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________________ ३६ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र **************************************************************** कठिन शब्दार्थ - अदीणे - अदीन-दीनता से रहित, अविमणे - अशून्य अर्थात् प्रसन्नचित्त से, अकलुसे - अकलुष - क्रोध आदि कलुषों से रहित, अविसाई - विषाद रहित, अपरितंतजोगी - अविश्रान्त अर्थात् निरन्तर समाधि युक्त, जयण - प्राप्त योगों में उद्यम करने वाला, घडण - अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये उद्यम करने वाला, जोग - मन आदि इन्द्रियों का संयम करने वाला, चरित्ते - चरित्र, अहापजत्तं - यथापर्याप्तं-वह जो कुछ भी प्राप्त, समुदाणं - समुदान-भिक्षा वृत्ति से प्राप्त, पडिगाहेइ - ग्रहण करता है, पडिदंसेइ - दिखाता है। भावार्थ - तब वह धन्य अनगार दीनतां से रहित, शून्य मन से रहित, कलुषता से रहित, विषाद (खेद) रहित, मन, वचन और काया के योग के श्रम से रहित, यतना प्राप्त योग के विषय में उद्यम और घटन-अप्राप्त योग के विषय में प्रयत्न की मुख्यता वाले योग एवं चारित्र से संपन्न होकर आवश्यकतानुसार सामुदानिक आहार ग्रहण करते हैं और काकंदी नगरी से बाहर निकलते हैं तथा गौतमस्वामी की भांति भगवान् महावीर स्वामी को आहार दिखाते हैं। तए णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए जाव अणज्झोववण्णे बिलमिव-पण्णगभूएणं अप्पाणेणं आहारं आहारेइ, आहारित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ___ कठिन शब्दार्थ - अब्भणुण्णाए समाणे - आज्ञा प्राप्त होने पर, अमुच्छिए - मूर्छा से रहित, अणज्झोववण्णे- अध्युपपन्न-राग और द्वेष से रहित होकर-अनासक्त भाव से, बिलमिवबिल के समान, पणगभूएणं - सर्प के समान मुख से अर्थात् जिस प्रकार सर्प केवल पार्श्वभागों के संस्पर्श से बिल में घुस जाता है उसी प्रकार, आहारेइ - आहार करता है, संजमेणसंयम से, तवसा - तप से, विहरइ - विचरण करता है। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त होने पर वह धन्य अनगार मूर्छा से रहित यावत् लुब्धता से रहित होकर बिल में घुसते हुए सर्प के समान अर्थात् आहार को स्वाद हेतु मुख में इधर-उधर न फिरा कर सीधा पेट में उतारते हुए आहार करते हैं और संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्रों में धन्य अनगार की प्रतिज्ञा-पालन करने की दृढ़ता का वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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