजागरणा करते हुए धन्य अनगार को स्कंदक ऋषि के समान विचार उत्पन्न हुए - "मैं इस उग्र तप से शुष्क, रूक्ष एवं रक्त मांस रहित हो गया हूं, केवल हड्डियों, नसों से तथा चर्म से बंधा हुआ शरीर रह गया है। मैं सर्वथा निर्बल एवं कृश हो गया हूं। आत्मशक्ति से ही गमन करता हूं, शरीर बल से नहीं। बोलने के समय भी अत्यंत कष्ट पाता हूं। काष्ट से भरी हुई गाड़ी के समान, सूखे हुए पत्तों से भरी हुई गाड़ी के समान, एरण्ड के सूखे काष्ठ से भरी हुई गाड़ी के समान चलने फिरने पर सारा शरीर किट-किट आवाज करता है अतः जब तक मेरे में स्वतः उठना बैठना आदि पुरुषकार पराक्रम है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचर रहे हैं तब तक मेरे लिये यही श्रेय है कि मैं प्रातःकाल सूर्योदय होने पर भगवान् को वंदन नमस्कार कर उनकी आज्ञा से आत्मकल्याण के लिये पुनः महाव्रतों को धारण कर आलोचना निंदा पूर्वक समस्त जीव राशि से क्षमायाचना करके बहुश्रुत स्थविरों के साथ विपुलाचल पर्वत पर जाऊं। वहां पृथ्वीशिलापट्ट की प्रतिलेखना प्रमार्जन कर तथा दर्भ संस्तारक पर बैठ कर संलेखना द्वारा सभी आहारों का त्याग कर जीवन मरण की अभिलाषा नहीं करता हुआ पादपोपगमन अनशन स्वीकार करूँ।" . ___ इस प्रकार विचार कर प्रातःकाल वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित हुए। वंदन नमस्कार कर अपने हृदयगत भावों को प्रकट किया। भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर स्थविर भगवंतों के साथ विपुलगिरि पर्वत पर गये और पादपोपगमन अनशन धारण किया। एक मास का अनशनव्रत पूर्ण कर नौ मास की दीक्षा पर्याय पाल कर समाधि मरण से काल कर चन्द्र से ऊंचे यावत् नवग्रैवेयक विमानों को उल्लंघ कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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