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कुरलका महत्व और जैनधर्म
(श्री विद्याभूषण पं० गोविन्दराय जैन शास्त्री)
. (गत किरणसे आगे) मिल जनतामें प्राचीन परम्परासे प्राप्त जन- एलेलाशङ्गिन हो गया है । यह एलेलाशिङ्गन और कोई श्रुति चली आती है कि कुरलका सबसे प्रथम पारायण नहीं एलचार्य ही हैं। कुदकुदाचार्य ऐलक्षत्रियोंके वंशधर पांड्यराज 'उग्रवेरुवनदि' के दरबारमें मदुराके ४६ कवि- थे, इसलिए इनका नाम एलाचार्य था। योंके समक्ष हुआ था । इस राजाका राज्यकाल श्रीयुत एम इन पर्याप्त प्रमाणोंके आधार पर हमने कुरलकाम्यका श्रीनिवास अय्यङ्गरने १२५ ईस्वीके लगभग सिद्ध रचनाकाल ईसासे पूर्व प्रथम शताग्दी निश्चित किया है। किया है।
और यही समय अन्य ऐतिहासिक शोधोंसे श्रीऐलाचार्य (२) जैन ग्रन्योंसे पता लगता है कि ईस्वीसनसे
का ठोक बैठता है। मूलसंघकी उपलब्ध दो पट्टिालयों पूर्व प्रथम शताब्दीमें दक्षिण पाटलिपुत्र में द्रविड़संघके
में तस्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वातिके पहिले श्रीएलाचार्यका
नाम आता है और यह भी प्रसिद्ध है कि उमास्वातिके प्रमुख श्रीकुन्दकुन्दाचार्य अपर नाम एलाचार्य थे। इसके अतिरिक्त जिन प्राचीन पुस्तकोंमें कुरलका उल्लेख पाया
गुरु श्री एलाचार्य थे। अतः कुरलकी रचना तत्वार्थसूत्रके है उनमें सबसे प्रथम अधिक प्राचीन 'शिल्लप्पदिकरम्'
पहलेकी है। यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है। नामका जैनकाव्य और 'मणिमेखले' नामक बौद्धकान्य हैं। कुरलकर्ता कुन्दकुन्द (एलाचार्य) .. दोनोंका कथा विषय एक ही है तथा दोनोंके कर्ता आपसमें विक्रम सं०१६० में विद्यमान श्री देवसेनाचर्य अपने मित्र थे । अतः दोनों ही काव्य सम-सामयिक हैं और दर्शनसार नामक ग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्य नामके साथ उनके दोनोंमें कुरल काब्यके छठे अध्यायका पांचवाँ पद्य उद्धृत अन्य चार नामोंका उल्लेख करते हैं:किया गया है । इसके अतिरिक्त दोनोंमें कुरलके नामके पद्मनन्दि, वक्रप्रीवाचाय, एलाचार्य, गृद्धपिसाथ ५४ श्लोक और उद्धृत हैं। "शिलप्पदिकरम्" च्छाचार्य। तामिल भाषाके विद्वानोंका इतिहासकाल जाननेके लिए श्री कुन्दकुन्दके गुरू द्वितीय भद्रबाहु थे ऐसा बोधसीमानिर्णायकका काम करता है और इसका रचना- प्राभृतकी निम्न लिखित गाथासे ज्ञात होता है। काल ऐतिहासिक विद्वानोंने ईसाकी द्वितीय शताब्दी
सद्दवियारो हूओ भासामुत्तेसु जं जिणे कहियं । माना है।
सो तह कहियं णाणं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।। (३) यह भी जनश्रुति है कि तिरुवल्लुवरका एक मित्र एलेलाशिङ्गन नामका एक व्यापारी कप्तान था । कहा
ये भगबाहु द्वितीय नान्दसंघकी प्राकृत पट्टावलीके जाता है कि यह इसी नामक चोलवंशके राजाका छठा अनुसार वीर निर्वाणसे ४६१ बाद हुए हैं। बंशज था, जो लगभग २०६० वर्ष पूर्व राज्य करता था कुरलकतोके अन्य ग्रन्थ तथा उनका प्रभाव
और सिंहलद्वीपके महावंशसे मालूम होता है कि ईसासे कुरजका प्रत्येक अध्याय अध्यात्म भावनासे श्रोत१४. वर्ष पूर्व उसने सिंहलद्वीप पर चढ़ाई कर उसे प्रोत है, इसलिए विज्ञपाठकके मनमें यह कल्पना सहज विजय किया और वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। ही उठती है कि इसके कर्ता बड़े अध्यात्मरसिक महाइस शिङ्गन और उक्त पूर्वजके बीचमें पांच पीड़ियाँ त्मा होंगे । और जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि इसके
आती हैं और प्रत्येक पीढ़ी ५० वर्षकी मानें तो हम इस रचयिता वे एलाचार्य हैं जो कि अध्यात्मचक्रवर्ती थे तो निर्माय पर पहुँचते हैं कि एलेलाशिङ्गन ईसासे पूर्व प्रथम यह कल्पना यथार्थताका रूप धारण कर लेती है; कारण शताब्दी में थे।
एलाचार्य जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्द है ऐसे ही बात असलमें यह है कि एलाचार्यका अपभ्रंश अद्वितीय ग्रन्थोंके प्रणेता हैं।
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