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कर्मावशेषप्रतिवद्ध हेतोः, सनि नापो महात्मा । विमुश्य देई मुनि (सुवि) शुद्धलेश्वः
- आराधयन्त (नान्त) भगवाञ्जगाम । यथैव वीर प्रविधाय राज्यं,
ताश्च संयम मांचचार ।
तथैव निर्वाण फज्ञावसानी (नं)
लोक (क) प्रतिष्ठां (प्रतस्थौ ) सुरलोकमुनि || विक्रमकी १२वीं शताब्दीके विद्वान भट्टारक उपय कीर्तिने अपनी 'निर्वाणमन्ति में निर्वाण स्थानोंका वर्णन करते हुए उक्त निर्वाणभूमिको तारापुर ही बतलाया सारंगा नहीं, जैसा कि उसके निम्न पचसे स्पष्ट है :'तारापुर बंद विरेंदु, आठ कोडकिड सिद्ध संगु "
अनेकान्त
इन सब समुल्लेखों परसे भी मेरे उस अभिमतकी पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में उक्त 'तार उर' या तारापुर तारंगा नहीं कहा जा सकता । निर्वाणकाण्डकी उस गाथाका क्या आधार है ? और उसकी पुष्टिमें क्या कुछ ऐति हासिक तथ्य है यह कुछ समझ में नहीं आया। यहां दो दिगम्बर मन्दिर है, जिनमेंसे एक सम्बत् १६३१ का बनाया हुआ है और दूसरा सं० १६२३ का। इससे पूर्व वहां कितने मन्दिर थे, यह वृत्त अभी अज्ञात है । तारंगासे अहमदाबाद वापिस आकर हम लोग 'पावागढ़ के लिए रवाना हुए। यहाँ आकर धर्मशाला में उदरने को थोड़ी सी जगह मिल गई। पावागढ़की अन्य धर्मशालाओं में जलतपुर आदि स्थानोंके यात्री ठहरे हुए थे।
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पावागढ़ एक पहाड़ी स्थान है। यहाँ एक विशाल किल्ला है । और यह ऐतिहासिक स्थान भी रहा है। धर्मशाला के पास ही नीचे मन्दिर है । शिलालेखोंमें इसका 'पावकगढ़' नामसे उलेख मिलता है चन्दकविने पृथ्वीराजरासे' में पावकगढ़के राजा रामगौड़ तुधार या तोमरका उल्लेख किया है । सन् १३०० में उस पर चौहानराजपूतोंका अधि कार हो गया था, जो मेवाड़के रणथंभोर से सन् १२३३ या १३०० में भाग कर आये थे । सन् १४८४ में सुलतान महमूद बेगढ़ने चढ़ाई की, तब जयसिंहने वीरता दिखाई,
सन्धि हो गई। उसके बाद सन् १९३५ में मुगलबादशाह हुमायूने पावकगढ़ पर कब्जा कर लिया फिर * देखो अकबर नामा ।
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किरण ६
सन् १०३० में कृष्णजीने उसे अपने अधिकार ले लिया। तथा सन् १६१ अथवा १७७० में सिंधियाने कब्जा कर लिया। उसके बाद सन् १८२० [वि० सं० १३१०] में अंग्रेज सरकार ने उसे अपने अधीनकर लिया। इस पहाड़ के नीचे उत्तर पूर्व की ओर राजशू चाँपानेर के खण्डहर देखने योग्य है और दक्षिणको घोर अनेक गुफाएँ हैं जिनमें कुछ समय पूर्व हिन्दु साधु रहा करते ये पहाड़ पर तीन मोजकी चढ़ाई और उतनी हो उतराई है।
पावागढ़ के नीचे चांपानेर नामका नगर बसा हुआ था जिसे अनहिल बाड़ाके वनराज के राज्य में ( ७४६ - ८०६ एक चंपा बनियेने बसाया था । सन् ५३६ तक यह गुजरातकी राजधानी रहा है ।
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पहाड़ के ऊपर कुछ मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं। छटवें फाटकके बाहरकी भीतमें डेढ़ फीट के करीब ऊंचाईको लिये हुए एक पद्मासन दिगम्बर जैन प्रतिमा उत्कीर्ण है जिसके नीचे सं० ११३४ अँकित हैं। ऊपर चढ़ने पर रास्तेसे बगल में नीचेको उत्तरके दो कमरे बने हुए है। उसके बाद ८३ सीढ़ी नीचे जाकर मांचीका दरवाजा श्राता है वहाँ एक छोटा सा मकान पहरे वालोंके ठहरनेके लिए बना हुआ प्रतीत होता है। ऊपर जीर्ण मन्दिरोंके जो भग्नावशेष पड़े हैं उन्हीं में से ३-४ मन्दिरोंका जीर्णोद्वार किया गया है। मन्दिरोंमें विशेष प्राचीन मूर्तियों मेरे द लोकनमें नहीं आईं। विक्रमकी १६ वी १७ वीं शताब्दी से पूर्वकी कोई मूर्ति उनमें नहीं हैं। एक मूर्ति भगवान पार्श्वनाथकी सं० १९४८ की भट्टारक जिनचन्द और जीवराजपापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान है उपलब्ध मूर्तियोंमें प्रायः सभी मूर्तियाँ मूलसंघ बलाकारगण के भट्टारक गुणकीतिक पहचर यि भ० यदिभूषण द्वारा प्रतिष्ठित स० १६४२, १६०२ और १६६२ की है। भगवान महावीरकी एक मूर्ति सं० १६६६ की भ० सुमतिकीर्तिके द्वारा प्रतिष्ठित मौजूद है ।
ऊपर के इस सब विवेचन परसे यह स्थान विक्रमकी ११ वी १२ वीं शताब्दीसे पुराना प्रतीत नहीं होता। हो सकता है कि वह इससे भी पुरातन रहा हो। यहाँ संभवतः डेढ़ सौ वर्षके करीबका बना हुआ काखीका एक मन्दिर भी है। सीढ़ियोंके दोनों ओर कुछ जैन मूर्तियां लगी हुई
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