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________________ [किरण ६ हिन्दी जैन साहित्यमें तत्वज्ञान [१६५ समन्तभद्र प्रकृतितः भद्र और शान्त हैं। वे कर्तव्य कर्ममें साहबसे कहा आपने समाजकी खूब सेवा की है। और बड़े ही सावधान हैं। उच्च कोटिका साहित्य भी निर्माण किया है। उसके साथ __इन्होंने अपनी क्षुल्लक अवस्थामें जैनसमाजमें गुरुकुल संस्थाको अपना धन भी दे डाला है। अब आप अपनी पद्धति पर शिक्षाका प्रचार किया और कितने ही बी०ए० ओर भी देखिये और कुछ प्रास्म साधनकी ओर अग्रसर एम. ए. शास्त्री, न्यायती योग्य कार्यकर्ता तैयार किये होनेका प्रयत्न कीजिये । मुख्तार साहबने मुनिजीसे कहा हैं। कारंजाका प्रसिद्ध ब्रह्मचर्याश्रम अापकी बदौलत ही कि मेरा प्रारमसाधनकी और लगनेका स्वयं विचार चल इतनी तरक्की करने में समर्थ हो सका है। अब भी यहाँ रहा है और उसमें यथाशक्ति प्रयत्न भी करूंगा। मुनिजी दो घण्टा स्वयं पढ़ाते हैं। गुरुकुलका स्थान सुन्दर गुरुकुलके एक सज्जनने मुख्तार साहबका चित्र भी है। व्यवस्था भी परछी है। प्राशा है गुरुकुल अपने को लिया और दूधका आहार भी दिया हम लोग यहांसे और भी समुन्नत बनाने में समर्थ होगा। उनसे प्रात्म- २१ मील चल कर कोल्हापुरमें दि० जैन बोर्डिङ्ग कल्याण सम्बन्धि चर्चा हुई। मुनिजीने श्रीमुख्तार हाउस में ठहरे । क्रमशः परमानन्द जैन शास्त्री हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान (श्रीकुमारी किरणवाला जैन) किसी पदार्थके यथार्थ स्वरूपको अथवा सारको तत्त्व पीड़ित होने पर जब वह वैद्यके समीप जाता है तब वैद्य कहते हैं। उनकी संख्या सात है। उनमें जीव और अजीव रोगीको परीक्षा करनेके पश्चात् बताता है कि तू वास्तव में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व प्रधान हैं। इन्हीं दो तत्वोंके तो रोगी नहीं है, परन्तु निम्नकारणोंसे तेरे यह रोग उत्पन्न सम्मिश्रणसे अन्य तत्वोंकी सृष्टि होती है। संसारका सारा हुआ है। तेरा रोग ठीक हो सकता है परन्तु तुझे मेरे कहे परिणाम अथवा परिणमन इन्हीं दो तत्वोंका विस्तृत रूप अनुसार प्रयत्न करना पड़ेगा, तो इस रोगसे तेरा छुटकारा हो है। इन तत्वोंको जैनसिद्धान्तमें प्रात्माका हितकारी बताया सकेगा अन्यथा नहीं। वैद्य रोगीको रोगका निदान बतलानेगया है और उन्हीं को जैनसिद्धान्तमें 'तत्त्व संज्ञा'प्रदान की गई के बाद उससे छुटकारा पानेका उपाय बतलाता है, उसके है। श्रात्माका वास्तविक स्वभाव शुद्ध है; परन्तु वर्तमान बाद रोगकी वृद्धि न होने के लिये उपचार करता है। संसार अवस्था पाप पुण्य रूपी कर्मोंसे मलिन हो रही हैं। जिससे रोगी रोगसे मुक्त हो सके। . जैनतीर्थकरोंके कथनानुसार प्रत्माका पूर्ण हित, स्वाधीनता- इसी प्रकार मलिन वस्त्रको स्वच्छ करनेके पूर्व वस्त्र का नाम है जिसमें प्रारमाके स्वाभाविक सर्वगुण और उसकी मलिनताकै कारणा-का जानना आवश् विकसित हो जायें, तथा वह सर्व कर्मकी मलिनतासे मुक्त वस्त्र मलिन कैसे हुआ ? और किस प्रकार वस्त्रकी मलिहो जाय-छूट जाय । उस अन्तिम अवस्थाको प्राप्त होना ही नताको दूर किया जा सकता है जो व्यक्ति अनेक प्रयोगोंके मुकि है। पारमाके पूर्ण मुक्त हो जाने पर उसे परमात्मा द्वारा उसकी मलिनताको दूर करनेका प्रयत्न करता है वही कहा जाता है। उसीको सिद्ध भी कहते हैं । मुक्त अवस्था- मलिन वस्त्रको धोकर स्वच्छ कर लेता है। वस्तुकी मलिमें परमात्मा सदा अपने स्वभावमें मग्न होकर चिदानन्दका नताको दूर करनेका यही क्रम है अनेक प्रयोगोंके द्वारा उसे भोग करता है। जैनाचार्यों के अनुसार इसी मुख्य उद्देश्य- शुद्ध एवं स्वच्छ बनाया जासकता है। इसी प्रकार जैनाका निष्पक्षभावसे विचार ही तत्वज्ञान है। इन तत्त्वों द्वारा चार्योंने आत्माको शुद्ध करनेकी प्रक्रिया, खानसे निकाले बताया गया है कि यह मारमा वास्तव में तो शुद्ध है, परन्तु गए सुवर्णपाषाणको घर्षण छेदन ताडन-तापनादि प्रयोगोंके बहसमस्त कर्मकालिमाके सर्वथा वियोगसे होता है इसका द्वारा अन्तर्वाझमलसे शुद्ध करनेके समान बतलाई है। कायों में विस्तृत विवेचन किया गया है जैसे रोगी रोगसे उसी तरह भात्माको भी पन्तबझिमनसे मुक करनेके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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