SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६] अनेकान्त [किरण ६ लिये विविध तपों और ध्यानादिके अभ्यास द्वारा शुद्ध प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबनानेका उपाय बतलाया गया है । अस्तु आत्माको ___बंध । बन्धके कारणोंको भावबन्ध कहते हैं । कमौके बंधनशुद्ध करनेके लिए इन तत्वोंका ज्ञान प्राप्त करना भी को द्रव्यबन्ध कहते हैं। जब कर्म बंधता है तब जैसी मन अत्यन्त आवश्यक है। इनके जान लेनेसे श्रात्मशुद्धि का वचन कायकी प्रवृत्ति होती है उसीके अनुसार कर्मपिण्डों ज्ञान प्राप्त हो जाता है। के बंधनका स्वभाव पड़ जाता है। इसीको प्रकृतिबंध कहते जैनसिद्धान्तमें सात तत्त्वोंके नाम इस प्रकार बतलाये हैं । कर्मपिण्डोंकी नियत संख्याको प्रदेशबंध कहते हैं। गये हैं:-१ जीव, २. अजीव, ३. प्रास्रव, ४. बंध, यह दोनों प्रकृति और प्रदेशबंध योगोंसे होते हैं, कर्मपिंड १. संवर, ६. निर्जरा और ७ मोक्ष । इनमें पाप और जब बंधता है तब उसमें कालकी मर्यादा पढ़ती है इसी पुण्यको जोड़ देनेसे ६ पदार्थ हो जाते हैं। कालकी मर्यादाको स्थितिबंध कहते हैं। कषायोंकी तीव्रता या मन्दताके कारण कर्मोंको स्थिति तीव्र या मन्द होती जीव-जो अपने चैतन्य लक्षण रखते हुये शाश्वत रहे है। इसी समय उन कर्मपिंडोंमें तीव्र या मन्द फल दानउसे जीवकी संज्ञा दी जाती है । अथवा ज्ञान, दर्शन और चेतनामय पदार्थको आत्मा या जीव कहते हैं, जो की शक्ति पड़ती है उसे अनुभागबंध कहते हैं । यह बंध भी कषायके अनुसार तीव्र या मन्द होता है। स्थितिबंध प्रत्येक प्राणीमें विद्यमान है वह सुख दुखका अनुभव और अनुभागबंध कषायोंके कारण होते हैं। .. करता है। अजीव-जिसमें जीवका वह चैतन्य लक्षण न हो संवर-पाश्रवका विरोधी संवर है। कर्मपिंडोंके उसे अजीव या जड़ कहते हैं। अजीव पांच प्रकार के होते पानेका रुक जाना संवर है। जिन मार्गोंसे कर्म रुकते हैं-१.पुद्गल, २. आकाश, ३. काल, ४. धर्मास्तिकाय हैं उन्हें भावसंवर और कर्मोंके रुक जानेको द्रव्यसंवर और ५. अधर्मास्तिकाय । कहते हैं। भानव-शुभ या अशुभ कर्मके बंधने योग्य कर्म जीवोंके भाव तीन प्रकारके होते हैं-अशुभउपयोग, वर्गणामोंके आनेके द्वार या कारणको तथा उन कर्म शुभउपयोग, और शुद्धउपयोग । अशुभउपयोगसे पापकर्म पिण्डोंके, प्रास्माके निकट पानेको प्राश्रव कहते हैं। बंधता है,और शुभ उपयोगसे पुण्यकर्म बन्धता है, शुद्ध उपजो कर्मपिंडके श्रानेके द्वार या कारण हैं उनको भावा योगके लाभ होने पर कर्मोंका आवागमन रुक जाता सब कहते हैं और कर्मपिंडके पाकेको द्रव्य पासव है । प्रात्माको सर्व कर्मबंधनसे बचानेका उपाय शुद्ध कहते हैं। जैसे नौकामें छिद, जलके प्रविष्ट होने का उपयोग है। द्वार है। निर्जरा-कर्म अपने समय पर फल देकर झड़ते हैं। की इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं । आस्मध्यानको लिए हैं-मन, वचन और काय । मनसे विचार तथा प्रतिज्ञा हुये तप करने व इच्छाओंके निरोधसे जब भावोंमें वीतराकरते हैं. वचनसे वार्तालाप करते हैं और कायासे क्रियादि गता आती है तब कर्म अपने पकनेके समयसे पूर्व ही करते हैं जीवके प्रति दया, सत्यवचन, संतोषभाव प्रादि फल देकर झड़ जाते हैं । इसको अविपाक निर्जरा शुभ कर्म हैं। मिथ्याज्ञान, असत्यवचन, चौर्य, विषयोंकी कहत है। लम्पटता आदि अशुभकर्म है। सारांश यह है कि स्वयं मोक्ष-आत्माके सर्व कर्मोसे छूट जानेको व आगे नवोन अपने ही भावोंसे कर्मपिंडको आकर्षित करना श्रास्रव कर्म बंध होनेके कारणोंके मिट जानेको मोक्ष तत्त्व तत्त्व कहलाता है। . .. कहते हैं। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर प्रात्मा शुद्ध हो • बंध-कर्मपिंडोंको आत्माके साथ दूध और पानीकी जाती है। इसी शुद्ध आत्माको सिद्धकी संज्ञा प्रदान तरह मिल कर एक हो जानेको बन्ध कहते हैं। यह बंध की गई है। वास्तव में क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि कषायोंका पुण्य कर्मको पुण्य और पाप कर्मको पाप कहते हैं। कारण है। बंधको चारभागों में विभक्त किया गया है- इन्ही सात तत्त्वोंके अन्दर इनका स्वरूप गर्भित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy