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किरण ] कुरलका महत्व और जैनधर्म
[२०१ __ उनके समयसारादि ग्रन्थों को पढ़े बिना कोई यह बन्यो विभुम्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः नहीं कह सकता कि मैंने पूरा जैन तत्वज्ञान अथवा अध्या- कुन्द-प्रभा-प्रणयि कीर्ति-विभूषिताशः। स्म वद्या जान ली। जिस सूक्ष्म तत्वकी विवेचनाशैलीका यश्वारु-चार -कराम्बुजचश्चरीकआभास उनके मुनि जीवनसे पहले रचे हुए कुरलकाम्यसे
भरते प्रयतःप्रतिष्ठाम् ।।५।। होता है वह शैली इन ग्रन्थों में बहुत ही अधिक परिस्फुट तपस्याके प्रभावसे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यको 'चारणहो गई है। ये ग्रन्थ ज्ञानरत्नाकर हैं, जिनसे प्रभावित हो.
ऋद्धि प्राप्त हो गई थी जिसका कि उल्लेख श्रवणवेलगोलके कर विविध विद्वानोंने यह उक्ति निश्चत की हैं-हए हैं
अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता है। तीनका उद्धरण न होयेंगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्दसे ।'
हम यहाँ देते हैं :__ पीछेके ग्रन्थकागेने या शिलालेख लिखनेवालोंने कुन्द- तस्यान्वये भूविदिते बभूव यापद्मनन्दि प्रथमाभिधानः कुन्दको मूलसंबव्योमेन्दु' 'मु नोंद्र' 'मुनिचक्रवर्ती' 'पदोंसे
दास श्रीकुण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः भूषित किया है। इससे हम सहजमें ही यह जान सकते
श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामाह्याचाय्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना गौरवपूर्ण है। दिगम्बर
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यचरित्रसंजातसुचारणद्धिः ॥ जैनसंघके साधुजन अपनेको कुन्दकुन्द अाम्नायका घोषित
'रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-र्वाह्यपि संव्यञ्जयितु यतीशः। करने में सम्मान समझते हैं। वे शास्त्र-विवेचन करते समय
रज पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरलंगुलं सः ॥ प्रारम्भमें अवश्य पढ़ते हैं कि:
इन सब विवरणोंको पढ़कर हृदयको पूर्ण विश्वास 'मगल भगवान वीरो मंगलं गौतमोऽग्रणी।
होता है कि ऐसे ही महान् ग्रन्थकारकी कलमसे कुरलकी मंगलं कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।'
रचना होनी चाहिए। इनके रचे हुए च रासी प्राभृत (शास्त्र सुने जाते हैं पर अब वे पूरे नहीं मिलते, प्रायः नीचे लिखे ग्रन्थ ही कुरलकर्ताका स्थान :मिलते हैं:-(१) समयसार, (२: प्रवचनसार, (३) इस वक्तव्यको पढ़कर पाठकोंके मन में यह विचार पंचास्तिकाय, (४) अष्टपाहुद, (५ ) नियमसार (६) उत्पन्न अवश्य होगा कि कुरल आदि ग्रन्थोंके रचियता (७)द्वादशानुप्रेक्षा (८) रयणसार, ये सब ग्रन्थ प्राकृत श्रीएलाचार्यका दक्षिणमें वह कौनसा स्थान है जहां भाषामें हैं और प्रायः सबही जैन शास्त्र भण्डाराम पर बैठकर उन्होंने इन ग्रन्थीका अधिकतर प्रणयन किया मिलते हैं। .
था: इस जिज्ञासाकी शान्तिके लिए हमें नीचे लिखा - ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने कोण्ड
हुश्रा पद्य देखना चाहिए। कुन्दपुर में रहकर षट् खण्डागम पर ब रह हजार श्लोक
दक्षिण दशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्मासीत् । परिमित एक टीका लिखा थी जो अब दुष्प्राप्त है । समयसार ग्रन्थपर विविध भाषाओं में अनेक टोकाएं उपलब्ध
एलाचार्यों नाम्ना द्रविड गणाधीश्वरो धीमान् ॥ है। हिन्दोके प्राचीन महाकवि पं. बनारसीदासजीने यह श्लोक एक हस्तलिखित 'मन्त्रलक्षण' नामक इसके विषयमें लिखा है कि "नाटक पढ़त हिय फाटक ग्रन्थमें मिलता हैं, जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा सुनत है" समयसार 'प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ये एलाचार्य दक्षिण देशके मलयप्रान्तमें हेमग्रामके निवासी श्रीमों ग्रन्थ विज्ञसमाजमें नाटकत्रयी नामसे प्रसिद्ध हैं और थे, और द्रविड़संघके अधिपति थे। यह हेमग्राम कहाँ हीमों ही ग्रन्थ निःसन्देह आत्मज्ञानके आकर हैं। है इसकी खोज करते हुए श्रीयुत मल्लिनाथ चक्रवर्ती
• इन सब ग्रन्योंके पठन पाठनका यह प्रभाव हुआ कि एम० ए० एल०टी० ने अपनी प्रवचनसारकी प्रस्तावनामें परिणापथसे उत्तरापथ तक प्राचार्यकी उज्वल कीर्ति लिखा है कि-'मद्रास प्रेसीडेन्सीके मलाया प्रदेश में बागई और भारतवर्षमें वे एक महान् श्रात्मविद्याके प्रसा- 'पोन्नूरगाँव' को ही प्राचीन समयमें हेमग्राम कहते
माने जाने लगे, जैसा कि श्रवणबेलगोलके चन्द्र- थे और सम्भवतः यही कुण्डकुन्दपुर है, इसीके पास गिरिस्थ निम्नलिखित शिलालेखसे प्रकट होता है:- नीलगिरि पहाड़ पर श्रीएलाचार्यको चरणपादुका बनी
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