SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ या है . तृतीय वर्ग - प्रथम अध्ययन - धन्य अनगार की ज्ञानाराधना ३७ ****************************************************************** किया गया है। प्रतिज्ञा ग्रहण करने के बाद जब वे भिक्षा के लिये काकंदी नगरी में गये तो उनके अभिग्रह के अनुरूप कहीं आहार मिला तो पानी नहीं मिला और पानी मिला तो आहार नहीं मिला। किंतु इतना होने पर भी उन्होंने धैर्य का त्याग कर दीनता नहीं दिखाई। वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे और तदनुसार आत्मा को दृढ़ और निश्चल बना कर प्रसन्नचित्त से संयम मार्ग में विचरण करते रहे। संयम के लिये शरीर रक्षा ही उनका लक्ष्य था। वे लूखे-सूखे आहार को भी आसक्ति रहित करते थे। इसके लिए “बिलमिव पणग भूएणं' - विशेषण दिया है। टीकाकार ने इसका अर्थ किया है - “यथा. बिले पन्नगः पार्श्वसंस्पर्शेनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन संस्पृशन्निव राग विरहितत्वादाहारयति" ___अर्थात् - बिल में सर्प के प्रवेश के समान अर्थात् जिस प्रकार सर्प केवल पार्श्वभागों के संस्पर्श से बिल में घुस जाता है उसी प्रकार धन्य अनगार भी आहार को बिना आसक्ति के मुंह में डाल देते और तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। काकंदी से विहार तए णं से समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ काकंदीओ णयरीओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। कठिन शब्दार्थ - अण्णया - अन्यदा, कयाइ - कदाचित्, पडिणिक्खमइ - निकलते हैं, बहिया - बाहर, जणवयविहारं - जनपद विहार के लिये। भावार्थ - अन्यदा किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकंदी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से बाहर निकलते हैं और बाहर के जनपद (देश) में विचरते हैं। धन्य अनगार की ज्ञानाराधना तए णं से धण्णे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ, अहिजित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy