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________________ किरण ६] 'वसुनन्दि-श्रावकाचार'का संशोधन । २०३ जात यौनादयः सर्वास्तक्रिया हि तथाविधाः जातयोनादयः सर्वास्तरिक्रयापि तथाविधाः श्र तिः शास्त्रान्तरं वाऽस्तु प्रमाणं काऽत्र नः क्षतिः । श्रतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षितिः । - अर्थात् जातकर्म और यौन (विवाह) श्रादि सारी यह श्लोक मुद्रित प्रति में ठीक इसी रूपमें पाया जाता ताक्रिया-लौकिक क्रियाएं तथाविधा-लोकाश्रय हैं इस है। बादको पं. नाथरामजी प्रेमीने और पं० श्रीलालजी विषयमें श्र ति या शास्त्रान्तर प्रमाण हों तो हमारी क्या पाटनीने इस श्लोक में थोड़ासा पाठभेद और कर डाला है हानि है। जो इस प्रकार हैजातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियाऽपि तथा विधा धवला टीकामें 'अक्खवराडयादयो असब्भावटुवश्रतिः शास्त्र न्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः । णा मंगलं' यह वाक्य है जिसका अर्थ पाले और कौड़ी और इस पद्यका अर्थ पं० श्रीलालजीने इन शब्दों में शतरंजकी गोटे दिदष्योंको असदभावस्थापना मंगल किया है-"सब जातियां अनादि हैं और उनकी क्रिया कहते ह–कया गया है सा सगत नहीं है। क्योकि भी अनादि है। अंग शास्त्र या अंग बाह्य शास्त्र यदि असद्भावस्थापना मंगलका कथन है । केवल यदि असउसके शास्त्र में मिलें तो हमारी क्या क्षति है।" द्भावस्थापनाका ही कथन होता तो फिर भी कौडी 'पासे परक अर्थ किसी तरह ठीक हो सकता था सो तो हैं नहीं यहाँ विचारणीय बात यह है कि 'सब जातियाँ असद्भावस्थापना मंगल' में कोडी पासोंको मांगलिक अनादि हैं, तो वे कौन २ सी हैं और उनकी क्रिया भी अनादि है तो वे कौन २ सी हैं। इसका उत्तर दिगम्बर द्रव्यरूपमें ग्रहण करना जैन परम्पराके ही नहीं वैदिक परम्पराके भी विरुद्ध है। प्रतिलिपिकारोंके द्वारा 'य' अक्षर साहित्यसे तो क्या समग्र भारतीय साहित्य-श्वेताम्बर, बौद्ध, एवं वैदिक साहित्यसे भी नहीं मिल सकता । तथा छोड़ देनेसे यह सब घोटाला हुआ है। अतएव 'अम्खयवरा'अंग शास्त्र और अंग बाह्य शास्त्र यदि उसके प्रमाण में डयादयो' ऐसा पाठ होना चाहिए जिसका अर्थ अक्षत कमलगट्टे आदि पदसे सुपारी प्रभृति मांगलिक द्रव्य ऐसा मिलें तो हमारी (जैनियोंकी) क्या क्षति है'-ऐसा उल्लेख होना प्रकरण संगत होता है हमारे इस कथनकी पुष्टि करना भी समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि द्वादशाङ्गका वसुनंदि प्रावकाचारकी ३८४ वीं गाथासे भी होती है। ज्ञान तो कभीका लुप्त हो चुका, अंगबाह्यशास्त्र जैनोंको गाया इस प्रकार है:प्रमाण हैं ही ऐसी दशामें सोमदेवसूरि जैसे विद्वान जैनियों के लिये उन्हें प्रमाण माननेको कैसे लिखें कि इसमें 'अक्खयवराडो वा अमुगो एसोत्ति णिययबुद्धीए जैनोंकी क्या क्षति है। कुछ बुद्धिको लगता नहीं अतएव संकप्पऊण वयणं एसा विइया असब्भावा।' पं० श्रीलालजीबाला उक्त अर्थ चम्पू यशस्तिलकके पूर्वापर प्रसंगको देखते हुए संगत नहीं हो सकता । अतः इस पद्यके वसुनन्दि x श्रावकाचारमें सम्पादकने जो एक पाठ पाठ और अर्थके विषय में तो 'भ्रमन्ति पण्डिता सर्वे' वाली 'सिरण्हाणुषण'""आदि (गाथा २६३ को देखो ) बना हक्ति हो रही है। दिया है और प्रथम शिरःस्नानके अतिरिक्त अन्य स्नानोंका हमने इस श्लोकका पाठ और अर्थ ग्रन्थके सन्दर्भानु- प्रषधापवास वालेके लिये विधान कर दिया है सो यह यह स्थिर किया है। समग्र जैन परम्पराके विरुद्ध है इसलिये 'सिरण्हाणु' की देखो निर्णयसार प्रेसमें मुद्रित यशस्तिलकचम्पू उत्तरार्द्ध जगह सिरहाण (स्नानार्थक) पाठ होना चाहिये। । पृष्ठ ३७३ ® बुद्धीए समारोविद मंगलपज्जयपरिणद जीवगुण सरूक x देखो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित नीति वाक्या क्खवराडयादयो असब्भाव ट्ठवणा मंगलं ।" यह पूरा मृत (ग्रंथांक २२) की प्रस्तावना १३० और विजा- वाक्य है। (देखो षटखंडागम धवला टीका पुस्तकातीय विवाह प्रागम और युक्ति दोनोंके विरुद्ध है कार संतपरूपणा पृष्ठ २० पंक्ति ५) नामका ट्रेक्ट पृष्ठ ७७ - यह ग्रंथ काशी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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