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________________ १८] अनेकान्त [ किरण ६ जैन-दर्शनकी दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु द्रब्यकी अपेक्षा नित्य भारतीय साहित्यके मध्ययुगमें तर्क-जाल-सगुफिर और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य होती हैं। ब्यदृष्टिकोणके घनघोर शास्त्रार्थ रूप संघर्षके समयमें जैन साहित्यकारों बच्य बिन्दुको दृष्टिमें रखकर उसे नित्य बनाती हैं। द्रव्य इसी सिद्धान्तके स्यात् अस्ति, स्यानास्ति और स्यादअनाशात्मक हैं। पर्यायदृष्टि पर्यायांको भनित्य बनाती हैं। वत्कव्य इन तीन शब्दसमूहोंके आधारपर सप्तभंगीके पर्याय उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली होती हैं। साथ रूपमें स्थापित किया है। वह इस प्रकार हैही उत्पाद व्ययसे वस्तुमें उसकी स्थितिरूप ध्र वताका भी १. उपन्ने वा विगये वा धुवे वा नामक अरिहंत प्रत्यक्ष अनुभव होता हैं। यही स्थिरता वस्तुमें नित्य धर्म- प्रवचन । का अस्तित्व सिद्ध करती हैं। अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद. २. सिया अस्थि, सिया णस्थि, सिया अविक्तव्य व्यय और घौम्य युक्त हुश्रा करती हैं। जैसा कि प्राचार्य नामक पागम् वाक्य । उमास्वामि ने कहा हैं-'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।' ३. 'उत्पादव्ययधौग्ययुक्तं सत्' नामक सूत्र । - श्रीरतनलालजी संघवी अपने, 'स्याद्वाद' नामक ४. स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादवक्तव्यं नामक लेखमें 'अमेकान्तबाद' का स्वरूप बताते हुए कहते हैं:- संस्कृत काव्य, यह सब स्याद्वाद सिद्धांतके मूर्तवाचक रूप 'दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीरने इस सिद्धान्तको' हैं। शब्द रूप कथानक है और भाषा रूप शरीर है। सिया अस्थि, सिया णस्थि, सिया श्रवत्तव्य' के रूप में स्याद्वादका यही बाह्य रूप है। ज्ञानोदय पृ. ४५६-४६० बताया है। जिसका यह तात्पर्य हैं कि प्रत्येक वस्तु. सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें नित्य और अनित्य तत्व किसी अपेक्षा वर्तमानरूप होता है और किसी दूसरी रूप स्वभावोंका होना आवश्यक है। यदि यह दोनों अपेक्षासे वही नाश रूप भी हो जाता है इसी प्रकार किसी स्वाभाव एक ही समयमें द्रव्यमें न पाये जावें तो दम्य तीसरी अपेक्षा विशेषसे वही तत्त्व त्रिकाल सत्ता रूप होता निरर्थक हो जाता है। इसके लिए सुवर्णका दृष्टान्त लेना दुमा भी शब्दों द्वारा अवाच्य अथवा अकथनीय रूपवाला उपयुक्त होगा। यदि सुवर्ण नित्य हो तो उसमें अवस्थाभी हो सकता है। परिवर्तन नहीं हो सकता। वह सदैव एकसी स्थितिमें . जैन तीर्थकरोंने और पूज्य भगवान अरिहन्तोंने इसी रहेगा। उसे कोई भी व्यक्ति मोल न लेगा। क्योंकि उससे सिद्धान्तको उत्पन्ने वा, विनष्टे वा, धुवे वा, इन तीनों शब्द आभूषणोंकी अवस्था तो बनेगी नहीं । यदि सुवर्णको द्वारा, त्रिपदीके रूपमें संग्रथित कर दिया है। इस त्रिपदी अनित्य मान लिया जाय तब भी उसका कोई मूल्य नहीं का जैन आगमोंमें इतना अधिक महत्व और सर्वोच्च है। क्योंकि वह क्षणभरमें नष्ट हो जायगा । परन्तु सुवर्णशीलता बतलाई है कि इनके श्रवणमानसे ही गणधरोंको का स्वभाव ऐसा नहीं। सुवर्ण रूप रहता हुश्रा अपनी चौदहपूर्वोका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है। अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है। सुवर्णके एक डेले द्वादशांगी रूप वीतराग-वाणीका यह हृदय स्थान कहा मानसे वाली बन सकती है। वालीको तोड़कर अंगूठी और अंगूठीसे अन्य किसी भी प्रकार प्राभूषण बन सकता जाता है। है। इसी प्रकार जीवमें भी नित्य और अनित्य दोनों ___ भारतीय साहित्यके सूत्रयोगमें निर्मित महान ग्रन्थ स्वभाव हैं. तथा वह संसारीसे सिद्ध हो सकेगा। अबतत्वार्थसूत्रमें इसी सिद्धान्तका 'उत्पादव्ययधौम्ययुक्तं सत्' स्थानोंमें परिवर्तन होत है जो संसारी था वही सिद्ध हो इस सूत्रके रूपमें उल्लेख किया है, जिसका तात्पर्य यह है जाता है। कि जो सत् यानी द्रव्य रूप अथवा भावरूप है, उसमें वस्तुमें अनित्य धर्मका प्रतिपादन निम्न सात प्रकारोंसे प्रत्येक सण नवीन पर्यायोंकी उत्पत्ति होती रहती है, एवं . होता है। पूर्ण पर्यायोंका नाश होता रहता है परन्तु फिर भी मूल द्रव्यकी द्रव्यता, मूल सत्की सत्ता पर्यायोंके परिवर्तन ___१. स्यादस्ति-कथंचित् है। होते रहने पर भी ध्रौव्य रूपसे बराबर कायम रहती है। १. स्यानास्ति-कथंचित् नहीं है। विश्वका कोई भी पदार्थ इस स्थितिसे चित नहीं है। ३. स्यादस्तिनास्ति-कथंचित् है और नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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