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________________ किरण ६] हिन्दी जैन साहित्य मेंतत्वज्ञ [१६६ ४. स्यादवक्तव्यं-किसी अपेक्षासे पदार्थ वचनसे एक 'जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन-सिद्धान्तका खंडन साथ नहीं कहने योग्य है। पढ़ा है तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्तमें बहुत १. स्यादस्ति श्रवक्तव्यं च-किसी अपेक्षासे दम्य नहीं कुछ है, जिसे वेदान्तके प्राचार्योंने नहीं समझा और जो है और अवाच्य है। कुछ मैं अब तक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा ६, स्यादस्ति नस्ति श्रवक्तव्यं च-कथंचित् है, नहीं हढ़ विश्वास हुा है कि यदि वे ( शंकराचार्य) दृढ़ विश्वास हा है कि यदि वे ( शंकराचार्य ) जैनधर्मके है और प्रवक्तव्य भी है। असली ग्रन्यों को देखनेका कष्ट उठाते तो जैनधर्मके विरोध करनेकी कोई बात नहीं मिलती।' ___७. स्यास्ति नास्ति प्रवक्तव्यं च-कथंचित् है, नहीं है और प्रवक्तव्य भी है। पूनाके प्रसिद्ध डा. भंडारकर सप्तमंगी प्रक्रियाके विषयमें लिखते हैंइन सात प्रकारके समूहों को 'सप्तभंगी नय' कहते हैं। कविवर बनारसीदासजीने नाटक समयसारमें स्यावा. इन भंगोंके कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रश्नमें दकी महत्ता वर्णित की है। निश्चयपना नहीं है या एक मात्र सम्भव रूप कल्पनायें करते हैं जैसा कुछ विद्वानोंने समझा है इन सबसे यह जथा जोग करम करे पै ममता न धरै,, भाव है कि जो कुछ कहा जाता है वह सब किसी द्रग्य, रहे सावधान ज्ञान-ध्यानकी टहल में।। क्षेत्र, कालादिकी अपेक्षासे सत्य है। तेई भवसागरके ऊपर ह तरे जीव, विश्ववंद्य महात्मा गांधीजीने इस सम्बन्धमें निम्न जिन्हको निवास स्यादवादके महल में ॥ विचार व्यक्त किये हैं- नाटक समयसार पृ० ॥३॥ यह सत्य है कि मैं अपनेको अद्वैतवादी मानता हूँ, . 'तत्वार्थराजवार्तिक' में आचार्य अकलंकदेवने बताया परन्तु मैं अपनेको द्वैतवादीका भी समर्थन करता हूँ। है कि वस्तुका वस्तुस्व इसी में है कि वह अपने स्वरूपका सृष्टि में प्रतिक्षण परिवर्तन होते हैं. इसलिये सृष्टि अस्तित्व ग्रहण करे और परकी अपेक्षा प्रभाव रूप हो । इसे विधि रहित कही जाती है, लेकिन परिवर्तन होने पर भी उसका और विविध रूप अस्ति और नास्ति नामक भिन्न धर्मों एक रूप ऐसा है जिसे स्वरूप कह सकते हैं। उस रूपसे द्वारा बताया है। 'वह है' यह भी हम देख सकते हैं, इसलिये वह सत्य भी देश और विदेशके विभिन्न दार्शनिकोंने स्याद्वादको है। उसे सत्यासत्य कहो तो मुझे कोई उज्र नहीं। इसलिए यदि मुझे अनेकान्तवादी या स्याद्वादी माना जाय तो मौलिकता और उपादेयताकी मुक कंठसे प्रशंसा की इसमें मेरी कोई हानि नहीं होगी । जिस प्रकार स्थादद्वादहै। डा. बी. एल. आत्रेय काशी विश्वविद्यालयके को जानता हूँ उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ"मुझे यह कथनानुसार अनेकान्त बड़ा प्रिय है। जैनियोंका अनेकान्तवाद और नयवाद एक ऐसा पदार्थो जानने सिदान्त है कि सत्यकी खोजमें पक्षपात रहित होने लगी क्षपात राहत हान लिये एक निमित्त साधन है। इसका महत्व केवल जैन की प्रेरणा करता है, जिसकी आवश्यकता सब सम्प्रदायके हेतु ही नहीं वरन् जैनेतर सम्प्रदायके लिये भी धर्मोको है। प्रयोगमें लानेका सिद्धान्त है। स्वामी समन्तभद्रने इस महामहोपाध्याय डा. गंगानाथ मा भूतपूर्व वाइचांस- सत्यका अधिक प्रयोग किया। स्याद्वाद एक वह शस्त्र है वर प्रयाग विश्वविद्यालयने इस सिद्धान्तकी महत्ता निम्न जिसके प्रयोग द्वारा साम्राज्यमें किसी प्रकारका उपद्रव रूपसे वर्णित की है और विरोध नहीं उपस्थित हो सकता। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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