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________________ [7] यान आदि दहेज में दिया। तदनन्तर धन्यकुमार अपने महल में बत्तीस कन्याओं के साथ मनुष्य सम्बन्धी पांचों प्रकार के विषय सुखों का उपभोग करते हुए विचरने लगे। ___उस काल और उस समय धर्म की आदि करने वाले तिरण तारण की जहाज श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए काकंदी नगरी के सहस्रामन उद्यान में पधारे, परिषद् भगवान के दर्शन के लिए निकली। कोणिक राजा के समान जितशत्रु राजा भी वंदन करने निकला। धन्यकुमार को नागरिकजनों के कोलाहल को सुनकर जब यह ज्ञात हुआ कि भगवान् यहां पधारे हैं, तो वे भी पैदल चल कर भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सुनकर धन्यकुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने भगवान् को कहा - 'मैं मेरी माता भद्रासार्थवाही की आज्ञा लेकर आपके श्री चरणों में दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ।' ____धन्यकुमार ने घर जाकर अपनी माता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। यह बात सुनते ही भद्रामाता मूर्छित हो गई। मूर्छा हट जाने पर माता ने दीक्षा का निषेध किया। पर वह जब इसमें समर्थ नहीं हुई, तो जिस प्रकार थावच्चापुत्र के दीक्षा उत्सव के लिए उसकी माता श्रीकृष्ण के पास गई। उसी प्रकार भद्रा सार्थवाही जितशत्रु राजा के पास अपने पुत्र का दीक्षा महोत्सव करने के लिए छत्र चामर आदि के लिए जितशत्रु राजा के पास गई। राजा जितशत्रु स्वयं ने धन्यकुमार का दीक्षा महोत्सव किया। इस प्रकार धन्यकुमार दीक्षा अंगीकार कर अनगार बन गये। धन्य मुनि दीक्षा लेते ही भगवान् की सेवा में उपस्थित होकर जीवन पर्यन्त बेले-बेले तप और उसका पारणा आयम्बिल तप से करने का प्रभु के श्री चरणों में निवेदन किया। प्रभु की आज्ञा मिलने पर उन्होंने तप आरम्भ कर दिया। आप बेले के पारणे में आयम्बिल में कैसा आहार करते थे उसके लिए आगम में शब्द आया है "उज्झित धर्म वाला" (जिसे सामान्यजन फेंकने योग्य मानते हैं) अर्थात् ऐसा आहार जिसे दरिद्र याचक तो दूर, कौए और कुत्ते भी जिसे खाने की इच्छा नहीं करे। ऐसे आहार को भी २१ बार धोवन में धोकर उस आहार और पानी को भी बिना आसक्ति के जिस तरह सर्प बिल में प्रवेश करता है, उसी रूप में ग्रहण करते हुए विचरने लगे। इस प्रकार के उत्कृष्ट तप की आराधना करने से आपका शरीर एकदम कृश हो गया। किन्तु उनकी आत्मा एक अलौकिक बल को प्राप्त हो रही थी। जिसके कारण उनके चहरे का तेज देदीप्यमान हो रहा था। नीरस आहार करने से उनके शरीर के अवययों की क्या स्थिति बनी, उनके एक-एक अवयव का उल्लेख इस अध्ययन में किया गया है। उनका पूरा शरीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004192
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size12 MB
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