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________________ ३२ अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र **############### ################## ##*********** इस प्रकार भगवान् के उपदेशामृत को पान कर धन्यकुमार संसार से विरक्त हो गया और एक मात्र धर्म को ही शरणस्थान मान कर उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन किया हे भगवन्! मैं निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, रूचि करता हूं। हे भगवन्! आपका यह उपदेश सत्य है, सर्वांग सत्य है और सर्वथा सत्य है। हे भगवन्! यह निग्रंथ-प्रवचन संदेह रहित (असंदिग्ध) है। जो आप फरमा रहे हैं वह सर्वथा पूर्ण है, उसमें किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं है। अतः हे भगवन्! मैं अपनी माता भद्रा सार्थवाही से पूछ कर आपके पास दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूं। यह सुन कर प्रभो ने फरमाया - हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो किंतु धर्म कार्य में विलंब न करो।' तदनन्तर वह धन्यकुमार अपने घर जाकर अपनी माता भद्रा सार्थवाही से पूछता है जिस प्रकार जमाली ने अपनी माता से पूछा था। पूर्व कभी नहीं सुने हुए ऐसे धन्यकुमार के वैराग्यपूर्ण वचनों को सुन कर भद्रा माता मूर्च्छित हो गई। मूर्छा दूर होने पर माता और पुत्र के दीक्षा विषयक उक्ति-प्रयुक्ति रूप संवाद (उत्तर-प्रत्युत्तर) हुआ। जब वह महाबल के समान धन्यकुमार को घर में रखने के लिए समर्थ नहीं हुई तब भद्रा सार्थवाही विवश होकर उसको संसार निष्क्रमण की आज्ञा प्रदान करती है। जिस प्रकार थावच्चापुत्र की माता कृष्ण वासुदेव से दीक्षा महोत्सव के लिए पूछती है और छत्र, चामर आदि की याचना करती है उसी प्रकार माता भद्रा भी राजा जितशत्रु से पूछती है और छत्र चामर आदि की याचना करती है। जिस प्रकार कृष्णवासुदेव ने थावच्चा पुत्र का दीक्षा-महोत्सव किया उसी प्रकार जितशत्रु राजा ने स्वयं धन्यकुमार का दीक्षा-महोत्सव किया। इस प्रकार धन्यकुमार भगवान् महावीर स्वामी के समीप प्रव्रजित होकर ईर्या समिति युक्त अनगार होकर गुप्त ब्रह्मचारी हुए। धन्यकुमार का अभिग्रह तए णं से धण्णे अणगारे जं चेव दिवस मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी भावार्थ - धन्यकुमार जिस दिन मुण्डित होकर प्रव्रजित हुए उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जा कर वंदना नमस्कार करते हैं और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले - एवं खलु इच्छामि णं भंते! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे जावजीवाए 'छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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