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________________ तृतीय वर्ग - शेष नौ अध्ययन - उपसंहार ६७ तारएणं सिवमयल-मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावत्तयं सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं अणुसरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते। .. ॥ अणुत्तरोववाइयदसाओ समत्ताओ॥ कठिन शब्दार्थ - आइगरेणं - धर्म की आदि करने वाले, तित्थगरेणं - चार तीर्थ की स्थापना करने वाले, सयंसंबुद्धेणं - अपने आप बोध को प्राप्त करने वाले, लोगणाहेणं - तीनों लोकों के नाथ, लोगप्पदीवेणं - लोक में प्रदीप के समान प्रकाश करने वाले, लोगपजोयगरेणं - लोक को सूर्य के समान प्रदीप्त करने वाले, अभयदएणं - अभय प्रदान करने वाले, सरणदएणं - शरण देने वाले, चक्खुदएणं - ज्ञान-चक्षु देने वाले, धम्मदएणं - श्रुत और चारित्र रूप धर्म देने वाले, मग्गदएणं - अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति मार्ग दिखाने वाले, धम्मदेसएणं - धर्मोपदेशक, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा - धर्म में प्रधान तथा चार गति का अंत करने वाले चक्रवर्ती के समान, अप्पडिहय - अप्रतिहत, वर - श्रेष्ठ, णाणदंसणधरेणं- ज्ञान, दर्शन धारण करने वाले, जिणेणं - राग और द्वेष को जीतने वाले, जावएणं - जिताने वाले, बुद्धणं - बुद्ध-जीवादि पदार्थों को जानने वाले, बोहएणं - औरों को बोध कराने वाले, मुक्केणं - मुक्त, मोयगेणं - अन्य को मुक्त कराने वाले, तिण्णेणं - संसार सागर को पार करने वाले, तारएणं - दूसरों को पार कराने वाले, सिवं - शिव-कल्याण रूप, अयलं - अचल-नित्य स्थिर, अरुयं - रोग रहित, अणंतं - अन्त रहित, अक्खयं - . अक्षय-कभी भी नाश न होने वाले, अव्वाबाहं - अव्याबाध-पीड़ा रहित, अपुणरावत्तयं - जहां से पुनः संसार में नहीं आना पड़े, सिद्धिगई - सिद्धि गति, णामधेयं - नाम वाले, . ठाणं - स्थान को, संपत्तेणं - प्राप्त हुए। भावार्थ - इस प्रकार हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो धर्म की आदि करने वाले हैं, तीर्थ की रचना करने वाले हैं, स्वयं बोध प्राप्त हैं, लोक के नाथ है, लोक में प्रदीप के समान है। लोक में उद्योत करने वाले हैं, अभय देने वाले हैं, शरण देने वाले हैं, ज्ञान रूपी नेत्र के देने वाले हैं, धर्म मार्ग के प्रदर्शक हैं, धर्म का उपदेश करने वाले हैं, धर्म रूपी चारों दिगन्त के चक्रवर्ती है, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन के धारक हैं, रागद्वेष के विजेता हैं, अन्य को रागद्वेष जिताने वाले हैं, बुद्ध है (स्वयं बोध प्राप्त है), दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं मुक्त हैं, दूसरों को मुक्त करने वाले हैं, स्वयं संसार से तिर चुके हैं, दूसरों को संसार से तिराने वाले हैं। जो कल्याणकारक, स्थिर, रोगरहित, अनन्त, अक्षय, बाधारहित और जहां से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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