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अनेकान्त
[किरण ६
हैं, जहाँ पर बैठकर वे तपस्या करते थे। पास पासकी रसकी प्राप्ति में संलग्न थे। इतिहाससे ज्ञात होता है कि उस जनता आज भी ऐसा ही मानती है और बरसातके दिनों में समय जैनधर्म कलिङ्गकी तरह तामिल देशमें भी राष्ट्रधर्म था उनकी पूजाके लिए वहाँ एक मेला भी प्रतिवर्ष भरता है. उसके प्रभावसे राजघरानोंमें भी शिक्षा और सदाचार श्रीयुत स्व. जैनधर्मभूषण ब्र. शीतलप्रसादजीने भी पूर्णरूपेण विद्यमान था। अध्यात्मविद्याके पारगामी क्षत्री इसके दर्शन कर जैनमित्रमें ऐसा ही लिखा था। राजा बनने में उतनी प्रतिष्ठा व सुख नहीं मानते थे जितना देशकी तात्कालिक स्थिति
कि राजर्षि बनने में, जिसके उदाहरण प्राचार्य समन्तभद्र जब हम कुरलकी रचनाके समय देशकी तात्कालिक
(पाण्ड्यराजाकी राजधानी उरगपुरके राजपुत्र) शिल्लप्पस्थिति पर दृष्टि डालते है तो ज्ञात होता है कि सारा दिकरम्के कर्ता युवराज राजर्षि (चेर राजपुत्र) और एलादेश उस समय ऋद्धि सिद्धिसे भरपूर था। विदेशियोंका प्रवेश चाय ह
चार्य हैं। उस समय क्षत्रीयगण शासक और शास्ता दोनों न होनेसे वैभव अपनी पराकाष्ठाको पहुँचा हुआ था।
। थे। स्वतन्त्र व धार्मिक भारत उस समय कैसे दिव्य विचार लौकिक सुख सहज ही प्राप्त होने से लोग उनकी लालसा.
रखता था इसकी वानगीके लिए कुरल अच्छा काम में नहीं फंसे थे। किन्तु इस लोकमें अप्राप्त निजानन्द देता
देता है।
'वसूनन्दि-श्रावकाचार' का संशोधन
(पं0 दीपचन्द पाण्ड्या और रतनलाल कटारिया, केकड़ी) हमारा विशाल जैन वाङ्मय प्राकृत संस्कृत एवं रहे हैं। दानी महानुभाव यह नहीं सोचते कि हम इन अपभ्रंश आदि विविध भाषाओंमें लिखा गया है। अशुद्ध पाठोंकों छपाकर और प्रचार में लाकर कितना अनर्थ दुर्भाग्यवश उसमेंसे बहुत-सा साहित्य तो हमारे अज्ञान करते हैं ? क्या पुस्तक विक्रेता और दानी महानुभाव व प्रमादसे मन्दिरोंमें, शास्त्र भण्ड रोंमें पड़ा पड़ा इस बुराईको दूर करनेका यत्न करेंगे ? और तो मष्ट हो गया तथा बहुत सा नष्ट होने को है और और, बहुश्रत विद्वानों द्वारा सम्पादित हुए ग्रन्थोंकीर घोड़ा बहुत जो मुद्रित होकर प्रकाश में अा पाया है, भी दशा अच्छी नहीं है। वे भी अनेक अशुद्धियोंसे सम्वेद लिखना पड़ता है कि वह भी अनेकानेक परिपूर्ण हैं। अशुद्धियों से भरा पड़ा है। उदाहरण के तौर पर 'यशस्ति- वद्यपि मूल ग्रंथकर्ता तो अपनी कृतियोंको शुद्धरूपमें लक चम्पू' ग्रन्थको ही लीजिये; जिसके विना टीका वाले ही प्रस्तुत करते हैं परन्तु अद्ध विदग्ध प्रतिलिपिकर्ताओंभागमें पूरी एक हजारके करीब अशुद्धियाँ हैं। १ यही दशा की कपासे उनमें कई अशुद्धियां बन जाती हैं। लिखित नित्यपूजा, दशभक्ति और श्रावक प्रतिक्रमण पाठ आदिकी प्रतियों में तो वे अशुद्धियां एक प्रति तक ही सीमित रहती भी है। पूजा पाठ, जिनवाणी संग्रह और बृहज्जिनवाणी हैं पर मद्रित प्रतियों में यह बात नहीं है वहाँ तो जो एक संग्रह तथा गुटकाओं श्रादिमें छपे हुए अशुद्ध पाठौकी ओर प्रति अशुद्धि हो गई वही सब प्रतियों में हो गई समझिर। जब हमारी दृष्टि जाती है तब हमें बहुत ही दुःख हाता इस तरह मद्रित प्रतियोंके सहारे इन अशुद्धियोंकी परम्परा है। पढ़नेवाले अशुद्धियोंकी तरफ कोई लक्ष्य नहीं देते, प्रचार में श्राकर बद्धमल हो जाती हैं जो आगे चलकर किन्तु उन्हें उसी रूप में पढ़ते जाते हैं। प्रकाशक और पुस्तक
कार पुस्तक अनेक भ्रान्त धारणाअोंको जन्म देती रहती हैं। जिसके विक्रेता इस बातका ध्यान रखना उचित ही नहीं समझते, तीन बडे मजेदार उदाहरण यहाँ दिये जाते हैंइसी कारण हमारे पूजा पाठ भी अशुद्धियोंके पुज बन
२ ऐसे प्रन्थोंमें माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित देखो 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण १२ पृष्ट ७७ पर
'वरांगचरित' और कारंजासे प्रकाशित सावय धम्म हमारा लेख यशस्तिल का संशोधन'।
दोहा आदि हैं।
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