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अनकान्त
अनेकान्त |
वर्ष १२
किरण ६
सम्पादक- जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
योगेश्वर शिव
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नवम्बर |
सन्
१६५३
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विषय-सूची १ समयसारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी- ५ कुरलका महत्व और जैनकत्तत्व-[श्रीविद्याभूषण ! . [सम्पादक
" १७७
पं. गोविन्दराय जैन शास्त्री " २०० २ ऋषबदेव और शिबजी
६ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' का संशोधन[ ले. बाबू कामताप्रसाद जैन ... १८५
[पं. दीपचन्द पाण्ड्या और रतनलाल ३ हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
___ कटारिया, केकड़ी ... २०१ : [परमानन्द जैन शास्त्री
१८८ ७ जिनशासन (प्रवचन) [कानजी स्वामी ... २११ ४ हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान
८ दुःसह भातृ-वियोग-[जुगलकिशोर मुख्तार टाइ०२ पेज (श्रीकुमारी किरणबाला जैन
श्री बाहुबलिजिन पूजाका अभिनन्दन टाइटिल ३ पेज
दुःसह भ्रात-वियोग !! श्रीमान् बाबू छोटेलालजी और बाबू, नन्दलालजी कलकत्ताके पत्रोंसे यह मालूम करके कि उनके सबसे छोटे भाई लालचन्दजीका गत २२ अक्टूबर को देहान्त होगया है, बड़ा ही दुःख तथा अफसोस हुआ !! भादों की अनन्तचतुर्दशी तक लालचन्दजी अच्छे राजी खुशी थे और उस दिन उन्होंने सब मन्दिरों के दर्शन भी किये थे ! पूर्णिमासे उन्हें कुछ ज्वर हुआ जो बढ़ता गया और आठ दिन उसीकी चिकित्सा होती रही। बादको पेटमें जोरसे दर्दै प्रारम्भ हुआ जो किसी उपायसे शान्त न होनेके कारण पेटको चीरनेकी नौबत आई और कलकत्तेके छह सबसे बड़े नामी डाक्टरों तथा सिविल सर्जनोंकी देख । रेखमें पेटका आपरेशन कार्य सम्पन्न हुआ और उससे यह जान पड़ा कि अग्निकी थेलीमें छिद्र होगये हैं | जिनका होना एक बहुत ही खतरमाक वस्तु है । सब डाक्टरोंने मिलकर बड़ी सावधानीके साथ जो कुछ चिकित्सा की जा सकती थी वह की और जैसे तैसे १६ दिन तक उसे मृत्यु मुखमें जानेसे रोके रक्खा परन्तु अन्तको कालकी भयङ्कर झपेटसे वह न बच सका और सब हाक्टरादि देखतेके देखते रह गये !!! इस दुःसह भ्रातृ वियोगसे दोनों भाइयोंको जो सदमा पहुँचा है उसे कौन कह सकता है ! अभी आपके बड़े भाई बाबु दीनानाथजीके वियोगको एक ही वर्ष होने पाया था और उससे पहले उनकी माताजी तथा दूसरे बड़े भाई गुलजारीलालजीका भी वियोग होगया. था। इस तरह दो तीन वर्षके भीतर आपको तीन भाइयों
और एक माताजीका वियोग सहन करने के लिये बाध्य होना पड़ा है, यह वड़ा ही कष्टकर है ! लालचन्दजीके पहली स्त्रीसे एक लड़का और एक लड़की (दोनों विवाहित) और दूसरी स्त्रीसे आठ बच्चे हैं, जिनकी बड़ी समस्या एवं चिन्ता दोनों भाइयोंके सामने खड़ी होगई है। इधर बाबू छोटेलालजी कई वर्षों चले जाते हैं. ये सदमे और चिन्ताएँ उनके स्वास्थ्यको और भी उभरने नहीं देतींदस दिनको खड़े होते है तो फिर गिर जाते है और महीनोंके लिये रोगशय्या पर सवार हो जाते हैं।। इसीसे जैन साहित्य और इतिहासकी सेवाके जो उनके बड़े मन्सूबे हैं वे यों ही टलते जाते हैं और कुछ भी कार्य हो नहीं पाता, यह उनके ही नहीं किन्तु समाजके भो दुर्भाग्य का विषय है जो ऐसे सेवाभावी सज्जनों पर संकट पर संकट उपस्थित होते चले जाते हैं। आरके इस ताजा संकटमें वीरसेवामन्दिर-परिवार अपनी संवेदना व्यक्त करता हा मृतात्माके लिये परलोकमें सुख-शान्तिकी भावना करता है और हृदयसे कामना करता है कि दोनों भाइयों और उनके तथा मृतात्माके सारे कुटुम्ब-परिवारको धैर्यकी प्राप्ति होवे ।
जुगलकिशोर, मुख्तार
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ॐ अहम
वस्तुतत्त्व-सघातक
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वाषिक मूल्य ५)
एक किरण का मूल्य ॥)
wallingan
PHARIRAHHHHHHHI
नीतिविरोधष्वंसीलोकन्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष १२ । • वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली
नवम्बर किरण ६
कार्तिक वीरनि० संवत् २४८०, वि. संवत् २०१० । १६५३ समयसारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी
[सम्पादकीय ] प्रास्ताविक
प्रत्यक्षमें भी चर्चा चलाई गई पर सफल मनोरथ नहीं हो श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी कृतियोंमें 'समयसार' एक सका। और इसलिये मैंने इस गाथाकी व्याख्याके लिये प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो आज कल अधिकतर पठन-पाठनका १००) रुपएके पुरस्कारकी एक योजना की और उसे अपने विषय बना हुश्रा है। इसकी १५ वी गाथा अपने प्रचलित
१००) रु. के पुरस्कारोंकी उस विज्ञप्तिमें अग्रस्थान दिया
जो गतवर्षके अनेकान्तकी संयुक्त किरण नं. ४-५ में रूपमें इस प्रकार है
प्रकाशित हुई है। गाथाकी व्याख्यामें जिन बातोंका स्पष्टीजो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्र अणएणविसेसं।
करण चाहा गया वे इस प्रकार हैं:अपदेससंतमझ पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥१५॥
(१) आत्माको प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य और अविशेषरूपसे इसमें बतलाया गया है कि 'जो प्रास्माको प्रबद्धस्पृष्ट देखने पर सारे जिनशासनको केसे देखा जाता है? अनन्य और अविशेष जैसे रूपमें देखता है वह सारे जिन- (२) उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस द्रष्टाके द्वारा शासनको देखता है। इस सामान्य कयन पर मुझे कुछ पूर्णतः देखा जाता है? शंकाएं उत्पन्न हुई और मैंने उन्हें कुछ प्राध्यास्मिक (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वाति विद्वानों एवं समयसार-रसिकोंके पास भेजकर उनका समा- और अकलंक जैसे महान प्राचार्योंके द्वारा प्रतिपादित धान चाहा अथवा इस गाथाका टीकादिके रूपमें ऐसा
अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या कुछ भिन्न है। स्पष्टीकरण मांगा जिससे उन शंकाओंका पूरा समाधान (9) यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा प्रतिपादित एवं होकर गाथाका विषय स्पष्ट और विशद हो जाए । परन्तु
संसूचित जिनशासनके साथ उसकी संगति कैसे कहींसे कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुभा। दो एक विद्वानोंसे बैठती है?
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अनेकान्त
किरण ६
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(१) इस गाथामें 'अपदेससंतमज्म' नामक जो पद पाया पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष.दो विशे..
जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेससुत्तमझ' पणोंको उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता रूपसे भी उल्लेखित करते हैं.उसे जिणशासणं'पदका था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया; तब क्या इसमें विशेषण बतलाया जाता है और उससे ग्यश्रत तथा कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट होनेकी जरूरत है। भावश्रतका भी अर्थ लगाया जाता है, यह सब कहाँ अथवा इस गाथाके अर्थमें उन दो विशेषणोंको ग्रहण तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ और करना युक्त नहीं है। सम्बन्ध क्या होना चाहिए।
विज्ञप्लिके अनुसार किसी भी बिद्वानने उक्त गाथाकी । श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थ विषय में मौन हैं प्याग्याके रूपमें अपना निवन्ध भेजनेकी कृपा नहीं की,
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें यह खेदका विषय है। हालांकि विज्ञप्तिमें यह भी निवेदन __ प्रयुक्त हुए शब्दोंको देखते हुए कुछ खटकता हुआ किया गया था कि 'जो सज्जन पुरस्कार लेनेकी स्थिति में
जान पड़ता है. यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थ में न हों अथवा उसे लेना न चाहेंगे उनके प्रति दूसरे प्रकारसे खटकने जैसी कोई बात नहीं है।
सम्मान व्यक्त किया जायगा। उन्हें अपने अपने इष्ट एवं (७) एक समाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंत- अधिकृत विषय पर लोकहितकी रष्टिसे लेख लिखनेका
मज्झ (अप्रवेशसान्तमध्यं है, जिसका अर्थ अनादि- प्रयत्न जरूर करना चाहिये।' इस निवेदनका प्रधान संकेत मध्यान्त होता है और यह 'अप्पाणं (बारमानं, उन स्यागी महानुभावों-शुल्लकों, ऐलकों.. मुनियों, पदका विशेषण है, न कि 'जिणसासणं' पदका। आत्मार्थिजनों तथा निःस्वार्थ-सेवापरायणोंकी ओर था जो शुद्धारमाके लिये स्वामी समन्तभद्रने रस्नकरण्ड (६) अध्यात्मविषयके रसिक हैं और सदा समयसारके अनुमें और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिं
चिन्तन एवं पठन-पाठनमें लगे रहते है। परन्तु किसी भी शिका)में 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया महानभावको उक्त निवेदनसे कोई प्रेरणा नहीं मिली है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्यने भी अथवा मिली हो तो उनकी लोकहितकी दृष्टि इस विषयमें • 'मध्याद्यन्तविभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका चरितार्थ नहीं हो सकी और इस तरह प्रायः छह महीनेका उल्लेख किया है। इन सब बातोंको भी ध्यानमें समय यों ही बीत गया। इसे मेरा तथा समाजका एक लेना चाहिये और तब यह निर्णय करना चाहिये कि प्रकारसे दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। क्या उक्त सुझाव ठीक है। यदि ठीक नहीं हैं तो
गत माघ मास (जनवरी सन् १९५३ में मेरा विचार क्यों?
वीरसेवामन्दिरके विद्वानों सहित श्री गोम्मटेश्वर बाहु() १४ वी गाथामें शद्धनयके विषयभूत आत्माके लिए बलीजीके मस्तकाभिषेकके अवसर पर दक्षिणकी यात्राका
पाँच विशेषणोंका प्रयोग किया गया है, जिनमेंसे हश्रा और उसके प्रोग्राममें खासतौरसे जाते वक्त सोनगढ़कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १९ वी गाथामें का नाम रक्खा गया और वहाँ कई दिन ठहरनेका विचार हा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणों- स्थिर किया गया; क्योंकि सोनगढ़ श्रीकानजीस्वामीमहा'नियत' और 'संयुक्त'को भी उपलक्षणके रूपमें राजकी कृपासे आध्यात्मिक प्रवृत्तियोंका गढ़ बना हुआ ग्रहण किया जाता हैतब यह प्रश्न पैदा होता है और समयसारके मध्ययन-अध्यापनका विद्यापीठ सममा कि यदि मूलकारका ऐसा ही प्राशय था तो फिर जाता है। वहाँ स्वामीजीसे मिलने तथा अनेक विषयोंके इस वीं गाथामें उन विशेषणोंको क्र भंग करके शंका-समाधानकी इच्छा बहुत दिनोंसे चली जाती थी,
रखनेकी क्या जरूरत थी? १४ वी गाथा * के जिनमें समयसारका उक्त विषय भी था, और इसीलिये 18 उक १४ वीं गाथा इस प्रकार है
कई दिन ठहरनेका विचार किया गया था। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुटुं प्रणरणयं णियदं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई जबकि १२ फर्वरीको मुबह प्रविसेसंमसंजुत्तं तं सुदण्यं वियाणीहि ॥१॥ स्वामीजीका अपने बोगोंके सम्मुख प्रथम प्रवचन प्रारम्भ
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किरण ६ ]
होने से पहले ही सभाभवनमें यह सूचना मिली कि 'आाजका प्रवचन समयसारकी १५ वीं गाथा पर मुख्तार साहबकी शंकाओं को लेकर उनके समाधान रूपम होगा ।' और इसलिये मैंने उस प्रवचनको बड़ी उत्सुकता के साथ गौरसे सुना, जो घंटा भरसे कुछ ऊपर समय तक होता रहा है। सुनने पर मुझे तथा मेरे साथियोंको ऐसा लगा कि इसमें मेरी शंकाओंका तो स्पर्श भी नहीं किया गया है— यों ही इधर-उधरकी बहुतसी बातें गाथा तथा गाथेतर-सम्बन्धी कही गई हैं। चुनाँचे सभाकी समाप्ति के बाद मैंने उसकी स्पष्ट विज्ञप्ति भी कर दी और कह दिया कि भाजके प्रवचनसे मेरी शंकायोंका तो कोई समाधान हुआ नहीं। इसके बाद एक दिन मैंने अलहदगीमें श्री कानजी स्वामी से कहा कि आप मेरी शंकाओंका समाधान लिखा दीजिए— और नहीं तो अपने किसी शिष्यको ही बोलकर लिखा दीजिए। इसके उत्तर में स्वामीजीने कहा कि 'न तो मैं स्वयं लिखता हूँ और न किसीको बोलकर लिखाता हूँ, जो कुछ कहना होता है उसे प्रवचनमें ही कह देता हूँ ।' इस उत्तरले मुझे बहुत बड़ी निराशा हुई, और इसीलिये यात्रा से वापिस आनेके बाद, अनेकान्तकी १२ वीं किरणके सम्पादकीयमें, ‘समयसारका अध्ययन और प्रवचन' नामसे मुझे एक नोट लिखनेके लिये बाध्य होना पड़ा, जो इस विषयके अपने पूर्वं तथा वर्तमान अनुभवोंको लेकर लिखा गया है और जिसके अन्त में यह भी प्रकट किया गया है कि
समयसारकी १. वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी
'निःसन्देह समयसार - जैसा प्रन्थ बहुत गहरे अध्ययन तथा मननकी अपेक्षा रखता है और तभी आत्म-विकास जैसे यथेष्ट फलको फल सकता है। हर एकका वह विषय नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननके अभाव में कोरी भावुकता में वहने बालों की गति बहुधा 'न इधरके रहे न उधरके रहे' वाली कहावतको चरितार्थ करती है अथवा वे उस एकान्तकी ओर ढल जाते हैं जिसे आध्यात्मिक एकांत कहते हैं और जो मिथ्यात्व में परिगणित किया गया है । इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित किया जायगा ।"
साथ ही उक्त किरणके उसी सम्पादकीय में एक नोटद्वारा, 'पुरस्कारोंकी योजना का नतीजा' व्यक्त करते हुए, यह इच्छा भी व्यक्त कर दी गई थी कि यदि क्रमसे दो विद्वान अब भी समयसारकी १२ वीं गाथाके सम्बन्धमें
[ १७६
अभीष्ट व्याख्यात्मक निबन्ध लिखनेके लिए अपनी आमादगी १५ जून तक जाहिर करेंगे तो उस विषय के पुरस्कारकी पुनरावृत्ति करदी जाएगी अर्थात् निबन्धके लिये यथोचित समय निर्धारित करके पत्रोंमें उसके पुरस्कार की पुनः घोषणा निकाल दी जाएगी। इतने पर भी किसी विद्वानने उक्त गाथाकी व्याख्या लिखनेके लिए अपनी श्रामादगी जाहिर नहीं की और न सोनगढ़से ही कोई आवाज आई । और इसलिये मुझे अवशिष्ट विषयोंके पुरस्कारोंकी योजनाको रद्द करके दूसरे नये पुरस्कारोंकी ही योजना करनी पड़ी, जो इसी वर्ष के अनेकान्त किरण नं. २ में प्रकाशित हो चुकी है। और इस तरह उक्त गाथाकी चर्चाको समाप्त कर देना पड़ा था ।
हाल में कानजीस्वामी के 'आत्मधर्म' पत्रका नया आश्विनका अंक नं० ७ दैवयोगसे मेरे हस्तगत हुआ, जिसमें 'जिनशासन' शीर्षकके साथ कानजोस्वामीका एक प्रवचन दिया हुआ है और उसके अन्त में लिखा है- " श्री समयसार गाथा १५ पर पूज्य स्वामीजीके प्रवचनसे ।" इस प्रवचनकी कोई तिथि - तारीख साथमें सूचित नहीं की गई, जिससे यह मालूम होता कि क्या यह प्रवचन वही है जो अपने लोगोंके सामने ता० १२ फरवरीको दिया गया था
* 'दैवयोगसे' लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि 'आत्मधर्म' अपने पास या वीरसेवामन्दिरमें आता नहीं है, पहले वह 'अनेकान्त' के परिवर्तन में आता था, जबसे न्यायचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी जैसोंके कुछ लेख स्वामीजीके मन्तब्योंके विरुद्ध अनेकान्तमें प्रकाशित हुए तबसे श्रात्मधर्मं अनेकान्तसे रुष्ट हो गया और उसने दर्शन देना ही बन्द कर दिया। पीछे किसी सज्जनने एक वर्ष के लिये उसे अपनी ओर से वीरसेवामन्दिर में भिजवाया था, उसकी अवधि समाप्त होते ही अब फिर उसका दर्शन देना बन्द है; जबकि अपना 'अनेकान्त' पत्र कई वर्ष से बराबर कानजीस्वामी की सेवामें भेंटस्वरूप जा रहा है। और इसलिए यह अंक अपने पास सोनगढ़के आत्मधर्म- आफिस से भेजा नहीं गया है—जबकि १५ वीं गाथाका विषय होनेसे भेजा जाना चाहिए था बल्कि दिल्ली में एक सज्जन के यहाँसे इत्तफाकिया देखनेको मिल गया है यदि यह अंक न मिलता तो इस लेख के लिखे जानेका अवसर ही प्राप्त न होता । इस अंकका मिलना ही प्रस्तुत लेखके लिखने में प्रधान निमित्त कारण है ।
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अनेकान्त
[किरण ६
अथवा उसके बाद दिया गया कोई दूसरा ही प्रवचन है। किया गया है । आशा है सहृदय विद्वज्जन दोनों लेखों पर यदि यह प्रवचन वही है जो १२ फरवरीको दिया गया था, गंभीरताके साथ विचार करनेकी कृपा करेंगे और जहाँ जिसकी सर्वाधिक संभावना है, तो कहना होगा कि वह कहीं मेरी भूल होगी उसे प्रेमके साथ मुझे सुझानेका भी उस प्रवचनका बहुत कुछ संस्कारित रूप है । संस्कारका कष्ट उठाएंगे, जिससे मैं उसको सुधारनेके लिये समर्थ कार्य स्वयं स्वामीजीके द्वारा हुआ है या उनके किसी हो सकूँ। शिष्य अथवा प्रधान शिष्य श्रीरामजी मानिकचन्दजी दोशी
गाथाके एक पदका ठीक रूप, अर्थ और संबंधवकीलके द्वारा, जोकि प्रारमधर्मके सम्पादक भी हैं, परन्तु वैह कार्य चाहे किसीके भी द्वारा सम्पन्न क्यों न हुआ हो;
उक्त गाथाका एक पद 'अपदेससंतमज्झं' इस रूप में इतना तो सुनिश्चित है कि यह बेखबद्ध हुआ प्रवचन
प्रचलित है। प्रवचनलेखमें गाथाको संस्कृतानुवादके रूपस्वामीजीको दिखला-सुनाकर और उनकी अनुमति प्राप्त
में प्रस्तुत करते हुए इस पदका संस्कृत रूप 'अपदेशसान्तकरके ही छापा गया है और इसलिए इसकी सारी जिम्मे
मध्यं' दिया है, जिससे यह जाना जाता है कि श्रीकानजी दारी उन्हींके ऊपर है। प्रस्तु। .
स्वामीको पदका यह प्रचलित रूप ही इष्ट तथा मान्य,
जयसेनाचार्यने संत (सान्त) के स्थान पर जो 'सुत्त' (सूत्र) इस लेखबद्ध संस्कारित प्रवचनसे भी मेरी शंकाओं
शब्द रक्खा है वह आपको स्वीकार नहीं है। अस्तु, इस का कोई समाधान नहीं होता। पाठमेंसे सात शंकाओंको
पदके रूप अर्थ और सम्बन्धके विषयमें जो विवाद है उसे तो इसमें प्रायः छुआ तक भी नहीं गया है सिर्फ दूसरी
शंका मं०५ में निबद्ध किया गया है । छठी शंका इस पदके शंकाका ऊपरा ऊपरी स्पर्श करते हुए जिनशासनके रूप
उस अर्थसे सम्बन्ध रखती है जिसे जयसेनाचार्यने 'अपदेसविषयमें जो कुछ कहा गया है वह बड़ा ही विचित्र तथा
सुत्तमझ' पद मानकर अपनी टीकामें प्रस्तुत किया है अविचारितरम्य जान पड़ता है। सारा प्रवचन श्राध्यात्मिक
और जो इस प्रकार हैएकान्तकी ओर ढला हुश्रा है, प्रायः एकान्त मिथ्यात्वको पुष्ट करता है और जिनशासनके स्वरूप-विषयमें लोगोंको
"अपदेमसुत्तममं अपदेशसूत्रमध्यं, अपदिश्यतेऽर्थो येन गुमराह करने वाला है । इसके सिवा जिनशासनके कुछ
स भवस्यपदेशशब्दे द्रव्यश्रतं मिति यावत् सूत्रपरिच्छित्तिमहान् स्तंभोंको भी इसमें “लौकिकजन" तथा 'अन्यमती"
रूपं भावतं ज्ञानसमय इति, तेन शब्दसमवेन वाच्यं जैसे शब्दोंसे याद किया है और प्रकारान्तरसे यहाँ तक
ज्ञानसमयेन परिच्छेद्यमपदेशसूत्रमध्यं भएयते इति ।' कह डाला है कि उन्होंने जिनशासनको ठीक समझा नहीं;
इसमें 'अपदेस' का अर्थ जो द्रव्यश्रत' और 'सुत्तं' यह सब असत्य जान पड़ता है। ऐसी स्थितिमें समयाभाव- का अर्थ 'भावश्रुत' किया गया है वह शब्द-अर्थकी दृष्टिके होते हुए भी मेरे लिए यह आवश्यक हो गया है कि
से एक खटकने वाली वस्तु है, जिसकी वह खटकन और मैं इस प्रवचनलेख पर अपने विचार व्यक्त करूं, जिससे
भी बढ़ जाती है जब यह देखने में प्राता है कि 'मध्य' सर्वसाधारण पर यह स्पष्ट हो जाय कि प्रस्तुत प्रवचन
शब्दका कोई अर्थ नहीं किया गया-उसे वैसे ही अर्थ: समयसारकी १५ वीं गाथा पर की जाने वाली उक्त समुच्चयके साथमें लपेट दिया गया है। शंकाओं का समाधान करने में कहाँ तक समर्थ है और जिन- कानजी स्वामीने यद्यपि 'सुत्त' शब्दकी जगह 'संत शासनका जो रूप इसमें निर्धारित किया गया है वह (सान्त)' शब्द स्वीकार किया है फिर भी इस पदका अर्थ कितना संगत अथवा सारवान् है। उसोके लिये प्रस्तुत वही द्रव्यश्रुत-भाश्रुतके रूपमें अपनाया है जिसे जयसेनालेखका यह सब प्रयत्न है और इसोसे कानजीस्वामीका चार्यने प्रस्तुत किया है, चुनांचे श्रापके यहाँसे समयसारका उक्त प्रवचनलेख भी अनेकान्तकी इस किरणमें अन्यत्र जो गुजरातो अनुवाद प्रकाशित हुआ है उसमें 'सान्त' का ज्योंका त्यों उद्धत किया जाता है जिससे सब सामग्री अर्थ 'ज्ञानरूपीभावत' दिया है, जो और भी खटकने विचारके लिये पाठकोंके सामने रहे और इतना तो प्रवचन- वाली वस्तु बन गया है। लेख पर रष्टि डालते ही सहज अनुभवमें ना जाए कि सातवीं शंका इस प्रचलित पदके स्थान पर जो दूसरा उसमें उक्त पाठ शंकानों से किनके समाधानका क्या प्रयत्न पद सुझाया गया है उससे सम्बन्ध रखती है । वह पद है
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किरण ६ ]
'अपवेससंतमज्झ' । इस संसूचित तथा दूसरे प्रचलित पदमें परस्पर बहुत ही थोड़ा सिर्फ एक अक्षरका अन्तर हैइसमें 'वे' अक्षर है तो उसमें 'दे', शेष सब ज्योंका त्यों है। लेखकों की कृपासे 'वे' का दे' लिखा जाना अथवा पन्नोंके चिपक जाने श्रादिके कारण 'वे' का कुछ अंश उड़कर उसका दे' बन जाना तथा पढ़ा जाना बहुत कुछ स्वाभा विक है। इस संसूचित पदका अर्थ 'अनादिमध्यान्त' होता है और यह विशेषण शुद्धात्माके लिये अनेक स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है, जिसके कुछ उदाहरण शंकामें नोट किये गये हैं और फिर पूछा गया है कि यदि पदका यह सुझाव ठीक नहीं है तो क्यों ? ऐसी स्थिति में चलित पद और तद्विषयक यह सुकाव विचारणीय जरूर हो जाता है । इस तरह तीन शंकाएँ प्रचलित पदके रूपादि विषयसे सम्बन्ध रखती हैं, जिन्हें प्रवचन लेखमें विचार के लिये छुश्रा तक भी नहीं गया - समाधानकी तो बात ही दूर है यह उस लेखको पढ़कर पाठक स्वयं जान सकते हैं। हो सकता है कि स्वामीजीके पास इन शंकाओं के समाधान विषय में कुछ कहने को न हो और इसीसे उन्होंने अपने उस वाक्य ( ' जो कुछ कहना होता हैं उसे प्रवचन में ही कह देता हूँ' ) के अनुसार कुछ न कहा हो । कुछ भी हो, पर इससे समयसारके अध्ययनकी गहराईको ठेप जरूर पहुँचती हैं।
समयासारकी १ वीं गाथा और श्रीकानजो स्वामी
यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि. गत वर्ष सागर में वर्णीजयन्तीके अवसर पर धौर इस वर्ष खास इन्दौर में यात्रा के अवसर पर मेरी इस पदके रूपादि-विषय में पं० वंशीधरजी न्यायलंकार से भी' जो कि जैन सिद्धान्तके एक बहुत बड़े ज्ञाता हैं, चर्चाआई थी, उन्होंने उक्त सुझावको ठीक बतलाते हुए कहा कि हम पहले से इस पदको 'अप्पा' पदका विशेषण मानते आए हैं, और तब इसके 'अपदेससुतमज्यं' (अप्रदेशसूत्रमध्यं ) रूपको लेकर एक दूसरे ही ढंगसे इसके 'अनादिमध्यान्त' अर्थकी कल्पना करते थे (जो कि एक क्लिष्ट कल्पना थी । अब इसके प्रस्तावित रूपसे अर्थ बहुत ही स्पष्ट तथा सरले (सहज बोधगम्य) हो गया है। साथ हीं वह भी बतलाया कि श्री जयसेनजीने इस पदका जो अर्य किया है और उसके द्वारा इसे 'जियसासयां' पदका विशेषण बनाया है वह ठीक तथा संगत नहीं है ।
[ १८१
गाथाके अर्थ में अतिरिक्त विशेषण
प्रस्तुत गाथाका अर्थ करते हुए उसमें श्रात्मा के लिये पूर्व गाथा प्रयुक्त 'नियत' और 'श्रसंयुक्त' विशेषणों को उपलक्षणसे ग्रहण किया जाता है, जो कि इस गाथा में प्रयुक्त नहीं हुए । इन्हीं अप्रयुक्त एवं अतिरिक्त विशेषणोंके ग्रहणसे शंका नं० ८ का सम्बन्ध है और उसमें यह जिज्ञासा प्रकट की गई है कि इन विशेषणोंका ग्रहण क्या मूलकारके आशियानुसार है ? यदि है तो फिर १४वीं गाथा में प्रयुक्त हुए पाँच विशेषणों को इस गाथामें क्रमभंग करके क्यों रखा गया है जब कि १४ वीं गाथा के पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी काम चल सकता था श्रर्थात् शेष दो विशेषणों 'अविशेष' और 'संयुक्त' को उपलक्षण द्वारा ग्रहण किया जा सकता था ? और यदि नहीं है तो फिर अर्थ में इनका ग्रहण करना ही श्रयुक्त है। इस शंकाको भी स्वामीजीने अपने प्रवचन में छूचा तक नहीं है, और इसलिए इसके विषय में भी वही बात कही जा सकती हैं, जो पिछली तीन शंकाओंके विषय में कही गई है अर्थात् इस शंका के विषय में भी उन्हें कुछ कहने के लिए नहीं होगा और इसीसे कुछ नहीं कहा गया ।
यहाँ पर एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि कुछ अर्सा हुआ मुझे एक पत्र रोहतक (पू पंजाब )
डाक द्वारा प्राप्त हुआ था जिस पर स्थान के साथ पत्र लिखने की तारीख तो है परन्तु बाहर भीतर कहीं से भी पत्र भेजने वाले सज्जनका कोई नाम उपलब्ध नहीं होता । संभवतः वे सज्जन बाबू नानकचन्दजी एडवोकेट जान पढ़ते हैं, जी कि समयसारकी स्वाध्यायके प्रेमी हैं और उस प्रेमी होनेके नाते ही पत्र में कुछ लिखनेके प्रयासका उल्लेख भी किया जाता है। इस पत्र में श्राठबीं शंकाके विषय में जो कुछ लिखा है उसे उपयोगी समझ कर यहाँ उदष्टंत किया जाता है
“ गाथा नं० १५ के पहले चरण में जो क्रम भंग हैं वह बहुत ही रहस्यमय हैं। यदि गाथा नं० १५ में गाथा नं० १४ का पूर्वार्ध दे दिया जाता तो दो विशेषण श्रविशेष' और 'संयुक्त' छूट जाते । ये विशेषण किसी दूसरे विशेषणके उपलक्षण नहीं हो सकते। क्रमभंग करने पर दो विशेषण 'नियत' और 'असंयुक्त' छूटे हैं सो इनमेंसे 'नियत' विशेषण तो 'अनन्य' का उपलक्षण है । जो वस्तु
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५८२]
अनेकान्त
किरण ६
अनन्य होती है वह 'नियत' अवश्य होती है इस कारण था वह कहा गया है । अब आगे उसीपर विचार अनभ्य कह देनेसे नियतपना आ ही गया । इस ही तरह किया जाता है। अविशेष कहनेसे असंयुक्तपना श्रा ही गया ! संयोग विशे- श्रीकानजी स्वामी महाराजका कहना है कि 'जो शुद्ध षोंमें ही हो सकता है सामान्यमें नहीं-सामान्य तो दो प्रात्मा वह जिनशासन है' यह आपके प्रवचनका मूल दुग्योंका सदा ही जुदा जुदा रहता है । संयुक्तपना किसी सूत्र है जिसे प्रवचन लेख में अग्रस्थान दिया गया है और द्रग्यके एक विशेषका दूसरे द्रव्यके विशेषसे एकत्व हो इसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि शुद्धामा जाना है। श्रीकुन्दकुन्दने क्रम भंग करके अपनी (निर्माण) और जिन शासनमें अभेद है-अर्थात् शुद्ध प्रात्मा कहो कलाका प्रदर्शन किया है और गाथा नं. १५ में भी शुद्ध- या जिनशासन दोनों एक ही हैं, नामका अन्तर है, जिननयके पूर्णस्वरूपको सुरक्षित रक्खा है। अविशेष और
शासन शुद्धामाका दूसरा नाम है। परन्तु शुद्धारमा तो असंयुक्तका इस प्रकारका सम्बन्ध अन्य तीन विशेषणोंसे
जिनशासनका एक विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन नहीं है जिस प्रकारका नियतका अनन्यसे असंयुक्तका
अथवा समग्र जिनशासन कैसे हो सकता है जिनशासनके अविशेषसे है।
और भी अनेकानेक विषय हैं, अशुद्धारमा भी उसका शुद्धात्मदर्शी और जिनशासन
विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म प्रकाश और काल नामके प्रस्तुत गाथामें प्रास्माको प्रबद्धस्पृष्टादि रूपसे देखने
शेष पाँच द्रव्य भी उसके विषय हैं. कालचक्रके अवसर्पिणी
उत्सर्पिणी श्रादि भेद-प्रभेदोंका तथा तीन लोककी रचना वाले शुद्धास्मदीको सम्पूर्ण जिनशासनका देखनेवाला
का विस्तृत वर्णन भी उसके अन्तर्गत है। वह सप्ततत्वों बतलाया है। इसीसे प्रथमादि चार शंकानोंका सम्बन्ध है। पहली शंका सारे जिनशासनको देखनेके प्रकार तरीके
नवपदार्थों, चौदह गुणास्थानों, चतुर्दशादि जीवसमासों,
षट्पर्याप्तियों, दस प्राणों, चार संज्ञाओं, चौदह मार्गणाओं अथवा दंग (पद्धति) आदिसे सन्बन्ध रखती है. दूसरीमें उस द्रष्टा द्वारा देखे जानेवाले जिनशासनका रूप पूछा गया
द्विविध चतुर्विध्यादि उपयोगों और नयों तथा प्रमाणोंकी है. तीसरीमें उस रूपविशिष्ट शासनका कुछ महान्
भारी चर्चाओं एवं प्ररूपणाओंको आत्मसात् किये अथवा प्राचार्यों-द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनके
अपने अंक (गोद) में लिए हुए स्थित है। साथ ही साथ भेद-भेदका प्रश्न है, और चौथीमे भेद न होनेकी
मोक्षमार्गकी देशना करता हुश्रा रत्मत्रयादि धर्म-विधानों, हालतमें यह सवाल किया गया है कि तब इन अचार्यों
कमार्गमथनों और कर्मप्रकृतियोंके कथनोपकथनसे भरपूर द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी
है। संक्षेपमें जिनशासन जिनवाणीका रूप है. जिसके
द्वादश अंग और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिए हुए संगति कैसे बैठती है। इनमें से पहली, तीसरी और चौथी इन तीन शंकाओंके विषयमें प्रवचन प्रायः मौन है। उसमें प्रसिद्ध हैं। ऐसी हालतमें जब कि शुखात्मा जिनशासनकी बार-बार इस बातको तो अनेक प्रकारसे दोहराया गया है
एकमात्र विषय भी नहीं है तब उसका जिनशासनके साथ कि जो शुद्धमात्माको देखता-जानता है वह समस्त - एकत्व केसे स्थापित किया जा सकता। उसमें तो जिनशासनको देखता-जानता है अथवा उसने उसे देख- गुणस्थाना तथा मागणाम
गुणस्थानों तथा मार्गणाओं मादिके स्थान तक भी नहीं हैं जान लिया; परन्तु उन विषेषणोंके रूपमें एद्वात्माको जैसा कि स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें प्रतिपादन देखने जानने मात्रसे सारे जिनशासनको कैसे देखता किया है । यहाँ विषयको ठीक हृदयङ्गम करने के लिए जानता है या देखने-जानने में समर्थ होता है अथवा
इतना और भी जान लेना चाहिए कि जिनशासनको जिनकिस प्रकारसे उसने उसे देख-जान लिया है, इसका
वाणी की तरह जिनप्रवचन जिनागम शास्त्र, जिनमत कहीं भी कोई स्पष्टीकरण नहीं है और न भेदाभेदकी
जिनदर्शन, जिमतीर्थ, जिनधर्म और जिनोपदेश भी कहा बानको उठाकर उसके विषयमें ही कुछ कहा गया
जाता है-जैनशासन, जैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके है सिर्फ दूसरी शंकाके विषयभूत जिनशासनके रूप- नामान्तर हैं, जिनका प्रयोग भी स्वामीजीने अपने प्रवचन विषयको लेकर उसके सम्बन्धमें जो कुछ कहना • देखो, समयसार गाथा १२ से १५। .
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[ किरण ६
में जिनशासनके स्थान पर उसी तरह किया है जिस तरह कि 'जिनवाबी' और 'भगवानकी वाणी' जैसे शब्दोंका किया है। इससे जिन भगवानने अपनी दिव्य वाणी में जो कुछ कहा है और जो तदनुकूल बने हुये सूत्रों शास्त्रों में निबद्ध है वह सब जिनशासनका अंग है इसे खूब ध्यान में रखना चाहिये ।
समयसारकी १वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी
मैं श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत समयसारके शब्दों में ही यह बतला देना चाहता हूँ कि श्रीजिनभगवानने अपनी वाणी में उन सब विषयोंकी देशना ( शास्ति ) की है जिनकी ऊपर कुछ सूचना दी गई है। वे शब्द गाथाके नम्बर सहित इस प्रकार हैं:
ववहारस्य दरीस मुवएसो वरदो जिरणवरेहिं । जीवा एदे सब्वे श्रज्मवसाणादश्रो भावा ॥ ४६ ॥ एमेत्र य ववहारो श्रवसायादि 'अण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते ••••••••••·|||| ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुणठाता भावादु केई च्छ्रियणयस्स ॥ ५६ ॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदु वराणां । जीवस्स एसवरणो जिणेहिं वबहार दो उत्तो ॥ ५६ ॥ एवं गंधर सफासरूवा देहो संठाण माइया जे य । सब्वे ववहारस्य यच्यिदरहू ववदिसन्ति ॥ ६० ॥ पज्जताऽपज्जता जे सुहमा वादरा य जे चेव । देहस्स जीवणा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥ जीवस्सेवं बंबो भणिदो खलुसन्नदर सीहिं ॥
६७ ॥ ७० ॥ वेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गियहृदि य । दा पुग्दवं वारणयस्य वत्तत्र्त्रं ॥ १०७ ।। जावे क्रम्मं चद्धं पुट्ठ ं चेदि ववहारणयभणिदं । सुद्रणयरस दु जीवे श्रबद्धपुट्ठे हवइ जीवो ॥१०१॥ सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छत्तं जियारेहिं परिकहियं । तरसोदय ज वो मिच्छादिट्टि त्तिणायन्वो ॥ १६१ ॥ वायरस पडिणिबद्ध अय्यायं जिरणवरेहिं परिकहियं । तस्सोदा जीवो भवयायी होदि गायग्दो ॥ १६२ ॥ चास्ति पडविद' प्रयाणं जिणबरेहिं परिकहियं । तरसोदय जीबो श्रवणायी होदि यायन्वो ॥ १६३ ॥ तेसिंहेऊ मविदा प्रभवसायाणि सव्वदर सीहिं । asgi भरवायं अविरयभावो य जोगो य ॥ १७० ॥ उदयविवागो विविहो कम्मायं वरिओ जिणवरेहिं ॥ ब्राडक्स्वयेण मरण जीवायं जिणवरेहिं परणतं ॥ २४८ ॥
[ १८३
आऊदयेण जीविद जीवो एवं भांति मन्वराहू | २५१ अज्मव सिदेश बंधो सत्ते मरेड मा व मारेड । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणस्स ॥२६२ वद समिदी गुत्ती सीलतवं जिरणवरेहिं परमत्तं । कुग्वंतो वि श्रभन्यो प्रणाली मिच्छदिट्टी दु ॥ २७३ एवं वत्रहारस्स दु वत्तवं दरिम समामेण । सुणु खिच्छयम्स वयणं परिणामकथं तु जं होई ॥ ३५३ ववहारियो पुण गओ दोयिण वि लिंगाणि भगइ मोक्खपडे पिच्छयरणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सम्बलिंगाणि ॥४४
इन सब उद्धरणोंसे तथा श्री कुन्दकुन्दाचार्यने अपने प्रवचनसार में जिनशासनके साररूप में जिन जिन बातोंका उल्लेख अथवा संसूचन किया है उन सबको देखने से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि एकमात्र शुद्धारमा जिन शासन नहीं है, जिनशासन निश्चय और व्यव हार दोनों नयों तथा उपनयोंके कथनको साथ साथ लिये हुए ज्ञान, ज्ञेय और चरितरूप सारे अर्थ समूहको उसकी सब अवस्थाओं सहित अपना विषय किये हुए I
यदि शुद्ध श्रात्मा को ही जिनशासन कहा जाय तो शुद्धात्मके जो पाँच विशेषण - श्रबद्ध स्पृष्ट. अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त — कहे जाते हैं वे जिनशासनको भी प्राप्त होंगे। परन्तु जिनशासनको श्रवम्पृष्टादिक रूपमें कैसे कहा जा सकता है ? जिनशासन जिनका शासन अथवा जिनसे समुद्धत शासन होनेके कारण जिसके साथ सम्बन्ध है जिस अर्थ समूहकी प्ररूपणाको वह लिये हुए है उसके साथ भी वह सम्बन्ध है, जिन शब्दों के द्वारा
समूहकी प्ररूपणा की जाती है उनके साथ भी उसका सम्बन्ध है ! इस तरह शब्द समय, अर्थसमय और ज्ञान समय तीनोंके साथ जब जिनशासनका सम्बन्ध है तब उसे अस्पृष्ट कैसे कहा जा सकता है। नहीं कहा जा सकता । और कर्मोंके बन्धनादि की तो उसके साथ कोई कल्पना ही नहीं बनती जिससे उस दृष्टिके द्वारा उसे श्रबद्धस्पृष्ट कहा जाय । 'अनम्य' विशेषण भी उसके साथ घाटत नहीं होता; क्योंकि वह शुद्धात्माको छोड़कर अशुद्धानाच art अनात्माओं को भी अपना विषय किये हुए है अथवा यों कहिए कि वह अन्यशासनों मिथ्यादर्शनों को भी अपने में स्थान दिये हुए हैं। श्री सिद्धसेनाचार्यके शब्दोंमें तो वह जिन प्रवचन 'मिथ्यादर्शनों का समूहमय' है, इतने पर भी भगवत्पदको प्राप्त है, अमृतका सार है और संवि सुखाभि
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१८४]
अनेकान्त
[किरण ६
गम्य है. जैसाकि सन्मतिसूत्रके अन्त में उसकी मंगलकामना तीसरे, विविध नयभंगोंको प्राश्रय देने और स्याद्वादके लिये प्रयुक्त किये गये निम्न चाक्यसे प्रकट है
न्यायके अपनाने के कारण जिनशासन सर्वथा एक रूपमें भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमियसारस्स।
स्थिर नहीं रहता-वह एक ही बातको कहीं कभी निश्चय जिरावयणस्स भवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥३७॥
नयकी दृष्टिसे कथन करता है तो उसीको अन्यत्र व्यवहार
नयकी दृष्टि से कथन करने में प्रवृत्त होता है और एक ही इस तरह जिनशासनका 'अनन्य' विशेषण नहीं
विषयको कहीं गौण रखता है तो दूसरी जगह उसीको बनता । 'नियत' विशेषण भी उसके साथ घटित नहीं होता,
मुख्य बमाकर आगे ले पाता है। एक ही वस्तु जो एक क्योंकि प्रथम तो सब जिनों-तीर्थकरोंका शासन फोनोग्राफ
नयदृष्टिसे विधिरूप है वही उसमें दूसरी नयदृष्टिसे निषेध के रिकार्ड की तरह एक ही अथवा एक ही प्रकारका नहीं
रूप भी है, इसी तरह जो निस्यरूप है वही अमस्यरूप है अर्थात् ऐसा नहीं कि जो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके
भी है और जो एक रूप है वही अनेकरूप भी हैं इसी मुंहसे खिरी वही जची-तुली दूसरे तीर्थकरके मुंहसे निकली हो-बल्कि अपने अपने समयकी परिस्थिति आवश्यकता
सापेक्ष नयवादमें उसकी समीचीनता संनिहित और सुर
क्षित रहती हैं, क्योंकि वस्तुतत्व अनेकान्तारमक हैं । इसीसे और प्रतिपाद्योंके अनुरोधवश कथनशैलीको विभिन्नताके
उसका व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ या असत्यार्थ नहीं साथ रहा कुछ कुछ दूसरे भेदको भी वह लिये हुए रहा है,
होता यदि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ होता तो श्री जिसका एक उदाहरण मूलाचारको निम्न गाथासे जाना
जिनेन्द्रदेव उसे अपनाकर उसके द्वारा मिथ्य: उपदेश क्यों जाता है
देते? जिस व्यवहारनयके उपदेश अथवा वक्तव्यसे सारे वावीसं तित्थयरा सामाइयं संजम उवदिसति ।
जैनशास्त्र अथवा जिनागमके अंग भरे पड़े हैं। वह तो नोवटावणियं पण भयव उसहो य वीरो य ।।७-३२॥ निश्यनयकी दृष्टिमें अभूतार्थ है, ज कि व्यवहारनंयकी
इसमें बतलाया है कि 'अजितसे लेकर पार्श्वनाथ दृष्टिमें वह शुद्धनय या निश्चय भी अभूतार्थ-असत्यार्थ पर्यन्त बाईस तीर्थंकरोंने 'सामायिक' समयका और ऋषभ- है जोकि वर्तमानमें अनेक प्रकारके सदृढ़ कर्म बन्धनोंसे देव तथा वीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' संयमका उपदेश बंधे हुए, नाना प्रकारकी परतन्त्रताओंको धारण किये हये, दिया है। अगली गाथाओं में उपदेशकी इस विभिन्नताके भवभ्रमण करते और दुःख उठाते हुए संसारी जीवात्माओंको कारयको, तात्कालिक परिस्थितियोंका कुछ उल्लेख करते सर्वथा कर्मबन्धनसे रहित अबद्धस्पृष्टादिके रूप में उल्लेखित हए, स्पष्ट किया गया है तथा और भी कुछ विभिन्नताओं करता है और उन्हें पूर्णज्ञान तथा प्रानन्दमय मला का सकारण सूचन किया गया है। इस विषयका विशेष जो कि प्रत्यक्षके विरुद्ध ही नहीं किन्त या परिचय प्राप्त करनेके लिये 'जैनतीर्थंकरोंका शासनभेद' आगममें प्रात्माके साथ कर्मबन्धनका बहत विस्तार नामक वह लेख देखना चाहिए जो प्रथमतः अगस्त सन् वर्णन है। जिसका कुछ सूचन कुन्दकुन्दके समयमाने १६१६ के 'जैन.हितैषी' पत्रमें और बादको 'जैनाचार्योंका
प्रन्थों में भी पाया जाता है। यहाँ प्रसंगवश इतना और शासनभेद' नामक ग्रन्थके परिशिष्टमें 'क-ख' में परिवर्ध
प्रकट किया जाता है कि शुद्ध या. निश्चयनयको द्रव्यार्थिक नादिके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसमे दिगम्बर तथा
और व्यवहारनयको पर्यार्थिकनय कहते हैं। ये दोनों श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अनेक प्रमाणोंका संकलन है मूलनय पृथक रह कर एक दूसरेके वक्तव्यको किस
दृष्टिसे देखते हैं और उसदृष्टि से देखते हुए सम्यग्दृष्टि है या साथ ही, यह भी प्रदर्शित किया गया है कि उन भेदोंके कारण मुनियोंके मूलगुणोंमें भी अन्तर रहा है।
मिथ्यदृष्टि, इसका अच्छा विवेचन श्री सिद्धसेनाचार्यने
अपने सन्मतिसूत्रकी निम्न गाथाओंमें किया हैदसरे जिनवाणीके जो द्वादश अंग हैं उनमें अन्तः कृश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्न व्याकरण और दृष्टिवाद
दव्वट्ठिय वत्तन्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स। वैसे कुछ अंग ऐसे हैं जो सब तीर्थंकरोंकी वाणीमें एक तह पज्जवत्थ अवत्थुमेव दध्वट्टियणयास ॥१०॥ ही रूपको लिये हुए नहीं हो सकते।
उपज्जति वियंतिय भावा पज्जवणयस्स ।
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ऋषभदेव और शिवजी
(ले० श्रीयुत बा० कामताप्रसाद जैन एम पार०ए०डी० एल) इत्थं प्रभाव ऋषभोऽवतार राकरस्य मे।
अतः उनके चरित्र में ऐसी बात तो नहीं पा सकती जिसे सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितस्तवनः ॥७॥ साधारणतः मानव समाजमें दुराचार माना जाता है।
-शिवपुराण
शिव देव हैं-आराध्य हैं, तो वह एक सामान्य लम्पटी 'शिवपुराण'के रचियता कहते हैं कि इस प्रकार ऋषभा
पुरुषकी तरह कामी नहीं हो सकते; इतने उग्र कामरत कि वतार होगा, जो मेरे लिए शंकर शिव हैं । वह सत्पुरुषोंके
उनके शिश्नको उत्तेजनाको शान्त रखनेके लिये पूर्ण कुम्भलिये सत्यपथ रूप नवमें अवतार और दीनबन्धु होंगे'
, से शीतल जल विन्दु हर समय टपकती रहे । इसके साथ इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि शिवजीका अलंकृतरूप मूलतः
कोई भी समझदार पुरुष यह नहीं मान सकता कि शिव ऋषभदेवजीके तेज और तपस्याका काव्यमयी वर्णन हैं।
मद्यपायी और भंगड़ी थे । वह इतने क्रोधी थे कि उन्होंने वैदिक ऋषियोंने ऋषभदेवकी उग्र तपस्याको मूर्तिमयी
भस्मासुरको नगरों सहित भस्म कर दिया और पार्वतीजीबनानेके लिए एवं उसे ही.अमृतत्व पा का कारण जताने
को संग लिये फिरे ! न वह इतने भयंकर थे कि विष खा के लिये उसे 'शिव' के नामसे पुकारा है। वेदोंमें 'शिव'
जाते ! उनके देवत्वके समक्ष ये बातें अशोभन दिखती हैं। नामके देवताका पता नहीं। यह अभाव इसीलिये कि
फिर एक अचम्भेकी बात है कि रेणुका मरकर जीवित ऋषभ अवैदिक श्रमणं परम्पराके अग्रणी थे। जब वैदिक
हई भी उनके प्रसंग कही गई है! इस बुद्धिवादीयुगमें पार्योंने श्रमणोपासक जातियोंसे मेलजोल पैदा किया तब
अन्धश्रद्धाके लिये कोई स्थान नहीं है। अतएव शिवजीके वैदिक परम्परामें नये नये देवता भी लिये गये । शिव,
विषयमें उक्त बातें जो कही गई हैं उनको शब्दार्थ में ग्रहण ब्रह्मा और विष्णु प्रतीकवादके द्योतक हैं। उपरान्त क्षत्रियों
नहीं किया जा सकता । उनसे शिवजीकी महत्तामें बट्टा के प्रभावमें अवतारबादको वैदिकपुरोहितोंने अपनाया.
भाता है। वे अलङ्कार हैं और अलङ्कारका घूघट उठाकर जिससे राम और कृष्णकी पूजा प्रचलित हुई । प्रतीकवादमें
हमें उनके मूल स्वरूपका दर्शन करना उचित है। ऋषभको शिवका रूप दिया गया। यहाँ हमें यही देखना लगभग दो हजार वर्ष पहलेका लिखा हा एक अभीष्ट है।
पत्रक Letter of Aristeas) विद्वानोंको मिला है। .' भ. ऋषभने कैलाशपर्वत पर उग्र तप तपा था। उसमें लिखा है प्राचीनकालमें एक चित्र शैली ( Sym. एक बार देव बालाओंने उनकी तपस्या भंग करनेके लिए bolic) की भाषा और लिपि ( Pictographicकामदेवके बाणोंका प्रयोग किया था; किन्तु ऋषभदेव language and script) का प्रचलन था। विद्वान अचल रहे और अन्त में उन्होंने कामको ही नष्ट कर दिया। ऋषि लोग उस शैलीका आश्रय लेकर अध्यात्मवादका उसके साथ ही मन-वचन काय दण्ड द्वारा उन्होंने त्रिग्र- निरूपण किया करते थे, जिसे वह अपने शिष्योंको बता न्थियोंका पूर्णनाश कर दिया कि वह 'निर्ग्रन्थ' हो गये। देते थे। गुरु शिष्य परम्परासे यह रहस्यवाद मौखिकपूर्व संचित कर्म जो शेष रहे थे, उनको भी उन्होंने भस्म प्रणाली द्वारा धारावाही चलता रहा। किन्तु एक समय कर दिया था। परिणाम स्वरूप वह कैवल्यपति सच्चि- पाया जब इस रहस्यको लोग भूल गये! 'मनर्थका हि दानन्द, जीवन्मुक्त परमात्मा शिव होकर चमके । उन्होंने मन्त्रः' की बात वैदिक टीकाकारोंको बरवस कहनी पड़ी! धर्मतीर्थ की स्थापना की-इसलिए 'वृष' (बैल) उनका बाइबिल में विद्वानोंको इसलिये धिक्कारा गया कि उन्होंने चिन्ह माना गया! संक्षेपमें ऋषभदेवजाकी तपस्याकी ज्ञानकी कुंजीको खो दिया। (Woe into ye laयह वालिका है।
wyers ye have lost the 'key of know'अब पाठक, आइये शिवजीके चरित्र चित्रण पर leodge) इस साक्षीसे शिवजीका अलंकृत रूप स्पष्ट रष्टिपात कीजिये। वह देव है-प्राप्त हैं और हैं पूज्य । भाषता है और 'शिवपुराण' के रचयिता उन्हें ऋषभा
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१८६ ]
बतार कहते हैं। वह इसलिये कि प्रापन आदिकाल से एक महान तपस्वी रहे और वैदिक ऋषियोंको उनकी तपस्याका बखान श्रलंकृतभाषा में करना श्रभीष्ट रहा । किन्तु उनके इस रहस्यपूर्ण स्वरूपको जानने वाले लोगोंका प्रभाव एक बहुत पहले जमानेसे हो गया | महाकवि कालीदासजी इस सत्यसे परिचित थे । इसलिये ही उन्होंने कहा कि 'शिवको यथार्थ रूपसे जानने वाले धीर अनुभव करने वाले मनुष्य कम हैं! ( न संति याथार्थविदः पिनाकिनः ) कुमारसम्भव १/७७) प्रतीकवादको समझ लेना हर एकका काम नहीं। प्रतीक अथवा अलंकारका सहारा इसलिये लिया गया प्रतीत होता है कि अध्यात्मिक सत्यकी ओर हर किसीकी रुचि नहीं होती । वैदिक क्रियाकांडमें व्यस्त लोगों में जिनको पात्र पाया उन्हीं को यह रहस्य बताया गया ।
अनेकान्त
जैन शास्त्रकारोंने स्पष्ट लिखा है कि ऋषभदेवने कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की थी। जिस समय वह तपस्यारत हो श्रात्मध्यानमें मग्न थे उस समय सुरांगनाथोंने उनके शोखकी परीक्षा ली थी; परन्तु ऋषभ तो वासनाको जीत चुके थे और समाधिमें लीन थे कामदेव के बेधक बाण उन्हें समाधिसे च्युत न कर सक— उल्टे उन्हें शरीर मन्दिर में स्थित परमात्मतत्वके दर्शन कराने में वह साधक बने। वैदिक परम्परामें स्पष्ट कहा गया है कि शिवने कामदेवको भस्म कर दिया था। पावतीने जब रवि
भको यों नष्ट होते देखा तो उन्होंने माना कि शिवकी पानेके लिये सुन्दरता पर्याप्त नहीं है। अतएव उन्होंने a द्वारा आत्मसमाधि लगाना निश्चित किया, क्य कि समाधिको पूर्णता ही शिवतत्वको प्राप्त कराती है । १ चित्र मित्र यदि ते नामन मनागपि मनो न विकारमार्गम्। कल्पांतकालमस्ता चलिताचलेन किं मंदराद्विशिखरं चलितं कदाचित् ॥५॥ -भक्तामर स्तोत्र
२ तथा समर्थ दहता मनोभवं, पिनाकिना भग्नमनोरथा सति । निनिंद रूपं हृदयेन पार्वती, प्रियेषु सौभाग्यफलाहि चारुता ॥ इयेष सा कमवन्ध्यरूपता, तपोभिरास्थाय समाधिमात्मनः ।
[करण ६
डा० वासुदेवशरणजी अग्रवालने 'पार्वती' को प्रतीक मानकर उसके रहस्यको स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा कि मानवशरीर में मेरुदडकी रचना सैंतीस पथके संयोग हुई है । 'पर्व' जिसमें हो उसीको 'पर्वत' कहते हैं । 'पर्वासिंति अस्निमिति पर्यंत' इसीलिये मेरुदण्ड पर्यंत हुआ और इसके भीतर रहने वाली शक्तिको उपचार से 'पर्वत राजपुत्री' या 'पाती' कहा जाता है। इस पातीपार्वतीकी स्वाभाविक गति शिवकी ओर है। पार्वती शिवको छोड़कर और किसीका वरण कर ही नहीं सकती। परन्तु पार्वतीको शिवकी सम्प्राप्ति तपके द्वारा ही हो सकती हैं, भोगके मार्ग से नहीं अर्थात् छद्मस्थावस्थामें ज 'शिवस्व' पानेके लिए उन्मुख थे उस समय काययोगकी साधनाके लिए उन्होंने तपका श्राश्रय लिया था। कायगुप्तिका पालन करके काथाजनित कमजोरीको जीतकर उन्होंने पर्वतीय (मेरुदण्ड में सुप्त ) शक्तिको जागृत किया था । इसीलिये अलंकृत भाषा में कहा जाता है कि शिवपार्वतीका विवाह हुआ था ! वस्तुतः वह उक्त प्रकारका एक रहस्यपूर्ण प्रतीक ही है।
1
शिवका मुख्य कर्म संहार माना है निस्सन्देद सांसा रिक प्रवृत्तिका संहार किये बिना निवृत्तिमार्गका पर्यटक नहीं बनाया जा सकता। ऋषभदेवने प्रवृत्तिका मार्ग त्यागा था और योगचर्याको अपनाया था। कर्म-प्रकृतियोंका सम्पूर्ण संहार करके ही वह शिवश्वको प्राप्त हुए थे। इसलिये उन्हें शिव कहना ठीक है।
शिवलिङ्ग पूजाका अर्थ अध्यात्मकरूपमें अमृतत्वको पा लेना है, किन्तु आज कोई भी इस मूढ़ार्थको नहीं समझता विषयी लोग उसमें वासनाकी छाया देखते हैं। वस्तुता वह अमृतानन्दका बोधक है। प्राचीन भारतीय मान्यतामें मस्तिष्कको कलश या कुम्भ कहा गया है। मस्तिष्क से निरन्तर मृतका चरण होता रहता है, जिसे योगीजन पीकर अध्यात्मिकतायें निमग्न हो जाते हैं और विष पी
अवाप्यते वा कथमन्वधाइयं
तथाविधं प्र म पतिश्च तादृशः ॥
३ डा० सा० ने कल्याण में 'शिवका स्वरूप' शीर्षक लेख प्रकट करके शिव प्रतीकका रहस्योद्घाटन किया है। उनके इस लेख आधारसे ही यह विवेचन किया ज्ञा रहा है, एद हम उनके आभारी है।
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किरण ६ .
ऋषभदेव और शिवजी
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पुरुष वासनामें फंसकर उसका दुरुपयोग कर डालते हैं। जिनमूर्तियोंके प्रासनमें त्रिशूल पर ही धर्मचक्र का चित्राइस उल्लेखसे ब्रह्मचर्यमय योगनिष्ठाकी पुष्टि होती है। ङ्कण किया गया है । अत: त्रिशूल सम्यग्दर्शन, ऋषभ पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर अमृत्वको पान करके ही ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय धर्मका प्रतीक है, जिसके द्वारा शिवरूप बने थे। रेणु वीर्यके दुरवस्थित होने पर उसको संसार-व्यालको छेद दिया जाता है। शिवके रूप में सौब्रह्मचर्य द्वारा हो उर्जस्वरेत करके जीवित बना दिया जाता का प्रयोग मिलता है। जैन परम्परामें सर्पका विशिष्ट है। ऋषभ अनन्तवीर्यके भोक्ता इसी प्रकार हुये थे। स्थान है। प्राचीनकाल में कुछ लोग उसे ज्ञानका प्रतीक रेणुकाके पुनर्जीवन पानेका रहस्य यही है।
मानते थे, जो अज्ञानके लिये कालरूप था। ऋषभदेव शिवके विषपानका रहस्य भी ऋषभकी योगचर्या में अनन्तज्ञानके भोक्ता थे जिसके फलस्वरूप ज्ञानगंगा छिपा हुआ है। निघण्ट्में जलके १०१ नाम दिए गए प्रवाहित हुई थी। शिवजीकी जटामें गंगाका वास माना हैं। उनमें विष और अमृत भी जलके पर्यायवाची शब्द ही जाता है। ऋषभमूतियों की यह एक विलक्षणता है हैं एवं वीर्य या रेत भी जलका ही रूप है। अतः वीर्यसे कि उनके कन्धों पर जटायें उत्कीर्ण की जाती हैं। शिवदेवी और प्रासरी अर्थात अमृत रूप और विषरूप कि वाहन बृष (बेल) ही ऋषभका भो चिह्न है। इस प्रकार प्रकट होती है। प्रात्मविनाशकी प्रवृत्ति प्रासरीशक्ति विष- 'शिवपुराण' के उक्त श्लोकमें जो ऋषभको शिव कहकर रूपकी द्य.तक है शिवने उसे जीत लिया था। पुण्य । उल्लेखित किया है. वह सार्थक है। भारतीय परम्परामें और पाप रति और परति सब पर ऋषभने विजय पायी यह विश्वास एक समय प्रर्चालत रहा प्रतीत होता है कि थी। अतः शिवका विषपानप्रसंग उनकी समवृत्तिका ऋषभ ही शिव हैं, क्योंकि साहित्यके साथ साथ शिवकी द्योतक है, जिसमें प्रासुरी वृत्ति पछाड़ दी गई थी। ऐसी मूतियाँ भी बनाई गई, जो बिल्कुल ऋषभ मूर्तिसे . भस्मासुरके त्रिपर शरीरके बाहर नहीं थे। वह मानव
मिलती-जुलती हैं। इन्दौर संग्रहालयमें इस प्रकारकी एक की मनवचन कायिक योगक्रियाएँ थी, जिन पर अधिकार
मूर्ति है। उसका चिन्न यहाँ मध्यभारत पुरातत्व विभागके पाये बिना कोई भी योगी जीवन्मुक्त परमात्मदशाको
सौजन्यसे उपस्थित किया जाता है। पाठक उसे देखकर नहीं पा सकता। ऋषभदेवने मनदण्ड, वचनदण्ड और
यह भ्रम न करें कि वह जैन मूर्ति है। यह शिवकी मूर्ति कायदण्ड द्वारा इन विपरियोंको जीत लिया था उनकी है, परन्तु उसका परिवेष जिनमूर्तिके अनुरूप है। यह अधोवृत्तिको नष्ट कर दिया था। इसीलिये उन्हें शिव होना कुछ विचित्र नहीं ? क्योंकि ऋषभको ही ब्राह्मणोंकहकर याद किया गया है।
शिव और जैनोंने पहला तीर्थकर माना था। ऋषभकी तरह ही शिव दिगम्बर कहे गये हैं। शिव
शुद्धलेश्यारूपी त्रिशूलसे मोहरिपुको नष्ट कर दिया है त्रिशूलधारी थे । भारतीय पुरातत्वमें त्रिशूल चिह्नका प्रयोग
'शुद्धलेश्यात्रिशूलेम मोहनीयरिपुर्हतः ।' पहले पहले जैनोंने किया था। ईस्वी पूर्व दूसरे शतादिके हाथीगुफा लेखमें वह मिलता है और कुशाणकालीन - २ 'बंगाल, बिहार, उड़ीसाके जैन स्मारक' और श्री रविषेणाचार्यने जिनेन्द्रके लिए लिखा था कि
श्रीमहावीरस्मृतिग्रन्थ पृष्ट २२७-२२६ में देखें।
अनेकान्तको २५१) रुपया प्रदान करने वाले संरक्षकों और १०१) रुपया देने वाले स्थायी सहायकों को सदा अनेकान्त भेंट स्वरूप दिया जाता है।
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हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(गत किरण पांच से आगे)
सोनगढ़ गुजरातमें एक छोटासा कस्वा है। पहले किन्तु हिन्दी भाषियोंके आने पर प्रवचन हिन्दीभाषामें सोनगढ़को कोई नहीं जानता था । परन्तु अब सोनगढ़के भी होने लगता है। प्रवचन सरल और वस्तुतत्त्वके नामसे भारतका प्रायः प्रत्येक जैन परिचित है। प्रस्तुत विवेचनको लिये हुए होता है हम लोगोंन प्रवचन सुने, और सोनगढ़ गुजरातके संत कानजी स्वामीके कारण जैनधर्मका यह अनुभव भी किया कि सोनगढ़में मुमुक्षुका समय व्यर्थ एक केन्द्रसा बन गया है। कानजी स्वामीके उपदेशोंसे नहीं जाता समयकी उपयोगिता के साथ अध्यात्मग्रन्थोंके प्रभावित होकर काठियावाड़ गुजरातके ५ हजार व्यक्ति- अध्ययन और तत्त्वचर्चाके सुननका भी यथेष्ट अवसर योने दिगम्बर धर्मको अपनाया है। इस प्रान्तमें जो कार्य मिलता है। मुख्तार भीजुगलकिशोरजीके साथ उपादान कानजी स्वामीने किया है वैसा कार्य अन्यने नहीं किया। और निमित्त-सम्बन्धी चर्चा भी चली, तत्सम्बन्धी अनेक सोनगढ़में दिगम्बर जैनियोंके ११० घर विद्यमान है जिनकी प्रश्नोत्तर भी हुए। परन्तु अन्तिम निश्चयात्मक कोई संख्या लगभग ४०० के करीब है। ये सभी कुटुम्ब यहाँ निष्कर्ष नहीं निकला। केवल इतना कहने मात्रसे कि मूलपर अपना संयमी जीवन विता कर कानजी स्वामीके उप- में भूल छ' काम नहीं चल सकता; क्योंकि वस्तुतत्त्वकी देशोंसे लाभ उठा रहे हैं। उनका रहन-सहन सादा और उत्पत्तिमें उपादान और निमित्त दोनों ही कारण हैं। आहारादि साविक है। सामायिक, स्वाध्याय, प्रवचन, भक्ति इनके विना किसी वस्तुको निष्पत्ति नहीं होती। प्राचार्थ और शंकासमाधान जैसे सत्कार्यों में समय व्यतीत होता समन्तभद्रने 'निमित्तमभ्यन्तरमूलेहेतोः' वाक्यमें वस्तुकी है। उक्त स्वामीजीके उपदेशोंमे वहाँकी जनता प्ररित उत्पतिमें दोनोंको मूलहेतु माना है। इतना ही नहीं है। इस कारण उनके हृदयमें जैनधर्मके प्रचारकी बलवती किन्तु उपादान और निमित्तको दण्यगत स्वभाव भी भावना जाग्रत है। वहाँसे अनेक प्राध्यात्मिक ग्रन्थोंका बतलाया है। यह सब होते हुए भी सोनगढ़गुजराती और हिन्दीमें प्रकाशन हुआ है । उन्हींकी में अध्यात्मचर्चाका प्रवाह बराबर चल रहा है । प्रेरणाके फलस्वरूप सोनगढ़ जैसे स्थानमें निम्न उपादान निमित्त के सम्बन्धमें जिज्ञासुभावसे वस्तुका निर्णय ८ संस्थाएं चल रही हैं। १ सीमंधरस्वामोका मन्दिर। कर द्विषयक गुत्थीका सुलझा लेना चाहिए । कानजी २ श्रीसीमंधरस्वामीका समोसरण, समांसरणमें कुन्द- स्वामी भी दोनोंकी सत्ताको स्वीकार तो करते ही हैं। कुन्दाचार्य हाथ जोड़े खड़े हुए हैं। ३ स्वाध्यायमन्दिर, ४ अतः इस सम्बन्धमें विशेष ऊहापोहके द्वारा विषयका कुदकुन्दमण्डप,-जिसमें ३२ अलमारियोंमें. जैनसाहित्य निर्णय करलेनेमें हो बुद्धिमत्ता है। क्योंकि एकान्त ही भरा पड़ा है। ५ श्राविकाशाला। ६ अतिथिग्रह, जिस- वस्तुतत्त्वकी सिद्धि में बाधक है, अतः एकान्त इ.ष्टको छोड़ में बाहरके भागन्तुक व्यक्तियोंके लिए भोजनादिकी व्यव- कर अनेकान्तको अपनाना ही श्रेयस्कर है। यहां हम लोग स्था है। • गोग्गीदेवी दि. जैन श्राविका ब्रह्मचर्याश्रम, दो-तीन दिन ठहरे, समय बड़ा ही आनन्दसे व्यतीत हुश्रा। जिसे सेठ तुलाराम वच्छराजजी कलकत्ताने डेढलाख रु० सोनगढ़से हम लोंग पालीताना (शत्रुजय ) की यात्रालगा कर बनवाया है। इसमें ब्रह्मचारिणी शान्ताबहिन को गये। अध्यापनादि कार्य कराती हैं। संगमर्मरका एक सुन्दर शत्रजयका दूसरा नाम पुण्डरीक कहा जाता है। मानस्तम्भ,-जिसकी प्रतिष्ठा अभी हाल में सम्पन्न हुई है। यह क्षेत्र दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें मान्य स्वाध्याय मन्दिरमें कानजी स्वामीका दो बार प्रवचन एक बाह्य तरोपाधि समग्नतेयं एक घंटे होता है। प्रवचनके समय प्रवचनम निर्दिष्ट ग्रन्थ कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । श्रोताओंके सामने होते है जिससे विषयको समझने में नेवाऽन्यथा मोक्ष विधिश्च पसां मुविधा होती है। प्रवचनकी श्रामभाषा गुजराती होती है तेनाऽभिवन्यस्त्वमृषिबुधानाम् ॥६॥ स्वयंभूस्तोत्र
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किरण 1
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
[१८६
है। युधिष्ठिर भीम और अर्जुन इन तीन पाण्डवोंने तथा लोग सोनगढ़ पाए। और वहांसे पुनः अहमदाबाद अनेक ऋषियोंने शत्र जयसे मुक्तिलाभ किया है। गुजरा- आकर पूर्णोक्त प्रेमचन्द्र मोतोचन्द्र दिल्जैन बोडिङ्ग हाउसतके राजा कुमारपालके समपमें इस क्षेत्र पर लाखों रुपए में ठहरे । अगले दिन संघ रेलवेसे तारगाके लिये रवाना लगाकर मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया गया था, तथा नूतन
हुआ। क्योंकि तारंगाका रास्ता रेतीला अधिक होनेसे मन्दिरोंका निर्माण भी हुआ है। कुछ मन्दिर विक्रमकी
लारीके फंस जानेका खतरा था। जयपुर वालोंको लारियाँ ११-१२ वीं शताब्दीके बने हुए हैं और शेष मन्दिर १५
धंस गई थीं, इस कारण उन्हें परेशानी उठानी पड़ी थी। वीं शताब्दीके बादमें बनाए गए हैं। यहाँ श्वेताम्बर सम्प्र
अत परेशानीसे बचनेके लिये रेलसे जाना ही श्रेयस्कर दायके सहस्र मन्दिर हैं। इन मन्दिरोंमें कई मन्दिर समझा गया । कलापूर्ण हैं। इनमें जो मूर्तियाँ विराजमान हैं उनकी उस इस क्षेत्रका तारंगा नाम कब और कैसे पड़ा? यह कुछ प्रशान्त मूर्ति कलामें सरागता एवं गृही जीवन जैसा रूप ज्ञात नहीं होता । इसकी प्राचीनताके द्योतक ऐतिहासिक नजर आने लगा है-वे चांदो-सोने आदिके अलं- प्रमाण भी मेरे देखने में नहीं पाए । मूर्तियाँ भी विशेष कारों और वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं-नेत्रों में कांच पुरानो नहीं हैं। निर्वाणकाण्डकी निम्न प्राकृत गाथामें जड़ा हुआ है। जिससे दर्शकके हृदयमें वह 'तारवरणयरे' पाठ पाया जाता है जिसका अर्थ 'ताराविकृत एवं अलंकृतरूप भयकर और प्रात्म दर्शनमें पुर' नामका नगर होना चाहिये । परन्तु उसका तारंगारूप बाधक तो है ही, साथही, मूर्तिकलाके उस प्राचीन उद्द- कैसे बन गया? यह अवश्य विचारणीय है। श्यके प्रतिकूल भी है जिसमें वीतरागताके पूजनका उपदेश वरदत्तोयवरगो सायरदत्तो य तारवरणयरे गणियडे] । प्रन्थों में निहित है। जैन मूर्तिकलाका यह विकृत रूप किसी
आहुट्ठ न कोड आ णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥ तरह भी उपादेय नहीं हो सकता, यह सब सम्प्रदायके न्यामोहका परिणाम जान पड़ता है।
- इस गाथामें तारापुरके निकटवर्ती स्थानसे वरांग,
सागरदत्त, वरदत्तादि साढ़े तीन करोड़ मुनियोंका निर्वाण उक्त श्वेताम्बर मन्दिरोंके मध्यमें एक छोटासा दिग
होना बतलाया गया है । इसमें जो यहाँ वरांग वरदत्त और म्बर मन्दिर विद्यमान है. जो पुरातन होते हुए भी उसमें
सागरदत्तका निर्वाण बतलाया, वह ठीक नहीं है; क्योंकि नूतन संस्कार किया गया प्रतीत होता है। परन्तु मूर्तियाँ
वरांग मोक्ष नहीं गया और वरदत्तका निर्वाण अवश्य १७ वीं शताब्दीके मध्यवर्ती समयकी प्रतिष्ठित हुई विरा
हुआ है पर वह प्रानर्तपुर देशके मणिमान पर्वत पर जमान हैं। मूलनायककी मूर्ति सं० १६४१ की है। एक मति सं० १६६१ की भी है और अवशिष्ट मूर्तियाँ सं० १८
हुआ है तारापुर या तारपुरमें नहीं। तथा सागरदत्तके ६३ की विद्यमान हैं। मूल नायककी मूर्ति विशाल और
निर्वाणका कोई उल्लेख अन्यत्र मेरे देखने में नहीं पाया।
वरांगके स्वर्गमें जानेका जो उल्लेख है-वह उसी मणिमान चित्ताकर्षक हैं। ये सब मूर्तियाँ हमडवंशी दिगम्बर जैनों
पर्वतसे शरीर छोड़कर सर्वार्थ सिद्धि गए। जैसाकि जटासिंहके द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं। मन्दिरका स्थान अच्छा है।
। नन्दीके ३१वें सर्गके वरांगचरितके निम्न पद्यसे प्रकट हैं। पूजनादिकी भी व्यवस्था है। पहाड़ पर चढ़नेके लिए नूतन सीढ़ियोंका निर्माण हो गया है जिससे यात्री विना
कृत्वा कषायोपशमं क्षणेन किसी कष्टके यात्रा कर सकता है।
ध्यानं, तथाद्य समवाप्य शुक्लम् । पहाड़के नीचे भी दर्शनीय श्वेताम्बर मन्दिर हैं उन
यथापशान्तिप्रभवं महात्मा सबमें सागरानन्द सूरि द्वारा निर्मित आगम मन्दिर है, स्थान समं प्राप वियोगकाले ॥१०५ ' जिसमें श्वेताम्बरोय भागम-सूत्र संगमर्मरके पाषाण ® महाभारत और भागवतमें पानत देशका उल्लेख पर उत्कीर्ण किए गये हैं। उनमें अंग उपांग भी खोदे गए किया गया है और वहाँ द्वारकाको श्रानत देशमें है। पालीतानामें ठहरनेके लिए धर्मशाला बनी हुई बतलाया है। है। जिसमें यात्रियोंको ठहरनेकी सुविधा है । द्वारकाके पासवर्ती देशको भी प्रानर्तदेश कहा गया है। शहरमें मी दिगम्बर मन्दिर हैं। पालीतानासे हम
देखो पद्मचन्द्र कोष पृ० ८७
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१६०]
कर्मावशेषप्रतिवद्ध हेतोः, सनि नापो महात्मा । विमुश्य देई मुनि (सुवि) शुद्धलेश्वः
- आराधयन्त (नान्त) भगवाञ्जगाम । यथैव वीर प्रविधाय राज्यं,
ताश्च संयम मांचचार ।
तथैव निर्वाण फज्ञावसानी (नं)
लोक (क) प्रतिष्ठां (प्रतस्थौ ) सुरलोकमुनि || विक्रमकी १२वीं शताब्दीके विद्वान भट्टारक उपय कीर्तिने अपनी 'निर्वाणमन्ति में निर्वाण स्थानोंका वर्णन करते हुए उक्त निर्वाणभूमिको तारापुर ही बतलाया सारंगा नहीं, जैसा कि उसके निम्न पचसे स्पष्ट है :'तारापुर बंद विरेंदु, आठ कोडकिड सिद्ध संगु "
अनेकान्त
इन सब समुल्लेखों परसे भी मेरे उस अभिमतकी पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में उक्त 'तार उर' या तारापुर तारंगा नहीं कहा जा सकता । निर्वाणकाण्डकी उस गाथाका क्या आधार है ? और उसकी पुष्टिमें क्या कुछ ऐति हासिक तथ्य है यह कुछ समझ में नहीं आया। यहां दो दिगम्बर मन्दिर है, जिनमेंसे एक सम्बत् १६३१ का बनाया हुआ है और दूसरा सं० १६२३ का। इससे पूर्व वहां कितने मन्दिर थे, यह वृत्त अभी अज्ञात है । तारंगासे अहमदाबाद वापिस आकर हम लोग 'पावागढ़ के लिए रवाना हुए। यहाँ आकर धर्मशाला में उदरने को थोड़ी सी जगह मिल गई। पावागढ़की अन्य धर्मशालाओं में जलतपुर आदि स्थानोंके यात्री ठहरे हुए थे।
|
पावागढ़ एक पहाड़ी स्थान है। यहाँ एक विशाल किल्ला है । और यह ऐतिहासिक स्थान भी रहा है। धर्मशाला के पास ही नीचे मन्दिर है । शिलालेखोंमें इसका 'पावकगढ़' नामसे उलेख मिलता है चन्दकविने पृथ्वीराजरासे' में पावकगढ़के राजा रामगौड़ तुधार या तोमरका उल्लेख किया है । सन् १३०० में उस पर चौहानराजपूतोंका अधि कार हो गया था, जो मेवाड़के रणथंभोर से सन् १२३३ या १३०० में भाग कर आये थे । सन् १४८४ में सुलतान महमूद बेगढ़ने चढ़ाई की, तब जयसिंहने वीरता दिखाई,
सन्धि हो गई। उसके बाद सन् १९३५ में मुगलबादशाह हुमायूने पावकगढ़ पर कब्जा कर लिया फिर * देखो अकबर नामा ।
किरण ६
सन् १०३० में कृष्णजीने उसे अपने अधिकार ले लिया। तथा सन् १६१ अथवा १७७० में सिंधियाने कब्जा कर लिया। उसके बाद सन् १८२० [वि० सं० १३१०] में अंग्रेज सरकार ने उसे अपने अधीनकर लिया। इस पहाड़ के नीचे उत्तर पूर्व की ओर राजशू चाँपानेर के खण्डहर देखने योग्य है और दक्षिणको घोर अनेक गुफाएँ हैं जिनमें कुछ समय पूर्व हिन्दु साधु रहा करते ये पहाड़ पर तीन मोजकी चढ़ाई और उतनी हो उतराई है।
पावागढ़ के नीचे चांपानेर नामका नगर बसा हुआ था जिसे अनहिल बाड़ाके वनराज के राज्य में ( ७४६ - ८०६ एक चंपा बनियेने बसाया था । सन् ५३६ तक यह गुजरातकी राजधानी रहा है ।
मं
पहाड़ के ऊपर कुछ मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं। छटवें फाटकके बाहरकी भीतमें डेढ़ फीट के करीब ऊंचाईको लिये हुए एक पद्मासन दिगम्बर जैन प्रतिमा उत्कीर्ण है जिसके नीचे सं० ११३४ अँकित हैं। ऊपर चढ़ने पर रास्तेसे बगल में नीचेको उत्तरके दो कमरे बने हुए है। उसके बाद ८३ सीढ़ी नीचे जाकर मांचीका दरवाजा श्राता है वहाँ एक छोटा सा मकान पहरे वालोंके ठहरनेके लिए बना हुआ प्रतीत होता है। ऊपर जीर्ण मन्दिरोंके जो भग्नावशेष पड़े हैं उन्हीं में से ३-४ मन्दिरोंका जीर्णोद्वार किया गया है। मन्दिरोंमें विशेष प्राचीन मूर्तियों मेरे द लोकनमें नहीं आईं। विक्रमकी १६ वी १७ वीं शताब्दी से पूर्वकी कोई मूर्ति उनमें नहीं हैं। एक मूर्ति भगवान पार्श्वनाथकी सं० १९४८ की भट्टारक जिनचन्द और जीवराजपापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान है उपलब्ध मूर्तियोंमें प्रायः सभी मूर्तियाँ मूलसंघ बलाकारगण के भट्टारक गुणकीतिक पहचर यि भ० यदिभूषण द्वारा प्रतिष्ठित स० १६४२, १६०२ और १६६२ की है। भगवान महावीरकी एक मूर्ति सं० १६६६ की भ० सुमतिकीर्तिके द्वारा प्रतिष्ठित मौजूद है ।
ऊपर के इस सब विवेचन परसे यह स्थान विक्रमकी ११ वी १२ वीं शताब्दीसे पुराना प्रतीत नहीं होता। हो सकता है कि वह इससे भी पुरातन रहा हो। यहाँ संभवतः डेढ़ सौ वर्षके करीबका बना हुआ काखीका एक मन्दिर भी है। सीढ़ियोंके दोनों ओर कुछ जैन मूर्तियां लगी हुई
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किरण ६ ]
हैं, जो जैनियोंके प्रमाद और धार्मिक शिथिलताकी द्योतक हैं। क्या जैन समाज अपनी गाढ़ निन्द्राको भंग कर पुरातत्व के संरक्षणकी ओर ध्यान देगा ?
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
निर्वाणकामें
इस पावागढ़ क्षेत्र से रामचन्द्रजीके दोनों पुत्र लव कुश तथा लाडदेशके राजा और पाँच • करोड़ मुनियोंके निर्वाणका पवित्र स्थान बतलाया गया है इस सम्बन्ध में भी अन्वेषणकी आवश्यकता है । पावागढ़ चल कर हम लोग उतरोद होते हुए दाहोद पहुँचे और दि० जैन बोर्डिंग हाउसमें हरे । वहाँ पवित हरिश्चन्दजीने हम लोगोंक ठहरने की व्यवस्था की नशियांजीका स्थान सुन्दर है वहाँ भगवान महावीर स्वामीकी एक मनोग्य एवं विशाल मूर्तिके दर्शन कर सिमें बड़ी हुई और सफरके उन सभी कष्टों को भूल गए जो सफर करते हुए उठाने पड़े।
दाहोद सन् १४१६ ( वि० स० १४७६ ) तक बाहरिया राजपूतोंके आधीन रहा। किन्तु सुलतान अहमदने । राजा डूंगरको परास्त कर दाहोद पर अधिकार कर लिया । सन् १९७३ में अकबर बादशाहके अधीन रहा । सन् १६१६ में शाहजहाँने औरङ्गजेब के जन्मके सन्मानमें कारवा सराय बनवाई थी। बादमें सन् १७५० वि०स० १८०० में सिधियाक कब्जे में बाया और सन् १८०३ में अंग्रेज सरकारने उसपर कब्जा कर लिया यह पहले अच्छा बड़ा नगर रहा है । दाहोद से सुबह चार बजेसे हमलोग बड़वानी [बावनगजा] को यात्रा के लिए चले। और ११ बजेके करीब हमलोग नरवदा नदीके घाट पर पहुँच गए। वहाँसे बारीको पार करने में २ घन्टेका बिलम्ब हुआ, बालाजी जमादारको शहरमें इजाजत लेने के लिए भेजा गया। उनके सरकारी भाज्ञालेनेसे पूर्व हम सब लोगोने नहा धोकर भोजन बनाना प्रारम्भ किया । लालाराजकृष्णनी और सेठ दामीलालजी की कारे नदीके उस पार पहुँच गई और वे बढ़वानीमें दि० जैन बोर्डिग हाउसमें ठहरे बाबूलाल जीके धाने पर लारीका सामान उतार कर पहले नावद्वार। सामान उस पार भेजा गया, बादमें बारीको गाय पर चढ़ा कर उसपार भेजा और एक नाव में हम सब लोग पार उतरे। इसके लिए हमें १० ) रामसुधा विषय जया वाडनरिदाय भट्टकोढीथी। पाचार गिरि सिहरे पिया गया यमो तैसि ॥१॥
।
१६१
० के करीब किराया देना पड़ा। वहांसे सामान मोटर पर चढ़या कर हम लोग ३ बजेके करीब बडवानी वर्डिंगहाउसमें ठहरे । यहाँ पं० क्षेमंकरजी न्यायतीर्थं योग्य विद्वान तथा मिलनसार व्यक्ति है। उन्होंने हम लोगोंके ठहरनेकी वस्था की तथा गेहूँ और अच्छे घीकी भी व्यवस्था करा दी बोर्डिंगहाउसमें छात्र अंग्रेजो और संस्कृतकी शिक्षा प्राप्त करते हैं। हम लोगोंने वहाँ २२ में कुछ खाने घण्टे पीनेका सामान खरीदा और विद्यार्थी ज्ञानचन्द्रादिको साथ में लेकर चूलगिरिकी यात्रार्थ चल दिए । वहाँ धर्मशाला के पास जारीको खड़ाकर हम लोग पढाइको यात्रा करनेके लिए चले। और हमने ता० २० फरवरी सन् १६५३ को शाम को सात बजे यात्रा प्रारम्भ की। और दो तीन घण्टे में सानन्द यात्रा सम्पन्न की । यात्रामें जितना आनन्द आया, वहाँ ठहरनेके लिये समय कम मिलने से कष्टभी पहुंचा; क्योंकि वहाँ अनेक पुरानी मूर्तियाँ मौजूद हैं। जो १० वीं ११ वीं शताब्दीकी जान पड़ती हैं। कितनी ही ऐतिहासिक सामग्री छन भिन्न पड़ी है परन्तु छिन्न क्षेत्र के प्रबन्धकोंने उसे संगृहीत करनेका प्रयत्न ही नहीं किया, केवल पैसा संचित करने और धर्मशाला वा मानस्तम्भादिके निर्माण में उसे खर्च कर देनेका ही प्रयत्न किया गया है । परन्तु क्षेत्र के इतिहासको खोज निकालने और पुरानी मूर्तियाँ तथा अवशेषोंका संग्रह कर उनके संरक्षणा करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया, जिसकी ओर क्षेत्र मुनीमका ध्यान आकर्षित किया गया।
चूलगिरिमें सबसे सबसे प्रधानमूर्ति आदिनाथजी की है जिसे बावनगजाजीके नामसे भी पुकारा जाता हैं । श्रब इस मूर्तिके ऊपर छतरी होनेके कारण मधुमक्खियोंका कुता लगा हुआ है। यह मूर्ति म४ फीटकी ऊँची बतलाई जाती है मूर्ति सुन्दर है, कलापूर्ण भी है परन्तु वह उतनी आकर्षक नहीं है जितनी श्रवणबेलगोलकी मूर्ति है ।
।
चूलगिरि बडवानीसे दक्षिण दिशा में है। बडवानी छोटीसी रियासत की राजधानी रही है । चूलगिरिमें ऊपर और नीचे पहाड़ पर कुल २२ मन्दिर है। निर्वाणकाण्ड में बडवानीसे दक्षिण दिशामें चूलगिरि - शिखर से इन्द्रजीत और कुम्भकर्णादि मुनियोंकि मुक्त होनेका उल्लेख है। जिससे इस क्षेत्रको भी निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है। दिगम्बर जैन डायरेक्टरी में लिखा है कि 'बडवानी' पुराना नाम नहीं है लगभग ४०० वर्ष पूर्व इसका नाम 'सिद्ध
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१६२ ]
अनेकान्त
[किरण ६
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नगर' था, पीछे किसी समय बडवानी हश्रा होगा। वहीं ३-संवत् १३८० वर्षे माघसुदि ७ सनी श्रीनांदरंगाराकी बावडीके लेखसे ऐसाही मालुम होता है। परन्तु संघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे मूलसंघे कुन्दकुन्दा यह कल्पना ठीक नहीं हैं। बडवानी यह नाम कमसे कम चार्यान्वये भट्टारक श्रीशुभकीर्तिदेवतशिष्य सीति छह-सातसौ वर्षसे कम पुराना प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "
___एक मूर्ति पर वि० सं० १२१२ का भी लेख अंकित वक्रमकी १५ वीं शताब्दीके भट्टारक उदयकीर्तिने अपनी
है उसमें शिल्पकारका नाम कुमारसिंह दिया हुआ है। निर्वाणभक्तिमें इसका उल्लेख किया है, और निर्वाण
सम्वत् १५१६ में काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके काण्डकी वह गाथा भी उक्त भक्ति से पुरानी जान पड़ती
भट्टारक श्रीकमलकीर्तिके शिष्य मंडलाचार्य रत्नकीर्तिने है। भक्तिका वह उल्लेख वाक्य इस प्रकार है:
मन्दिरका जीर्णोद्धार किया, और बड़े चैत्यालयके पार्श्वमें 'वडवाणीरावणतण उपुत्त हवंदमि इन्दांज मुांण पवित्तु दश जिनवसतिकाओंकी अारोपणा की। तथा इन्द्रजीतकी
चूलगिरिके शिखरस्थित मन्दिरोंका जीर्णोद्धार विक्रम- प्रतिमाकी प्रतिष्ठा भी श्रीसंघके लिये की गई। इस तरह की १३ वी १४ वीं और १६ वीं शताब्दीमें किया गया यह चूलगिरिक्षेत्रका पुरातन इतिवृत्त १० वीं शताब्दीके है। जिनमें दो. शिलालेख वि० सं० १२२३ के हैं और आस पास तक जा सकता है। पर यदि वहाँकी पुरातन एक मूर्ति लेख संवत् १३८० का है। शेष लेख समयकी ___ मामग्रीका संचय कर समस्त शिलालेख और मूर्तिलेखोंका कमीसे नोट करनेसे रह गए । दूसरे लेखसे मुनि रामचन्द्र- संकलन कर प्रकाशन कार्य किया जाय। तब उसके की गुरुपरम्पराका उल्लेख मिल जाता है जो लोकनन्दी- इतिहासका ठीक पता चल सकता है। . मुनिके प्रशिष्य और देवनन्दीमुनिके शिष्य थे। मुनि बडवानीसे उसी दिन रात्रिको १० बजे चलकर हम रामचन्द्र के शिष्य शुभकीतिका भी उल्लेख अन्यत्र पाया लोग १२ बजेके करीब ऊन (पावागिरि) पहुँचे। जाता है। वे लेख पूर्व और दक्षिण दिशाके निम्न यह क्षेत्र कुछ समय पहले प्रकाशमें आया है। इसे ऊन प्रकार हैं:
छथवा 'पावागिरि' कहा जाता है। इस क्षेत्रके 'पावागिरि'
होनेका कोई पुरातन उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। , 'यस्य स्वकुब्जतुषारकुन्द विशदाकीर्तिगुणानां निधिः श्रीमान भूपतिवृन्दवन्दितपदः श्रीरामचन्द्रो मनिः। यहाँ एक पुराना जैन मन्दिर ११वी १२वीं शताब्दीका
बना हुआ है, जो इस समयं खण्डित है, परन्तु उसमें विश्वक्ष्माभृद्ःखवैशेखर शिखा सञ्चारिणी हारिणी,
एक दो पुरानी मूर्तियाँ भी पड़ी हुई हैं । जिनकी तरफ इस उठ्यों शत्रु जितो जिनस्य भवनव्याजेन विस्फूति ।।
क्षेत्र कमेटीका कोई ध्यान नहीं है। यहाँ दो तीन नूतन रामचन्द्रमुनेः कीर्ति सङ्कीर्ण भुवनं किल ।
मन्दिरोंका निर्माण अवश्य हुअा है, जिनमें ३ मूर्तियां अनेकलोक सङ्घर्षाद् गता सवितुरन्तिकं ॥
परानी हैं। वे तीनों मूतियाँ एक ही तरहके पाषाणकी सम्बत् १२२३ वर्षे भाद्रपदवदि १४ शुक्रबार । बनी हुई हैं। उनमेंसे दोनों ओरकी मूर्तियोंके लेख मैंने ओनमो वीतरागाय ॥
उतार लिये थे, परन्तु तीसरी मूर्तिका अभिलेख कुछ आसीद्यःकलिकालकल्मषकरिध्वंसैककंठीरवो,
अंधेरा होनेसे स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता था इस कारण उतावनेक्ष्मापतिमौलिचुम्बितपदः यो लोकनन्दो मुनिः।
रनेसे रह गया था। वे दोनों मूर्तियाँ संभवनाथ और
कुथनाथकी हैं उनके मूर्ति लेख निम्नप्रकार हैं:शिष्यस्तस्य स सर्वसङ्घतिलक श्रीदेवनन्दो मुनिः।
"सम्बन् १२५८ श्रीबलात्कारगणपण्डित श्रीदेशधर्मज्ञानतपोनिधिर्यतिगुणग्रामः सुवाचां निधिः ।।१।।
नन्दी गुरुवर्यवरान्वये साधु धणपण्डित तरिशष्य साधुसो. वंशे तस्मिन् विपुलतपसां सम्मतः सत्वनिष्ठो।
लेण तस्य भार्या हर्षिणी तयोः सुत साधुगासूल सांतेण वृत्तिपापां विमलमनसा त्यज्यविद्याविवेकः।
प्रणमति मित्यम्" रम्यां हये सुरपतिजित: कारितं येन विद्या।
२ श्री सम्वत् १२६३ वर्षे ज्येष्ठमासे १३ गुरी साधु ति भुवने रामचन्द्रः स एषः॥२॥ पंडित रुणुयेनितं सुतसीलहारेण प्रणमति नित्यम्" संवत् १२२३ वर्ष।
तीसरी मूर्ति अजितनाथकी है।
शेषां कीर्तिीति और
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[ किरण ६
विद्वानोंको चाहिये कि इस क्षेत्र के सम्बन्ध में श्रन्वेषण किया जाय, जिससे यह मालूम हो सके कि यह स्थान कितना पुराना है और नाम क्या था, इसे पावागिरि नाम कब और क्यों दिया गया ? यह एक विचारणीय विषय है जिस पर श्रन्वेषक विद्वानोंके विचार करना आवश्यक है।
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
उनसे चल कर हम लोग धूलिया थाए । यहाँ से ला० राजकृष्ण जी और सेठ छदामीलालजी 'माँगीतुंगी' की tara लिये चले गए। हम लोग धूलिया से सीधे गजपंथ श्रये। और रात्रि में एक बजेके करीब धर्मशाला में पहुँचे । वहाँ जाकर देखा तो धर्मशाला दिल्ली और ललितपुर आदि के यात्रियोंसे ठसाठस भरी हुई थी । किसी तरहसे दहलान में बाहर सामान रख कर दो घंटे श्राराम किया । और प्रातःकाल नैमित्तिक क्रियाओंसे फारिग होकर यात्राको चले ।
यह गजपन्थ तीर्थं नूतन संस्कारित है । सम्भव है पुराना गजपन्थ नासिकके बिलकुल पास ही रहा हो, जहाँ यह वर्तमान में है वहाँ न हो। पर इसमें सन्देह नहीं कि गजपन्थ क्षेत्र पुराना है ।
गजपन्थ नामका एक पुराना तीर्थ क्षेत्र नासिक के समीप था । जिसका उल्लेख ईसाकी ५ वीं और विक्रमकी छठी शताब्दी के विद्वान श्राचार्यं पूज्यपाद (देवनन्दी) ने अपनी निर्वाणभक्तिके निम्न पथमें किया है:
* नासिक पुराना शहर है। यहाँ रामचन्द्रजीने बहुतसा काल व्यतीत किया था, कहा जाता है कि इसी स्थान पर रावणकी बहिन सूर्पणखाकी नासिका काटी गई थी इसीसे इसे नासिक कहा गया है । नासिक में ` ईस्वी सन्के दो सौ वर्ष बाद अंधभृत्य, बौद्ध, चालुक्य, राष्ट्रकूट चंडोर यादववंश और उसके बाद मुसलमानों, महाराष्ट्रों और अंग्रेजोंका राज्य कासन रहा है । यह हिन्दुओंका पुरातन तीर्थं है । -यह गोदावरी नदीके बायें किनारे पर बसा हुआ पंचवटीका मन्दिर भारतमें प्रसिद्ध ही है । दिगम्बर जैनग्रंथों में भी नासिकका उल्लेख निहित है । आचार्य शिवार्य की भगवती श्राराधनाको १३५8वींकी गाय नासिक्य या नासिक नगरका उल्लेख मिलता है। भगवती श्राराधना ग्रन्थ बहुत प्राचीन है ।
[ १६३
'सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । ये साधवो हतमलाः सुगतिं प्रयाताः स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥' पूज्यपादके कई सौ वर्ष बाद होने वाले श्रसग कविने जो नागनन्दी श्राचार्यके शिष्य थे । उन्होंने अपना 'महावीर चरित' शक संवत् ३१० ( वि० सं० १०४५ ) में बना कर समाप्त किया था । असगने अपने शान्तिनाथ पुराणके सातवें सर्गके निम्न पद्यमें गजपन्थ या 'गजध्वज' पर्वतका उल्लेख किया है x |
अपश्यन्नापरं किंचिद्रक्षोपायमथात्मनः । शैलं गजध्वजं प्रापन्नासिक्यनगरादहिः ॥ ६८ ॥ विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके विद्वान ब्रह्मक्षुतसागरने, जो भ० विद्यानन्दके शिष्य थे । अपने बोधप। हुड़की टीका में २७वें नम्बरकी गाथाकी टीका करते हुए- ऊर्जयन्त-शत्रु - जय - लाटदेश पावागिरि, श्राभीरदेश तुरंगीगिरि, नासिक्य नगरसमीपवतिगजध्वज - गजपन्थ सिद्धकूटगजध्वज या गजपन्थका उल्लेख किया है । इतनाही नहीं किन्तु ब्रह्मभ तसागरने 'पल्लविधानकथा' की अन्तिम प्रशस्ति में जिसे ईडर के राजा भानुभूपति, जो 'रावभाणजी' के नामसे प्रसिद्ध थे, यह राठौर राजा रावपूजाजीके प्रथम पुत्र और रावनारायणदासजीके भाई थे । सं० १५०२ में गुजरात के बादशाह मुहम्मदशाह द्वितीयने ईडर पर चढ़ाई की थी, तब उन्होंने पहाड़ों में भागकर अपनी रक्षा की, और बाद में सुलह कर ली थी । इन्होंने सं० १५०२ से १५५२ तक राज्य किया है। इनके मंत्री भोजराज हूमडबंशी थे, उनकी पत्नी विनयदेवी थीं । उनके चार पुत्र थे और एक पुत्री । ब्रह्मश्रुतसागरने संघ सहित इनके साथ गजपंथकी यात्रा की थी और सकलसंघको दान भी दिया था यथा
यात्रां चकार गजपन्थगिरौ स संघातत्तपो विदधती सुदृढव्रता सा सच्छान्तिकं गणसमर्थन महंदीश नित्यार्चनं सकलसंघ सदत्तदानं ॥४६॥ इससे स्पष्ट पता चलता है कि विक्रमकी १६ वीं शताब्दी में 'गजपन्थ' क्षेत्र विद्यमान था और उसकी यात्रार्थ X देखो, अनेकान्त वर्ष ७ - किरण ७-८ में पं० नाथूरामजी प्रेमीका लेख ।
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१६४]
अनेकान्त
[किरण ६
संघ जाते थे। अन्वेषण करने पर गजपन्थ यात्राके अन्य- श्रद्धेय पं. नाथूरामजी 'प्रमी' मालिक हिन्दी ग्रन्न भी समुल्लेख प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु विचारना तो यह रत्नाकर हीराबाग बम्बईसे भी मिले । उनसे चर्चा करके है कि वर्तमान गजपन्थ ही क्या परातन गजपन्थ है या बड़ी प्रसन्नता हुई। मुख्तार साहब कुछ अस्वस्थसे चल श्रद्धय पं. नाथूरामजी प्रेमीके लिखे अनुसार वि० सं० रहे थे, वे प्रेमीजीके यहाँ ही ठहरे । वहाँ उन्हें सर्व १६३६ में नागौरके भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्ति द्वारा मसरूल प्रकारकी सुविधा प्राप्त हुई। पूर्ण आराम मिलनेसे तकि. गाँवके पाटीलसे जमीन लेकर नूतन संस्कारित गजपन्थ है। यत ठीक हो गई। हम सब लोगोंने हैजेके टीके यहाँ ही हो सकता है कि गजपन्थ विशाल पहाड़ न रहा हो, पर वह लगवा लिये। क्योंकि श्रवण बेल्गोल में हैजेके टीकेके इसी स्थान पर था, यह अन्वेषणकी वस्तु है। इन सब उल्ले- विना प्रवेश निषिद्ध था। खोसे गजपन्थकी प्राचीनता और नासिकनगरके बाहिर उसकी बम्बईसे हम लोग ता. २६ की शामको ४ बजे अवस्थिति निश्चित थी। पर वह यही वर्तमान स्थान है।
पूनाके लिये रवाना हुए । बम्बईसे पूना जानेका मार्ग इस सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सम्बन्धमे बड़ा ही सुहावना प्रतीत होता है। पहाइकी चढ़ाई और अन्य प्रमाणोंके अन्वेषण करनेकी आवश्यकता है ।
पहाड़को काटकर बनाई हुई गुफाएँ देख कर चित्तमें गजपन्थकी वर्तमान पहाड़ी पर जो गुफाएं और मूतियाँ थीं
बड़ी प्रसन्नता हुई। यह प्रदेश इतना सुन्दर और मनउनका नूतन संस्कार कर देनेके कारण वहाँकी प्राचीनताका ।
मोहक है कि उसके देखनेके लिये चित्तमें बड़ी उत्कंठा स्पष्ट भान नहीं होता। वहाँकी प्राचीनताको कायम रखते
बनी रहती है। हम लोग रातको १ बजे पूना पहुँचे हुए जीर्णोद्धार होना चाहिये था। पहाब पर मूर्तिका दर्शन
और स्टेशनके पासकी धर्मशालामें ठहरे । यद्यपि
र भीदमें करना बड़ा कठिन होता है। और पहाड़ पर भी
पार पहाड़ पर भा पूनामें अनेक स्थल देखनेकी अभिलाषा थी । खासकर
. सावधानीसे चढ़ना होता है क्योंकि कितनी ही सीढ़ियाँ
"भण्डाकर रिसर्चइन्स्टिट्य ट" तो देखना ही था, अधिक ऊँचाईको लिये हुये बनाई गई हैं। हम लोगोंने
परन्तु समय की कमीके कारण उसका भी अवलोकन सानन्द यात्रा की।
नहीं कर सके। गजपन्थसे नासिक होते हुए पहाड़ी प्रदेशकी वह
पूनासे हम लोग रात्रिके ४ बजे कोल्हापुरके लिये मनोरम छटा देखते हुए हम लोग रात्रिको बजे ता० २२
रवाना हुए। और सतारा होते हए हम लोग रात्रि में फर्वरीको बम्बई पहुँचे और सेठ सुखानन्दजीकी धर्म कुभोज (बाहुबली) पहुँचे। शालामें चोथी मंजिल पर ठहरे।
कुम्भोज बड़ा ही रमणीक स्थान है। यहाँ अच्छी बम्बई एक अच्छा बन्दरगाह है और शहर देखने धर्मशाला बनी हुई है। साथ ही पासमें एक गुरुकुल है। योग्य है । बम्बईकी आबादी घनी है । सम्भवतः बम्बईकी गुरुकुल में स्वयं एक सुन्दर मन्दिर और भव्य रथ मौजूद आबादी इस समय पच्चीस तीस लाखके करीब होगी। है। बाहुबलीकी सुन्दर मूर्ति विराजमान है दर्शन पूजन बम्बई व्यापारका प्रसिद्ध केन्द्र है। यहाँसे ही प्राय. सब कर दर्शकका चित्त पाल्हादित हुए बिना नहीं रहता। वस्तुएँ भारतके प्रदेशों तथा अन्य देशोंमें भेजी जाती हैं। ऊपर पहाड़ पर भी अनेक मन्दिर हैं जिनमें पार्श्वनाथ हम लोगोंने बम्बई शहरके मन्दिरोंके दर्शन किये चौपाटीमें और महावीरकी मूर्तियाँ विराजमान हैं और सामने एक बने हुए सेठ माणिकचन्द्रजी और संघपति सेठ पूनमचन्द बड़ा भारी मानस्तम्भ है । बाहुबली स्वामीकी मूर्ति बड़ी घासीलालजीके चैत्यालयके दर्शन किये। ये दोनों ही ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है । दर्शन करके हृदयमें जो चैत्यालय सुन्दर हैं। भूलेश्वरके चन्द्रप्रभु चैत्यालयके श्रानन्द प्राप्त हुश्रा वह वचनातीत है। दर्शन पूजनादिसे दर्शन किये । रात्रि में वहाँ मेरा और बाबूलालजी जमादारका निपट कर मुनि श्रीसमन्तभद्रजीके दर्शन किये, उन्होंने भाषण हुश्रा । एक टैक्सी किरायेकी लेकर बन्दरगाह भी अभी कुछ समय हुए मुनि अवस्था धारण की थी। देखा । समयाभावके कारण अन्य जो स्थान देखना चाहते उन्होंने कहा कि मेरा यह नियम था कि ६० वर्षकी थे, वे नहीं देख पाये।
अवस्था हो जाने पर मुनिमुद्रा धारण करूंगा। मुनि
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[किरण ६
हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान
[१६५
समन्तभद्र प्रकृतितः भद्र और शान्त हैं। वे कर्तव्य कर्ममें साहबसे कहा आपने समाजकी खूब सेवा की है। और बड़े ही सावधान हैं।
उच्च कोटिका साहित्य भी निर्माण किया है। उसके साथ __इन्होंने अपनी क्षुल्लक अवस्थामें जैनसमाजमें गुरुकुल
संस्थाको अपना धन भी दे डाला है। अब आप अपनी पद्धति पर शिक्षाका प्रचार किया और कितने ही बी०ए०
ओर भी देखिये और कुछ प्रास्म साधनकी ओर अग्रसर एम. ए. शास्त्री, न्यायती योग्य कार्यकर्ता तैयार किये होनेका प्रयत्न कीजिये । मुख्तार साहबने मुनिजीसे कहा हैं। कारंजाका प्रसिद्ध ब्रह्मचर्याश्रम अापकी बदौलत ही कि मेरा प्रारमसाधनकी और लगनेका स्वयं विचार चल इतनी तरक्की करने में समर्थ हो सका है। अब भी यहाँ रहा है और उसमें यथाशक्ति प्रयत्न भी करूंगा। मुनिजी दो घण्टा स्वयं पढ़ाते हैं। गुरुकुलका स्थान सुन्दर गुरुकुलके एक सज्जनने मुख्तार साहबका चित्र भी है। व्यवस्था भी परछी है। प्राशा है गुरुकुल अपने को लिया और दूधका आहार भी दिया हम लोग यहांसे
और भी समुन्नत बनाने में समर्थ होगा। उनसे प्रात्म- २१ मील चल कर कोल्हापुरमें दि० जैन बोर्डिङ्ग कल्याण सम्बन्धि चर्चा हुई। मुनिजीने श्रीमुख्तार हाउस में ठहरे ।
क्रमशः परमानन्द जैन शास्त्री
हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान
(श्रीकुमारी किरणवाला जैन) किसी पदार्थके यथार्थ स्वरूपको अथवा सारको तत्त्व पीड़ित होने पर जब वह वैद्यके समीप जाता है तब वैद्य कहते हैं। उनकी संख्या सात है। उनमें जीव और अजीव रोगीको परीक्षा करनेके पश्चात् बताता है कि तू वास्तव में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व प्रधान हैं। इन्हीं दो तत्वोंके तो रोगी नहीं है, परन्तु निम्नकारणोंसे तेरे यह रोग उत्पन्न सम्मिश्रणसे अन्य तत्वोंकी सृष्टि होती है। संसारका सारा हुआ है। तेरा रोग ठीक हो सकता है परन्तु तुझे मेरे कहे परिणाम अथवा परिणमन इन्हीं दो तत्वोंका विस्तृत रूप अनुसार प्रयत्न करना पड़ेगा, तो इस रोगसे तेरा छुटकारा हो है। इन तत्वोंको जैनसिद्धान्तमें प्रात्माका हितकारी बताया सकेगा अन्यथा नहीं। वैद्य रोगीको रोगका निदान बतलानेगया है और उन्हीं को जैनसिद्धान्तमें 'तत्त्व संज्ञा'प्रदान की गई के बाद उससे छुटकारा पानेका उपाय बतलाता है, उसके है। श्रात्माका वास्तविक स्वभाव शुद्ध है; परन्तु वर्तमान बाद रोगकी वृद्धि न होने के लिये उपचार करता है। संसार अवस्था पाप पुण्य रूपी कर्मोंसे मलिन हो रही हैं। जिससे रोगी रोगसे मुक्त हो सके। . जैनतीर्थकरोंके कथनानुसार प्रत्माका पूर्ण हित, स्वाधीनता- इसी प्रकार मलिन वस्त्रको स्वच्छ करनेके पूर्व वस्त्र का नाम है जिसमें प्रारमाके स्वाभाविक सर्वगुण और उसकी मलिनताकै कारणा-का जानना आवश् विकसित हो जायें, तथा वह सर्व कर्मकी मलिनतासे मुक्त वस्त्र मलिन कैसे हुआ ? और किस प्रकार वस्त्रकी मलिहो जाय-छूट जाय । उस अन्तिम अवस्थाको प्राप्त होना ही नताको दूर किया जा सकता है जो व्यक्ति अनेक प्रयोगोंके मुकि है। पारमाके पूर्ण मुक्त हो जाने पर उसे परमात्मा द्वारा उसकी मलिनताको दूर करनेका प्रयत्न करता है वही कहा जाता है। उसीको सिद्ध भी कहते हैं । मुक्त अवस्था- मलिन वस्त्रको धोकर स्वच्छ कर लेता है। वस्तुकी मलिमें परमात्मा सदा अपने स्वभावमें मग्न होकर चिदानन्दका नताको दूर करनेका यही क्रम है अनेक प्रयोगोंके द्वारा उसे भोग करता है। जैनाचार्यों के अनुसार इसी मुख्य उद्देश्य- शुद्ध एवं स्वच्छ बनाया जासकता है। इसी प्रकार जैनाका निष्पक्षभावसे विचार ही तत्वज्ञान है। इन तत्त्वों द्वारा चार्योंने आत्माको शुद्ध करनेकी प्रक्रिया, खानसे निकाले बताया गया है कि यह मारमा वास्तव में तो शुद्ध है, परन्तु गए सुवर्णपाषाणको घर्षण छेदन ताडन-तापनादि प्रयोगोंके बहसमस्त कर्मकालिमाके सर्वथा वियोगसे होता है इसका द्वारा अन्तर्वाझमलसे शुद्ध करनेके समान बतलाई है। कायों में विस्तृत विवेचन किया गया है जैसे रोगी रोगसे उसी तरह भात्माको भी पन्तबझिमनसे मुक करनेके
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१९६]
अनेकान्त
[किरण ६
लिये विविध तपों और ध्यानादिके अभ्यास द्वारा शुद्ध प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबनानेका उपाय बतलाया गया है । अस्तु आत्माको ___बंध । बन्धके कारणोंको भावबन्ध कहते हैं । कमौके बंधनशुद्ध करनेके लिए इन तत्वोंका ज्ञान प्राप्त करना भी को द्रव्यबन्ध कहते हैं। जब कर्म बंधता है तब जैसी मन अत्यन्त आवश्यक है। इनके जान लेनेसे श्रात्मशुद्धि का वचन कायकी प्रवृत्ति होती है उसीके अनुसार कर्मपिण्डों ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
के बंधनका स्वभाव पड़ जाता है। इसीको प्रकृतिबंध कहते जैनसिद्धान्तमें सात तत्त्वोंके नाम इस प्रकार बतलाये
हैं । कर्मपिण्डोंकी नियत संख्याको प्रदेशबंध कहते हैं। गये हैं:-१ जीव, २. अजीव, ३. प्रास्रव, ४. बंध,
यह दोनों प्रकृति और प्रदेशबंध योगोंसे होते हैं, कर्मपिंड १. संवर, ६. निर्जरा और ७ मोक्ष । इनमें पाप और
जब बंधता है तब उसमें कालकी मर्यादा पढ़ती है इसी पुण्यको जोड़ देनेसे ६ पदार्थ हो जाते हैं।
कालकी मर्यादाको स्थितिबंध कहते हैं। कषायोंकी तीव्रता
या मन्दताके कारण कर्मोंको स्थिति तीव्र या मन्द होती जीव-जो अपने चैतन्य लक्षण रखते हुये शाश्वत रहे
है। इसी समय उन कर्मपिंडोंमें तीव्र या मन्द फल दानउसे जीवकी संज्ञा दी जाती है । अथवा ज्ञान, दर्शन और चेतनामय पदार्थको आत्मा या जीव कहते हैं, जो
की शक्ति पड़ती है उसे अनुभागबंध कहते हैं । यह बंध
भी कषायके अनुसार तीव्र या मन्द होता है। स्थितिबंध प्रत्येक प्राणीमें विद्यमान है वह सुख दुखका अनुभव
और अनुभागबंध कषायोंके कारण होते हैं। .. करता है। अजीव-जिसमें जीवका वह चैतन्य लक्षण न हो
संवर-पाश्रवका विरोधी संवर है। कर्मपिंडोंके उसे अजीव या जड़ कहते हैं। अजीव पांच प्रकार के होते
पानेका रुक जाना संवर है। जिन मार्गोंसे कर्म रुकते हैं-१.पुद्गल, २. आकाश, ३. काल, ४. धर्मास्तिकाय
हैं उन्हें भावसंवर और कर्मोंके रुक जानेको द्रव्यसंवर और ५. अधर्मास्तिकाय ।
कहते हैं। भानव-शुभ या अशुभ कर्मके बंधने योग्य कर्म जीवोंके भाव तीन प्रकारके होते हैं-अशुभउपयोग, वर्गणामोंके आनेके द्वार या कारणको तथा उन कर्म
शुभउपयोग, और शुद्धउपयोग । अशुभउपयोगसे पापकर्म पिण्डोंके, प्रास्माके निकट पानेको प्राश्रव कहते हैं। बंधता है,और शुभ उपयोगसे पुण्यकर्म बन्धता है, शुद्ध उपजो कर्मपिंडके श्रानेके द्वार या कारण हैं उनको भावा
योगके लाभ होने पर कर्मोंका आवागमन रुक जाता सब कहते हैं और कर्मपिंडके पाकेको द्रव्य पासव
है । प्रात्माको सर्व कर्मबंधनसे बचानेका उपाय शुद्ध कहते हैं। जैसे नौकामें छिद, जलके प्रविष्ट होने का
उपयोग है। द्वार है।
निर्जरा-कर्म अपने समय पर फल देकर झड़ते हैं। की
इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं । आस्मध्यानको लिए हैं-मन, वचन और काय । मनसे विचार तथा प्रतिज्ञा हुये तप करने व इच्छाओंके निरोधसे जब भावोंमें वीतराकरते हैं. वचनसे वार्तालाप करते हैं और कायासे क्रियादि गता आती है तब कर्म अपने पकनेके समयसे पूर्व ही करते हैं जीवके प्रति दया, सत्यवचन, संतोषभाव प्रादि फल देकर झड़ जाते हैं । इसको अविपाक निर्जरा शुभ कर्म हैं। मिथ्याज्ञान, असत्यवचन, चौर्य, विषयोंकी कहत है। लम्पटता आदि अशुभकर्म है। सारांश यह है कि स्वयं मोक्ष-आत्माके सर्व कर्मोसे छूट जानेको व आगे नवोन अपने ही भावोंसे कर्मपिंडको आकर्षित करना श्रास्रव कर्म बंध होनेके कारणोंके मिट जानेको मोक्ष तत्त्व तत्त्व कहलाता है। . ..
कहते हैं। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर प्रात्मा शुद्ध हो • बंध-कर्मपिंडोंको आत्माके साथ दूध और पानीकी जाती है। इसी शुद्ध आत्माको सिद्धकी संज्ञा प्रदान तरह मिल कर एक हो जानेको बन्ध कहते हैं। यह बंध की गई है। वास्तव में क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि कषायोंका पुण्य कर्मको पुण्य और पाप कर्मको पाप कहते हैं। कारण है। बंधको चारभागों में विभक्त किया गया है- इन्ही सात तत्त्वोंके अन्दर इनका स्वरूप गर्भित है।
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किरण ६ ]
हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान
[१६७
%3D
जीवात्मा अनादि और अनन्त पदार्थ है। इसकी सकती है, जो कि सभी विद्वानोंकी अभिवृद्धि करता अवस्थायें तो परिवर्तित होती ही हैं और गुण भी तिरोहित है। प्राचार्य अमृतचन्दने उसे, 'परमागमस्य बीजम्'और विकसित होते रहते हैं। जब तक इसकी यह अवस्था परमागमका प्राण प्रतिपादन करके उसके महत्वको चरम रहती है तब तक यह संसारी कहलाता है। गुणों के इस सीमा तक पहुँचा दिया है । 'अनेकान्तवाद' एक मनोहर, क्रमिक वृद्धि ह्वास- का अन्त होकर जब यह जीव अपने सरल एवं कल्याणकारी शैली है। जिससे एकान्त रूपसे गुणोंका पूर्ण विकास कर लेता है तब यह मुक्त कहे गये सिद्धान्तोंका विरोध दूर कर उसमें अभूतपूर्व कहलाता है।
मैत्रीका प्रादुर्भाव होता है। गुणोंकी वृद्धि और ह्वास कुछ कारणोंसे होती है। वे
___ 'एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्तो वस्तुतत्त्वमितरेण । कारण क्रोध, मान. माया लोभ आदि कषायें हैं। इन
। 'अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी॥ कारणोंसे जीव अपने स्वरूपको भूलजाता है। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि मोहके कारण अपने स्वरूपको भूल जाना
-पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २२५ ही बन्धका कारण है और जब यह अपने स्वरूपकी ओर अर्थात् जिस प्रकार दधि मंथनके समय ग्वालिन जब मुकता है-उसको पानेके प्रयत्नमें लगता है तब इसके बाह्य मथानीके एक छोरको खींचती है तब दूसरे छोरको छोड़ पदार्थोसे मोह मन्द हो जाता है और मंद होते होते जब नहीं देती वरन् ढीला कर देती हैं और इस प्रकार दूध दहीवह बिलकुल नष्ट हो जाता है तब वह मुक्त या सिद्ध हो के सार मक्खनको निकालती है। उसी प्रकार जैनी नीति जाता है।
भी वस्तुके स्वरूपका प्रतिपादन करती है, अर्थात् प्रत्येक . श्रद्धा, विज्ञान और सुप्रवृत्ति प्रात्माके स्वाभाविक वस्तुमें अनेक धर्म रहते हैं उनके सब गुणोंका एक साथ गुण हैं। यह गुण किसी दूसरे द्रव्यमें नहीं होते । मुक्त प्रतिपादन करना अवर्णनीय हैं। इसी लिए किसी गुणका अवस्थामें यह गुण पूर्ण विकसित हो जाते हैं। संसारी एक समय मुख्य प्रतिपादन किया जाता है कि किसी दूसरे अवस्थामें यह गुण या तो विकृत रहते हैं या इनकी ज्योति समय उसके दूसरे दूसरे गुणोंका प्रतिपादन किया जाता मन्द रहती है। इन गुणोंके अतिरिक्त किसी भी पदार्थसे है। ऐसी हालतमें किसी एक गुणका प्रतिपादन करते अनुराग रखना यही बंधका कारण है। किसीसे अनुराग समय उस वस्तुमें दूसरे गुण रहते ही नहीं या हैं नहीं, होगा तो किसी दूसरेसे द्वेष उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ऐसा नहीं समझना चाहिये । 'इसीका नाम 'अनेकान्तवाद' है। इन राग और द्वेषोंका किस प्रकार अभाव हो और है, जैसे एक ही पदार्थमें बहुतसे आपेक्षिक स्वभाव पाये मामाके स्वाभाविक गुणोंमें किस प्रकार वृद्धि हो, इन जाते हैं जिनमें एक दूसरेका विरोध दीखता है स्याद्वाद प्रश्नोंका हल करना ही जैन शासन या इन सात तत्वोंका उनको भिन्न अपेक्षासे ठीक ठीक बता देता है। सर्वविप्रयोजन है।
रोध मिट जाता है। स्याद्वादका अर्थ है स्यात्-किसी अपे'स्वाद्वाद' जैन तत्व ज्ञानका एक मुख्य साधन है। क्षासे वाद कहना । किसी अपेक्षासे किसी बातको जो बतावै अनेकान्तवाद, सप्तभंगी नय श्रादि स्याद्वादके पर्याय- वह 'स्याद्वाद' है। एक भात्म पदार्थको ही ले लिया जाय गावी सन्द हैं यह स्याद्वाद ही हमें पूर्ण सत्य तक वह द्रव्यकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है-उसका न खे जाता है।
नाश होता है न उत्पाद । किन्तु पर्यायोंकी अपेक्षा वह 'अनेकान्तवाद' का अर्थ है-नाना धर्मात्मक वस्तुका परिवर्तनशील हैं। जिसे हम डाक्टर या वकील कहते हैं कथन । अनेकका अर्थ है नाना, अन्तका अर्थ है धर्म। उसका पुत्र उसे 'पिता', उसका पिता, 'पुत्र' भतीजा
और वादका अर्थ है कहना, यह अनेकान्तवाद' ही सत्यको' 'चाचा', चाचा भतीजा', भानजा 'मामा', 'मामा', 'भानस्पष्ट कर सकता है, क्योंकि सत्य एक सापेक्ष वस्तु , जा' कहते हैं। यह सब धर्म एक ही व्यक्तिमें एक ही है, सापेक्ष सत्य द्वारा ही असत्यका अंश निकाला समय विद्यमान रहते हैं । जब हम एक सम्बन्धको कहते जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुँचा हुए स्यात् शब्द पहिले लगा देंगे तो समझने वाला यह जा सकता है। इसी रीतिसे ज्ञान-कोषकी श्रीवृद्धि हो ज्ञानप्राप्त कर लेगा कि इसमें और भी सम्बन्ध हैं।
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१८]
अनेकान्त
[ किरण ६ जैन-दर्शनकी दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु द्रब्यकी अपेक्षा नित्य भारतीय साहित्यके मध्ययुगमें तर्क-जाल-सगुफिर और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य होती हैं। ब्यदृष्टिकोणके घनघोर शास्त्रार्थ रूप संघर्षके समयमें जैन साहित्यकारों बच्य बिन्दुको दृष्टिमें रखकर उसे नित्य बनाती हैं। द्रव्य इसी सिद्धान्तके स्यात् अस्ति, स्यानास्ति और स्यादअनाशात्मक हैं। पर्यायदृष्टि पर्यायांको भनित्य बनाती हैं। वत्कव्य इन तीन शब्दसमूहोंके आधारपर सप्तभंगीके पर्याय उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली होती हैं। साथ रूपमें स्थापित किया है। वह इस प्रकार हैही उत्पाद व्ययसे वस्तुमें उसकी स्थितिरूप ध्र वताका भी १. उपन्ने वा विगये वा धुवे वा नामक अरिहंत प्रत्यक्ष अनुभव होता हैं। यही स्थिरता वस्तुमें नित्य धर्म- प्रवचन । का अस्तित्व सिद्ध करती हैं। अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद. २. सिया अस्थि, सिया णस्थि, सिया अविक्तव्य व्यय और घौम्य युक्त हुश्रा करती हैं। जैसा कि प्राचार्य नामक पागम् वाक्य । उमास्वामि ने कहा हैं-'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।'
३. 'उत्पादव्ययधौग्ययुक्तं सत्' नामक सूत्र । - श्रीरतनलालजी संघवी अपने, 'स्याद्वाद' नामक ४. स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादवक्तव्यं नामक लेखमें 'अमेकान्तबाद' का स्वरूप बताते हुए कहते हैं:- संस्कृत काव्य, यह सब स्याद्वाद सिद्धांतके मूर्तवाचक रूप
'दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीरने इस सिद्धान्तको' हैं। शब्द रूप कथानक है और भाषा रूप शरीर है। सिया अस्थि, सिया णस्थि, सिया श्रवत्तव्य' के रूप में स्याद्वादका यही बाह्य रूप है। ज्ञानोदय पृ. ४५६-४६० बताया है। जिसका यह तात्पर्य हैं कि प्रत्येक वस्तु. सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें नित्य और अनित्य तत्व किसी अपेक्षा वर्तमानरूप होता है और किसी दूसरी रूप स्वभावोंका होना आवश्यक है। यदि यह दोनों अपेक्षासे वही नाश रूप भी हो जाता है इसी प्रकार किसी स्वाभाव एक ही समयमें द्रव्यमें न पाये जावें तो दम्य तीसरी अपेक्षा विशेषसे वही तत्त्व त्रिकाल सत्ता रूप होता निरर्थक हो जाता है। इसके लिए सुवर्णका दृष्टान्त लेना दुमा भी शब्दों द्वारा अवाच्य अथवा अकथनीय रूपवाला उपयुक्त होगा। यदि सुवर्ण नित्य हो तो उसमें अवस्थाभी हो सकता है।
परिवर्तन नहीं हो सकता। वह सदैव एकसी स्थितिमें . जैन तीर्थकरोंने और पूज्य भगवान अरिहन्तोंने इसी
रहेगा। उसे कोई भी व्यक्ति मोल न लेगा। क्योंकि उससे सिद्धान्तको उत्पन्ने वा, विनष्टे वा, धुवे वा, इन तीनों शब्द
आभूषणोंकी अवस्था तो बनेगी नहीं । यदि सुवर्णको द्वारा, त्रिपदीके रूपमें संग्रथित कर दिया है। इस त्रिपदी
अनित्य मान लिया जाय तब भी उसका कोई मूल्य नहीं का जैन आगमोंमें इतना अधिक महत्व और सर्वोच्च
है। क्योंकि वह क्षणभरमें नष्ट हो जायगा । परन्तु सुवर्णशीलता बतलाई है कि इनके श्रवणमानसे ही गणधरोंको
का स्वभाव ऐसा नहीं। सुवर्ण रूप रहता हुश्रा अपनी चौदहपूर्वोका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है।
अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है। सुवर्णके एक डेले द्वादशांगी रूप वीतराग-वाणीका यह हृदय स्थान कहा
मानसे वाली बन सकती है। वालीको तोड़कर अंगूठी
और अंगूठीसे अन्य किसी भी प्रकार प्राभूषण बन सकता जाता है।
है। इसी प्रकार जीवमें भी नित्य और अनित्य दोनों ___ भारतीय साहित्यके सूत्रयोगमें निर्मित महान ग्रन्थ स्वभाव हैं. तथा वह संसारीसे सिद्ध हो सकेगा। अबतत्वार्थसूत्रमें इसी सिद्धान्तका 'उत्पादव्ययधौम्ययुक्तं सत्' स्थानोंमें परिवर्तन होत है जो संसारी था वही सिद्ध हो इस सूत्रके रूपमें उल्लेख किया है, जिसका तात्पर्य यह है जाता है। कि जो सत् यानी द्रव्य रूप अथवा भावरूप है, उसमें
वस्तुमें अनित्य धर्मका प्रतिपादन निम्न सात प्रकारोंसे प्रत्येक सण नवीन पर्यायोंकी उत्पत्ति होती रहती है, एवं .
होता है। पूर्ण पर्यायोंका नाश होता रहता है परन्तु फिर भी मूल द्रव्यकी द्रव्यता, मूल सत्की सत्ता पर्यायोंके परिवर्तन
___१. स्यादस्ति-कथंचित् है। होते रहने पर भी ध्रौव्य रूपसे बराबर कायम रहती है। १. स्यानास्ति-कथंचित् नहीं है। विश्वका कोई भी पदार्थ इस स्थितिसे चित नहीं है। ३. स्यादस्तिनास्ति-कथंचित् है और नहीं है।
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किरण ६]
हिन्दी जैन साहित्य मेंतत्वज्ञ
[१६६
४. स्यादवक्तव्यं-किसी अपेक्षासे पदार्थ वचनसे एक 'जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन-सिद्धान्तका खंडन साथ नहीं कहने योग्य है।
पढ़ा है तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्तमें बहुत १. स्यादस्ति श्रवक्तव्यं च-किसी अपेक्षासे दम्य नहीं कुछ है, जिसे वेदान्तके प्राचार्योंने नहीं समझा और जो है और अवाच्य है।
कुछ मैं अब तक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा ६, स्यादस्ति नस्ति श्रवक्तव्यं च-कथंचित् है, नहीं हढ़ विश्वास हुा है कि यदि वे ( शंकराचार्य)
दृढ़ विश्वास हा है कि यदि वे ( शंकराचार्य ) जैनधर्मके है और प्रवक्तव्य भी है।
असली ग्रन्यों को देखनेका कष्ट उठाते तो जैनधर्मके विरोध
करनेकी कोई बात नहीं मिलती।' ___७. स्यास्ति नास्ति प्रवक्तव्यं च-कथंचित् है, नहीं है और प्रवक्तव्य भी है।
पूनाके प्रसिद्ध डा. भंडारकर सप्तमंगी प्रक्रियाके
विषयमें लिखते हैंइन सात प्रकारके समूहों को 'सप्तभंगी नय' कहते हैं। कविवर बनारसीदासजीने नाटक समयसारमें स्यावा.
इन भंगोंके कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रश्नमें दकी महत्ता वर्णित की है।
निश्चयपना नहीं है या एक मात्र सम्भव रूप कल्पनायें
करते हैं जैसा कुछ विद्वानोंने समझा है इन सबसे यह जथा जोग करम करे पै ममता न धरै,,
भाव है कि जो कुछ कहा जाता है वह सब किसी द्रग्य, रहे सावधान ज्ञान-ध्यानकी टहल में।।
क्षेत्र, कालादिकी अपेक्षासे सत्य है। तेई भवसागरके ऊपर ह तरे जीव,
विश्ववंद्य महात्मा गांधीजीने इस सम्बन्धमें निम्न जिन्हको निवास स्यादवादके महल में ॥
विचार व्यक्त किये हैं- नाटक समयसार पृ० ॥३॥
यह सत्य है कि मैं अपनेको अद्वैतवादी मानता हूँ, . 'तत्वार्थराजवार्तिक' में आचार्य अकलंकदेवने बताया परन्तु मैं अपनेको द्वैतवादीका भी समर्थन करता हूँ। है कि वस्तुका वस्तुस्व इसी में है कि वह अपने स्वरूपका सृष्टि में प्रतिक्षण परिवर्तन होते हैं. इसलिये सृष्टि अस्तित्व ग्रहण करे और परकी अपेक्षा प्रभाव रूप हो । इसे विधि रहित कही जाती है, लेकिन परिवर्तन होने पर भी उसका और विविध रूप अस्ति और नास्ति नामक भिन्न धर्मों एक रूप ऐसा है जिसे स्वरूप कह सकते हैं। उस रूपसे द्वारा बताया है।
'वह है' यह भी हम देख सकते हैं, इसलिये वह सत्य भी देश और विदेशके विभिन्न दार्शनिकोंने स्याद्वादको
है। उसे सत्यासत्य कहो तो मुझे कोई उज्र नहीं। इसलिए
यदि मुझे अनेकान्तवादी या स्याद्वादी माना जाय तो मौलिकता और उपादेयताकी मुक कंठसे प्रशंसा की
इसमें मेरी कोई हानि नहीं होगी । जिस प्रकार स्थादद्वादहै। डा. बी. एल. आत्रेय काशी विश्वविद्यालयके
को जानता हूँ उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ"मुझे यह कथनानुसार
अनेकान्त बड़ा प्रिय है। जैनियोंका अनेकान्तवाद और नयवाद एक ऐसा
पदार्थो जानने सिदान्त है कि सत्यकी खोजमें पक्षपात रहित होने लगी
क्षपात राहत हान लिये एक निमित्त साधन है। इसका महत्व केवल जैन की प्रेरणा करता है, जिसकी आवश्यकता सब सम्प्रदायके हेतु ही नहीं वरन् जैनेतर सम्प्रदायके लिये भी धर्मोको है।
प्रयोगमें लानेका सिद्धान्त है। स्वामी समन्तभद्रने इस महामहोपाध्याय डा. गंगानाथ मा भूतपूर्व वाइचांस- सत्यका अधिक प्रयोग किया। स्याद्वाद एक वह शस्त्र है वर प्रयाग विश्वविद्यालयने इस सिद्धान्तकी महत्ता निम्न जिसके प्रयोग द्वारा साम्राज्यमें किसी प्रकारका उपद्रव रूपसे वर्णित की है
और विरोध नहीं उपस्थित हो सकता।
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कुरलका महत्व और जैनधर्म
(श्री विद्याभूषण पं० गोविन्दराय जैन शास्त्री)
. (गत किरणसे आगे) मिल जनतामें प्राचीन परम्परासे प्राप्त जन- एलेलाशङ्गिन हो गया है । यह एलेलाशिङ्गन और कोई श्रुति चली आती है कि कुरलका सबसे प्रथम पारायण नहीं एलचार्य ही हैं। कुदकुदाचार्य ऐलक्षत्रियोंके वंशधर पांड्यराज 'उग्रवेरुवनदि' के दरबारमें मदुराके ४६ कवि- थे, इसलिए इनका नाम एलाचार्य था। योंके समक्ष हुआ था । इस राजाका राज्यकाल श्रीयुत एम इन पर्याप्त प्रमाणोंके आधार पर हमने कुरलकाम्यका श्रीनिवास अय्यङ्गरने १२५ ईस्वीके लगभग सिद्ध रचनाकाल ईसासे पूर्व प्रथम शताग्दी निश्चित किया है। किया है।
और यही समय अन्य ऐतिहासिक शोधोंसे श्रीऐलाचार्य (२) जैन ग्रन्योंसे पता लगता है कि ईस्वीसनसे
का ठोक बैठता है। मूलसंघकी उपलब्ध दो पट्टिालयों पूर्व प्रथम शताब्दीमें दक्षिण पाटलिपुत्र में द्रविड़संघके
में तस्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वातिके पहिले श्रीएलाचार्यका
नाम आता है और यह भी प्रसिद्ध है कि उमास्वातिके प्रमुख श्रीकुन्दकुन्दाचार्य अपर नाम एलाचार्य थे। इसके अतिरिक्त जिन प्राचीन पुस्तकोंमें कुरलका उल्लेख पाया
गुरु श्री एलाचार्य थे। अतः कुरलकी रचना तत्वार्थसूत्रके है उनमें सबसे प्रथम अधिक प्राचीन 'शिल्लप्पदिकरम्'
पहलेकी है। यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है। नामका जैनकाव्य और 'मणिमेखले' नामक बौद्धकान्य हैं। कुरलकर्ता कुन्दकुन्द (एलाचार्य) .. दोनोंका कथा विषय एक ही है तथा दोनोंके कर्ता आपसमें विक्रम सं०१६० में विद्यमान श्री देवसेनाचर्य अपने मित्र थे । अतः दोनों ही काव्य सम-सामयिक हैं और दर्शनसार नामक ग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्य नामके साथ उनके दोनोंमें कुरल काब्यके छठे अध्यायका पांचवाँ पद्य उद्धृत अन्य चार नामोंका उल्लेख करते हैं:किया गया है । इसके अतिरिक्त दोनोंमें कुरलके नामके पद्मनन्दि, वक्रप्रीवाचाय, एलाचार्य, गृद्धपिसाथ ५४ श्लोक और उद्धृत हैं। "शिलप्पदिकरम्" च्छाचार्य। तामिल भाषाके विद्वानोंका इतिहासकाल जाननेके लिए श्री कुन्दकुन्दके गुरू द्वितीय भद्रबाहु थे ऐसा बोधसीमानिर्णायकका काम करता है और इसका रचना- प्राभृतकी निम्न लिखित गाथासे ज्ञात होता है। काल ऐतिहासिक विद्वानोंने ईसाकी द्वितीय शताब्दी
सद्दवियारो हूओ भासामुत्तेसु जं जिणे कहियं । माना है।
सो तह कहियं णाणं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।। (३) यह भी जनश्रुति है कि तिरुवल्लुवरका एक मित्र एलेलाशिङ्गन नामका एक व्यापारी कप्तान था । कहा
ये भगबाहु द्वितीय नान्दसंघकी प्राकृत पट्टावलीके जाता है कि यह इसी नामक चोलवंशके राजाका छठा अनुसार वीर निर्वाणसे ४६१ बाद हुए हैं। बंशज था, जो लगभग २०६० वर्ष पूर्व राज्य करता था कुरलकतोके अन्य ग्रन्थ तथा उनका प्रभाव
और सिंहलद्वीपके महावंशसे मालूम होता है कि ईसासे कुरजका प्रत्येक अध्याय अध्यात्म भावनासे श्रोत१४. वर्ष पूर्व उसने सिंहलद्वीप पर चढ़ाई कर उसे प्रोत है, इसलिए विज्ञपाठकके मनमें यह कल्पना सहज विजय किया और वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। ही उठती है कि इसके कर्ता बड़े अध्यात्मरसिक महाइस शिङ्गन और उक्त पूर्वजके बीचमें पांच पीड़ियाँ त्मा होंगे । और जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि इसके
आती हैं और प्रत्येक पीढ़ी ५० वर्षकी मानें तो हम इस रचयिता वे एलाचार्य हैं जो कि अध्यात्मचक्रवर्ती थे तो निर्माय पर पहुँचते हैं कि एलेलाशिङ्गन ईसासे पूर्व प्रथम यह कल्पना यथार्थताका रूप धारण कर लेती है; कारण शताब्दी में थे।
एलाचार्य जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्द है ऐसे ही बात असलमें यह है कि एलाचार्यका अपभ्रंश अद्वितीय ग्रन्थोंके प्रणेता हैं।
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किरण ] कुरलका महत्व और जैनधर्म
[२०१ __ उनके समयसारादि ग्रन्थों को पढ़े बिना कोई यह बन्यो विभुम्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः नहीं कह सकता कि मैंने पूरा जैन तत्वज्ञान अथवा अध्या- कुन्द-प्रभा-प्रणयि कीर्ति-विभूषिताशः। स्म वद्या जान ली। जिस सूक्ष्म तत्वकी विवेचनाशैलीका यश्वारु-चार -कराम्बुजचश्चरीकआभास उनके मुनि जीवनसे पहले रचे हुए कुरलकाम्यसे
भरते प्रयतःप्रतिष्ठाम् ।।५।। होता है वह शैली इन ग्रन्थों में बहुत ही अधिक परिस्फुट तपस्याके प्रभावसे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यको 'चारणहो गई है। ये ग्रन्थ ज्ञानरत्नाकर हैं, जिनसे प्रभावित हो.
ऋद्धि प्राप्त हो गई थी जिसका कि उल्लेख श्रवणवेलगोलके कर विविध विद्वानोंने यह उक्ति निश्चत की हैं-हए हैं
अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता है। तीनका उद्धरण न होयेंगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्दसे ।'
हम यहाँ देते हैं :__ पीछेके ग्रन्थकागेने या शिलालेख लिखनेवालोंने कुन्द- तस्यान्वये भूविदिते बभूव यापद्मनन्दि प्रथमाभिधानः कुन्दको मूलसंबव्योमेन्दु' 'मु नोंद्र' 'मुनिचक्रवर्ती' 'पदोंसे
दास श्रीकुण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः भूषित किया है। इससे हम सहजमें ही यह जान सकते
श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामाह्याचाय्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना गौरवपूर्ण है। दिगम्बर
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यचरित्रसंजातसुचारणद्धिः ॥ जैनसंघके साधुजन अपनेको कुन्दकुन्द अाम्नायका घोषित
'रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-र्वाह्यपि संव्यञ्जयितु यतीशः। करने में सम्मान समझते हैं। वे शास्त्र-विवेचन करते समय
रज पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरलंगुलं सः ॥ प्रारम्भमें अवश्य पढ़ते हैं कि:
इन सब विवरणोंको पढ़कर हृदयको पूर्ण विश्वास 'मगल भगवान वीरो मंगलं गौतमोऽग्रणी।
होता है कि ऐसे ही महान् ग्रन्थकारकी कलमसे कुरलकी मंगलं कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।'
रचना होनी चाहिए। इनके रचे हुए च रासी प्राभृत (शास्त्र सुने जाते हैं पर अब वे पूरे नहीं मिलते, प्रायः नीचे लिखे ग्रन्थ ही कुरलकर्ताका स्थान :मिलते हैं:-(१) समयसार, (२: प्रवचनसार, (३) इस वक्तव्यको पढ़कर पाठकोंके मन में यह विचार पंचास्तिकाय, (४) अष्टपाहुद, (५ ) नियमसार (६) उत्पन्न अवश्य होगा कि कुरल आदि ग्रन्थोंके रचियता (७)द्वादशानुप्रेक्षा (८) रयणसार, ये सब ग्रन्थ प्राकृत श्रीएलाचार्यका दक्षिणमें वह कौनसा स्थान है जहां भाषामें हैं और प्रायः सबही जैन शास्त्र भण्डाराम पर बैठकर उन्होंने इन ग्रन्थीका अधिकतर प्रणयन किया मिलते हैं। .
था: इस जिज्ञासाकी शान्तिके लिए हमें नीचे लिखा - ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने कोण्ड
हुश्रा पद्य देखना चाहिए। कुन्दपुर में रहकर षट् खण्डागम पर ब रह हजार श्लोक
दक्षिण दशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्मासीत् । परिमित एक टीका लिखा थी जो अब दुष्प्राप्त है । समयसार ग्रन्थपर विविध भाषाओं में अनेक टोकाएं उपलब्ध
एलाचार्यों नाम्ना द्रविड गणाधीश्वरो धीमान् ॥ है। हिन्दोके प्राचीन महाकवि पं. बनारसीदासजीने यह श्लोक एक हस्तलिखित 'मन्त्रलक्षण' नामक इसके विषयमें लिखा है कि "नाटक पढ़त हिय फाटक ग्रन्थमें मिलता हैं, जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा सुनत है" समयसार 'प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ये एलाचार्य दक्षिण देशके मलयप्रान्तमें हेमग्रामके निवासी श्रीमों ग्रन्थ विज्ञसमाजमें नाटकत्रयी नामसे प्रसिद्ध हैं और थे, और द्रविड़संघके अधिपति थे। यह हेमग्राम कहाँ हीमों ही ग्रन्थ निःसन्देह आत्मज्ञानके आकर हैं। है इसकी खोज करते हुए श्रीयुत मल्लिनाथ चक्रवर्ती
• इन सब ग्रन्योंके पठन पाठनका यह प्रभाव हुआ कि एम० ए० एल०टी० ने अपनी प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें परिणापथसे उत्तरापथ तक प्राचार्यकी उज्वल कीर्ति लिखा है कि-'मद्रास प्रेसीडेन्सीके मलाया प्रदेश में बागई और भारतवर्षमें वे एक महान् श्रात्मविद्याके प्रसा- 'पोन्नूरगाँव' को ही प्राचीन समयमें हेमग्राम कहते
माने जाने लगे, जैसा कि श्रवणबेलगोलके चन्द्र- थे और सम्भवतः यही कुण्डकुन्दपुर है, इसीके पास गिरिस्थ निम्नलिखित शिलालेखसे प्रकट होता है:- नीलगिरि पहाड़ पर श्रीएलाचार्यको चरणपादुका बनी
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२०१]
अनेकान्त
[किरण ६
हैं, जहाँ पर बैठकर वे तपस्या करते थे। पास पासकी रसकी प्राप्ति में संलग्न थे। इतिहाससे ज्ञात होता है कि उस जनता आज भी ऐसा ही मानती है और बरसातके दिनों में समय जैनधर्म कलिङ्गकी तरह तामिल देशमें भी राष्ट्रधर्म था उनकी पूजाके लिए वहाँ एक मेला भी प्रतिवर्ष भरता है. उसके प्रभावसे राजघरानोंमें भी शिक्षा और सदाचार श्रीयुत स्व. जैनधर्मभूषण ब्र. शीतलप्रसादजीने भी पूर्णरूपेण विद्यमान था। अध्यात्मविद्याके पारगामी क्षत्री इसके दर्शन कर जैनमित्रमें ऐसा ही लिखा था। राजा बनने में उतनी प्रतिष्ठा व सुख नहीं मानते थे जितना देशकी तात्कालिक स्थिति
कि राजर्षि बनने में, जिसके उदाहरण प्राचार्य समन्तभद्र जब हम कुरलकी रचनाके समय देशकी तात्कालिक
(पाण्ड्यराजाकी राजधानी उरगपुरके राजपुत्र) शिल्लप्पस्थिति पर दृष्टि डालते है तो ज्ञात होता है कि सारा दिकरम्के कर्ता युवराज राजर्षि (चेर राजपुत्र) और एलादेश उस समय ऋद्धि सिद्धिसे भरपूर था। विदेशियोंका प्रवेश चाय ह
चार्य हैं। उस समय क्षत्रीयगण शासक और शास्ता दोनों न होनेसे वैभव अपनी पराकाष्ठाको पहुँचा हुआ था।
। थे। स्वतन्त्र व धार्मिक भारत उस समय कैसे दिव्य विचार लौकिक सुख सहज ही प्राप्त होने से लोग उनकी लालसा.
रखता था इसकी वानगीके लिए कुरल अच्छा काम में नहीं फंसे थे। किन्तु इस लोकमें अप्राप्त निजानन्द देता
देता है।
'वसूनन्दि-श्रावकाचार' का संशोधन
(पं0 दीपचन्द पाण्ड्या और रतनलाल कटारिया, केकड़ी) हमारा विशाल जैन वाङ्मय प्राकृत संस्कृत एवं रहे हैं। दानी महानुभाव यह नहीं सोचते कि हम इन अपभ्रंश आदि विविध भाषाओंमें लिखा गया है। अशुद्ध पाठोंकों छपाकर और प्रचार में लाकर कितना अनर्थ दुर्भाग्यवश उसमेंसे बहुत-सा साहित्य तो हमारे अज्ञान करते हैं ? क्या पुस्तक विक्रेता और दानी महानुभाव व प्रमादसे मन्दिरोंमें, शास्त्र भण्ड रोंमें पड़ा पड़ा इस बुराईको दूर करनेका यत्न करेंगे ? और तो मष्ट हो गया तथा बहुत सा नष्ट होने को है और और, बहुश्रत विद्वानों द्वारा सम्पादित हुए ग्रन्थोंकीर घोड़ा बहुत जो मुद्रित होकर प्रकाश में अा पाया है, भी दशा अच्छी नहीं है। वे भी अनेक अशुद्धियोंसे सम्वेद लिखना पड़ता है कि वह भी अनेकानेक परिपूर्ण हैं। अशुद्धियों से भरा पड़ा है। उदाहरण के तौर पर 'यशस्ति- वद्यपि मूल ग्रंथकर्ता तो अपनी कृतियोंको शुद्धरूपमें लक चम्पू' ग्रन्थको ही लीजिये; जिसके विना टीका वाले ही प्रस्तुत करते हैं परन्तु अद्ध विदग्ध प्रतिलिपिकर्ताओंभागमें पूरी एक हजारके करीब अशुद्धियाँ हैं। १ यही दशा की कपासे उनमें कई अशुद्धियां बन जाती हैं। लिखित नित्यपूजा, दशभक्ति और श्रावक प्रतिक्रमण पाठ आदिकी प्रतियों में तो वे अशुद्धियां एक प्रति तक ही सीमित रहती भी है। पूजा पाठ, जिनवाणी संग्रह और बृहज्जिनवाणी हैं पर मद्रित प्रतियों में यह बात नहीं है वहाँ तो जो एक संग्रह तथा गुटकाओं श्रादिमें छपे हुए अशुद्ध पाठौकी ओर प्रति अशुद्धि हो गई वही सब प्रतियों में हो गई समझिर। जब हमारी दृष्टि जाती है तब हमें बहुत ही दुःख हाता इस तरह मद्रित प्रतियोंके सहारे इन अशुद्धियोंकी परम्परा है। पढ़नेवाले अशुद्धियोंकी तरफ कोई लक्ष्य नहीं देते, प्रचार में श्राकर बद्धमल हो जाती हैं जो आगे चलकर किन्तु उन्हें उसी रूप में पढ़ते जाते हैं। प्रकाशक और पुस्तक
कार पुस्तक अनेक भ्रान्त धारणाअोंको जन्म देती रहती हैं। जिसके विक्रेता इस बातका ध्यान रखना उचित ही नहीं समझते, तीन बडे मजेदार उदाहरण यहाँ दिये जाते हैंइसी कारण हमारे पूजा पाठ भी अशुद्धियोंके पुज बन
२ ऐसे प्रन्थोंमें माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित देखो 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण १२ पृष्ट ७७ पर
'वरांगचरित' और कारंजासे प्रकाशित सावय धम्म हमारा लेख यशस्तिल का संशोधन'।
दोहा आदि हैं।
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किरण ६]
'वसुनन्दि-श्रावकाचार'का संशोधन
। २०३
जात यौनादयः सर्वास्तक्रिया हि तथाविधाः जातयोनादयः सर्वास्तरिक्रयापि तथाविधाः
श्र तिः शास्त्रान्तरं वाऽस्तु प्रमाणं काऽत्र नः क्षतिः । श्रतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षितिः । - अर्थात् जातकर्म और यौन (विवाह) श्रादि सारी
यह श्लोक मुद्रित प्रति में ठीक इसी रूपमें पाया जाता ताक्रिया-लौकिक क्रियाएं तथाविधा-लोकाश्रय हैं इस है। बादको पं. नाथरामजी प्रेमीने और पं० श्रीलालजी विषयमें श्र ति या शास्त्रान्तर प्रमाण हों तो हमारी क्या पाटनीने इस श्लोक में थोड़ासा पाठभेद और कर डाला है हानि है। जो इस प्रकार हैजातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियाऽपि तथा विधा
धवला टीकामें 'अक्खवराडयादयो असब्भावटुवश्रतिः शास्त्र न्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः । णा मंगलं' यह वाक्य है जिसका अर्थ पाले और कौड़ी
और इस पद्यका अर्थ पं० श्रीलालजीने इन शब्दों में शतरंजकी गोटे दिदष्योंको असदभावस्थापना मंगल किया है-"सब जातियां अनादि हैं और उनकी क्रिया कहते ह–कया गया है सा सगत नहीं है। क्योकि भी अनादि है। अंग शास्त्र या अंग बाह्य शास्त्र यदि
असद्भावस्थापना मंगलका कथन है । केवल यदि असउसके शास्त्र में मिलें तो हमारी क्या क्षति है।"
द्भावस्थापनाका ही कथन होता तो फिर भी कौडी 'पासे
परक अर्थ किसी तरह ठीक हो सकता था सो तो हैं नहीं यहाँ विचारणीय बात यह है कि 'सब जातियाँ
असद्भावस्थापना मंगल' में कोडी पासोंको मांगलिक अनादि हैं, तो वे कौन २ सी हैं और उनकी क्रिया भी अनादि है तो वे कौन २ सी हैं। इसका उत्तर दिगम्बर
द्रव्यरूपमें ग्रहण करना जैन परम्पराके ही नहीं वैदिक
परम्पराके भी विरुद्ध है। प्रतिलिपिकारोंके द्वारा 'य' अक्षर साहित्यसे तो क्या समग्र भारतीय साहित्य-श्वेताम्बर, बौद्ध, एवं वैदिक साहित्यसे भी नहीं मिल सकता । तथा
छोड़ देनेसे यह सब घोटाला हुआ है। अतएव 'अम्खयवरा'अंग शास्त्र और अंग बाह्य शास्त्र यदि उसके प्रमाण में
डयादयो' ऐसा पाठ होना चाहिए जिसका अर्थ अक्षत
कमलगट्टे आदि पदसे सुपारी प्रभृति मांगलिक द्रव्य ऐसा मिलें तो हमारी (जैनियोंकी) क्या क्षति है'-ऐसा उल्लेख
होना प्रकरण संगत होता है हमारे इस कथनकी पुष्टि करना भी समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि द्वादशाङ्गका
वसुनंदि प्रावकाचारकी ३८४ वीं गाथासे भी होती है। ज्ञान तो कभीका लुप्त हो चुका, अंगबाह्यशास्त्र जैनोंको
गाया इस प्रकार है:प्रमाण हैं ही ऐसी दशामें सोमदेवसूरि जैसे विद्वान जैनियों के लिये उन्हें प्रमाण माननेको कैसे लिखें कि इसमें
'अक्खयवराडो वा अमुगो एसोत्ति णिययबुद्धीए जैनोंकी क्या क्षति है। कुछ बुद्धिको लगता नहीं अतएव
संकप्पऊण वयणं एसा विइया असब्भावा।' पं० श्रीलालजीबाला उक्त अर्थ चम्पू यशस्तिलकके पूर्वापर प्रसंगको देखते हुए संगत नहीं हो सकता । अतः इस पद्यके वसुनन्दि x श्रावकाचारमें सम्पादकने जो एक पाठ पाठ और अर्थके विषय में तो 'भ्रमन्ति पण्डिता सर्वे' वाली 'सिरण्हाणुषण'""आदि (गाथा २६३ को देखो ) बना हक्ति हो रही है।
दिया है और प्रथम शिरःस्नानके अतिरिक्त अन्य स्नानोंका हमने इस श्लोकका पाठ और अर्थ ग्रन्थके सन्दर्भानु- प्रषधापवास वालेके लिये विधान कर दिया है सो यह यह स्थिर किया है।
समग्र जैन परम्पराके विरुद्ध है इसलिये 'सिरण्हाणु' की देखो निर्णयसार प्रेसमें मुद्रित यशस्तिलकचम्पू उत्तरार्द्ध
जगह सिरहाण (स्नानार्थक) पाठ होना चाहिये। । पृष्ठ ३७३
® बुद्धीए समारोविद मंगलपज्जयपरिणद जीवगुण सरूक x देखो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित नीति वाक्या
क्खवराडयादयो असब्भाव ट्ठवणा मंगलं ।" यह पूरा मृत (ग्रंथांक २२) की प्रस्तावना १३० और विजा- वाक्य है। (देखो षटखंडागम धवला टीका पुस्तकातीय विवाह प्रागम और युक्ति दोनोंके विरुद्ध है कार संतपरूपणा पृष्ठ २० पंक्ति ५) नामका ट्रेक्ट पृष्ठ ७७
- यह ग्रंथ काशी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हुआ है।
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२०४ ] अनेकान्त
किरणइस तरह अशुद्ध पाठोंके प्रचार में पानेसे ग्रन्थोंका श्रीने अपने इस ग्रंथका नाम x'सावय धम्म'(गाथा २ में) महत्व तथा मूल लेखककी कीर्ति तो मष्ट होती ही है कई और उवासयज्झयण-उपासकाध्ययन (गाथा ५४४ में) महापापकी कारणीभूत अभ्यान्य विरुद्ध परम्पराएं भी प्रकट किया है। प्रचलित हो जाती हैं।
इस संस्करणके सम्पादक पं. हीरालालजी सिद्धान्त
शास्त्री दि० जैन समाजके एक मान हुए विद्वान् हैं। जैनाचार्योंने शब्दशुद्धि, अर्थशुद्धि व शब्दार्थ शुद्धि
जिन्होंने धवला टीकाके सम्पादन कार्य में भी अपना योग पूर्वक ग्रन्थाध्ययनको 'ज्ञानाचारके आठ अंगों में
दिया है। समाविष्ट किया है और ऐसा अध्ययन भारतीय संस्कृति में सदासे इष्ट रहा है। यह तभी बन सकता है जबकि पाठ्य
हमने उक्त संस्करणका अध्ययन किया तो इस प्रन्थ पूर्ण रूपेण शुद्ध हों। अभी अभी भारतीय ज्ञानपीठ
बातसे बड़ा दुःख हुआ कि सम्पादकने मूलपाठके चय में काशी द्वारा श्रावकाचारका एक नया संस्करण प्रकाशित
काफी लापरवाहीसे काम लिया है जिससे मूलगाथाओंमें हुवा है । जिसका संपादन अाधुनिक शैलीसे कलात्मक
पर्याप्त अशुद्धियां रह गई हैं। प्रस्तुत लेखमें हम उनकी हुवा है साथ में प्रस्तावना परिशिष्ट श्रादिके लगा देनेसे
संशोधित तालिका नीचे दे रहे हैं :ग्रन्थकी उपादेयता काफी बढ़ गई है पर ग्रन्थमें शुद्धिपत्र वसुनन्दि श्रावकाचारका पाठ संशोधन . . का न होना काफी खटकता है।
गाथा संख्या प्रतिका पाठ शुद्ध पाठ ___ इस ग्रन्थके मूलका प्राचार्य वसुनन्दि हैं जो कुश. २ क णायारो . अणयारो (१) ल कवि थे और मुलाचार, भगवती आराधना आदि ३ क सिद्धान्तग्रन्थोंके मर्मज्ञ थे, अतएव वे सैद्धान्तिक कहलाते थे। क
अत्ता
अत्तो मूलाचारकी वृत्ति+ इन्हींकी बनाई हुई प्रतीत होती ११ ख
ग्गहण । ग्गाहण है। 'भावकप्रतिक्रमण' 'ग्रन्थ' की श्रालाचना भक्तिके २२ ख अन्तर्गत पाई जानेवाली गाथाओंसे और प्रतिक्रमणभक्तिके २३
सब्व गद सच ग अन्तर्गत पाई जानेवाली ग्यारह प्रतिमाओंके 'मिच्छा मे २६ ख पाहण
पाहाण दुक्कड' पाठी परसे स्पष्ट है कि श्रावकप्रतिक्रमण पाठका
गाउं नूतन प्रतिसंस्कार शायद इन्हींका किया हुआ हो । ३३ क
मुत्ता इनका समय विक्रमकी १२ वीं शताब्द है। प्राचार्य ,, ख तं परिणयं तष्परिएई
३४ ख + तुलना कोजिए वसुनन्दि श्रावकाचारको गाथा २३ से
सत्ताभूप्रो सो ताणं संततभूमो सो ताण (२) ३८ तक मूलाचार षड वश्यकाधिकारकी ४८ वीं
फलभोयो फलपभोयत्रो (३)
ख गाथाकी वृत्तिसे।
भोया भोया भोया भावा (४) ® गांधी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला पुष्प १३ में
१
२७ क
३७ क ताण पवेसो माणुपवेसो (१) पृ०४६ से ३४ तक की तव वायागोयमावासव... ४६ ख वच्छल्लं'"""सम्मत पूया श्रवण्णं आदि गाथाके अलावा शेष २४ गाथाए और वासुनाद
(पाठान्तर) (६) देखो श्रावकाचारकी गाथा ५७, २०७ से २१६, ४ अपभ्रंशभाषाका 'सावयधम्मदोहा' ग्रंथका २७१, २७२, २७५, २८० और २६५ से ३०, नामकरण भी इसी नाम परसे किया गया प्रतीत को देखिये।
होता है। उसी श्रावरू प्रतिक्रमण पृ० ६६ से ६६ पर शिक्षा १ अमगारः, २ स्वतंत्रभूतः, देखो, मूलाचारवृत्ति व्रतोंके 'मिच्छा मे टुक्कडं' से वसुनंदि श्रावकाचार की पृ० ४२३ आवश्यकाधिकार ७ की ४८ची गाथा ३ फलगाथा २१७ से २१६ और २७१-२७२ से तुलना प्रभोगतः। ४ तत्फलभोगाभावात् ५ न अनुप्रवेशः । कीजिये।
६ अन्धकारने भगवती प्राराधनामें कथित गुणोंका भी
मह
णेना मोत्त
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किरण ६]
वसुनन्दि श्रावकाचारका पाठ संशोधन
. [२०५
५३ क
x
५० ख एसु सम्मा एएसु सम्म
१७४ ख किंचिएणं किंचणं , (१६) ११क हिस्संकाइ हिस्संकाई
1०८क
__ हरेह* ५२ ख वणिगसुदा वणिधूया
१८६ अ __णेत्तुद्धारं __णेत्तुद्दारं (१७) रुद्दवर रउरुए
१०३ ख सूला वा रोहणं सूलावरोपणं (15) ५५ क तामलित्त तामलित्ति
११६ क कुल मज्जायं कुलक्कम* विसणाई वसणाई
पच्छियाओ पस्थियारो संसिद्धाई संसिट्ठाइं (७) १२. क
तस्थ हिंडए
१२० क मज्झम्मि मम्मयारम्मि मायर मायरं ण
१२२ ख चौरस्स चोरु ब्व वुज्जाई . चुज्जाइं (८)
१२३ ख दुश्चित्तो भो चित्तं अक्खेहि अच्छीहि (6)
१३१ ख हणेइ णिहणेइ
१३६ क ते बंद तं वर्ल्ड (१६) ६८ क दिएणं ति दियहं पि
मही वीढे मही पि? अत्था अच्छ १४३ ख
तुम रस्थाय यंगणे रस्थाए पंगणे (१०)
१४७ ख
पज्जलयम्मि पज्जल्लियम्मि मिट्ठो मिट्ठा (११)
१४८क अझसरेहिं ज्झसेहिं (२०) हिप्यह विप्यइ १४६ क मं मा
मं म अबराई अवराईवि
१५१ क कह वि य माएण कह व पमाण्ण ८६ ख: तंपि वरिणए तम्हि विरिण ए (१२) १३८ क उसिण उपह जहा"विप्पा गयणगामिणो वि भुवि विप्पा
णीइ
णिय ., ख भुवि x
१५७ ख ८८ क पारसियाण पारस्सियाण
१६० ख छुहिति ८८ ख . भक्खेइ भक्खइ
१६६ क किकवाय किकवाउ. ... क सामी मोत्तण णाथि सामि मोत्तण तं ण (१३)
१६७ ख चुण्णो चुण्णी चुण्णा चुएणी १६क पजायमाणो हिरवराहो पलायमाणे "णिरावराहे *
१६८ क - छेयण
छेयं ., ख. हणिज्जइ हणिज्जाल
१६८ ख . केई १०२ ख संतत्तो संतट्टो (१४)
१७. ख सुमरा विऊण सुमरा वैऊण १०३ ख भय विट्ठो भय वत्थोक
१७६ क खिल्ल विल्ल खल्ल विल्ल (२१) १०४ ख पबलेण पञ्चेजिउ (१५)
१८४ क
कोह
तिस प्रोवि तिसरी व संग्रह दिया है जो प्रागेकी गाथाके 'इच्चाइगुणा' शब्दसे
कूवंतस्स कुब्वंतस्स संबद्ध हैं। ७ संसृष्टानि अांखोंसे १०रौरुक नगरे , ख से देइ
सद्दहइ. चुज्जाई = आश्चयकराणि । देखो, पाइप्रसद्धमहराण
बाहियात्रो (२२) बो कोश ।
१६ म्यं १७ नेत्रोद्दारं-आंखें फोड़ी जाना, १८ सूली पर १. गलियोंमें या चौकमें मीठी मद्य १२ मांस चढ़ामा १६ उसी वृत्तको-लोहेके गोलेको । २. अस्त्र भषण में ये दोनों दोष १३ त्वा मुक्त्वा मम अभ्यास्वामी विशेषैः। २१ खल्व विस्व न्यायसे। २२ बाधिका१४ संत्रस्त: १५ प्रत्युत ।
बधाोंगे।
११२ ख
"
छुहति
कोई
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________________
२०६
१६३ ख
१६६ क
१६७ क
१६६ ख
२०२ ख
39
२०५ क
२२० क
२२५ क
२२५ क
२२७ क
"
२२८ ख
२३४ क
२३५ क
२३६ क
२४२ क
२४७ ख
२४६ क
२६० क
९६१ क
२६१ ख
२६२ क
२६६ क
२६७ ख
२६६ क
२८० ख
२६० ख
२६२ क
२६३ क
२६५ क
२६६ ख
३०० क
विकर्म देव कह खिल्लोए
कस्स साहामि
जाइज्जा
पाविज
जीवो
परिहरे इस जो
पसंतर
पण
पडिगह मुचट्ठाणं रिवज्जा तह उच्च
वज्ज
खाइमं
रोड
परिपीडयं
कि पि
जायइ जहासु
सुदिट्ठी
सहस्सुत्तुगा
सक्कर समसाय
केई
जोग्वां तेहि
तस्थाणु
विगइभया
बहिण
उस्सु
एवर
शिब्वयडी
सिरहा
तुय
जाणइ
च
अनेकान्त
को कर्म देव दुआई २०१
कह लिए
कस्स व साहेमि
जाएज पाविज्जा
X 8
इस जो परिहरह
पसंतह ( 1 )
मणं
पडिगहण मुच्चठाणं
णिरवज्जाणु वह
सिवेज
खाइय
रोईणं (३) परिपीडिय
किंचि
जाइजहण्णासु
सुदिट्टी मनुया सहस्स तुरंगा
सक्करासाय
ख
99
३१५ क
३१७ ख
३२१ ख
दुच्च (२) ३२४ क
जाण
X
७
देखो, रांगपरित जटिलकृत मार्ग २ देखी सागारधर्मामृत टीका अध्याय २ का ३ रोगी पुरुपका । चौवनं ते येषां ते तैः अभ्रकादि बादलोंका नष्ट होना आदि ।
1
क
ख
99
३०४ क
३०६ क
३०७ ख
३०६ क
खोक २० । ४५ वां पद्म
विगत
५ स्नान
केह
जोतिहिं (४)
तत्थणु
विगदभ्याइ (५) ३५३ ख
लहिउ
चडसु
३६२ ख ३६६ क ख
वरि
"
विडी
३७२ ख
सिहा
३७७ ख
तय
३८४ क
ख ३८६ क
३२७ क
३३१ ख
३३३ ख
३३७ क
३३८ क
३३६ ख
३४१ क
३११ का
"
चय
उवयरणेण
चरियाय
पत्येह
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जाएज्ज
काउंरिस गिम्मि
शियम
दुर परभवम्मि
दंसणो
अफरस
जिए
तिवसीय त
स्पीयं ●
उच्चरा
संवेगाइय
पूर्वार्ध
[ किरण ६
(६)
मिड उवरण (७)
चरियाए
पुरव (4)
पूजा
दिव्यभाए
श्रट्टमि श्रो
एजा (4)
कार्डरिसि गोह
म्मि (१०)
विषमेव
तहा एयारस
सुरस्य वि
गायव्वा
वराड श्री वा
रूण
बिडि
दद्दुर (११) परभवम्मि य
दंसणे
जयार्थ
किस
सिरसाणं मद्दण - अभंगसेव,
फरुस
बहि
जणाश्रो (१२)
संकिलेस
उच्चारा
संवेगाइ
आयंबिल विग्यियडेय ठाण
घट्ट माइ खवणेहिं
सिरसाग
मद्दणभंगसेय
पुजा दिव्य भोए
मी
सडेयारस
सुच
यायो
बराडाइस (12)
ऊण
विही
६ 'मुगदमं वपमं त्रिषु' इत्यमरः ७ मृदु उपकरण पट्टी श्रादिसे में यहां ही मेरे घर पर ही । 8 मांगे ( याचयेत् ) १० ऋषि समुदाये कर्तुं न शक्येत् । ११ मेंढक (दर) १२ गुरुजनोंसे १३ अक्षत कमलगृह श्रादिमें, देखो धवला
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[ किरण ६
३६१ क
४०७ ख
४०२ क
४०५ ख
४७४ ख
४३५ क
४३६ क
४३८ क
४३८ ख
.४४१ क
४४२ ख
४५४ ख
४५७ क
39
गंगीजा
डिलिय
दि
४०८ ख
४१० क
४१२ क
४१४ ख
४१५ क
४१७ क
४२१ क
४२२ क
४२६ ख
४२६ ख
४३० क
४३१ - सारीकी सारी गाथा-.
दुत्थं
19
कराविए
गिविसिऊ
विहिं
विविदे हिं
उच्चाह
गेस्स
य
तिसट्ठि
खिविज्जि
पइट्ठय
इंडिय
वसुनन्दि श्रावकाचारका पाठ संशोधन
गंगा (1)
दलिय (२)
दिय
कंडुड
अहवा
सत्तीए
39
कराबए
वेिसिऊण
तिथि (३)
विविदेहिं
उच्चार
गिहस्स
कणवीर-मल्लिया चयार मचकुन्द किं किराएहिं । सुरवध्यजूहिया पारिजाय जासण वारेहिं ॥ थालि पोहामिय
कप्पूर परिमलायत्ति
पूई
धूत्रदहणाइ
जागरणं
+
सेसद्रि
खिवेज्ज
पह
यि (४)
थाल
पोहुमिय ( १ )
तुरुक्क (६) परिमलापत्त (७)
पूर
भूयाणाईवि (८)
जागरं
अहव
भत्तीए
टीका पुस्तकाकार संतपरुप या पृष्ठ १४ । १ श्रंगैः ग्राह्या देखो धवला संत० पृष्ठ ६ । २ पटलितः श्राच्छादित । ३ त्रिविल- तबला वादित्र । ४ सुप्रमार्जित भूसा साफ किया हुआ। प्रभापुजके द्वारा सूर्य तेजकी उपमाको प्राप्त । ६ गाथामें तंद पद हैं जिसका अर्थ कपूर होता है अतः तुरुक्क-लोबाण पद संगत है । ७ सुगन्धिके कारण चारों ओर प्राप्त हुए हैं भ्रमर जिनके ऐसी । 5 पूजाके खर्च के लिए खेत जमीनका दान आदि ।
४५६ ख
४६० ख
४६१ ख
154
ख
99
६६६ ख
४६६ ख
४७२ क
४७२ ख
४७३ क
४८१ ख
४८३ क
४८१ क
४६४ ख
५०० ख
५०१ ख
१०८ क
१११ ख
५११ ख
५२७ क
५२६ क
५३३ ख
१३४ क
१३८ क
२४१ ख
२४१ ग
39
"
५४६ क
जं विषयं
जिहवं (1)
तिरियम्मं तिरियर बीए तिरियम्मि य
तिरियं लो
संध
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विजया गीवं
fuबिसकण
99
ति
किरण
33
परिउड़ो
तित्थवर
शिवमं
वयतरुणी
कालं
अच्छर समाउ
बुड्डू गा
पंचसु
[ २०७
झाइए
तिसु
कई
जीला व तिथयो
तरण
पण्यसु
खंध
विजं गीवार गिकिय
39
99
बुिद्ध तो
कर
परिउडो
तिब्वयर (१०)
विमा
वयण-तरुण
काले
अच्छरसाओ
उड़य (11)
पंचसु य श्रट्टगुण
सकं
वीरिए य
णाम
अट्ठगुणें
सिम्झइ
वीरिए
णामा
कवाड दंड यितणुपमाणंच, कवाडदंड
समाच
कायए
तीसु
करेइ
लीलारतियो
वरणि
पण्णासु
परिशिष्ट-संशोधन !
-
व्यावर भवनकी प्राचीनतम ग्रन्थ प्रतियों परसे स्पष्ट है कि ग्रंथकारको द्वितीय तृतीय आदि संस्कृत शब्दोंके वियय आदि प्राकृतरूप जो प्राकृत व्याकरयके नियमानुसार वर्गके प्रथम तृतीय व्यंजनको लोप करके अश्रुति और यश्रुतिपरक होते हैं- इष्ट थे और सम्पादक जीने ऐसे शब्दों को जो मूल पाठ में स्थान न देकर उन्हें
६ देखों गुणभूषण श्रा० का वाक्य टिप्पणी में | १० तीव्रतर । (नकि तीर्थंकर) ११ मज्जन ।
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२०८]
अनेकान्त
टिप्पणीमें दिया है वह ठीक नहीं है। हमने ऐसे भेजे जानेके कारण सम्प्रति हमारे पास नहीं हैं मोदक शब्दोंके अर्थ भेद न होने से इस विस्तृत तालिकामें पण्डितजी प्रकट करें। नहीं लिया है।
इस लेखके संकेतः- (संशोधन तालिकामें) अशुद्धियां 'च' और 'व' को तथा 'प' और 'य' का ठीकसे नहीं पढ़ने के कारण हो गई हैं. जिनमें बुज्जाह
. ऐसे चिन्ह वाले सन्शोधन गाथाओंके पद टिपचयणं. रस्थाययंगणे, द्विवणं श्रादि है और उनका शुद्धरूप ण में भी देखिए क, ख से मतलब गाथाके पूर्वाधं और चज्जाई वपणं, रत्थारापंगणे किंचण अादि होता है जो उत्तरार्धमे हैं। तालिकामें दे दिया गया है।
उपसंहार __ ग्रन्थकारको व्यसन और निवृत्ति शब्दोंके प्राकृतरूप समाजमें अन्थोंका शुद्ध प्रचार हो इस हेतु यह वसण और णियत्तो इष्ट थे नकि विसण, णिबुत्ती। इतने संशोधात्मक लेख लिखा गया है, किसी दुरभिसंधिवश पर भी कुछ स्थल हमें अब भी अस्पष्ट जंचते हैं और नहीं । यदि स्वाध्याची जन इस लेखका समुचित उपयोग वे स्थल निर्देश पूर्वक नीचे दिये जाते हैं
करके लाभ उठायेंगे और हमारा उत्साह बढ़ावेंगे तो १३७ क पज्जत्तयो दंडत्ति,"११२ क ठिइज्ज'", 'भविष्य में ऐसे ही लेख फिर प्रस्तुत किये जायेंगे। ३०१ की सारी गाथा | ३४३ ख प्रयतो वि..'४३२ ख भारतीय ज्ञानपीठ काशीक चाहिये कि वह वसुनन्दि टगरेहि तथा सुरवणज॥४३३ क मेहिय"४३६ ख श्रावकाचार' की अशुद्धियोंकी ओर ध्यान दे और उनका भदंचन"
सशोधन ग्रन्थमें लगा कर पाठकोंके लिए सुविधा प्रदान __ इनके स्पष्ट पाठ पहले हमारे संग्रहमें थे जो पं. करे, तथा भविष्यमें इस ओर और भी अधिक सावधानी परमानन्द जीके पास उनके उपयोगके लिए बहुत पहले रखनेका यत्न करेगी।
अनेक यात्राओंका सुगम अवसर
गुजरनेको गुजर जाती हैं उमरे शादमानीमें,
मगर यह कम मिला करते हैं, मौके जिदगानीमें ॥ . आल इण्डिया चन्द्रकीर्ति जैन यात्रा संघ देहली
( गवर्नमेन्ट आफ इण्डियासे रजिस्टर्ड : सुविधा पूर्वक, कम खर्चमें, कम समय । अारामसे धार्मिक साधनों के साथ प्रथम
श्री सम्मेदशिखरजीकी ओरभूमण, तीर्थयात्रा, अवकाश पुण्य संचय. इस चतुमुखी ध्येयको लेकर ही अन्य वर्षों की भांति इस वर्ष भी अनेक स्नेही बन्धुगणोंके अतीव प्राग्रहसे मंगशिर मासमें नवम्बर सन् १९५३ के आखिरी सप्ताहमें जानेका निश्चय किया है। बुन्देलखण्ड तथा उत्तर पूर्वीय जैन तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा जिसमें मुख्तया पूज्य वर्णी जीके दर्शन व उपदेश ल भ, चम्पापुर, पावापुर, कुण्डलपुर, श्री सम्मेद शिखरजी आ.द उस प्रान्तके सभी प्रमुख तीर्थ क्षेत्र व कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद आदि विशाल शहरोंका सुन्दर प्रायोजन है। समय लगभग १। माह होगा। विशेष विवरण व जानकारीको निम्न पते पर लिखें-प्रस्थान २७ दिसम्बर सन् १९५३ सीट खर्च-११५) सीट बुक ७ दिसम्बर तक। हेड आफिस-पाल इण्डिया चन्द्रकीति जैन यात्रा संघ,
( रजिस्टर्ड ) २२६३ धरमपुरा, देहली। नोट-हमारा दूसरा संघ गिरनार बाहुबली आदि विशाल यात्राओंको समय २ मासके लिए इस वर्ष भी जनवरी
सन् १९५४ के सप्ताह में जाना निश्चित है। इस वर्ष यात्री संख्या बहुत थोड़ी ले जाना है। अतः सीटें शीघ्र ही रिजर्व करा लेवें । प्रोग्रामको लिखें।
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किरण ६ ]
॥११॥
दव्वट्टियस्स सब्वं सया श्रणुवयण्णमविण दव्यं - पज्जव विजयं दव्व-विजुत्ता य पज्जवा रास्थि । उपाय- द्वि-भंगा होदि दवियलक्खणं एयं ॥ १२ ॥ एए पुण संगहश्र पडिक्कमलक्खणं दुवेहं पि । तम्हा मिच्छदिट्ठी पत्तेयं दो वि मूलणया ॥१३॥
इन गाथाओं में बतलाया है कि – 'पर्यायार्थिकनयकी दृष्टि में द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य ( सामान्य ) नियमसे अवस्तु है । इसी तरह द्रव्यार्थिकनकी दृष्टिमें पर्यार्थिक नयका वक्तव्य विशेष अवस्तु है । पर्यायार्थिक नयकी दृष्टि में सब पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नाशको प्राप्त होते हैं। द्रव्यार्थिकनकी दृष्टि में न कोई पदार्थ कभी उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है । द्रव्य पर्यायके (उत्पादव्ययके) बिना और पर्याय द्रव्यके ( धौम्यके ) बिना नहीं होते; क्योंकि उत्पाद व्यय और धौग्यमें तीनों द्रव्य-सत्का अद्वितीय लक्षण हैं ; ये (उत्पादादि ) तीनों एक दूसरेके साथ मिल कर ही रहते हैं, अलग अलग रूपमें – एक दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुए - मिथ्वादृष्टि हैं। अर्थात् दोनों नयों में से जब कोई भी नय एक दूसरेकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही विषयको सत् रूप प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंश में पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षीनय की अपेक्षा रखता हुआ प्रवर्तता हैउसके विषयका निरसन न करता हुआ तटस्थ रूपसे अपने विषय (वक्तव्य ) का प्रतिपादन करता है - तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशको अंशरूपमें ही (पूर्णरूपमें नहीं) माननेके कारण सम्यक् व्यपदेशको प्राप्त होता है —— सम्यग्दृष्टि कहलाता है ।"
समयसारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी
ऐसी हालत में जिनशासनका सर्वथा 'नियत' विशेषण नहीं बनता। चौथा 'अविशेष' विशेषण भी उसके साथ संगत नहीं बैठता; क्योंकि जिनशासन अनेक विषयोंके प्ररूपणादि सम्बन्धी भारी विशेषताओंको लिये हुए है, इतना ही नहीं बल्कि अनेकान्तात्मक स्याद्वाद उसकी सर्वोपरि विशेषता है जो अन्य शासनोंमें नहीं पाई जाती । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोत्रमें लिखा है कि 'स्याच्छब्दस्तावके न्याये नाऽन्येषामात्मविद्विषाम् (१०२) अर्थात् 'स्यात्' शब्दका प्रयोग आपके ही न्यायमें है, दूसरों के न्याय में नहीं, जो कि अपने वाद (कथन) के पूर्व उसे न अपनानेके कारण अपने शत्रु आप बने हुए हैं। साथ
[ २०६
ही यह भी प्रतिपादन किया है कि जिनेन्द्रका 'स्वात्' शब्द पुरस्सर कथनको लिये हुये जो स्याद्वाद है - अनेका तात्मक प्रवचन ( शासन ) है - वह दृष्ट (प्रत्यक्ष ) और इष्ट (आगमादिक) का अविरोधक होनेसे श्रमवद्य ( निर्दोष) है, जबकि दूसरा 'स्यात्' शब्दपूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन ( शासन) नहीं है, क्योंकि दृष्ट और इष्ट दोनोंके बोधको लिये हुये है (१३८ ) अकलंकदेवने तो स्याद्वादको जिनशासनका अमोघलक्षण बतलाया है जैसाकि उनके निम्न सुप्रसिद्ध वाक्यसे प्रकट है
श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादाऽमोघलांछनम् । त्रीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
स्वामी समन्तभद्वने अपने 'युक्त्यनुशासन' में श्रोवीरजिनके शासनको एकाधिपतित्वरूप लक्ष्मीका स्वामी होनेकी शक्तिले सम्पन्न बतलाते हुए, जिन विशेषोंकी विशिष्ट से अद्वितीय प्रतिपादित किया है वे निम्न कारिकासे भले प्रकार जाने जाते हैं
दया दम-त्याग समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण प्रकृताऽऽञ्ज सार्थं । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादेर्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥
इसमें बताया है कि वीर जिनका शासन दया, दम, त्याग और समाधिकी निष्ठा तत्परताको लिये हुए हैं, नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतश्वको बिल्कुल स्पष्ट (सुनिश्चित ) करने वाला है और अनेकान्तवादसे भिन्न दूसरे सभी प्रवादों (प्रकल्पित एकान्तवादों) से अबाध्य है, (यही सब उसकी विशेषता है) और इसीलिये वह अद्वितीय है सर्वाधिनायक होनेकी क्षमता रखता है ।
और श्रीसिद्ध सेनाचार्यने जिन प्रवचन ( शासन) के लिए 'मिथ्यादर्शन समूहमय' 'श्रमृतसार' जैसे जिन विशेक्षणोका प्रयोग सन्मतिसूत्रकी अन्तिम गाथामें किया है उनका उल्लेख ऊपर आ चुका है, यहाँ उक्त सूत्रकी पहली गाथाको और उष्टत किया जाता है [जसमें जिनशासन के दूसरे कई महत्वके विशेषणोंका उल्लेख है- . सिद्ध ं सिद्धत्थाणं ठाणमणोदमसुहं उवगयाणं । कुसमय-विसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥
इसमें भावको जीतने वाले जिनों- श्रईन्तोंके - शासनको चार विशेषणोंसे विशिष्ट बतलाया है - १ सिद्ध अकल्पित एवं प्रतिष्ठित २ सिद्धार्थोंका स्थान ( प्रमाणसिद्ध पदार्थोंका - विपादक) ३ शरणागतोंके लिये अनुपम सुखस्वरूप मोच
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.२१० ]
अनेकान्त
किरण ६
सुन तककी प्राप्ति कराने वाली कुसमयोंके शासनका क्योंकि कोई भी सम्पन्नय ऐसा नहीं है जो नियमसे शुद्ध निवारक (सर्वथा एकान्तवादका प्रश्रिय लेकर शासवरूढ़ जातीय हो-अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हो । जैसा बने हुए सब मिथ्यादर्शनोंके गर्वको चूर चूर करनेकी कि सिन्हसेनाचार्य के निम्न वाक्यसे प्रकट हैशक्ति से सम्पन्न)।
दम्वढिायोति सम्हाणात्थि णो रिएयम शुद्ध मातीयो। स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंकदेव से ण य पज्जवडिओ णाम कोई भयणा उविसेसो ॥६॥ महान् जैनाचार्योक उपयुक्त वाल्योंसे जिनशासनकी विशे
. जो मय अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हो वह षताओं या उसके सविशेषरूपका ही पता नहीं चलता
सम्यकनय न होकर मिथ्यानय है. प्राचार्य सिद्धसेनने बक्कि मुस शासनका बहुत कुछ मूलस्वरूप मूर्तिमान
उसे दुनिक्षिप्त शुद्धमय (अपरिशुद्धनम) बतलाया है होकर सामने पा जाता है। परन्तु इस स्वरूप कानमें
और लिखा है कि ग्रह स्व-पर दोनों पक्षोंका विघातक कहीं भी शुद्धात्माको जिनशासन नहीं बतलाया गया, यह मा देखकर यदि कोई सन्तन अक्त महान् प्राचाबों को, जो
हा पाँचवाँ 'संयुक्त' विशेषा, वह भी जिनशासन कि जिनशासन स्तम्भस्वरूप सम्ने खाते हैं, लौकिकजन'
के साथ लागू नहीं होता; क्योंकि जो शासन अनेक प्रकारके या 'अन्यमती' कहने लगे और यह भी कने बगे कि
विशेषोंसे युक्त है, अभेद भेदात्मक अर्थतत्त्वोंकी विविध 'उन्होंने जिनशासनको जाना या समझा तक नहीं तो
कथनीसे संगठित है, और अंगों मादिके बनेक. सम्बन्धोंको विज्ञपाठक उसे क्या कहेंगे, किन शब्दोंसे पुकारेंगे और
अपने साथ जोड़े हुए है उसे सर्वथा असंयुक्त कैसे कहा जा उसके ज्ञानकी कितनी सराहना करेंगे यह मैं नहीं जानता,
सकता है ? नहीं कहा जा सकता। विज्ञपाठक इस विषयके स्वतन्त्र अधिकारी हैं और इस
इस तरह शुदामा और जिनशासनको एक बतलानेसे लिये इसका निर्णय मैं उन्हीं पर छोड़ता हूँ। यहाँ तो मुझे
शुद्धामाके पाँच विशेषण जिनशासनको प्राप्त होते हैं वे जिनशासन सम्बन्धी इन उल्लेखों द्वारा सिर्फ इतना ही
उसके साथ संगत नहीं बैठते । इसके सिवा शुद्धात्मा केवलबतलाना या दिखलाना इष्ट है कि सर्वथा 'भविशेष'
ज्ञानस्वरूप है, जब कि जिनशासनके द्रव्यश्रुत और भावविशेषण उसके साथ संगत नहीं हो सकता। और
श्रुत ऐसे दो मुख्य भेद किये जाते हैं, जिनमें भावभु त उसीके साथ क्या किसीके भी साथ वह पूर्णरूपेण संगत नहीं
श्रतज्ञानके रूपमें है, जिसका केवलज्ञानके साथ और नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा कोई भी द्रव्य, पदार्थ या वस्तु तो प्रत्यक्ष परोक्षका भेद तो है ही। रहा द्रव्यश्रुत, बह विशेष नहीं है जो किसी भी अवस्थामें पर्याय भेद विकल्प
शब्दात्मक हो या अक्षरात्मक दोनों ही अवस्थाओंमें अब या गुणको लिये हुए न हो। इन अवस्था तथा पर्यायादिका
रूप है-ज्ञानरूप नहीं । चुनाचे श्री कुन्दकुन्दाचार्यने भी' नाम ही 'विशेष' है और इसलिये जो इन विशेषोंसे
सत्थं खाणं ण हवइ जम्हा सस्थं ण जाणाए किंचि। सर्वथा शून्य है वह श्रवस्तु है। पर्याय बिना द्रव्य और
तम्हा भए णाणं अण्ण सत्थं जिणाविति ॥' इत्यादि दम्बके बिना पर्याय होते ही नहीं. दोनों में परस्पर भविना
गाथाओंमें ऐसा ही प्रतिपादन किया है और शास्त्र तथा भाव सम्बन्ध है। इस सिद्धान्तको स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने
शब्दको ज्ञानसे भिन्न बतलाया है। ऐसी हालतमें शुद्धाभी अपने पंचास्तिकाय प्रन्यकी निम्न गाथामें स्वीकार
स्माके साथ द्रव्यश्रतका एकत्व स्थापित नहीं किया जा किया है और उसे श्रमणोंका सिद्धान्त बतलाया है। सकता और यह भी शुद्धास्मा तथा जिनशासमको एक पज्जव विजुदं दबं दबविजुत्ता य पज्जवा पत्थि। बतलाने में बाधक है। दोगह अगायाभूदं भावं समणापरूविति ॥ १२॥ . अब मैं इतना और बतखा देना चाहता हूँ कि स्वामी
ऐसी हालतमें शुद्धास्मा भी इस श्रमया-सिद्धान्तसे जीके प्रवचन लेखके प्रथम मैरेग्राफमें जो यह लिखा है किबहिर्भूत नहीं हो सकता, उसे जो अविशेष कहा गया है "शुद्ध मामा वा जिनशासन है; इसलिये जो जीव वह किस रष्टिको जिये हुए है इसे कुछ गहराई में उतर अपने गुमात्माको देखता है वह समस्त जिनशासनको कर जामने की जरूरत है । मात्र ग्रह कह देनेसे काम देखता है। यह बात श्री आचार्यदेव . समयसारकी नहीं चलेगा कि शुद्धनयकी दृष्टिसे वैसा कहा गया है पादरहवीं गाथामें कहते हैं:-"
यक बिना द्रव्य और तम्हा भए
णा
और शास्त्र तथा
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किरण 1
जिनशासन
[२११
वह सर्वांशमें ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त गाथामें है। किस दृष्टिसे या किन साधनोंसे देखता है, और आस्माश्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने ऐसा कहीं भी नहीं कहा कि जो शुद्ध के इन विशेषणोंका जिनशासनको पूर्ण रूपमें देखनेके साथ,
आत्मा वह जिनशासन हे' और न 'इसलिये' अर्थका क्या सम्बन्ध है और वह किस रीति-नीतसे कार्य में परिणत वाचक कोई शब्द ही गाथामें प्रयुक्त हुप्रा है। यह सब किया जाता है यह सब उसमें कुछ बतलाया महीं। इन्हीं स्वामीजीकी निजी कल्पना है। गाथामें जो कुछ कहा सब बातोंको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत थी और गया है उसका फालतार्थ इतना ही है कि 'जो आत्माको इन्हींसे पहली शंकाका सम्बन्ध था, जिन्हें न तो स्पष्ट अबद्धस्पृष्टादि विशेषणोंके रूप में देखता है वह समस्त किया गया है और न शंकाका कोई दूसरा समाधान ही जिनशासनको भी देखता है। परन्तु कैसे देखता है ? प्रस्तुत किया गया है-दूसरी बहुत सी फालतू बातोंको शुद्धात्मा होकर देखता है या अशुद्धात्मा रह कर देखता प्रश्रय देकर प्रवचनको लम्बा किया गया। क्रमश:
जि....न....शा....स न जिनशासनको कब यथार्थ जाना कहा जाता है ?
[श्री कानजीस्वामी सोनगढ़ का वह प्रवचन लेख जो आत्मधर्मके गत आश्विन मास अङ्क ७ के शुरूमें प्रकाशित हुआ है, जिस पर 'अनेकान्त' की इसी किरण के शुरूमें विचार किया गया है।]
शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है; इसलिये जो जीव जिनशासनसे बाहर है। जो जीव आत्माको कर्मके सम्बअपने शुद्ध आत्माको देखता है वह समस्त जिनशासन- न्धयुक्त ही देखता है उसके वीतरागभावरूप जैनधर्म को देखता है। यह बात श्री प्राचार्यदेव समयसारकी नहीं होता । अन्तरस्वभावकी दृष्टि करके जो अपने पन्द्रहवीं गाथामें कहते हैं :
प्रास्माको शुद्धरूप जानता है उसीके वीतरागभाव प्रकट यः पश्यति आस्मान, प्रबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् । होता है और वही जैनधर्म । इसलिये प्राचार्यदेव कहते हैं अपदेशसान्तमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥१२॥ कि जो जीव अपने आत्माको कर्मके सम्बन्धरहित एकाकार
इस गाथामें प्राचार्यदेवने जैनदर्शनका मर्म खोलकर विज्ञानधर्म स्वभावरूप देखता है वह समस्त जैनशासनको रक्खा है। जो इन अवद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष देखता है ।
और असंयुक्त-ऐसे पाँच भावोंरूप प्रास्माकी अनुभूति देखो यह जैन शासन ! लोग बाह्यमें जैनशासन मान है वह निश्चयसे समस्त जिएशासनको अनुभूति है। मैठे हैं. परन्तु जैनशासन तो पास्माके शुद्धस्वभावमें जिसने ऐसे शुद्ध प्रात्माको जाना उसने समस्त जिनशासन है। कई लोगों को ऐसी भ्रमणा है कि जैनधर्म तो कर्मको जान लिया । समस्त जिनशासनका सार क्या ? प्रधान धर्म है। लेकिन यहाँ तो प्राचार्यदेव स्पष्ट कहते हैं -अपने शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना। शुद्ध प्रात्माके कि आत्माको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तवमें अनुभवसे वीतरागता होती है और वही जैन धर्म है; जैनशासन नहीं है परन्तु कर्म के सम्बन्धसे रहित शुद्ध जिससे रागकी उत्पत्ति हो वह जनधर्म नहीं है। 'में देखना वह नशासन है। जैनशासन कर्मप्रधान तो बंधनवाला प्रशद्ध हूँ'-इस प्रकार जो पर्यायदृष्टिसे नहीं है. परन्तु कर्मके निमित्तसे जीवकी पर्यायमें जो अपने भास्माको अशुद्ध ही देखता है उसके रागकी पुण्यपापरूप विकार होता है उस विकारको प्रधानता भी उत्पत्ति होती है और राग है वह जैनशासन नहीं है। जैनशासनमें नहीं है। जैनधर्ममें तो ध्र व-ज्ञायक पवित्र इसलिये जो अपने पारमाको अशुद्धरूपही देखता है परन्तु प्रात्मस्वभावकी ही प्रधानता है; उसकी प्रधानतामें ही शुद्ध मामाको नहीं देखता उसे जिनशासनकी खबर नहीं वीतरागता होती है। विकारकी या परकी प्रधानतामें है। भाल्भाका कर्मके सम्बन्धयुक्त ही देखने वाला जीव नहीं होती इसलिये उसकी प्रधानता वह जैनधर्म नहीं है।
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२१२]
अनेकान्त
[किरण ६ .
जो जीव स्वोन्मुख होकर अपने ज्ञायक परमात्मतत्तको समावेश शुद्ध प्रास्माके अनुभव में हो जाता है, इसलिये न समझे उस जीवने जैनधर्म प्राप्त नहीं किया है और शुद्ध आत्माको अनुभूति वह समस्त जिनशासनकी जिसने अपने ज्ञायक परमात्मतत्वको जाना है वह समस्त अनुभूति हैं। जैनशासनके रहस्यको प्राप्त कर चुका है। अपने शुद्ध अहो ! इस एक गाथामें श्रीकुंद दाचार्यदेवने ज्ञायक परमात्मतत्त्वकी अनुभूति वह निश्चयसे समग्र
जैनदर्शनका अलौकिक रहस्य भर दिया है। जैनशासन
का मर्म क्या है-वह इस गाथामें बतलाया है। जिनशासनकी अनुभूति है। कोई जीव भले ही जैनधर्म में कथित नवतत्वोंको व्यवहारसे मानता हो, भले ही प्रास्मा ज्ञानघनस्वभावी है; वह कर्मके सम्बन्धसे ग्यारह अंगोंका ज्ञाता हो और भले ही जैनधर्ममें रहित है। ऐसे अात्मस्वभावको दृष्टिमें न लेकर कर्मक कथित व्रतादिकी क्रिया करता हो; परन्तु यदि वह अंत
सम्बन्धवाली दृष्टिसे प्रात्माको लक्षमें लेना सो रागबुद्धि ।
है, उसमें रागकी-अशुद्धताकी उत्पत्ति होती है इसलिये . रंगमें परद्रव्य और परभावोंसे रहित शुद्ध प्रात्माको न जानता हो तो वह जैनशासनसे बाहर है, उसने वह जैनशासन नहीं है। भले ही शुभ विकल्प हो और वास्तवमें जैन-शासनको नहीं जाना है।
पुण्य बंधे, परन्तु वह जैनशासन नहीं है। प्रास्माको 'भावप्रामत'में शिष्य पूछता है कि-जिनधर्मको उत्तम
असंयोगी शुद्ध ज्ञानघनस्वभावरूपसे दृष्टिमें लेना सो कहा, तो उस धर्मका स्वरूप क्या है ? उसके उत्तरमें
वीतरागदृष्टि है और उस दृष्टि में वीतरागताकी ही उत्पत्ति प्राचार्यदेव धर्मका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि:
होती है इसलिये वही जैनशासन है। जिससे रागकी
उत्पत्ति हो और संसार परिभमण हो वह जैनशासन नहीं पूयादिसु वयसहियं पुरणं हि जिणेहि सासणे भणियं ।
हैं, परन्तु जिसके अवलम्बनसे वीतरागताकी उत्पत्ति हो मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥३॥
और भवभ्रमण मिटे वह जैनशामन है। जिनशासनके सम्बन्धमें जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा आत्माकी वर्तमान पर्वायमें अशुद्धता तथा कर्मका है कि-पूजादिकमें तथा जो व्रतसहित हो उसमें तो सम्बन्ध है; परन्तु उसके त्रिकाली सहजस्वभाव में अशुपुण्य है और मोह-क्षोभ रहित श्रात्माके परिणाम
द्धता या कर्मका सम्बन्ध नहीं है, निकाली सहज-स्वभाव तो वा धर्म है।
एकरूप विज्ञानधन है। इस प्रकार आत्माके दोनों पक्षोंको कोई-कोई लौकिकजन तथा अन्यमती कहते हैं कि
जानकर, त्रिकाली स्वभावकी महिमाकी ओर उन्मुख पूजादिक तथा व्रत-क्रियासहित हो वह जैनधर्म है: डोका मामाका शतसे नन , परन्त ऐसा नहीं है । देखो, जो जीव-व्रत-पूजादिके अनेकान्त हैं और वही जैनशासन है । ऐसे श द्ध शभरागको धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिकजन' और आत्माकी अनुभूति हो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हैं। 'अन्यमती' कहा है । जनमतमें जिनेश्वर भगवानने मैं विकारी और कर्मके सम्बन्धवाला हूँ-इस प्रकार व्रत-पूजादिके शभभावको धर्म नहीं कहा है, परन्तु पर्यायष्टिसे लक्षमें लेना वह तो रागकी उत्पत्तिका कारण प्रात्माके वीतरागभावको ही धर्म कहा है। वह वीतराग- है; और यदि उसके श्राश्रयसे लाभ माने तो मिथ्यात्वकी भाव कैसे होता है -शुद्ध प्रारमस्वभावके अवलम्बन उत्पत्ति होती है। इसलिये प्रास्माको कर्मके सम्बन्धवाला से ही वीतरागभाव होता है; इसलिये जो जीव शुद्ध और विकारी देखना वह जैनशासन नहीं है। दूसरे प्रकार श्रास्माको देखता है वही जिनशासनको देखता है। से कहा जाये तो श्रात्माको पर्यायबुद्धिसे ही देखनेवाला सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र मी शुद्ध प्रास्माके अवलम्बनसे ही जीव मिथ्यादृष्टि है। पर्यायमें विकार होने पर भी उसे प्रगट होते हैं, इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष- महत्व न देकर द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना मार्गका समावेश भी श छ प्रारमाके सेवन में हो जाता वह सम्यग्दर्शन और जैनशासन है । अन्तरमें ज्ञानरूप है, और शुद्ध प्रारमाके अनुभवसे जो वीतरागभाव भावश्रत और बाझमें भगवानकी वाणीरूप दग्यश्रतप्रगट हुश्रा उसमें अहिंसाधर्म भी पा गया तथा उत्तम उन सबका सार यह है कि ज्ञानको अन्तरस्वभावोन्मुख समादि दस प्रकारके धर्म भी उसमें भी गये। इसप्रकार, करके प्रात्माकी शद्ध अबम्पृष्ट देखना चाहिए। जो जिन-जिन प्रकारों से जैनधर्मका कथन है उन सर्व प्रकारोंका ऐसे प्रात्माको देखे उसीने जैनशासनको जाना है और
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२१३
[किरण ६
जिनशासन उसीने सर्व भावश्चतज्ञान त-1 ग्यश्रतज्ञानको जाना है। महीं है। प्रारमा शुद्ध विज्ञानधन है, वह बाह्ममें शरीरादिकी भिन्न भिन्न अनेक शास्त्रोंमें अनेकप्रकारकी शैलीसे कथन क्रिया नहीं करता; शरीरकी क्रियासे उसे धर्म नहीं होता; किया हो; परन्तु उन सर्व शास्त्रोंका मूल तात्पर्य तो पर्याय कर्म उसे विकार नहीं करता और न शुभ-अशुभ विकारी बुद्धि छुड़ाकर ऐसाशुद्ध पारमाही बतलानेका है। भगवान- भावोंसे उसे धर्म होता है। अपने शुद्ध विज्ञानवन स्वभावके की वाणीके जितने कथन हैं उन सबका सार यही है कि प्राश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है। जो जीव शुद्ध श्राम्माको जानकर उसका श्राश्रय करो। जो जीव ऐसे शुद्ध प्रात्माको अन्तरमें नहीं देखता और कर्मके ऐसे शुद्ध प्रात्माको न जाने वह अन्य चाहे जितने शास्त्र निमित्त प्रास्माकी अवस्था में होनेवाले क्षणिक विकार जानता हो और व्रतादिका पालन करता हो, तथापि उसने जितना ही आत्माको देखता है वह भी जैनशासनको नहीं जैनशासनको नहीं जाना है।
देखता; कर्मके साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध रहित जो जैनशासनमें कथित प्रात्मा जब विकाररहित और सहज एकरूप शुद्ध ज्ञानस्वभावी आत्मा है उसे जीव कर्मके सम्बन्ध रहित है, तब फिर इस स्थल शरीरके शुद्धनयसे देखता है उसीने सर्व शास्त्रोंके सारको समझा है। आकारवाला तो वह कहाँसे हो सकता है ? जो ऐसे ' (१) जैनशासनमें कर्मके साथ निमित्त-नैमित्तिक श्रात्माको नहीं जानता और जड़-शरीरके श्राकारसे आत्मा
सम्बन्धका ज्ञान कराते हैं। परन्तु जीवको वहीं रोक रखने
सम्बन्धका ज्ञान करात है; परन को पहिचानता है उसने जैनशासनके श्रात्माको नहीं जाना का उसका प्रयोजन नहीं है वह तो उस निमित्त नैमित्तिक है। वास्तवमें भगवानकी वाणी कैसा भात्मा बतलानेमें
सम्बन्धकी दृष्टि छुड़ाकर असंयोगी अात्मस्वभावकी दृष्टि निमित्त है-अबद्धस्पृष्ट एकरूप शुद्ध प्रात्माको भगवान
कराता है। इसलिये कहा है कि जो जीव कर्मके सम्बन्ध की वाणी बतलाती है; और जो ऐसे आत्माको समझता
रहित पास्माको देखता है वह सर्व जिनशासनको देखता है। है वही जिनवाणीको यथार्थतया समझा है । जो ऐसे (२) मनुष्य, देव, नारकी इत्यादि पर्यायोंसे देखने पर अबद्धस्पृष्ट भूतार्थ आत्मस्वभावको न समझे वह जिनवाणी अन्य अन्यपना होने पर भी प्रात्माको उसके ज्ञायक स्वभाको नहीं समझा है। कोई ऐसा कहे कि मैंने भगवानकी वसे एकाकार स्वरूप देखना ही जैनशासनका सार है। वाणीको समझ लिया है परन्तु उसमें कथितभावको पर्यायष्टिसे श्रास्मामें भिन्न-भिन्नपना होता अवश्य है और (-प्रबद्ध-स्पृष्ट शुद्ध आत्मस्वभावको) नहीं समझ पाया, शास्त्रोंमें उसका ज्ञान कराते हैं। परन्तु उस पर्याय जितना -तो श्राचार्यदेव कहते हैं कि वास्तवमें वह जीव ही प्रात्मा बतलानेका जैनशासनका श्राशय नहीं है; किन्तु भगवानकी वाणीको भी नहीं समझा है और भगवानकी एकरूप ज्ञायक विम्ब श्रात्माको बतलाना ही शास्त्रोंका वाणीके साथ धर्मका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध उसके सार है; तथा ऐसे आत्माके अनुभवसे ही सम्यग्ज्ञान होता प्रगट नहीं हुआ है। स्वयं अपने प्रात्मामें शुद्ध आत्माके है। जिसने ऐसे आत्माका अनुभव किया उसने द्रव्यश्रुत अनुभवरूप नैमित्तिकभाव प्रगट नहीं किया उसको भगवान और भावश्रुतरूप जैनशासनको जाना है। की वाणी धर्मका निमित्त भी नहीं हुई; इसलिये वह (३) प्रास्माकी अवस्थामें ज्ञान-दर्शन-वीर्य इत्यादि वास्तवमें भगवानकी वाणीको समझा ही नहीं है। की न्यूनाधिकता होती है, परन्तु ध्रु वस्वभावसे देखने पर भगवानकी वाणीको समझ लिया ऐसा कब कहा जाता आत्मा हीनाधिकतारहित सदा एकरूप निश्चल है। पर्याहै कि जैसा भगवानकी वाणीमें कहा है वैसा भाव यकी हीनाधिकताके प्रकारोंका शास्त्रने ज्ञान कराया है। अपने में प्रगट करे तभी वह भागवानकी वाणीको समझा परन्तु उसी में रोक रखनेका शास्त्रका प्राशय नहीं है। है और वही जिनशासनमें आ गया है। जो जीव ऐसे क्योंकि पर्यायको अनेकताके आश्रयमें रुकनेसे एकरूप शुद्ध मात्माको न जाने वह जैनशासनसे बाहर है।
आत्माका स्वरूप अनुभवमें नहीं पाता । शास्त्रोंका प्राशय बाह्ममें जड़ शरीरकी क्रियाको आत्मा करता है और तो पर्यायका- व्यवहारका आश्रय छुड़वाकर नियत-एकउसकी क्रियासे आत्माको धर्म होता है-ऐसा जो देखता रूप ध्र व प्रात्मस्वभावका अवलम्बन करानेका है, उसीके हैं ( मानता है) उसे तो जैनशासनकी गंध भी नहीं है। अवलम्बनसे मोक्ष मार्गकी साधना होती है। ऐसे मामतथा कर्मके कारण आत्माको विकार होता है या विकार- भावका अवलम्बन लेकर अनुभव करना सो जेनशासनका भावसे प्रास्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमें अनुभव है। पर्यायके अनेक भेदोंकी दृष्टि छोड़कर अभेद
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२१४]
अनेकान्त
[ किरण ६
दृष्टिसे शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना-वह शास्त्रोका
- देखो, यह अपूर्व कल्याणकी बात है! यह कोई साधाअभिप्राय है।
रण बात नहीं है। यह तो ऐसी बात है कि जिसे समझने (४) भगवानके शास्त्रोंमें ज्ञान-दर्शन-चारित्र इत्यादि से अनादिकालीन भवभ्रमणका अन्त श्रा जाता है गुण भेदसे प्रारमाका कथन किया है; परन्तु वहाँ उन भेदों- प्रारमाकी दरकार करके यह बात समझने योग्य है ब्राह्म के विकल्पमें जीवको रोक रखनेका शास्त्रोंका प्राशय नहीं क्रियासे और पुण्यभावसे पारमाको लाभ होता है-ऐसा है; भेदका अवलम्बन छुड़ा कर अभेद आत्मस्वभावको मानने की बात तो दूर रही; यहाँ तो कहते हैं कि हे जीव ! बतलाना ही शस्त्रोंका प्राशय है। भेदके आश्रयसे तो तू उस बाह्यक्रियाको मत देख, पुण्यको मत देख, किन्तु रागकी उत्पति होती है और राग वह जैनशासन नहीं है। अपने अन्तरमें ज्ञानमूर्ति आत्माको देख । 'पुण्य है सो मैं इसलिए जो जीव भेदके लक्षसे होने वाले विकल्पोंसे लाभ हूँ।'-ऐसी दृष्टि छोड़कर 'मैं ज्ञायकभाव है-ऐसी मानकर उनके श्राश्रयमें रुके और पारभाके अभेद-स्वभावका दृष्टि कर । देहादिकी बाह्यक्रियासे और पुण्यसे भी पार श्राश्रय न करे वह जैनशासनको नहीं जानता है। अनन्त ऐसे अपने ज्ञायक-स्वभावी पास्माका अन्तरमें अवलोकन गुणोंसे अभेद आत्मामें भेदका विकल्प छोड़कर, उसे अभे- करना ही जैनदर्शन है । इसके अतिरिक्त लोग व्रत-पूजादस्वरूपसे लक्षमें लेकर उसमें एकान होनेसे निर्विकल्पता दिकको जनदर्शन कहते हैं, परन्तु वास्तव में वह जैनदर्शन होती है। यही समस्त तीर्थ करोंकी वाणीका सार है और नहीं है व्रत-पूजादिकमें तो मात्र शुभराग है और जैनधर्म यही जैनशासन है।
____तो वीतरागभाव-स्वरूप है। ५. प्रात्मा क्षणिक विकारसे असंयुक्त है; उसकी प्रश्न-कितनोंने ऐसा जैनधर्म किया है। अवस्थामें क्षणिक रागादिभाव होते हैं। उन रागादिभावों उत्तर-अरे भाई! तुझे अपना करना है दूसरोंका ? का अनुभव करना वह जैनशासन नहीं है। स्वभाव दृष्टिसे पहले तू स्वयं तो अपने प्रात्माको समझकर जैन हो; फिर देखने पर प्रात्मामें विकार है ही नहीं । क्षणिक विकारसे तुझे दूसरोंकी खबर पड़ेगी ! स्वयं अपने प्रास्माको समझअसंयुक्त ऐसे शुद्ध चैतन्यधन स्वरूपसे आत्माका अनुभव कर अपने प्रास्माका हित कर लेनेकी यह बात है। ऐसे करना ही अनन्त सर्वज्ञ-अरिहन्त परमात्माओंका हार्द और वीतरागी जनधर्मका सेवन कर-करके ही पूर्वकालमें अनंत संतोंका हृदय है; बारह अंग और चौदह पूर्वकी रचनामें जीवोंने मुक्ति प्राप्त की है, वर्तमानमें भी दुनिया में जो कुछ कहा है उसका सार यही है। निमित्त, राग या
असंख्य जीव इस धर्मका सेवन कर रहे हैं। महाभेदके कथन भले हों, उनका ज्ञान भी भले हो, परन्तु
विदेह क्षेत्रमें तो ऐसे धर्मकी पेढ़ी जोर-शोरसे चल रही उन्हें जानकर क्या किया जाये तो कहते हैं कि अपने
है; वहाँ साक्षात् तीर्थंकर विचर रहे हैं, उनकी दिव्यध्वनि प्रात्माका परद्रव्यों और परभावोंसे भिन्न अभेद ज्ञानस्व-
में ऐसे धर्मका स्रोत वहता है, गणधर उसे झेलते हैं,
सर भावरूपसे अनुभव करो; ऐसे प्रास्माके अनुभवसे ही पर्याय
इन्द्र उसका आदर करते हैं, चक्रवर्ती उसका सेवन करते में शुद्धता होती है। जो जीव इस प्रकार शुद्ध प्रास्माको हैं और भविष्य में भी अनंत जीव ऐसा धर्म प्रगट करके दृष्टि में लेकर उसका अनुभव करे वही सर्व सन्तों और
मुक्ति प्राप्त करेंगे। लेकिन उससे अपनेको क्या ? अपनेशास्त्रोंके रहस्यको समझा है।
को तो अपने पास्मामें देखना चाहिए। दूसरे जीव मुक्ति देखो यह शुद्ध प्रास्माके अनुभवकी वीतरागी कथा
प्राप्त करें उससे कहीं इस आत्माका हित नहीं हो जाता है! वीतरागी देव-गुरु-शास्त्रके अतिरिक्त ऐसी कथा
और दूसरे जीव संसार में भटकते फिरें उससे इस आत्माकौन सुना सकता है ? जो जीव वीतरागी अनुभवकी ऐसी
के कल्याणमें बाधा नहीं पाती। जब स्वयं अपने प्रात्माको कथा सुनाने के लिये प्रेमसे खड़ा है उसे जैन शासनके देव.
समझे तब अपना हित होता है । इस प्रकार अपने प्रास्माके गुरु शास्त्र पर श्रद्धा है और उनकी विनय तथा बहुमानका
लिये यह बात है, यह तत्व तो तीनों काल दुर्लभ है और शुभराग भी है; परन्तु वह कहीं जैनदर्शनका सार नहीं
इसे समझने वाले जीव भी विरले ही होते हैं। इसलिये है - वह तो बहिमुख रागभाव है। अन्तरमें स्वसन्मुख
स्वयं समझकर अपना कल्याण कर लेना चाहिए होकर, देव-गुरु शास्त्रने जैसा कहा है वैसे प्रास्माका राग
(-श्री समयसार गाथा १५ पर पूज्य स्वामीजीके रहिव अनुभव करना ही जैन-शासनका सार है।
प्रवचन से)
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. श्रीबाहुबलि-जिनपूजाका अभिनन्दन
मुख्तार जुगलकिशोर द्वारा नवनिर्मित यह पूजा, जो कि पूजा साहित्यमें एक नई चीज है, जबसे पहली बार गत मई मासकी अनेकान्त किरण नम्बर १२ में सामान्य रूपसे प्रकाशित हुई है तभीसे इसको अच्छा अभिनन्दन प्राप्त हो रहा है। यही कारण है कि.पुस्तकके रूपमें छपनेसे पहले ही इसकी प्रायः दो हजार प्रतियोंके ग्राहक दर्ज रजिस्टर हो गये थे, जिनमेंसे १५०० के लगभग प्रतियोंका श्रेय श्री जयवन्ती देवी और उसकी बुना गुणमालादेवीको प्राप्त है, जिन्होंने कुछ स्त्रियोंके परिचयमें इस पूजाको लाकर उनसे इतनी प्रतियोंकी बिना मूल्य वितरणके लिये खरीदारीकी स्वीकृति प्राप्त की। अब तो कुछ संशोधनके साथ अच्छे सुन्दर आर्ट पेपर पर मोटे अक्षरों में पुस्तकाकार छप जाने और साथमें श्री गोम्मटेश्वर बाहुबली फोटोचित्र रहनेसे इसका आकर्षण और भी बढ़ गया है और इसलिये जो भी इसे देख सुन पाता है वही इसकी ओर आकर्षित हो जाता है। पं० श्रीकैलाशचन्दजी शास्त्री बनारसने तो प्रथम बार सुनकर ही कहा था कि यदि जैन पूजाओंको इस प्रकारके संस्कारोंसे संस्कारित कर दिया जाय तो कितना अच्छा हो ।' अस्तु, अभिनन्दनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं:
१. प्राचार्य नमिसागरजीको 'यह पूजा अत्यन्त प्रिय लगी है। और उन्होंने हिसारसे पं० सूर्यपालजीके पत्र द्वारा अपना आशीर्वाद भी भेजा है।
२. मुनि श्री समन्तभद्गजीने इसे साद्यन्त पढ़कर अपना भारी प्रानन्द व्यक्त करते हुए मुख्तारजीके लिये कुछ मंगल भावना भी भेजी है, जैसा कि बाहुबलि ब्रह्मचर्याश्रमके मन्त्रीकी ओरसे लिखे गये पत्रके निम्न अंशसे प्रकट है
___ 'वह पूज्य श्रीने आद्योपांत पढ़ी । अापका रचा हुश्रा सुन्दर सरस काव्य, भक्तिरससे भरा हुआ पढ़कर उनको बहुत प्रानंद हुश्रा । इस कवित्व शक्तिकी देन आपको प्रकृतिने प्रदान की है । ऐसे ही जिन भक्ति बढ़ानेके कार्य में ही उसका अधिकाधिक विकास व उपयोग होता रहे यह मंगल भावना साथ भेजी है।'
३. 'पं० अमृतलालजी दर्शन-साहित्याचार्य बनारससे लिखते हैं-'यह पुस्तक लिखकर पूजासाहित्यमें आपने एक नई चीज. उपस्थित की, इसमें कोई सन्देह नहीं । पुस्तक बहुत ही सरस और सरल है। पुस्तक प्रारम्भ करने पर बन्द करनेकी इच्छा नहीं होती। यह पुस्तक प्रत्येक जैनको अपने संग्रहमें रखनी चाहिये । पुस्तककी छपाई सफाई बहुत ही सुन्दर है और ) ( दो पाने ) मूल्य भी बहुत कम है। इसके लिये हम अापका अभिनन्दन करते हैं।
४. सम्पादक 'जन सन्देश' पुस्तकको समालोचना करते हुए लिखते हैं-'निश्चय ही इस नये रूपमें पूजनको समाजके सामने रखने में माननीय मुख्तार साहबको बहुत सफलता मिली है। पाठकोंसे यह पुस्तक मंगाकर पढ़नेका और यह पूजन करनेका अनुरोध करेंगे।'
५. डा० श्रीचन्दजी जैन संगल एटा, जिन्होंने पहिले ही इस पूजाको पसन्द करके फ्री वितरणके लिये ५०० कापीका आर्डर दिया था, लिखते हैं कि-'पुस्तक बहुत अच्छी छपी है और सुन्दर है । अब आप महाबीर स्वामीको भी ऐसी एक पूजा बनाकर छपवाइये .'
.बा. प्रद्य म्नकुमारजी संगलने जब इस पूजाको पढ़ा तो उन्हें वह बहुत ही रुचिकर प्रतीत हई और , इसलिये उन्होंने अपने इष्ट मित्रादिको वितरण करनेके लिये उसकी १०० कापी खरीदी परंतु इतनेसे ही उनकी तृप्ति नहीं हुई और इसलिये श्री महावीरजी की यात्राको जाते हुए वे १०० कापी वितरणको ले गये और यात्रासे पार्टी सहित वापिसी पर लिखा कि-'श्री बाहुबलि जिन पूजाको नित्य हम लोग करते थे, उसमें मुझे सबसे अधिक भानन्द " मिलता था। सौ प्रतियाँ इस पूजाकी हम लोगोंने मथुरा और महावीरजीमें बांट दी थीं । श्रीमहावीरजीकी पूजा.... आपकी कब पूरी होगी इसकी मुझे बहुत प्रतीक्षा है। प्रथम अंश उसका बहुत उत्तम लगा।'
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________________ Regd. No. D. 211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक सररररर संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, 251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी, 101) बा० काशीनाथजी, 251) बा० सोहनलालजी जन लमेचू, 101) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी .. 101) बा० धनंजयकुमारजी 51) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन, 101) बा जीतमलजी जैन 251) बा० दीनानाथजी सरावगी 101) बा० चिरंजीलालजी सरावगी 251) बा० रतनलालजी झांझरी 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची बाबल्देवदासजी जैन सरावगी 101) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 251) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजी मादीपुरिया. देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता 251) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी 101) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ 251) सेठ मांगीलालजी 101) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जनय 101) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 251) बा०विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया 101) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन. कलकत्ता 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली 101) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली 101) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना 251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर 101) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार 251) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद 101) ला० बलवन्तसिंहजो, हांसी जि०हिसार 251) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली 101) कुंवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि. हिसार 051) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची 181) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता 1251) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर 101) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी सहायक "वैद्यरत्न' कानन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर 1101) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहला 101) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन 101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली / मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊस 23, दरियागंज, देहल्ली in Ebution inational For Personal Private Use Only