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किरण 1
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
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है। युधिष्ठिर भीम और अर्जुन इन तीन पाण्डवोंने तथा लोग सोनगढ़ पाए। और वहांसे पुनः अहमदाबाद अनेक ऋषियोंने शत्र जयसे मुक्तिलाभ किया है। गुजरा- आकर पूर्णोक्त प्रेमचन्द्र मोतोचन्द्र दिल्जैन बोडिङ्ग हाउसतके राजा कुमारपालके समपमें इस क्षेत्र पर लाखों रुपए में ठहरे । अगले दिन संघ रेलवेसे तारगाके लिये रवाना लगाकर मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया गया था, तथा नूतन
हुआ। क्योंकि तारंगाका रास्ता रेतीला अधिक होनेसे मन्दिरोंका निर्माण भी हुआ है। कुछ मन्दिर विक्रमकी
लारीके फंस जानेका खतरा था। जयपुर वालोंको लारियाँ ११-१२ वीं शताब्दीके बने हुए हैं और शेष मन्दिर १५
धंस गई थीं, इस कारण उन्हें परेशानी उठानी पड़ी थी। वीं शताब्दीके बादमें बनाए गए हैं। यहाँ श्वेताम्बर सम्प्र
अत परेशानीसे बचनेके लिये रेलसे जाना ही श्रेयस्कर दायके सहस्र मन्दिर हैं। इन मन्दिरोंमें कई मन्दिर समझा गया । कलापूर्ण हैं। इनमें जो मूर्तियाँ विराजमान हैं उनकी उस इस क्षेत्रका तारंगा नाम कब और कैसे पड़ा? यह कुछ प्रशान्त मूर्ति कलामें सरागता एवं गृही जीवन जैसा रूप ज्ञात नहीं होता । इसकी प्राचीनताके द्योतक ऐतिहासिक नजर आने लगा है-वे चांदो-सोने आदिके अलं- प्रमाण भी मेरे देखने में नहीं पाए । मूर्तियाँ भी विशेष कारों और वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं-नेत्रों में कांच पुरानो नहीं हैं। निर्वाणकाण्डकी निम्न प्राकृत गाथामें जड़ा हुआ है। जिससे दर्शकके हृदयमें वह 'तारवरणयरे' पाठ पाया जाता है जिसका अर्थ 'ताराविकृत एवं अलंकृतरूप भयकर और प्रात्म दर्शनमें पुर' नामका नगर होना चाहिये । परन्तु उसका तारंगारूप बाधक तो है ही, साथही, मूर्तिकलाके उस प्राचीन उद्द- कैसे बन गया? यह अवश्य विचारणीय है। श्यके प्रतिकूल भी है जिसमें वीतरागताके पूजनका उपदेश वरदत्तोयवरगो सायरदत्तो य तारवरणयरे गणियडे] । प्रन्थों में निहित है। जैन मूर्तिकलाका यह विकृत रूप किसी
आहुट्ठ न कोड आ णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥ तरह भी उपादेय नहीं हो सकता, यह सब सम्प्रदायके न्यामोहका परिणाम जान पड़ता है।
- इस गाथामें तारापुरके निकटवर्ती स्थानसे वरांग,
सागरदत्त, वरदत्तादि साढ़े तीन करोड़ मुनियोंका निर्वाण उक्त श्वेताम्बर मन्दिरोंके मध्यमें एक छोटासा दिग
होना बतलाया गया है । इसमें जो यहाँ वरांग वरदत्त और म्बर मन्दिर विद्यमान है. जो पुरातन होते हुए भी उसमें
सागरदत्तका निर्वाण बतलाया, वह ठीक नहीं है; क्योंकि नूतन संस्कार किया गया प्रतीत होता है। परन्तु मूर्तियाँ
वरांग मोक्ष नहीं गया और वरदत्तका निर्वाण अवश्य १७ वीं शताब्दीके मध्यवर्ती समयकी प्रतिष्ठित हुई विरा
हुआ है पर वह प्रानर्तपुर देशके मणिमान पर्वत पर जमान हैं। मूलनायककी मूर्ति सं० १६४१ की है। एक मति सं० १६६१ की भी है और अवशिष्ट मूर्तियाँ सं० १८
हुआ है तारापुर या तारपुरमें नहीं। तथा सागरदत्तके ६३ की विद्यमान हैं। मूल नायककी मूर्ति विशाल और
निर्वाणका कोई उल्लेख अन्यत्र मेरे देखने में नहीं पाया।
वरांगके स्वर्गमें जानेका जो उल्लेख है-वह उसी मणिमान चित्ताकर्षक हैं। ये सब मूर्तियाँ हमडवंशी दिगम्बर जैनों
पर्वतसे शरीर छोड़कर सर्वार्थ सिद्धि गए। जैसाकि जटासिंहके द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं। मन्दिरका स्थान अच्छा है।
। नन्दीके ३१वें सर्गके वरांगचरितके निम्न पद्यसे प्रकट हैं। पूजनादिकी भी व्यवस्था है। पहाड़ पर चढ़नेके लिए नूतन सीढ़ियोंका निर्माण हो गया है जिससे यात्री विना
कृत्वा कषायोपशमं क्षणेन किसी कष्टके यात्रा कर सकता है।
ध्यानं, तथाद्य समवाप्य शुक्लम् । पहाड़के नीचे भी दर्शनीय श्वेताम्बर मन्दिर हैं उन
यथापशान्तिप्रभवं महात्मा सबमें सागरानन्द सूरि द्वारा निर्मित आगम मन्दिर है, स्थान समं प्राप वियोगकाले ॥१०५ ' जिसमें श्वेताम्बरोय भागम-सूत्र संगमर्मरके पाषाण ® महाभारत और भागवतमें पानत देशका उल्लेख पर उत्कीर्ण किए गये हैं। उनमें अंग उपांग भी खोदे गए किया गया है और वहाँ द्वारकाको श्रानत देशमें है। पालीतानामें ठहरनेके लिए धर्मशाला बनी हुई बतलाया है। है। जिसमें यात्रियोंको ठहरनेकी सुविधा है । द्वारकाके पासवर्ती देशको भी प्रानर्तदेश कहा गया है। शहरमें मी दिगम्बर मन्दिर हैं। पालीतानासे हम
देखो पद्मचन्द्र कोष पृ० ८७
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