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________________ किरण ६ ] हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान [१६७ %3D जीवात्मा अनादि और अनन्त पदार्थ है। इसकी सकती है, जो कि सभी विद्वानोंकी अभिवृद्धि करता अवस्थायें तो परिवर्तित होती ही हैं और गुण भी तिरोहित है। प्राचार्य अमृतचन्दने उसे, 'परमागमस्य बीजम्'और विकसित होते रहते हैं। जब तक इसकी यह अवस्था परमागमका प्राण प्रतिपादन करके उसके महत्वको चरम रहती है तब तक यह संसारी कहलाता है। गुणों के इस सीमा तक पहुँचा दिया है । 'अनेकान्तवाद' एक मनोहर, क्रमिक वृद्धि ह्वास- का अन्त होकर जब यह जीव अपने सरल एवं कल्याणकारी शैली है। जिससे एकान्त रूपसे गुणोंका पूर्ण विकास कर लेता है तब यह मुक्त कहे गये सिद्धान्तोंका विरोध दूर कर उसमें अभूतपूर्व कहलाता है। मैत्रीका प्रादुर्भाव होता है। गुणोंकी वृद्धि और ह्वास कुछ कारणोंसे होती है। वे ___ 'एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्तो वस्तुतत्त्वमितरेण । कारण क्रोध, मान. माया लोभ आदि कषायें हैं। इन । 'अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी॥ कारणोंसे जीव अपने स्वरूपको भूलजाता है। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि मोहके कारण अपने स्वरूपको भूल जाना -पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २२५ ही बन्धका कारण है और जब यह अपने स्वरूपकी ओर अर्थात् जिस प्रकार दधि मंथनके समय ग्वालिन जब मुकता है-उसको पानेके प्रयत्नमें लगता है तब इसके बाह्य मथानीके एक छोरको खींचती है तब दूसरे छोरको छोड़ पदार्थोसे मोह मन्द हो जाता है और मंद होते होते जब नहीं देती वरन् ढीला कर देती हैं और इस प्रकार दूध दहीवह बिलकुल नष्ट हो जाता है तब वह मुक्त या सिद्ध हो के सार मक्खनको निकालती है। उसी प्रकार जैनी नीति जाता है। भी वस्तुके स्वरूपका प्रतिपादन करती है, अर्थात् प्रत्येक . श्रद्धा, विज्ञान और सुप्रवृत्ति प्रात्माके स्वाभाविक वस्तुमें अनेक धर्म रहते हैं उनके सब गुणोंका एक साथ गुण हैं। यह गुण किसी दूसरे द्रव्यमें नहीं होते । मुक्त प्रतिपादन करना अवर्णनीय हैं। इसी लिए किसी गुणका अवस्थामें यह गुण पूर्ण विकसित हो जाते हैं। संसारी एक समय मुख्य प्रतिपादन किया जाता है कि किसी दूसरे अवस्थामें यह गुण या तो विकृत रहते हैं या इनकी ज्योति समय उसके दूसरे दूसरे गुणोंका प्रतिपादन किया जाता मन्द रहती है। इन गुणोंके अतिरिक्त किसी भी पदार्थसे है। ऐसी हालतमें किसी एक गुणका प्रतिपादन करते अनुराग रखना यही बंधका कारण है। किसीसे अनुराग समय उस वस्तुमें दूसरे गुण रहते ही नहीं या हैं नहीं, होगा तो किसी दूसरेसे द्वेष उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ऐसा नहीं समझना चाहिये । 'इसीका नाम 'अनेकान्तवाद' है। इन राग और द्वेषोंका किस प्रकार अभाव हो और है, जैसे एक ही पदार्थमें बहुतसे आपेक्षिक स्वभाव पाये मामाके स्वाभाविक गुणोंमें किस प्रकार वृद्धि हो, इन जाते हैं जिनमें एक दूसरेका विरोध दीखता है स्याद्वाद प्रश्नोंका हल करना ही जैन शासन या इन सात तत्वोंका उनको भिन्न अपेक्षासे ठीक ठीक बता देता है। सर्वविप्रयोजन है। रोध मिट जाता है। स्याद्वादका अर्थ है स्यात्-किसी अपे'स्वाद्वाद' जैन तत्व ज्ञानका एक मुख्य साधन है। क्षासे वाद कहना । किसी अपेक्षासे किसी बातको जो बतावै अनेकान्तवाद, सप्तभंगी नय श्रादि स्याद्वादके पर्याय- वह 'स्याद्वाद' है। एक भात्म पदार्थको ही ले लिया जाय गावी सन्द हैं यह स्याद्वाद ही हमें पूर्ण सत्य तक वह द्रव्यकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है-उसका न खे जाता है। नाश होता है न उत्पाद । किन्तु पर्यायोंकी अपेक्षा वह 'अनेकान्तवाद' का अर्थ है-नाना धर्मात्मक वस्तुका परिवर्तनशील हैं। जिसे हम डाक्टर या वकील कहते हैं कथन । अनेकका अर्थ है नाना, अन्तका अर्थ है धर्म। उसका पुत्र उसे 'पिता', उसका पिता, 'पुत्र' भतीजा और वादका अर्थ है कहना, यह अनेकान्तवाद' ही सत्यको' 'चाचा', चाचा भतीजा', भानजा 'मामा', 'मामा', 'भानस्पष्ट कर सकता है, क्योंकि सत्य एक सापेक्ष वस्तु , जा' कहते हैं। यह सब धर्म एक ही व्यक्तिमें एक ही है, सापेक्ष सत्य द्वारा ही असत्यका अंश निकाला समय विद्यमान रहते हैं । जब हम एक सम्बन्धको कहते जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुँचा हुए स्यात् शब्द पहिले लगा देंगे तो समझने वाला यह जा सकता है। इसी रीतिसे ज्ञान-कोषकी श्रीवृद्धि हो ज्ञानप्राप्त कर लेगा कि इसमें और भी सम्बन्ध हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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